[किसान आंदोलन] बिगुल मंडली के साथ स्‍पष्‍ट होते हमारे मतभेदों का सार : यथार्थ

संपादक मंडल, यथार्थ

यह लेख किसान आंदोलन पर आह्वान पत्रिका (बिगुल) के साथ हमारी जारी बहस के बीच उसके सार के रूप में तैयार किया गया है, जो मूलतः ‘यथार्थ’ पत्रिका (वर्ष 2, अंक 1 | मई 2021) में प्रकाशित हुआ है। इसे प्रकाशित करने के पीछे हमारा लक्ष्य है कि लंबी खिचती इस बहस में, जिसमें सैद्धांतिक पहलु भी व्याप्त हैं, बहस के मुख्य मुद्दे पाठकों की नज़र और समझ में बने रहें।

किसान आंदोलन पर ‘यथार्थ’ व ‘द ट्रुथ’ पत्रिकाओं में छपे सभी लेखों, और इसके साथ ‘आह्वान’ में छपी हमारी आलोचना, की लिंक लेख के अंत में मौजूद हैं पाठक उनके ज़रिए इन लेखों को पढ़ हमारी समझ पर विचार कर सकते हैं, अपना विचार बना सकते हैं और हमसे संवाद स्‍थापित कर सकते हैं।


कॉर्पोरेट फार्मिंग को निर्णायक तौर से कृषि में आगे बढ़ाने तथा स्‍थापित करने के मोदी सरकार के बलात प्रयासों के विरुद्ध जारी किसान आंदोलन के छह महीने पूरे होने वाले हैं। कोविद की दूसरी लहर के बाद आंदोलन के समक्ष मुश्किलें बढ़ी हैं और इसे तीव्र करने व फैलाने के लिए किसान कमिटियों, मजदूर ट्रेड यूनियनों तथा अन्‍य संगठनों द्वारा लिये गये बहुत सारे निर्णयों (जैसे कि दिल्‍ली की सीमाओं से संसद तक संयुक्‍त मार्च का फैसला) का क्रियान्‍वयन रूका पड़ा है। लेकिन फिर भी इसे पूरी तरह खत्‍म होने की उम्‍मीद किये बैठे लोगों के मंसूबे पूरे होंगे इसमें संदेह है। व्‍यापक ग्रामीण आबादी, खासकर गरीब व मध्‍यम किसानों के जीवन पर मंडराता संकट, जो पूंजीवाद के आम संकट से जुड़ा है और धनी किसानों के एक हिस्‍से[1] तक जा पहुंचा है, काफी गहरा है। इसलिए आंदोलन के पूरी तरह खत्‍म होने की संभावना के विपरीत संभवत: कोविड महामारी के टलते ही इसके एक बार फिर से तेज होने की संभावना अधिक है। फिर भी अगर मान लिया जाए कि किसान आंदोलन आज किसी अप्रत्‍याशित कारण से पूरी तरह खत्‍म हो जाता है, तो भी इसके फिर से शुरू होने के पर्याप्त भौतिक कारण मौजूद हैं और उसमें सबसे प्रमुख कारण वैश्विक पूंजीवाद के आम संकट का, और इसलिए क‍ृषि संकट का भी, जो कृषि मालों के अतिउत्‍पादन के लगभग स्‍थायी संकट के रूप में लगातार प्रकट हो रहा है, निरंतर गहराते जाना है। सभी मुख्‍य फसलों में अतिउत्‍पादन का यह संकट देखा जा सकता है, जबकि देश की एक बहुत बड़ी आबादी भुखमरी और कुपोषण से भयंकर रूप से पीड़ि‍त है।       

भारतीय कृषि में पूंजीवादी संबंधों के विकास और उसकी परिपक्‍वता का एक लंबा दौर गुजर चुका है और इसलिए मौजूदा कृषि संकट इसके (भारतीय पूंजीवादी कृषि के) अति परिपक्‍व होने का परिणाम है। यानी, भारतीय कृषि में विस्‍तारित उत्‍पादन और पूंजी के संकेंद्रण व केंद्रीकरण का एक अत्‍यंत लंबा, लगभग चार दशकों का एक लंबा दौर गुजर चुका है जिसके ही परिणामस्‍वरूप एक तीखा कृषि संकट पिछले कई वर्षों से ‘अतिउत्‍पादन के संकट’ के बतौर लगातार उपस्थित है। पूंजी का केंद्रीकरण एक स्‍तर तक पहुंचने के बाद लगातर एक के बाद एक दूसरी मंजिल में प्रवेश करते हुए आज कॉर्पोरेट यानी बड़ी एकाधिकारी पूंजी की इसमें निर्णायक दखल तक पहुंच गया है जिसका परिणाम निस्‍संदेह गरीब (छोटे व सीमांत) किसानों सहित मध्‍यवर्गीय किसानों का एक-एक कर कृषि से बलात निष्‍कासन होगा।

सवाल यह है कि जब भारतीय कृ‍षि पहले ही कृषि मालों के अतिउत्‍पादन के एक स्‍थायी संकट से जूझ रहा है, तो यहां बड़ी पूंजी क्‍यों आना चाहती है? भंडारण और थोड़े बहुत आधारभूत संरचना (सड़क आदि) के क्षेत्र में निवेश के अतिरिक्‍त यहां अन्‍य किस तरह के निवेश की संभावना और इसकी भौतिक परिस्थि‍ति किस रूप में मौजूद है इसकी खोज आवश्‍यक है। यही सबसे बड़ा सवाल है। संकट की तीव्रता और गहराई को देखते हुए क्‍या हम विस्‍तारित उत्‍पादन के लिए स्थिर पूंजी में और अधिक निवेश की संभावना देखते हैं? कृषि ही नहीं पूरी अर्थव्‍यवस्‍था, जिसकी मूल दिशा पूरे विश्‍व की तरह भारत में भी मालों व पूंजी के वित्‍तीयकरण की तरफ़ मुड़ गयी है, को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि बड़ी पूंजी कृषि क्षेत्र में एकमात्र नहीं भी तो मूलत: इसी उद्देश्‍य से कुंलाचें मारते हुए आ रही है, न कि विस्‍तारित उत्‍पादन में निवेश करने के लिए। बहस के अन्‍य पक्षों को छोड़ दें तो बिगुल मंडली और हमारे बीच की बहस में मतभेदों का सार ठीक-ठीक यहीं पर स्थित है। बिगुल मंडली मानती है कि बड़ी पूंजी भारतीय कृषि में विस्‍तारित उत्‍पादन करेगी। इस क्षेत्र में स्‍वस्‍थ पूंजी संचय की स्थिति मौजूद है और इसलिए उत्‍पादक शक्तियों का विकास भी होगा। जाहिर है, यह मंडली मानती है कि बड़ी पूंजी की नये कृषि कानून के माध्‍यम से कृषि क्षेत्र पर होने वाली चढ़ाई मूलत: ग्रामीण गरीबों व मजदूरों के पक्ष में परिणाम देगी । यही कारण है कि इससे अन्‍य सभी पक्षों पर भी हमारी और इनकी अवस्‍थि‍ति पूरी तरह अलग-अलग हैं और हम दोनों अलग-अलग दो ध्रुव की तरह हैं। हमारा यह निष्‍कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि बड़ी एकाधिकरी पूंजी, जो पूर्व से ही भारतीय कृषि में टुकड़ों में प्रवेश करती रही है, का लक्ष्‍य कृषि क्षेत्र में अब तक हुए विकास पर कब्‍जा करना तथा अनाज व्‍यापार पर पूरी तरह कब्‍जा करना है। कृषि कानूनों में अंतर्निहि‍त प्रावधानों की खास तरह से की गई लामबंदी के द्वारा इसका ढांचा पूरी तरह कॉर्पोरेट के पक्ष में तैयार किया गया है। लेकिन जो भी प्रावधान हैं और इसके साथ-साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली तथा एफसीआई को खत्‍म करने को लेकर जो भी कदम सरकार के द्वारा उठाये जा रहे हैं वे सभी की सभी कृषि मालों पर बड़ी पूंजी की इजारेदारी कायम करने की ओर लक्षित हैं। कांट्रैक्‍ट खेती के प्रावधानों को देखें, तो साफ दिखेगा कि इसमें कॉर्पोरट का पूरी तरह वर्चस्‍व है जो कांट्रैक्‍ट खेती के जरिए विस्‍तारित उत्‍पादन के लक्ष्‍य को नहीं किसानों सहित उनके उत्‍पादों पर कॉर्पोरट के कब्‍जे को सुनिश्चित करता है और उसी ओर प्रेरित है। आर्थिक संकट की व्‍यापकता, गहराई और इसकी दीर्घजीवि‍ता को देखते हुए यही संभव भी था। विस्‍तारित उत्‍पादन की बात करना स्‍वयं को और दूसरों को धोखे में रखना होगा। अर्थव्‍यवस्‍था में वित्‍तीयकरण की तेज होती प्रवृत्ति इसे तेजी से सड़न व मरणासन्‍नता की ओर ले जाएगी। ऐसे में जो भी पूंजी व उत्‍पादन क्षमता है उसका वित्‍तीयकरण कर उसको पूरी तरह निचोड़ना ही बड़ी पूंजी का कृषि में आज लक्ष्‍य हो सकता है। इसकी मूल प्रवृत्ति निस्‍संदेह विनाश व सड़न है जैसा कि लेनिन ने कहा व दिखाया था। आज की भारतीय पूंजीवादी कृषि में किसी भी बहाने से बड़ी पूंजी की प्रगतिशील भूमिका देखना खुद को बड़ी पूंजी के पाले में रखना होगा।   

भारतीय कृषि में पूंजीवादी विकास की एक हद से अधिक तक की परिपक्‍वता ने (हम ये सारी बातें प्रवृत्ति के रूप में ही कह रहे हैं न कि एक स्थिर व तयशुदा तथ्‍य के रूप में) पहले ही आर्थिक संकट की जद में गरीब किसानों और मध्‍यम किसानों के अतिरिक्‍त धनी किसानों के एक हिस्‍से को ले लिया था। कृषि कानूनों ने बड़ी पूंजी के खतरे को किसानों के समक्ष न सिर्फ मूर्त रूप में प्रकट कर दिया है अपितु उसे ठीक उसके सामने ला खड़ा किया। क्‍योंकि यह कृषि संकट पूंजीवाद के आम संकट से नाभिनालबद्ध है और इसकी जड़ें परिपक्‍व हो चुकी पूंजीवादी कृषि के एक खास प्रतिक्रियावादी मुकाम हासिल कर लेने से जुड़ी हैं, इसलिए इस दौर का किसान आंदोलन आम तौर पर बड़ी पूंजी के समक्ष गरीब किसानों तथा मध्‍यम किसानों के अस्तित्‍व बचाने के प्रश्‍न को उजागर किये बिना नहीं रह सकता है। कोई भी व्‍यापक हिस्‍सेदारी वाला किसान आंदोलन इन गरीब व मध्‍यवर्गीय किसानों की अस्तित्‍व रक्षा की आकांक्षाओं को प्रकट किये बिना नहीं रह सकता है। इसलिए अगर इनकी व्‍यापक व स्‍वयंस्‍फूर्त भागीदारी वाले किसान आंदोलन का नेतृत्‍व अगर धनी किसानों के हाथों में होगा तब भी इनकी जिंदगी के मुद्दे प्रभावी बने रहेंगे। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि संकट ने स्‍वयं धनी किसानों के एक हिस्‍से के दरवाजे पर जोर की दस्‍तक दी है। यह बात उनके बीच भी गहरे पैठ बनाती जा रही है कि बड़ी पूंजी उनकी भी तबाही का कारण बनने वाली है। ऐसी स्थिति में ऐसा आंदेालन जब भी बुर्जुआ राज्‍य के साथ अत्‍यंत तीखे टकराव में जाएगा, पूंजीवाद विरोधी रूख ले सकता है। एक बार परास्‍त होने के बाद संकट की मार की तीव्रता और बढ़ेगी क्‍योंकि बड़ी पूंजी और उसकी सेवा में लगा बुर्जुआ राज्‍य और ज्‍यादा हमला करेंगे। इसलिए यह जितनी बार उठ खड़ा होगा तथा हर बार जितनी अधिक तीव्रता से लड़कर परास्‍त होगा, वह अगली बार उतना ही अधिक पूंजीवाद विरोधी अंतर्य से लैस होता जाएगा और अगर भविष्‍य में मजदूर वर्ग का कोई मजबूत केंद्र इसमें ठोस तरीके से हस्‍तक्षेप करेगा, तो इसकी पूरी संभावना है कि मजदूर वर्ग व्‍यापक मेहनतकश किसान आबादी को अत्‍यंत तेजी के साथ और द्रुत परिणामों के साथ यानी सवर्हारा राज्‍य की जीत की ओर बढ़ने की संभावना के साथ समाजवादी कृषि कार्यक्रम (न कि जनवादी कार्यक्रम पर) पर सहमत करने में सफल हो पाएगा।

यह आंदोलन इसकी संभावना से इसलिए परिपूर्ण है, क्‍योंकि पूंजीवाद के आम स्‍थायी संकट के साये में भारतीय पूंजीवादी कृषि का संकट इतना तीखा हो चला है कि धनी किसानों का एक हिस्‍सा भी इसकी मार की जद में आ चुका है। इसका अर्थ यह है कि पूंजीपति वर्ग के फ्रंट में दरार आ चुका है, इसके सहयोगि‍यों के बीच अफरातफरी मची है और बड़ी पूंजी, जो मजदूर वर्ग का मुख्‍य दुश्‍मन और इसलिए प्रधान निशाना है, को सहयोगियों की कमी पड़ने वाली है। जाहिर है, अगर मजदूर वर्ग की बाकी तैयारियां हों तो वह मौजूदा विकट व संकटपूर्ण परिस्थितियों के बीच इस आंदोलन ने जो एक नये किस्‍म का उभार पैदा किया है उसका भरपूर उपयोग मजदूर वर्ग अपने संश्रयकारी वर्गों (ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसान) की चेतना को एकमात्र तात्‍कालिक मांगों के इर्द-गिर्द ही नहीं, अपितु पूंजीवाद को पलटने तथा सर्वहारा राज्‍य बनाने की चेतना से तत्‍काल लैस कर सकता है और इस आधार पर इस आंदोलन में ही नहीं आगामी किसान आंदोलनों में भी उसे एक वास्‍तविक शक्ति में बदल दे सकता है। क्रांतिकारी बदलाव की ओर इस तरह तेजी से आगे बढ़ने की यह संभावना संकट के स्‍थायी तथा दीर्घजीवी चरित्र को देखते हुए लंबे समय तक बनी रहने वाली है और इसीलिए हमारे लिए भी इस बीच संगठन व आंदोलन की चुनौतियों से निपटने के लिए जरूरी तैयारियां पूरा कर लेने का वक्‍त उपलब्‍ध रहेगा। 

पूरे देश में पिछले कुछ सालों से जिस तरह बड़ी पूंजी के सहयोगियों के बीच दरार पैदा होती जा रही है वह किसी भी मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी समूह के लिए ध्‍यान देने वाली चीज है। हमें इस पर भी उचित रूप से ध्‍यान केंद्रित करना चाहिए कि इसे मौजूदा कोविद संकट की दूसरी खतरनाक लहर ने इतना अधिक प्रभावित किया है कि शहरी मध्‍य वर्ग जैसा विश्‍वासघाती वर्ग के बारे में भी यह कहा जाने लगा है कि ”उसके होश ठिकाने आ चुके हैं।” ऐसे में, हम समझ सकते हैं कि परिस्थितियों का रूख किस ओर है। हम यह पहले से नहीं जानते हैं कि यह कब विस्‍फोटक रूप लेगा और चारों तरफ फैली दरारों में कब गर्म लावा के झरनें फूट पड़ेंगे। धनी किसानों से लेकर शहरी मध्‍य वर्ग तक का (शासकवर्गीय व पूंजीपक्षीय) नैतिक बल कमजोर हुआ है। इन सबकी हेकड़ी चूर हुई है। इसका सीधा अर्थ है कि मजदूर वर्ग की ताकतों के लिए, पूंजीवाद के आम संकट की सार्विक रूप से बढ़ती गहराई तथा व्‍यापकता के मद्देनजर, क्रांतिकारी राजनीति को पूरी ताकत से आगे आने का यह सबसे अनुकूल समय है। इसका अर्थ यह है कि हमें साफ-साफ यह कहना चाहिए कि चाहे शहरी मध्‍य वर्ग हो, ग्रामीण मध्‍य व धनी किसान वर्ग हो, या फिर छोटी व मंझोली पूंजि‍यों के रूप में कोई भी अन्‍य दरमियानी वर्ग हो, हमारे लिए यह साफ-साफ कहने और भंडाफोड़ अभियान चलाने का वक्‍त है कि बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के वचर्स्‍व वाले आधुनिक पूंजीवादी राज्‍य में उनका भी कोई भविष्‍य नहीं है, और इसीलिए उनके जीवन का भी कोई सार सुरक्षित नहीं है। उनका विखंडन एवं विनाश अवश्‍यंभावी है और मौजूदा परिस्थिति में एकमात्र यही मांग सर्वोपरि मांग हो सकती है कि समस्‍त वर्गों को सर्वहारा वर्ग और उसकी संश्रयकारी वर्ग शक्तियों के अधीन आ जाना चाहिए तथा एकमात्र भावी सर्वहारा राज्‍य ही मानवजाति के सार को पूंजी के आखेट से बचा सकता है।

ऐसा कहते हुए हमें या किसी को भी इस बात का ऐसा बेहुदा भ्रम नहीं है या नहीं होना चाहिए कि मध्‍य और धनी तबका संकट में है और सर्वहारा वर्ग का संश्रयकारी है और बन सकता है। उपरोक्‍त बातों से हमारा तात्‍पर्य, सर्वहारावर्गीय राजनीति को आगे बढ़ाने के लिहाज से सबसे अनुकूल अवसर के मौजूदा सूरतेहाल में सर्वहारा वर्ग को मानवजाति का एकमात्र मुक्तिदाता बताना है, सर्वहारा वर्ग की राजनीति व पूर्ण वैचारिकी को मानवजाति की रक्षा के लिए अपरिहार्य साबित करना है। इसका दूसरा पहलू यह है कि पूंजी के फ्रंट में आये दरार को चैाड़ा करने, इसे पाटने की पूंजीवादि‍यों की कोशिशों को नाकाम करना तथा उनके नैतिक बल को और भी धराशाई करते हुए उनके बीच मची अफरातफरी को भगदड़ में बदलना आज के हमारे राजनीतिक-वैचारिक भंडाफोड़ अभियान चलाने के दायित्‍व की केंद्रीय दिशा होनी चाहि‍ए।

हमें यह भी मालूम है कि मजदूर वर्ग जब तक इसके लिए तैयार नहीं है, तब तक हमारी ये बातें महज कल्‍पना ही साबित होंगी। लेकिन सवाल है, क्‍या इस बात से बस निराश होने का वक्‍त है या फिर इसके लिए चौतरफा कोशि‍श भी करनी चाहिए?                                        

पाठक जानते हैं कि ठीक इन्‍हीं विषयों को केंद्र में रखते हुए एक तरफ स्‍वघोषित ”मार्क्‍सवादी चिंतक” की बिगुल मंडली तथा दूसरी तरफ ‘द ट्रुथ’ व ‘यथार्थ’ तथा पीआरसी के बीच एक बहस जारी है, हालांकि इसके चार दौर पूरे हो चुके हैं। यह बहस जारी है, लेकिन जितनी हुई उससे बि‍गुल मंडली से हमारे मतभेद साफ और स्‍पष्‍ट हो चुके हैं और जो बाकी हैं वे भी अगले चरण की बहसों में स्‍पष्‍ट हो जाएंगे। जाहिर है  हमारी समझ (जारी किसान आंदोलन के संदर्भ में) उत्‍तरोत्‍तर विकसित होती गई है तथा इस खास किसान आंदोलन में मजदूर वर्गीय हस्‍तक्षेप करने के रणनीतिक तथा कार्यनीतिक पहलुओं को लेकर हम पहले से ज्‍यादा स्‍पष्‍ट और आश्‍वस्‍त हुए हैं। ‘द ट्रुथ’ और ‘यथार्थ’ में छपे तमाम लेखों को देखें, तो कोई भी हमारी समझ के इस विकास के क्रम को देख सकता है।

इस अंक के लिए बिगुल मंडली की अभिनव पैंतरेबाजियों का जवाब लिखते हुए हम यह महसूस कर रहे हैं कि चार दौरों की बहस के बाद इसका सार संकलन किया जाना चाहिए। इससे न सिर्फ पाठकों को फायदा होगा (जिन पर हमने लंबे-लंबे लेख लिख कर बहुत ‘जुल्‍म’ किए हैं, हालांकि इससे बचने का उपाय हमारे चाहने के बाद भी नहीं निकल सका), अपितु स्‍वयं हमें भी जारी बहस को आगे सही दिशा में ले जाने और इसके साथ ही जारी आंदोलन में हमारे हस्‍तक्षेप करने के लक्ष्‍यों को जमीनी तौर पर लागू करने के तरीकों के बारे में और भी स्‍पष्‍टता हासिल होगी। हालांकि पूर्ण रूप से ऐसा करना न तो अभी संभव है, न ही उचित। 

हमारा विश्‍वास है और हम इस बात में यकीन रखते हैं कि पूंजीवादी खेती के इतने लंबे दौर के बीतने के फलस्‍वरूप गरीब किसानों तथा एक हद तक व्‍यापक मध्‍य किसानों की तबाही हो चुकने के बाद धनी किसानों की भी एक परत की टूटती व डावांडोल होती आर्थिक स्थिति‍ की संभावना मनमोहन सरकार की दूसरी पारी के खत्‍म होते-होते प्रकट हो चुकी थी। केंद्र में मोदी के सत्‍तारूढ़ होने के कई सफल कारणों व कारकों में से एक आम व्‍यापक किसानों के बीच फैला यह विश्‍वास भी था कि अगर मोदी, जिसे बड़े वायदे करने में महारथ हासि‍ल है, प्रधानमंत्री बनेगा तो वह किसानों के ऊपर मंडराते संकट को दूर कर देगा। लेकिन आज स्थिति इसके उलट है। जब मोदी सरकार द्वारा कॉर्पोरेट को कृषि में पूरी तरह आरूढ़ करने के निमित्‍त नये (तीन) कृषि कानून लाये गये, तो पहले से फैले निराशा और अवसाद का आंदोलन के रूप में फूट पड़ना लाजिमी था और वही हुआ। इस आंदोलन के नतीजे चाहे जो भी हों, लेकिन इसने यह साबित कर दिया है कि पूंजीवादी कृषि का शुरू हो रहा यह दूसरा दौर, जिसकी एक तरह से घोषणा कॉर्पोरेट फार्मिंग पक्ष में कृषि कानूनों को इसके पहले चरण के रूप में लागू करके की जा रही है, देहातों में समाजवादी कृषि कार्यक्रम के साथ (न कि जनवादी क्रांति के कार्यक्रम के साथ) क्रांतिकारी किसान आंदोलन की एक पुरजोर नींव रखने के काम आ सकता है और आएगा जिसके मुख्‍य वाहक गरीब किसान और कृषि‍ मजदूर होंगे। लेकिन उसके पहले उन्‍हें धनी किसानों आदि के प्रभाव से मुक्‍त होना या करना होगा। उन्‍हें सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक हितों की न्‍यूनतम चेतना से लैस होना तथा एकबद्ध करना होगा। सवाल है, भविष्‍य के इस लक्ष्‍य को दृष्टि में रखते हुए जारी किसान आंदोलन की क्‍या कोई सकारात्‍मक भूमिका है या कहें इससे कोई सकारात्‍मक भूमिका निकाली जा सकती है?

इस संबंध में हमने अब तक जो बात कही है उससे किसी को मतभेद हो सकता है, लेकिन इस वैचारिक व राजनीतिक दिशा व छोर से मौजूदा जारी किसान आंदोलन में हस्‍तक्षेप करने के बारे में विचार करने की एकमात्र पहल मूलत: पीआरसी और साथ में ‘द ट्रुथ’ और ‘यथार्थ’ ने मिलकर की है। उपरोक्‍त प्रश्‍न का जवाब हमने इस विश्‍लेषण के आधार पर ‘हां’ में दिया है कि यह आंदोलन एक ऐसी बड़ी पूंजी के तात्‍कालिक व दूरगामी विनाशकारी हितों के विरूद्ध जाता है जिसे पूरी तरह उखाड़ फेंकना सर्वहारा समाजवादी क्रांति का मुख्‍य काम है, क्‍योंकि यही वह वर्ग है जो आज ऊपर से नीचे तक शोषण व उत्पीड़न का सबसे प्रतिक्रियावादी स्‍तंभ है। बिगुल मंडली के लिए यह बात इसके बिल्‍कुल उलट है। वह इसे प्रगतिशील मानता है। इसे हम अगर तात्‍कालिक प्रश्‍न के रूप में भी देखते हैं, तो भी बड़ी पूंजी की कृषि में निर्णायक दखल का सीधा तात्‍कालिक अर्थ है – गरीब किसानों (छोटे व सीमांत) किसानों जिनकी आबादी कुल किसानी आबादी का लगभग 86 प्रतिशत है का पूर्ण विनाश की ओर धकेल दिया जाना। इसके बाद ही बड़ी पूंजी की दखल का बुरा असर मध्‍यम किसानों पर पड़ेगा और संपूर्णता में उनके भी उजड़ने की प्रक्रिया तेज होगी। यहां ध्‍यान देने वाली बात यह है कि बिगुल मंडली की समझ इसके ठीक विपरीत यह है कि गरीब किसानों आदि को कृषि कानूनों से यानी बड़ी पूंजी से कोई खतरा नहीं है, उल्‍टे उनको इनसे लाभ हो सकता है। उनका यहां तक मानना है कि कॉर्पोरेट के कृषि मालों के व्‍यापार में इजारेदारी कायम होने से भी मेहनतकशों को ही फायदा होगा। जाहिर है कि बिगुल और हम दो ध्रुव की तरह हैं, जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं। बहस में असाधारण रूप से मौजूद तीखेपन की वजह भी यही है। हालांकि बिगुल मंडली विशिष्‍ट तरह की गालियों और गालियां देने की विशिष्टि तरह की सड़कछाप फेसबुकिया शैली की अपनी विशेषज्ञता को प्रदर्शित किये बिना भी इसे ज्‍यादा से ज्‍यादा तीखा बना सकता था।[2]

बड़ी पूंजी की वर्चस्‍वकारी दखल से प्रभावि‍त होने वाला अन्‍य तबका धनी किसानों का एक तबका भी है जो इस बीच पूरी तरह पूंजीपति वर्ग में तब्‍दील नहीं हो सका या पीछे रह गया है। यही वह तबका है जो कृषि तथा देहातों में बड़ी पूंजी की दखल से सबसे कम और बाद में प्रभावित होगा। एमएसपी के खत्‍म होने की बात है, लेकिन यह तुरंत से हटने वाला नहीं है।

लेकिन मौजूदा दौर की सबसे बड़ी दिक्‍कत यह है कि छोटे व गरीब व मेहनतकश मध्‍यवर्गीय किसान अलग-अलग संगठित नहीं हैं, इ‍सलिए आंदोलन में गरीब व मेहनतकश किसान अन्‍यों से अलग एक खास राजनीतिक प्रवृत्ति के बतौर इसमें उपस्थित नहीं है। इसलिए किसानों में मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी संश्रयकारी वर्ग शक्ति के रूप में गरीब किसानों की अलग से पहचान नहीं है और इसलिए आंदोलन में मजदूर वर्गीय राजनीतिक-वैचारिक अंतर्दृष्टि वाली चेतना का कोई स्‍पष्‍ट वाहक नहीं है। कुल मिलाकर एक पूरी कि‍सान आबादी हमारे सामने आती है जिसके बीच एकता का सूत्र यह है कि ये सभी किसी न किसी रूप में बड़ी पूंजी के समक्ष अपने अस्तित्‍व की लड़ाई लड़ने की एक अविभेदित स्‍वत:स्‍फूर्त प्रेरणा से संचालित हो रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में इसमें शामिल धनी किसानों का नेतृत्‍व स्‍वत:स्‍फूर्त कायम हो जाता है और हो गया है। ऐसे में, बड़ी पूंजी (साझे दुश्‍मन) के विरूद्ध आंदोलन की एकता को बिना तोड़े मजदूर वर्ग की संश्रयकारी शक्ति को मजबूत करने और प्रकारांतर में उसे एक स्‍वंतत्र राजनीतिक प्रवृत्ति के बतौर उभरने में मदद कैसे की जा सकती है? यानी, मजदूर वर्ग इस आंदोलन में किन क्रांतिकारी नारों के साथ और कैसे हस्‍तक्षेप करे यह एक विचारणीय सवाल बनकर उठता है, खासकर जब आंदोलन अपने अंतर्य में सीधे बड़ी पूंजी की कृषि में दखल को रोकने के लिए चलने वाला आंदोलन बन गया हो और साथ में किसानों की इन सरगर्मियों का एक बड़ा कारण अप्रत्‍यक्ष रूप से ही सही लेकिन स्‍वयं पूंजीवादी कृषि का संकट और उसके प्रतिक्रियावादी परिणाम हैं जैसा कि ऊपर में कहा गया है। यही नहीं, यह एक ऐसा किसान आंदोलन है जो एक जनांदोलन भी है जिसमें देश की बड़ी पूंजी द्वारा उत्‍पीड़ि‍त आम जनता की स्‍वत: भागीदारी भी रही है। संकट में फंसी अर्थव्‍यवस्‍था के अंतर्गत कॉर्पोरेट लूट की मार झेल रहे अन्‍य वर्ग भी इस आंदोलन में समान रूप से सक्रिय या निष्क्रिय रूप से जुड़े महसूस करते हैं। हमारी समझ से, एक ऐसे आंदोलन में मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी हस्‍तक्षेप समय की मांग है और फिलहाल इसमें एकमात्र इसी तरीके से हस्‍तक्षेप किया जा सकता है कि मजदूर वर्ग और इसकी अगुआ शक्तियां इस आंदोलन में पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने, सर्वहारा राज्‍य कायम करने, और उसके अंतर्गत समाजवादी कृषि कार्यक्रम तथा समाजवाद को बड़ी पूंजी की लूट के सामने विकल्‍प के बतौर पेश करते हुए जमीनी स्‍तर से पूंजीवाद के विरूद्ध एक व्‍यापक भंडाफोड़ अभियान आंदोलन चलाया जाए और आंदोलन को आगे बढ़ाने में मदद की जाए और खासकर इसके विरूद्ध राजकीय दमन अभियान के खिलाफ पूरे देश को सक्रिय किया जाए। गांवों में गरीब किसान वर्ग और शहरों में मजदूर वर्ग के नेतृत्‍व को इस ऐतिहासिक रूप से देशव्‍यापी आंदोलन में स्‍थापित करने का लक्ष्‍य एकमात्र इस तरह के करारे राजनीतिक-वैचारिक हस्‍तक्षेप के माध्‍यम से ही पूरा किया जा सकता है। इसके एक हद तक सफलतापूर्वक संपन्‍न किये जाने के बाद ही हम यह उम्‍मीद कर सकते हैं कि इस आंदोलन को पूंजीवाद विरोधी आंदोलन में परिणत किया जा सकता है। आज के स्‍टेज में साझे दुश्‍मन (कॉर्पोरेट) के विरूद्ध यह आंदोलन जितनी व्‍यापक भागीदारी वाला और जि‍तना ऐतिहासिक है उस लिहाज से इसमें गरीब किसान तथा मजदूर वर्ग की स्‍वतंत्र रूप से तथा अलग नारों के साथ भागीदारी सुनिश्चित किये जाने के अतिरिक्‍त इसमें हस्‍तक्षेप करना नामुमकिन है, जबकि आंदोलन का इसके अतिरिक्‍त किसी और दिशा में बढ़ने से संघर्षरत किसान आबादी की वास्‍तविक मुक्ति का सवाल ही पैदा नहीं होता है क्‍योंकि पूंजीवादी कृषि और इसके भयंकर दुष्‍परिणामों को हम किसी और तरीके से पलट ही नहीं सकते हैं, यानी पूंजीवाद के रहते व्‍यापक मेहनतकश किसानों की मुक्ति का सवाल हल ही नहीं हो सकता है। खासकर जब पूंजीवाद आम संकट में फंसा है इसे उलटने के आह्वान को इस आंदोलन में नीचे से लेकर ऊपर तक समाहित किये बिना इसका समर्थन या विरोध करने का कोई खास सकारात्‍मक तात्‍पर्य नहीं हो सकता है। हम देख रहे हैं कि मजदूर तथा गरीब किसान के नेतृत्‍व की बात उठाने वाले इस आंदोलन में धनी किसानों का विरोध करने के नाम पर कॉर्पोरट की गोद में बैठे हैं ,और जो बिना आलोचना किये ही इसके खुले समर्थन में हैं वे इस आंदोलन के बस पीछे-पीछे चल रहे हैं। वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि इस आंदोलन में मजूदर वर्गीय अंतर्दृष्टि के साथ गरीब किसान एक खास राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में उपस्थित नहीं है और अगर यही रहा तो मजदूर वर्ग के उस हस्‍तक्षेप की जमीन भी कभी नहीं तैयार होगी जो इस आंदोलन को क्रांतिकारी दिशा दे सकती है।

यहां एक बात स्पष्ट है कि जिस हद तक धनी किसान इस आंदोलन की ‘गिरफ्त’ में है, उस हद तक वह मौजूदा आंदोलन जिन बुनियादी कारणों से खासकर इतने व्‍यापक रूप से फूट पड़ा है उसकी समग्र भावना को अभिव्‍यक्‍त नहीं करता है, और न ही वह इसमें शामिल व्‍यापक मेहनतकश किसानों के ऐतिहासिक हित व भविष्‍य का ही प्रतिनिधित्‍व करता है। उसका नेतृत्‍व एकमात्र मजदूर वर्ग ही कर सकता है। जाहिर है इसे समझना भारी काम नहीं है। लेकिन जो समझने वाली बात है वह यह है कि इस परिणीति तक पहुंचने की इसमें संभावनाएं मौजूद हैं या नहीं। हम पाते हैं कि ये प्रचुरता में मौजूद हैं।[3] इसलिए हमने शुरू से ही यह माना है कि धनी किसान इस आंदोलन की सबसे कमजोर कड़ी है और कभी भी पीछे मुड़कर दुश्‍मनों से हाथ मिला सकता है। लेकिन हम यह भी मानते रहे हैं कि वह इतनी आसानी से ‘हाथ मिलाने’ की स्थिति में नहीं है। अभी तक का अनुभव यही बताता है। और ठीक यही बात हमारे लिए इसमें बड़े पैमाने पर हस्‍तक्षेप करने का एक और अवसर और कारण प्रदान करता है। इसके द्वारा फिलहाल ‘हाथ मिलाना’ संभव नहीं होने के पीछे दो मुख्‍य कारण हैं। एक बाह्य और दूसरा आंतरिकपहला कारण इसका विशाल रूप अख्तियार कर लेना जिसमें गरीब व मध्‍यम तबके की बहुत बड़ी हिस्‍सेदारी है और वे इस बात को गहराई से महसूस करते हुए मजबूती से सहमत हैं कि बड़ी पूंजी आयेगी तो उनका विनाश तय है और वे इस बात को लेकर यानी बड़ी पूंजी के इस पक्ष को लेकर उसके खिलाफ मुखर भी है। दूसरा कारण स्‍वयं उनके अंदर है। यानी, स्‍वयं धनी किसानों के एक हिस्‍से को यह समझ में आ चुका है कि बड़ी पूंजी के कारण उसके दिन लदने वाले हैं और इसलिए कॉर्पोरेट की वर्चस्‍वकारी दखल के खिलाफ अंतिम तक अगर वे नहीं लड़ेंगे तो उनके लिए भी भारी मुश्किल आने वाली हैं। अगर वह हाथ मिलाता है तो वह पूरी तरह अलथ-थलग हो सकता है और अन्‍य तबकों का सहयोग और विश्‍वास खो सकता है।[4] इसीलिए वह पूरे किसान समुदाय के साथ मिलकर तीनों कृषि कानूनों के वापस होने तक आंदोलन को चलाने की बात करता है।

यह सच है कि इस मांग से पीछे हटना फिलहाल कठिन है, चाहे एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की बात सरकार मान भी क्‍यों न ले। कानूनी कवच वाला एमएसपी सरकार मानकर भी मानेगी यानी मानने के बाद भी लागू करेगी, इसे लेकर स्‍वयं विकसित प्रदेशों के धनी किसानों के एक हिस्‍से को तमाम तरह की आशंकाएं हैं। उसे पता है कि अगर बड़ी पूंजी कृषि में दखलकारी तरीके से आएगी, जो कि आ रही है, तो कानूनी कवच वाला या कानूनी कवच के बिना दोनों में से कोई भी एमएसपी नहीं रहने वाला है।[5]

तो फिर किसानों का कानूनी कवच वाले एमएसपी पर इतना जोर देना किस बात का परिचायक है? पहली बात तो यह है कि यह धनी किसानों के एक हिस्‍से का बुरी तरह डावांडोल आर्थिक स्थिति से उपजी छटपटाहट और भविष्‍य में खुले बाजार में लागत मूल्‍य भी न मिलने की संभावना से उत्‍पन्‍न भय व अवसाद का परिचायक है। और दूसरी बात यह है कि इस मांग के पीछे का असली मकसद दरअसल किसी भी तरह से कृषि मालों की सरकारी खरीद की गारंटी हासिल कर लेने की बदहवासी है, हालांकि इस रूप में यह मांग सिर्फ धनी किसानों वाली मांग से हटकर मध्‍यम किसानों तथा छोटे किसानों के बीच की भी एक लोकप्रिय मांग बन गयी है, खासकर उन प्रदेशों व क्षेत्रों के छोटे व मंझोले किसानों के लिए जो फिलहाल इससे पूरी तरह मरहूम हैं।[6]

अगर एक खास संदर्भ में देखें तो इस मांग को उठाते हुए धनी किसान अपनी पूर्व की स्थिति से पीछे हटे हैं। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्‍योंकि हम अगर यह मान लें (जिसकी संभावना न के बराबर है) कि कानूनी कवच वाले एमएसपी का लाभ अगर सभी किसानों को मिलेगा, तो फिर छोटे व निम्‍नमध्‍यम किसानों को लूटने के उन्‍हें मिलने वाले अवसर में कमी आ जाएगी, क्‍योंकि खास कर निम्‍नमध्‍यम व मध्‍यवर्गीय किसानों के सारे उत्‍पाद भी लाभकारी मूल्‍य व दाम पर बिकेंगे और तब धनी किसानों पर उनकी आर्थिक निर्भरता कमेगी।[7] यानी अपने कानूनी कवच वाले एमएसपी की मांग अपने विशुद्ध रूप में, एक हद तक धनी किसानों के विपरीत जाने वाली मांग है। हालांकि यह मांग मानी जाएगी इसे लेकर हम अपनी स्‍पष्‍ट समझ रख चुके हैं कि ऐसा बिल्‍कुल ही संभव नहीं है। इस पर हम एकमात्र इसी रूप में विचार कर पाते हैं कि यह मांग कुल मिलाकर धनी किसानों के एक हिस्‍से से लेकर बर्बादी के कगार पर खड़ी नीचे की पूरी किसान आबादी की कसमसाहट और इस रूप में पूंजीवादी कृषि के दुष्‍परिणामों को प्रतिबिंबित करते हैं और यह समझने में मदद मिलती है कि संकट कितना गहरा और व्‍यापक है। यह हमें इस बात को समझने में भी मदद करती है कि मजदूर वर्ग को आज यह साफ-साफ कहने का अवसर मिला है कि पूंजीवादी राज्‍य के द्वारा दी जाने वाली किसी भी तरह की ऊपरी मदद यानी एमएसपी ही नहीं, ऋण माफी, बाजार का विस्‍तार या किसान निधि आदि जैसी कोई भी चीज उनके भविष्‍य पर मंडराते संकट का समाधान नहीं है। उनकी मुक्ति पूंजीवाद से मुक्ति में निहित है। इस बात को खासकर मेहनतकश किसानों व आम जनता के व्‍यापकतम हिस्‍से के बीच ले जाने के सारे रास्‍ते इस आंदोलन के कॉर्पोरेट विरोधी रूख के कारण खुलते हैं। मजदूर वर्ग का यहां किसी भी छोर से चूक जाना, यानी विरोध करने की रणनीति या महज समर्थन करने की कार्यनीति, दोनों विपरीत छोरों की अवस्थिती के कारण उपरोक्‍त कार्यभार से चूक जाना भारी गलती का सबब बन रहा है। समाजवादी क्रांति के चरण की वजह से बड़ी पूंजी के समक्ष भय से कांपते धनी किसानों का भी पर्दाफाश व विरोध लाजिमी है लेकिन इस बात की मजबूरी कैसी मजबूरी है कि कॉर्पोरेट के पक्ष में जाकर इसका विरोध किया जाए। ऐसा करना हमें एक ऐसे विपरीत छोर का दिग्‍दर्शन कराता है जिसकी उम्‍मीद करना भी कल तक असंभव था, अकल्‍पनीय था।    

कुल मिलाकर, धनी किसानों के एक हिस्‍से के उजड़ने की बात को हम किस तरह लेते हैं? हम कह चुके हैं कि उसके एक नि‍चले हिस्‍से के उजड़ने की बस आज संभावना ही व्‍यक्‍त की जा सकती है। यह कब होगा, ठीक-ठीक किस तरह होगा और कृषि में इसकी लाभप्रद हिस्‍सेदारी आगे चलकर बड़ी पूंजी के बरक्श किस तरह और कितनी प्रभावि‍त होगी, इसके बारे में इसके सिवाये और कुछ ज्‍यादा कहना मुश्किल है कि चाहे जो भी हो, बड़ी पूंजी की दखल के बाद तथा लंबे काल तक आर्थिक संकट के जारी रहने के कारण धनी किसानों के एक हिस्‍से की पुरानी स्थिति बरकरार नहीं रहेगी। हम जानते हैं और इस बहस में शुरू से लेकर अंत तक कई बार दुहरा चुके हैं कि धनी किसान वर्ग संपूर्णता में तथा भूमि‍ सुधार के समय से ही 1947 में मिली ‘आजादी’ के उपरांत पूंजीपति वर्ग और सामंती भू‍स्‍वामियों के सहकार से अस्तित्‍व में आये पूंजीवादी शासन का एक अहम किरदार रहा है और इसके विकास व आज के अस्तित्‍व की कहानी ग्रामीण आबादी के चौतरफा शोषण से जुड़ी है। उस पर मंडराते संकट के काल में भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए, क्‍योंकि यह उजड़ा नहीं है इसकी शुरूआत भर हुई है। इसलिए इसके एक हिस्‍से के उजड़ने की संभावना की बात करने का यह कत्तई मतलब नहीं है कि यह आज कल में ही उजड़ने वाला है या उजड़ चुका है और इसीलिए मजदूर वर्ग की मित्र शक्ति है। ऐसी बेहुदा बात न तो हम कह रहे हैं और न ही कोई ऐसा निष्‍कर्ष निकालना हमारी कल्‍पना में शामिल है। जो लोग ऐसा बोलने की कोशिश कर रहा है, वे दरअसल हमारे खिलाफ दुष्प्रचार में लिप्‍त हैं। वे यह करते रहेंगे, क्‍योंकि इस आंदोलन को लेकर उनकी जो कॉर्पोरेटपरस्‍त अवस्थिति है, जिसके बारे में हम ऊपर में भी लिख चुके हैं, उसके मद्देनजर यही कहना उनका धर्म है। लेकिन जो लोग इस किसान आंदोलन के महत्‍व को समझते हैं और इसमें किसी न किसी रूप में मजदूर वर्ग के हस्‍तक्षेप को, न कि बस इसके पीछे-पीछे चलने को ही अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मानते हैं, देश में क्रांतिकारी बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिहाज से जरूरी मानते हैं उन्‍हें इस पर तनिक भी ध्‍यान नहीं देना चाहिए। इस हस्‍तक्षेप के स्‍वरूप को इसके सटीकतम रूपों में निरूपित करने में हो सकता है कुछ गलतियां हो जाएं क्‍योंकि यह एक कठिन काम है और इसलिए हम सतत रूप से आंख खोल कर चल रहे हैं, लेकिन ऐसे संकटकाल में यह कहना कि इस काम को हाथ में लेना ही गलत है दरअसल मजदूर वर्ग के ऐतिहास‍िक मिशन के साथ गद्दारी मानी जानी चाहिए। हम कॉर्पोरेट के हिमायतियों से हर स्‍तर पर निपटने को तैयार हैं, लेकिन इनकी उकसावेबाजी से हमारा मुख्‍य ध्‍यान नहीं भटकना चाहिए। फिर भी जिन्‍हें संदेह है वे शुरू से लेकर अंत हमारे द्वारा प्रकाशित लेखों का अध्‍ययन कर सकते हैं। वे चाहें तो इसके माध्‍यम से हमारी केंद्रीय समझ पर विचार कर सकते हैं, अपना विचार बना सकते हैं और हमसे सफाई मांगने हेतु या अन्‍यथा भी हमसे संवाद स्‍थापित कर सकते हैं।    

इसी के साथ बहस में एक और महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न प्रमुखता से सामने आया है जो बिगुल मंडली की बहस करने के खास अंदाज से प्रकट हुआ है। हालां‍कि मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद में इस पर विचार किया जा चुका है, लेकिन नये सिरे से संक्षेप में बात करना जरूरी हो गया है। हम अगर प्रश्‍न को पेश कर सकें, तो वह इस प्रकार का है; परिपक्‍व होते और बड़ी एकाधिकारी वित्‍तीय पूंजी के वर्चस्व के अंतर्गत पूंजीवादी उत्‍पादन वाली व्‍यवस्‍था में बड़ी पूंजियों के बरक्श छोटी पूंजियों के लूटने व उजड़ने की संभावना के मद्देनजर मजदूर वर्ग की मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी पहुंच क्‍या है, क्‍या होनी चाहिए?

हम लेनिन की शिक्षा के आलोक में यह मानते हैं कि इस प्रश्‍न के मुतल्लिक मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी पहुंच यही है कि हम, जो मजदूर वर्ग की शक्तियां हैं, बड़ी पूंजियों के समक्ष उजड़ती या उजड़ने के लिए अभिशप्‍त व मजबूर हो रही छोटी पूंजियों के प्रश्‍न पर चुप नहीं रह सकते हैं और हमारा भंडाफोड़ इन तक जाना जाहिए। लेकिन आज कल ऐसे लोग अवतरित हो गए हैं जो ऐसा बोलते ही उससे वर्ग-संश्रय कायम करने का तोहमत लगा देते हैं, क्‍योंकि उनकी छुपी हुई मंशा चोरी-छुपे बड़ी पूंजी के पक्ष में सैद्धांतिक वकालत करना हो गया है। लेकिन हमें यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि छोटी पूंजियों के उजड़ने को भी पूंजीवाद के समग्र भंडाफोड़ का प्रस्‍थान बिंदु बनाया जाना चाहिए और ऐसा करने का कतई यह मतलब नहीं है कि उसे संश्रयकारी बना लेने पर आमादा हैं। यह अतिक्रांतिकारी कॉर्पोरेट पूंजी के पक्षधर लोग ही ऐसे तर्क कर सकते हैं कोई मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी नहीं। छोटी पूंजि‍यों में भी अपेक्षाकृत छोटी व बड़ी पूंजियां होती हैं। कुल मिलाकर, हम कह सकते हैं कि हम इस तरह से उजड़ने के लिए मजबूर होती छोटी पूंजियों के वर्तमान का नहीं, उसके भविष्‍य का प्रतिनिधित्‍व करते हैं। यानी, कोई छोटी पूंजी उजड़ने की प्रक्रिया झेलते हुए भी जिस रूप में आज है उसके अर्थ में नहीं, अपितु वह कल क्‍या होगी, उसके अर्थ में। इस कल के अर्थ में ही इसके उजड़ने की बात हमारे लिए महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि हमें अन्‍य चीजों के अतिरिक्‍त इससे भी पूंजीवाद की मानवद्रोहिता का भंडाफोड़ करने में मूर्त सहायता मिलती है। इस अर्थ में धनी किसानों का ही नहीं, बड़ी पूंजियों के द्वारा निगली जा रही तमाम असंख्‍य छोटी-मंझोली पूंजियों के कल आने वाले भविष्‍य का हम प्रतिनिधित्‍व करते हैं और इसे भी हमें बखूबी अपने भंडाफोड़ अभियान का प्रस्‍थान बिंदु बनाना चाहिए।

लेकिन इसी के साथ जुड़ा हुआ अतिरिक्‍त सवाल यह है कि भविष्‍य के अलावा क्‍या आज भी उनके उजड़ने की स्थिति हमारे लिए महत्‍वपूर्ण है? हां, बिल्‍कुल है और भारी मतलब है। अर्थात वर्तमान समय में इनके उजड़ने की जो स्थिति पैदा हुई उसका भी हमारे लिए बहुत महत्‍व है और उसे लेकर हमारी क्‍या पहुंच होगी इसे भी समझना जरूरी है। वर्तमान में छोटी पूंजियों द्वारा प्रदर्शित किये जा रहे आक्रोश व गुस्‍से, तथा यहां तक कि आंदोलन में उनके उतरने की जो स्थिति बन जा रही है, उसे लेकर हमारी पहुंच और उसका सही-सही आधार क्‍या है इसे भी समझना चाहिए।

इस संबंध में हमारा साफ-साफ मत है और इसे हम एक बार नहीं कई बार व्‍यक्‍त कर चुके हैं कि यह चीज सर्वप्रथम इस एक अर्थ में हमारे लिए बहुत अधिक महत्‍वपूर्ण है कि अमानुषिक शोषण में लिप्‍त बड़ी एकाधिकारी वित्‍तीय पूंजी और समग्रता में मौजूदा क्रूर पूंजीवादी व्‍यवस्‍था अपना सहयोगी खो रही हैं और समाजवादी क्रांति के कार्यनीतिक लचीलेपन के संबंध में समय व जगह के सापेक्ष यह चीज एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखती है। इसमें संश्रय कायम करने वाली कोई बात लेकिन फिर भी नहीं हो सकती है। यह अत्‍यंत दुख और आश्‍चर्य की बात है कि कुछ लोग लचीलेपन और संश्रय को एक ही चीज मानते हैं। शायद इसलिए बिगुल मंडली का सिद्धांतकार मानता है कि लेनिन ने अक्‍टूबर क्रांति करने के लिए समूची किसान आबादी के साथ वर्ग-संश्रय कायम किया था। वे दरअसल स्‍वयं कॉर्पोरेट के पक्ष में प्रत्‍यक्ष या परोक्ष जुगाली कर रहे हैं। इसलिए भी उनको हमारी अवस्थि‍ति दूसरे छोर से ऐसी ही दि‍खती होगी। दूसरे, यह भावी वस्‍तुगत क्रांतिकारी परिस्थिति को आसन्‍न बनाने वाली कई चीजों में से एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण चीज है। और इसीलिए पूंजीपति वर्ग से युद्धरत सर्वहारा वर्ग, चाहे यह युद्ध जिस भी स्‍तर पर चल रहा हो, निस्‍संदेह इस बात पर नजर रखेगा कि पूंजी के फ्रंट में कितनी गहरी दरार पैदा हो रही है। यही नहीं, वह इसका उपयोग भी करना चाहेगा और करना चाहिए, अन्‍यथा क्रांतिकारी संकट काल में वह अपने को निरूद्देश्‍य एक किनारे खड़ा पाएगा और कारवां गुजरने के बाद गुबार और धूल फांकता नजर आएगा। कोई निस्‍संदेह कह सकता है कि हम बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। लेकिन ऐसा आरोप लगा देने मात्र से इन बातों के महत्‍व में रत्‍ती भर भी फर्क नहीं पड़ता है। इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम इस रणनीति व कार्यनीति को लागू कर पाने की स्थिति में हैं या नहीं। यहां मुख्‍य प्रश्‍न जिस पर हम बात कर रहें हैं वह यह है कि मौजूदा समय में समाज में पैदा हो रही असंख्‍य हलचलों और चौतरफा बढ़ती सरगर्मियों में हमारे द्वारा मजदूर वर्गीय हस्‍तक्षेप किये जाने का सार क्‍या है। और इसे अन्‍य बातों से नहीं उलझाना चाहिए।

जाहि‍र है, यह एक अत्‍यंत पतली रस्‍सी पर दम साधकर चलने जैसा काम है। इसमें थोड़ा संतुलन बिगड़ने पर बायें या फिर दायें गिरने का खतरा हमेशा मौजूद रहता है। लेकिन यह खतरा मोल लेना ही पड़ेगा, अगर हम युद्ध में उतरने की मंशा रखते हैं या युद्ध जीतना या फिर कम से कम जीतने की मंशा रखते हैं जिसके बिना क्रांतिकारी बने रहना भी संभव नहीं है। इसका सबसे कठिन पहलू इसे जमीनी तौर पर लागू करने के दौरान उत्‍पन्‍न होने वाली कठिनाइयों से जुड़ा है, क्‍योंकि यह सीधे विरोध या समर्थन का मसला नहीं है, अपितु यह रणनीति एक ऐसे हस्‍तक्षेप का कार्यभार प्रस्‍तुत करती है जिसमें दोहरे-तिहरे ढंग के कार्य पूरी निष्‍ठा से करने की जरूरत पैदा होती है जिसका परिणाम मूलत: यह सुनिश्चित करना होता है कि समाजवादी कृषि कार्यक्रम और क्रांति की वास्‍तविक शक्तियां हमारे हस्‍तक्षेप से मजबूत हों और जारी आंदोलन (अगर अभी चल रहे किसान आंदोलन की बात करें तो) में उसकी पहचान के अतिरिक्‍त उसका एक स्‍वतंत्र क्रांतिकारी वैचारिक व राजनैतिक अस्तित्‍व तथा पहल, खुलकर प्रकट व मुखर हो जिसके आधार पर आगे चलकर हम पूरे देश में क्रांतिकारी ध्रुवीकरण को अंजाम दे सकें। यानी, इस तरह के दोहरे कार्यभार का लक्ष्‍य अपनी मित्र शक्तियों को कमजोरी से बाहर निकालना, ढुलमुलयकीनी से बाहर निकालना तथा अस्‍थायी रूप से हमसे आ जुड़े वर्गों (ध्‍यान दीजिए आ जुड़े जो बिना संश्रय के ही हो सकती है) को धीरे-धीरे अपने अधीन कर लेना और कम भरोसे वाले से ज्‍यादा भरोसे वालों की अपने पीछे कतार खड़ी करना और जहां कहीं भी ये आंदोलन की कमान हैं उनसे कमान छीन लेना आदि है। आंदोलन में तमाम तरह के ढुलमुलपन को निरस्‍त करने के सबसे सफल तरीके का ईजाद, सबसे कारगर रूप में सर्वप्रथम भव्‍य व वृहत वैचारिक व राजनीतिक पहल लेकर ही किया जा सकता है। जाहिर है, इसमें थोड़ी सी असावधानी की भारी कीमत अदा करनी पड़ सकती है। लेकिन इस खतरे से पूरी तरह से बचने का कोई रास्‍ता नहीं है और इसलिए उस ओर कोशि‍श करना बेकार है।

क्‍या इतिहास में ऐसा कोई मिलता-जुलता उदाहरण है जिस पर विचार करके हमें रोशनी मिलती हो? क्‍या हमारे पास ऐसा कोई ऐतिहासिक अनुभव है जिससे हम जहां खड़ें हैं वहां से आगे बढ़ने के बारे में हमें ठोस रूप से यह सि‍खाता हो कि समाजवादी क्रांति के चरण में बड़ी पूंजी द्वारा मचायी जाने वाली आसन्न तबाही की संभावना से भयभीत व्‍यापक किसानों, जिसमें दुर्भाग्‍य या सौभाग्‍य से धनी किसानों का एक नीचला हिस्‍सा भी शामिल है, के बीच समाजवादी कृषि कार्यक्रम पर सर्वहारा राज्‍य के लिए आह्वान करते हुए बड़ी पूंजी की दखल के कारण उपजी विशेष परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए पूंजी से उत्‍पीडि़त खासकर मेहनतकश किसान समुदाय के बीच बहस संचालित कैसे की जाए? ठीक-ठीक कहें, तो हमारा जवाब है – नहीं। ऐसा कोई उदाहरण मौजूद नहीं है। हम यह भी जानते हैं कि दुर्भाग्य से यह काम अब तक नहीं हो पाया है। पूर्व में हुई सर्वहारा क्रांतियों से सीखने का हमारे पास ऐसा यहां कोई ठोस उदाहरण या अवसर उपलब्‍ध नहीं है।

जहां तक रूसी अक्‍टूबर क्रांति के वक्‍त की असाधारण विशेष परि‍स्थितियों से कुछ सीखने का सवाल है, तो हम उससे लेनिन के द्वारा असाधारण तरीके से लचीलेपन का जो उपयोग किया गया है उसे सीख सकते हैं। हम इतना सीख सकते हैं कि शहरों में सर्वहारा समाजवादी क्रांति द्वारा पूंजीवादी सत्‍ता को दखल में लेते हुए भी हम देहातों में कुछ दिनों के लिए कुछ विशेष परिस्थितियों में, जो रूस में मौजूद परिस्थितियों से भिन्‍न है, ऐन संकट पूर्ण क्रांतिकाल में इसे मुल्‍तवी कर सकते हैं। रूस की बात करें तो, वहां ऊपर के राजकीय सुधारों के द्वारा पूर्व के सामंती भूस्‍वामियों से परिवर्तित बड़े पूंजीवादी भूस्‍वामियों के रूप में एक साझा दुश्‍मन के विरूद्ध लड़ाई की पूर्णाहुति तक ही सर्वहारा क्रांति सीमित थी। जिस हद तक यह साझा दुश्‍मन यानी भूस्‍वामी पूंजीवादी बन चुका था उस हद तक रूस के देहातों में हुई अक्‍टूबर क्रांति समाजवादी ही थी, लेकिन दूसरी तरफ जिस हद तक कुलकों को निशाना नहीं बनाया गया उस हद तक देहातों में अक्‍टूबर क्रांति जनवादी बनी रही। कुल मिलाकर रूस में अक्‍टूबर क्रांति फरवरी में हुई जनवादी क्रांति का पूर्ण समापन (consummation) बनी लेकिन कहीं से भी यह संपूर्णता में नवजनवादी क्रांति नहीं थी। देहातों में गरीब किसानों के बीच भी बड़े पैमाने की खेती के प्रति आश्‍वस्‍त समर्थन के अभाव के साथ इसके लिए जरूरी भौतिक प्रगति की मौजूदगी न होने की वजह से एकमात्र एक दशक बाद ही जाकर (1929-30 में) शुरू हुए सामूहिक फार्म आंदेालन की जीत के बाद समाजवादी कृषि कार्यक्रम लागू किया जा सका।

स्‍पष्‍ट है, यहां असाधारण रूप से नुकीले मोड़ों के बीच बिना पैर डिगाये लचीलापन अपनाने की एक ठोस सीख के अतिरिक्‍त और कोई ऐसा कुछ ठोस सबक (आलोच्‍य विषय वस्‍तु के संदर्भ में) सीखने को नहीं मिलता है जो हमें आज के ठोस मौजूदा हालातों में आगे बढ़ने के लिए ठोस रूप से रास्‍ता दिखा सके। एक दूसरी बात जो हम सीख सकते हैं वह यह है कि ऐन मौके पर अगर कोई ऐसे मार्ग का चयन भी करना पड़े जिसमें समूची किसान आबादी स्वाभाविक रूप से क्रांति के पक्ष में अस्‍थायी रूप से खड़ी हो जाए और उससे क्रांति को सुगमतापूर्वक और तेजी से संपन्‍न करने में मदद मिलती हो, तो हमें समय व जगह के सापेक्ष उस पर चलने की नीति अपनानी पड़ सकती है। ऐसे मोड़ पर हमें किसी तबके को अछूत मानने के बजाय क्रांति को आगे बढ़ाने की दृष्टि से काम करना चाहिए। मूल रूप से इसी तरह फरवरी क्रांति से अक्‍टूबर क्रांति तक की यात्रा पूरी हुई जिसमें जनवादी क्रांति और सर्वहारा क्रांति के बीच किसी चीनी दीवार के न होने की बात को अत्‍यंत द्रुत गति से अमली जामा पहनाया जा सका।

यह सब कुछ हुआ, नुकीले मोड़ आए, लचीलेपन का बेजोड़ प्रदर्शन हुआ, लेकिन एक पल के लिए भी क्रांति के चरण को जनवादी नहीं माना गया और न ही मुख्‍य संश्रयकारी शक्ति के रूप में जो स्‍थान गरीब किसानों का था उसे ही बदला गया या उसकी जगह पूरी किसान आबादी को संश्रय में ले लिया गया। ये सब कोरी बकवास है जैसा कि बिगुल के सिद्धांतकार हमें गालियां देते हुए अपने पिछले लेख में बताते हैं। तात्‍कालिक असाधारण परिस्थितियां ठीक इस बात में निहित थीं कि इसमें एक यानी पूंजीवादी भूस्‍वामी साझा दुश्‍मन बना, लेकिन दूसरा यानी धनी किसान या कुलक दुश्‍मन नहीं बना, क्‍योंकि परिस्थितियों ने इतने तक की ही इजाजत दी। लेनिन ने न तो इस असाधारण मोड़ की अवहेलना की और न ही गरीब किसानों के साथ अपने रणनीतिक वर्ग-संश्रय को ही तिलांजलि दी। सर्वहारा क्रांति शहरों में असाधारण तेज गति से संपन्‍न हुई, जबकि देहातों में उससे भी तेज गति से साझा दुश्‍मनों (पूंजीवादी भूस्‍वामी तथा कुलक) में एक यानी भूस्‍वामियों के खिलाफ विजयी हुई। कुल मिलाकर रूस में अक्‍टूबर समाजवादी क्रांति संपन्‍न हुई । 

लेनिन अप्रैल में यह देखते हैं कि गरीब किसान मध्‍यम व धनी किसानों के पीछे-पीछे ही जा रहे हैं। लेकिन जुलाई के प्रथम सप्‍ताह में हुई घटनाओं (3-4 जुलाई के प्रदर्शनों और फिर उसके बाद कोर्निलोव घटना) ने किसानों की ही नहीं अन्‍य सभी तबकों की आँखे खोल दी थी। बोल्‍शेविकों की इसमें विजय ने क्रांतिकारी परिस्थिति, जो पहले ही, लेनिन के अनुमान से भी ज्‍यादा, अत्‍यंत तेज गति से आगे बढ़ रही थी, को असाधारण रूप से इतना गतिमान कर दिया कि क्रांति की तैयारी का शांति काल, जिस पर लेनिन आगे बढ़ रहे थे, खत्‍म हो गया और इसके बाद परिथितियों का ठीक-ठीक मूल्‍यांकन करते हुए लेनिन और बोल्‍शेविक पार्टी इसके लिए अंतिम लड़ाई, जो अशां‍तिपूर्ण होने वाली थी, की तैयारी में लग जाते हैं। इसके बाद से ही हम देखते हैं कि लेनिन गरीब किसानों के साथ वर्ग-संश्रय को और अधिक ठोस बनाते हुए और यह कहते हुए कि अब सर्वहारा राज्‍य ही रूस को बचा सकता है वे ज्‍यादा से ज्‍यादा मजदूर वर्ग और आम किसानों का आह्वान करते हैं। यही था वो लचीलापन, जो यहां इस रूप में दिखता है कि गरीब किसानों की अलग कमिटियां बनाने एवं कृषि मजदूरों के अलग यूनियन व संगठन बनाने और उन्‍हें अलग से सर्वहारा के पक्ष में खुले तौर पर समाजवादी कृषि कार्यक्रम और अपने तरीके के राष्‍ट्रीयकरण की नीतियों के पीछे उन्‍हें लामबंद करने के काम को, बिना समूची किसान आबादी यानी कुलकों आदि से वर्ग-संश्रय बनाये बिना ही, मुल्‍तवी करते हैं, या कहें परिस्थितियों के आदेश को शि‍रोधार्य करते हें। दूसरे शब्‍दों में, किसानों के उक्‍त पूंजीवादी भूस्‍वामी विरोधी कार्रवाइयों व विद्रोहों की लहर के साथ सर्वहारा क्रांति की लहर को, बिना क्रांति के चरण को जनवादी घोषि‍त करते हुए और बिना वर्ग-संश्रय को बदले ही, अनोखे रूप से मिला देते हैं। असाधारण परिस्थिति‍यों ने जिस तरह से करवट ली एकमात्र उसने ही इस अवसर को सामने लाने का काम किया और लेनि‍न ने इस अवसर का सर्वहारा क्रांति की विजय को पूरी तरह सुनिश्चित करने के लिए उपयोग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। सर्वविदित है कि लेनिन अप्रैल 1917 में गरीब किसानों के सर्वहारा वर्ग के साथ आ मिलने की उम्‍मीद कर रहे थे।[8] हम रूस के संदर्भ में कही गई बातों में जिस एक बात पर जोर देना चाहते हैं वह है लचीलापन, बिना पैर उखाड़े लचीलापन। इसमें भी हम उस एक खास बात की ओर इशारा करना चाहते हैं जिसके प्रदर्शन के द्वारा सत्‍ता लेने के सर्वोच्‍च व केंद्रीय कार्यभार को पूरा करने के संदर्भ में समाजवादी क्रांति के चरण में भी धनी किसानों के इस तरफ खड़ा होने या साथ आ जाने को अछूत मान कर नहीं चला गया। लेनिन ने दरअसल यह देखने में कोई चूक नहीं की कि किसान आबादी के बीच जमीन की असाधारण भूख है और इसलिए जुलाई के बाद ही, किसान की भूस्‍वामी विरोधी कार्रवाइयों के बीच, वे इस पर विचार करने लगे थे कि उन्‍हें इस मुतल्लिक लचीलापन अपनाना पड़ेगा। किसान आबादी समाजवादी कृषि कार्यक्रम के लिए या लेनिन की समझ वाली राष्‍ट्रीयकरण के लिए भी नहीं तैयार थी, हम जानते हैं।

भारत में न तो यहां की पूंजीवादी कृषि तब के रूस की तरह अपरिपक्‍व है और न ही हमारे यहां के मेहनतकश किसान रूस के किसानों की तरह पूंजीवादी कृषि के दुष्‍परिणामों से ही अनजान हैं। जैसा कि पहले कहा गया है हमारे किसान कई दशकों की पूंजीवादी कृषि के अब तक के मीठे-कड़वे अनुभव से लैस हैं। इसलिए समाजवादी कृषि कार्यक्रम के लिए किसानों की एक बहुत बड़ी आबादी (गरीब किसानों) को बड़े पैमाने पर तैयार करना तुलनात्‍मक रूप से कठिन नहीं है, अगर मजदूर वर्ग इसके लिए मौजूद सकारात्‍मक परिस्‍थि‍तियों का उपयोग करना सीखे। दूसरे अन्‍य तबके भी आज उतनी नैतिक मजबूती से समाजवादी कृषि के कार्यक्रम का विरेाध करने की स्थिति में नहीं हैं जैसा कि रूस में थे। वहां कृषि में पूंजीवादी संबंधों का जो विस्‍तार हुआ था वह उसके अंतर्विरोधी स्‍वरूप को नग्‍नता और साक्षात रूप से प्रकट करने की स्‍थि‍ति में पहुंचा ही नहीं था।

रूस में पूंजीवादी कृषि के पूरी तरह परिपक्‍व नहीं होने के कारण गरीब व मध्‍यम किसानों के बीच जमीन की असाधारण भूख मौजूद थी। जाहि‍र है, रूस के इन किसानों की स्थिति भारत के आज के इन किसानों से बिल्‍कुल भिन्‍न थी। वे समाजवादी कृषि कार्यक्रम के लिए तैयार नहीं हो सकते थे, जबकि भारत में पूंजीवादी कृषि के कारण तबाही झेल चुकी गरीब व मध्‍यम किसानों का एक तबका भी समाजवादी कृषि के कार्यक्रम को स्‍वीकार करने में ज्‍यादा कठिनाई पेश नहीं करेगा। इसी तरह भारत के धनी किसानों का एक तबका भी जि‍सने पूंजीवादी कृषि के दुष्‍परिणाम झेलना शुरू किया है, उसके अंदर भी बाजार की दगाबाजी के कारण हो रही प्रताड़ना को लेकर चिंताएं हैं। ये ही वे चीजें हैं जिनके बारे में हमें ज्‍यादा से ज्‍यादा स्‍वतंत्र रूप से विचार करना पड़ सकता है।  

मुख्‍य बात जो हमारा तत्‍काल ध्‍यान आकर्षित करती है वह यह है कि धनी एव मध्‍यम किसानों के एक हिस्‍से की आर्थिक बदहाली के साथ-साथ उसका कुलकपक्षीय नैतिक बल भी काफी कमजोर हुआ है। यह मुख्‍य रूप से आकलन का सवाल है कि कितना कमजोर हुआ है। लेकिन जिसका मतलब यह नहीं है कि हम उनके साथ आज या भविष्‍य में संश्रय करने की वकालत कर रहे हैं। लेकिन एक क्रांतिकारी संगठन होने के नाते यह कोशिश करना सर्वथा उचित है कि हम यह देखें कि उनके प्रतिरोध की मात्रा और उसका स्‍तर क्‍या होगा। अभी समाजवादी कृषि कार्यक्रम पर उनके राजी होने व करने का प्रश्‍न खड़ा ही नहीं होता है जब तक कि गरीब किसान और मध्‍यम किसानों को पहले इसके लिए राजी नहीं कर लिया जाता है। और दूसरा, जब तक कि उनकी आर्थि‍क स्थिति वास्‍तव में उजड़ने की स्थिति में चली गई हो और उनकी हेंकड़ी धूल धुसरित न हो चुकी हो। इसलिए फिलहाल इस पर गौर करना होगा कि इनकी गिरती आर्थिक स्‍थि‍ति के कारण और बड़ी पूंजी की आसन्‍न दखल से जो विद्रोह की चिंगारी सुलगी है उसका उपयोग गरीब किसानों को संगठित करने में कैसे किया जाए।  

लेकिन इस बात पर कोई दो मत नहीं हो सकता है कि धनी किसान सर्वहारा के संश्रयकारी या मित्र नहीं हैं और न हो सकते हैं जब तक कि वे वास्‍तव में उजड़ नहीं जाते हैं। इसलिए उन्‍हें बचाने का भी कोई सवाल नहीं है। उनके लिए न तो बड़ी पूंजी के सामने बचने का कोई ज्‍यादा ऑप्‍शन है जैसा कि हम देख रहे हैं और न ही समाजवादी कृषि के तहत। क्‍योंकि समाजवादी कृषि में उनके शामिल होने का एक ही अर्थ होगा – उन्‍हें स्‍वयं के द्वारा किये श्रम पर निर्भर होना होगा तथा उनकी तमाम संपत्ति सामूहिक संपत्ति का हिस्‍सा होंगी, यानी उनके निजी स्‍वामित्‍व का खात्‍मा हो जाएगा। एक पूंजीवादी वर्ग के रूप में उनके पास न तो इधर कोई भविष्‍य है और न ही उधर। यहां पर लेनिन की यह बात आती है –

And the last statement I would like to quote is the argument about the rich peasants, the big peasants, the kulaks as we call them in Russia, peasants who employ hired labour. Unless these peasants realise the inevitability of the doom of their present mode of production and draw the necessary conclusions, Marxists cannot do anything for them. Our duty is only to facilitate their transition, too, to the new mode of production.” (p.210 LCW Vol 28, bold ours)

अक्‍टूबर क्रांति के पूर्व के रूस के किसानों की स्थिति की तुलना 1947 के बाद के भारत के किसानों की स्थिति से की जा सकती है जब यहां भी ऊपर से राजकीय सुधारों के जरिए हुए भूमि सुधार के कारण पुराने सामंती भूस्‍वामी पूंजीवादी भूस्‍वामी में तब्‍दील हुए और साथ में गरीब किसानों से लेकर मध्‍यम किसानों व धनी किसानों का तबका अस्तित्‍व में आया जो पूंजीवादी तरीके की खेती में कहीं खुद अपनी प्रेरणा से तो कहीं ऊपर से राज्‍य की प्रेरणा व दबाव से धीरे-धीरे लगा और संलग्‍न हुआ। ठीक इसी बीच मेहनतकश किसानों के बीच जमीन की भूख यहां भी एक लंबे समय तक बनी रही, क्‍योंकि यहां जो भूमि सुधार हुआ वह जमींदार-पूंजीपति पक्षीय रास्‍ते से हुआ और इसीलिए जमीन का न तो पुनर्वितरण हुआ, और न ही राष्‍ट्रीयकरण। नक्‍सलबाड़ी आंदोलन के दौरान और बाद में जो महान संघर्ष हुए उसकी पृष्‍ठभूमि में हम इस पूरे इतिहास पर नजर डालें, तो यह सब और भी साफ-साफ दिखेगा। उस समय के कम्‍युनि‍स्‍ट आंदोलन ने अगर सही रणनीति व कार्यनीति अपनायी होती तो स्थिति निस्‍संदेह दूसरी हो सकती थी। ‘आजादी’ के ठीक पूर्व और बाद में, 1940 से लेकर 1960 के दशक पर ही दृष्टिपात करें, तो हम देखेंगे कि किसान आंदोलन, जिसकी कोर ताकत गरीब किसान थे, और मजदूर आंदोलन के अतिरिक्‍त आम जनांदोलन भी काफी उभार पर था। किसान आंदोलन से जुड़े कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों में सबसे बड़ा भटकाव यह आया कि पूरी लड़ाई भूमि सुधारों को लागू कराने के सुधारवादी संघर्ष में तब्‍दील हो गयी जिससे इस दौर की पूरी लड़ाई को क्रांतिकारी सारतत्‍व से अलग कर दिया। नक्‍सलबाड़ी की लड़ाई से आगे जिस बड़े और देशव्‍यापी आंदोलन की शुरूआत हुई वह इसकी भरपाई नहीं कर सकी। देखा जाए तो वह कर भी नहीं सकती थी जिसके कई कारण थे जो अभी इस लेख में विचारणीय नहीं हैं। नक्‍सलबाड़ी आंदोलन की परंपरा वाला आंदोलन कभी भी पूरी तरह दबाया नहीं जा सका, लेकिन यह टुकड़ों में विभक्‍त हो गया और होता ही गया। प्रकारांतर में यह बहुत तरह के भटकावों में फंसा और उससे आज तक नहीं निकल पाया। मुख्‍य बात यह थी कि पूंजीवादी कृषि की शुरूआत उसके शुरू होने के ठीक मध्‍य ही शुरू हुई लेकिन जिसे इस आंदोलन ने संज्ञान में नहीं लिया या कहें पूरी तरह नकार दिया। इधर पूंजीवादी कृषि आगे डग भरती हुई बढ़ती रही है और आज एक ऐसी प्रतिक्रियावादी ठौर हासिल कर चुकी है जिसमें बड़ी पूंजी की वर्चस्‍वकारी दखल से पूरे देश का  ग्रामीण अंचल सहमा हुआ है। जो चल रहा है उसमें यानी पूंजीवादी कृषि में किसान समुदाय अपना कोई भविष्‍य नहीं देखता है। पूंजीवादी कृषि का एक लंबे समय तक चलने वाला चरण अपने समग्र प्रतिक्रियावादी स्‍वरूप व ठौर को समेटे पूरा हो चुका है। विनाश का अगला चरण निस्‍संदेह और बड़ा होने वाला है। वर्तमान आंदोलन में इसकी अनुगूंज साफ सुनी जा सकती है। धनी किसानों की उपस्थिति के बावजूद इसे देख पाना एकदम आसान है। एक मात्र वहीं नहीं देख सकते हैं जो ‘किसी और के प्रेम’ में अंधे हैं। और इस वजह से क्रांतिकारी किसान आंदोलन का यहां से एक सर्वथा नया क्षितिज खुलता दिखता है।


[1] खासकर वह हिस्‍सा जो औद्योगिक-व्‍यापारिक पूंजीपति के रूप में अपने को तब्‍दील करने में सक्षम नहीं हुआ है। हम इसके बारे में लगातार लिख रहे हैं। 

[2] जहां तक हमारी बात है, हमलोग इससे होने वाले मानसिक कुप्रभावों से अपने आप को पूरी तरह निर्लिप्‍त कर चुके हैं और आलोच्‍य विषय की अंतर्वस्‍तु तक ही अपनी निर्मम से निर्मम आलोचना करने तक और उसे भी ज्‍यादा से ज्‍यादा अपने पत्र-पत्रिकाओं के पन्‍नों तक सीमित रखने (कुछेक अपवादस्‍वरूप स्थितियों को छोड़कर) का निर्णय ले चुके हैं। उनके द्वारा फेसबुक पर मचायी जा रही धमाचौकड़ी किसी विशेष प्रयोजन के निमित्‍त है या यूं ही ये आदत वश ऐसा कर रहे हैं, इसके बारे में हम नहीं जानते हैं, लेकिन इतना तो स्‍पष्‍ट है कि खास पैटर्न लिए उनका यह आचरण ”मार्क्‍सवादी चिंतक” होने के उनके ही दावे के विपरीत जाता है और वे खुद ही इस बात को लगातार खारिज करते चले जा रहे हैं कि वे कहीं से चिंतक भी हैं। पूरी मंडली का मौजूदा अभिनव आचरण और उनका उतावलापन उनके इसी दावे के गंभीर खतरे में पड़ जाने का सूचक है। जिस तरह कॉर्पोरेट के पक्ष में इन्‍होंने स्‍वयं ही अपनी अवस्थिति लुढ़क जाने दी, ठीके वैसे ही वे अब चिंतक होने के दावे को भी स्‍वयं ही खारिज कर रहे हैं। वे इसके लिए खुद जिम्‍मेवार हैं और इसके लिए किसी और को गालियां देना बेकार है।

[3] बिगुल मंडली के साथ जारी हमारी बहस के संदर्भ में हालांकि यह समझना जरूरी है कि ये सारे सवाल हमारे बीच के मतभेद नहीं है, क्‍योंकि जब ये यह मानते हैं कि कृषि‍ क्षेत्र में बड़ी पूंजी की दखल से गरीबों व मजदूरों व आम जनता को लाभ होने वाला है तो फिर इनसे इस विषय पर बहस करना गैरलाजिमी बात है कि इस आंदोलन में मजदूर वर्ग का हस्‍तक्षेप कैसे किया जाए। हां, इस बहस के फूट पड़ने से कुछ अन्‍य सैद्धांतिक सवाल पर मतभेद भी जाहिर हुए हैं और उन पर भी बहस जारी है, लेकिन वह बहस का महत्‍व ठीक-ठीक किसान आंदोलन के संदर्भ में ज्‍यादा कुछ महत्‍व नहीं है।

[4] यहां हमारे हस्‍तक्षेप का अर्थ यह है कि संकुचित व संकीर्ण अर्थों में नहीं लेकिन ऐतिहासिक अर्थों में अर्थात वह जिस हद तक पूंजीपति है और उसका अस्ति‍त्‍व गरीब मेहनतकश किसानों व मजदूरों के श्रम व संपत्ति की लूट पर आश्रित है उस हद तक संपूर्णता में उसके हितों के साथ गरीब किसानों व मजदूरों के ऐतिहासिक हितों के टकराव के प्रश्‍न को उठाते हुए इस आंदोलन में उसकी सीमा को हमेशा उजागर किया जाना चाहिए। और गरीब किसानों के उन पर विश्‍वास को भी हिलाना चाहिए। ऐसा किये बिना मजूदर वर्ग के हस्‍तक्षेप का कोई मतलब नहीं है और यह अलग से रेखांकित करने की जरूरत नहीं है। यहां ‘संकुचित’ शब्‍द का अर्थ यह है हमें ऐसा करते हुए बड़ी पूंजी को निशाने पर लेना नहीं भूलना चाहिए। संकुचित दृष्टि से ऐसा लग सकता है कि धनी किसान का यह संस्‍तर ही मुख्‍य दुश्‍मन है लेकिन इतिहास के इस मोड़ पर बड़ी पूंजी की प्रतिक्रियावादी मुहिम को नहीं देखना मजदूर वर्ग के ऐति‍हासिक मिशन से गद्दारी ही होगी। धनी किसान गरीब किसानों का ‘कल’ था तो आज धनी किसानों के हेाते हुए भी मुख्‍य रूप से बड़ी पूंजी है जो हमारा दुश्‍मन है और जिसे उखाड़़ फेंकने का काम ही समाजवादी आंदोलन का मुख्‍य काम है। बिगुल मंडली जैसे लोग जो बड़े पैमाने की उत्‍पादन व्‍यवस्‍था के बरक्‍स छोटे पैमाने की उत्‍पादन व्‍यवस्‍था का सवाल उठाकर बड़े पैमाने के उत्‍पादन को क्रांतिकारी और छोटे पैमाने को प्रतिक्रांतिकारी बताते हैं, और फिर इस आधार पर या इस बहाने कि धनी किसान बेशी मुनाफा वसूलते हैं वे बड़ी पूंजी को क्रांतिकारी और मुक्तिदाता मानते हैं, वे इतिहास और मार्क्सवाद दोनों के साथ ऐतिहासिक गद्दारी कर रहे हैं। एक हद तक यह बहस हुई और बाकी जारी है और जारी रहेगी।                    

[5] लेकिन यह भी सच है कि एमएसपी अभी तुरंत जाने वाला नहीं है।

[6] दूसरी तरफ, जिन प्रदेशों, जैसे पंजाब व हरियाणा, के छोटे व मंझोले किसान अभी एमएसपी का लाभ एक हद तक उठा पाते हैं, उनकी बढ़ी हुई आंदोलनात्‍मक सक्रियता का मुख्‍य कारण यह है कि यह लाभ अब उनसे छीन सकता है। दूसरी तरफ, जिन प्रदेशों के किसान इससे वंचि‍त हैं उनके लिए यह आकर्षक है क्‍येांकि उनके फसलों की सरकारी खरीद की गारंटी को भी यह मांग सुनिश्चित करती है।      

[7] हालांकि यह भी हो सकता है कि ऊंचे फ्लोर प्राइस के कारण जब अत्‍यंत गरीब किसान अपने खाने के लिए अनाज की कमी पड़ने पर बाजार से खरीदेंगे, तो फिर उन्‍हें महंगा खरीदना पड़ेगा और तब पासा उल्‍टा पड़ेगा। इसलिए अनाजों पर ऊंचा दाम खरीदकर खाने वाले अत्‍यंत गरीब किसानों के आर्थिक हितों के विपरीत है। 

[8] “The fate and the outcome of the Russian revolution—unless the incipient proletarian revolution in Europe exercises a direct and powerful influence on our country—will depend on whether the urban proletariat succeeds in rallying the rural proletariat together with the mass of rural semi-proletarians behind it, or whether this mass follows the lead of the peasant bourgeoisie, which is gravitating towards an alliance with Guchkov and Milyukov, with the capitalists and landowners, and towards the counter-revolution in general.” (LCW, Volume 24, p. 297)


‘द ट्रुथ’ व ‘यथार्थ’ में प्रकाशित पीआरसी के लेखों तथा ‘आह्वान’ पत्रिका में प्रकाशित हमारी आलोचना की सूची और लिंक :

‘द ट्रुथ’ में किसान आंदोलन पर छपे लेख :

अंक 8 : [Farmers Protest] Working Class Must Warn Centre: Desist from Using Force

अंक 9 : Proletarian Revolution in India Shall Arrive Riding The Waves of Peasant Unrest

अंक 9 : The Peasant Question in Marxism-Leninism

अंक 10 : The Proletariat And Emancipation Of Farmers

अंक 10 : 71 Days Of Farmers’ Movement: Crucial Second Phase

अंक 11 : What The New Apologists Of Corporates Are And How They Fight Against The Revolutionaries [1]

अंक 12 : Apologists Are Just Short Of Saying “Red Salute To Corporates” [2nd Instalment]

वर्ष 2 | अंक 1 : Transformation Of Surplus Value Into Ground Rent And The Question Of MSP: Here Too Our Self-Proclaimed “Marxist Thinker” Looks So Miserable! [3]

यथार्थ में किसान आंदोलन पर छपे लेख :

अंक 8 : कृषि संकट, वर्तमान किसान आंदोलन और मजदूर वर्ग की भूमिका

अंक 9 : किसानों की मुक्ति और मजदूर वर्ग

अंक 10 : किसान आंदोलन के 71 दिन : दूसरे महत्वपूर्ण पड़ाव के बारे में चंद बातें 

अंक 11 : कार्पोरेट के नए हिमायती क्‍या हैं और वे क्रांतिकारियों से किस तरह लड़ते हैं [1]

अंक 12 : कॉर्पोरेट को लाल सलाम कहने की बेताबी में शोर मचाती ‘महान मार्क्सवादी चिंतक’ और ‘पूंजी के अध्येता’ की ‘मार्क्‍सवादी मंडली’ का घोर राजनैतिक पतन [2]

वर्ष 2 | अंक 1 : “मार्क्सवादी चिंतक” की अभिनव पैंतरेबाजियां और हमारा जवाब [3]

‘आह्वान’ में छपे हमारी आलोचना वाले लेख :

मौजूदा धनी किसान आन्‍दोलन और कृषि प्रश्‍न पर कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्‍करण की समालोचना

धनी किसान-कुलक आन्दोलन पर सवार हो आनन-फानन में सर्वहारा क्रान्ति कर देने को आतुर पटना के दोन किहोते की पवनचक्कियों से भीषण जंग

पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय का नया जवाब या एक बातबदलू बौद्धिक बौने की बदहवास, बददिमाग़, बदज़ुबान बौखलाहट, बेवकूफियां और बड़बड़ाहट

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