‘नक्सलबाड़ी’ – इतिहास की मुख्य कड़ियों का संक्षिप्त पुनरावलोकन : पीआरसी, सीपीआई (एमएल)

यह लेख मूलतः नवम्बर 2013 में हुई पीआरसी, सीपीआई (एमएल) की पहली [असल में दूसरी] पार्टी कांफ्रेंस के दस्तावेज में प्रकाशित किया गया था जिसे हम 25 मई 2021 को नक्सलबाड़ी आंदोलन की 54वीं वर्षगांठ पर पुनःप्रस्तुत कर रहे हैं।


नक्सलबाड़ी : इतिहास की मुख्य कड़ियों के बारे में
(एक अतिसंक्षिप्त पुनरावलोकन और चंद अन्य बातें)

नक्सलबाड़ी, जो भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में आए एक सर्वाधिक यौवनमयी व गौरवशाली मोड़ का नाम है! भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के खून से रंजित इस अमर कहानी को ठीक ही भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की जवानी कहा जाता है। यह हमारे आत्मत्यागपूर्ण बलिदानों के एक ऐसे दौर का परिचायक है, जिसने असंख्य कुर्बानियों के बल पर भारतीय प्रतिक्रियावादी राज्य की चूलें हिला दी थीं। दरअसल यह एक ही साथ कई चीजों का परिचायक बना। यह शोषितों-पीड़ितों (मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मूलतः भूमिहीन व गरीब किसानों) का एक महान मुक्तिकामी जनांदोलन था, तो यह एक जीवंत वैचारिक राजनीतिक लड़ाई भी था, और उसका प्रतिफल भी। इसकी एक अंतरराष्ट्रीय पृष्ठभूमि थी, तो इसकी एक राष्ट्रीय पृष्ठभूमि भी थी। खुश्चेवपंथी गद्दारी के खिलाफ पूरी दुनिया में चली तत्कालीन वैचारिक राजनैतिक लड़ाई (मुख्य रूप से महान बहस) ने इसके उभार व तेवर को विचारधारात्मक पृष्ठभूमि दी, तो सी.पी.आई. व सी.पी.एम. सरीखी पार्टियों द्वारा वर्ग संघर्ष व क्रांति से भाग खड़ा होने और पूंजीवादी संसदीय भटकाव के कीचड़ में पूरी तरह लोट-पोट हो जाने से उत्पन्न नैराश्यपूर्ण परिस्थितियां इसकी क्रोधाग्नि को तत्काल दावानल में परिवर्तित हो जाने का तात्कालिक कारण बनीं। रोटी, इज्जत और जमीन की मांग इसकी बुनियाद में थी, तो लुटेरे वर्गों के खिलाफ जन साधारण के दिलों में घनीभूत वर्गीय घृणा ने इसे विस्फोटक रूप से फूट पड़ने के लिए जरूरी उर्जा प्रदान की।

नक्सलबाड़ी विद्रोह के पीछे कौन लोग थे, इसका नेतृत्व देने वाले कौन लोग थे? इसके नेतृत्व में सी.पी.आई.(एम.) के अंदर के वेसे क्रांतिकारी तत्त्व थे जो सी.पी.एम. की संसदीय आत्मसमर्पणवादी दिशा का लगातार विरोध कर रहे थे। यह वह दौर था जब पूंजीवादी संसदीय राजसत्ता की भूख सी.पी.आई. व सी.पी.एम. के शीर्ष नेतृत्व में पूरी तरह जग चुकी थी और सर चढ़कर बोल रही थी। तेलंगाना आंदोलन के वक्त ही यह भूख प्रकट हो चुकी थी। कॉ. चंद्रपुल्ला रेड्डी (सी.पी.) ने तेलंगाना आंदोलन में स्वयं हिस्सा लिया था और इसके साथ की गई गद्दारी को अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने इसके बारे में लिखी अपनी पुस्तिका में इसका बड़ा ही सटीक विवरण प्रस्तुत किया है। इसे पढ़ने से यह पता चलता है कि कम्युनिस्ट पार्टी किस तरह धीरे-धीरे संसदीय अवसरवाद के दलदल में धंसती चली गई। कॉ. सी.पी. इस पुस्तिका के अंत में सार-संकलन प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं – ‘प्रथम आंध्र विधान सभा में दूसरी सबसे सशक्त पार्टी के तौर पर सी.पी.आई. उभरी थी। फिर कुछ ही वर्षों बाद केरल विधानसभा में बहुमत हासिल करने और सरकार बनाने का अवसर भी प्राप्त हुआ था। हालांकि पूंजीवादी संसदीय राजसत्ता का यह सुख कुछ ही दिनों तक रहा और तुरंत ही नेहरू की केंद्रीय सरकार ने इसे भंग कर दिया था, लेकिन वामफ्रंट सरकार बनाने की राजनीतिक लाइन की जायकेदार खिचड़ी सबसे पहले वहीं पकी थी। 1964 में सी.पी.आई. की टूट हुई और सी.पी.आई.(एम.) का गठन हुआ, लेकिन शीर्ष नेताओं का चरित्र नहीं बदला। इसीलिए जब पश्चिम बंगाल में युक्त फ्रंट की सरकार बनी तो सी.पी.आई.(एम.) की शीर्ष कमिटी ने तुरंत इसके मंत्रीमंडल में शामिल होने का निर्णय ले लिया।’

इस तरह, जब नक्सलबाड़ी विद्रोह शुरू हो रहा था, उस समय बंगाल में युक्त फ्रंट की सरकार में सी.पी.एम. शामिल थी। इसके दो धाकड़ केंद्रीय कमिटी सदस्य ज्योति बसु और हरेकृष्ण कोनार तत्कालीन गैर-कांग्रेसी प्रांतीय युक्त फ्रंट सरकार में क्रमश: गृह मंत्री और कृषि मंत्री थे। केरल में संसदीय राजसत्ता के सुख से वचित कर दिए जाने के कड़वे अनुभव से लैस ये नवसंशोधनवादी इस बार सत्तासुख को बरकरार रखने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार बैठे थे। कैडरों में यह कहकर भ्रम फैलाया जा रहा था कि ‘सरकार हमारी अपनी है’, ‘गृह मंत्री और कृषि मंत्री हमारे अपने हैं’ और ‘सरकार के विरूद्ध घेराव और संघर्ष नहीं, इस गैर कांग्रेसी मंत्रीमंडल को प्रतिक्रियावादियों से बचाना होगा’ इत्यादि। दूसरी तरफ, पार्टी का शीर्ष नेतृत्व नक्सलबाड़ी विद्रोह को रोकने के लिए नीचे के कार्यकर्ताओं पर अनवरत दबाव बनाए हुए था। लेकिन इनकी यह चाल उल्टी पड़ गई। शीर्ष की गद्दारी का प्रत्युत्तर नीचे से शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह से दिया गया। संसदीय अवसरवाद के खिलाफ घनीभूत आक्रोश पूरी तरह फूट पड़ा। विद्रोह रूकने के बजाए दावानल में परिणत हो गया।

सी.पी.आई.(एम.) नेतृत्व भी सब कुछ के लिए जैसे तैयार बैठा था। उसने नक्सलबाड़ी के संघर्षरत गरीब आदिवासी किसानों को ‘सबक’ सिखाने का निर्णय लिया। नक्सलबाड़ी में पुलिस की गोली चली। आदिवासी किसानों के खून से नक्सलबाड़ी की धरती लाल हो गई। सी.पी.आई.(एम.) का समस्त शीर्ष नेतृत्व और ये दोनों मंत्री खुले तौर से सरकार के साथ खड़े थे। सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए विद्रोही किसानों को और स्वयं विद्रोह को ही गलत बताते रहे। पुलिस विभाग ज्योति बासु के अधीन था। इसीलिए ऐसा मानना गलत नहीं है कि गोली चलाने का आदेश स्वयं ज्योति बसु द्वारा दिया गया। लेकिन गोली चलने के बाद शोषकों-शासकों की आशाओं के विपरीत, ‘नक्सलबाड़ी’ की आग पूरे भारतवर्ष में फैल गई। सी.पी.आई.(एम.) के खिलाफ पार्टी के तमाम क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं का देशव्यापी विद्रोह भड़क उठा। आंध्रप्रदेश में कॉ. चंद्रपुल्ला रेड्डी और टी. नागी रेड्डी के नेतृत्व में इन संशोधनवादियों को हर प्रकार से चुनौती दी गई। 1968 में आंध्रा कम्युनिस्ट प्लेनम में सी.पी.आई. (एम.) के केंद्रीय दस्तावेज को पराजित किया गया। श्रीकाकुलम में दूसरा ‘नक्सलबाड़ी’ धधक उठा, जिसके बुझने के पहले ही गोदावरी घाटी का महान हथियारबंद प्रतिरोध संघर्ष उठ खड़ा हुआ, एक अर्थ में उसका दूसरा चरण बना।

इस तरह ‘नक्सलबाड़ी’ ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में वर्षों से पैर जमाए संसदीय अवसरवाद पर प्राणांतक प्रहार किया था। इसने तत्कालीन भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में कार्ल मार्क्स की भूला दी गई इस उक्ति व शिक्षा को कि ‘मजदूर वर्ग राज्य की बनी बनाई मशीनरी का उपयोग अपने लिए नहीं कर सकता है’ को भारी कुर्बानी देकर पुनर्जीवित करने का काम किया। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक छोटे से कस्बे में शुरू हुआ यह आंदोलन बहुत तेजी से मार्क्सवाद-लेनिनवाद की मुख्य अंतर्वस्तु पर आधारित एक ऐसी ऐतिहासिक वैचारिक राजनैतिक लड़ाई में तब्दील हो गया, जिसकी कोई दूसरी मिसाल भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में नहीं मिलती है। इसे अन्य तरीकों के अतिरिक्त राज्यसत्ता के खिलाफ मजदूरों-किसानों की राजनीतिक सत्ता के लिए खुली हथियारबंद बगावत’ के रूप में लड़ा गया। यह महज कहने भर की बात नहीं है कि आज भी ‘नक्सलबाड़ी’ शब्द से क्रांतिकारी उर्जा उत्सर्जित होती है। प्रतिक्रियावादी भारतीय पूंजीवादी राज्य आज भी इससे ‘आतंकित’ है। इसकी छाया भी भारतीय के लिए मानो एक बड़ा दुश्‍मन हो। ‘नक्सलबाड़ी’ की आग (मूल अंतर्वस्तु, शोषण के विरूद्ध विद्रोह की भावना) आज भी मरी नहीं है, बुझी नहीं है। राख के नीचे ही सही, लेकिन यह आज भी विभिन्‍न रूपों में प्रज्ज्वलित है जो हमारी उम्मीदों के अनुरूप जल्द ही दावानल में तब्दील होगी और भारत के पूंजीपतियों और भूस्वामियों की तानाशाही को सदा सर्वदा के लिए जलाकर भस्म कर देगी। पी.आर.सी. के इस प्रथम केंद्रीय सम्मेलन के अवसर पर आज हमारे लिए यह प्रण लेने का दिन है कि हम ‘नक्सलबाड़ी’ की अंतर्वस्तु को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हर संभव कुर्बानी देंगे। इस अवसर पर हम तमाम सच्चे क्रांतिकारियों से यह आह्वान भी करना चाहते हैं कि दक्षिणपंथी अवसरवाद के खिलाफ चली वैचारिक राजनैतिक लड़ाई की इस महान विरासत को मिट्टी में नहीं मिलने दें, ‘नक्सलबाड़ी की आग को कभी बुझने नहीं दें और वैज्ञानिक समाजवाद की पूर्ण विजय तक इसे प्रज्ज्वलित रखें।

नक्सलबाड़ी का सर्वोपरि महत्व किस बात में निहित है? इस बात में कि 25 मई, 1967 के दिन फूट पड़े इस महान बसंतनाद ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में पहली बार ‘राजनीतिक सत्ता’ के सवाल को पृष्ठभूमि से खींच कर इसके केंद्र में ला खड़ा किया था। यही वह चीज थी जो ‘नक्सलबाड़ी’ को अन्य आंदोलनों से अलग वह ऊंचाई प्रदान करती है, जिसका वह हमेशा से हकदार रहा है। आगे के एक पूरे दौर के लिए, और आज भी, इसका यही पहलू क्रांतिकारी दिशा/लाइन व व्यवहार का पैमाना बना हुआ है। यही चीज ‘नक्सलबाड़ी’ की यही मूल आत्मा भी थी। इसका यही सर्वोपरि महत्वपूर्ण पहलू था और है। ‘राजनीतिक सत्ता’ हासिल करने का सवाल आंदोलन का केंद्रबिंदु और सर्वप्रमुख सवाल बन गया। यह हर तरह के सुधारवाद और सुधारवादी अवसरवादी नारे का पूर्ण परित्याग था, चाहे वह क्रांतिकारी लिबास में लिपटा हुआ ही क्यों न हो। ज्ञातव्य है कि कॉ. चारू मजूमदार ने पुरानी राजनीतिक सत्ता को ध्वंस किए बिना और गरीबों-मेहनतकशों की नई राजनीतिक सत्ता कायम किए बिना ही जमीन जब्ती के संघर्ष आदि पर दिए जा रहे अत्यधिक जोर की तीखी आलोचना की थी। वे इसे संशोधनवाद और सुधारवाद मानते थे।

हम पाते हैं कि उनके द्वारा (नक्सलबाड़ी विद्रोह से पूर्व) लिखित ‘ऐतिहासिक आठ दस्तावेज’ में क्रांतिकारी रणकौशल को अत्यंत सरलीकृत और लगभग भोंड़े रूप में पेश किया गया है, लेकिन उसमें यहां-वहां बिखरे क्रांति के बीजकण मौजदू थे जिन्होंने नक्सलबाड़ी विद्रोह की लौ प्रज्ज्वलित कर दी। उसका ऐतिहासिक महत्व यह है कि उसने गहरी निराशा व हताशा के काल में उम्मीद की एक रोशनी को जलाने का काम किया था। जब तेलंगाना आंदोलन की पराजय के बाद दक्षिणपंथी अवसरवादी लाइन पूरी तरह हावी हो गई और जनता की मुक्ति के सारे रास्ते बंद होते नजर आने लगे और चारो तरफ हताशा व निराशा का माहौल बन गया था, उस समय इस ऐतिहासिक ‘आठ दस्तावेज’ ने ‘नक्सलबाड़ी’ की लौ जलाकर नई आशा का संचार किया। इस तरह ‘नक्सलबाड़ी’ की रोशनी पूरे देश में फैल गई और एक बार फिर से जनता की मुक्ति का रास्ता खुलता नजर आया। लेकिन यह शुरूआत भर थी। इसी से सब कुछ नहीं हो जा सकता था। ‘आठ दस्तावेज’ ने अपना शुरूआती कार्यभार पूरा किया, लेकिन एक क्रांतिकारी आंदोलन से शुरू कर के क्रांतिकारी पार्टी के गठन तक और फिर क्रांतिकारी आंदोलन को सफलतापूर्वक अंजाम तक ले जाने की क्षमता बिल्कुल ही दूसरी चीज है जो मौजूद नहीं थी। हम पूरी विनम्रता से कहना चाहते हैं कि इन सभी प्रमुख मामलों में ‘नक्सलबाड़ी’ का तत्कालीन नेतृत्व काफी पीछे रह गया। जिस तरह के सक्षम, गंभीर, धैर्यपूर्ण और गहरे सर्वहारा वर्गीय अनभवशील व कल्‍पनाशील नेतृत्व की आवश्यकता थी उसका नितांत अभाव था। हालांकि इस बात का अहसास आज हर किसी को है, लेकिन ठीक संघर्ष के बीच इसका मूल्‍यांकन करना इतना आसान न तब था और न ही कभी होता है।

यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी (सी.पी.), कॉ. टी. नागी रेड्डी, कॉ. डी.वी. राव और आंध्रप्रदेश व अन्य जगहों के उनके अन्य साथियों ने (जैसे बंगाल से कॉ. फणी बागची ने) नक्सलबाड़ी के नेतृत्व के गलत (निम्नपूंजीवादी) रवैये का शुरू से ही विरोध किया था। लेकिन गुटबंदी से ग्रस्त माहौल में उनके विरोध का असर उल्टा ही पड़ा। उन्हें न तो ए.आई.सी.सी.सी.आर. में शामिल कराया गया, न ही नवगठित सी.पी.आई.(एम. एल.) में। बाद में जो हुआ वह एक लंबी दास्‍तां है जिसके बारे में लिखना प्रस्‍तुत आलेख का विषयवस्‍तु नहीं है। पूरा नक्सलवादी आंदोलन भटकाव में जा गिरा। मानो क्रांति के बीजकण गुटबाजी के मंत्र में परिणत हो गए। क्रांति, आंदोलन, पार्टी, जन संगठन लगभग सभी मसलों पर अतिवाम तथा अराजकतावादी रूख अपना लिया गया। जन संगठन पर पार्टी ने ही प्रतिबंध लगा दिया। बंगाल और अन्य जगहों पर ट्रेड यूनियनों में से नेताओं को हटाकर देहातों में भेज दिया गया। मजदूर आंदोलन की लगभग पूर्ण तिलांजलि दे दी गई। जनांदोलन को अपार क्षति हुई। एक बार फिर यह साबित हुआ कि क्रांति के साथ खिलवाड़ नहीं करनी चाहिए। आज हमें इस बात का पूरी शिद्दत से अहसास है कि किसी क्रांतिकारी नारे व प्रश्न का मार्क्सवादी-लेनिनवादी ढंग से सैद्धांतिक निरूपण किया जाना कितना और क्यों जरूरी है। परिणामस्वरूप ‘नक्सलबाड़ी’ अपनी ऐतिहासिक मंजिल से विमुख होता गया। आज यह महान आंदोलन स्वयं अपनी छाया बन कर रह गया है। आज ‘नक्सलबाड़ी’ पर बात करते हुए संक्षेप में इस आंदोलन की उन आत्मगत और वस्तुगत सीमाओं के बारे में मुख्‍य रूप से कुछ चुनिंदा अतिमहत्‍वपूर्ण पहलुओं पर बात करना नितांत आवश्यक है, जिन्होंने इस मुक्तियुद्ध को विजय पथ से विचलित करने में एक तरह की ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए लिए हम यह पूछ सकते हैं कि ‘नक्सलबाड़ी’ से कौंधी आशा की नई तेज रोशनी की चकाचौंध में नेतृत्व की अगर दूरदृष्टि खत्म हो चुकी थी, तो प्रश्न है, आखिर क्यों?

नक्सलबाड़ी विद्रोह आखिरकार एक जनविद्रोह था, बावजूद इसके कि शुरू से ही इसके पीछे एक आत्‍मगत शक्ति काम कर रही थी। अंतिम तौर पर वह एक जन क्रांति थी जो फूट पड़ी थी जो क्रमश: अपनी आत्‍मगत शक्तियों से मुक्‍त होती गई। प्रकारातर में, ऐसा दिखता है कि उसे वस्तुगत तौर से अपनी एक स्वतंत्र गति हासिल हो चुकी थी, जो आत्मगत परिस्थितियों से पूरी तरह बेपरवाह थी। हम पाते हैं कि एक योजना के तहत लेकिन वस्‍तुगतता की कसौटी पर जन्मी लड़ाई अपने विकासक्रम में अंतत: आत्मगत शक्तियों की क्षमता से इतना आगे निकल चुकी थी कि वह उलटकर आत्मगत शक्तियों को निर्देशित करने लगी थी। यह मुख्‍य बात थी जिसे प्राय: विश्‍लषण करते हुए संज्ञान में नहीं लिया जाता है।  यह एक तरह से लगभग एक अनदेखी स्वयंस्फूर्तता की स्थिति से मेल खाने वाली स्थिति थी जो अन्य किसी भी चीज के मोहताज नहीं रह गई थी। वह पूरी तरह अपनी रौ में थी और अपने समक्ष मौजूद नेतृत्व, चाहे वह जैसा भी था, पर आनन-फानन में सैद्धांतिक, राजनीतिक और सांगठनिक फैसले लेने का दवाब बनाए हुए थी। ऐसे उदाहरण इतिहास में कम ही मिलते हैं, जिसमें एक शानदार क्रांति अंतत: अपनी आत्मगत शक्तियों, अर्थात स्वयं को जन्म देने वाली शक्तियों को अपना कैदी बना लेती है। तब क्रांति का उसके असली पथ से भटकना लाजिमी था। आज हमारे समक्ष यह बात स्‍पष्‍ट है कि जो हालात थे उसमें एक दृढ़, सच्चे अर्थों में संगठित, एकबद्ध और केंद्रीकृत लेनिनवादी पार्टी के बनने की एक वस्‍तुगत स्थिति मौजूद ही कहां थी। हम तत्कालीन नेतृत्व की अक्षमता का आज चाहे जितनी बार और जितनी गहराई से विश्लेषण कर लें, समय के पैरों में पड़ी इन परिस्थितिजन्य ऐतिहासिक जंजीरों की भूमिका को मूल्यांकन के केंद्र में नहीं रखना इतिहास के साथ अन्याय करना होगा। जरा गौर करें, एक जनविद्रोह फूट पड़ता है और विस्फोटक गति से पूरे देश में फैलते हुए सारी चीजों को अपने आगोश में ले लेता है। जो लोग इसके समर्थन में आये और जिन्हें लेकर अंतत: ए.आई.सी.सी.सी.आर.(ऑल इंडिया कोऑर्डीनेशन कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूश्नरीज) और सी.पी.आई.(एम.एल.) बनाया गया, उनमें से ज्‍यादातर चाहे अनचाहे एक खास तरह के गैर-लेनिनवादी प्रशिक्षण के प्रभाव में थे। हम कॉ. लेनिन की शिक्षाओं की बात करें, तो हम जानते हैं कि क्रांतिकारी प्रशिक्षण की भूमिका किसी पार्टी नेतृत्व व कार्यकर्ता के उसके सर्वहारा वर्गीय क्रांतिकारी चरित्र व व्यक्तित्व के निमार्ण में सबसे अहम होती है। आनन-फानन में और जैसे-तैसे गठित की गई ए.आई.सी.सी.सी.आर. से जुड़े साथी भावनात्मक तौर पर चाहे जितने भी क्रांतिकारी हों, लेनिनवादी ढंग के पार्टी प्रशिक्षण से वे वंचित थे और शायद एक हद तक अपरिचित भी हम आज इसे चाहे मानें या न मानें, लेकिन यह सच है कि यही चीज सी.पी.आई. (एम.एल.) में बाद में हुई बेतरह टूट-फूट और आज घर कर गई गहरी वैचारिक राजनैतिक जड़ता के लिए भी जिम्मेवार है। हालांकि यह कहना भी सही नहीं होगा कि उनका बनना समय की मांग नहीं थी। वह तो जरूरी थी ही और उपरोक्‍त विरोधाभास भी ठीक इसी बात में निहित है कि जो चीज जरूरी है उसके पूरा होने की शर्तें मौजूद नहीं थीं। 

सी.पी.आई. (एम.एल.) पार्टी का आज जो हस्र दिखाई देता है वह यही बताता है कि यह पार्टी लेनिनवादी ढंग के प्रशिक्षण, मिजाज और सोंच से अत्यधिक दूर थी। हम दृढ़ता से यह कहना चाहते हैं कि संशोधनवादियों व नवसंशोधनवादियों के बीच से ही आए असंख्य क्रांतिकारी तत्वों ने उपरोक्‍त क्रांतिकारी स्वयंस्फूर्तता को ही और आगे बढ़ाने का काम किया, क्योंकि उन्हें आनन-फानन में समेटने, प्रशिक्षित करने व परिपक्व बनाने के कार्यभार को मार्क्सवादी-लेनिनवादी ढंग से पूरा किया ही नहीं जा सकता था जो इस क्राति की एक ऐतिहासिक सीमा थी।

हम पाते हैं कि ए.आई.सी.सी.सी.आर. शुरू से ही गुटबंदी की शिकार थी और 22 अप्रैल, 1969 को बनी सी.पी.आई.(एम.एल) की गठन प्रक्रिया पर भी इसकी प्रेत छाया पड़ी रही। ए.आई.सी.सी.सी.आर. के गठन में मौजूद स्वयंस्फूर्तता के तत्वों व उनसे जुड़ी अनेकानेक अराजक प्रवृत्तियों के रूप में आत्मगत रूप से वह जमीन मौजूद थी, जिसमें बाद में नवगठित सी.पी.आई.(एम.एल.) के अंदर पनपी घोर रूप से अराजक व वाम अवसरवादी राजनीतिक-सांगठनिक व वैचारिक लाइन खूब पुष्पित तथा पल्लवित हुई। आज इससे शायद ही कोई इनकार कर सकता है कि तत्कालीन नेतृत्वकारी अगुआ कतारों में से अधिकांश में मौजूद धैर्य के नितांत अभाव ने अंतहीन जोशो-खरोशों की शक्ल में पूरे आंदोलन को निम्नपूंजीवादी भावना व विचारों के आगोश में धकेल दिया। हम यह भी देखते हैं कि प्रशिक्षण, ज्ञान और अनुभव की कमी की पूर्ति जोश से करने की कोशिश की गई, जो अपने अंतिम विश्लेषण में इस बात का ही परिचायक है कि क्रांति की बाह्य परिस्थितियों ने स्वयं अपनी आत्मगत शक्तियों को अपना बंदी बना लिया था। आज हमारे लिए सी.पी.आई. (एम.एल.) के ऐतिहासिक महत्व को संपूर्णता में आत्मसात करने व ठोस रूप से उसके सबक को सामने लाने के लिए इन कठोर सच्चाइयों को स्वीकार करना नितांत आवश्यक हो गया है।

ए.आई.सी.सी.सी.आर के वक्त से ही देश के कई कोनों से आलोचनाओं का आना शुरू हो गया था। लेकिन वे बेअसर रहीं। जैसा कि पहले कहा गया है, ए.आई.सी. सी.सी.आर. से लेकर सी.पी.आई.(एम.एल.) तक संगठन निर्माण में संकीर्ण रवैये और राजनीतिक लाइन में वाम अराजक प्रवृति के खिलाफ शुरूआत से ही उठने वाली सर्वाधिक सशक्त, सुसंगत और वैज्ञानिक आवाज कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी (कॉ. सी.पी.) तथा आंध्रप्रदेश के उनके अन्य दूसरे साथी क्रांतिकारियों के तरफ से आ रही थी। लेकिन इसके जवाब में उन्‍हें अलग-थलग कर दिया गया। आज यह किसी को भी स्पष्ट दिखाई दे सकता है कि उन दिनों की राजनीतिक-सांगठनिक या वैचारिक गलतियां क्या थीं और उनसे कैसे निपटा जाना चाहिए था। लेकिन उस दौर में इन प्रवृत्तियों के खिलाफ आवाज उठाना कठिन था। गलत प्रवृत्तियों के साथ साझा तौर पर काम करते हुए पूरे आंदोलन का परिष्कार करना तो और भी मुश्किल था। कॉ. चंद्रपुल्ला रेड्डी को अलग होकर आंदोलन का प्रांतीय स्तर का एक नया केंद्र (ए.पी.सी.सी.सी.आर. अर्थात आंध्र प्रदेश कोऑर्डीनेशन कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज) निर्मित करना पड़ा, जो प्रकारांतर में गोदावरी घाटी हथियारबंद प्रतिरोध संघर्ष को उसके उच्चतम शिखर तक ले जाने वाला केंद्र बना। जहां नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम का आंदोलन तीन से चार वर्षों के अंदर ही भयंकर पुलिस दमन से खत्म हो गया, वहीं गोदावरी घाटी का संघर्ष आपातकाल के भयंकर दमन काल को पार करते हुए और इसी दौरान कॉ. टी. नागी रेड्डी और कॉ. डी. भी. राव द्वारा संयुक्त से हुए किये गये राजनीतिक हमलों का सफलतापूर्वक सामना करते हुए इतना सशक्त हो चुका था कि लोगों का ध्यान स्वाभाविक रूप से उस ओर आकृष्ट होने लगा। यह एक और नई रोशनी थी जिसने अपनी लाल चमक से ‘नक्सलबाड़ी’ तक को ‘लाल’ कर कर रही थी। जब 70 के दशक के मध्य में कॉ. चारू मजूमदार और तत्कालीन केंद्रीय कमिटी की गलतियों को अस्वीकार करके के एक नये केंद्र का गठन किया गया, तो कॉ. सी. पी. उसमें बिना किसी हिचक के शामिल हो गए थे। एक सच्चे अखिल भारतीय पार्टी केंद्र का सपना साकार होने के निकट पहुंचकर हम सभी उत्साह से पूरे भरे हुए थे।

लेकिन भविष्य के गर्भ में तो कुछ और ही था। चंद वर्षों बाद ही एस. एन. सिंह, भास्कर नंदी, संतोष राणा आदि के नेतृत्व में हावी हुए घोर दक्षिणपंथी भटकाव ने इस केंद्र को अपना ग्रास बना लिया। इन्होंने सोवियत साम्राज्यवाद के  हमलावर चरित्र का विरोध करने के नाम पर अमेरिका और अमेरिकी समर्थक शासक वर्गों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की राजनीतिक दिशा को पूरे जोर-शोर से उठाया। परिणामस्वरूप यह केंद्र भी तहस-नहस का शिकार हो गया। केंद्र का एक अच्छा खासा हिस्सा सी.पी.आर. के नेतृत्व में जरूर आया, लेकिन इसमें लगातार टूट-फूट होती रही। यह वह दौर था जब हमारे आंदोलन में बड़ी तेजी से दक्षिणपंथ का प्रवेश होने लगा था। एस. एन. सिंह-संतोष राणा और भाष्कर नंदी के नेतृत्व में पहली बार इतने जोर-शोर से शासक वर्गीय मुख्य विपक्षी बड़ी व क्षेत्रीय पार्टियों के साथ चुनावी मोर्चा बनाने की लाइन तेजी के साथ हावी हुई। इसके तुरंत बाद, देश के बड़े हिस्से में, खासकर बिहार में यह और भी तेजी से हावी हुई। विनोद मिश्र के नेतृत्व में ‘इंदिरा निरंकुशता विरोधी मोर्चा की आवाज इसकी दूसरी सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति थी। दूसरी तरफ, चुनाव के बहिष्कार की दिशा भी पूरी तरह मुस्तैदी से मौजूद थी। इसी बीच, कोढ़ में खाज की तरह, जातिवाद (पिछड़ावाद, दलितवाद व आदिवासीवाद), क्षेत्रवाद, क्षेत्रीय स्वायततावाद, अलगाववाद, भाषावाद आदि के तरफ भटकाव भी काफी मजबूती से उभरे। हम देखते हैं कि कॉ. सी.पी. इन तमाम प्रवृत्तियों के खिलाफ शीर्ष स्तर पर यानी अखिल भारतीय स्तर पर उन दिनों लगभग अकेले लड़ते रहे और तत्कालीन सर्वाधिक सही क्रांतिकारी पार्टी केंद्र का बचाव करते रहे। लेकिन, सी.पी. वाले केंद्र व आंदोलन के अंदर 1983-84 में घुस आई अंदरूनी सड़न की प्रक्रिया को अगर हम पूरे आंदोलन के लिए एक केंद्रीय संकेत मानें, तो यह कहना ही पड़ेगा कि ‘नक्सलबाड़ी’ की पूरी बाजी अब पलटने वाली थी। और आज हम देख रहे हैं कि पूरी बाजी पलट चुकी है। खासकर पहला चंद्रम गुट द्वारा उठाए सवालों से, इसके बाद बचे केंद्र में हुई बेतुके टूट-फूट के सिलसिले से और संपूर्ण आंदोलन में आए दक्षिणपंथी ढलान से यह यह साफ-साफ प्रकट हो रहा था कि पूरे नक्सलवादी आंदोलन में जमीनी स्तर पर कुछ बुनियादी कमजोरियां पैदा हो गई हैं, कुछ बुनियादों चीजों पर चिंतन जरूरी हो गया है।

प्रश्न यह है कि इस आवेगमयी क्रांतिकारी इतिहास का मूल्यांकन कैसे किया जाए? इसके मुतल्लिक हम यह पाते हैं कि जो गलतियां हुई, वे आंदोलन से पूरा जुर्माना वसूले बिना न तो साबित हुईं और न ही दूर हुईं। एकमात्र बड़े पैमाने की क्षति उठाने के बाद ही आंदोलन में उनके खिलाफ सर्वव्यापी अहसास उत्पन्न हो सका। यह दिखाता है कि वे महज व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों की नहीं एक पूरे युग की गति से जुड़ी गलतियां थीं। वाम भटकावों के बारे में बात करें तो इस युग की विलक्षणता इस बात में निहित थी कि दशकों से पैर जमाए घोर दक्षिणपंथ से क्रांतिकारी अवस्थिति ग्रहण करने में ‘नक्सलबाड़ी’ जैसे जितने जोरदार धक्के और झटके की जरूरत थी, उसने उतने ही जोरदार आवेग विपरीत दिशा में उत्पन्न किए और जिसने उतने ही जोर से पूरे आंदोलन को अतिवाम की तरफ धकेल दिया। इसमें सही अवस्थान की चेतना और प्रेरणा दोनो लगभग लुप्तप्राय हो चुकी थी। सही मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थान किस चीज का नाम है, यह बात उन दिनों लगभग अप्रांसगिक हो चली थी। झूले का पाला बदल चुका था, वह एक तरफ से दूसरी तरफ चला गया था और पूरी गति में था। 60 के दशक के उत्तरार्द्ध व 70 के दशक के पूर्वाद्ध के दौर को जरा याद करें, क्या कुछ गजब नहीं हो रहा था। क्रांतिकारियों के बीच गूंजते ‘चीन का चैयरमैन हमारा चैयरमैन’ का नारा, क्रांतिकारी बनने के लिए एकमात्र ‘रेड बुक’ का नेतृत्व द्वारा सिफारिश किया जाना, ‘जिसका हाथ खून से सना नहीं, वह क्रांतिकारी नहीं जैसा फरमान, कान में किसी वर्ग दुश्मन के गुपचुप सफाये की बात फुसफुसाकर गुरिल्ला और फिर लाल सेना बना लेने के सुहाने सपने, ‘जीत महज चंद कदम दूर है’ बोल कर पूरे भारत को 1975 तक मुक्त कर लेने की घोषणा, ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति’ की भोंडी नकल का प्रयास आदि. ये ही सब बातें उन दिनों पार्टी व क्रांति की मुख्य दिशा की चीजें बन चुकी थीं। संपूर्णता में मार्क्सवाद-लेनिनवाद से हमारी दूरी खतरनाक स्तर तक बढ़ गई थी। माओवाद या माओ विचारधारा के चौखट्टे तक अपने को सीमित रखने की प्रवृति इतनी अधिक प्रबल हो चुकी थी कि सी.पी.आई. (एम.एल.) में मार्क्सवादी-लेनिनवादी नाम का टैग महज दिखावा रह गया था। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के ज्ञान के भंडार से आलोकित होने की बात बस कहने भर की चीज रह गई थी।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अतिवाम और अराजकतावादी भटकावों से हुई अपूरणीय क्षति के बाद जब ‘नक्सलबाड़ी’ अपने दूसरे चरण या दौर में पहुंचा, तो बुझ चुके ‘नक्सलबाड़ी’ और ‘श्रीकाकुलम’ की आग कॉ. सी. पी. रेड्डी के प्रत्यक्ष नेतृत्व में गोदावरी घाटी के हथियारबंद प्रतिरोध संघर्ष के रूप में पुनः प्रज्जवलित हो चुकी थी। लेकिन इन सबके बीच हम यह भी पाते हैं कि राज्य द्वारा पहले से जारी क्रमिक और राज्यपोषित जमींदारपक्षीय पूंजीवादी सुधारों ( भूमि सुधार सहित) की गति तीव्र से तीव्रतर तथा गहरी होती गई। पुराने जमींदार नये पूंजीवादी भूस्वामी में रूपांतरित होते गये। जमीन और जनवाद की भूख गरीब किसानों के बीच बनी रही, लेकिन पुराने सामंतवाद विरोधी संघर्षों से उसका आंतरिक सरोकार खत्म होता गया। जमींदारों ने पूंजीवादी खेती शुरू कर दी, भूमिहीन किसान सामंती गुलामी से मुक्त हो ‘स्वतंत्र’ मजदूर अर्थात उजरती गुलाम बन गये, तो साधनहीन (पूंजीविहीन) गरीब व निम्न मध्यम किसानों के लिए पूंजीवादी खेती जी का जंजाल बन गई। इससे जमीन के एक छोटे से टुकड़े के लिए लड़ाई की अंतःप्रेरणा खत्म हो गई। जनवाद की भूख सुसंगत जनवाद ( सर्वहारा जनवाद ) के जमीनी स्तर तक विस्तार और उजरती गुलामी से मुक्ति के सरोकार में बदल गई। जनवाद की लड़ाई विस्तृत हो गई और इसे मेहनतकशों और मजदूरों के बीच विस्तारित होने से बाधित करने वाली हत्यारी पूंजी के खिलाफ मुड़ती गई। उपरी तौर पर, खासकर गांवों में, ठहराव का आवरण बना, इसलिए कि पुराने सामंत ही पूंजीवादी कृषि के मुख्य एजेंट बन गये। इसकी वजह से गांव के अब ‘स्वतंत्र’ हो चुके मजदूरों पर पहले जैसा वर्चस्व बनाने की प्रक्रिया जारी रही। इसके अतिरिक्त पूंजी के अपने नग्न तांडव भी शुरू हो गए। जातीय उत्पीड़न पर आधारित पुराने सामाजिक विभाजन को अब पूंजी की सेवा में लगाया गया। निस्संदेह देहातों के गरीबों की लड़ाई कृषि-पूंजीवाद और उसके लगुए-भगुए के खिलाफ मुड़ गई, लेकिन आंदोलन पुरानी मनःस्थिति में ही बना रहा। परिणामस्वरूप इसे प्रायः पुराने नारों के मनोभाव से और पुराने फार्मेट पर ही लड़ा जाता रहा, जबकि अंतर्य में ये नारे काम ही नहीं कर रहे हैं। खेतों व खेती के लिए जमीन पर कब्जे की लड़ाई धीरे-धीरे विलुप्त होती गई। यहां तक कि जब्त की गई अधिकांश जमीन पर भी खेती नहीं हो रही। पूरी मेहनतकश आबादी देश के पैमाने पर गतिमान हो गई है। गांवों में पूंजीवादी खेती के गहरे तौर पर विस्तार होते ही गांवों के ‘स्वतंत्र’ मजदूरों के लिए रोजी-रोटी का अभाव पैदा होना लाजिमी था। पूंजीवादी संचय ने धीरे-धीरे इन्हें देहातों में ‘फालतू’ आबादी बना दिया। लेकिन शहरों में हो रहे श्रम की नग्न पूंजीवादी लूट के कारण इन्हें वहां भी नारकीय जीवन ही नसीब है। लेकिन इसका असर यह हुआ कि कृषि क्रांति और ‘देहात से शहर को घेरने’ की रणनीति प्रायः खत्म होती गई।

इसीलिए हम देखते हैं कि कॉमरेड सी.पी. रेड्डी के नेतृत्व में खड़ा हुआ गोदावरी घाटी का महान और गौरवशाली प्रतिरोध संघर्ष एक ऊंचाई पर जाकर रूक गया। थम सा गया। दरअसल संघर्ष के पीछे की वास्तविक पृष्ठभूमि (फॉर्मेट) के बदल जाने से पुराने तौर-तरीकों से संघर्ष को आगे ले जाने का रास्ता बंद हो चुका था। किसी भी तरह से टिके रहने और अपने आधार को विस्तारित करते जाने के जो छद्म कार्यनीतिक रास्ते बचे थे, वे सी.पी.आर. की वाम व दक्षिणपंथी अवसरवाद व अराजकतावाद विरोधी परम्परा से मेल नहीं खाते थे। यह एक ऐतिहासिक गतिरोध था जो कार्यनीतियों के बदलाव से दूर होने वाला नहीं था। ऐसे में इसे दूर करने के लिए कार्यनीति में बदलाव लाने की प्रत्येक कोशिश न सिर्फ बेकार साबित होती गई, अपितु, वह एक और भटकाव में भी परिणत होती गई। हम पाते हैं कि हमारे आंदोलन में ठीक यही हुआ। ऐसी ही कोशिशों का एक सर्वोत्कृष्ट उत्पाद सी.पी.आई. (माओवादी) है, तो इसकी दूसरी विलक्षण उपलब्धि ‘लिबरेशन’ जैसा नया घोर दक्षिणपंथी ग्रुप है। इन दो छोरों के बीच जो ग्रुप अस्तित्वमान हैं उनकी स्थिति भी अच्छी नहीं कही जाएगी।

प्रश्न है कॉ. सी.पी. यदि आज जिंदा होते तो क्या वे भी इन रास्तों पर चलना स्वीकार करते? अगर नहीं, तो दूसरा सवाल ठीक यहीं से यह खड़ा होता है कि तब वे क्या करते ? निस्संदेह, अगर सी. पी. आज जीवित होते तो इन प्रश्नों का उत्तर पाने की जद्दोजहद वे जरूर कर रहे होते, जैसा कि उनके अधिकांश लेखों को देखकर लगता है। लेकिन सी.पी. की मृत्यु हो गई यह तो एक अटल सच्चाई है। दुख की बात यह है कि उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी महान परम्परा, जो यहां आकर खत्म होती प्रतीत होती है, को आगे बढ़ाया जा सकता था, अगर उनकी पूरी परम्परा को गहराई से उनके बाद का केंद्र समझने की कोशिश करता। लेकिन आंखों पर एक युग की पट्टी चढ़ी थी। उनके नाम का माला जपा गया, लेकिन उन्हें गहराई से समझा नहीं गया। अपने अवसान की ओर जाते एक महान क्रांतिकारी युग ने आखिरकार कामरेड सी.पी. की महान परम्परा की भी बलि ले ली।

इस तरह 1980-84 के बाद से ही यह स्पष्ट हो गया था कि लड़ाई का मैदान बदला गया है। 1947 की ‘आजादी’ के बाद से ही लगातार क्रमिक सुधारों द्वारा धीरे धीरे बदलते पुराने समाज ने निस्संदेह इस दौरान एक नया ठौर पा लिया था। इसकी मुख्य धुरी बदल चुकी थी। अंतर्वस्तु में ‘नक्सलबाड़ी’ जिंदा रहा, वह भी सीमित ग्रुपों में और सीमित अर्थों में, लेकिन पुराने नारों का वस्तुगत आधार जाता रहा। लड़ाई का नया परिवेश उभर चुका था। नये नारों की जमीन तैयार हो चुकी थी। हत्यारी पूंजी को उखाड़ फेंकने का कार्यभार अंदर ही अंदर प्रस्तुत हो चुका था। एक युग का अंत, तो नये की शुरूआत हो चुकी थी। ठहराव और पुराने के बने रहने का अहसास सिर्फ एक अहसास भर ही है। इसीलिए जाने या अनजाने वर्णनात्मक लेखों में इन बदलावों को अनेकों प्रकार से स्वीकार भी किया जाता है, लेकिन मुख्य नारे और अन्य चीजों पर इसका कोई असर नहीं दिखा। यह एक किस्म की जड़ता थी, जिसे एकमात्र युग की जड़ता के रूप में ही समझा जा सकता है। आखिर सी. पी. जैसे दूरदृष्टि वाले योद्धा व नेता भी, जिन्होंने राज्यसत्ता को प्रत्यक्ष चुनौती दी थी और सी.पी.आई. व सी.पी.एम. मार्का दक्षिणपंथी अवसरवाद को परास्त करने में अपने मार्क्सवादी-लेनिनवादी ज्ञान का लोहा मनवाया था, जब उपरी आवरण में दिख रहे ठहराव की सतह के नीचे हो रहे नये बुनियादी परिवर्तनों को समझने में ‘बौना’ साबित होते हैं, तो यह क्या था ? हम कहेंगे यह युग की जड़ता थी जो उन्हें ‘बौना’ बना रही थी। यह पुराने युग के अवसान और नये के उदय के संक्रमण काल की जड़ता थी, जिसके मोहपाश को तोड़ पाना अक्सरहां अत्यंत कठिन होता है और हो रहे बदलावों को तब तक देखने से रोकता है जब तक कि वह स्वत: स्पष्ट न हो जाए। हमें यह चीज फ्रांसिसी क्रांति की जमीन तैयार करने में भ्रातृत्व, समानता और न्याय जैसे उच्च आदर्शों क आकांक्षाओं से परिपूर्ण हो अपने चहुंमुखी ज्ञान से पूरी दुनिया को अचंभित करने वाले उन फ्रांसिसी दार्शनिकों व महामानवों की याद दिलाती है जो पूंजीवादी क्रांति के पश्चात बने नये समाज में आई नये ढंग की बर्बरता से विचलित थे, लेकिन जो अपने देदीप्यमान आदर्शों से पूंजीवाद की तुच्छ सीमा से होने वाले टकरावों की वैज्ञानिक समझ से कोसों दूर थे। वे महामानव होकर भी अपने युग की ऐतिहासिक सीमा से बंधे थे और उससे उत्पन्न बौद्धिक जड़ता के शिकार बने हुए थे। अपने आत्मत्याग और क्रांतिकारी भावना के अविश्वसनीय प्रदर्शन के बल पर भी वे भावुकतापूर्ण समाजवाद की कल्पनाओं के आगे नहीं जा सके थे। इस मायने में वे पूरी तरह ‘बौना’ साबित हुए थे। सी.पी. रेड्डी जैसे महान योद्धा और नेता इसी तरह इस बदलते युग की पीड़ा और जड़ता को झेलने के लिए अभिशप्त थे। इसके अतिरिक्त सी.पी. की महान परम्परा में जितना कुछ सीखने योग्य है वह विलक्षण है और हम जैसे भारतीय क्रांतिकारी हमेशा उनके ऋणी रहेंगे। हां, अगर आज भी कुछ लोग पुराने नारों व रणनीति पर अटके हुए हैं, तो हमें यह कहना ही पड़ेगा कि वे युग की जड़ता के नहीं, स्वयं अपनी निजी जड़ता के शिकार हैं। आज जब कि समाज की धुरी में हो चुके बुनियादी बदलाव के चिन्ह इतने जोर-शोर से स्वयं को प्रकट कर रहे हैं, तब आंखों पर पड़ी पट्टी कहीं से भी युग की पट्टी नहीं है।

आंखों पर पड़ी यह बनावटी पट्टी का ही यह एक परिणाम है कि 1980 के बाद से मार्क्सवादी-लेनिनवादी आंदोलन में ‘नक्सलबाड़ी’ की वास्तविक अंतर्वस्तु का परित्याग करने की प्रवृति जोर पकड़ने लगती है। कालचक्र तेजी से चलता हुआ आगे बढ़ता है। हम देखते हैं कि 21वीं सदी के प्रथम दशक में परिस्थितियां लगभग पूरी तरह पलटने लगती हैं। हमारे नथूने फड़का देनेवाले और ‘नक्सलबाड़ी’ शब्द से पैदा होने वाली पुरानी बारूदी महक पूरी तरह बिखर कर आबोहवा से गायब होती गई। अब जो बच गए, वे ‘माओवादी’ धमाके हैं, जिनकी महक शायद सिर्फ ‘माओवादियों’ को ही दिवाना बना सकती है। उन धमाकों का हमारे व्यापक सर्वहारा मेहनतकश भाइयों के जीवन की वास्तविक चिंताओं और उनके जीवन के वास्तविक मुद्दों से सरोकार कम से कमतर होता गया। दूसरी तरफ, ‘लिबरेशन’ के संपूर्ण दक्षिणपंथी कायाकल्प से कोई भी समझ सकता है और यह शिक्षा ले सकता है कि किस तरह नक्सलबाड़ी की प्रतिष्ठा का उपयोग करते हुए ‘दक्षिणपंथी अवसरवाद का नया दैत्य’ छद्म जन सरोकारों की शक्ल में आकार ग्रहण कर सकता है, विशाल और ताकतवर बन सकता है। इसने तो दरअसल ‘मिलिटेंट रिविजनिज्म’ की एक नई प्रजाति ही खड़ी कर दी है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी खेमे के इन दो वर्णपट्टों के बीच अन्य दूसरे वर्णक्रम देखे जा सकते हैं, जिनमें नक्सलवादी रंगों की उपस्थिति महज पुराने नारों के दुहराव या तोतारटंत तक सीमित है। यह एक किस्म की अंदरूनी सड़न (internal debilitation) की प्रवृति थी जो हमारे आगे-आगे चल और बढ़ रही थी। हम देखते हैं कि सी.पी.आई. (एम.एल.) आंदोलन स्वयं अपने अंदर से अपने को खत्म करने वाले, अपने स्वयं का भक्षण कर लेने वाले उन कारकों को जन्म देने लगा, जो मूलतः इसलिए पैदा हुए क्योंकि आंदोलन नई जमीन और नये परिवेश को समझने में अक्षम साबित हुआ। अंधेरे में भटकते हुए और टुकड़ों में अंदाज से रास्ता तय करने जैसे हालात के ये स्वाभाविक परिणाम थे। नवजनवादी क्रांति को इसकी मंजिल तक ले जाने वाली (मजदूर वर्ग की) मित्र शक्तियों और उनके पुराने संश्रय को बुनियादी रूप से बदल देने वाला विकास समाज में हो चुका था। स्वभाविक है कि नवजनवादी क्रांति की सामाजिक-ऐतिहासिक प्रेरणा का अंत हो गया था। त्याग और बलिदान की अंतर्मुखी व बहिर्मुखी भावना पैदा करने वाली अंत:प्रेरणा लुप्त हो गई थी। आंदोलन के उद्देश्य निर्जीव जान पड़ने शुरू हो चुके थे। ऐसे में अगर इस महान आंदोलन में कई तरह के भटकाव पैदा हुए और ‘गद्दारी’ हुई, तो इसे महज इन कुछ नेताओं व कार्यकर्ताओं के नैतिक बल में आई गिरावट के रूप में नहीं समझा जा सकता है। आखिर पूरे आंदोलन में इसके लिए जमीन कहां से और कैसे तैयार हुई? आत्मत्याग भगोड़ापन में कैसे परिवर्तित हो गया? दिलेरी कैसे कायरता और बिकाउपन में बदल गई?

पूरी परिस्थिति ने आज एक अजीब सी स्थिति पैदा कर दी है। आज कई ऐसे ग्रुप हैं, जिनकी हथियारी ताकत ‘नक्सलवाड़ी’ के मुकाबले सौ गुना अधिक हो सकती है, लेकिन वैचारिक राजनैतिक अंतर्वस्तु के पैमाने से वे ‘नक्सलबाड़ी’ से सौ कदम नहीं तो दर्जनों कदम पीछे जरूर हैं। अधिकांश ‘क्रांतिकारी’ ग्रुपों के अंदर राजनीतिक अवसरवाद ने इतनी अधिक प्रधानता हासिल कर ली है कि ‘नक्सलवाड़ी’ से उनकी एकमात्र कुछेक नारों की समानता (जैसे नई जनवादी क्रांति, कृषि क्रांति, दीर्घकालीन जनयुद्ध आदि) के अतिरिक्त शायद ही कोई और दूसरी समानता दिखाई देती है। हम पाते हैं कि आज नक्सलबाड़ी के पुराने नारे, जो नई परिस्थिति में बेजान हो गए हैं और जिन्हें बदलने की जरूरत हैं, दुहराए जाते हैं, लेकिन उसकी आत्मा (अंतर्वस्तु, जिसके बारे में हमने ऊपर लिखा है), जिसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए, को हर कहीं मारा जा रहा है, उसे सरेआम नीलाम किया जा रहा है। ‘नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह’ से जुड़े आंदोलनों की आज की यह एक अजीबोगरीब विडंबना है जिसकी व्याख्या महज कुछ नेताओं या कार्यकर्ताओं के नैतिक पतन से नहीं की जा सकती है। गद्दारी तो अपनी जगह हो सकती है, लेकिन मूल वजह है समाज की वास्तविक धुरी को न समझ पाने की मजबूरी।

यह सच है कि इस पूरी प्रक्रिया का भी अब अंत हो रहा है, लेकिन जो तमाम तरह की विद्रुपताओं से भरा है। इस मजबूरी ने भी अब एक ठौर पा लिया है और इसके बारे में अब एक मुकम्मल राय बनाना जरूरी हो गया। बंगाल का उदाहरण लें। आखिर यह कैसे संभव है कि पश्चिम बंगाल में लिबरेशन से लेकर वैसे तमाम सी.पी.आई.(एम.एल.) ग्रुप मिल जाएंगे, जो कल तक सी.पी.आई.(एम.) को सत्ताच्यूत करने के लिए टी.एम.सी. के पिछलग्गु बने हुए थे और आज वे सभी पूरे बंगाल में संत्रास कायम करने वाली टी.एम.सी. का विरोध करने के नाम पर ‘वाम’ का हाथ बंटाते दिख रहे हैं! कहीं ‘वाम समन्वय समिति’ बन रहा है, तो कोई वामफ्रंट के साथ मिलकर लेनिन के जन्म-दिवस पर ‘टीएमसी संत्रास विरोधी’ रैली कर रहा है। कुछ ऐसे सी.पी.आई. (एम. एल.) ग्रुप हैं, जो अकेले अपने दम पर एक पंचायत की सीट तक नहीं जीत सकते, लेकिन वे ‘जनपक्षीय वाम सरकार’ बनाने की अपनी लाइन की घोषणा करते फिर रहे हैं। निस्संदेह, इसे ‘नक्सलबाड़ी’ की अंतर्वस्तु के साथ गद्दारी कहना अनुचित नहीं होगा, लेकिन जो परिदृश्य है, उसे महज गद्दारी कहने से न तो हम आंदोलन में आई वैचारिक-राजनैतिक जड़ता की जड़ तक पहुंच सकते हैं, न ही इससे यह जड़ता टूटने वाली है। आज की यही विशेषता है कि वैचारिक-राजनैतिक रूप से पूरी तरह जड़ बन चुकी परिस्थिति में घोर दक्षिणपंथ की यह पौध पनपी है। इसके अतिरिक्त कोई और व्याख्या हमें समस्या की तह तक और इसे दूर करने के उपायों तक नहीं ले जाती है। यह एक क्रांतिकारी युग के अवसान से पैदा हुई समस्या है। नये युग व नये परिवेश में अब नये योद्धाओं की बारी है। उन्हें अपने करतब दिखाने हैं और अपनी पुरानी क्रांतिकारी विरासत से अपने रक्तमांस सरीखे सम्बन्धों को नई कसौटी पर कसना और उसे साबित करना होगा। नक्‍सलबाड़ी की महान लड़ाई को याद करने का इससे अलग कोई और अर्थ नहीं हो सकता है। 

दरअसल, झूला जितने जोर से और जितनी दूरी तक वाम के तरफ गया था, उसी से तय होना था कि वापसी के वक्त वह एक बार फिर किस दूरी तक दक्षिण की तरफ जाएगा। आज हमारे सामने यह स्पष्ट है कि झूला किस हद तक दक्षिण के तरफ गया हुआ है तथा और कितना आगे जाने वाला है। यहां तक कि माओवादी गुरिल्ला युद्ध में भी जो कुछ घटित हो रहा है, वह भी इसके दक्षिण के तरफ जाने वाले आवेग को ही दिखा रहा है। पूरे माओवादी आंदोलन को समझने के लिए हम अगर इसके द्वारा संचालित हथियारबंद कार्रवाइयों को थोड़ी देर के लिए नजर से ओझल कर दें, तो हमें यह स्पष्ट दिखेगा कि राजनीतिक तौर पर इसमें दक्षिणपंथ के तरफ किस तरह का और कितना बड़ा झुकाव बना हुआ है। बस हथियार को छोड़ने भर की देरी है। हथियार की चकाचौंध में दक्षिणपंथ के तरफ उनका लुढ़काव नजर नहीं आता है। यह जैसे ही हटेगा, दक्षिणपंथ खुलकर सामने आ जाएगा।

आज हम यह कहने के लिए विवश हैं कि महान नक्सलवाड़ी आंदोलन प्रकारांतर में जिन वैचारिक-राजनैतिक भटकावों का शिकार हुआ, वे कोई मामूली भटकाव नहीं थे। वे उस युग के भटकाव थे जिसमें एक भारत ही नहीं पूरा विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन शामिल था। यह कोई संयोग नहीं है कि नक्सलवाड़ी में हुए बसंतनाद के समय और उसके वर्षों बाद तक हम सब यह महसूस करते थे कि हमारा आंदोलन हर तरफ से उठान पर है जबकि वास्तविकता यह थी कि पूरा विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन ही अंतर्य में पीछे जा रहा था। आज पीछे मुड़कर देखने वाला कोई भी संजीदा कॉमरेड इसे स्वीकार करेगा। बाह्य तौर से हम पूरी दुनिया में आगे बढ़ रहे थे और समाजवाद विजयी हो रहा था, लेकिन असलियत में अधिकांश मामले में हम पीछे जा रहे थे। ‘नक्सलबाड़ी’ और उसका तत्कालीन नेतृत्व तथा हम सब इस युग का हिस्सा थे और साथ में इसके शिकार भी। ‘नक्सलबाड़ी’ ने बाह्य तौर पर चाहे जो भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाले हों या महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाली चाहे जिस भी तरह की क्षमता से लैस रहा हो, वह इस युग के अंतर्द्वन्द्वों व भटकावों से नहीं बच सका। न ही वह बच सकता था। वह इस युग के पतन के अंत को लाने में सक्षम होने की शर्तें पूरी नहीं करता था। यही नक्सलबाड़ी का सबसे कमजोर पक्ष था। जो भी सम्पूर्णता में इस चीज को नहीं समझेगा, वह न तो नक्सलबाड़ी के महत्व को समझ सकता है और न ही इसमें आने वाले भटकावों की सही व्याख्या ही प्रस्तुत कर सकता है। हम फिर से यह दुहरा देना चाहते हैं कि नये युग व नये परिवेश में अब नये योद्धाओं की बारी है। उन्हें अब अपने करतब दिखाने हैं और अपनी पुरानी क्रांतिकारी विरासत से अपने रक्तमांस सरीखे सम्बन्धों को नई कसौटी पर कसना और उसे साबित करना है।

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

Create a website or blog at WordPress.com

Up ↑