कॉर्पोरेट को लाल सलाम कहने की बेताबी में शोर मचाती ‘महान मार्क्सवादी चिंतक’ और ‘पूंजी के अध्येता’ की ‘मार्क्‍सवादी मंडली’ का घोर राजनैतिक पतन [2]

प्रोलेटेरियन रिऑर्गनाइज़िंग कमिटी, सी.पी.आई. (एम.एल.)

यह लेख आह्वान पत्रिका में छपी आलोचना की प्रति आलोचना की दूसरी किश्त है। यथार्थ, अंक 11 में छपी पहली किश्त पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं कार्पोरेट के नए हिमायती क्‍या हैं और वे क्रांतिकारियों से किस तरह लड़ते हैं [1]

आह्वान द्वारा जारी इस आलोचना पर ‘द ट्रुथ’ के अंक 11-12 में अंग्रेजी में छपी प्रतिआलोचना की दोनों किश्तों को पढ़ने के लिए यहां जाएं – What The New Apologists Of Corporates Are And How They Fight Against The Revolutionaries [1]और Apologists Are Just Short Of Saying “Red Salute To Corporates” [2nd Instalment]

‘आह्वान’ में छपी आलोचना पढ़ने के लिए पाठक इन लिंक पर जा सकते हैं – (1) “मौजूदा धनी किसान आन्‍दोलन और कृषि प्रश्‍न पर कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्‍करण की समालोचनाऔर (2) धनी किसान-कुलक आन्दोलन पर सवार हो आनन-फानन में सर्वहारा क्रान्ति कर देने को आतुर पटना के दोन किहोते की पवनचक्कियों से भीषण जंग


पिछली बार हमने देखा, हमारे आंदोलन को एक अरसे से ‘शिक्षित’ करने की जिम्‍मेवारी लेने वाला ‘शिक्षक कुनबा’ दरअसल कॉर्पोरेट का हिमायती निकला। वैसे तो यह सर्वविदित है, फिर भी ये बताते चलें कि हमारे युग का महान ‘मार्क्‍सवादी चिंतक’ और ‘पूंजी का अध्‍येता’ तथा उसकी ‘मार्क्‍सवादी मंडली’ सब इस कुनबे के ही अलग-अलग हिस्‍से, सर और धड़ हैं। जब से यह बहस शुरू हुई है तब से ही इनकी साख गिरती चली जा रही है। इससे बुरी तरह खिन्‍न हो इन्‍होंने मानो पागलपन में चारों ओर बेइंतहा शोर मचाने की ठान ली है। एक वास्‍तविक आंदोलन की चोट ने ही बनावटी चटक क्रांतिकारी रंगों की मोटी परत में लिपटे इन तथाकथित क्रांतिकारियों की रंगत उड़ा दी है। लेकिन यह तो शुरूआत है। पूरा नकाब उतरना बाकी है।

उन्‍होंने फिर से हमारी ऊलजलूल आलोचना की है और पहले की ही तरह धुंए की एक मोटी परत छोड़ी है। आलोचना तो ठीक है उसका जवाब देना जरूरी है, ल‍ेकिन धुआं इनको ही मुबारक हो। जहां तक इनके द्वारा की गई आलोचना की बात है, तो उससे सिर्फ यही साबित हुआ है कि हमने थोड़ी सी चूक के साथ ही सही लेकिन इनका बिल्‍कुल सही मूल्‍यांकन किया है। ‘थोड़ी सी चूक’ यह है कि हमने यह तो समझा था कि ये कॉर्पोरेट के हिमायती हैं, लेकिन यह नहीं समझा था कि ये कॉर्पोरेट को लाल सलाम कहने को भी बेताब हैं। इस अर्थ में ये सब के सब उल्‍टे लटके दोन किहोते की मंडली निकले। दोन किहोते के विपरीत ये गरीब किसानों और मजदूरों के मित्र बनने का स्‍वांग रचते हुए कॉर्पोरेट अर्थात बड़े पूंजी‍पतियों के साथ जा मिले हैं। दोन किहोते के मरियल घोड़े और गत्‍ते की तलवार की जगह इनका मुख्‍य हथियार इनकी गालीबाज भाषा है जिसका इस्‍तेमाल करके ये एक ‘धुंध’ पैदा करते हैं और फिर उसके पीछे छुपकर कॉर्पोरेट का बौद्धिक पक्षपोषण करते हैं। इस एक चूक के अलावे हमारा मूल्‍यांकन शत-प्रतिशत सही साबित हुआ है। इसके बारे में हम इस लेख में बात करेंगे।

यह सच है कि इनके लिए अब बस इतना बाकी रह गया है कि ये ‘क्रांतिकारी’ कॉर्पोरेट को हाथ उठाकर लाल सलाम भी पेश कर दें। वैसे जिन गुणों से इन्‍होंने कॉर्पोरेट को विभूषित किया है वे लाल सलाम पेश करने से कमतर भी नहीं हैं। वे शायद इसके लिए सर्वथा उचित अवसर का इंतजार कर रहे हैं। और यह उचित अवसर और क्‍या हो सकता है कि यह आंदोलन अपने कॉर्पोरेट विरोधी लक्ष्‍यों की पूर्ति में बुरी तरह पराजित हो जाए या इसके नेता बिक जाएं! किसान आंदोलन को लेकर इनकी राजनीतिक दिशा पूरी तरह किसान आंदोलन के पतन या इसके नेताओं के जल्‍दी से जल्‍दी बिक जाने की संभावना पर टिकी है। इसमें ये इतनी दूर निकल आएं हैं कि अब लौटना मुश्‍कि‍ल नहीं असंभव है। इसलिए ये चाहे लाख संघर्षरत किसानों के जनवादी अधिकारों की बात करें, इस मंडली की राजनीतिक दिशा किसान आंदोलन के कुचले जाने में अंदर ही अंदर खुशी मनायेगी। इनकी राजनीति को देखते हुए इनका इस ओर प्रेरित होना बिल्‍कुल लाजिमी और स्‍वाभाविक बात होगी। तंज तो इनके लोग आज भी कर ही रहे हैं। अगर किसान आंदोलन के पतन के अवसर पर ये कॉर्पोरेट लॉबियों के जश्‍न में भी शामिल हो जाएं तो हमें आश्‍चर्य नहीं करना चाहिए। बाकी, ये आंदोलन का समर्थन करने वालों या इसमें हस्‍तक्षेप करने की मांग करने वालों पर लानतें भेजना तो न्‍यूनतम होगा जो ये करेंगे। इस आंदोलन के बरक्‍स इनकी यह भूमिका आज पूरी तरह स्‍पष्‍ट हो चली है।

हमने शुरू से ही कहा है कि इस बहस के भागीदार चाहे जैसे भी हों, इस किसान आंदोलन के मुद्दे हमारे लिए ही नहीं पूरे क्रांतिकारी आंदोलन के लिए बहुत महत्‍वपूर्ण हैं और इसलिए इन पर पूरे धैर्य और संयम के साथ बहस की जानी चाहिए। खासकर वर्तमान किसान आंदोलन में, जो कई मायनों में ऐतिहासिक हो चला है, मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी हस्‍तक्षेप ठीक-ठीक कैसे किया जाए यह एक सर्वोपरि महत्‍व का विषय है। लेकिन जहां तक कॉर्पोरेट के इन हिमायतियों के साथ इस पर गंभीर बहस कर सकने की गुंजायश की बात है, तो इसकी संभावना दिनोंदिन कम होती जा रही है। ये इसके विरोधी और कॉर्पोरेट के हिमायती ही नहीं, कॉर्पोरेट में गरीब किसानों और मजदूर वर्ग के ‘मुक्तिदाता’ की छवि भी देखते हैं। और वे अपनी इस अवस्थिति से पीछे लौटेंगे इसकी कोई गुंजाइश नहीं है। इसके विपरीत इनकी भूमिका और बोली दोनों मोदी या मोदी के भक्‍त सरीखे लोगों जैसी होती जा रही है जो यह मानते हैं कि नये फार्म कानून से कृषि में कॉर्पोरेट के होने वाले प्रवेश से गरीब किसानों और मजदूर वर्ग की बेहतरी होगी। पिछले दिनों मोदी ने लगातार कहा है उसकी सरकार द्वारा पारित ये कृषि कानून गरीब किसानों की मुक्ति के लिए हैं जिनके हितों के ऊपर धनी किसान कुंडली मार कर बैठे हैं। आश्‍चर्यजनक रूप से इनकी भाषा भी लगभग वैसी ही है। ये मानते हैं कि इसमें गरीब किसानों के लिए कुछ भी अहितकर नहीं है।

कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि इनके अनुसार कॉर्पोरेटपक्षीय (हालांकि हो सकता है इन्‍हें कॉर्पोरेटपक्षीय शब्‍द से भी आपत्ति हो) कृषि कानूनों से बस एमएसपी पर खतरा है जो गरीब किसानों तथा मजदूरों द्वारा धनी किसानों को दिया जाने वाला एक ट्रिब्‍यूट है और इसलिए वे इस खतरे में ठीक वैसे ही एक अवसर देखते हैं जैसे मोदी आपदा में देखता है। मतलब, उनके लिए यह एक अच्‍छे अवसर की तरह है कि कॉर्पोरेटपक्षीय कानूनों से ट्रिब्‍यूट का खात्‍मा हो जाएगा। स्‍वाभाविक है कि वे कृषि कानूनों को लेकर खुशी जाहिर करते हैं, भले ही  दबे रूप में। ये मानते हैं कि इसके हट जाने से धनी किसानों की कमर टूटेगी। जबकि एक तथ्‍य यह भी है कि एमएसपी के रहते हुए ही धनी किसानों की एक अत्‍यंत अमीर परत (जो ग्रामीण पूंजीपतियों की परत है) को छोड़कर इसके एक बड़े हिस्‍से की कमर सलामत नहीं रह गयी है। एमएसपी हटने के बाद ही धनी किसानों की कमर टूट जाएगी, लेकिन इसके बाद क्‍या होगा, किस तरह कॉर्पोरेट के द्वारा इस ट्रिब्‍यूट के ऊपर एक और बड़ा, दरअसल बहुत बड़ा ट्रिब्‍यूट (कीमतों के इजारेदाराना निर्धारण के द्वारा) देश की गरीब और कम आय वाली जनता पर लादा जाएगा, किस तरह जमीन पर धनी तथा बड़े किसानों की इजारेदाराना स्थिति की जगह कॉर्पोरेट इजारेदारी की स्थिति कायम होगी, किस तरह सरकार द्वारा कीमतों के निर्धारण में इजारेदाराना स्थिति की जगह कीमतों के निर्धारण में कॉर्पोरेट को पूरी और खुली छूट मिलेगी – इन सभी चीजों के ऊपर में ये पूरी तरह चुप्‍पी साध लेते हैं। इसका क्‍या अर्थ हो सकता है? इसका अर्थ इनकी मूर्खता से लेकर गद्दारी कुछ भी हो सकता है। लेकिन महत्‍वपूर्ण बात यह है कि ये धनी किसानों की शोषक स्थिति के बहाने ये कॉर्पोरेट के साथ जा मिले हैं। यही नहीं, इससे भी कहीं आगे निकलते हुए इनमें ये “मुक्तिदाता” की छवि देखते हैं। ऊपर से इनकी गालीबाज भाषा और आलोच्‍य विषयवस्‍तु के मर्म से अलग हटके किसी पूर्व-निर्मित बने-बनाये खुद के लिए सुविधाजनक फ्रेम में बहस करने की फासिस्‍टों से मिलती-जुलती शैली! ऊफ्फ!! 

तो क्‍या इनसे बहस करना बेकार है? कुछ लोग ऐसा ही मानते हैं, लेकिन यह सही समझ नहीं है। किसान आंदोलन तथा कृषि कानूनों पर इनकी इस समझ और बहस करने की उक्‍त शैली को देखने-परखने के बाद थोड़ी देर के लिए यह बात दिमाग में आती है कि इन पर इतनी उर्जा क्‍यों खर्च की जाए, लेकिन यह भी सही है कि इनसे बहस करते वक्‍त हम सिर्फ इनसे नहीं क्रांतिकारी आंदोलन से भी मुखातिब रहते हैं। उन साथियों से मुखातिब रहते हैं जो यह मानते हैं कि कॉर्पोरेट के खिलाफ संघर्ष में ही नहीं मजदूर वर्ग के आंदोलन के अंतिम व दूरगामी लक्ष्‍यों के परिप्रेक्ष्‍य में भी वर्तमान किसान आंदोलन का एक महत्‍वपूर्ण योगदान है या हो सकता है। मुद्दों को भी लें तो इसलिए भी यह बहस आवश्‍यक है। और इसलिए इनकी आलोचना का जवाब देना भी बेहद जरूरी है।

“विरोध नहीं आलोचना”: तर्क के नाम पर एक नया वितंडा 

इन्‍होंने जवाब में लिखा है कि ये किसान आंदोलन का विरोध नहीं उसकी आलोचना करते हैं। वे लिखते हैं कि :

“लेखक महोदय यह भी कहते हैं कि हम आन्‍दोलन का विरोध कर रहे हैं! जी नहीं, हम इस आन्‍दोलन की आलोचना करते हैं और यह मानते हैं कि धनी किसानों और उनके नेतृत्व का भी यह जनवादी अधिकार है कि वे मोदी सरकार के खिलाफ़ आन्‍दोलन करें।”

बहुत खूब! तो आप आलोचना करते हैं विरोध नहीं। और इसका कारण यह बताते हैं कि “क्‍योंकि इन धनी किसानों को भी आंदोलन करने का जनवादी अधिकार है।” लेकिन ऐसा जनवादी अधिकार तो पूंजीवादी जनवाद में पूंजीपतियों, जमींदारों, युद्ध सरदारों और नरसंहारकर्ताओं तक को भी प्राप्‍त है, तो उसका भी विरोध नहीं करेंगे आप? बस आलोचना करेंगे? यह कौन सा तर्क है। किसी के पल्‍ले पड़े तो बताएं। हम देख सकते हैं कि ये कैसे लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। वे एक तरफ यह मानते हैं कि धनी किसानों का यह कुलक आंदोलन गरीब किसानों और मजदूरों से ट्रिब्‍यूट वसूलना जारी रखने के लिए हो रहा है, लेकिन फिर भी वे इसका विरोध नहीं करते हैं, बस आलोचना करते हैं! दरअसल ये अपने को ज्‍यादा चालाक समझते हैं, शब्‍दों के हेर-फेर से असली मुद्दे से ध्‍यान हटाना चाहते हैं।

दरअसल ये अन्‍य मायनों में भी गलत है। अगर ये समझते हैं कि यह आंदोलन ट्रिब्‍यूट वसूलने के लिए है तो फिर इनका विरोध नहीं करना क्‍या है? हालांकि आलोचना करना भी विरोध का ही एक स्‍वरूप है, लेकिन जब ये दोनों को अलग करके देखते हैं तो पूछना ही पड़ेगा कि ये जिसे प्रतिक्रियावादी दुश्‍मन मानते हैं उसकी आलोचना करके क्‍यों रुक जा रहे हैं? इन्‍हें तो इनका विरोध करने और उखाड़ फेंकने की बात का आह्वान करना चाहिए। किसान आंदोलन को इतना अधिक प्रतिक्रियावादी मानते हैं तो फिर यह क्‍यों कहते हैं कि वे आलोचना करते हैं लेकिन विरोध नहीं करते हैं? यह क्‍या है जो बार-बार छलक जा रहा है? कायरता और डर? इसके बारे में हमने पिछली बार भी इशारा किया था। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि एक तरफ कॉर्पोरेट से दोस्‍ती, और दूसरी तरफ धनी किसानों से डर – यही है इनकी कुल क्रांतिकारी राजनीति। दरअसल इनका नारा होना चाहिए –बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेट के साथ मिल जाओ, छोटे प्रतिक्रियावादी वर्गों की आलोचना करो लेकिन विरोध नहीं करो, और किसी को भी उखाड़ फेंकने की बात मत करो।

इसीलिए हम कह रहे हैं हमारे युग का स्‍वघोषित “मार्क्‍सवादी चिंतक” उल्‍टा लटका दोन किहोते है, उसके सबसे बुरे किस्‍म का अवतार है।

ये’विरोध नहीं आलोचना’ का झंडा बुलंद करने वाले आखिर किसी की आलोचना करते ही क्‍यों हैं जब इन्‍हें उसका विरोध नहीं करना होता है? असली बात है – छद्म क्रांतिकारिता की चादर ओढ़े रखना और अपने को सबसे बड़ा क्रांतिकारी समूह साबित करना। लेकिन सवाल तो यह भी है कि यह भी वे क्‍यों करते हैं? जब मुख्‍य नारा है ‘विरोध नहीं आलोचना’, तो फिर यह ओढ़ी हुई क्रांतिकारिता भी किस काम की है, यह सोचने वाली बात है। इसलिए ये इतना सारा उपक्रम ही क्‍यों करते हैं, यह प्रश्‍न एक “यूरेका” प्रश्‍न है। जो इसका जवाब पाएगा वह आर्कमिडिज की तरह प्रसिद्ध हो जाएगा। हालांकि हमारा मानना है कि इसका उत्‍तर पाना उतना कठिन है नहीं जितना यह दिखता है।

यह सही है कि अगर हमें यह लगता कि कॉर्पोरेट की कृषि क्षेत्र पर होने वाली चढ़ाई से उपजे हालात में भी, यानी आज की तारीख में भी मध्‍यम किसानों का ऊपरी तबका और धनी किसान आदि ही गांवों की गरीब जनता के मुख्‍य दुश्‍मन हैं, सबसे बड़े ट्रिब्‍यूट वसूलकर्ता हैं और इसलिए क्रांति की मार्ग के सबसे अहम रोड़ा हैं तो हम सिर्फ आलोचना नहीं इनका विरोध भी करते और हर संभव तरीके से करते। हम ही क्‍यों, कोई भी क्रांतिकारी अपनी क्षमतानुसार यही करता, न कि इन बौनों की तरह ‘विरोध नहीं आलोचना’ का कायरतापूर्ण झंडा बुलंद करता।

लगान खत्‍म करने के बारे में ‘मार्क्‍सवादी चिंतक’ की रोमांचक चिंतन शैली : कॉर्पोरेट की ‘मुक्तिदाता’ की छवि बनाने की कोशिश

सबसे ज्‍यादा नंगा ये पूंजीवादी भूमि लगान तथा बेशी मुनाफे के वि‍षय पर ही हुए हैं जिस पर बात करना इनका सबसे प्रमुख शगल है। यह इनकी चिंतन शैली का ही दोष है कि कॉर्पोरेटपक्षीय कानूनों द्वारा, यानी कॉर्पोरेट की दखल होने से एमएसपी के खत्‍म होने की संभावना पर इनकी खुशी छिपाये नहीं छिपती है। कोई भी क्रांतिकारी भला पूंजीवादी भूमि लगान के पक्ष में क्‍यों खड़ा होगा, लेकिन कोई यह कहे कि कॉर्पोरेट की कृषि में चढ़ाई का उद्देश्‍य लगान खत्‍म करना है तो क्‍या कहा जाए। यह तो वास्‍तव में कॉर्पोरेट भूमि लगान लादे जाने की वकालत ही है। इस मंडली के लोग यही कर रहे हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि ये इसे क्रांतिकारी दिशा कहते हैं। वास्‍तव में तो इन्‍हें कॉर्पोरेट में गरीबों व मजदूरों की ‘मुक्ति का मसीहा’ दि‍खाई देता है।

जहां तक पूंजीवादी भूमि लगान को खत्‍म करने के क्रांतिकारी तरीके का सवाल है, तो इसका मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी तरीका क्‍या होगा इस पर बात होनी चाहिए। हम मानते हैं कि सर्वहारा क्रांति के द्वारा कृषि‍ का सामाजीकरण ही वह रास्‍ता है जिससे यह समूल रूप से खत्‍म होगा न कि कॉर्पोरेट के द्वारा। कॉर्पोरेट के द्वारा इसके खात्‍मे की उम्‍मीद करना क्रांतिकारियों की समझ का दिवालियापन ही माना जाएगा। इसलिए पीआरसी ने संघर्षरत किसानों के समक्ष सर्वहारा राज्‍य कायम करने की जरूरत का जो नारा दिया है वह इसके बिल्‍कुल अनुकूल था और है। लेकिन इस पर फिर कभी। फिलहाल हम यह देखेंगे कि हमारे युग का तथाकथित महानतम ‘मार्क्‍सवादी चिंतक’ किस तरीके से पूंजीवादी भूमि लगान और बेशी मुनाफा से कॉर्पोरेट की गोद में बैठकर लड़ना चाहता है।  

संक्षेप में, ये जिस तरह से भूमि लगान के विरूद्ध लड़ते हैं उसका वास्‍तविक अर्थ भूमि लगान का खात्‍मा करना नहीं बल्कि एक तरह की पूंजीवादी भूमि लगान की जगह एक दूसरे किस्‍म की, यानी कॉर्पोरेट एकाधिकारी भूमि लगान व्‍यवस्‍था के द्वारा उसे प्रतिस्‍थापि‍त करना है और जिसका भार पहले की तुलना में कहीं ज्‍यादा होगा, क्‍योंकि वह न सिर्फ बेशी मुनाफा होगा बल्कि अधिकतम मुनाफा के लक्ष्‍य से प्रेरित होगा और उस पर आधारित भी होगा। हम जानते हैं कि अधि‍कतम मुनाफा के बि‍ना आधुनिक पूंजीवाद यानी एकाधिकारी पूंजीवाद का काम नहीं चलता है। इसके बिना आम तौर पर उसको संतुष्टि नहीं होती। एक क्षेत्र में नहीं तो दूसरे क्षेत्र में इसके लिए हाथ-पांव मारता है। इसलिए आज के समय में सर्वहारा राज्‍य के आह्वान के द्वारा पूंजीवादी भूमि लगान को खत्‍म करने के अलावा और कोई दूसरा कॉल क्रांति‍कारी नहीं माना जा सकता है। कॉर्पोरेट (एकाधिकारी पूंजी) के द्वारा इसके खात्‍मे की उम्‍मीद करना, गल्‍ती से भी इसकी बात को उठाना, इस पर मौन सहमति देना या किसी भी कारण के बहाने इसके पक्ष में खड़ा होना, ये सभी चीजें आम जनता के हितों पर होने वाले महा कुठाराघात की दृष्टि से एक बहुत बड़ा आपराधिक कृत्‍य है और कॉर्पोरेट के ये हिमायती, हमारे बौने चिंतक की मंडली के लोग और पूरा ‘शिक्षक कुनबा’ एक साथ मिलकर ठीक यही कर रहे हैं।

वे लिखते हैं –

“अब आप समझ सकते हैं कि लाभकारी मूल्य क्या है। लाभकारी मूल्य एक प्रकार का बेशी मुनाफा ही है, जो कि धनी किसानों-कुलकों के वर्ग के हितों के लिए सरकार द्वारा कीमतों के एक ऐसे स्तर पर निर्धारण द्वारा पैदा होता है जो कि औसत मुनाफे से ऊपर बेशी मुनाफा सुनिश्चित करता है। लाभकारी मूल्य और कुछ नहीं बल्कि पूंजीवादी भूस्वामियों, पूंजीवादी फार्मरों व पूंजीवादी काश्तकार किसानों द्वारा समूचे समाज और मेहनतकश आबादी पर थोपा गया एक बेशी मुनाफा या लगान है, जो कि सरकार द्वारा कीमतों के इजारेदार निर्धारण के ज़रिये पैदा होता है। यह समाज से वसूला जाने वाला एक प्रकार ट्रिब्यूट है और जनविरोधी है।”

“एक दौर में भारतीय पूंजीपति वर्ग को राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कृषि में पूंजीवादी विकास के लिए पूंजीवादी धनी किसानों के एक पूरे वर्ग को खड़ा करने की आवश्‍यकता थी। इसी वजह से 1960 के दशक में तथाकथित ‘हरित क्रान्ति’ की शुरुआत की गयी और राजकीय संरक्षण के ज़रिये इस पूरे वर्ग को खड़ा किया गया। आज भारतीय पूंजीवाद जिस दौर में है उसे धनी किसान-कुलक वर्ग को इस प्रकार का संरक्षण देने की कोई आवश्‍यकता नहीं है, क्‍योंकि यह बड़ी इजारेदार वित्‍तीय-औद्योगिक पूंजी के लिए हानिकर है।”

“इसलिए आज बड़ी इजारेदार वित्तीय पूंजी इसे अपने हितों के मातहत ख़त्म करना चाहती है। यह एक अलग बात है। लेकिन यह ट्रिब्यूट किसी भी सूरत में आम मेहनतकश जनता के पक्ष में नहीं है, बल्कि उसके खिलाफ जाता है।”

“यह दीगर बात है कि इसके ख़त्म होने के बाद भी मेहनतकश जनता को इसका लाभ तभी मिलेगा जबकि वह इजारेदार वित्तीय-औद्योगिक पूंजीपति वर्ग से संघर्ष कर अपनी औसत मज़दूरी को उसी स्तर पर कायम रखे। अन्यथा इस ट्रिब्यूट के ख़त्म होने का पूरा लाभ केवल बड़े वित्तीय-औद्योगिक इजारेदार पूंजीपति वर्ग को ही मिलेगा। लेकिन इसका ख़त्म होना किसी भी रूप में मज़दूर वर्ग, ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों और शहरी निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग को नुकसान नहीं पहुंचाने वाला है। वजह यह है कि यह एक प्रकार का बेशी मुनाफा/लगान है जो पूर्णत: धनी किसानों-कुलकों को व्‍यापक आम मेहनतकश आबादी की कीमत पर लाभ पहुंचाता है।”

“क्या कोई कम्युनिस्ट लाभकारी मूल्य से मिलने वाले इस बेशी मुनाफे का समर्थक होगा? कतई नहीं! इस मांग का समर्थन करना अपने आप में पूंजीवादी कुलकों-फार्मरों के बेशी मुनाफे व लगानखोरी का समर्थन करना है। जो भी मार्क्सवादी यह कर रहे हैं वे अपनी अपढ़ता और मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के भूमि लगान के पूरे सिद्धान्त से अपरिचित होने के चलते ऐसा कर रहे हैं या फिर उनकी कार्यदिशा ही नरोदवादी, कौमवादी या संशोधनवादी-सुधारवादी है।”

“कृषि प्रश्न पर मार्क्सवादी समझदारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति किसी भी रणनीतिक या रणकौशलात्मक बहाने से लाभकारी मूल्य का समर्थन नहीं कर सकता है। यह वास्तव में मार्क्सवाद को छोड़कर वर्ग आत्मसमर्पणवाद, वर्ग सहयोगवाद और वर्ग पुछल्लावाद होगा और सर्वहारा वर्ग के सामान्य राजनीतिक आन्दोलन और समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में क्रान्तिकारी रणनीतिक वर्ग मोर्चे में शामिल हर वर्ग को नुकसान पहुंचाएगा और अभी पहुंचा भी रहा है।” (“अंडरलाइन” हमारा किया हुआ है)

इतने लंबे उद्धरण देने के लिए हम पाठकों से क्षमा चाहते हैं, लेकिन इनकी पूरी सफाई के लिए यह जरूरी है। हम पाठकों से इसे पूरा पढ़ जाने के लिए कहेंगे और फिर हमने जिन वाक्‍यों को रेखांकित किया है उस पर दोबारा गौर करने के लिए कहेंगे। इनकी पूरी चालाकी पकड़ी जाएगी। जरा इस पर गौर करें, ये लिखते हैं –

“इसलिए आज बड़ी इजारेदार वित्तीय पूंजी इसे अपने हितों के मातहत ख़त्म करना चाहती है। यह एक अलग बात है। लेकिन यह ट्रिब्यूट किसी भी सूरत में आम मेहनतकश जनता के पक्ष में नहीं है, बल्कि उसके खिलाफ जाता है।”

यानी, ये मानते हैं कि एमएसपी की व्‍यवस्‍था को ‘आज बड़ी इजारेदार वित्‍तीय पूंजी अपने हितों के मातहत खत्‍म करना चाहती है।’ क्‍या यह सच है? नहीं, यह सच नहीं है। ये कथन दो सच्‍चाइयों पर एक साथ पर्दा डालता है। पहला, बड़ी इजारेदार पूंजी इस ‘ट्रिब्‍यूट’ को खत्‍म नहीं, बल्कि उस पर अपना आधिपत्‍य कायम करेगी। दूसरे, वह यहीं नहीं रुकेगी, अपितु बेशी मुनाफे से भी आगे अधिकतम मुनाफा हासिल करेगी, जो ‘मांग और पूर्ति’ के बीच संतुलन को बनाये रखते हुए कुछ भी हो सकता है। इसके लिए सरकार इनकी जी-तोड़ मदद कर रही है। सरकार न सिर्फ कीमतों के निर्धारण में अपनी इजारेदाराना स्थिति खत्‍म कर ही है, अपितु करोड़ों गरीबों तथा कम आय वाले वर्गों की न्‍यूनतम खाद्य सुरक्षा को बनाये रखने के लिए वर्षों से जारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को भी खत्‍म करने जा रही है और हर पखवारे यह घोषणा बार-बार कर रही है कि सरकार का काम व्‍यापार करना नहीं है। यही नहीं, कृषि उपजों के व्‍यापार के नियम भी पूरी तरह इनके अनुकूल बना रही है और कॉर्पोरेट नियंत्रित कांट्रैक्‍ट खेती के नये कानूनों के द्वारा मुख्‍य कर्ताधर्ता के पद पर भी इन्‍हें ही आसीन कर रही है। इसी तरह के कई और कानून पाइपलाइन में हैं।

इन सच्‍चाइयों पर चुप्‍पी साध लेना और एकमात्र धनी किसानों द्वारा वसूले जा रहे ‘ट्रिब्‍यूट’ को आज के समय में रेखांकित करना आखिर क्‍या दिखाता है? क्‍या यह मजदूर वर्ग की धनी किसानों से स्‍वतंत्र राजनैतिक पताका फहराने की कोशिश मानी जानी चाहिए? या इसके नाम पर और उसकी ओट में कॉर्पोरेट यानी एकाधिकरी वित्‍तीय पूंजी के खेमे में पलायन कर जाना है? आश्‍चर्य है कि ‘मार्क्‍सवादी चिंतक’ और ‘पूंजी के अध्‍येता’ के मंडल सदस्‍यों को इस पर कहीं कोई शर्म नहीं आती है।

आइए,  इनके आगे की (हमारे द्वारा रेखांकित) बातों पर गौर करते हैं –

“यह दीगर बात है कि इसके ख़त्म होने के बाद भी मेहनतकश जनता को इसका लाभ तभी मिलेगा जबकि वह इजारेदार वित्तीय-औद्योगिक पूंजीपति वर्ग से संघर्ष कर अपनी औसत मज़दूरी को उसी स्तर पर कायम रखे। अन्यथा इस ट्रिब्यूट के ख़त्म होने का पूरा लाभ केवल बड़े वित्तीय-औद्योगिक इजारेदार पूंजीपति वर्ग को ही मिलेगा।” (इस हिस्‍से में बोल्‍ड हमारा)

पहली बात तो यह है कि इसमें कॉर्पोरेट द्वारा ‘ट्रिब्‍यूट’ को खत्‍म करने की बात दुहरायी गयी है। दूसरी बात, यह कहा गया है कि जब इजारेदार पूंजी यह ‘ट्रिब्‍यूट’ खत्‍म करेगी (वाह, कॉपोरेट पर क्‍या विश्‍वास है!) तो मजदूर वर्ग को अपनी औसत मजदूरी को उसी स्‍तर पर कायम रखने की लड़ाई लड़नी चाहिए ताकि इसका लाभ उसे मिल सके। अन्‍यथा, वे लिखते हैं, इस ट्रिब्यूट के ख़त्म होने का पूरा लाभ केवल बड़े वित्तीय-औद्योगिक इजारेदार पूंजीपति वर्ग को ही मिलेगा। 

ऊपर से देखने से यह बिल्‍कुल सही प्रतीत होता है। लेकिन यह दलील वास्‍तव में कितनी बेतुकी और मजदूर वर्ग विरोधी है, आइए इसे देखते हैं। इनके कथन के निहितार्थ निकालें तो ये पक्‍के तौर पर मानते हैं कि 1) मजदूर वर्ग की आज की औसत मजदूरी जीवनावश्‍यक भोजन सामग्रि‍यों व अन्‍य जरूरतों की आज की औसत कीमत के अनुकूल है 2) इसलिए जब कॉर्पोरेट के द्वारा ‘ट्रिब्‍यूट’ यानी बेशी मुनाफा खत्‍म किया जाएगा तो जीवनावश्‍यक भोजन सामग्रियों की औसत कीमत घटेगी (इनके अनुसार अवश्‍य ही घटनी चाहिए, ये जरूर उनसे ब्रीफ लिए बैठे होंगे) और इसलिए औद्योगिक पूंजीपति वर्ग स्‍वाभावि‍क रूप से मजदूरों को मिलने वाली औसत मजदूरी को कम करने (मजदूरों को जीवनावश्‍यक भोजन सामग्री की औसत कीमत में आयी गिरावट के अनुकूल बनाने के लिए, क्‍योंकि पूंजीवाद में समतुल्‍यों का विनिमय होता है) की कोशिश करेगा और इसलिए 3) अगर मजदूर वर्ग को ‘ट्रिब्‍यूट’ से मिली मुक्ति का लाभ उठाना है, यानी समतुल्‍यों के विनिमय के अनुसार तय औसत मजदूरी से ज्‍यादा मजदूरी प्राप्‍त करनी है तो उसे औद्योगिक पूंजीपति वर्ग की इस कोशिश को नाकाम करना होगा 4) लेकिन अगर मजदूर वर्ग ऐसा नहीं भी कर पाता है तब भी उसे कोई हानि नहीं होगी, यानी अगर एमएसपी खत्‍म करने के बाद मजदूर वर्ग की औसत मजदूरी गिरायी भी जाती है तो कुछ भी गलत नहीं होगा, क्‍योंकि ये साफ-साफ लिखते हैं कि “इसका ख़त्म होना किसी भी रूप में मज़दूर वर्ग, ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों और शहरी निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग को नुकसान नहीं पहुंचाने वाला है। बस इतना होगा कि इस ट्रिब्यूट के ख़त्म होने का पूरा लाभ केवल बड़े वित्तीय-औद्योगिक इजारेदार पूंजीपति वर्ग को ही मिलेगा।

कॉर्पोरेट पर इनका भरोसा अद्वितीय है। इसका क्रांतिकारी आंदोलन में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी, चाहे भारत में या विश्‍व में। लेकिन बात इतनी होती तो कोई बात नहीं। वे इस भरोसे को सीने से लगा कर जिएं या मरें, किसी को क्‍या पड़ी है। लेकिन उनके इस भरोसे में तो मजदूर वर्ग की औसत मजदूरी में आगे कटौती की छद्म वकालत छिपी है। और इस तरह चिंतन की यह पूरी शैली या विधि मजदूर वर्ग के विरूद्ध खड़ी हो जाती है। इस मंडली के इमानदार सदस्‍यों को मुझे गाली देने से ज्यादा इस बात पर सोचना चाहिए कि अपने उल्‍टे लटके दोन किहोते की इस चिंतन शैली पर गर्व करेंगे या छाती पीटेंगे।

एक ईमानदार अपील, कुछ तो शर्म करिये!

हम सच में अचंभित हैं कि अपने महान चिंतक की ऐसी चिंतन शैली से इस मंडली के सदस्‍य इतने अभिभूत आखिर कैसे रहते हैं। पहली बात, इन्‍होंने पढ़ रखा है कि मजदूर वर्ग की औसत मजदूरी उसकी श्रम शक्ति के समतुल्‍यों के मूल्‍य (मजदूर वर्ग की श्रमशक्ति के पुन: क्रियाशील होने के लिए जरूरी जीवनावश्‍यक सामग्रियों के मूल्‍य) से निर्धारित होती है इसलिए भारत में आज मजदूर वर्ग को मिल रही औसत मजदूरी उसके ठीक-ठीक अनुकूल होनी चाहिए और ये कहते हैं कि अनुकूल ही है। हम ये ऊपर देख चुके हैं। इजारेदार पूंजी पर इनके अतिशय भरोसे का आखिर रहस्‍य क्‍या है?

आज के भारत के मजदूर वर्ग की औसत मजूदरी इसकी श्रम शक्ति के समतुल्‍यों के मूल्‍य से वास्‍तव में काफी नीचे है और इसलिए ही मजदूर वर्ग के बीच इतने भयानक रूप से गरीबी और कुपोषण फैला है। न्‍यूनतम मजदूरी गिरकर न्‍यूनतम स्‍तर पर जा पहुंची है।

दूसरी बात, इनके अनुसार जब एमएसपी (ट्रिब्‍यूट) खत्‍म होगा तो कृषि उपजों की तथा कृषि उपजों से बनी भोजन सामग्रियों (प्रोसेस्‍ड फूड) की औसत कीमत कम होगी और इसलिए ‘ट्रिब्‍यूट’ के खात्‍मे से मजदूर वर्ग की औसत मजदूरी में (समतुल्‍यों के वि‍निमय के नि‍यम के अनुसार) गिरावट होगी, लेकिन इसमें इनके अनुसार कुछ भी गलत नहीं होगा, बस इतना होगा कि ‘ट्रिब्‍यूट’ के खात्‍मे से होने वाला लाभ अकेले वित्‍तीय-औद्योगिक पूंजीपति गटक लेगा। इस तरह हम अगर गौर करें तो पाएंगे कि असल में एमएसपी के खात्‍मे के बाद अप्रत्‍यक्ष रूप से इनके कथन और व्‍याख्‍या में मजदूर वर्ग की औसत मजदूरी में कटौती की वकालत है। इसके अलावे यह कहना भी कम आश्‍चर्यजनक नहीं है कि अगर मजदूर वर्ग अपनी पुरानी औसत मजदूरी बनाये रखता है तो इसका अर्थ यह होगा कि मजदूर को प्राप्‍त होने वाली मजदूरी वाजिब (समतुल्‍यों के विनि‍मय के नि‍यम के अनुसार वाजिब) औसत मजदूरी से ज्‍यादा प्राप्‍त होगी।

बड़ी पूंजी के प्रति गजब की पक्षधरता है! कुलमिलाकर बस इन फार्म कानूनों के लागू होने की देरी है, गरीब किसानों को सस्‍ते दर पर खाने की वस्‍तुएं प्राप्‍त होंगी और इतना ही नहीं मजदूरों की तो वास्‍तविक आय भी बढ़ जाएगी, बस उन्‍हें यह करना होगा कि अपनी पहले वाली औसत मजदूरी को उसी स्‍तर पर कायम रखने की लड़ाई लड़नी होगी। इसे क्‍या कहा जाए – मूर्खता, निर्लज्‍जता या खुलेआम दलाली – इसे हम पाठकों पर छोड़ देना चाहते हैं। हम बस इतना कहना चाहते हैं कि इनके महान ज्ञान का यह प्रकाशपुंज जल्‍द ही अस्‍त होने वाला है। ग्राडंड रेंट की अगर यही समझदारी है तो इसकी भी शुरू से जांच-पड़ताल करनी होगी। जमीन लगान की इनकी समझ का ही यह दोष दिखता है कि ये मानते हैं कि कॉर्पोरेट का काम ‘ट्रिब्‍यूट’ करना है।

हम अगर एक क्षण के लिए यह मान लें कि कॉर्पोरेट वही करेगा जो ये कह रहे हैं या ठीके वैसे ही होगा जैसा ये लिख रहे हैं तो स्‍पष्‍ट है ऐसे में गरीब किसानों या मजदूरों को सर्वहारा राज्‍य या क्रांति की कोई आवश्‍यकता नहीं होगी। कम से कम तत्‍काल तो कतई नहीं। इस बहस को फॉलो करने वाले पाठक अब समझ जाएंगे कि जब पीआरसी ने संघर्षरत किसानों के समक्ष उनकी मुक्ति के लिए सर्वहारा राज्‍य कायम करने की आवश्‍यकता के प्रश्‍न को रखा तो यह पूरा कुनबा हम पर इतना भयानक तरीके से क्‍यों टूट पड़ा।

क्‍या यह ‘मार्क्‍सवादी मंडली’ कृ‍षि में कॉर्पोरेट के प्रवेश का समर्थक नहीं है?

इनका कहना है कि पीआरसी द्वारा इस संबंध में लगाया गया आरोप गलत है। ये यह भी कहते हैं कि ‘हम कृषि‍ में कॉर्पोरट के प्रवेश से उत्‍पादक शक्तियों के विकास के सिद्धांत के भी समर्थक नहीं हैं।’ आइए इसकी फिर से इनके पहले और दूसरे जवाब के आलोक में भी जांच-पड़ताल करते हैं-  

सबसे पहले हम यह देखें कि पीआरसी ने इस संबंध में क्‍या कहा है। हमने इनके बारे में यह लिखा था –

“…they boldly say that the first two laws are also (sometimes and in some way) advantageous to the poor and lower middle peasant. They don’t put up any concrete analysis of the new laws and the subsequent new practice that these new laws will entail, but just equate the ‘would be practice’ (that these new laws will entail) with the old practice and experience of contract farming which has been going on for decades in India in piecemeal manner.”

हमने ऐसा किस आधार पर कहा था? इस आधार पर कि वे पटना के एक “संजीदा” कम्‍युनिस्‍ट समूह को दिये अपने एक “संजीदे” जवाब में पूरी “संजीदगी” से लिखते हैं कि :

“इस तरह की व्यवस्था (ठेका खेती) में भ्रष्टाचार के तत्व को छोड़ दें, तो हमें ऐसे कई मॉडल दिखते हैं, जहां… किसानों को भी इससे लाभ हुआ।”

हम पूछना चाहते हैं, क्‍या यह कृषि‍ में कॉर्पोरेट के प्रवेश का समर्थन नहीं है? ये बातें क्‍या चुटकुले सुनाने के लिए कही गयी हैं? कब तक धोखे की टाट से काम चलाइएगा, अब तो खुलकर आ जाइए, महानुभावों!

हमने आगे लिखा है –

“On whether the new farm laws on contract farming will increase or decrease the rate of poor and small peasants’ dispossession they maintain a deliberate ambiguity. For this, they have used the trick of equivocating.”

हमने ये लिखा क्‍योंकि वे लिखते हैं कि –

“बेशक, इस बर्बादी की दर और रफ़्तार में मात्रात्मक अन्तर होगा, मगर यह कहना मुश्किल है कि यह पहले की तुलना में तेज़ या धीमी ही होगी…” यानी, वे इस बात की संभावना के लिए जगह छोड़ दे रहे हैं कि कॉर्पोरेट इंट्री से बर्बादी की रफतार धीमी भी हो सकती है। (वही, पटना के “संजीदा” लोगों को “संजीदगी” से दिये इनके “संजीदे” जवाब से)  

यानी, ये यह मानते हैं कि कॉर्पोरेट पूंजी के प्रवेश से किसानों की बर्बादी की दर में कमी भी आ सकती है। क्‍या यह समर्थन नहीं है? इसलिए ही हमने आगे लिखा है कि ये अपनी बातों से निश्‍चि‍त ही कॉर्पोरेट के खिलाफ किसानों के मनोबल को कमजोर करने का काम करते हैं, जो कि एक दम सही बात है[1]

“Thus, they take a vacillating position that it isn’t certain that the new laws will definitely enhance the rate of poor peasants’ dispossession. The rate of dispossession may be anything, faster or slower – they say. Thus, they leave a scope for speculation. With such a stand, they definitely want to see the poor peasants’ soaring resolve against the corporates dampen.”

और, इसीलिए वे मानते हैं और अपनी समझ के अनुसार ठीक ही मानते हैं कि गरीब किसानों के उजड़ने की रफ्तार के सवाल को “क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग की राजनीति‍क लाइन तय करने में” शामिल नहीं करना चाहिए। वे लिखते हैं कि “चूंकि पहले के दो कृषि कानून एमएसपी की व्यवस्था को ख़त्म करके, मुख्य रूप से, धनी कि‍सानों और कुलकों को नि‍शाना बनाते हैं, और उसके लिए “जमीन साफ करके” कॉरपोरेट पूंजी को फायदा पहुंचाते हैं, इसलिए इनका मानना है कि मजदूर वर्ग के द्वारा इस बिंदु पर कॉरपोरेट का वि‍रोध करने का कोई मतलब ही नहीं है।

भाई, कॉर्पोरेट पूंजी का और कैसे समर्थन किया जाता है?

यहां हम यह बताते चलें कि, हमने पहले ही, यानी इसके ठीक ऊपर दिखा चुके हैं कि एमएसपी के हटने से धनी किसानों को प्राप्‍त होने वाले ट्रिब्‍यूट की जगह एक और दूसरे बड़े ट्रिब्‍यूट (साम्राज्‍यवादी इजारेदारी कीमतों के निर्धारण के रूप में) की प्रतिस्‍थापना होगी, जिसका भार आज की तुलना में कतई ज्‍यादा होगा, क्‍योंकि यह इजारेदार पूंजी के लिए अधिकतम मुनाफे के उद्देश्‍य से किया जाएगा न कि महज बेशी मुनाफे की वसूली के उद्देश्‍य से।

ऊपर की बातों से क्‍या स्‍पष्‍ट होता है? यही कि कृषि में कॉर्पोरेट के प्रवेश से गरीब किसानों की बेहतरी होगी और धनी किसानों की कमर टूटेगी जिससे कॉर्पोरेट पूंजी के लिए “जमीन साफ होगी” और इसलिए अगर हम इससे यह निष्‍कर्ष निकालते हैं कि इनका मानना है कि कॉर्पोरट पूंजी से ग्रामीण क्षेत्र में उत्‍पादक शक्तियों का विकास होगा तो यह गलत कैसे हैं? हम उनकी अवस्थिति को तोड़ते-मड़ोरते कैसे हैं? नदी में डुबकी लगाते समय मछली खाने वाले चालाक ब्राह्मण पंडित की तरह हमारा ‘महान’ चिंतक यह सोचता है कि अपनी बौद्धिकता के छिछले प्रवाह में डुबकी लगाकर कॉर्पोरेट की दी हुई मछली भी गटक लें और पकड़े भी न जाएं। अब जब मछली अटक गई है तो पहलवानी का नाटक कर रहे हैं। इसका सबसे बढ़ि‍या तरीका है कि सामने वाले पर धुआंधार गाली वर्षा कीजिये और हर जगह कानफाड़ू शोर मचाइये ताकि कौन मछली, किसकी मछली, कौन पंडित … किसी भी चीज का किसी को पता ही नहीं चले। लेकिन एक ही चालाकी बार-बार नहीं अपनानी चाहिए। इससे चालाकी पकड़ी जाती है और ठीक यही हुआ है। 

अब ऊपर के ठोस व तथ्‍यगत रूप से किये गये वर्णन के आलोक में इनके निम्‍नलिखि‍त आरोप का सार और अर्थ पाठक खुद से निकाल लें।

ये आगे लिखते हैं :

“यहां पीआरसी के लेखक महोदय सफेद झूठ बोल रहे हैं। हमने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि हमारी अवस्थिति क्या है और पीआरसी के लेखक महोदय यहां जानबूझकर हमारी अवस्थिति को विकृत करके पेश कर रहे हैं। लेखक महोदय झूठ और बौद्धिक बेइमानी तक पर उतर आते हैं। लेकिन ताज्जुब इस बात का है कि हमारी यह अवस्थिति है, इसे साबित करने के लिए जनाब लेखक ने हमारे एक उद्धरण को सन्दर्भ से काटकर पेश करने के अलावा हमें उद्धृत कर हमारी अवस्थिति कहीं रखने की ज़हमत ही नहीं उठाई है! उन्होंने केवल एक झूठी छवि खड़ी की है। वह यह साबित करना चाहते हैं कि हम कृषि में कॉरपोरेट पूंजी के प्रवेश का समर्थन करते हैं। (बोल्‍ड हमारा, उनके दूसरे जवाब से)  

तो इनका आरोप है कि ये उद्धरण हमने संदर्भ से काट कर पेश किए हैं। ये अभी भी कहना चाहते हैं कि ये कृषि में कॉर्पोरेट पूंजी के समर्थक नहीं हैं।

संदर्भ से काटने की बहस को समाप्‍त करने के लिए आइए, हम उनके द्वारा इस संदर्भ में लिखे गये पूरे पैराग्राफ को ही यहां उद्धृत कर देते हैं और एक बार फिर से इसे समझने की कोशिश करते हैं। वे लि‍खते हैं –

“इसी तरह, माना जाता है कि कॉरपोरेट कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग वह हथियार है, जो ग़रीब किसानों को सर्वहारा में बदल देगा। फिर से, इसके लिए कुछ उदाहरण दिए जाते हैं लेकिन बहुतों को छोड़ दिया जाता है। दुनिया भर में ठेका खेती के अनुभव बहुत अलग-अलग रहे हैं। इस तरह की व्‍यवस्‍था में भ्रष्टाचार के तत्व को छोड़ दें, तो हमें ऐसे कई मॉडल दिखते हैं, जहाँ मध्यम और ऊपरी-मध्यम किसानों को नुक़सान हुआ और ऐसे मॉडल भी हैं जहाँ किसानों को भी इससे लाभ हुआ। निश्चित रूप से यह सही है इस तरह की व्‍यवस्‍था बुनियादी मालों के वायदा कारोबार के साथ-साथ सट्टेबाज़ी को भी बढ़ाती है। लेकिन बड़ी एकाधिकारी पूँजी जिस भी क्षेत्र में प्रवेश करती है, वहाँ ऐसा ही करती है। हम छोटी पूँजी की बर्बादी के दृष्टिकोण से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे खुदरा व्यापार में, बड़ी एकाधिकारी पूँजी के प्रवेश का विरोध तो नहीं करते हैं (कृषि के मामले में, हम धनी और उच्च-मध्यम किसान की बात कर रहे हैं, जो बड़ी एकाधिकारी पूँजी की तुलना में छोटे पूँजीपतियों की भूमिका निभाते हैं)। फिर कृषि के क्षेत्र में बड़ी एकाधिकारी पूँजी रूमानी बुर्जुआ ढंग से विरोध क्यों किया जा रहा है? हमारा प्रस्थान बिन्दु वे सरोकार होने चाहिए जो ग़रीब मेहनतकशों, यानी मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसान और निम्न-मध्यम किसानों के वर्ग हितों से सम्बन्धित हैं, न कि अमीर कुलकों और फ़ार्मरों के वर्ग हितों से। अगर लेनिनवादी नज़रिये से इस रूपक का का उपयोग किया जाये, तो निश्चित ही इसे “राजनीतिक रूप से” विचार करना नहीं कहा जायेगा।” (अभिनव सिन्‍हां लिखित भारत में किसान प्रश्‍न पर “राजनीतिक ढंग से” विचार कैसे नहीं किया जाना चाहिए!, बोल्‍ड हमारा, है। (वही, पटना के “संजीदा” लोगों को “संजीदगी” से दिये इनके “संजीदे” जवाब से)

“निश्चित रूप से इस‍का ज़ि‍म्‍मेदार (गरीब किसानों आदि की बर्बादी का जिम्‍मेदार – वर्तमान लेखक द्वारा जोड़ा गया) कॉरपोरेट पूँजी नहीं बल्कि धनी मालिक किसानों और धनी लगानजीवी किसानों का वह वर्ग है जिसका उभार राज्य के समर्थन और प्रोत्साहन और त्वरित पूँजीवादी विकास के साथ हुआ है। आज अन्तर केवल यह है कि पहले यह बर्बादी धनी कुलकों, फ़ार्मरों, सूदख़ोरों, बिचौलियों और व्यापारियों के हाथों होती थी, और अब बड़ी एकाधिकारी पूँजी के हाथों होगी! बेशक, इस बर्बादी की दर और रफ़्तार में मात्रात्मक अन्तर होगा, मगर यह कहना मुश्किल है कि यह पहले की तुलना में तेज़ या धीमी ही होगी और निश्चय ही यह रफ्तार अपने आप में कोई ऐसा कारक नहीं है जिससे क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक लाइन तय होनी चाहिए, या है? उदाहरण के लिए, क्या क्रान्तिकारी सर्वहारा ग़रीब किसान से कह सकता है कि हमें कुलकों-धनी किसानों का समर्थन करना चाहिए क्योंकि वे तुम्‍हें धीमी और अधिक दर्दनाक प्रक्रिया में बर्बाद करेंगे, और कुलकों-धनी किसानों के दृष्टिकोण से (यानी एमएसपी व्‍यवस्‍था बचाने के लिए) कॉरपोरेट पूँजी का विरोध करें, क्‍यों वह तुम्‍हें ज़्यादा तेज़ी से बर्बाद कर देगी?” (स्रोत वही, बोल्‍ड हमारा)

इतने लंबे उद्धरण देने के लिए हम फिर से पाठकों से क्षमा मांगते हैं, लेकिन इनकी पूरी सफाई इसके बिना नहीं हो सकती है।

कोई भी यहां देख सकता है कि संदर्भ को काट कर उद्धरण पेश करने का विषय उठाना “गले में मछली अटक जाने पर” इधर-उधर की बात कर के शर्मिंदगी से बचने वाला तरीका है। यहां हमने पूरा पैराग्राफ उद्धृत कर डाला है। इससे हम जिस बात को स्‍पष्‍ट करना चाहते थे वह और ज्‍यादा स्‍पष्‍ट हुआ है और इनकी कॉर्पोरेट पक्षधरता और खुलकर प्रकट हुई है। शायद इसीलिए वे यह तो कह गए कि संदर्भ काट कर पेश किया गया है लेकिन कैसे, इसे बताने के बदले ये पूंछ उठाकर भाग खड़े हुए।

आइए, एक-एक कर यह देखें कि पूरा पैराग्राफ से ये किस तरह और नंगा हुए हैं।

(1) जब वे लिखते हैं कि हमारा प्रस्थान बिन्दु वे सरोकार होने चाहिए जो ग़रीब मेहनतकशों, यानी मज़दूर वर्ग, ग़रीब किसान और निम्न-मध्यम किसानों के वर्ग हितों से सम्बन्धित हैं, न कि अमीर कुलकों और फ़ार्मरों के वर्ग हितों से, तब यह एक बार फिर से यह साफ हो जाता है कि “कॉर्पोरेट का यह हि‍मायती समूह” नए फार्म कानूनों को एकमात्र धनी किसानों के विरूद्ध मानता है और गरीब किसानों आदि के लिए इसमें कुछ भी अहितकारी नहीं मानता है।

(2) इसी तरह जब कॉर्पोरेट के हिमायती समूह का नेता यह लिखता है कि निश्चित रूप से इसका ज़िम्मेदार कॉरपोरेट पूँजी नहीं बल्कि धनी मालिक किसानों और धनी लगानजीवी किसानों का वह वर्ग है जिसका उभार राज्य के समर्थन और प्रोत्साहन और त्वरित पूँजीवादी विकास के साथ हुआ है तब यह और खुलकर साबित होता है कि इस समूह का काम किसी न किसी तरह कॉर्पोरेट के पक्ष में तर्क करना है चाहे इसके कारण इनकी अपनी प्रतिष्‍ठा धूल में मिल जाए। जरा सोचि‍ए, यह ग्रुप मानता है और खुलकर लिखता है कि गरीब किसानों व मेहतनकशों आदि की बर्बादी की जिम्‍मेवारी से कॉपोर्रेट पूंजी पूरी तरह मुक्‍त है, क्‍योंकि लगानजीवियों अर्थात धनी किसानों को एकमात्र राज्‍य का समर्थन प्राप्‍त था, कॉर्पोरेट पूंजी का नहीं। ऐसी मार्क्‍सवादी व्‍याख्‍या भला और कहां से प्राप्‍त हो सकती है सिवाय इस ब्रह्मांड के एकमात्र महान ‘मार्क्‍सवादी चिंतक’ और ‘पूंजी के अध्‍येता’ की खोपड़ी के! कॉर्पोरेट के इन जैसे हिमायति‍यों के अलावा शायद ही और कोई होगा जो यह मानता होगा कि गरीब किसानों व मेहनतकशों की बर्बादी के पीछे एकमात्र कारण लगान यानी सीधे कहें तो एमएसपी है। कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा नियंत्रित पूरा बाजार, जहां से वे खाद, बीज, कीटनाशक व अन्‍य रसायन, पंपिंग सेट, ट्रैक्‍टर सहित अन्‍य यंत्र व मशीनरी व बिजली खरीदते हैं या फिर जीवन की अन्‍य जरूरत की चीजें व सेवा खरीदते हैं, बड़ी पूंजी की यह पूरी की पूरी जमात पूरी तरह से निर्दोष है। ये तो बस लगान है जो देश की गरीब जनता को अकेले बर्बाद कर रहा है! वैसे हम यह भी जानते हैं कि वे इसका जवाब क्‍या देंगे। लेकिन अभी उस पर नहीं, जब वे जवाब देंगे तो देखा जाएगा।

(3) तीसरी बात, राज्‍य और कॉर्पोरेट या बड़ी पूंजी के संबंधों पर भी ये निपट अवसरवादिता के साथ पर्दा डालते हैं, मानो राज्‍य द्वारा लगान के रूप में धनी किसानों को दिये जा रहे प्रोत्‍साहन की नीति से न तो बड़ी पूंजी का कोई लेना-देना था, और न ही इसका समर्थन ही था। हाय! कितने मासूम है यह बड़ी पूंजी! इसे तो उक्‍त प्रोत्‍साहन की जानकारी भी नहीं होगी, है कि नही! जाहिर है, ऐसी मासूम बड़ी पूंजी के हिमायतियों की मासूमियत भी कैसी होगी, इसकी तो बस कल्‍पना ही की जा सकती है।

इसलिए ही तो हम इन्‍हें कॉर्पोरेट के हिमायती मानते और कहते हैं। यह अलग बात है कि ये हिमायती से भी आगे नि‍कलते हुए कॉर्पोरेट पूंजी में गरीबों के ‘मुक्तिदाता’ की छवि देखने लगे हैं, कॉर्पोरेट को लाल सलाम पेश करने को बेताब हो गए है, क्‍योंकि इन्‍हें लगता है कि कॉर्पोरेट पूंजी जल्‍द ही एमएसपी की व्‍यवस्‍था को खत्‍म कर के गरीबों को लगान से आजाद कर देने वाली है। हम ऊपर दिखा चुके हैं कि यह किस तरह मजदूरों और गरीब किसानों के लिए पूर्ण रूप से छलावे की बातें हैं। हम फिर से यह दुहरा देते हैं कि कॉर्पोरेट के प्रवेश से एमएसपी को खत्‍म होगा, लेकिन लगान नहीं, यह तय है। कहने का मतलब, धनी किसानों को जाने वाले लगान के ऊपर खत्‍म अपने लिए एक और बड़ा लगान जनता पर थोपेंगे। कृषि उत्‍पादों व मालों के बाजार तथा प्रकारांतर में किसानों की जमीनों पर भी अपने वर्चस्‍व के द्वारा कृषि मालों की कीमतों के निर्धारण में अपनी इजारेदाराना स्थिति के कारण अधिकतम मुनाफा हेतु इजारेदाराना कीमतों के रूप में एक बहुत बड़ा ‘लगान’ स्‍वरूप बोझ जनता पर डाली जाएगी। हम इसे आम तौर पर कॉर्पोरेट या साम्राज्‍यवादी लगान कह सकते हैं। हमारे ‘मार्क्‍सवादी चिंतक’ को पहले वाले ट्रिब्‍यूट या लगान से दिक्‍कत है, लेकिन इस बाद वाले से नहीं। इतना ही नहीं, पूरी मासूमियत के साथ एलान करता है कि कॉर्पोरेट द्वारा इसे खत्‍म कर देने से किसी भी रूप में मज़दूर वर्ग, ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों और शहरी निम्न मध्यम व मध्यम वर्ग को नुकसान नहीं पहुंचाने वाला है। ऐसी मासूमियत पर भला किस कॉर्पोरेट का दिल लट्टु नहीं हो जाएगा!

उन्‍होंने अपने नयी आलोचना में इस संबंध में क्‍या लिखा है?

अपने नये लेख में गालियों के अलावे इन्‍होंने जो भी लिखा है उसके बाद शायद ही किसी को इनकी कॉर्पोरेट पक्षधरता के बारे में शक रह जाएगा। वे न सि‍र्फ यह मानते हैं कि कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में उत्‍पादक शक्तियों का विकास होगा, बल्कि वे इसके समर्थक भी हैं जिसके बारे में वे कहते हैं कि पीआरसी ने उनकी गलत छवि बनायी है।

वे बड़ी पूंजी, मशीनीकरण और बेरोज़गारी शीर्षक के तहत लिखते हैं –

“कॉरपोरेट पूंजीपति खेतों में खाट डालकर बैठने के लिए कृषि सेक्टर में निवेश नहीं करने जा रहे हैं! कॉरपोरेट पूंजी का निवेश गांव में उत्पादन तथा संचरण की गतिविधियों में होगा और दोनों ही सूरतों में मज़दूरों की ज़रूरत होगी। …ऐसा लगता है कि लेखक महोदय धनी किसानों-कुलकों के साथ तदनुभूति और तादात्म्य स्थापित करते हुए, उनके भय के साथ एकाकार हो गये हैं और धनी किसानों-कुलकों के अस्तित्व पर ख़तरे को समूची ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गांवों पर ही ख़तरा मान बैठे हैं…

इन दोनों उद्धरणों में जो मुख्‍य बात है वह क्‍या है, सिवाय इसके कि वे कॉर्पोरेट को दिल दे बैठे हैं, जैसा कि हम लगातार दि‍खाते और साबित करते आ रहे हैं। ये हम पर गांवों के बारे में रूमानी भाव अपनाने का आरोप लगाते हैं, लेकिन खुद कॉर्पोरेट पूंजी को लेकर कितनी रूमानियत से भरे हैं ये ऊपर दिख गया। लेकिन ये तो फि‍र भी कुछ नहीं है।

वे अगे लि‍खते हैं –

मशीनीकरण के कारण, यानी कि पूंजी के तकनीकी संघटन (technical composition of capital) में बढ़ोत्तरी के कारण प्रति मशीन मज़दूर की संख्या घटती है। लेकिन यदि पूंजी संचय स्वस्थ अवस्था में है, यानी विस्तारित पुनरुत्पादन हो रहा है, लाभप्रद निवेश के नये अवसर पैदा हो रहे हैं, तो मशीनों की कुल संख्या में भी निरपेक्ष बढ़ोत्तरी होती है और इस प्रकार रोज़गार से विकर्षित मज़दूर आबादी को पूंजी वापस आकर्षित कर सकती है।(बोल्‍ड ऑरिजिनल में)

कोई भी देख सकता है कितनी और कैसी रूमानियत से कौन भरा हुआ है। यह कह रहे हैं कि कॉर्पोरेट पूंजी कृषि में विस्‍तारित उत्‍पादन के लक्ष्‍य से आ रही है और लाभप्रद निवेश की स्थितियां बहुतायत में उपलब्‍ध हैं तथा इस कारण पूंजी संचय स्‍वस्‍थ अवस्‍था में है और बिना किसी रूकावट के यह संपन्‍न हो रहा है तथा आगे भी होगा। यानी, ये खुद मान रहे हैं कि कॉर्पोरेट की देहातों के विकास में एक बहुत बड़ी भूमिका है। इसके बाद भी ये पीआरसी के लेखक को दोष देते हैं कि उनकी छवि हम जानबूझकर खराब कर रहे हैं। जनाब! जो स्‍वयं अपने मुंह पर कालि‍ख पोतने में गर्व महसूस करता है, उसके लिए हम क्‍यों अपने हाथ काले करेंगे!

जहां तक आर्थि‍क संकट की बात है, तो अब से पहले हम यही जानते थे कि ये पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था को संरचनात्‍मक और स्‍थाई रूप से संकटग्रस्‍त मानते हैं। बात वही है, वास्‍तविक आंदोलन की एक ही चोट ने इनके ऊपर के बनावटी रंगों की परत झाड़ कर रख दी है। यह सच्‍चाई है कि भारत के कृषि संकट के मूल में ‘अतिउत्‍पादन’ का संकट ही व्‍याप्‍त है जिसके कारण कृषि मालों व उपज की ब्रिकी की भयानक और लगभग स्‍थाई समस्‍या पिछले कई दशकों से संघनित रूप से उठ खड़ी हुई है और साथ ही दामों के लगातार गिरने की प्रवृत्ति जारी है, जिससे धनी किसानों के एक तबके तक को खुले बाजार में मुक्‍त व्‍यापार के प्रति पुराने मोह को त्‍यागने के लिए मजबूर कर दिया है। मोह का यह परित्‍याग छोटी अवधि के लिए हो सकता है या फिर परिस्थिति‍यों के अनुसार बड़ी अवधि के लिए भी हो सकता है, लेकिन पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के अंतर्गत यह परमानेंट नहीं हो सकता है। सोवियत यूनियन में सामूहिक फार्म के किसानों में भी यह प्रवृत्ति यदा-कदा कुछ समय के लिए दिखाई दी थी। कहने का मतलब, आर्थिक संकट की तीव्रता के एक हद से आगे बढ़ने के कारण ही यह मोहभंग की स्थिति पैदा हुई है और संकट की दीर्घजीविता को देखते हुए ही हम यह कह रहे हैं कि मोहभंग यह प्रवृत्‍ति‍ लंबी अवधि के लिए रह सकती है और सर्वहारा वर्ग को इसका उपयोग अपनी कार्यनीतिक दिशा में लचीलापन लाते हुए करना चाहिए।

हम जानते हैं कि वर्तमान किसान आंदोलन के पीछे का सबसे बड़ा कारण भी यह आर्थिक संकट ही है और अगर कृषि क्षेत्र की वर्तमान उत्‍पादन क्षमता की ही खपत नहीं हो पा रही है तो कॉर्पोरेट पूंजीपति यहां और अधिक उत्‍पादन क्षमता में निवेश क्‍यों करेंगे? विस्‍तारित उत्‍पादन की संभावना व्‍यक्‍त करने का यहां क्‍या अर्थ हो सकता है सिवाय इसके कि कॉर्पोरेट पूंजी के कृषि में प्रवेश का किसी न किसी तरह समर्थन किया जाए? फिर भी वे पूछते हैं कि बताइए हम कॉर्पोरेट पूंजी के कृषि में प्रवेश के समर्थक कैसे हैं? भारत ही नहीं पूरी दुनिया में किसानों को उत्‍पादन न करने के लिए रिटायरमेंट लाभ तथा अन्‍य तरह के लाभ ऑफर किये जा रहे हैं या दिये जाते रहे हैं। अनाज को सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है जबकि एक बड़ी आबादी (लगभग 70 से 75 फीसदी आबादी) गिरती आय की वजह से समुचित मात्रा में भोजन के अभाव में कुपोषण का शि‍कार है। ऐसे में कॉर्पोरेट पूंजी के प्रवेश से विस्‍तारित उत्‍पादन की उम्‍मीद करना, रोजगार के मौके बढ़ने तथा मजदूरों के शोषण की दर गिरने, मजदूरी की दर बढ़ने आदि के सपने देखना कोई माक्‍सर्वादी-लेनिनवादी नहीं टुटपुंजिया कॉर्पोरेट समर्थक ही कर सकता है जो स्‍वयं तो पूंजी खंड-एक के काल में आज भी जीता है और सावन के अंधे की तरह चीजों को देखता-परखता है, वहीं गरीब किसानों को कॉर्पोरेट का दुमच्‍छला बनाने पर तुला है। यह उस मोदी की तरह बात करने जैसा है जिसने पहले उद्योगों में एकाधिकारी पूंजी के सहयोग से मजदूरों के जीवन को ‘स्‍वर्ग’ बना दिया और जो अब ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब किसानों के जीवन को संवारने का बीड़ा उठाए हुए है।

इस नग्‍न कॉर्पोरेट पक्षधरता की पोलपट्टी न खुल जाए इसके लिए वे हम पर आरोप लगाते हैं कि हम यह मानते हैं कि मशीनीकरण अपने आप में बेरोजगारी पैदा करती है। हद है! इन्‍हें भ्रम है कि एकमात्र ये ही पढ़े लिखे हैं बाकी तो अनपढ़ है। अपने आप से अपनी और कितनी पीठ थपथपाओगे, कॉर्पोरेट के हिमायतियों! झूठे गौरव और शान की आपकी इमारत अब ध्‍वस्‍त होने वाली है।

दरअसल इनकी चालबाजियों की कोई सीमा नहीं है। जरा इस पर गौर करिए –

“यही वजह है कि कम्युनिस्ट मशीनीकरण का विरोध नहीं करते, बल्कि उस उत्पादन सम्बन्ध पर निशाना साधते हैं, जिसके अन्तर्गत मशीनें श्रम की सघनता को बढ़ाने, कार्यदिवस को लम्बा करने और संकट की स्थितियों में मज़दूरों को अरक्षित बनाते जाने की भूमिका निभाती हैं”

सच्‍चाई यही है कि किसी ने मशीनीकरण का विरोध नहीं किया है और न ही किसी ने रूमानी टुटपुंजिया ज़मीन से बड़ी पूंजी का विरोध किया है। ये बस ध्‍यान भटकाने के लिए कहा गया है जैसा कि पूरे लेख में किया गया है। इनके शब्‍दों में यह ब्राउनी प्‍वाइंट्स हासिल करना है। लेकिन मुख्‍य विषय में ही फिसड्डी साबित हो गये महानुभावों को ये ब्राउनी प्‍वाइंट्स भी भला किस काम आएंगे। हम पाते हैं कि इन्‍होंने खुद कॉर्पोरेट पक्षधरता की स्थिति अपनाते हुए धनी किसानों का विरोध किया है, लेकिन बड़े आराम से ये दूसरों पर बिना आधार के ही रूमानी टुटपुंजिया ज़मीन से बड़ी पूंजी का विरोध करने का आरोप मढ़ते हैं।

वे लिखते हैं कि कम्‍युनिस्‍ट उस उत्पादन सम्बन्ध पर निशाना साधते हैं, जिसके अन्तर्गत मशीनें श्रम की सघनता को बढ़ाने, कार्यदिवस को लम्बा करने और संकट की स्थितियों में मज़दूरों को अरक्षित बनाते जाने की भूमिका निभाती हैं, लेकिन ठीक ऊपर इसके विपरीत बात लिख चुके हैं, यानी, उनका मानना है कि स्‍वस्‍थ पूंजी सचय की अवस्‍था है, विस्‍तारित उत्‍पादन हो रहा है या होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और इसीलिए मजदूरी भी बढ़ेगी आदि आदि … अब ये दोनों बातें एक साथ सही कैसे हो सकती हैं। फिर भी, ये बड़ी कृपा हुई है कि इन्‍होंने संकट की बात भी की।

इसलिए जब इनके द्वारा उत्‍पादन संबंधों पर निशाना साधने की बात की गई तो बड़ा अच्‍छा लगा। यहां ये क्रांतिकारी पोजीशन की जोर जाते हुए दिखते हैं। लेकिन यह भी एक छलावा ही साबित होता है। पल में यह दिख जाता है कि उत्‍पादन संबंधों पर निशाना साधने का इनका मतलब सिर्फ इतना है कि ये संकटजनित स्थिति में क्रांतिकारी नारों की बात नहीं उससे उपजी तात्‍कालिक मांगों (जैसे कार्यावधि को लंबा करने के विरूद्ध या संकट के वक्‍त मजदूरों को पूंजी द्वारा अरक्षित कि‍ये जाने के विरूद्ध आवाज बुलंद करने आदि) पर आवाज बुलंद करने की बात कर रहे हैं। वे बस यह कहते हैं कि हम गांवों के ग़रीबों की मांगों और हक़ों के लिए लड़ेंगे और जहां कहीं जबरन लोगों का विस्थापन किया जाता है, उसके खिलाफ आवाज़ उठाएंगे और इसके आगे ये एक शब्‍द तक नहीं कहते हैं। ये बस तात्‍कालिक मांगों के घेरे में ही रहना चाहते हैं और इसे ही वे सर्वहारा की जमीन से बड़ी पूंजी के विरूद्ध किया जाने वाला हस्‍तक्षेप मानते हैं, जबकि यह अपने को तात्‍कालिक मांगों तक सीमित रखना है और वास्‍तव में अर्थवाद है। उत्‍पादन संबंधों पर निशाना साधने की इनकी महान उद्घोषणा का बस इतना ही अर्थ है। यानी, क्रांतिकारी बौद्धिक जुगाली में डूबते हुए अर्थवाद की पंक में मस्‍ती करना ही इनका मुख्‍य मकसद है, ठीक वैसे ही जैसे धनी किसानों को जाने वाले लगान के विरुद्ध इनकी अतिक्रांतिकारी घोषणा का मतलब कॉर्पोरेट शरणम गच्‍छामि है। अत: किसान प्रश्‍न पर किसी भी तरह के क्रांतिकारी निरूपण से इनका घोर विरोध होना लाजिमी है। यही कारण है कि हम जैसे ही व्‍याप्‍त संकट को संदर्भ में लेते हुए एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग और उसके राज्‍य को उखाड़ फेंकने की बात करते हैं और जैसे ही उत्‍पादन संबंधों को महज निशाना पर लेने से आगे बढ़ते हुए इन्‍हें उखाड़ फेंक कर सर्वहारा राज्‍य और कृषि में सामू‍हिक फार्म की स्‍थापना की जरूरत को रेखांकित करते हुए राजनीतिक प्रोपेगंडा चलाने की बात करते हैं, वैसे ही हमारे महान ‘मार्क्‍सवादी’ चिंतक के नेतृत्‍व में इसकी पूरी मंडली बुरी तरह तिलमिलाते हुए असंतुलित व्‍यवहार करने लगती है, ठीक-ठीक कहें तो हुआं-हुआं करने लगती है। अर्थवादी और क्रांतिकारी दिशा के बीच का यह फर्क बहस के प्रत्‍येक चरण के बाद रोमांचकारी तरीके से स्‍पष्‍ट होता जाएगा, ऐसा हमारा मानना है।  

मजेदार बात यह है कि इनकी तिलमिलाहट में इनकी याद्दाश्‍त में इतिहास तो बचा रहता है लेकिन वर्तमान और भविष्‍य दोनों गायब हो जाता है। ये मोदी भक्‍तों की तरह बात करते हुए कहने लगते हैं – पीआरसी कॉर्पोरेट की बात करती है लेकिन धनी किसानों द्वारा गरीब किसानों की बर्बादी की बात क्‍यों नहीं करती, मानो वे एकाएक मोदी भक्‍त में तब्‍दील हो गए हों और मोदी विरोधि‍यों को कह रहे हों –  तब कहां थे जब कांग्रेस यही कर रही थी ……

कॉर्पोरेट के हिमायतियों! हम उनकी बात भी नहीं भूले हैं और कॉर्पोरेट पूंजी जो कर रही है और करने की तैयारी में है हम उसे भी आंख से ओझल नहीं होने दे रहे हैं। और इसीलिए हम आपकी तरह धनी किसानों की लगान के बदले दूसरे तरह की, यानी साम्राज्‍यवादी लगान के पक्षधर नहीं है। हम दोनों तरह की लगान को मिटाने के लिए सर्वहारा राज्‍य के गठन का प्रश्‍न उठाते हैं महोदय, जो आपको समझ में नहीं आता है और आपके सुधारवाद में पगे दिमाग को कभी समझ में भी नहीं आएगा। हमारे और आपमें यही तो फर्क है। हम जहां लगानजीवियों में कॉर्पोरेट पूंजी की चढ़ाई से व्‍याप्‍त निराशा से उत्‍पन्‍न स्थिति‍ में और उसका उपयोग करते हुए सर्वहारा राज्‍य की जरूरत और उसके अंतर्गत सामूहिक फार्म में सभी किसानों को संगठित करके लगान की व्‍यवस्था को जड़मूल से खत्‍म करने की बात करते हैं, वहीं आप पुराने लगानजीवियों की पतली हालत से खुश हो छुपते-छुपाते कॉर्पोरेट की गोद में बैठ जाते हैं और वित्‍तीय पूंजी और कॉर्पोरेट द्वारा लादे जाने वाले लगान के पक्ष में जा खड़े हो कर बेशर्मी से ऐलान करते हैं कि इससे गरीब किसानों और मेहनतकशों को कोई नुकसान नहीं होने वाला है। एक अंधे व्‍यक्ति को भी हमारी व आपकी अवस्थिति का यह फर्क साफ-साफ दिख जाएगा। आप गालीबाज भाषा के सहारे जितना भी धुआं छोड़ें और इसकी मोटी से मोटी परत में इस फर्क को छुपाने की चाहे जितनी कोशिश करें यह फर्क छुपने वाला नहीं है। इसने पूरी तरह आपकी ओढ़ी हुई झूठी क्रांतिकारिता को बेनकाब कर दि‍या है।

वे हम पर छोटी पूंजी की जगह से बड़ी पूंजी का विरोध करने का आरोप लगाते हैं,  जिसका जवाब हम पहले दे चुके हैं। इनकी बातें हास्‍यास्‍पद तो हैं ही, इनके शातिराना ढंग से बहस करने की अविश्‍वसनीय क्षमता को भी दिखाती हैं। ये स्‍वयं कॉर्पोरेट को गरीब किसानों और मजदूरों के ‘मुक्तिदाता’ मानते हैं यानी छोटी पूंजी का विरोध कॉर्पोरेट की गोद में बैठ कर करते हैं लेकिन बड़ी शान से ऊंचे आसन और मसनद पर विराजमान हो ब्राह्मणों की तरह दूसरों को प्रवचन देते हैं। इनकी झूठी गाल बजाने की हिम्‍मत की दाद देनी पड़ेगी। ये लिखते हैं –

“सर्वहारा वर्ग निश्चित ही बड़ी पूँजी का विरोध करता है, लेकिन छोटी पूँजी को बचाने या उसकी माँगों के समर्थन की ज़मीन से नहीं, क्योंकि वह सिर्फ बड़ी इजारेदार पूँजी द्वारा लूट का विरोध नहीं करता है, बल्कि छोटे पूँजीपति वर्ग द्वारा लूट समेत समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध करता है…”  

बड़ी पूंजी का विरोध छोटी पूंजी की जमीन से नहीं करना चाहिए, लेकिन क्‍या छोटी पूंजी का विरोध बड़ी पूंजी की जमीन से किया जा सकता है? इनके लिए तो बड़ी पूंजी की गोद में बैठकर छोटी पूंजी का विरोध करना ही समूची पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के विरोध का पर्याय है! कोई इनसे पूछे कि ‘महोदय आपने वर्तमान किसान आंदोलन में अब तक समूची पूंजीवादी व्‍यवस्‍था का विरोध करने जैसा क्‍या किया या लिखा है, तो वे इसका क्‍या जवाब देंगे?

दूसरी तरफ, जब किसानों के समक्ष पीआरसी ने पूंजीवाद को ही उखाड़ फेंकने का नारा प्रस्‍तुत किया तो ये आलोचना के नाम पर तिलमिलाते हुए गाली-गलौज पर उतर आए। फिर भी इन्‍होंने पूंजीवाद के विरोध की कोई कार्यनीति या कॉर्पोरेट पूंजी को उखाड़ फेंकने के नारे का कोई प्रतिपादन किया होता तो ये क्षम्‍य था। महानुभावों! आप यह कहते हुए सीधे कॉर्पोरेट पूंजी पक्षीय कृषि कानूनों के पक्ष में खड़े हो गए कि कॉर्पोरेट पूंजी धनी किसानों द्वारा वसूला जाना वाला “ट्रिब्‍यूट” खत्‍म कर देगी जबकि इससे एक लगान की जगह दूसरे लगान यानी कॉर्पोरेट लगान की प्रतिस्‍थापना मात्र होगी जो पहले की तुलना में जनता पर कहीं अधिक बोझ बढ़ाने वाला होगा। जहां तक हमारी बात है, तो यह सच है कि हम मानते हैं कि धनी किसानों द्वारा वसूला जाने वाला ‘ट्रिब्‍यूट’ कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा कृषि और कृषि मालों के बाजार पर इजारेदारी कायम किये जाने और उसके द्वारा पूरी जनता पर कॉर्पोरेट लगान लादे जाने की परिस्थितियों के बरक्‍स इतना बड़ा मुद्दा नहीं रह जाता है, क्‍योंकि ठीक उसे ही खत्‍म करने की तैयारी है या उसका खत्‍म होना लगभग तय है। आप उस पर लाठी भांजने में लगे हैं जो खत्‍म होने वाला है, लेकिन हमें वह दिखाई दे रहा है जो उससे भी बड़ा आने वाला है यानी कॉर्पोरेट लगान। इस दृष्टि से भी देखें तो हमारा मुख्‍य हमला कॉर्पोरेट पर होना चाहिए न कि धनी किसानों पर। धनी किसानों की सबसे ऊपरी परत जो पूरी तरह कॉर्पोरेट का सहचर और वर्तमान किसान आंदोलन से बाहर है वह दरअसल कॉर्पोरेट लगान की जूठन पर जीने वाले एक एजेंट के रूप में बचा रह जाएगा। इस तरह लगान के खात्‍मे के लिए बात करते समय आज की परिस्थिति का सर्वहारा वर्गीय दृष्टिकोण से एकमात्र क्रांतिकारी प्रेजेंटेशन वही हो सकता है जैसा कि पीआरसी ने किया, यानी संघर्षरत एवं बड़ी पूंजी की लूट विपदा से ग्रस्‍त समस्‍त किसानों के समक्ष बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंकने की बात का प्रचार करना जिसका अर्थ किसानों के लिए एक ही हो सकता है – बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंकने के बाद अस्तित्‍व में आये सर्वहारा राज्‍य के अंतर्गत कृषि के समाजवादी रास्ते पर पुनर्गठन न यानी सामू‍हिकीकरण की बात करना। यह पीआरसी ने किया है आपने नहीं और इसीलिए समूची पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के विरोध (खासकर किसान आंदोलन के संदर्भ में) की बात आपके मुंह से शोभा नहीं देती है। कोई भी आपको जिस ओर से भी देखने व परखने की कोशिश करेगा, वह पायेगा कि आप किसान प्रश्‍न पर पूरी तरह कॉर्पोरेट के हिमायती हैं न कि सर्वहारा वर्गीय दृ‍ष्टिकोण के। ये लिखते हैं –   

“आज पूंजीवादी विकास टुटपुंजिया आबादी, छोटी मिल्कियत वाली आबादी, ग़रीब व निम्न मंझोले किसानों को उजाड़ता है, तो कोई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी उस पर ताली नहीं बजाता और उजड़ती आबादी के तात्कालिक राहत के लिए लड़ते हुए उसे समझाता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में छोटी मिल्कियत की यही नियति है।”

लेकिन आप तो मानते हैं कि कॉर्पोरेट पूंजी के आने से छोटी मिल्‍कि‍यत वाली किसानी आबादी नहीं उजड़ेंगी। लेकिन अगर मान लिया जाए कि इनकी समझ दुरुस्त हुई है तो भी ये महानुभाव लोग सिर्फ तात्‍कालिक राहत के लिए लड़ेंगे और बाकी उनकी क्रांतिकारि‍ता यह है कि उन्‍हें बता देंगे कि पूंजीवाद में उनकी यही नियति है। इसे ही वे पूंजीवाद का विरोध मानते हैं। बातें बड़ी-बड़ी करना, लेकिन असली वक्‍त पर अतिक्रांतिकारिता बघारने के नाम पर क्रांतिकारी कार्यभार से पलायन करना, यही इनकी राजनीति का सार है।  

रूसी अक्‍टूबर क्रांति के बारे में इनके ‘ज्ञान’ पर एक संक्षिप्‍त चर्चा

ये लिखते हैं –

“लेखक महोदय निम्न कोटि के अवसरवाद से ग्रस्त अपने तर्क को ऐतिहासिक वैधता प्रदान करने के लिए भारत की मौजूदा स्थिति की तुलना प्रारम्भिक बीसवीं शताब्दी के रूस से करते हैं।”

ये तो चमत्‍कार हो गया। मुझे खुद ही पता नहीं है कि ऐसा मैने कब और कहां किया है। ये आगे लिखते हैं –

… रूस तब जनवादी क्रान्ति की मंजि़ल में था और तब किसानों की समूची आबादी सैन्य सामन्ती ज़ारवादी राज्यसत्ता द्वारा दमित थी जो कि सामन्ती भूस्‍वामी वर्ग, देशी-विदेशी वित्तीय पूंजीपति वर्ग के साथ एक हद तक रूस के उभरते पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करती थी।

तो इनके अनुसार 1905 में समूची किसान आबादी सामंती भूस्‍वामी वर्ग तथा देशी-विदेशी वित्‍तीय पूंजीपति वर्ग के साथ (मिलकर) एक हद तक उभरते पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करती थी! यह पागलपन के दौरे का परिणाम है या फिर इसे पूरे होश के साथ और स्‍वस्‍थ मानसिक स्थिति में लिखा गया है इसके बारे में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। लेकिन अगर यह होश में लिखा गया है तो निस्‍संदेह यह एक ऐसी ‘महान’ बात है जिसका स्रोत हमारे युग के महान विचारक व चिंतक की खोपड़ी ही सकती है। लेकिन इस पर और ज्‍यादा फिर कभी। क्‍योंकि एक और खास बात इसके ठीक आगे हमारा इंतजार कर रही है जो इनके “हेडलाइन इतिहास” तक सीमित इस मंडली के अज्ञान को दिखाती है। वे लिखते हैं –

“लेखक महोदय यह तक कह डालते हैं कि अगर रूस में भी कॉरपोरेट पूंजी की दखल होती तो वहां भी समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में धनी किसानों को साथ लेने की ज़रूरत होती!”

हमने ‘द ट्रुथ’ में ठीक ही लिखा था कि इनके इतिहास का ज्ञान हेडलाइन हिस्‍ट्री तक सीमित है। पहली बात, हमने आम तौर पर रूस में कॉर्पोरेट पूंजी की दखल की बात नहीं की है, हमने खास तौर से रूस के कृषि‍ क्षेत्र में कॉर्पोरेट पूंजी की दखल का सवाल उठाया था। और हमारी यह बात सौ फीसदी सही है कि रूस के कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट यानी बड़ी पूंजी की दखल उस समय तक नहीं हुई थी। ये आगे भी मेरे खास सवाल का जवाब देने के बजाय ये एक आम बात की रट लगाते हैं और हमसे पूछते हैं कि क्या पीआरसी के लेखक महोदय को लगता है कि 1917 के रूस में देशी-विदेशी बड़ी इजारेदार पूंजी नहीं थी? क्या उन्हें यह लगता है कि 1917 में बड़ी इजारेदार पूंजी के हस्तक्षेप से अपेक्षाकृत छोटा पूंजीपति वर्ग उजड़ नहीं रहा था, यानी तब पूंजी के केन्द्रीकरण (centralization of capital) की कोई प्रक्रिया ही नहीं चल रही थी? यहां कोई भी देख सकता है कि अपने मनमाफिक तरह का टर्फ बनाने की बीमारी से ये किस कदर ग्रस्‍त हैं। प्रश्‍न कुछ और है उत्‍तर ये कुछ और देते हैं। वे अंत में शरमाते हुए अपेक्षाकृत बड़ी पूंजी का सवाल उठाते हुए पूछते हैं – क्‍या उन्हें लगता है कि खेती के क्षेत्र में अपेक्षाकृत बड़ी पूंजी के प्रवेश से किसानों का विभेदीकरण और ग़रीब किसानों के उजड़ने की एक प्रक्रिया जारी नहीं थी? महोदय, कितनी कलाबाजी करेंगे? हम भारत में जिस बड़ी पूंजी की बात कर रहे हैं वह औद्याोगिक-वित्‍तीय पूंजी यानी इजारेदार वित्‍तीय पूंजी है जिसने कृषि में चढ़ाई की है। हम बहस में अपने मनमाफिक टर्फ बनाने के लिए निकृष्‍ट तोड़-मरोड़ करने वाली इस मंडली को यह साबित करने चुनौती देते हैं कि वे साबित करें कि ऐसी कोई वित्‍तीय पूंजी (न कि कोई अपेक्षाकृत बड़ी पूंजी, क्‍योंकि हर छोटी पूंजी अपने से छोटी से अपेक्षाकृत बड़ी ही होती है) रूस के कृषि में प्रवेश कर चुकी थी।

लेकिन अभी भी इनके असली ज्ञान की वर्षा होनी बाकी है। ये तंज से लिखते हैं कि हमारा मानना है कि अगर रूस में भी कॉरपोरेट पूंजी की दखल होती तो वहां भी समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में धनी किसानों को साथ लेने की ज़रूरत होती! अरे महाशय जी, “समाजवादी क्रांति की मंजिल में धनी किसानों को साथ लेने की जरूरत होती” जैसे जुमले हमने कब लिखे या बोले? पहली बात तो यह कि हम धनी किसान तो क्‍या मध्‍य किसान को भी सर्वहारा क्रां‍ति की मंजिल में संश्रयकारी शक्ति नहीं मानते हैं (पता नहीं हम इस बहस में इसे कितनी बार दुहरा रहे हैं) लेकिन उनके अंदर की हलचल और हो रही सरगर्मियों को आम तौर पर तथा ऐन क्रांति के मौके पर खास तौर से महत्‍व देने की बात करते हैं, क्‍योंकि हम मानते हैं कि सर्वहारा क्रांति की जीत के लिए सिर्फ मजदूर वर्ग के अंदर की सरगर्मियां महत्‍वपूर्ण नहीं होती हैं। इस अर्थ में हम आम तौर पर पूंजीपति वर्ग के अंदर की बेचैनी पर भी और खास तौर पर छोटे पूंजीपतियों के अंदर चल रहे उठापटक पर भी नजर रखना बहुत महत्‍वपूर्ण काम समझते हैं और ऐसा नहीं करने को अक्षम्‍य अपराध मानते हैं। दूसरी बात, जहां तक रूस में 1917 के अक्‍टूबर में हुई सर्वहारा क्रांति की बात है तो उसमें साथ लेने की जरूरत होती का मसला तो वही लोग उठा सकते हैं जो इतिहास को हेडलाइन हिस्‍ट्री में सीमित कर देते हैं, अन्‍यथा यह किसे नहीं पता है कि रूसी अक्‍टूबर क्रांति में पूरी किसान आबादी इस तरफ ही खड़ी थी। 1917 के अक्‍टूबर में जो सर्वहारा क्रांति हुई वह किसान क्रांति पर सवार हो कर ही हुई, देहातों में बिना वर्ग-संघर्ष संपन्‍न हुए हुई और जिसमें सभी किसान यहां तक कि कुलक भी इधर खड़े थे न कि उधर, यानी क्रांति के विरूद्ध। अगर ये इसे ही साथ लेना कहते और मानते हैं तो साथ लेकर ही रूस में सर्वहारा क्रांति संपन्‍न हुई है। हम जानते हैं कि इसके बाद ये हम पर गालियों की बौछार शुरू कर देंगे, लेकिन यही सच है कि देहातों में वर्ग संघर्ष के बिना ही, यानी धनी किसानों के साथ ही सर्वहारा क्रांति संपन्‍न हुई।[2] लेकिन इसकी व्‍याख्‍या लेनिन यह कहते हुए करते हैं कि शहरों में सर्वहारा क्रांति हुई जिसने पूरे रूस की राज्‍य सत्‍ता पर सर्वहारा वर्ग को विराजमान कर दिया, लेकिन देहातों में सर्वहारा क्रांति बाद में शुरू हुई। यहां तक कि जो भूमि आज्ञप्ति लागू हुई वह किसानों के मैंडेट पर आधारित जमीन के राष्‍ट्रीयकरण की नीति थी और लेनिन ने इससे असहमति होने के बाद भी लागू किया, क्‍योंकि लेनिन मानते थे कि किसान क्रांति जिन मांगों और मैंडेट के आधार पर हुई उससे इनकार करने का मतलब स्‍वयं क्रांति को इनकार करना होगा। लेनिन इसे ही सर्वहारा क्रांति और किसान क्रांति का वह अनोखा मिलन मानते हैं जिसने अन्‍य प्रमुख कारकों व कारणों के साथ मिलकर बोल्‍शेविकों को सर्वहारा क्रांति को इतनी आसानी से संपन्‍न करने में सक्षम बनाया तथा जिसने रूसी सर्वहारा को विकसित पूंजीवादी देशों के सर्वहाराओं का अग्रणी बना दिया। इस पर बोलते हुए लेनि‍न 1856 में मार्क्‍स द्वारा इस संबंध में (किसान क्रांति और मजदूर क्रांति के मिलन की संभावना के संबंध में) एंगेल्‍स को लिखे पत्र का हवाला भी देते हैं। इसलिए इस संबंध में कुल मिलाकर हमारे सामने जो एक महत्‍वपूर्ण शिक्षा इससे निकल कर आती है वह यह है कि हम कह सकते हैं कि सर्वहारा क्रांति की सफलता व असफलता में बुनियादी संश्रयकारी वर्गों के मोर्चे के अलावा अन्‍य दूसरे दरमियानी वर्गों के आ मिलने या हट जाने से महत्‍वपूर्ण फर्क पड़ता है, खासकर इसे आसानी से और त्‍वरित ढंग से पूरा करने में। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपने प्रयासों से ऐसी कोई परिस्थिति‍ निर्मि‍त या पैदा कर सकते हैं। नहीं, यह संभव नहीं है। यह मुख्‍य रूप से परिस्थितियों के अपने स्‍वतंत्र तथा स्‍वाभाविक विकास पर निर्भर करता है और उस बिंदु पर अन्‍य तमाम क्रियाशील वर्गों की कार्यवाहियों के द्वारा बने अंतर्विरोधों के संधि तथा विग्रह पर निर्भर करता है। हम इसका अनुमान लगा सकते हैं, उस आधार पर अपने लिए कार्यभार निकाल या तय कर सकते हैं, लेकिन उसे बनावटी रूप से पैदा नहीं कर सकते हैं। दूसरे शब्‍दों में, क्रां‍तियों में अक्‍सर उस समय के मुख्‍य अंतर्विरोंध के साथ अन्‍य अंतर्विरोधों के संधि व विग्रह का काफी महत्‍व होता है। लेकिन जहां तक सर्वहारा क्रांति के बाद समाजवाद के निर्माण के कार्यभार का सवाल है यह बिल्‍कुल अलग बात है और इसकी गारंटी करना एक ऐसा काम है जो लचीलापन से तो जरूर भरा है या होगा लेकिन बुनि‍यादी संश्रयकारी वर्गों के मोर्चे की भूमिका हमेशा ही मुख्‍य बनी रहेगी। इसलिए सर्वहारा राज्‍य में सत्‍ता में किस अन्‍य की हिस्‍सेदारी होगी इसका सवाल भी यहीं से तय होता है और होगा। हमारा मानना है कि क्रांति पश्‍चात संश्रयकारी वर्गों में इक्‍का-दुक्‍का परिवर्तन से भी (जैसे कि सोवियत यूनि‍यन में मध्‍यम किसानों को लेकर हुई) सर्वहारा राज्‍य की सत्‍ता में हिस्‍सेदारी का यह प्रश्‍न अपनी पूर्व स्थिति‍ से नहीं डिगता या हिलता है, और नहीं डिगना चाहिए। पूरे नेप काल में अविश्‍वसनीय तथा बहुतेरे योग्‍य बोल्‍शेविकों तक के दिमाग में भूचाल पैदा करने वाले समझौते किये जाने के बाद भी अंत में समाजवाद विजय रहा तो सिर्फ इसलिए कि बोल्‍शेविकों ने सत्‍ता में हिस्‍सेदारी को लेकर यानी सर्वहारा सत्‍ता को हर हाल में अक्षुण्‍ण बनाये रखने को लेकर शुरू से ही पूरी तरह ‘जनवादी’ भ्रमों व पूर्वाग्रहों से मुक्‍त थे।

रोमांचित कर देने वाली इनकी तोड़-मरोड़ और “उचित दाम” पर पीआरसी को बुखारिनपंथी साबित करने की जल्‍दी में औंधे मुंह गिरे “मार्क्‍सवादी चिंतक”

बिना देर किये आइए इनके रोमांचित कर देने वाले करामात पर आ जाएं।

ये एक बार फिर से वही पुरानी गालियां देते हुए कि हम धनी किसान आन्‍दोलन में घुसने और कुलक नेताओं की पूंछ में कंघी करने के लिए कंघा लिए घूम रहे .. वे कहते हैं कि हम लाभकारी मूल्य की वकालत में अनजाने ही बुखारिन की अवस्थिति के एक दरिद्र संस्करण पर जा पहुंचे हैं। वे फिर से मानसिक दौरे में पड़े होने का अहसास कराते हुए कहते हैं कि हम नहीं बता रहे हैं कि यह उचित दाम क्‍या है। ये कहते हैं कि हमने अपने ताज़ा लेख में भी इस सवाल पर कोई सीधा जवाब नहीं दिया है। फिर वे लिखते हैं कि समाजवाद के तहत मज़दूर-किसान संश्रय का नारा किसी भी प्रकार के लाभकारी मूल्य को देने का नारा नहीं हो सकता है। यानी, ये कहना चाहते हैं कि हमने कहा है कि समाजवाद में लाभकारी मूल्‍य दिया जाता है। फिर वे इतिहास बताने लगते हैं कि रूस में समाजवादी राज्य द्वारा अलग-अलग दौरों में इस प्रश्न पर अमल में लायी गयी नीतियां क्‍यां थीं। वे फिर से उसी पर आ जाते हैं कि सोवियत सत्ता द्वारा दिया जाने वाला ख़रीद दाम या बिकवाली दाम कोई लाभकारी मूल्य नहीं था, जो कि व्यापक लागत के ऊपर 40 से 50 फीसदी का मुनाफ़ा दे! यानी, वे फिर से कह रहे हैं कि हमने ये कहा या लिखा है कि सोवियत सत्‍ता द्वारा सामूहिक किसानों को दिया जाने वाला खरीद दाम या बिकवाली दाम लाभकारी दाम था। दरअसल पाठक देखेंगे कि ये मोदी के भी चचा हैं।

आइए, अब इसका जवाब दिया जाए। और इसका जवाब इससे बढ़ि‍या क्‍या हो सकता है कि हम अपने लेख से ही इससे संबंधित उद्धरण दें और इन्‍हें उंगली पकड़कर यह दिखाएं कि ‘झूठे कहीं के, अगर सैद्धांतिक बहस करने की जगह यही सब करना है तो कोई बिजनेस क्‍यों नहीं कर लेते? और कुछ नहीं, तो मोदी की तरह प्रधानमंत्री ही क्‍यों नहीं बन जाते?’ लेकिन याद आया, ये बिजनेस ही तो करते हैं! लेकिन इस पर फिर कभी, फिलहाल आइए यह देखें कि ‘द ट्रुथ’ में छपे लेख में हमने इस पर क्‍या लिखा है, जिसको ये झूठे पूरी तरह छुपाते हैं। हम पाठकों से माफी मांगते हैं कि हमें उसका हिंदी अनुवाद करने का समय नहीं मिला।

हमने इस पूरे विषय पर यह लिखा है  –

“We know that in a collective farm wage labour is prohibited and not permitted in any condition. Whatever the collective peasants produce is produced by their own labour power and is owned collectively by them through collective farms that express their collective interests. Then, how come (capitalist) profit can be obtained? So, where and how does the question of remunerative prices occur in our ‘educators’ mind when we said that the proletarian state will guarantee the purchase of their all produce at “appropriate price”? … In actuality, the proletariat loses its identity as proletariat under socialism in which he is not a wage slave but the master of the means of productions… according to the ‘educators’ and as per their statement, collective farmers can be supposed to be accruing capitalist profit (otherwise there can be no question of remunerative price to be given to collective peasants) from the proletarian State!”

और देखें –

 “In a capitalist production system, any price above the total cost is profit because production is in the main based on wage labour. Similarly, in a socialist society where wage labour has been abolished and working class ceases to be a working class in its old historical sense, no price which is either just above the cost or much above the cost is a capitalist profit.”

इस तरह इनकी पूरी कलई खुल जाती है कि दरअसल ये बहस के नाम पर किस तरह सि‍र्फ झूठ परोसते हैं। हमने ऊपर ठीक ही कहा है कि ये मोदी के भी चचा हैं। कुछ फर्क नहीं पड़ता इन्‍हें, ये भी मोदी की ही तरह झूठ बोलते जाते हैं।

‘उचित दाम’ क्‍या होना चाहिए हमने ये भी बताया है। हमने लिखा है –

“So, in a socialist state, an appropriate price of collective produce can be any price that guarantees a continuously growing dignified and decent life for the collective peasants through collective farms under the leadership of the proletarian state so that they remain a firm ally and a strong pillar of the working-class state in the long and final journey to state farms after which whatever difference between town and village remains will get eliminated.”[3]

अंत में हमने यह लिखा कि – 

“Our position is against this very concept (of apologists) according to which “if the prices are just above the cost, it is not a remunerative or profiteering price, and if the prices are 40-50% above cost it becomes remunerative or profiteering price”. Our position is that any price that fetches profit, be it super profit, maximum profit or surplus profit, is prohibited in socialism. We cannot call prices above cost a profit in socialism for they are not profit in the condition of absence of wage labour system i.e. in the condition of absence of sale and purchase of labour power. Profit without wage labour is unthinkable while wage labour in socialism is unthinkable. So, according to us prices to be paid to the collective farmers or wages paid to workers under the conditions of DOP, even if it is multiplied many times over itself will not and cannot constitute profit in the capitalist sense.”

हमारी इन बातों को चुनौती देने के बदले वे समाजवाद और सामूहिक फार्म के बारे में आम सच्‍चाइयों को ऐसे बोले जा रहे हैं जैसे ये इनकी खोपड़ी से निकले हैं या किसी ने उसका विरोध किया है। विवाद जहां है वहां से भागना और आम बातें इस इशारे से बोलना मानो सामने वाला उल्‍टा बोल रहा हो यह इनकी बहस का एक गंदा तरीका है। इसमें ये मान कर चलते हैं कि बहस में सामने वाले के बारे में झूठ लिखते जाओ क्‍योंकि आम पाठक तो बेचारा इसकी जांच करने की जहमत उठायेगा नहीं।

इसी के साथ “उचित दाम” की बहस में एक मुद्दा यह भी है कि सोवियत यूनियन में सामूहिक फार्म की विजय के बाद सामूहिक किसानों को लागत मूल्‍य से कितना अधिक दाम मिलता था। इनका मानना है कि बहुत कम जबकि पीआरसी ने आकलन करके दिखाया कि सामूहिक किसानों को मिलने वाला दाम लागत मूल्‍य से कहीं ज्‍यादा था, हालांकि हम दोनों ने एक ही स्रोत (मॉरिस डॉब) को उद्धृत किया। है न अजीब बात! हम देखेंगे कि ऐसा इसलिए हुआ कि यहां भी इन्‍होंने स्रोत के साथ तोड़-मरोड़ की है। ‘द ट्रुथ’ के 12वें अंक में हमने इनकी यह पोल पट्टी भी खोल दी है। हमने लिखा है (यह काफी लंबा है लेकिन यह समझने के लिए जरूरी है कि ये झूठे लोग किस तरह आंदोलन को वेवकूफ बनाने पर तुले हैं  –

1. “In the first instalment of their criticism of PRC on the question of appropriate prices, they had written that the procurement prices were little above the cost.

सामूहिक फार्मों द्वारा अपने उपयोग हेतु रख लिये जाने के बाद बाकी बचे उत्पाद के एक बड़े हिस्से (63%) को राज् लागत से बहुत कम ऊपर दर पर ख़रीदता थाजि‍से खरीद दाम (procurement price| कहा जाता था, जबकि बाकी बचे हिस्‍से (27%) को बिकवाली दाम (purchase price) पर खरीदा जाता था।” (underline ours which means that the state purchased the biggest portion of the product that remained after the collective kept for their own use at a price little above the cost)

Now in the second instalment of their criticism, they speak in another language. The procurement price that was little above the cost has now become very little or low price.  

उत्पादन का सबसे बड़ा हिस्सा इसी बेहद नीची कीमत पर ख़रीदा जाता था।” (underline ours)

2. The apologists have deliberately distorted M. Dobb whom he has quoted just above. Let us see what Maurice Dobb writes and how ‘the apologists’ have distorted him in a fraction of a minute.

“In addition to these obligatory deliveries at “delivery prices”, there were so-called “decentralised collections “, which were the result of voluntary sales-contracts to the State at “State purchase prices” which were considerably higher than the former.” i.e. the delivery prices (PRC’s author)

Our apologists distort this statement according to their own need of logic and write

उसके बाद जो उत्पाद बचता था उसे बिकवाली दाम पर (जो कि प्राप्ति दाम से कुछ ज़्यादा था) सरकार को और कोलखोज बाज़ार, यानी कलेक्टिव फार्मों के खुले बाज़ार में बेचने के लिए सामूहिक किसान मुक्त थे और वहां कीमतों को मुख्यत: बाज़ार की स्थितियां निर्धारित करती थीं।

So, Maurice Dobb writes that the state purchase prices were considerably higher than the delivery prices and these people wishfully distorts it to be प्राप्ति दाम से कुछ ज़्यादा (little more than procurement prices)

3. Now another sleight of hand had been used…. the Dobb’s quote above in point 2 mentions nothing about the Market situations governing the state purchase prices, but, the apologists distorts it too to mean that the purchase prices and the Kolkhoz prices both were subject to variation in the situation of the market.

इसके बाद जो उत्पाद बचता था उसे बिकवाली दाम पर (जो कि प्राप्ति दाम से कुछ ज़्यादा था) सरकार को और कोलखोज बाज़ार, यानी कलेक्टिव फार्मों के खुले बाज़ार में बेचने के लिए सामूहिक किसान मुक्त थे और वहां कीमतों को मुख्यत: बाज़ार की स्थितियां निर्धारित करती थीं। “ (underline ours)

What does it mean in the first place? In the very first place it means that state prices were subject to Marker situations by which they (‘apologists’) seem to say that the role of state as the regulator of economy and market ceased to exist beyond fixed delivery quotas, so that the state purchase prices, which were based on voluntary contract well before the production and sowing, were also subject to market fluctuations.

This is the height of stupidity and in their utter lack of knowledge they have stretched it to its absurdities for they mean to say that the market forces were so strong and free in Soviet socialism that they could make the state prices also fluctuate! Only a charlatan like our apologists can paint such a distasteful picture of Soviet Socialism.

The true fact however is that market forces were not so much free to determine the state purchase prices and undermine the role of state as the sole regulator of the market. They were also not so much free to determine the prices of the Kolkhoz market in whose case they did show some tendency of speculation on some occasions in the early years of consolidation of collective farms, (in 1932, for example) that too because of the remnants of bourgeoisie-induced lure of higher prices found among collective peasants.

The purpose of this whole exercise of distortion or commission and omission is to prove that the prices given to the collective farmers was just little above the cost on the whole. It is yet again proved that apologists are apologist because they commit themselves completely to serve the purpose and interests of their master at whatever costs.

जब ये उचित दाम पर हमें गलत साबित करने में इनके सारे झूठ के बावजूद असफल हो गए तो इन्‍होंने एक और चाल चली और समझा था कि ये तो कामयाब हो ही जाएगा। उन्‍होंने लिखा –

लागत से काफी ऊपर कीमत देकर धनी किसानों को समाजवाद में शामिल करने की पेशकश सोवियत संघ में बुखारिन और उनके समर्थकों ने भी नेप (नयी आर्थिक नीति) के दौर में की थी।”  

पहली बात, लागत से ऊपर कीमत धनी किसानों को देने की बात हमने कब की? हमारी बहस तो सामूहिक किसानों को मिलने वाले दाम ( जो लागत से कितनी ऊपर और नीचे थी बहस यहां पर हो रही है) पर हो रही है, न कि धनी किसानों को मिलने वाले दाम की,  तो फिर इसमें धनी किसानों की बात कहां से आ गई?! आखिर बेशर्मी की और मोदी बनने की भी एक सीमा होती है!! दूसरी बात, बुखारिन और स्‍टालिन के बीच की बहस का यहां क्‍या लेना-देना हो सकता है, जब कि बात उसके एक दशक बाद की हो रही है? मतलब ये कुछ भी कहेंगे? इस मंडली के ये सारे के सारे मोदी के दरबार के रत्‍न, नहीं महारत्‍न बनने लायक हैं, विलक्षण गुणों से विभूषित लोग हैं।

हमने इसका जवाब भी दिया है, देखें –

“True to their character, finding no other ways, the apologists use a sleight of hand to demolish us in the last. He quotes Stalin’s statement of the time of the NEP period. Just imagine their dishonesty. The matter under discussion belongs to the arena of the victory of Collective farm mass movement, when the kulaks were eliminated as a class, socialist industrialisation had emerged victorious with flying colours and even the last traces of pre-1917 Russia’s exploitative past were swept away, but, our ‘apologists’ are so shameless that they quote Stalin’s statement that he gave to fight Bukharin’s line of giving primacy to Kulaks for the development of agrarian economy. He (Bukharin) had to say that that if kulaks grow richer it is advantageous to socialism for it helps in getting more grain. At that time, the kulaks used to sell most of their grain after giving away what was required to give to the state in the form of tax in kind, in the open markets in which even private industrialists also used to deal. At that time, giving any price above cost was a profit and did go as profit to the kulaks. How can then Stalin’s statement against Bukharin be used to refute a particular fact in discussion about prices above cost that belongs to a timeline many years hence since then i.e. when there were no kulaks, not only that there were no Bukharins or Trotskys either, there were no free play of market forces and hence no prices above the cost could constitute profit as wage labour was completely abolished not only in the collectives but also in other sectors. This is just peculiar, simply astonishing and unbecoming of intellectuals these apologists are supposed to be. This has actually shown their level. When they have turned over to Corporates, they don’t think even of their own prestige that has been constantly falling.

Our apologists are truly Don Quixote-turned-upside down!

Actually, Bukharin in the said period, wanted to put a brake upon or relax the role of the state as the regulator of the market and in essence also of the whole economy. It is altogether a different case. How come the apologists mustered courage to put it here as a logic in our debate on “appropriate prices” is something amazing for us. In their vein to rail against us, they can stoop to any any low.” (The Truth, issue – 12)

लेनि‍न को सिर के बल खड़ा करने की कोशिश!

कॉर्पोरेट के हिमायती कभी हार नहीं मानते और इसलिए ये भी नहीं मानेंगे। यही कारण है कि और कोई उपाय नहीं बचा तो अब ये लेनिन को भी नीचा दिखाने से बाज नहीं आ रहे हैं। ये लेनिन को अपनी तरह का कॉर्पोरेट का हिमायती साबित करने में लग गये हैं। लेकिन इसके पहले वे लेनि‍न को साम्राज्‍यवाद का हिमायती साबित करते हैं और इसके लिए बिना संदर्भ बताये यानी संदर्भ से काट कर लेनिन का एक उद्धरण गलत तरीके से पेश करते हैं। अपने को चमकाने के लिए ये लेनिन को सिर के बल खड़ा करने की कोशिश करते हैं।

ये लिखते हैं –

साम्राज्यवाद हमारा उतना ही ‘घातक’ शत्रु है जितना कि पूँजीवाद है। ऐसा ही है। कोई मार्क्सवादी कभी भूलेगा नहीं कि पूँजीवाद सामन्तवाद की तुलना में प्रगतिशील है, और साम्राज्यवाद एकाधिकार-पूर्व पूँजीवाद के मुकाबले प्रगतिशील है। इसलिए साम्राज्यवाद के विरुद्ध हर संघर्ष का हमें समर्थन नहीं करना चाहिए। हम साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी वर्गों के संघर्ष का समर्थन नहीं करेंगे; हम साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी वर्गों के विद्रोह का समर्थन नहीं करेंगे।” (लेनिन, ए कैरीकेचर ऑफ मार्क्सिज़्म एण्ड इम्पीरियलिस्ट इकोनॉमिज़्म’)

लेनिन की उक्‍त रचना से वाकिफ कोई भी व्‍यक्ति यहां देख सकता है कि यह उद्धरण उस लेख की भावना से मेल नहीं खाता है जिससे यह लिया गया है। दरअसल ये कॉर्पोरेट के पक्ष में अपने पलायन को सही ठहराने के लिए इनके द्वारा यह उद्धरण संदर्भ से काट कर दिया गया है, ताकि ये साबित कर सकें कि किसान आंदोलन कॉर्पोरेट के विरुद्ध सामंती या पूंजीवादी किस्‍म का एक प्रतिक्रियावादी उभार या आंदोलन है जि‍सका समर्थन नहीं करना चाहिए जैसा कि लेनिन ने साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध इनके उभार का समर्थन नहीं करने की सलाह इस उद्धरण में दी है। यह हद दर्जे की बदमाशी है जो दिखाती है कि कॉर्पोरेट के पक्ष में उतरे ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। यहां तक कि ये अपने कॉर्पोरेट प्रेम की रक्षा में लेनिन के मुंह पर भी कालिख पोतने की कोशिश कर सकते हैं।

क्‍या इस लेख में ले‍निन साम्राज्‍यवाद के पक्ष में खड़े हैं? ये साबित तो यही करना चाहते हैं। लेकिन ऐसा बिल्‍कुल ही नहीं है। जिस लेख में से यह उद्धरण लिया गया है उसमें लेनि‍न साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध खड़ें हैं और उनकी आलोचना कर रहे हैं जो ‘राष्‍ट्रों के आत्‍मनिर्णय के अधिकार’ का विरोध करते हुए साम्राज्‍यवाद की हि‍मायत या उसका तुष्‍टीकरण करने की सीमा तक गिर चुके थे। इस लेख में लेनिन साम्राज्‍यवाद के बावजूद ‘राष्‍ट्रों के आत्‍मनिर्णय के अधिकार’ के पक्ष में तथा इसके विरोधि‍यों के विरुद्ध बहस कर रहे हैं। हालांकि संदर्भ से अलग उद्धृत कि‍ये जाने के कारण किसी नये साथी को यह उद्धरण पढ़ कर ऐसा लग सकता है या लग रहा होगा कि लेनिन साम्राज्‍यवाद के पक्ष में और ‘राष्‍ट्रों के आत्‍मनिर्णय के अधिकार’ के विरोध में बात कर रहे हैं। इस तरह कॉर्पोरेट के ये बेशर्म हिमायती समूह ने लेनिन को भी सिर के बल खड़ा करने की कोशिश की है। उन्‍हें साम्राज्‍यवाद के हिमायती साबित करने की कोशिश की है।

लेख में उक्‍त हिस्‍से में इस विषय पर लेनिन के विरोधियों का मानना था कि साम्राज्‍यवाद के युग में राष्‍ट्रों की राजनैतिक आजादी या स्‍वतंत्रता संभव नहीं है और लेनिन द्वारा ‘राष्‍ट्रों के आत्‍मनिर्णय के अधिकार’ को मान्‍यता देना दरअसल साम्राज्‍यवादी लूट-खसोट के लिए होने वाले युद्ध में ‘पितृ देश की रक्षा’ के सामाजिक जनवादियों के नारे को मान्‍यता देना है जिसका मकसद अपने-अपने देश के बुर्जुआ वर्ग को दूसरे देशों को गुलाम बनाने में उनकी मदद करना है।

लेकिन इस खास उद्धरण का संदर्भ क्‍या है जिसकी वजह से लेनिन को वह कहना पड़ा जैसा कि उद्धरण में दिया गया है? दरअसल यहां लेनिन “कियेव्‍स्‍की” से वाद-विवाद कर रहे हैं जो यह मानता था कि राष्‍ट्रीय विद्रोह संभव है और उसकी मदद व सहायता करना भी सही है लेकिन न तो राष्‍ट्रीय युद्ध संभव हैं न ही राष्‍ट्रों की राजनैतिक स्‍वंतत्रता ही साम्राज्‍यवाद के युग में संभव है और इसलिए वह ‘राष्‍ट्रों के आत्‍मनिर्णय के अधिकार’ को महज लेनि‍न के दिमाग की खोज मानता था और जो साम्राज्‍यवादी लुटेरे युद्ध में ‘पितृ देश की रक्षा’ के नारे के समान था या इसका प्रतिरूप था। लेख में जब लेनिन कियेव्‍स्‍की से पूछते हैं कि अगर राष्‍ट्रों की राजनैतिक आजादी संभव नहीं है तो फिर वे राष्‍ट्रीय विद्रोहों की सहायता की बात किसलिए करते हैं, तो कियेव्‍स्‍की का जवाब यह होता है कि ‘इसलिए क्‍योंकि ये राष्‍ट्रीय विद्रोह हमारे ‘घातक’ शत्रु साम्राज्‍यवाद के खिलाफ हैं’ और तभी लेनिन कियेव्‍स्‍की की मूर्खता का पर्दाफाश करते हुए उपरोक्‍त बातें कहीं जिसका मूल अर्थ यहां यह है कि साम्राज्‍यवाद के अलावे अन्‍य वर्ग भी हमारे घातक शत्रु हैं और उन्‍हें भी नजर से ओझल नहीं करना चाहिए या भूलना नहीं चाहिए, खासकर तब जब वे अपने को साम्राज्‍यवाद से ज्‍यादा प्रगतिशील मान रहे हों और इस आधार पर साम्राज्‍यवाद के विरुद्ध विद्रोह किये हुए हों । जाहिर है लेनिन सामंतवाद और एकाधिकारी पूर्व पूंजीवाद की बात कर रहे हैं जिसकी (ऐतिहासिक तौर पर) तुलना में साम्राज्‍यवाद निस्‍संदेह प्रगतिशील है क्‍योंकि यह पूंजी के केंद्रीकरण के मामले में, बड़े पैमाने के उत्‍पादन को संगठित करने के मामले में और इसलिए (समाजवाद में) एक संक्रमणकालीन अवस्‍था के रूप में यह समाजवाद की पूर्व संध्‍या है, समाजवाद के बिल्‍कुल नजदीक की अवस्‍था है। लेकिन वहीं यह भी सच है कि लेनिन साम्राज्‍यवाद के विरूद्ध और उसके बावजूद ‘राष्‍ट्रों के आत्‍मनिर्णय के अधिकार’ तथा राष्‍ट्रों की राजनैतिक आजादी के प्रबल समर्थक भी थे और मानते थे कि यह कम्‍युनिस्‍टों के क्रांतिकारी व्‍यवहार का एक मानक है। इसलिए यह समझना जरूरी है कि लेनिन साम्राज्‍यवाद को ऐतिहासिक तौर पर सामंतवाद और पूंजीवाद से प्रगतिशील मानते हुए भी इसकी हिमायती नहीं बन बैठे थे जैसा कि कॉर्पोरेट के ये हिमायती लोग समझते हैं या हमें समझाने की कोशि‍श कर रहे हैं।[4]

सवाल यह भी है‍ कि लेनि‍न के इस उद्धरण को यहां किस लिए उद्धृत किया गया है। हम पाते हैं कि उन्‍होंने लेनिन को यहां इस लिए उद्धृत किया ताकि लेनिन को किसान आंदोलन के विरुद्ध कॉर्पोरेट के हिमायतियों के पक्ष में खड़ा किया जा सके। लेकिन वे भूले गये कि लेनिन ने उपरोक्‍त उद्धरण में सामंती टाइप या पूंजीवादी टाइप प्रतिक्रियावादी विद्रोह की बात की है न कि किसान बुर्जुआ टाइप विद्रोह की। अगर हम अपने कॉर्पोरेट के हिमायतियों की मानें, तो लेनिन को ‘राष्‍ट्रों के आत्‍मनिर्णय के अधिकार’ का समर्थन नहीं करना चाहिए था ठीक वैसे ही जैसे कि इन्‍होंने किसान आंदोलन का समर्थन न करके कॉर्पोरेट का समर्थन किया है।[5]

हम देख सकते हैं कि ये किस हद तक गिर चुके हैं।

एमएसपी के मुद्दे पर हमारी अवस्थिति‍ की इनके द्वारा की गयी तोड़-मरोड़ का एक नमूना

ये हमें यथार्थ अंक-9 से उद्धृत करते हैं –

“ऐसे में इन क़ानूनों की वापसी पर अड़ना और वैधानिक गारंटी वाले लाभकारी मूल्य की माँग के ज़रिये पूरे किसान समुदाय को संगठित व जागृत करना तथा इस तरह कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध उठा खड़ा होना नितान्त आवश्यक है।” (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9, ज़ोर हमारा)

सबसे पहली बात तो यह है कि यह यथार्थ अंक – 9 में से उद्धृत बताया गया है जो कि गलत है। यथार्थ अंक-9 में यह इस प्रकार कहा गया है –

“ऐसे में, खासकर तब जब भावी शासक वर्ग यानी मजदूर वर्ग द्वारा इस स्थिति में वास्तविक रूप से हस्तक्षेप करने की ताकत व रणनीति दोनों अनुपस्थित है, कि‍सानों के लि‍ए इन कानूनों की वापसी पर अड़ने के अलावा और एमएसपी की मांग के जरिए पूरे किसान समुदाय को संगठित व जागृत करने के अलावा और कोई उपाय भी नहीं है। अगर कोई ऐसी रणनीति वास्तव में प्रकट होती जो विचार के स्तर से आगे बढ़ते हुए भौतिक ताकत के रूप में भी आकार ग्रहण करती है, तो नि‍स्‍संदेह स्थि‍ति‍ दूसरी होगी।”

दरअसल उपरोक्‍त उद्धरण पीआरसी की बुकलेट से ली गई है, हालांकि उसमें भी बहुत बारीकी से हाथ की सफाई की गई है। ‘था’ को ‘है’ बना दिया गया है। बुकलेट में यह लिखा है –

“ऐसे में, इन कानूनों की वापसी पर अड़ना और वैधानिक गारंटी वाले एमएसपी की मांग के जरिए पूरे किसान समुदाय को संगठित व जागृत करना तथा इस तरह कॉर्पोरेट पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध उठ खड़ा होना नितांत आवश्‍यक था।

इससे एक बात तो साफ है कि वे बहस में किसी को ठीक से उद्धृत करना भी जरूरी नहीं समझते हैं। ‘था’ और ‘है’ से यहां मूल अर्थ बदलता है। हम यह अपनी बात के बतौर पेश ही नहीं कर रहे हैं। सभी लोग जानते हैं कि पीआरसी का मानना है कि हम एमएसपी को लेकर यह बात कहते ही नहीं हैं। बल्कि हम यह कहते हैं कि एमएसपी को वैधानिक बनाने की मांग इसे मूलत: सभी उपजों की खरीद गारंटी की एक सर्वथा नयी मांग में परिणत कर देती है जो इसे इसके पुराने रूप से कुछ इस तरह अलग कर देती है कि इसकी पूर्ति कोई बुर्जुआ राज्‍य (अपवाद की कुछ स्थितियों को छोड़कर) कर ही नहीं सकता है। कई लोग कहते हैं कि महाराष्‍ट्र की राज्‍य सरकार ने किसी खास संदर्भ में इस मांग को पहले भी मान लिया था और किसानों ने टुकड़ों में इसे पहले भी उठाया हुआ है। हो सकता है, लेकिन किसी देशव्‍यापी आंदोलन की एक केंद्रीय मांग के रूप में इसका महत्‍व बिल्‍कुल अलग है और ऐसा पहली बार हुआ है। पूरे देश में सभी उपजों की खरीद गारंटी के रूप में यह मांग सर्वहारा राज्‍य को किसानों की कल्‍पना में ले आने का अवसर देता है (क्‍योंकि खरीद गारंटी की मांग की पूर्ति इसके अलावा कोई बुर्जुआ राज्‍य नियमित रूप से कर ही नहीं सकता है। इसीलिए हम यह कह रहे हैं कि यह इस मांग को क्रांतिकारी अंतर्य प्रदान करता है। दरअसल पुस्तिका के एमएसपी वाले सब-टाइटल में हम इस बात पर ही विमर्श कर रहे होते हैं कि किसान आंदोलन इस मांग तक कैसे और किन हालातों में पहुंचा और इस उद्धरण में ही नहीं इस सब-टाइटल में पूरे विमर्श का एक तथ्‍यात्‍मक संदर्भ है। अधिकांश विमर्श भी तथ्‍यात्‍मक है। इस उद्धरण के पहले दो शब्‍द ‘ऐसे में’ पर जब हम गौर करेंगे, तो इससे साफ-साफ पता चल जाता है कि इन बातों को किसी और संदर्भ में कहा गया है। आइए, उस संदर्भ को एक-एक कर देखें। उस पूरे सब-टाइटल को यहा उद्धृत करना मुश्किल होगा, इसलिए पाठकों से अनुरोध है कि वे उसे फिर से स्‍वयं पढ़ जाएं।

उपरोक्‍त उद्धरण बुकलेट के तीसरे सब-टाइटल एमएसपी और बाजार में ऊंचे दाम की उत्‍प्रेरणा : कल, आज और कल से लिया गया है जिसकी शुरुआत इस प्रकार की गयी है –

“न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की बात करें तो यह एक हद तक पंजाब और हरि‍याणा को छोड़ कहीं भी आम व्यापक किसानों को कभी नहीं मिला। आज तो यह अधिकांश प्रदेशों में लागू ही नहीं है। लेकिन फिर भी गरीब से गरीब किसानों के बीच भी इसका आकर्षण देखा जा सकता है।

खुले बाजार में भी ऊंचे दाम के प्रति इनका आकर्षण देखा गया है। बुकलेट इसे भी रेखांकित करते हुए कहता है –

‘यही स्थिति खुले बाजार में ऊंचे दाम के प्रति आकर्षण की भी है।”

फिर बुकलेट में आगे लिखा है कि

“यूपीए शासन के अंतिम कालखंड तक खुले बाजार में बेचना … प्रलोभनकारी बना हुआ था…”

आगे बुकलेट में कहा गया है कि इसके बाद स्थिति में परिवर्तन होता है और आम किसानों का ही नहीं धनी किसानों का भी इससे आकर्षण कम हुआ और आज की स्थिति‍ में खत्‍म होने लगा है। यही नहीं आज की स्थिति में बाजार पर से उनका भरोसा भी उठने लगा है।

इसका हमारे ‘कॉर्पोरेट के हिमायती’ मखौल उड़ाते हैं। लेकिन क्‍या ये तथ्‍य गलत है कि धनी किसानों सहित आम किसानों का खुले बाजार पर से भरोसा उठा है? और क्‍या जब खुले बाजार पर से भरोसा उठेगा, तो क्‍या पूंजीवादी खेती पर से भरोसा बना रहेगा? क्‍या पूंजीवाद के रास्‍ते उनके अमीर बनने के सपने नहीं टूटेंगे? लेकिन तथ्‍यगत जवाब देने के बदले वे सिर्फ हम पर तोहमत मढ़ते हैं। हम पाते हैं कि जब एक टेलीविजन चैनेल पर एक किसान नेता से पूछा गया किखुले बाजार में बेहतर दाम पर अपनी उपज बेचकर फायदा क्‍यों नहीं उठाना चाहते हैं, तो उन्‍होंने कहा कि सरकार हमको एमएसपी दे दे और उसे बाजार में बेचकर मुनाफा कमा कर अपना घाटा कम कर ले।

लेकिन इसका क्‍या यह मतलब भी है कि अगर खुले बाजार में कभी एमएसपी से भी ऊंचे दाम मिलेंगे तो वह उसे नहीं लेना चाहेगा? हालांकि यह हो सकता है कि आंदोलन के ज्‍यादा तीव्र होने के स्‍टेज में यह स्थिति भी आ जाए, लेकिन आम तौर पर धनी किसान तो क्‍या गरीब किसान भी इस तरह के फायदे से इनकार नहीं करेगा। कॉर्पोरेट के हिमायतियों का यह कहना कि अगर किसान कॉर्पोरेट के खिलाफ लड़ रहे हैं तो क्‍यों नहीं किसान कॉर्पोरेट को बेचना बंद कर देते हैं  पूरी तरह कुतर्क करना है। मुख्‍य बात यह है कि कृषि क्षेत्र में कृषि मालों के अतिउत्‍पादन के चि‍रस्‍थाई संकट की वजह से बाजार अब इन्‍हें कुछ अपवाद अवसरों को छोड़कर ऊंचे दाम दे सकेगा इसमें पूरी तरह शंका है। वे इस बात का तथ्‍यगत काट नहीं कर पाने की वजह से ही अनाप-शनाप बातें कहते हैं। 2019 की कृषि लागत व मूल्‍य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट के अनुसार ’23 जिंसों में से एक उड़द को छोड़कर किसानों की सकल औसत आय 2013 से 2018 के मुकाबले 30 फीसदी कम हो गई।’

इस पृष्‍ठभूमि में नये फार्म कानून आते हैं जो पूरी तरह कॉर्पोरेट पूंजी की किसानों पर पूर्ण विजय सुनिश्चित करने तथा कॉर्पोरेट को खेती के मुख्‍य एजेंट के रूप में स्‍थापित करने यानी जमीन, कृषि की उत्‍पादन प्रक्रिया और उपज के व्‍यापार तीनों पर इजारेदारी कायम करने के निमित्‍त लाये गये हैं। इसीलिए बुकलेट में आगे लिखा गया है –

“नये कृषि कानूनों के बाद आम किसानों में कानूनी एमएसपी के रूप में एमएसपी की मांग को एक नवजीवन प्राप्त हुआ दिखता है, खासकर एक बड़ी तबाही और आपदा से बचाव हेतु एकमात्र उपाय व सहारे के रूप में, जबकि खुले बाजार में ऊंचे दाम की उत्प्रेरणा एक प्रवृत्ति के बतौर मौजूद होने के बावजूद व्यापक किसान ही नहीं धनी किसानों के व्यापक हिस्सों के बीच भी वास्तविक तौर पर खत्‍म हो चुकी है या पूर्व की तुलना में न के बराबर है। क्यों? क्योंकि गरीब तथा मंझोले किसान पिछले तीन दशक के पूंजीवादी कृषि के अंतर्गत ठीक इसके ही दुष्परिणामों के चक्कर में तबाह और बर्बाद हो चुके हैं, और धनी किसानों की बात करें तो पिछले एक दशक के दौरान खुले बाजार में दामों में आये भयंकर उतार-चढ़ाव के कारण वे भी इसके आकर्षण से विमुख हुए हैं। इस तरह, पूर्व में खुले बाजार में ऊंचे दाम प्राप्त करने की पायी जाने वाली संभावना और प्रेरणा, दोनों का अंत हो चुका है।”

एक तथ्‍य के रूप में इससे इनकार करने वाले कुतर्की ही हो सकते हैं। जब किसान नेता कह रहे हैं कि अगर सरकार को लगता है कि खुले बाजार में ऊंचे दाम मिलेंगे तो सरकार ही इसे ले ले हमें सिर्फ एमएसपी दे दे, तो इसका अर्थ खुले बाजार से मोह का खत्‍म होना नहीं तो और क्‍या कहेंगे। क्‍या पहले ऐसी ही स्थिति‍ थी या इसके विपरीत थी और किसान खुले बाजार में बेचने के अवसर की मांग करते थे? निस्संदेह यह नई बात है जो इस आंदोलन में खुले रूप में शुरू से प्रकट भी हो रही है। पुराने दिनों की बात करें तो कृषि उत्पादों के खुले बाजार पर लगे प्रतिबंधों को हटाने की मांग किसान आंदोलन की सबसे प्रमुख मांग हुआ करती थी और ठीक इसी बात का हवाला मोदी सरकार भी कृषि कानूनों के समर्थन में देती है।[6]

क्‍या लाजवाब तोड़-मरोड़ करते हैं कॉर्पोरेट के ये हिमायती!

हमारे द्वारा “द ट्रुथ” या “यथार्थ” में लिखे लेखों या फेसबुक तथा पीआरसी की किसान प्रश्‍न पर प्रकाशित बुकलेट की मूल बातों का इनके द्वारा किये गये तोड़-मरोड़ को देखना हो तो उन्‍होंने जो कहा है उसे उद्धृत करना होगा जो आम तौर पर किसी भी लेख को बोझिल बनाता है। लेकिन बहस की यही मांग है और इसे हर हाल में करना होगा। हालांकि, हम यह पूरी कोशिश करेंगे कि लेख बोझिल, टेक्निकली कठिन या उबाऊ न हो जाए। 

हम इसके लिए इनके दूसरे “जवाब” के उन हिस्‍सों पर गौर फरमाएंगे जिनमें उन्‍होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि इन्‍होंने हमारी बातों को तोड़ने-मरोड़ने का काम बिल्‍कुल ही नहीं किया है। उल्‍टे, इन्‍होंने यह आरोप लगाया है कि ‘हमने जो लिखा उसका जवाब पीआरसी के लेखक ने दिया ही नहीं।’ हम इस बार इनको उंगली पकड़कर यह बताएंगे कि इन्‍होंने वास्‍तव में तोड़ने-मरोड़ने का कैसा निकृष्‍ट और बेईमानी भरा कृत्‍य किया है।

(1)

आइए, सबसे पहले यह उद्धरण देखें जिसे बड़ी चालाकी से पूरे संदर्भ से काटकर अलग किया गया है ताकि मनमाफिक टर्फ तैयार किया जा सके। फिर इन्‍होंने इस टर्फ पर खूब बैटिंग करने की कोशिश की है, हालांकि हमें पूरा विश्‍वास है कि समझदार पाठकों को बरगालने में इन्‍हें कतई सफलता नहीं मिली है।    

स्वयं धनी किसान पूँजीवादी कृषि के दलदल में फँस गये हैं|…निर्णायक वर्चस्व की ओर कॉरपोरेट के बढ़ते कदमों ने अलग-अलग संस्तर में बँटे होने के बावजूद पूरे किसान समुदाय को एकताबद्ध कर दिया है (‘किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग‘, यथार्थ अंक-9)

पहली बात तो यह कि ये पूरे पैराग्राफ को उद्धृत नहीं किया है। हमने पाठकों के लिए इसे नीचे फुटनोट में दे दिया है[7] जिसे पढ़कर पाठक खुद यह महसूस करेंगे कि हमारी बातें तथ्‍यात्‍मक ज्‍यादा हैं। क्‍या वे इनमें व्‍यक्‍त तथ्‍यों को अस्‍वीकारते हैं? नहीं, बिल्‍कुल ही नहीं। वे इसे स्वीकारते हैं और स्‍वीकारते हुए ही अनाप-शनाप झूठ बकना शुरू कर देते हैं। वे लिखते हैं –  

“जिन अर्थों में धनी किसान पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं, उन अर्थों में तो अपेक्षाकृत सभी छोटे और ग़ैर-इजारेदार पूँजीपति पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं और उस आधार पर पीआरसी सीपीआई (एमएल) को पूँजीवादी उदारीकरण के कारण अरक्षित अवस्था में पहुँच गये सारे छोटे पूँजीपतियों का आह्वान करना चाहिए कि वे एकजुट होकर कॉरपोरेट पूँजी का विरोध करें और पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय को इन बेचारे छोटे पूँजीपतियों से यह वायदा भी करना चाहिए कि जब उनके नेतृत्व में समाजवादी सत्ता आयेगी, तो वह उन्हें बरबाद होने से बचायेंगे और मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला “उचित दाम” मुहैया करायेंगे! निश्चय ही धनी किसान व कुलक वर्ग और समूचे छोटे व मँझोले पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा भी उत्तरोत्तर पूँजीवादी विकास के साथ बरबाद होगा, ….. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता है कि छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग (जिसमें कि धनी किसान-कुलक वर्ग भी शामिल है) को बचाने का नारा सर्वहारा वर्ग बुलन्द करे और सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को उनका पिछलग्गू बना दे! सर्वहारा वर्ग उन वर्गों की मुक्ति की परियोजना नहीं पेश करता है जो कि नियमित तौर पर उजरती श्रम का शोषण कर मुनाफा कमाते हैं; सर्वहारा वर्ग उन शोषक वर्गों से उन वर्गों की मुक्ति की परियोजना पेश करता है, जो स्वयं उजरती श्रमिक, अर्द्धसर्वहारा हैं या जो स्वयं उजरती श्रम के शोषक नहीं हैं। यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद का ‘क ख ग’ है। टुटपुँजिया रूमानीवाद, नरोदवाद और लोकरंजकतावाद के मस्तिष्क ज्वर के कारण अपने आप को मार्क्सवादी कहने वाला व्यक्ति भी कैसी अगड़म-बगड़म बक सकता है, इसे समझना है, तो आप खेती के सवाल पर पीआरसी सीपीआई (एमएल) की पुस्तिका पढ़ सकते हैं!” 

<p value="<amp-fit-text layout="fixed-height" min-font-size="6" max-font-size="72" height="80">इसमें सबसे पहले ये हमारे तथ्‍य को स्‍वीकारते हैं कि <em>धनी किसान पूंजीवादी कृषि के दलदल में फंस गये हैं।</em> इनका यह कहना कि “जिन अर्थों में धनी किसान पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं, उन अर्थों में तो अपेक्षाकृत सभी छोटे और ग़ैर-इजारेदार पूँजीपति पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं … या यह कि निश्चय ही धनी किसान व कुलक वर्ग और समूचे छोटे व मँझोले पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा भी उत्तरोत्तर पूँजीवादी विकास के साथ बरबाद होगा इसका यही अर्थ है। बाकी तो इनके आरोप हैं जो इन्‍होंने हम पर लगाये हैं और वे सब के सब बनावटी हैं। हमारे लेखों में ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है जिससे ये अर्थ निकले कि पीआरसी को पूँजीवादी उदारीकरण के कारण अरक्षित अवस्था में पहुँच गये सारे छोटे पूँजीपतियों का हमें आह्वान करना चाहिए कि वे एकजुट होकर कॉरपोरेट पूँजी का विरोध करें, हालांकि, हम ये मानते हैं कि अगर ये स्‍वयं विरोध कर रहे हैं तो हमारा काम इन्‍हें रोकना, इसके बरक्‍स इनकी आलोचना करना या विरोध करना तो कतई नहीं हो सकता है। इसी तरह पीआरसी ने कभी कुछ ऐसा नहीं कहा जिससे ये अर्थ लगाया जा सके कि इन बेचारे छोटे पूँजीपतियों से इन्‍हें बचाने का वायदा करना चाहिए या जब समाजवादी सत्ता आयेगी, तो वह उन्हें बरबाद होने से बचाया जाएगा, हालांकि हम यह मानते हैं कि सर्वहारा वर्ग इनके विरोध को अपने कार्यनीतिक लचीलेपन के तहत ध्‍यान देने या उपयोग में लाने योग्‍य महत्‍व जरूर देगा और देना चाहिए और अगर कॉर्पोरेट के इन छिछले बेशर्म हिमायतियों, जो अतिक्रांतिकारिता का दंभ भरते हैं, की तरह ऐसा करने से इनकार करते हैं तो अक्षम्‍य अपराध करते हैं। एकमात्र बड़ी पूंजी के दलाल ही सर्वहारा वर्ग को इन महत्‍वपूर्ण घटनाओं का मूकदर्शक बने रहने के लिए कह सकते हैं। और सर्वहारा वर्ग को धनी किसानों का पिछलग्‍गू बना देने की बातें ये कॉर्पोरेट हिमायती न ही करें तो अच्‍छा। ये तो खुद मेहनतकश वर्ग को कॉर्पोरेट के खेमे में पीछे खड़े होने की सलाह दे रहे हैं। ये सब हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। ये कहते हैं कि समाजवाद में हम छोटे पूंजीपतियों को मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला “उचित दाम” मुहैया करायेंगे! बेशर्मी की भी कोई इंतेहां होती है। हमनें किसी को भी बचाने की बात नहीं की है और न ही किसी को मुनाफा सुनिश्चित करने वाले उचित दाम ही किसी को प्रदान करने की वकालत की है। असल में इनका दिमाग फिर गया है अन्‍यथा समाजवाद में और सामूहिक कृषि के तहत मुनाफा सुनिश्चित करने वाले उचित दाम की बात न तो ये करते न ही ऐसी बातें इनके दिमाग में कभी आतीं। ये आरोप लगाते हैं कि हम छोटे-मंझोले पूंजीपतियों की मुक्ति की परियोजना पेश कर रहे हैं। क्‍या पूंजीवाद को उखाड़े फेंकने का आह्वान करना, सामूहिक खेती का आह्वान करना, सर्वहारा राज्‍य के लिए आह्वान करना छोटे-मंझोले पूंजीपतियों की मुक्ति की परियोजना पेश करना है? हमने किसान आंदोलन के संदर्भ में यही तो किया है। हां, आपने जरूर छोटे-मंझोले पूंजीपतियों के विरोध के बहाने बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी की लूट के लिए शासक वर्ग द्वारा पेश परियोजना का समर्थन किया है, कृषि कानूनों को गरीब किसानों और मजदूर वर्ग के लिए फायदेमंद बताया, अपनी शक्ति भर गरीबों के समक्ष कॉर्पोरेट के रूमानी चित्र खींचे और सबको रिझाने की कोशिश की, जैसा कि हमने ऊपर दिखाया है। हमने तो साफ कहा है और पुस्तिका में शुरू से लेकर अंत तक इसे देखा जा सकता है कि किसानों की मुक्ति बुर्जुआ व्‍यवस्था को खत्‍म करके ही संभव है। हमारी पुस्तिका का यही केंद्रीय नारा है। हमने दिखाया कि किसान आंदोलन के बरक्‍स आपके पास पूंजीवाद विरोध के नाम पर तात्‍कालिक मांगों पर आवाज बुलंद करने के अलावा और कुछ भी कार्यभार प्रतिपादित करने की हिम्‍मत या क्षमता नहीं है। वैसे भी कॉर्पोरेट की हिमायत में खड़े लोगों के पास इसकी हिम्‍मत कभी हो भी नहीं सकती है। बड़ी हंसी आती है जब ये हमारा मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि <em>पीआरसी सीपीआई (एमएल) को पूँजीवादी उदारीकरण के कारण अरक्षित अवस्था में पहुँच गये सारे छोटे पूँजीपतियों का आह्वान करना चाहिए कि वे एकजुट होकर कॉरपोरेट पूँजी का विरोध करें</em>। अरे जनाब, कॉर्पोरेट के हिमायती बन गए हैं तो क्‍या पूरा दिमाग ही गिरवी रख दिया है!? छोटे पूंजीपति कॉर्पोरेट पूंजी का विरोध करने के लिए हमारे आह्वान करने का इंतजार करेंगे? किसान आंदोलन का आह्वान क्‍या हमने किया था? हम तो बस इसे संज्ञान में ले रहे हैं ताकि जरूरत पड़ने पर इसका इस्‍तेमाल किया जा सके, क्‍योंकि हमारा मानना है कि सर्वहारा वर्ग को सिर्फ अपने और अपने संश्रयकारी वर्गों के बीच व्‍याप्‍त बेचैनी और तबाही का ही नहीं अन्‍य सभी दरमियानी वर्गों के बीच की, यहां तक कि दुश्‍मन वर्गों के बीच की उठापठक और बेचैनी का भी क्रांति के लिए इंतजार रहता है। कॉर्पोरेट के कूढ़मगज हिमायतियों और खासकर उनका जिनका दिमाग सुधारवाद में ही पगा है तथा जो तात्‍कालिक मांगों के लिए आवाज उठाने के आगे सोचते तक नहीं है उनके लिए यह समझना संशोधन‍वादियों की तरह ही मुश्किल है। ये स्‍वयं निकृष्‍ट किस्‍म के संशोधनवादी हैं।इसमें सबसे पहले ये हमारे तथ्‍य को स्‍वीकारते हैं कि धनी किसान पूंजीवादी कृषि के दलदल में फंस गये हैं। इनका यह कहना कि “जिन अर्थों में धनी किसान पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं, उन अर्थों में तो अपेक्षाकृत सभी छोटे और ग़ैर-इजारेदार पूँजीपति पूँजीवादी व्यवस्था में “फँसे” हैं … या यह कि निश्चय ही धनी किसान व कुलक वर्ग और समूचे छोटे व मँझोले पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा भी उत्तरोत्तर पूँजीवादी विकास के साथ बरबाद होगा इसका यही अर्थ है। बाकी तो इनके आरोप हैं जो इन्‍होंने हम पर लगाये हैं और वे सब के सब बनावटी हैं। हमारे लेखों में ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है जिससे ये अर्थ निकले कि पीआरसी को पूँजीवादी उदारीकरण के कारण अरक्षित अवस्था में पहुँच गये सारे छोटे पूँजीपतियों का हमें आह्वान करना चाहिए कि वे एकजुट होकर कॉरपोरेट पूँजी का विरोध करें, हालांकि, हम ये मानते हैं कि अगर ये स्‍वयं विरोध कर रहे हैं तो हमारा काम इन्‍हें रोकना, इसके बरक्‍स इनकी आलोचना करना या विरोध करना तो कतई नहीं हो सकता है। इसी तरह पीआरसी ने कभी कुछ ऐसा नहीं कहा जिससे ये अर्थ लगाया जा सके कि इन बेचारे छोटे पूँजीपतियों से इन्‍हें बचाने का वायदा करना चाहिए या जब समाजवादी सत्ता आयेगी, तो वह उन्हें बरबाद होने से बचाया जाएगा, हालांकि हम यह मानते हैं कि सर्वहारा वर्ग इनके विरोध को अपने कार्यनीतिक लचीलेपन के तहत ध्‍यान देने या उपयोग में लाने योग्‍य महत्‍व जरूर देगा और देना चाहिए और अगर कॉर्पोरेट के इन छिछले बेशर्म हिमायतियों, जो अतिक्रांतिकारिता का दंभ भरते हैं, की तरह ऐसा करने से इनकार करते हैं तो अक्षम्‍य अपराध करते हैं। एकमात्र बड़ी पूंजी के दलाल ही सर्वहारा वर्ग को इन महत्‍वपूर्ण घटनाओं का मूकदर्शक बने रहने के लिए कह सकते हैं। और सर्वहारा वर्ग को धनी किसानों का पिछलग्‍गू बना देने की बातें ये कॉर्पोरेट हिमायती न ही करें तो अच्‍छा। ये तो खुद मेहनतकश वर्ग को कॉर्पोरेट के खेमे में पीछे खड़े होने की सलाह दे रहे हैं। ये सब हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। ये कहते हैं कि समाजवाद में हम छोटे पूंजीपतियों को मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला “उचित दाम” मुहैया करायेंगे! बेशर्मी की भी कोई इंतेहां होती है। हमनें किसी को भी बचाने की बात नहीं की है और न ही किसी को मुनाफा सुनिश्चित करने वाले उचित दाम ही किसी को प्रदान करने की वकालत की है। असल में इनका दिमाग फिर गया है अन्‍यथा समाजवाद में और सामूहिक कृषि के तहत मुनाफा सुनिश्चित करने वाले उचित दाम की बात न तो ये करते न ही ऐसी बातें इनके दिमाग में कभी आतीं। ये आरोप लगाते हैं कि हम छोटे-मंझोले पूंजीपतियों की मुक्ति की परियोजना पेश कर रहे हैं। क्‍या पूंजीवाद को उखाड़े फेंकने का आह्वान करना, सामूहिक खेती का आह्वान करना, सर्वहारा राज्‍य के लिए आह्वान करना छोटे-मंझोले पूंजीपतियों की मुक्ति की परियोजना पेश करना है? हमने किसान आंदोलन के संदर्भ में यही तो किया है। हां, आपने जरूर छोटे-मंझोले पूंजीपतियों के विरोध के बहाने बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी की लूट के लिए शासक वर्ग द्वारा पेश परियोजना का समर्थन किया है, कृषि कानूनों को गरीब किसानों और मजदूर वर्ग के लिए फायदेमंद बताया, अपनी शक्ति भर गरीबों के समक्ष कॉर्पोरेट के रूमानी चित्र खींचे और सबको रिझाने की कोशिश की, जैसा कि हमने ऊपर दिखाया है। हमने तो साफ कहा है और पुस्तिका में शुरू से लेकर अंत तक इसे देखा जा सकता है कि किसानों की मुक्ति बुर्जुआ व्‍यवस्था को खत्‍म करके ही संभव है। हमारी पुस्तिका का यही केंद्रीय नारा है। हमने दिखाया कि किसान आंदोलन के बरक्‍स आपके पास पूंजीवाद विरोध के नाम पर तात्‍कालिक मांगों पर आवाज बुलंद करने के अलावा और कुछ भी कार्यभार प्रतिपादित करने की हिम्‍मत या क्षमता नहीं है। वैसे भी कॉर्पोरेट की हिमायत में खड़े लोगों के पास इसकी हिम्‍मत कभी हो भी नहीं सकती है। बड़ी हंसी आती है जब ये हमारा मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) को पूँजीवादी उदारीकरण के कारण अरक्षित अवस्था में पहुँच गये सारे छोटे पूँजीपतियों का आह्वान करना चाहिए कि वे एकजुट होकर कॉरपोरेट पूँजी का विरोध करें। अरे जनाब, कॉर्पोरेट के हिमायती बन गए हैं तो क्‍या पूरा दिमाग ही गिरवी रख दिया है!? छोटे पूंजीपति कॉर्पोरेट पूंजी का विरोध करने के लिए हमारे आह्वान करने का इंतजार करेंगे? किसान आंदोलन का आह्वान क्‍या हमने किया था? हम तो बस इसे संज्ञान में ले रहे हैं ताकि जरूरत पड़ने पर इसका इस्‍तेमाल किया जा सके, क्‍योंकि हमारा मानना है कि सर्वहारा वर्ग को सिर्फ अपने और अपने संश्रयकारी वर्गों के बीच व्‍याप्‍त बेचैनी और तबाही का ही नहीं अन्‍य सभी दरमियानी वर्गों के बीच की, यहां तक कि दुश्‍मन वर्गों के बीच की उठापठक और बेचैनी का भी क्रांति के लिए इंतजार रहता है। कॉर्पोरेट के कूढ़मगज हिमायतियों और खासकर उनका जिनका दिमाग सुधारवाद में ही पगा है तथा जो तात्‍कालिक मांगों के लिए आवाज उठाने के आगे सोचते तक नहीं है उनके लिए यह समझना संशोधन‍वादियों की तरह ही मुश्किल है। ये स्‍वयं निकृष्‍ट किस्‍म के संशोधनवादी हैं।

(2)

आइए, एक और उद्धरण लें। वे लिखते हैं –                                 

“नये कृषि क़ानूनों के आने के बाद आम किसानों में क़ानूनी लाभकारी मूल्य के रूप में लाभकारी मूल्य की माँग को एक नवजीवन प्राप्त हुआ दीखता है, खासकर एक बड़ी तबाही और आपदा से बचाव हेतु एकमात्र उपाय व सहारे के रूप में, जबकि खुले बाज़ार में ऊँचे दाम की उत्प्रेरणा एक प्रवृत्ति के बतौर मौजूद होने के बावजूद व्यापक किसान ही नहीं धनी किसानों के व्यापक हिस्सों के बीच भी वास्तविक तौर पर ख़त्म हो चुकी है या पूर्व की तुलना में न के बराबर है। क्यों? क्योंकि ग़रीब तथा मँझोले किसान पिछले तीन दशक के पूँजीवादी कृषि के अन्तर्गत ठीक इसके दुष्परिणाम के चक्कर में तबाह और बर्बाद हो चुके हैं और धनी किसान की बात करें तो पिछले एक दशक के दौरान खुले बाज़ार में दामों में आये भयंकर उतार-चढ़ाव के कारण वे भी इसके आकर्षण से विमुख हुए हैं|” (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9, ज़ोर हमारा)

इस उद्धरण की आलोचना में ये काफी बड़ा उद्धरण पेश करते हैं। लेकिन एक बार फिर हमारे द्वारा पेश इस तथ्‍य को स्‍वीकार करते हैं कि धनी किसानों के एक हिस्‍से के साथ आम किसानों का बाजार पर से भरोसा उठ गया है। लेकिन वे इसे कैसे अपने शातिराना अंदाज में करते हैं यह देखने लायक है। यहां हम उसके छोटे-छोटे अंश लेंगे और दिखाएंगे कि ये कितनी ओछी हरकत करते हैं।

वे लिखते हैं –

“इसी “यथार्थ” से प्रस्थान करते हुए कि किसानों का ‘मुक्त व्यापार’ से भरोसा उठ गया है और खुले बाज़ार में ऊँचे दाम नहीं मिलने के कारण किसान आबादी क़ानूनी लाभकारी मूल्य की माँग कर रही है, हमारे लेखक महोदय इस माँग को उनके अस्तित्व रक्षा की लड़ाई से जोड़ देते हैं।”  

हम देख सकते हैं कि इसमें ये चाहे और जो करें, लेकिन “बाजार से भरोसा उठने” की बात का ये खंडन नहीं कर रहे हैं। इसमें शातिराना तरीका यह है कि वे लिखते हैं कि “किसान आबादी क़ानूनी लाभकारी मूल्य की माँग कर रही है, हमारे लेखक महोदय इस माँग को उनके अस्तित्व रक्षा की लड़ाई से जोड़ देते हैं” जबकि हमारी पूरी बात कॉर्पोरेट द्वारा कृषि क्षेत्र और पूरे किसान समुदाय पर की जा रही चढ़ाई के बाद बनी अत्‍यंत ही खतरनाक तथा प्रतिक्रियावादी परिस्थितियों, जिसमें पूरी किसान आबादी (एक अत्‍यंत धनी किसान आबादी को छोड़कर जो वास्‍तव में कॉर्पोरेट का एजेंट देहाती पूंजीपति वर्ग है) के संदर्भ में कही गई है। और यह सौ फीसदी सच है। इसकी काट इन्‍होंने प्रस्‍तुत ही नहीं की है। नयी खतरनाक परिस्थिति क्‍या है? नयी परिस्‍थति यह है कि पुराना ट्रिब्‍यूट खत्‍म होने के कगार पर है और नया पहले से बड़ा ट्रिब्‍यूट आरोपित होने वाला है। ये जो खत्‍म होने के कगार पर है उसके पीछे पड़े हैं और जो नया आने वाला है उस पर चुप है। हमारी एमएसपी की पूरी विवेचना में यह केंद्रीय तत्‍व है। और इसीलिए हमने कहा है कि वैधानिक दर्जा वाला एमएसपी कॉर्पोरेट के विरुद्ध लड़ाई में किसानों का एक अचूक हथियार की तरह है जिसके जरिए पूरे किसान आबादी को उद्वेग में लाने की कोशिश की गई है और जो वास्‍तव में शासक वर्ग के लिए एक सि‍रदर्द बन गया है। कॉर्पोरेट के ये हिमायती बहस में इसे चुपके से छुपा ले जाते हैं। ये सारी बातें भी इसलिए करते हैं ताकि मूल प्रश्‍न गायब हो जाए। इसी क्रम में वे एक से दूसरी डाल पर कूदते रहते हैं। हम देखते हैं कि इसमें फिर वे एकाएक ऊंचे दाम पर आ जाते हैं और बे-सिर पैर के अनाप-शनाप सवाल पूछते हैं, जैसे कि “लेखक (पीआरसी के लेखक को) महोदय को यह बताना चाहिए कि लाभकारी मूल्य धनी किसानों-कुलकों को ऊँचे दाम देता है या नहीं?”

अरे महानुभावों, हमने ये नहीं कहा कि इनका ऊंचे दाम से मोहभंग हो गया है। हमने ये कहा है कि “इनका बाजार से मोहभंग हो गया है।”  

फिर वे अनाप-शनाप बोलते हुए ऐसे लिखते हैं मानो एकाएक दौरा पड़ गया हो, क्‍योंकि जिस उद्धरण की ये आलोचना कर रहे हैं उसका इनकी आलोचना से कोई लेना देना ही नहीं है। पाठकों, इनकी निम्‍नलिखित बातों (आलोचना) को देखि‍ए और फिर से ऊपर दिये गये उद्धरण को पढ़ि‍ए, आपको स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि इनको कितना बड़ा दौरा पड़ा है। वे लि‍खते हैं – और यदि लाभकारी मूल्य मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाले ऊँचे दाम हैं, तो वे “उचित दाम” हैं या नहीं? और अगर वे उचित दाम नहीं हैं, तो उनके अनुसार “उचित दाम” क्या है और जब भारत में समाजवाद और सर्वहारा सत्ता आयेगी तो वह कौन सा “उचित दाम” देंगे? और अगर वह लाभकारी मूल्य (profitable remunerative price) नहीं होगा, तो यह बात भी उन्हें अपने लेख में स्पष्ट तौर पर लिखनी चाहिए और धनी किसानों-कुलकों को बतानी चाहिए?”(वारुणी, मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)

इनका यह दौरा आगे भी जारी रहता है और उसी सांस में लिखते हैं :

लेकिन इन तमाम अस्पष्टताओं के बावजूद सच्चाई यह है कि लाभकारी मूल्य को लेखक महोदय “अस्तित्व की लड़ाई” बताकर एक प्रकार से “उचित दाम” ही मान रहे हैं! इस प्रकार वह लाभकारी मूल्य की पूरी परिभाषा को ही उलट देते हैं ताकि लाभकारी मूल्य के माँग के समर्थन को सही साबित कर सकें।”  (वारुणी, मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)

इसे कहते हैं अपने मनमाफिक टर्फ तैयार करना और कॉर्पोरेट के इन हिमायति‍यों ने ठीक यही किया है। इसकी भरमार पहले वाले में भी है। मजे की बात है कि वे इसे इसे फिर से दोहराते जाएंगे। यही इनका तरीका है। लेकिन इन सबमें हमारी इस मूल बात का कि किसानों का बाजार से मोहभंग हुआ है इसकी कोई काट प्रस्‍तुत नही की जाती है। महानुभावों, लेकिन इससे अब काम नहीं चलने वाला है। आपकी असली पोल पट्टी खुल चुकी है और आपकी नकली क्रांतिकारिता पर से पर्दा हट चुका है। बाकी बचे नकली आवरण पर से भी हम जल्‍द ही पर्दा हटा देंगे।        

(3)

वे हमारा तीसरा उद्धरण आलोचना के साथ पेश करते हैं –

“ऐसे में इन क़ानूनों की वापसी पर अड़ना और वैधानिक गारंटी वाले लाभकारी मूल्य की माँग के ज़रिये पूरे किसान समुदाय को संगठित व जागृत करना तथा इस तरह कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध उठा खड़ा होना नितान्त आवश्यक है।” (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9, ज़ोर हमारा)

हम इसके बारे में पहले भी चर्चा कर चुके हैं। लेकिन चलिए एक बार फिर से कर लेते हैं। 

यहां सबसे पहले तो इन्‍होंने ‘नितांत आवश्‍यक था’ की जगह ‘नितांत आवश्‍यक है’ लिखकर एक बारीक तरीके से हाथ की सफाई करने की कोशिश की है।[8] इससे यहां मूल रूप से वह संदर्भ हट जाता है जिसमें यह कहा गया है। हम यह अपनी बात के बतौर पर पेश ही नहीं कर रहे हैं। पीआरसी का सर्वविदित रूप से यह मानना है कि किसानों ने वैधानिक दर्जा वाले एमएसपी की मांग तब उठाई जब कॉर्पोरेट पक्षीय कृषि कानूनों के जरिए मोदी सरकार ने कृषि क्षेत्र को कॉर्पोरेट को सौंपने की चाल चली और इस तरह पूंजीवादी खेती के दूसरे फेज का श्रीगणेश किया। किसानों के लिए यह तब नितांत आवश्‍यक बन गया था जब कॉर्पोरेट ने देहातों में कृषि क्षेत्र पर चढ़ाई की और किसान समुदाय को (एक अत्‍यंत धनी किसानों की परत को छोड़कर) रौंदने की कोशिश की। तब किसानों के लिए कॉर्पोरेट के लिए कानून बनाने वाले मोदी के ठीक आगे वैधानिक दर्जा वाले एमएसपी की मांग को भिड़ाना नितांत आवश्‍यक हो गया था, क्‍योंकि किसान समझते हैं कि एमएसपी खत्‍म करने की सरकार और कॉर्पोरेट की मिलीभगत और उनकी शातिराना चाल का एकमात्र माकूल जवाब इसे कानूनी दर्जा देने की एक अड़ि‍यल मांग ही हो सकती थी जो इनके लंबे डग भरते पैरों को आनन-फानन में बांध सकती थी। और हम पाते हैं कि ठीक ऐसा ही हुआ। यह मांग पूंजीवादी राज्‍य के गले की एक फांस बन गई, क्‍योंकि इसने इस रूप में दरअसल समस्‍त फसलों की खरीद गारंटी की मांग का रूप धारण कर लि‍या है, यानी एक ऐसी मांग जिसकी पूर्ति कोई आधुनिक एकाधिकारी बुर्जुआ राज्‍य आम तौर पर,  कुछ अपवाद स्‍वरूप स्थितियों को छोड़कर, पूरा कर ही नहीं सकता है। हम यह बात बारंबार कह रहे हैं कि इस रूप में यह मांग किसानों की कल्‍पना में सर्वहारा राज्‍य को लायेगा अगर सर्वहारा वर्ग की शक्तियां इसके लिए माकूल कार्यनीतिक लचीलापन अपनाये और इसमें हस्‍तक्षेप करें। पीआरसी ने इसे बखूबी समझा, इसकी व्‍याख्‍या की, इस मांग के बाह्य प्रतिक्रियावादी खोल (बेशी मुनाफा के पुराने रूप में) और इसके अंदर आर्विभूत नये सारतत्‍व (समस्‍त फसलों की खरीद गारंटी के रूप में जो सर्वहारा राज्‍य की आवश्‍यकता को कल्‍पनाओं में लाता है) के बीच के विरोधाभास की व्‍याख्‍या करते हुए इस उम्‍मीद के साथ क्रांतिकारी कार्यभार निकाले कि आंदोलन की बढ़ती तीव्रता और किसानों के बुर्जुआ राज्‍य के साथ होने वाले और ऊंचे स्‍तर के टकराव से इस मांग में निहित द्वंद्वात्‍मक अंतर्विरोध का सकारात्‍मक समाधान होगा और इसी के अनुरूप हमने किसानों के समक्ष बुर्जुआ सत्‍ता को उखाड़ फेंकने तक संघर्ष को जारी रखने का और किसानों की बढ़ती बदहाली की समस्‍या के स्‍थायी तथा एकमात्र समाधान के लिए किसानों के समक्ष भावी सर्वहारा राज्‍य के पक्ष में गोलबंद होने की वकालत की। इसके अतिरिक्‍त पूरे किसान समुदाय को तुरंत से इकट्ठा करने वाली मांग भी यही थी, क्योंकि यही वह मांग है जिसे आम किसानों को तुरंत तथा आसानी से समझाया जा सकता था, यहां तक कि गरीब किसानों को भी, जिनके पास बेचने लायक सरप्‍लस बहुत ही कम होता है। जहां तक हमारा जो स्‍टैंड है वह साफ है और इसमें छुपाने वाली कोई बात नहीं है। हम मानते हैं कि वैधानिक दर्जा वाले एमएसपी की मांग बाह्य आवरण में पुराना होते हुए यह मूलत: खरीद गारंटी के रूप में एक नयी मांग में परिणत हो गई है और इसलिए अपने अंतर्य में क्रांतिकारी तत्‍व धारण करने में सक्षम हुई है, क्‍योंकि यह (खरीद गारंटी) एक ऐसी मांग है जो बुर्जुआ समाज व व्‍यवस्‍था की सीमा का अतिक्रमण करने के लिए किसानों को प्रेरित करती है, करेगी या कर सकती है। यह किसानों की कल्‍पना में सर्वहारा राज्‍य की छवि लाता है बशर्ते मजदूर वर्ग इसमें मात्र समर्थन या विरोध से अलग कारगर रूप से हस्‍तक्षेप करे। ज्‍यों-ज्‍यों आंदोलन तीव्र और तीखा होगा, इसका क्रांतिकारी अंतर्य पुष्‍ट होता जाएगा। बुर्जुआ विपक्ष का चेहरा भी त्‍यों-त्‍यों साफ होगा। इसीलिए हमारी राजनीति इसके पराजय की नहीं इसके उत्‍थान की कामना करती है, जबकि हमारे “महान मार्क्‍सवादी चिंतक” की शोर मंडली की पूरी किसान राजनीति इस आंदेालन के यथाशीघ्र पराजय तथा पतन पर टिकी है। इसके कुचले जाने की स्थिति में ये खुश होंगे, जबकि हम गमजदा और खिन्‍न होंगे। हम किसानों को उस सर्वहारा वर्ग के साथ खड़ा होने का आह्वान करते हैं जिसका लक्ष्‍य सुधारवादी तरीके से तात्‍कालिक मांगें पेश करना भर नहीं अपितु जिसका उद्देश्‍य भारत में सर्वहारा राज्‍य कायम करना है।

लेकिन जरा इनका जवाब देखिए, कितने शातिराना ढंग से अपने पूर्व-निर्मित टर्फ पर बहस को खींच ले आने की ये कोशिश करते हैं जो ये दिखाता है कि ये सिर्फ अपनी बनी-बनायी टर्फ पर ही बैटिंग कर सकते हैं। ये लिखते हैं –

“यानी लाभकारी मूल्य का समर्थन करने, उसे वैधानिक अधिकार बनाने की माँग करना और इस माँग पर समूचे किसान समुदाय को संगठित करना आज क्रान्तिकारियों का कार्यभार है!”

पाठक स्‍वयं देख सकते हैं कि किस तरह की तोड़-मरोड़ ये कर रहे हैं। हमने जो नहीं लिखा या बोला, उसे हमारे मुंह में रख रहे हैं और फिर आलोचना करने के नाम पर डींगें हांक रहे हैं।

और आगे –

 “मतलब, लेखक महोदय के अनुसार, पहले तो कम्युनिस्टों को धनी किसानों-कुलकों की मुनाफ़ाख़ोरी की माँग के समर्थन में ग़रीब मेहनतकश किसानों और मज़दूरों को उनका पुछल्ला बनाना चाहिए और फिर छोटे पूँजीपति वर्ग (खेतिहर बुर्जुआज़ी) की ज़मीन पर खड़े होकर बड़ी पूँजी (कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग) का विरोध करना चाहिए।”

हम पहले ही दिखा चुके हैं कि सर्वहारा राज्‍य, सामूहिक खेती यानी समाजवादी रास्‍ते पर कृषि के पुनर्गठन आदि, जिसके अंतर्गत मुनाफा, शोषण, उजरती श्रम आदि सभी अतीत की चीजें बन जाएंगी, की बात को मुनाफाखोरी की मांग का समर्थन करने वाली बात या छोटे पूंजीपति वर्ग की जमीन पर खड़े होकर बड़ी पूंजी का विरोध करने वाली बात कहना एकमात्र सर्वहारा वर्ग के छुपे हुए गद्दारों का ही काम हो सकता है। हम बारंबार ये बता चुके हैं कि उल्‍टे वे स्‍वयं धनी किसानों का विरोध करने के बहाने कॉर्पोरेट पूंजी के दरबार में लोटपोट हो रहे हैं। हम इनको चुनौती देते हैं कि वर्तमान किसान आंदेालन के बरक्‍स कोई पूंजीवाद विरोधी कार्यभार प्रतिपादित कर के दिखाएं जो तात्‍कालिक मांगों से चंद कदम भी आगे जाता हो।

(4)

वे चौथी बार  हमारा उद्धरण पेश कर उसकी आलोचना करते हैं। इस बार वे हमारे एक फेसबुक पोस्‍ट और फिर पीआरसी की पुस्‍ति‍का से मिलाकर उद्धरण पेश करते हैं –

“सामान्य पूँजीवादी कृषि से कॉरपोरेट कृषि में छलाँग स्वाभाविक और स्वयंस्फूर्त नहीं हो सकती थी…पूँजीवादी कृषि के दूसरे दौर के आगाज़ का वास्तविक अर्थ है – खेती से ग़रीब किसानों के स्वयंस्फूर्त निष्कासन से बलात निष्कासन और ग़रीब किसानों की तबाही से लगभग संपूर्ण किसान वर्ग की तबाही के दौर में छलांग – जिसे बलात किया जाना है जैसा कि नये फ़ार्म क़ानून में स्पष्टत: निर्दिष्ट है।” (पीआरसी सीपीआई (एमएल) के फेसबुक पोस्ट से)

जब कानून बनाकर कॉर्पोरेट का कृषि पर नियंत्रण कायम किया जा रहा है तो यह स्‍वत:स्‍फूर्त और नैसर्गिक तो नहीं ही माना जा सकता है। लेकिन जिसे कॉर्पोरेट के दरबार में लोटपोट होना है उसके लिए ऐसा मानना किसी भी समय मुश्किल होगा। हमारे कॉर्पोरेट हिमायतियों के साथ यही बात है, क्‍योंकि अगर वे ऐसा मान लेते हैं तो फिर उनकी मौजूदा राजनीति का पूरा वजूद भरभराकर गिर जाएगा।

दूसरा उद्धरण यह है –        

ग़रीब किसानों का ही नहीं धनी किसानों का भी पूँजीवाद से विश्वास हिलेगा और हिल रहा है। इस आन्दोलन में उनकी अभी तक की भूमिका स्वयं इसका गवाह है। 2021 का भारतीय धनी किसान, जो आज पूँजीवादी व्यवस्था के मानवद्रोही स्वरूप का इतने नज़दीक से सामना कर रहा है, जल्द ही पुरातन को त्याग कर सर्वहारा राज्य के अन्तर्गत सामूहिक खेती के रास्ते के अमल में हमारे आह्वान का स्वागत और समर्थन करेगा, क्योंकि इसके बिना अब किसान समुदाय के बचने का कोई रास्ता नहीं!” (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9)

इसमें उठाये गये सवालों का कोई जवाब नहीं देते हैं बस गालियां देते हैं। मानों, धनी किसानों का पूंजीवाद से कभी मोहभंग हो ही नहीं सकता है, चाहे कॉर्पोरेट का वर्चस्‍व उन्‍हें धनी से कंगाल बना देने के रास्‍ते पर ही क्‍यों न धकेल दिया हो। क्‍या खूब अतिक्रांतिकारिता है! यानी अब से धनी किसानों का कोई संस्‍तर कभी भी पूंजीवाद विरोधी अवस्‍थान नहीं ले सकता है, चाहे जो भी हो जाए, जबकि ये भी मानते हैं कि कॉर्पोरेट के वर्चस्‍व के बाद इनका एक हिस्‍सा बर्बाद होगा। यही तो तत्‍ववाद का मर्म है जिससे ये इनकार करते हैं। लेकिन इनकी मजेदार अति क्रांतिकारी गालियां सुनिए –  

“ऐसे आशावाद को देखकर तो दोन किहोते भी शर्म से ज़मीन में धँस गया होता! धनी किसान का पूँजीवाद से विश्वास हिल रहा है!? इससे हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है? जब भी छोटी पूँजी का बड़ी एकाधिकारी पूँजी से अन्तरविरोध तीव्र होगा और वह बेशी मूल्य के विनियोजन में अपने हिस्से को क़ायम रखने और बढ़ाने के लिए लड़ेगी, तो क्या वह पूँजीवाद–विरोधी बन जायेगी?”’

नहीं महानुभावों,  हम यह नहीं कर रहे हैं कि जब भी छोटी पूंजी का बड़ी एकाधिकारी पूंजी से अन्तरविरोध तीव्र होगा और वह बेशी मूल्य के विनियोजन में अपने हिस्से को क़ायम रखने और बढ़ाने के लिए लड़ेगी, तो वह पूंजीवाद–विरोधी बन जायेगी। हम यह बिल्‍कुल भी नहीं कह रहे हैं। ये तो आप है जो हमारे मुंह में रख दे रहे हैं, महोदय।  हम तो यह कह रहे हैं कि : अगर वह बेशी मूल्य के विनियोजन में अपने हिस्से को क़ायम रखने में सक्षम नहीं रह पाता है और बर्बाद हो जाता है या अगर वह महसूस करता है या कर रहा है कि वह बर्बाद हो जाने वाला है या उसका बर्बाद होना तय है, तो क्‍या तब भी उसका भरोसा पूंजीवाद से नहीं हिलेगा, जरा भी नहीं हिलेगा? क्रांतिकारी आंदोलन के ब्राह्मणों, क्‍या वो कभी भी, चाहे जो भी हो जाए, इस लायक नहीं होगा कि उसके ‘मोक्ष’ के बारे में भी बात की जाए जैसा कि जातीय पदानुक्रम में बंटे समाज में दलितों एवं शुद्रों के बारे में ब्राह्मण वर्ग कहता है?

आगे भी ये अति क्रांतिकारी ब्राह्मणों की मार्क्‍सवादी मंडली इसी तरह “क्रांति के इंस्‍पेक्‍टर” की भाषा में बातें करते हैं, जरा देखि‍ए –

“तो क्या वह उजरती श्रम पर रोक, खेती में निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे और सामूहिक व राजकीय खेती को स्वीकार कर लेगी? अगर पीआरसी सीपीआई (एमएल) का यह विश्वास पुख्ता है, तो उसे धनी किसानों–कुलकों के आन्दोलन के मंच पर जाकर केवल “उचित दाम” देने का भ्रामक वायदा नहीं करना चाहिए, बल्कि यह भी बताना चाहिए कि जब पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति हो जायेगी, तो निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा हो जायेगा, यदि तत्काल सामूहिक व राजकीय खेती न भी शुरू हो पायी तो ज़मीन का राष्ट्रीकरण हो जायेगा और उजरती श्रम पर रोक लगा दी जायेगी! मेरे ख्याल से यदि इस प्रकार के एडवेंचर को पीआरसी सीपीआई (एमएल) का नेतृत्व अपने हाथों में ले, तो धनी किसानों का नेतृत्व उन्हें तत्काल ही शारीरिक समीक्षा करके समझ देगा कि उसका न तो पूँजीवादी व्यवस्था से विश्वास उठा है, न ही वह सामूहिक खेती पर सहमत होने जा रहा है और असल में वह शोषण करने के अपने अधिकार के लिए लड़ रहा है! वह बिल्कुल पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर एक ऐसी माँग रख रहा है जो कि अपेक्षाकृत छोटी पूँजी हमेशा ही पूँजीवादी राज्यसत्ता के समक्ष रखती है: बड़ी पूँजी से प्रतिस्पर्धा में राजकीय संरक्षण की माँग। पूँजीवादी व्यवस्था किस दौर में है और अन्तरविरोधों के किस सन्धि-बिन्दु पर है, उसके आधार पर यह माँग कभी मानी जाती है तो कभी नहीं मानी जाती, लेकिन चाहे यह माँग मानी जाय या न मानी जाय, धनी किसानों-कुलकों समेत छोटा पूँजीपति वर्ग कभी समाजवादी कार्यक्रम को नहीं अपना लेता है! पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेता महोदय की यह पूरी बात भयंकर सुधारवादी और टुटपुँजिया अवसरवाद से ग्रस्त है।” (वारुणी, ‘मौजूदा धनी किसान आन्दोलन और कृषि प्रश्न पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अज्ञानतापूर्ण और अवसरवादी लोकरंजकतावाद के एक दरिद्र संस्करण की समालोचना’)

देखने में ये बातें कितनी जानदार हैं, लेकिन सच में ऐसा नहीं है। अंदर से पूरी तरह खोखली हैं। पहली बात, जहां तक यह प्रश्‍न है कि क्या वह उजरती श्रम पर रोक, खेती में निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे और सामूहिक व राजकीय खेती को स्वीकार कर लेगी तो यह किसने कहा कि “मान लेंगी।” पीआरसी का तो मानना है कि अमूमन किसानों का कोई भी वर्ग भारत में सर्वहारा आंदोलन की मौजूदा कमजोर स्थित‍ि में न तो निजी संपत्ति के खात्‍मे और न ही सामूहिक व राजकीय खेती के लिए तैयार होगा।[9] इसके कई कारण हैं और पिछले अंक में हमने इस पर विस्‍तार से चर्चा की है।[10] दूसरी बात, इन महाशयों की दलील आखिर में यहां पहुंचती है कि क्‍या हम संघर्षरत किसानों के बीच जाकर खुलेआम ये बातें (निजी संपत्ति के खात्‍मे, जमीन के राष्‍ट्रीयकरण आदि की बातें) कह सकते हैं? अगर हम “हां” कह देते हैं तो पास वरना फेल, है कि नहीं?! तो यह है उनके तर्क की महान क्रांतिकारी पद्धति जिसका ये बिना किसी लाग-लपेट या बिना किसी शर्म-लिहाज के कॉर्पोरेट का पक्ष लेने के लिए इस्‍तेमाल करते हैं। लेकिन हम तो पूछेंगे : क्‍या डर के कारण इमान (अपने उस इमान की बात में जिसमें कॉर्पोरेट बसता है) की बात नहीं बोलोगे, कॉर्पोरेट के हिमायती बाबुओं? क्‍या इतनी कायरता ठीक है?

तीसरी बात, ये पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के अंदर के अंतर्विरोधों की संधिकाल की बात करते तो हैं, लेकिन अमूर्त रूप में, जैसे किसी सुदूर भविष्‍य में घटित होने वाले संधि‍ काल की बात कर रहे हों या फिर ऐसे किसी खास विगत दौर की याद उन्‍हें आ गई हो। महानुभावों, नींद से जागिये। हम ठीक यही बात आपसे पूछ रहे हैं कि अंतर्विरोधों का कौन सा संधिकाल चल रहा है, पूंजीवादी व्‍यवस्‍था का कौन सा दौर चल रहा है? अभी तक क्‍या जाने बिना ही बातें किये जा रहे हो? संधि काल की अपनी गणना में आप क्‍या मानते हो, मांगें मानी जाएंगी या नहीं? साफ है इनके पास इसका कोई ठोस उत्‍तर नहीं है, और ये जानबूझ कर और बड़ी अदा से इस पर कोई ठोस उत्‍तर नहीं देते हैं या देना नहीं चाहते हैं। इसके पीछे कारण है कि अन्‍यान्‍य बिंदुओं पर बोलते हुए इन्‍होंने चोरी-छिपे माना है और हमने ऊपर ये सिद्ध भी किया है कि ये मानते हैं कि यह ‘स्‍वस्‍थ पूंजीवादी संचय काल’ का दौर चल रहा है, देहातों में कॉर्पोरेट द्वारा उत्‍पादक शक्तियों के विकास का दौर चल रहा है। रोजगार के अवसर के बढ़ने, मजदूरी दर बढ़ने, उत्‍पादन बढ़ने, अर्थात कुल मिलाकर देहातों के कॉर्पोरेट द्वारा कायाकल्‍प होने, देहातों के हरे-भरे होने व लहलहाने का दौर चल रहा है। यही नहीं, इनके अनुसार, यह कुलकों व धनी कि‍सानों के कॉर्पोरेट पूंजी के हाथों विनष्‍ट होने का दौर भी है।

हाय! कॉर्पोरेट भी शरमा जाए अपने इन नये मुल्‍लों की दिवानगी देखकर!

लेकिन असल बात क्‍या है? असल बात हमें ये पूछना है कि अगर मांगें नहीं मानी जाएंगी, और इसके फलस्‍वरूप आंदोलन तीव्र से तीव्रतर होता है तो इसके क्‍या परिणाम होंगे? जाहिर है इसका भी इनके पास कोई ठोस जवाब नहीं है। इन्‍हें ठोस जवाब देना भी नहीं है। जैसे ही इनका सामना ऐसे प्रश्‍नों से होता है कि जब आंदोलन तीव्र से तीव्रतर होगा तो क्‍या होगा, इनके पास एक ही उपाय है : ये इस बात की प्रार्थना करेंगे कि आंदोलन का पतन हो जाए, सरकार इसे कुचल दे या फिर किसान नेता जितनी जल्‍दी हो बिक जाएं। इसीलिए हम दावा करते हैं कि जब इस आंदोलन पर दमन होगा तो भी ये अपने वायदे या कहे के मुताबिक आंदोलन के बचाव में या दमन के विरोध में नहीं आएंगे। इनका कॉर्पोरेट हिमायती होना एक ऐसी अवस्थिति है जो उन्‍हें पतन के गर्त में ले जाएगी। ले जाएगी क्‍या, ले जा चुकी है।

(5)

ये पांचवीं बार हमारे उद्धरण पेश करते हैं –

“यहाँ से आगे किसानों की मुक्ति का रास्ता सर्वहारा राज्य से हो कर जाता है, क्योंकि एकमात्र सर्वहारा राज्य ही पूँजी के तर्कों की अधीनता से बाहर निकल कर किसानों की समस्त उपज को उचित दाम पर खरीद सकता है। (किसानों की मुक्ति और मज़दूर वर्ग, यथार्थ अंक-9, ज़ोर हमारा)

और देखें :

“मज़दूर वर्ग अगर आज अपने ऐतिहासिक कर्तव्य की पूर्ति करते हुए बुर्जुआ वर्ग के मुकाबले सत्ता का मौजूदा नहीं तो भविष्य का दावेदार बनकर, यानी भावी शासक वर्ग के रूप में, न कि किसी टुटपुँजिया वर्ग की तरह, बात करे तो उसे संघर्षरत किसानों से क्या कहना चाहिए? यही कि एकमात्र भावी सर्वहारा राज्य ही किसानों के समस्त उत्पादों की ‘उचित’ दाम पर खरीद कर सकता है। इसलिए वह न सिर्फ कॉरपोरेट के विरुद्ध उनके आन्दोलन का समर्थन करता है, अपितु वह इस बात का आह्वान भी करता है कि देश के सभी वास्तविक किसान स्वयं अपनी इच्छा से आपस में मिलकर सामूहिक फ़ार्म बनायें, जिसे मज़दूर वर्ग के राज्य से मुफ़्त ट्रैक्टर और सिंचाई के साधन सहित उन्नत बीज, खाद आदि की भी मुफ़्त सहायता दी जायेगी, ताकि वे ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन के लक्ष्य के साथ सर्वहारा राज्य के साथ पूर्व निर्धारित फसलों और मूल्य पर खेती कर सकें, अर्थात कॉन्ट्रैक्ट खेती कर सकें।” (पी.आर.सी. के फेसबुक पोस्ट से, ज़ोर हमारा)

इसका प्रत्‍युत्‍तर देते हुए एक बार फिर से ये क्रांति‍ के इंस्‍पेक्‍टर की भूमिका में आते हैं और पूछते हैं – 

“सिर्फ “किसानों” से वायदा किया है और यह नहीं बताया है कि वह किस किसान की बात कर रहे हैं।”

अरे महाशय जी, हम तमाम संघर्षरत किसानों से मुखातिब हैं। इसमें देहाती पूंजीपति वर्ग शामिल नहीं है। ये तो वह वर्ग है जिसके साथ आप खड़े हैं। चकरा गए? अरे भाई आप कॉर्पोरेट के साथ खड़े हैं और वो कॉर्पोरेट का एजेंट है यानी उसके साथ खड़ा है। इस तरह आप दोनों एक दूसरे के साथ खड़े हैं।

वे फिर से बड़ी गर्वानुभू‍ति से कहते हैं –

“पहली बात, सर्वहारा वर्ग समूची किसान आबादी से मुक्ति का वायदा नहीं करता है।”

महानुभाव, हम फिर से कह रहे हैं कि हम संघर्षरत किसान आबादी की मुक्ति की बात कर रहे हैं, समूची किसान आबादी की नहीं। आप जिस ओर इशारा कर रहे हैं वो तो आपका ही अपना सगा है, भला हम उसकी मुक्ति की बात क्‍यों करेंगे। उसकी तो हम ठीक वैसे ही सारी पूंजी जब्‍त कर लेंगे जैसे कॉर्पोरेट का कर लेंगे।

और आगे ये लिखते हैं –

“जिस प्रकार वह (सर्वहारा वर्ग) औद्योगिक क्षेत्र के छोटे व मँझोले पूँजीपतियों से ऐसा कोई वायदा नहीं करता है, उसी प्रकार वह ग्रामीण पूँजीपति वर्ग से भी ऐसा कोई वायदा नहीं करता।”

लेकिन आप फिर से गलत समझ रहे हैं महानुभावों। हमारा उससे “वायदा नहीं करते हैं” वाला रिश्‍ता नहीं है। हमारा उसका रिश्‍ता संपत्तिहर्ता (expropriator) और संपत्तिहृत (expropriated) के बीच का रिश्‍ता है। सर्वहारा क्रांति के दौरान ही सर्वहारा वर्ग उनकी संपत्ति की जब्‍ती कर लेगा।

जहां तक ‘किसान’ शब्‍द के प्रयोग पर इनके ऐतराज की बात है, तो बड़ा ताज्‍जुब होता है कि इतना पढ़ा-लिखा जन्‍मजात शि‍क्षकों का कुनबा इतना अधिक अपढ़ जैसा बात कैसे करता है। आश्‍चर्य है कि इतनी मामूली सी बात इस कुनबे का कोई व्‍यक्ति नहीं जानता है कि सर्वहारा राज्‍य जहां मजदूर वर्ग और गरीब किसानों की हिस्‍सेदारी वाला राज्‍य होगा, वहीं जहां तक इसके जिम्‍मे की बात है तो इसकी जिम्‍मेवारी सभी किसानों की मुक्ति है जिसमें आपके सगे अत्‍यंत धनी किसानों की एक पतली परत (जो वास्‍तव में ग्रामीण पूंजीपति हैं) को छोड़ सभी किसान शामिल होंगे या हैं। जाहिर है, अलग-अलग संस्‍तरों व वर्गों वाले किसानों के प्रति व्‍यवहार का पैमाना अलग-अलग होगा। अर्धसर्वहाराओं को छोड़ बाकी सभी के साथ हमारा व्‍यवहार ठीक-ठीक क्‍या होगा यह आज नहीं अपितु उस खास समय के अनुसार तय होगा जब यह कार्यभार हमारे सामने ठोस रूप से प्रकट होगा। यह हम पहली बार नहीं कह रहे हैं। मार्क्‍स-एंगेल्‍स से लेकर लेनिन तक इसे कह चुके हैं,  भले ही इस शिक्षक कुनबे को ये पसंद नहीं हो।[11]

ये आरोप लगाते हैं कि

‘लेखक महोदय ने जानबूझकर यहां एक अविभेदीकृत किसान आबादी की बात की है’

महानुभावों, आप इसे फिर से नहीं समझ पाये और कभी समझ भी नहीं पायेंगे कि सर्वहारा सत्‍ता में हिस्‍सेदार कौन होगा और सर्वहारा सत्‍ता की जिम्‍मेवारी क्‍या है इसमें फर्क होता है। इसलिए ही वास्‍तविक और अवास्‍तविक किसान की बहस भी यहां बेमानी है। हम यहां वास्‍तविक किसान शब्‍द का प्रयोग उस छोटी ग्रामीण पूंजीपति वर्ग को छोड़कर बाकी सभी तबकों के लिए कर रहे हैं। हम मानते हैं कि धनी किसानों का व्‍यापक हिस्‍सा कॉर्पोरेट की कृषि‍ पर चढ़ाई के काल में वह धनी तबका है जिसकी तबाही शुरू होने वाली है और ऐसा होना अवश्‍यंभावी है। अगर वह हमारा विरोध नहीं करता है, जिसकी नयी परिस्थि‍तियों में संभावना ज्‍यादा है, तो उसके साथ सर्वहारा राज्‍य संयम और समझाने-बुझाने के रास्‍ते से पेश आएगा और बहुत हद तक उसे अपने भाग्‍य पर छोड़ देगा जैसा कि एंगेल्‍स ने कहा था। जाहिर है अगर वह सर्वहारा राज्‍य का विरोध करेगा तो उसका पहले बलपूर्पक दबाया जाना और बाद में उसके नहीं सुधरने पर उसे एक वर्ग के बतौर खत्‍म करना जरूरी होगा। सर्वहारा राज्‍य जैसे एक समय में उसके साथ बहुत संयम के साथ पेश आएगा वैसे ही विपरीत हालातों में बहुत अधिक दृढ़ता के साथ पेश आएगा। हम यह मानते हैं कि कॉर्पोरेट की चढ़ाई के वक्‍त में ये सभी वास्‍तविक किसानों के साथ ही सर्वहारा क्रांति संपन्‍न करने का सुअवसर प्राप्‍त हो सकता है। बढ़ते समय के साथ जैसे-जैसे कृषि का कॉर्पोरेटीकरण तेज होगा और पूंजीवाद का संकट गहराएगा, इसकी संभावना बढ़ेगी कि देहात में किसानों के बीच के आपसी वर्ग-संघर्ष आज की अपेक्षा और भी मद्धि‍म पड़ जाए और मुख्‍य रूप से लड़ाई का मैदान कॉर्पोरेट के विरुद्ध यानी बड़े पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध या संपूर्णता में पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध लक्षित हो जाए। हम मानते हैं कि अंतर्विरोधों के एक ऐसे ही विलक्षण संधिकाल की तरफ चीजें बढ़ती दिख रही हैं जैसा कि रूसी क्रांति के वक्‍त पैदा हुआ था और सर्वहारा वर्ग के हिरावल के नाते हमें इसका ख्‍याल रखते हुए सर्वहारा क्रांति संपन्‍न करने और सर्वहारा राज्‍य कायम करने के बाद समाजवाद का निर्माण करने के कार्यभार को – यानी दो अलग-अलग कार्यभारों – को एक साथ गडमड नहीं करना चाहिए। इस मामले में हमें रूसी अक्‍टूबर क्रांति के ठीक पहले के, ऐन क्रांति काल के तथा उसके बाद समाजवादी निर्माण काल के वक्‍त में बोल्‍शेविक पार्टी द्वारा ली गयी कार्यनीतियों को पूरी गहनता से अध्‍ययन करना चाहि‍ए और उसके आलोक में अपने को शिक्षित करना चाहिए।[12] लेकिन जो इतिहास को मृत चीजों का बखान मानते हुए उससे मृत सूत्र रटने के आदी हैं उनको बस बौद्धिकता झाड़ना ही आ सकता है। देखि‍ए, ये किस तरह अपनी बौद्धिकता का बेतुका प्रदर्शन करने पर तुले हैं —

“यह ‘वास्तविक किसान’ क्या होता है? यदि उनका मतलब उन लोगों से है जो कि वास्तव में खेतों में उत्पादन करते हैं, तो वे खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों की बात कर रहे हैं, जिनके लिए मार्क्स ‘वास्तविक उत्पादक’ (real producers) शब्द का इस्तेमाल करते हैं, न कि ‘वास्तविक किसान’ का, जो कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से एक अर्थहीन शब्द है। और अगर लेखक महोदय खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों की ही बात कर रहे हैं, तो लाभकारी मूल्य के समर्थन का कोई तुक ही नहीं बनता है क्योंकि वह खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों के विरुद्ध ही जाता है। अगर लेखक महोदय का अर्थ ‘वास्तविक किसान’ से उजरती श्रम का शोषण न करने वाले सीमान्त, छोटे और निम्न मंझोले किसान हैं, तो यह कहना होगा कि उनके लिए ‘ग़रीब व निम्न मंझोला किसान’ ही सही शब्द है क्योंकि धनी किसान भी कोई कम किसान नहीं होते क्योंकि ‘किसान’ शब्द के अर्थ या परिभाषा में अनिवार्यत: भौतिक शारीरिक श्रम करना शामिल नहीं है। वह ग़रीब मेहनतकश किसान की परिभाषा में शामिल है, लेकिन आम तौर पर किसान आबादी में धनी व उच्च मध्यम पूंजीवादी किसान आबादी भी शामिल है (और वह कोई ‘अवास्तविक किसान’ नहीं है!) और ग़रीब मेहनतकश किसान भी। अगर लेखक का अर्थ है कि पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामियों से अलग समस्त किसान समुदाय जिसमें कि धनी व उच्च मध्यम किसानों समेत सीमान्त, छोटे व निम्न मंझोले किसान भी शामिल हैं, तो यह कहना होगा कि कोई भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्यक्ति ऐसा वर्गेतर श्रेणीकरण नहीं करेगा, क्योंकि धनी व उच्च-मध्यम पूँजीवादी फार्मर उजरती श्रम का शोषक है और समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में शत्रु वर्ग है, जबकि ग़रीब मेहनतकश किसान क्रान्ति का मित्र वर्ग है। यह भी मार्क्सवाद का ‘क ख ग’ है, जिससे हमारे लेखक महोदय वाकिफ़ नहीं हैं। दरअसल, हमारे लेखक महोदय ने ‘वास्तविक किसान’ की अर्थहीन संज्ञा का इस्तेमाल ही अपने अवसरवाद को छिपाने के लिए किया है।”

हम यहां देख सकते हैं कि दूसरों को पढ़ाने की इनमें कितनी अतृप्‍त भूख है। और हम जानते हैं, और यह देख चुके हैं कि इसके अतिरिक्‍त इन्‍हें कुछ आता भी नहीं है। ये जैसे ही कार्यभार निकालने के काम में हाथ डालते हैं वे वैसे ही सुधारवाद के दलदल में जा गिरते हैं और सबसे बुरी बात जो अब हुई है ये कॉर्पोरेट के हिमायती से सीधे कॉर्पोरेट का ब्रीफ लिए बैठे उसके बौद्धिक सहकार बन बैठे हैं।     

इसी तरह का एक और बेतुका बकवास वे तब करते हैं जब हम किसानों से सामू‍हिक कृषि फार्म  बनाने का आह्वान करते हैं। ये कहते हैं –

“साथ ही, पूंजीवादी व्यवस्था के मातहत किसानों के किसी भी हिस्से से सामूहिक या सहकारी फार्म बनाने का आह्वान ही एक मूर्खतापूर्ण और टुटपुंजिया आह्वान है।”  

अब ये देखि‍ए! हम पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के मातहत किसानों से सामूहिक फार्म बनाने का आह्वान कर रहे हैं!? ये कहां से पढ़ लिया महानुभावों?? ये तो सचमुच में मजाक हो गया। लेकिन धैर्य बनाये रखिए और आगे सुनिए। ये लिखते हैं –

“पहली बात तो यह कि धनी व उच्च मध्यम किसान तो समाजवादी संक्रमण और सर्वहारा राज्यसत्ता की मौजूदगी में भी एक वर्ग के तौर पर सामूहिक फार्म बनाने पर स्वेच्छा से तैयार नहीं होंगे, पूंजीवादी व्यवस्था के मातहत उनसे ऐसी उम्मीद करना ही शुद्ध किहोतेवाद है।”

ये तो जैसे पूरा कुनबा ही भांग खाये हुए है! ये आगे लिखते हैं –

“दूसरी बात, पूँजीवादी व्यवस्था के मातहत अगर ग़रीब और निम्न-मँझोले किसान भी कोई सामूहिक फ़ार्म या सहकारी फ़ार्म जैसी संस्था बना लें (क्योंकि धनी किसान इसके लिए कभी न तो तैयार होंगे और न ही उन्हें इसकी कोई आवश्यकता है), तो भी पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर वह एक सामूहिक पूँजीपति (collective capitalist) ही बन सकते हैं और उनके भीतर असमानताएँ और वर्ग अन्तरविरोध पनपेंगे और ऐसी सारी संस्थाएँ अन्तत: एक छोटे वर्चस्वकारी समूह के मातहत हो जाती हैं, और उनके बाकी सदस्य या तो कनिष्ठ शेयरहोल्डर बन जाते हैं या उनके उजरती श्रमिक। वजह यह है कि ऐसे सभी कलेक्टिव्स और कोऑपरेटिव्स को पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर पूँजीवादी बाज़ार में ही प्रतिस्पर्धा करनी होती है, प्रतिस्पर्धी बने रहना होता है, और इसके लिए उजरती श्रम का शोषण करते हुए उसी प्रकार अस्तित्वमान व सक्रिय होना होता है, जिस प्रकार बाज़ार में अन्य पूँजियां सक्रिय होती हैं। पूरी दुनिया में इसके कई उदाहरण मौजूद हैं। यह भी पीआरसी सीपीआई (एमएल) के नेतागण की मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की शून्य समझ और शेखचिल्लीवाद को दिखलाता है कि वह पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर धनी किसानों समेत सभी किसानों से “सामूहिक फ़ार्म” बनाने की अपील कर रहे हैं, जिनको अपने नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति के करने के बाद वह निशुल्क बीज, ट्रैक्टर, खाद आदि देंगे! मतलब, किहोतेवाद की इन्तहा है!”

भाई मानना पड़ेगा कि इस पूरे कुनबे के साफ्टवेयर में जरूर ही कुछ गड़बड़ है! बस हवा में न जाने किस पर मुक्‍के भांजे जा रहे हैं।

लेकिन ये देखिए अब जाकर असली मोती निकलता है –  

“तीसरी बात, किसान कोई एक वर्ग नहीं होता बल्कि एक वर्ग–विभाजित समुदाय होता है, जिसमें धनी किसानों के हित किसी भी सूरत में (संकट या बरबादी की स्थिति में भी!) एक वर्ग के तौर पर समाजवाद और सर्वहारा वर्ग के खिलाफ़ ही जाते हैं, और उनसे “उचित दाम” जैसा भ्रामक वायदा करना सर्वहारा वर्ग से ग़द्दारी के समान है।”

इस तरह सागर मंथन के बाद अभिनववाद बाहर निकला है! यही वह महान मोती है जिसके बिना क्रांतिकारी आंदोलन में सूनापन छाया हुआ था! वह कहता है कि धनी किसानों के हित और इसलिए धनी किसान किसी भी सूरत में सर्वहारा वर्ग के खिलाफ ही जाते हैं। तो लगे हाथ जन्‍मजात शिक्षकों का महान कॉर्पोरेट हिमायती कुनबा यह भी बता दे कि एंगेल्‍स की इस बात पर इनके क्‍या विचार हैं –

एंगेल्‍स यह कहते हुए भी कि बड़े किसानों का अस्‍तित्‍व उजरती श्रम के शोषण पर टिका है, यह कहते हैं कि

हमें आर्थिक दृष्टि से यह पक्‍का यक़ीन है कि छोटे किसानों की तरह बड़े और मंझोले किसान भी अवश्‍य ही पूंजीवादी उत्‍पादन[13] और सस्‍ते विदेशी गल्‍ले की होड़ के शिकार बन जायेंगे। यह इन किसानों की भी बढ़ती हुई ऋणग्रस्‍तता और सभी जगह दिखायी पड़ रही अवनति से सिद्ध हो जाता है। इस अवनति का इसके सिवा हमारे पास कोई इलाज नहीं है कि उन्हें भी सलाह दें कि वे अपने-अपने फार्मों को एक में मिलाकर सहकारी उद्यमों की स्थापना करें, जिनमें उजरती श्रम के शोषण का अधिकाधिक उन्मूलन होता जायेगा, और जो धीरे-धीरे उत्पादकों के एक महान राष्ट्रीय सहकारी उद्यम के संघटक अंगों में परिवर्तित किये जा सकते हैं, जिनमें प्रत्‍येक शाखा के अधिकार और कर्तव्‍य समान होंगे। यदि ये किसान यह महसूस करें कि उनकी मौजूदा उत्‍पादन पद्धति का विनाश अवश्‍यम्‍भावी है और इससे आवश्‍यक सबक हासिल करें, तो वे हमारे पास आयेंगे और यह हमारा कर्तव्‍य हो जायेगा कि नयी उत्‍पादन पद्धति में उनके भी संक्रमण को शक्ति भर सुगम बनायें। अन्‍यथा हमें उन्‍हें अपने भाग्‍य के भरोसे छोड़ देना होगा…”

एंगेल्‍स और आगे कहते हैं –

“केवल बड़ी-बड़ी जमींदारियों का मामला ऐसा है, जो बिल्‍कुल सीधा और साफ़ है। यहां हमारा सामना खुले पूंजीवादी उत्‍पादन से होता है, इसलिए यहां किसी भी तरह के संकोच में पड़ने की ज़रूरत नहीं है। यहां हमारे सामने ग्रामीण सर्वहारा का विशाल जन-समुदाय है और हमारा कर्तव्‍य स्‍पष्‍ट है। ज्‍यों ही हमारी पार्टी राज्‍यसत्‍ता प्राप्‍त करती है, उसे बड़े भूस्‍वामियों की सम्‍पत्ति उसी तरह से ले लेनी चाहिए, जिस तरह उद्योग में कारखानेदारों की सम्‍पत्ति ले ली जायेगी।” (वही, पृ. 387) [14]   

इसी तरह इस कुनबे को अपनी राय लेनिन की इस उक्‍ति‍ के बारे में भी बतानी चाहिए जो लिखते हैं कि

And the last statement I would like to quote is the argument about the rich peasants, the big peasants, the kulaks as we call them in Russia, peasants who employ hired labour. Unless these peasants realise the inevitability of the doom of their present mode of production and draw the necessary conclusions, Marxists cannot do anything for them. Our duty is only to facilitate their transition, too, to the new mode of production.” (p.210 LCW Vol 28, bold ours)

“किसी भी सूरत में” जैसा बेकार का सिद्धांत देने वालों! एंगेल्‍स और लेनिन के बारे में आपके क्‍या विचार हैं? वैसे हमको पता है कि कॉर्पोरेट के हिमायती एंगेल्‍स और लेनिन को भी गालियों से ही नवाजते, लेकिन उतनी बड़ी औकात नहीं है।  

(6)

आइए, इनके अन्‍य तरह के बकवास का भी जवाब दिया जाए

ये लिखते हैं –

“उपरोक्त उद्धरणों को पीआरसी के लेखक महोदय उंगली रखकर पढ़ें और बताएं कि यह किस तरह से पीआरसी के लेखक के तर्कों को तोड़ना-मरोड़ना है? क्या यह बात पीआरसी के लेख में नहीं कही गई है?”

उम्‍मीद है महानुभावों, आप मानोगे कि ठीक-ठीक उंगली रखकर ही बता दिया गया कि आप बिना तोड़-मरोड़ किये बहस कर ही नहीं सकते हो। यह भी पता चल गया होगा कि डाएमैटिक व्यवहार कौन कर रहा है।

आगे कॉर्पोरेट के ये हिमायती लिखते हैं –

“यह जनाब अपने लेख और पुस्तिका में सोवियत समाजवादी राज्य द्वारा किसानों को “उचित दाम” दिए जाने का भ्रामक नारा देते हैं। भविष्य के भावी शासक वर्ग और सर्वहारा राज्य द्वारा वर्तमान किसान आन्‍दोलन को “उचित दाम” दिलाने की दुहाई देने के बावजूद यह महोदय इस बात से मुकर जाते हैं कि वे सोवियत समाजवाद और समाजवादी संक्रमण के बारे में बात कर रहे थे!”

फिर वे हमारे लेख (what the new apologists of corporates are…की पहली किश्‍त) से एक उद्धरण लेखक महोदय लिखते हैं कि :

“Many have gone through the PRC’s booklet, but, unlike our ‘educators’, none would say and nor has anyone said that it is about any history or deals with the “history of socialist experiments in the USSR” and “Marxist-Leninist theories on Peasant question.” Those who have read will confirm that not a single paragraph, nay, not even a single sentence has been used for this purpose. There is no discussion, nor any quote either from history or Marx, Engels, Lenin or Stalin on peasant question.”

“How can just mentioning the words like in the USSR become history of socialist experiments in the USSR or history of the policies adopted during transition to Socialism?” (What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)

फिर ये आगे लिखते हैं –

“लेकिन पीआरसी के लेखक महोदय को याद दिलाना पड़ेगा कि जब आप ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि ”सोवियत संघ के समान” उचित दाम एक समाजवादी राज्य दे पाएगा और आप यह बताते नहीं कि यह उचित दाम क्या होगा और ऊपर से आप यह बात उस आन्दोलन में कहते हैं जो कि कतई अन्यायपूर्ण लाभकारी मूल्य के लिए लड़ा जा रहा है, तो उसका बिल्कुल यही मतलब है कि आपको सोवियत संघ के इतिहास के बारे में कुछ नहीं पता है; कि आप लाभकारी मूल्य को उचित दाम बता रहे हैं; कि आप सोवियत संघ पर भी ऐसा लाभकारी मूल्य देने की नीति को जबरन आरोपित कर रहे हैं, ताकि धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठ सकें। इसलिए, लेखक महोदय आपने सोवियत संघ के इतिहास के प्रति अज्ञान दिखाने की मूर्खता कर दी है और अब इस मूर्खता को ढांपने-तोपने का प्रयास करने का कोई लाभ नहीं होगा।

पाठक साथियों,  क्‍या उन्‍होंने इस बात का खंडन किया कि सिर्फ दो शब्‍द “सोवियत यूनियन के समान” इतिहास या इतिहास की व्‍याख्‍या नहीं है? नहीं, बिल्‍कुल ही नहीं किया। चाहे इन्‍होंने इसी बहाने दो और गालियां दे दी, लेकिन इन्‍होंने यह नहीं बताया कि ऊपर के दो शब्‍द “सोवियत यूनियन के समान” लिख देना सोवियत यूनियन में समाजवादी निर्माण का इतिहास कैसे हो गया। इन्‍होंने यह साफ नहीं किया कि पूरा इतिहास बताना और दो-तीन शब्‍दों में उस इतिहास की मुख्‍य दिशा के बारे में इशारा करना या इंगित करना दोनों एक ही चीज कैसे है। इसीलिए हमने “द ट्रूथ” में कहा कि ये इतिहास नहीं उसके हेडलाइंस पढ़ते हैं। वे इसे समझते कम और रटते ज्‍यादा हैं।

दरअसल ये खंडन करने से बचने के लिए एकाएक कूद कर इस बात पर चल देते हैं कि

आप यह बताते नहीं कि यह उचित दाम क्या होगा … तो उसका बिल्कुल यही मतलब है कि आपको सोवियत संघ के इतिहास के बारे में कुछ नहीं पता है;”

कॉर्पोरेट के हिमायतियों, यहां ये उछल-कूद किसी काम का नहीं है। पहले ये बताइए कि महज ये दो शब्‍द “सोवियत यूनियन के समान” इतिहास का पर्याय कैसे हो गये, फिर बताइएगा कि हमें इतिहास नहीं पता है। लेकिन इन्‍हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा, हम जानते हैं। इन्‍हें उत्‍तरपुस्तिका में वही लिखना है जो वे रट कर आए हैं। जाहिर है इसके बाद इनका वही पुराना मानसिक दौरा इन पर सवार हो जाता है  कि कि आप लाभकारी मूल्य को उचित दाम बता रहे हैं; कि आप सोवियत संघ पर भी ऐसा लाभकारी मूल्य देने की नीति को जबरन आरोपित कर रहे हैं, ताकि धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठ सकें…आदि आदि  

ऐसे में हम तो इतना ही कह सकते हैं : हे भगवान, ऐसे लाइलाज मानसिक दौरे की बीमारी से सबकी रक्षा करना! हालांकि जब तक ये कॉर्पोरेट की गोद में बैठकर दुनिया को ये प्रदर्शित करने की कोशिश करते रहेंगे कि वे तो अतिक्रांतिकारी हैं, तब तक इन्‍हें कोई भी मदद नहीं कर सकता है।

आगे ये लिखते हैं और मानते हैं कि इस बार इन्‍होंने तीर मारा है –

किसान आन्‍दोलन पर पुस्तिका लिखकर इस संगठन के नेता महोदय यह कहते हैं कि उन्होंने किसान प्रश्न पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी नज़रिये के बारे में बात ही नहीं की है!

यहां भी वे अपनी निपट बदमाशी का बिना हिचक और शर्म के प्रदर्शन कर रहे हैं। हमने ऊपर लिखा है (कृपया अंग्रेजी में “द ट्रुथ” से दिया उद्धरण देखें) कि हमने किसान प्रश्‍न के इतिहास पर मार्क्‍स, एंगेल्‍स, लेनिन और स्‍टालिन को उद्धृत करते हुए कोई चर्चा नहीं की। लेकिन इसे ये तोड़-मरोड़कर कहते हैं कि हम कह रहे हैं कि हमने “किसान प्रश्‍न पर मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी नजरिए से चर्चा ही नहीं की।” इनके अनुसार, ‘मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी नजरिये से किसी देश विशेष के किसी खास किसान आंदोलन का ठीक उसके ही अंदर की द्वंद्वात्‍मकता को समझने व समझाने के अर्थ में मूल्‍यांकन करना और उसके आधार पर कार्यभार निकालना’ तथा ‘किसान प्रश्‍न पर मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी नजरिये के इतिहास पर बात करना’ एक ही बात है। इसके बाद इनके बारे में कहीं कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि इस कुनबे में इतिहास का पाठ किस तरह पढ़ा जाता है। ये इति‍हास को वैज्ञानिक दृष्टि के विपरीत अवसरवादी तरीके से पढ़ने, समझने और देखने की समस्‍या से बुरी तरह ग्रसित हैं। खासकर, ये जब से कॉर्पोरेट के पक्ष में खड़े हुए हैं और हमारे द्वारा ऐसा करते रंगे हाथ पकड़े गये हैं तब से इनकी समस्‍या ने मानसिक असंतुलन का स्‍वरूप धारण कर लिया है और ये लगातार मानसिक दौरे (पागलपन के दौरे) का शिकार हो रहे हैं। किसान आंदोलन पर ही नहीं, ये जब भी किसी ठोस परिस्थिति का ठोस मूल्‍यांकन करेंगे, ये स्‍वाभावि‍क तौर से इतिहास के रट्टु व नकलची तोते की तरह इस ठोस कार्यभार के आगे इतिहास के अपने ठूंठ ज्ञान को बिना समझे भिड़ा देंगे। इसी का परिणाम है कि इनकी अतिक्रांतिकारिता की ओढ़ी हुई चादर इनके शरीर से सरकने लगी है।

चलिए, आगे बढ़ते हैं और इनकी और बकवास सुनते हैं —

“आप जब मौजूदा धनी किसान आन्‍दोलन में समाजवादी व्यवस्था द्वारा दिए जाने वाले “उचित दाम” की बेहद भ्रामक बात करते हैं और समाजवादी व्यवस्था के बारे में लम्बी-चौड़ी हांकते हैं जो रूसी समाजवाद के प्रयोग के अनुभव का विकृतिकरण करती है तो इसे और क्या कहा जाएगा?”

ये पागलपन के एक और दौरे का प्रमाण है। कॉर्पोरेट के हिमायती महानुभावों, हमने पिछली बार भी कहा था कि अगर ‘समाजवादी व्यवस्था द्वारा दिए जाने वाला  “उचित दाम” एक बेहद भ्रामक नारा है, और रूसी समाजवाद के प्रयोग के अनुभव का विकृतिकरण करता है’,  जैसा कि आप कहते हैं, तो आप क्‍यों नहीं कह देते हैं कि ऐसा कोई उचित दाम नहीं दिया जाएगा? आखिर हिम्‍मत क्‍यों नहीं हो रही है? इस सवाल पर पूरा कुनबा सकते में है कि क्‍या किया। इससे कैसे इनकार किया जाए? इनसे न निगलते बन रहा है न उगलते। इसीलिए ये इस पर जवाब देने के लिए एक पल भी नहीं टिकते। झट से इस बात से उस बात पर आ जाते हैं कि ‘ये क्‍यों नहीं बताये कि यह उचित दाम कितना होगा।’ फिर कहते हैं, ‘अगर नहीं बताये तो इसका मतलब है कि आप इसे लाभकारी मूल्‍य मानते हैं।’ फिर पागल की तरह कहते हैं कि ‘इसका मतलब है हमें इतिहास ही पता नहीं है।’ और लीजि‍ए, साबित हो गया कि दो शब्‍द (सोवियत यूनियन के समान) लिखने का मतलब इति‍हास की विवेचना करना है।

लेकिन चलिए, फिर से आगे बढ़ते हैं –

अब वे मॉरिस डॉब पर आते हैं और हम पर इल्‍जाम लगाते हैं कि

“किताब की विषय सूची देखकर इधर-उधर से कुछ बातें चेंप दी हैं”

अच्‍छा, तो आप बिना विषय सूची देखे ही चेंपते हैं, है न? इससे किसी की बात को तोड़ने-मरोड़ने में नैसर्गिक रूप से आनंद प्राप्‍त होता होगा, यही बात है न हमारे ‘हिमायती महानुभावों’? “द ट्रुथ” के 12वें अंक में हमने दिखाया है कि ये किस तरह आनंदपूर्वक तरीके से मॉरिस डॉब को भी तोड़ा-मरोड़ा है। सबसे मजेदार फिर भी यह है कि चुपके से वे खुद को भी तोड़े-मरोड़े हैं। [15]

फिर वे बड़ी शान से बुखारिन और स्‍टालिन के बीच की बहस को हमारे सामने ले आते हैं। बेचारे ये समझते होंगे कि स्‍टालिन का नाम आते ही हमें काठ मार जाएगा,  हम बेसुध हो जाएंगे और चुपके से की गई इनकी हाथ की सफाई सफल हो जाएगी। दरअसल मामला यह है कि सामूहिक फार्म के किसानों को मिलने वाले उचित दाम के सवाल पर ये स्‍टालिन-बुखारिन के बीच की उस बहस को लाते हैं जो टाइमलाइन के हिसाब से एक दशक पीछे का है और उस समय कुलक बने हुए थे, नेप का दौर चल रहा था और देशव्‍यापी सामूहिक फार्म आंदोलन अभी शुरू नहीं हुआ था। इनकी कोशि‍श ये थी कि हमें बुखारिनपंथी साबित किया जा सके। लेकिन इनकी चोरी पकड़ी गई।[16] हमें पता है, इस चोरी के पकड़े जाने के बाद उनकी मानसिक स्थिति अत्‍यधिक खराब हो गई होगी और मानसिक दौरों की संख्‍या व तीव्रता दोनों और बढ़ने वाली है।

महानुभावों, जब किसी और तरीके से आपका काम नहीं बना तो आपने हद दर्जे की कलाबाजी करने की कोशिश की और रंगे हाथ पकड़े गये। आपकी पोल पट्टी पूरी तरह खुल चुकी है।

(7)

इस बीच वे हमारे “द ट्रुथ” के 11वें अंक से एक लंबा उद्धरण देते हैं और उसके बाद कहते हैं कि

‘कुल मिलाकर देखें तो पीआरसी सीपीआई (एमएल) लाभकारी मूल्य की मांग का समर्थन करती है।’

अब तो यह भी समझ में नहीं आता है कि इन्‍हें अंग्रेजी पढ़नी आती है या नहीं। पाठकों से हम कहना चाहते हैं कि वही उद्धरण हम भी यहां दे देते हैं उसे एक बार या कई बार पढ़कर आपमें से कोई यह बताने का कष्‍ट करें कि क्‍या इसके आधार पर कहा जा सकता है कि हम एमएसपी या लाभकारी मूल्‍य का समर्थन करते हैं?

“Take the question of purchase guarantee of all agri-produce at MSP. This (MSP as a legal right) is also a new thing in farmers movement. At least the background of Corporate takeover of agriculture through laws is giving it a new meaning and adding different substance. Why? Because the demand of purchase of all produce at MSP is a demand that a bourgeois government which has brought new farm laws to facilitate Corporate entry can’t ever fulfil…… A new struggle will be sought to emerge, this time for the guarantee of buyers. Farmers will have to wage a new struggle for another law that will legally guarantee purchase by the businessmen at MSP and of all produce. But businessmen can’t be pressurised by any law to purchase at a certain price. In this case, the demand of purchase guarantee rests with the government to be accepted.

“Then, farmers leaders will say that businessmen must buy at MSP and the difference in price must be paid to the businessmen by the government. So, finally it is a demand of guarantee of purchase by government/state for which government will have to depend on public finance which is already depleted to an extent that nothing is saved for the general people now. This will also be twice in favour of corporates. So even if we assume that government will accept this, the crisis of public finance and demand would blast the whole system hurting all very badly in its return, even peasants in many ways. So, it is clear that nothing very precious will come in the pocket of the peasants if the government accepts the demands. The whole exercise around MSP as a legal right or the demand of purchase guarantee goes against the laws of capitalist market.

“However, farmers are agitated and it seems they are not going to be at peace as long as farm laws are not repealed and MSP as a legal right is not accepted. What does it mean? It means that if their struggle continues and the farmers, convinced as
they are about the fall out of farm laws, further go into clash-combat like situation with the state, the agitation is bound to go beyond the bourgeois limit.” (What the new apologists of corporates are and how they fight against the revolutionaries, The Truth, Issue 11)

ये इसी तरह तोड़ते-मरोड़ते हैं। लेकिन इस बार इन्‍होंने चोरी के साथ सीनाजोरी भी करने की कोशिश की है, खासकर जब ये कहते हैं कि ऊपर के उद्धरण में लाभकारी मूल्‍य का समर्थन है। इसके लिए ये “कुल मिलाकर” जैसे शब्‍द का उपयोग करते हैं। लेकिन महाशय, वास्‍तव में इसमें ‘कुल मिलाकर’ वह नहीं कहा गया है जो आप कह रहे हैं। आपकी बदमाशी एक बार फिर रंगे हाथ पकड़ी गयी है। इसमें कुल मिलाकर यह कहा गया है कि  –

“1) the demand of purchase of all produce at MSP is a demand that a bourgeois government which has brought new farm laws to facilitate Corporate entry can’t ever fulfil 2) the demand of purchase guarantee rests with the government to be accepted 3) So, finally it is a demand of guarantee of purchase by government/state for which government will have to depend on public finance which is already depleted to an extent that nothing is saved for the general people now. This will also be twice in favour of corporates 4) So even if we assume that government will accept this, the crisis of public finance and demand would blast the whole system hurting all very badly, even peasants in many ways. So, it is clear that nothing very precious will come in the pocket of the peasants if the government accepts the demands. 5) The whole exercise around MSP as a legal right or the demand of purchase guarantee goes against the laws of capitalist market. 6) if their struggle continues and the farmers, convinced as they are about the fall out of farm laws, further go into clash-combat like situation with the state, the agitation is bound to go beyond the bourgeois limit.”  

यानी ‘कुल मिलाकर’ एमएसपी का या लाभकारी मूल्‍य का कहीं भी और किसी भी दृष्टिकोण से समर्थन नहीं किया गया है महानुभावों, बल्कि यह कहा गया है कि वैधानिक दर्जा वाला एमएसपी भी किसानों के कोई खास काम आने वाला नहीं है और यह किसानों के लिए अंतिम नतीजे के बतौर हानिकारक भी है। दूसरी बात यह कही गई है कि अगर इस पर किसानों की लड़ाई तीव्र होती है तो लड़ाई बुर्जुआ सीमा से बाहर जा सकती है, क्‍योंकि  बुर्जुआ राज्‍य की सीमाओं के भीतर कुछ अपवादस्‍वरूप स्थितियों को छोड़कर इसकी पूर्ति संभव नहीं है। कॉर्पोरेट के हि‍मायती अगर कहना चाहते हैं कि हम इस रूप में, इसका इस नये रूप में तथा इस अर्थ में तो समर्थन करते ही हैं, तो एक हद तक वे सही हैं, लेकिन एक ही हद तक और एकमात्र इसी अर्थ में कि इसका अंतर्य न सिर्फ इसके बाह्य प्रतिक्रियावादी आवरण को तोड़ता है अपितु बुर्जुआ राज्‍य की सीमा को भी लांघता है, बशर्ते किसान आंदोलन तीव्र हो और राज्‍य से उसका मौजूदा टकराव और तीखा हो। यानी जहां तक यह मांग अपने नये रूप में क्रांतिकारी अंतर्य वाले तत्‍वों को समाविष्‍ट करती है, वहीं तक और ठीक-ठीक उसी सीमित अर्थ में हम इसका स्‍वागत करते हैं क्‍योंकि इससे किसानों को बुर्जुआ राज्‍य की सीमाओं को समझने में मदद मिलेगी। इसमें कोई शक नहीं कि हम इस मांग में बुर्जुआ सीमा को पार करने की मौजूद संभावना व शक्ति का बेइंतहां स्‍वागतपूर्ण तरीके से इस्‍तेमाल करना चाहते हैं। कम से कम कॉर्पोरेट की चरण वंदना से तो यह बेहतर ही है। इस अर्थ में और ठीक इसी अर्थ की हद में ही हम इस मांग का स्‍वागत करते हैं जो किसान आंदोलन के अंदर की अपनी स्‍वयं की द्वद्वात्‍मक गतिकी का परिणाम है और इसलिए और भी अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण है, लेकिन जिसे मजदूर वर्गीय हस्‍तक्षेप के द्वारा और भी पुष्‍ट तथा आगे गतिमान किया जा सकता है और इसे पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के विरुद्ध मोड़ा जा सकता है। जाहिर है जो कॉर्पोरेट की गोद में जा बैठे हैं और इतिहास को एक मृत चीज समझते हैं और उसे समझने से ज्‍यादा रटने में विश्‍वास करते हैं उनके लिए इतना सजीव और ऑरिजिनल चीज कभी भी समझ में नहीं आएगी। वैसे भी सुधारवादियों को इसकी जरूरत भी कहां हैं।

एक बात और, वैधान‍िक दर्जा वाले एमएसपी की मांग के मामले में हम यह मानते हैं कि इसका मुख्‍य कंपोनेंट “खरीद गारंटी” है जबकि लागत के ऊपर 50 प्रतिशत मूल्‍य ( सी टू प्‍लस फिफ्टी परसेंट) वाला कंपोनेंट एक गौण पक्ष है। जैसे-जैस आंदोलन तीखा होगा, इसका मुख्‍य पक्ष और भी ज्‍यादा हावी होगा। पीआरसी मुख्‍य रूप से इसे ही अत्‍यधिक महत्‍व की चीज मानती है। यह किसानों के बयानों में भी इस रूप में आते रहा है कि पहले सरकार कानून बनाये बाकी के लिए वार्ता कमिटी में बात होगी।

ये पूछते हैं, “वास्तव में लाभकारी मूल्य की मांग प्रतिक्रियावादी मांग है या नहीं?”

तो महानुभावों, आप महज इसमें इंटेरेस्‍टेड हैं! कोई बात नहीं, हम जानते हैं कि यह आपके लिए इसलिए भी इतना जरूरी है कि इसी के बल पर आपको कॉर्पोरेट पूंजी के पक्ष में लहालोट होना है। लेकिन आपको बता दें कि हम मानते हैं कि यह एक खत्‍म होती, चंद दिनों में मिट जाने वाली प्रतिक्रियावादी मांग है और यह हम वर्तमान किसान आंदोलन के पहले दिन से कह रहे हैं। हमारे लिए यह जानना सबसे ज्‍यादा जरूरी है कि इस “खत्‍म होती” चीज की जगह वाली एक और महा प्रतिक्रियावादी चीज कौन सी है जो चढ़ाई करने वाली है। आपमें और हममें फर्क यह है कि आप उसको रेखांकित करते हैं जो मिटने वाली है और दूसरे पर चुप्‍पी साध लेते हैं और उसका समर्थन करते हैं, जबकि हम जो नयी है और चढ़ाई करने वाली है उसे दोनों में से ज्‍यादा खतरनाक मानते हुए लेकिन दोनों से निपटने के लि‍ए सर्वहारा राज्‍य के पक्ष में खड़ा होने की मांग आम किसानों से करते हैं। हम समझते हैं कि इस पर हम इतना लिख चुके हैं कि अब और दुहराना फिजूल की मेहनत बर्बाद करना होगा।

ये और आगे कहते हैं – 

“इसके साथ वह (पीआरसी के लेखक) यह भी जोड़ देते हैं कि मौजूदा आन्‍दोलन में लाभकारी मूल्य की मांग और समस्‍त फसल की पूर्ण ख़रीद की गारण्टी की मांग मिलकर पूंजीवादी व्यवस्था से परे जाती है। इसे ही वे लाभकारी मूल्य के “नये रूप” के तौर पर परिभाषित करते हैं। हम आगे यह दिखाएंगे कि यह उनकी मनगढ़ंत बकवास है और सच्चाई से कोसों दूर है।”

यहां वे फिर से हमारी बात समझने में असमर्थ हैं। मैंने कहा था न कि इतनी ऑरिजिनल चीज सुधारवादियो के गैर-क्रांतिकारी बनाबट वाले दिमाग के पल्‍ले नहीं पड़ेगी! हम जो बात कह रहे हैं वह आपकी समझदारी से पूरी तरह भिन्‍न है, महाशय। आप ऊपर यह लिखते हैं कि मौजूदा आन्‍दोलन में लाभकारी मूल्य की मांग और समस्‍त फसल की पूर्ण ख़रीद की गारण्टी की मांग मिलकर पूंजीवादी व्यवस्था से परे जाती है।जी नहीं, हम कह रहे हैं कि कानूनशुदा एमएसपी पुराने एमसएसपी को समस्‍त फसल की पूर्ण खरीद गारंटी की मांग बना देता है जो उसके अंतर्य को, पुराने प्रतिक्रियावादी स्‍वरूप यानी लाभकारी मूल्‍य की मांग से बिल्‍कुल ही अलग एक क्रांतिकारी मांग बनाती है या क्रांतिकारी तत्‍व को उसमें  शामिल कराती है, क्‍योंकि इस मांग की पूर्ति बुर्जुआ समाज व व्‍यवस्‍था के दायरे में हो ही नहीं सकती है और तब स्‍वाभाविक रूप से सर्वहारा राज्‍य कल्‍पना में आता है क्‍योंकि हम जानते हैं कि एकमात्र सर्वहारा राज्‍य ही है जो समस्‍त फसलों की पूर्ण खरीद गारंटी दे सकता है। इस तरह ‘लाभकारी मूल्‍य’ और समस्‍त ‘फसलों की पूर्ण खरीद गारंटी’ की मांग आपस में मिलकर नहीं एक दूसरे के साथ द्वंद्व भरे रिश्‍ते में इसे क्रांतिकारी संभावनाओं से कुछ शर्तों के साथ लैस करते हैं। एक बाहरी प्रतिक्रियावादी खोल है तो दूसरा उसका सकारात्‍मक क्रांतिकारी अंतर्य जो अवसर पाते ही उक्‍त खोल को तोड़ते हुए ऊपरी सतह पर आ सकता है जिसकी कुछ शर्तें हैं और उसके बारे में हमने हर जगह विस्‍तृत चर्चा की है। लेकिन बेचारे कॉर्पोरेट के हिमायतियों के सुधारवाद में पगे दिमाग में यह सब आए तब न!

एक बार फिर ये झूठ बोलते हैं –

“लाभकारी मूल्य की मांग मज़दूर आबादी के खिलाफ तो है ही, जो ऊंचे लाभकारी मूल्य के कारण अनाज की बढ़ती कीमतों के कारण सबसे ज़्यादा नुकसान उठाती है। इसपर ‘यथार्थ’ के लेखक महोदय मौन रहते हैं।”

क्‍या यह सच है? नहीं, बिल्‍कुल ही नहीं। ये देखि‍ए, हमने आंदोलन के विरोधाभासों की चर्चा करते हुए क्‍या लिखा है –

“इसके (आंदोलन के) समर्थन में न तो ग्रामीण और न ही शहरी मजदूर वर्ग ही दिल खोलकर खड़ा हो सकता है,क्योंकि लाभकारी एमएसपी की मांग से (पूंजीवादी संबंधों के अंतर्गत होने के कारण) मजदूरों व मेहनतकशों की आबादी को अपनी भोजन सामग्री पर ज्यादा खर्च करना पड़ेगा। इसलिए व्यापक गरीब आबादी तथा मजदूर वर्ग की ओर से कुदरती तौर पर इस आंदोलन को मिलने वाला समर्थन कमजोर पड़ सकता है। आंदोलन के ऐन संवेदनशील मोड़ पर ‘राज्‍य’ गरीबों को भरमाने के लिए इस मुद्दे का भड़काऊ उपयोग भी कर सकता है, हालांकि अगर मुनाफा (मुनाफे की व्‍यवस्‍था – जोड़ा हुआ) आड़े नहीं आये तो किसी भी सरकार के लिए एमएसपी (मुनाफे की व्‍यवस्था के खात्‍मे के बाद इसका लाभकारी स्‍वरूप भी नहीं रह जाएगा) के बावजूद गरीबों तक ही नहीं पूरी आबादी तक नि:शुल्‍क पोषणयुक्‍त आहार की सहायता व सुविधा पहुंचाना संभव है।” (पीआरसी के बुकलेट से)

आगे इसलिए ही हमनें संघर्षरत आम किसानों की ओर मुखातिब हो यह कहा है या ये कहना पड़ा है कि –

“मजदूर वर्ग की तरफ से हम इस बात को सुनिश्चित करना चाहते हैं कि किसान आंदोलन अलगाव का शिकार न हो जाए, इसीलिए हमनें जरूरत से ज्‍यादा विशद रूप से इससे जुड़े जरूरी बिंदुओं को स्‍पष्‍ट करने की कोशिश की है। लेकिन यह सत्‍य है कि इस आंदोलन को स्‍वयं अपने भीतर की द्वंद्वात्‍मक गति की शक्ति से ही आगे और तार्किक व विज्ञानसम्मत समझदारी तक पहुंचना होगा। एकमात्र तभी यह पूरे देश की मेहनतकश आबादी के साथ मिलकर कार्पोरेट के विरूद्ध अंतिम जीत दर्ज कर सकता है।”

यहां यह स्‍पष्‍टत: देखा जा सकता है कि पीआरसी किसान आंदोलन के क्रांतिकारी अंतर्य को इसके प्रतिक्रियावादी बाहरी खोल (लाभकारी मूल्‍य) से मुक्‍त करने की मांग या कोशिश कर रही है।

हमारी कोशि‍श यह है कि यह लड़ाई पूंजीवाद विरोधी रूख अख्तियार करे। इसके प्रति अपने समर्थन का आधार बताते हुए हमने लिखा है –

“हम अपनी पार्टी और मजदूर वर्ग की तरफ से आंदोलनरत किसानों तक यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि ‘बड़ी पूंजी से अस्तित्व-रक्षा की जारी किसानों की लड़ाई का मजदूर वर्ग स्वयं अपनी लड़ाई के रूप में इस आधार पर समर्थन करता है कि वे इसे अंतिम जीत तक जारी रखेंगे और यह समझेंगे कि पूंजीपति वर्ग की सत्ता को हटाए बिना और इसके मानवद्रोही खेल से पूरी तरह बाहर आये बिना न तो किसानों का और न ही समाज या मानवजाति का ही कुछ भला होने वाला है। इसलिए हम किसी भी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था के रहते हुए जीवन की बुनियादी समस्‍याओं तथा गर्दिश से उनकी मुक्ति पाने की उम्मीद का प्रसार किसानों के बीच नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि यह सरासर झूठ होगा। (बोल्‍ड इस बार)

अगर आप उपसंहार यानी अंतिम हिस्‍से को देखें, तो यह और भी स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि हमारी अवस्थिति क्‍या है। उपसंहार मुख्‍य रूप से कहता है –                            

“अंतर्य के बतौर यह पूंजीवादी तर्को तथा बाजार आधारित मेकेनिज्म, जिसके सहारे चलकर बड़ी कार्पोरेट पूंजी कृषि के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहती है, के विरूद्ध स्वत:स्फूर्त रूप से लक्षित हो चुका है। यही इसकी सबसे बड़ी खासियत है। … यह अनजाने ही सही लेकिन एक ऐसे राज्य की कल्पना से प्रेरित है जो पूंजीवादी कृषि में हुई अंतर्विरोधी प्रगति को इसके कुफल और दुष्परिणामों सहित पलट दे। ..कुल मिलाकर वह पूंजी के हितों के विरूद्ध जाने वाला राज्य चाहता है और विडंबना यह है कि ऐसी मांग की पूर्ति वह एक पूंजीवादी राज्य के रहमोकरम के सहारे चाहता है! इस आंदोलन में अंतर्निहित विरोधाभास का यह शिखर बिंदु है जो बताता है कि आगे अगर यह और तीव्र होता है तो इसका पूंजी की सार्विक सत्‍ता के विरूद्ध मुड़ना अवश्‍यंभावी है। … इसलिए आंदोलन का ‘राज्य’ से टकराव अगर और तेज होता है (जिसकी संभावना पर ही क्रांतिकारी अंतर्य की बाह्य स्वरूप पर जीत का भार टिका हुआ है) तो उस स्थिति में मजदूर वर्ग के वैज्ञानिक तरीके से किसानों के साथ आ खड़ा होते ही यह मजदूर-किसानों की संयुक्‍त मांग – पूंजीवाद के खात्मे की मांग – की तरफ मुड़ेगा, इसकी संभावना को अस्‍वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि इसकी तैयारी की जानी चाहिए। … जारी आंदोलन के ठीक बीचों-बीच इसके बाह्य स्वरूप और अंतर्य के अंतर्विरोध का इस तरह खुले में प्रकट होना इस बात का संकेत है कि इसके समाधान का समय आ गया है। मजदूर वर्ग को अपनी निगाह उचित ही यहां डालनी चाहिए और इसके अनुरूप कार्यनीति व रणनीति बनानी चाहिए। .. निकट भविष्‍य में किसानों की इससे भी असरदार और निर्णायक दौर वाली लड़ाइयां और हर बार पहले की तुलना में सर्वहारा वर्ग के ज्‍यादा से ज्‍यादा सान्निध्‍य व नेतृत्‍व में लड़ी जाने वाली हैं और लड़ी जाएंगी जिसका संकेत यह आंदोलन दे रहा है। मजदूर वर्ग और इसकी पार्टी के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह समझना है कि उसका काम इस तरह के अंतर्य वाले आंदोलनों में स्‍वयं को पूंजीपति वर्ग को हटा कर भावी शासक वर्ग बनने के लिए संघर्षरत वर्ग के बतौर पेश आना, हस्तक्षेप करना तथा इस तरह आम किसानों को मुक्ति का रास्ता दिखाना है, न कि स्वयं इनके समक्ष आर्थिक मांगें पेश करना और एक दीन-हीन याचक के रूप में खड़ा हो जाना है।”

जहां तक कॉर्पोरेट के हिमायतियों का सवाल है, वे सबको अब तक यही समझाने में लगे हुए हैं कि लाभकारी मूल्‍य क्‍या है, हालांकि इसे वे स्‍वयं कितना समझते हैं इस पर पूरा संदेह है। लेकिन इस पर अंगले अंक में। इससे जुड़ी बाकी बातों पर हम बहुत कुछ इस लेख में और इसके पहले “द ट्रुथ” में पहले ही लिख चुके हैं। और उसे फिर से यहां दुहराने का कोई फायदा नहीं है। 

चंद और आलोचनाओं का जवाब

वे इस बात का कि ‘क्या कुल उपज के ख़रीद की मांग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के सीमान्तों का अतिक्रमण करती है’, जवाब देते हुए कहते है कि

“यह तर्क कि सारी उपज की खरीद की गारण्टी “व्यवस्था के परखच्चे उड़ा” देगी कपोल कल्पना है।”

लेकिन कैसे यह कपोल कल्‍पना है, इस पर कुछ नहीं कहते हैं और यहां से पहले की तरह ही अन्‍य मुद्दे या विषय पर भाग जाते हैं। वे इसका जवाब देने के बदले यह कहने लगते है कि  

“समूची फसल की सरकारी खरीद की मांग को धनी किसान आन्‍दोलन द्वारा समूचे किसान आबादी की मांग के रूप में पेश भी नहीं किया गया है।”

इसके बाद वे हमें यह बताने लगते हैं कि

बहुत-से ऐसे कृषि उत्पाद हैं जो अलग-अलग प्राकृतिक व ऐतिहासिक रूप से निर्धारित आर्थिक कारकों के चलते मुक्त बाज़ार में काफी ऊंचे दाम पर बिकते हैं और सरकार द्वारा उसकी कीमतों के निर्धारण और साथ ही उस कीमत पर समूचे उत्पाद की ख़रीद की कोई मांग धनी किसान व कुलक वर्ग नहीं उठाता है। …” आदि आदि

फिर वे हमें यह बताने लगते हैं कि

“यह (समस्‍त फसलों की पूर्ण खरीद गारंटी की मांग) ऐसी कोई मांग भी नहीं है जिससे की पूंजीवादी व्यवस्था बेनकाब हो और अपने असम्भाव्यता की बिंदु तक पहुंच जाए।”

यहां हमें एक पल के लिए लगा कि अब तक वे जिस प्रश्‍न को पीछे छोड़ आगे बढ़ गये थे उसका जवाब देंगे। लेकिन नहीं, यह भी मृग मरीचिका ही साबित हुई।

वे तुरंत अगले ही वाक्‍य से दूसरी बात कहने लगे –

हमारे पीआरसी के लेखक महोदय को लगता है कि केवल सर्वहारा राज्य ही किसानों को समूचे उत्पाद के ख़रीद की गारण्टी दे सकता है … राजनीतिक संकट के दौरों और आपात स्थितियों में और पूंजीपति वर्ग की तानाशाही के विशिष्‍ट रूपों के पैदा होने की सूरत में पूंजीवादी राज्य भी सारी फसल खरीद सकता है …” आदि

और वे उन अपवादस्‍वरूप स्थितियों की बातें करने लगते हैं जिसमें कोई पूंजीवादी राज्‍य भी समस्‍त फसलों को खरीद सकता है। और वे हमें उसके इतिहास से कई उदाहरण देने लगते हैं। लेकिन महानुभावों, प्रश्‍न यह नहीं था जिसका जवाब देना था। विषय यह था कि : क्‍या आधुनिक समय का एकाधिकारी पूंजीवादी राज्‍य अपवादपूर्ण स्थिति‍यों को छोड़कर समस्‍त फसलों को खरीदने की गारंटी दे सकता है जबकि पूरे विश्‍व में कृषि क्षेत्र अतिउत्‍पादन के संकट से कराह रहा है? आप इस पर बोलने से बचने के लिए बेकार में इतिहास का चक्‍कर काट रहे हैं और हम जानते हैं कि इसके अलावा आप और कुछ कर भी नहीं सकते हैं।

लेकिन वे यहां भी नहीं ठहरते। अब वे यहां से कूद कर और दूसरी बातों पर पहुंच जाते हैं। वे लिखते हैं – 

“उत्पादन सम्बन्धों और राज्यसत्ता के चरित्र की जगह विनिमय सम्बन्धों पर ज़ोर देने वाली समझदारी ही इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि यदि मुक्त व्यापार मौजूद नहीं है तो पूंजीवाद ही सम्‍भव नहीं है। अस्थायी तौर पर मुक्त व्यापार को बाधित या समाप्त कर देने वाला राजकीय इजारेदार पूँजीवाद भी पूँजीवाद ही होता है। मुक्त व्यापार को स्वयं पूंजीवादी राज्य बाधित कर सकता है और इतिहास में कई दफा ऐसा हुआ भी है। पहले विश्व युद्ध के समय जर्मनी में वाइमर रिपब्लिक ने युद्ध अर्थव्यवस्था के दौरान इस नीति को लागू किया।”

इन्‍हें फिर से मानसिक दौरा पड़ने लगा। महानुभावों, ये आप किसको जवाबदे रहे हैं? हवा में मुट्ठियां किसे मार रहे हैं, प्रभु!? किस नामाकुल ने कह दिया ये सब?! ओह, अब समझ में आया। आप तो अपनी उत्‍तरपुस्तिका खोले बैठे हैं और उससे देख के बोल रहे हैं। बोलिए, बोलिए, महानुभावों, किसी तरह परीक्षा में पास होने की कोशिश करते रहिए, लेकिन हो नहीं पाइयेगा, क्‍योंकि प्रश्‍न कुछ और है और आप उत्‍तर कुछ और दिये जा रहे हैं।     

ये बेचारे इस हिस्‍से में ही नहीं, पूरे लेख में भी ऐसा ही करते दिख जाएंगे। वे खुद जिस प्रश्‍न को उठाते हैं उसका जवाब नहीं देते हैं और दर्जनों पेज यूं ही अनाप-शनाप या आंय-बांय में खर्च कर देते हैं।

अब ये एक और नयी बात लेकर आये हैं और कहते हैं –  

“एक कम्युनिस्ट केवल उस राजकीय संरक्षण का समर्थन करता है जिसका कुछ भी लाभ मज़दूर वर्ग और आम ग़रीब मेहनतकश आबादी को मिलता हो और उस राजकीय संरक्षण का विरोध करता है जो पूँजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से को मिलता है। यह राजकीय संरक्षण व कल्याणवाद के प्रति कम्युनिस्टों का आम रणकौशल है कि वह आम मेहनतकश ग़रीब आबादी को लाभ देने वाले संरक्षण का बाशर्त समर्थन करते हुए और उसके लिए लड़ते हुए यह प्रचार करता है कि इससे भी केवल कुछ तात्कालिक राहत मिलेगी और वह भी पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा अन्य रास्तों से जल्द ही छीन ली जाएगी और दूरगामी लड़ाई समूची पूंजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे और समाजवादी व्यवस्था के निर्माण की है।

साथ ही, कम्युनिस्ट हर उस राजकीय संरक्षण का विरोध करते हैं, जो कि पूंजीपति वर्ग के किसी भी हिस्से के लिए दिया जाता है। चाहे वह कारपोरेट घरानों को मिलने वाले टैक्स हॉलीडे, रियायती बिजली, पानी और ज़मीन हो या फिर धनी किसानों व कुलकों को मिलने वाला लाभकारी मूल्य। यदि पूंजीपति वर्ग के दो धड़े किसी राजकीय संरक्षण को लेकर आपस में भिड़ जाएं, तो उसमें ”राजनीतिक रूप से सोचने” के नाम पर छोटे वाले का समर्थन करने का तर्क और कुछ नहीं बल्कि वर्ग सहयोगवाद, पुछल्लावाद और आत्मसमर्पणवाद है।

ये बातें सही या गलत कुछ भी हो सकती हैं। लेकिन महानुभावों, ये तो हमारा विषय नहीं है आपके साथ हमारी बहस का। क्‍यों इतने पन्‍ने रंग रहे हैं? ओह! ये तो रेडीमेड उत्‍तरपुस्तिका वाला मामला है, है न?!

लेकिन इस बार वे सचमुच में प्रश्‍न के अनुसार विषय चुनकर बोलना शुरू किये हैं, देखते हैं कितनी देर टिकते हैं। वे लिखते हैं –

“किसान आन्‍दोलन की सारवस्तु क्या है और यह कैसे तय होगी? … इस आन्‍दोलन में क्या गरीब किसानों की और खेतिहर मज़दूरों की मांगें शामिल हैं? नहीं। फिर इस आन्‍दोलन का अन्तर्य क्रान्तिकारी कैसे है?”

बहुत खूब! इस किसान आंदोलन में गरीब किसानों की मांग शामिल ही नहीं है! कृषि कानूनों की खिलाफत में क्‍या उनकी मांगें शामिल नहीं हैं? ओह, समझा। अगर पाठकों को याद होगा तो ये तो मानते हैं कि कॉर्पोरेट और कॉर्पोरेट पक्षीय कृषि‍ कानून गरीब किसानों के मददगार हैं।

साथियों, जाहिर है यहां से आगे इनसे बहस करना मुश्किल है, क्‍योंकि एक बार फिर से हमें उन्‍हीं तर्कों और बातों को दुहराना होगा जिसे हम दर्जनों बार कह और रख चुके हैं। इस तरह, इनके साथ बहस में हम एक डेड एंड या डेडलॉक की स्थिति आपने आप पहुंच जाती है। लेकिन हम इससे यह साबित नहीं करना चाह रहे हैं कि इनके बहस बेकार है। हम बस वस्‍तुस्थिति रख रहे हैं जो इस बात का प्रमाण है कि कॉर्पोरेट के हिमायतियों के साथ इस विषय पर बहस करने में हम किसी निष्‍कर्ष पर पहुंचेंगे इसकी संभावना कम है। हालांकि हमें पता है आंदोलन को इस बहस से इससे फायदा ही हुआ है। और इस एक अर्थ में यह बेकार के काम में अपना सर खपाना नहीं है और इसलिए हम आगे भी इनकी आलोचनाओं का जवाब देने का इनको वचन देते हैं, चाहे इसका अर्थ उन सभी पुरानी बातों का दुहराव भी क्‍यों न हो जिन्‍हें हम पहले भी कई बार रख चुके हैं। तो कुल मिलाकर यही हाल है हमारे महान ‘मार्क्‍सवादी चिंतक’ और उनकी पूरी मंडली का! पूरे लेख में इनके द्वारा इसी तरह का अनाप-शनाप लिखा हुआ है और अमूमन पूर्ण दुहराव है और कुछ बातों को छोड़कर सभी बातों का हमलोगों ने जवाब भी दे दिया है। अंत में, हम अपने सभी पाठकों से यह विनम्र निवेदन करना चाहते हैं कि “द ट्रुथ” तथा “यथार्थ” में इस विषय पर छपे सारे लेख और खासकर “What The New Apologists Of Corporates Are…” की दूसरी किश्‍त (द ट्रुथ, अंक 12) तथा इसके दोनों परिशि‍ष्‍ट भागों को अवश्‍य पढ़ें।


[अनुलेख] किसान आंदोलन : एमएसपी से खरीद गारंटी तक

एम. असीम

वैज्ञानिक पद्धति का तकाजा है कि सिद्धांत कितना भी तर्कपूर्ण, सुगढ़ व शानदार क्यों न हो अगर वह परीक्षण-निरीक्षण से प्राप्त तथ्यों से टकराने लगे तो सिद्धांत को संशोधित-संवर्द्धित करना पड़ता है। यही पद्धति हमें मौजूदा किसान आंदोलन के बारे में अपनानी होगी। तभी हम यह समझ पायेंगे अपने मूल और बाह्यरूप में कुलक या धनी किसानों का आंदोलन होते हुये भी इसे छोटे-सीमांत किसानों सहित व्यापक किसान आबादी ही नहीं कुछ हद तक अन्य मेहनतकशों का समर्थन और हमदर्दी भी क्यों व कैसे हासिल हो गई है। 

जैसा नाम से ही स्पष्ट है एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य बाजार में दाम कम होने की स्थिति में दिये जाने वाले न्यूनतम सहारे के तौर पर शुरू किया गया था अर्थात उस वक्त उम्मीद यह की जाती थी कि बाजार में दाम अक्सर इससे ऊपर ही होंगे लेकिन किसी वर्ष आपूर्ति ज्यादा बढ़ जाने से अगर दाम अधिक गिर जायें तो उस स्थिति में एमएसपी किसानों के लिए एक तरह की आपात बीमा पॉलिसी होगी  ताकि तब वे कम से कम इतने दामों पर सरकार को बेचकर भारी हानि से बच सकें और कम दाम मिलने से गेहूँ, आदि अनाजों की खेती से हतोत्साहित न हों। यह कभी पूरी उपज की सरकारी खरीद की गारंटी नहीं थी और सरकारी खरीद की योजना सार्वजनिक वितरण प्रणाली और बाद में बनाये गए बफर स्टॉक की जरूरतों पर आधारित थी। यही एमएसपी का शुरुआती इतिहास है।

विषय की उपयुक्त समझ के लिये हमें कृषि उत्पादों के सरकार निर्धारित दामों और किसान आंदोलनों की माँगों के क्रमविकास को जानना बेहतर होगा। आजादी-पूर्व दौर में तो खाद्य फसलों का उत्पादन आवश्यकता एवं माँग से कम ही रहता था और व्यापारी अक्सर जमाखोरी कर दामों को बेहद ऊँचा कर देते थे, अतः ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत ने 1930 तथा 40 के दशकों में उच्चतम दाम सीमा लागू की थी ताकि खाद्य उत्पादों में मुनाफाखोरी को रोका जा सके। इसलिए 1942-43 में उस वक्त के पंजाब के प्रमुख किसान नेता सर छोटूराम के नेतृत्व में किसानों ने आंदोलन कर गेहूँ की उच्चतम दाम सीमा को 5 रु प्रति मन (लगभग 40 किलोग्राम) से बढ़वाकर 10 रु प्रति मन करवाया था।

1960-70 के दशकों में कृषि उत्पादन बढ़ा पर उस वक्त भी कृषि उत्पादन उपभोग की तुलना में कम ही था अतः बाजार दामों में काफी उतार-चढ़ाव आम बात थी और ये अक्सर एमएसपी से अधिक चले जाते थे – फसल कटाई के वक्त गिर भी जायें तो कुछ महीने बाद तो बढ़ते ही थे। अतः धनी-मध्यम किसान उस वक्त खुद ही एमएसपी पर सरकारी खरीद को पसंद नहीं कर अपना उत्पाद खुले बाजार में बेचना बेहतर समझते थे। गिरे दामों वाले मजबूरी के साल अपवाद होते थे जब एमएसपी उनके लिये बीमा पॉलिसी का काम करती थी। 1970 के दशक में ही 20-25 कुंतल अनाज भंडारण की क्षमता वाली धातु की टंकियाँ बनाने का व्यवसाय शुरू हुआ और अधिकांश धनी-मध्यम किसानों के घरों में ऐसी कई-कई टंकियाँ पहुँच गईं ताकि वे फसल के वक्त अपना और नकदी की जरूरत वाले गरीब किसानों से सस्ते दाम खरीदा 10-20 टन तक अनाज भंडार कर उसे फसल के कुछ महीने बाद ऊँचे दामों पर बेच सकें  (हालांकि इसके साथ ही सेल्फोस या सल्फास  की वो गोलियां भी घर-घर पहुंची जो बाद में खेतिहर परिवारों में खुदकुशी का सबसे बडा तरीका बन गईं)। सरकारी खरीद में अपना अनाज बेचने के लिए उस वक्त किसान इतने अनिच्छुक थे कि 1970 के दशक में रकबे के हिसाब से किसानों पर सरकार को अनिवार्य बिक्री के लिये लेवी तक लगानी पड़ी थी कि उन्हें कम से कम इतना अनाज सरकार को बेचना ही होगा ताकि उस वक्त की सीमित ही सही सार्वजनिक वितरण प्रणाली चल सके और सरकार बफर स्टॉक बना सके। कई बार इसके लिए पुलिस के साथ छापे तक डालने पड़ते थे क्योंकि कई किसान अपना अनाज छिपाने तक की कोशिश करते थे। परंतु छोटे व गरीब, नकदी की जरूरत वाले गरज बेचा किसानों को यह मौका नहीं था। वे तो अपना अनाज एमएसपी पर बेचने के लिए सरकारी खरीद केन्द्रों पर ले जा ही नहीं पाते थे। उन्हें अपनी उपज में से जो थोड़ा बहुत बेचने लायक सरप्लस या कहें नकदी के लिए बेचने की विवशता होता था, उन्हें वह गाँव में ही किसी व्यापारी या व्यापारी-किसान को सस्ते दामों पर बेचना पड़ता था। इसीलिए पुराने सभी आंकड़े बताते थे कि एमएसपी का लाभ मात्र 6%  किसानों तक पहुंच पाता था – बड़े किसान इसे सिर्फ बाजार संकट में उपयोगी पाते थे और छोटे किसान इसका लाभ लेने में असमर्थ थे। हम यहाँ विस्तार में नहीं जायेंगे लेकिन गन्ना मूल्य पर भी प उत्तर प्रदेश के बडे किसान आंदोलन इसी नीति पर चलते थे – अगर कोल्हू क्रशर के खुले बाजार में दाम ज्यादा हों तो वहाँ बेचने की आजादी और वहाँ दाम गिर जायें तो सरकार निर्धारित मूल्य पर चीनी मिलों द्वारा अधिक खरीदी का दबाव।

यह विवरण इसलिए कि उस वक्त (अर्थात आरंभ में) धनी-मध्यम किसान आबादी पूंजीवादी बाजार व्यवस्था को अपने हितों के विरुद्ध नहीं पाती थी बल्कि उसके उतार चढाव में वह अपना लाभ ही देखती थी और उसकी ओर आकर्षित होती थी। यही 1970 से 1995 के दौर के पुराने किसान आंदोलनों में अभिव्यक्त होता था। उस दौर के सबसे बड़े किसान नेताओं – चौधरी चरण सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत, शरद जोशी और नंजुंदास्वामी के भाषणों, लेखों और वक्तव्यों के तर्कों में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। उस दौरान उनका मुख्य तर्क था कि सभी माल विक्रेताओं की तरह किसानों को अपनी मनचाही जगह और मनचाहे दाम पर अपना माल बेचने की आजादी क्यों नहीं है? अन्य सभी माल विक्रेता कहीं भी अपना माल बेच सकते हैं और वे खुद अपने माल के दाम तय करते हैं लेकिन किसान के माल के दाम मंडी का व्यापारी-आढ़तिया तय करता है या सरकार तथा किसान को इन्हीं खरीदारों द्वारा तय किए दामों पर अपना माल बेचना पड़ता है। (हालांकि यह तर्क पूरी तरह सही नहीं है क्योंकि अंततः सभी बाजार मालों के दाम माँग-आपूर्ति से परिचालित होते हैं।) इसलिये वे पुरजोर ढंग से माँग करते थे कि अन्य सभी उत्पादकों-विक्रेताओं की तरह किसानों को भी जब वे चाहें, जहाँ जिसे चाहें, जिस दाम पर चाहें, अपना उत्पाद बेचने की आजादी होनी चाहिये। संक्षेप में कहें तो उस दौर में धनी किसानों के आंदोलन मूलतः कृषि उत्पादों के मुक्त व्यापार के हिमायती थे बशर्ते सरकार किसी साल दाम गिर जाने की स्थिति के लिये एमएसपी के रूप में उन्हें एक संकटमोचक बीमा पॉलिसी भी दे। इसकी वजह थी कि धनी किसान उस समय खुद को कृषि उत्पादों के व्यापार का प्रमुख खिलाड़ी मानकर इसमें खुद के प्रभावी बन जाने के प्रति पूर्णतया आश्वस्त थे।

पर यहाँ सवाल उठना लाजिम है कि मोदी सरकार अपने तीन नवीन कृषि कानूनों के जरिये किसानों को मुक्त व्यापार की ठीक यही आजादी देने का दावा ही तो कर रही है। तब आज किसान इसके खिलाफ क्यों उठ खड़े हुए हैं? तब वे इसे किसान हितों पर कॉर्पोरेट पूँजी का हमला और उनकी जमीन छीनने की साजिश बताते हुए ठीक दिल्ली की सरहदों पर क्यों जा बैठे हैं? आखिर पिछले 3 दशकों में ऐसा क्या घटा है कि इन किसान आंदोलनों ने मुक्त व्यापार के खिलाफ झण्डा उठा लिया है?

असल में पिछले तीन दशक में पूँजीवादी बाजार अपनी कुदरती गति से आगे बढा है और खास तौर पर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तीन दशक तक चलने के बाद मुक्त व्यापार और खुले बाजार का हिमायती रहा धनी-मध्यम किसानों का बडा हिस्सा पाता है कि वे खुद को पूँजीवादी बाजार के जिस तालाब की बडी मछली समझ छोटी मछलियों को हजम करने का सपना देख रहे थे वह तो राष्ट्रीय पूँजीवादी बाजार की झील से होते हुए अंतरराष्ट्रीय पूँजीवादी बाजार के महासागर में जा समाया है और इस में कॉर्पोरेट पूँजी रूपी बडे-बडे मगरमच्छ और शार्क हैं जिनके सामने उनकी खुद की हैसियत शिकारी नहीं शिकार की है और बाजार के उतार चढाव सिर्फ गरीब किसानों को नहीं उनको भी बरबाद और दिवालिया कर सकते हैं। अतः अब वे पूँजीवादी बाजार की इस कुदरती अग्रगति को रोक-पलट कर सरकार द्वारा निर्धारित ‘लाभकारी’ मूल्य पर सारी उपज की खरीद की गारंटी माँग रहे हैं। 

पिछले तीन दशकों में कृषि में भी पूँजीवादी उत्पादन के विकास क्रम में अन्य सभी पूंजीवादी उद्योगों की तर्ज पर ही ‘अति’उत्पादन की समस्या खडी हो गई है – समाज की आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं बल्कि बाजार की माँग से अधिक उत्पादन! विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट कहती है कि भारत की 75% से अधिक जनता संतुलित एवं पर्याप्त खाद्य सामग्री खरीदने में सक्षम नहीं है और जरूरत से कम खाकर काम चला रही है। अतः एक ओर भारत की जनता बडे पैमाने पर भूख व कुपोषण-अपोषण की शिकार है। वहीं दूसरी ओर खाद्य उत्पादन बाजार की माँग से अधिक हो गया है और सरकारी भंडार में लगभग आठ करोड़ टन अनाज भंडार इकट्ठा हो गया है। बाजार में माँग से अधिक आपूर्ति के कारण किसानों के उत्पाद के दाम अब कम ही ऊपर जाते हैं और अक्सर एमएसपी से काफी नीचे बने रहते हैं, हालांकि ग्रामीण एवं शहरी उपभोक्ताओं के लिए उनके दाम फिर भी बहुत ऊँचे बने रहते हैं। पर अभी हम उस चर्चा में नहीं जायेंगे। यही वजह है कि एमएसपी आधारित सरकारी खरीद के प्रति किसानों का आकर्षण पिछले सालों में बढा है और पंजाब हरियाणा प उत्तर प्रदेश ही नहीं, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे राज्यों में भी एमएसपी पर अनाज खरीद के लिए सरकारों पर दबाव बढा है और खरीद केंद्रों पर लंबी लाइनों की खबरें मीडिया में आती रही हैं। यही वजह है कि हाल के वर्षों में रीतिका खेडा आदि कई शोधकर्ताओं ने पाया है कि फिलहाल एमएसपी का लाभ लेने वाले किसान 6% से बढकर 18 से 22% के बीच होने के अनुमान हैं। उपरोक्त प्रवृत्ति ही किसान आंदोलन में मुक्त व्यापार के विरोध और ‘लाभकारी’ एमएसपी पर समस्त उपज की खरीद की गारंटी में परिलक्षित हो रही है।

इसका एक प्रभाव यह भी हुआ है कि छोटे सीमांत किसान जो अब तक एमएसपी का लाभ नहीं ले पाते थे वे भी इस माँग से आकर्षित हो रहे हैं। एक तो पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में किसी भी माल उत्पादक को, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों हो, उसके उत्पाद के उच्च बाजार दाम मिलने की संभावना स्वाभाविक तौर पर ललचाती ही है, चाहे उसे अंतिम तौर पर उससे बहुत कम लाभ ही क्यों न प्राप्त हो (बिकाऊ अतिरिक्त उत्पाद की मात्रा बहुत कम होने की वजह से)। दूसरे, अभी छोटे सीमांत किसान भी कम उत्पादन के बावजूद बाजार में बिक्री के लिए आ रहे हैं चाहे उनका उत्पाद बहुत कम कई बार खुद के उपभोग से भी कम क्यों न हो। अकबर इलाहाबादी जैसे शायर बेशक कह सकते हैं कि बाजार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ, पर असली जीवन में ऐसा मुमकिन नहीं क्योंकि मौजूदा वक्त में जीवन की कई न्यूनतम जरूरतों के लिए बाजार में खरीदार के तौर पर जाना ही पडता है। पर किसी व्यक्ति को खरीदार बनना हो तो पहले उसे विक्रेता बनना विवशता है। इसीलिये अपने उपभोग से कम उत्पादन करने वाले भी उस वक्त उसमें से एक हिस्सा बेच कुछ रूपया जुटाने के लिए उसे बेच रहे हैं हालांकि बाद में वे मजदूरी कर वही उत्पाद बाजार से खरीदते के लिये विवश होते हैं। भैंस पालकों के बच्चे खुद दूध नहीं पीते क्योंकि दूध का बड़ा हिस्सा बाजार में बेच कुछ रूपया जुटाना उनकी विवशता है। ऐसे उदाहरण गाँवों में खूब मिल जायेंगे। अतः छोटे से छोटे किसान भी बाजार में माल विक्रेता हैं और लाभ न होने पर भी दाम की ओर आकर्षण उनकी सहज प्रवृत्ति है। देहात की अर्ध-सर्वहारा आबादी के लिए इस आंदोलन के आकर्षण का एक ओर कारण पिछले सालों में बढता बेरोजगारी का विकराल संकट है। अपनी छोटी खेती को छोड उद्योगों में मजदूरी की नौकरी से जीविका चलाने के विकल्प आजमाने के मौकों को भी नोटबंदी से लेकर अभी की कोविड तालाबंदी ने काफी हद तक बंद कर दिया है। इससे दोहरे संकट की चपेट में आई यह ग्रामीण गरीब किसान आबादी खेती की उपज के ‘लाभकारी’ दामों की गारंटी की माँग से आकर्षित हो रही है। 

उपरोक्त कारणों से ही इस आंदोलन को, जो धनी किसानों के नेतृत्व में ही शुरू हुआ है, व्यापक किसान आबादी की हमदर्दी व हिमायत हासिल हो सकी है और यह इतना शक्तिशाली बन पाया है। पर इसने खुद इसके नेतृत्व के समक्ष भी कठिन समस्या खडी कर दी है क्योंकि अब उनके लिए निश्चित दाम पर खरीद की गारंटी की माँग से पीछे हटना मुश्किल हो गया है। कई नेता इस पर समझौते की बात कहने भर से आंदोलन की आम किसान पाँतों के गुस्से का स्वाद झेल चुके हैं। अतः जो इस आंदोलन की शक्ति का आधार है वही इस आंदोलन का सबसे बड़ा अंतर्विरोध भी बन गया है।

यह भी समझना जरूरी है कि नये कानून सभी किसानों के लिए हानिकारक नहीं हैं। धनी किसानों की एक उच्चतम परत कोल्हू, क्रशर, तेल-धान मिल, आदि एग्रोप्रोसेसिंग इंडस्ट्री से होते हुए खाद-बीज वितरक, पेट्रोल डीजल पंप, ईंट भट्ठों, ट्रैक्टर-बाइक डीलर, आदि ही नहीं आढतिया, चीनी मिलों से लेकर कोऑपरेटिव सोसायटी-बैंक का संचालक अर्थात छोटा मोटा पूँजीपति बन बैठी है और उसके हित पूरी तरह कॉर्पोरेट पूँजी के साथ जुड गये हैं। नई बन रही फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियों का नियंत्रण-संचालन भी इसी परत के हाथों में है। यह तबका आंदोलन को समस्त उत्पाद की खरीद गारंटी पर टिके रहने में दिलचस्पी नहीं रख सकता क्योंकि कृषि उत्पाद इसके लिए कच्चा माल हैं और उनके दाम कम होना इसकी अपनी जरूरत भी है। इसे सिर्फ बडी पूँजी के सामने कुछ सुरक्षा की जरूरत है जिसे मानने का प्रस्ताव सरकार पहले ही दे रही है। अतः उनका इस आंदोलन से किसी वक्त टूटना अवश्यंभावी है पर आम किसानों में घोर भ्रम की स्थिति पैदा करने की कोशिश के बाद।

अगर हम निश्चित दाम पर समस्त कृषि उपज की सरकारी खरीद की गारंटी की माँग का विश्लेषण करें तो तार्किक रूप से यह दूसरे सिरे पर निश्चित दाम पर समस्त खाद्य पदार्थों के सार्वजनिक वितरण तक भी लेकर जाती है। परंतु पूँजीवादी व्यवस्था का तो आधार ही बाजार और व्यापार है जबकि यह माँग कृषि उत्पादों के समस्त निजी व्यापार का निषेध करती है। चुनांचे पूँजीवादी राज्य इस माँग को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। दूसरे पहलू से देखें तो यह कॉंट्रेक्ट फार्मिंग का नहीं निजी पूँजी के साथ कॉंट्रेक्ट का विरोध करते हुए सीधे राज्य द्वारा किसानों के साथ कॉंट्रेक्ट फार्मिंग करने की माँग है। परंतु क्या कोई पूँजीवादी राज्य ऐसा कर सकता है? 

निश्चित दामों पर कृषि उत्पादों की खरीद की गारंटी अर्थात राज्य और किसानों के मध्य कॉंट्रेक्ट फार्मिंग सिर्फ समाजवादी व्यवस्था वाले समाज में ही मुमकिन है। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नियोजित समाजवादी व्यवस्था वाला मजदूर वर्ग का राज्य ही किसानों के साथ यह कॉंट्रेक्ट कर सकता है कि वह उन्हें समस्त इनपुट और यंत्र, आदि उपलब्ध कराये और निश्चित दामों पर उनका उत्पाद गैरखेतिहर आबादी की खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खरीद ले। सोवियत संघ, चीन जैसे समाजवादी देशों में सामूहिक कृषि इसी कॉंट्रेक्ट पर आधारित थी। इस तरह हम पाते हैं कि बाजार के उतार चढाव से पीडित किसान बिना स्पष्ट वैचारिक समझ के भी अपने व्यवहारिक अनुभव से पूँजीवादी व्यवस्था की हदों को पार करने वाली एक माँग पर जा पहुंचे हैं, हालांकि इस आंदोलन के नेतृत्व का बडा हिस्सा इस माँग से हर हालत में पीछा छुडाने की ही हरचंद कोशिश करेगा।

इस स्थिति में अगर मजदूर वर्ग सचेत और अपनी वर्गीय अगुआ दस्ता राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में संगठित होता तो क्या करता? क्या मजदूर वर्ग की पार्टी किसानों से कहती कि पहले आप पूँजीवादी व्यवस्था की अनिवार्य गति से सर्वहारा बन जाओ, तब हम आपको लेकर इंकलाब करेंगे? 1917 में जब रूसी किसान जमीन और शांति की माँगों पर जारशाही और बुर्जुआ सत्ता के खिलाफ उठ खड़े हुए थे तो लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने क्या किया था? उसने आगे बढ़ किसानों को कहा था कि उनकी माँग सिर्फ मजदूर वर्ग की राजसत्ता पूरा कर सकती है। आज भी किसानों की अधिसंख्या की माँग पूँजीवादी राजसत्ता नहीं मजदूर वर्ग की समाजवादी राजसत्ता ही पूरा कर सकती है। इतिहास के सबसे अगुआ वर्ग के रूप में किसानों के प्रति सर्वहारा वर्ग का आज का ऐतिहासिक कार्यभार भी यही है।

अक्तूबर क्रांति व लेनिन के नेतृत्व पर चंद बातें

बहुत संक्षेप में।

जहाँ तक क्रांति क्रियान्वित करने का सवाल है तो वह तेज एवं नुकीले मोड़ों से भरी ऐसी कला और विज्ञान का काम है जिसमें जनता को अपनी ओर जीत पाने के मकसद से अत्यंत लचीलेपन का शानदार मुजाहिरा करना जरूरी होता है ताकि बिना अपने कदमों को उनकी सही जगह से इधर-उधर उखाड़े-खिसकाये समाज में पैदा होती न्यून से न्यून संभावनाओं का भी प्रयोग इस मकसद हेतु किया जा सके। इस दृष्टि से सम्पूर्ण इतिहास में हमने जितनी क्रांतियों के बारे में जाना-पढ़ा है उनमें अक्तूबर क्रांति इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। लेनिन, एवं उनके नेतृत्व में बोल्शेविकों ने दर्शाया कि एक ओर जहाँ उनकी नजर निरंतर अपने लक्ष्य पर ही बँधी रही, वहीं उन्होने इस हेतु हर मुमकिन मार्ग और राह का प्रयोग किया, हर द्वंद्व को इस्तेमाल किया और हर मोड़-औ-खम को सर्वहारा के हित में उपयोग करते हुये यह सुनिश्चित किया कि ये सभी राहें और मोड़ एक ऐसे बिन्दु पर जा मिलें ताकि इनके योग एवं संगम से वे अनुकूल स्थितियाँ आकार ले सकें जो उन्हें स्थितियों पर नियंत्रण रखते हुये कम से कम वक्त में बिना किसी देर व दिक्कत के लक्ष्य पर पहुँचने में सहायक बनें।

लेनिन लिखते हैं:

“पूंजीवाद पूंजीवाद न रहे यदि शुद्ध सर्वहारा वर्ग चारों ओर से सर्वहारा वर्ग तथा (आंशिक रूप से अपनी श्रम-शक्ति बेचकर जीविका कमाने वाले) अर्ध-सर्वहारा के बीच की तमाम क़िस्मों से, अर्ध-सर्वहारा तथा छोटे किसानों (तथा छोटे दस्तकारों, कारीगरों एवं आम छोटे मालिकों) के बीच के लोगों से, छोटे किसानों तथा मध्यम किसानों के बीच के लोगों से, और अन्य विभिन्न प्रकार के चित्र-विचित्र के लोगों से घिरा न रहे; और यदि मजदूर वर्ग खुद अधिक विकसित एवं कम विकसित परतों में न बंटा हो, यदि मजदूर वर्ग क्षेत्र, व्यवसाय, और कभी-कभी धर्म वगैरह के आधार पर भी बंटा न हो। इस सब बात से ही यह निष्कर्ष निकलता है कि सर्वहारा वर्ग के अगुआ दस्ते कम्युनिस्ट पार्टी के लिये, इसके वर्ग-सजग भाग के लिये, यह आवश्यक एवं अति-आवश्यक है कि वह अपनी नीति में होशियारी भरा लचीलापन रखे तथा मजदूरों के विभिन्न समूहों के साथ, मजदूरों एवं छोटे मालिकों के विभिन्न दलों के साथ सुलह समझौते करे। असली बात यह सीखने की है कि इस युद्धकौशल का प्रयोग इस तरह किया जाये कि यह सर्वहारा की वर्ग चेतना, क्रांतिकारी भावना एवं लड़ने और जीतने की सामर्थ्य के सामान्य स्तर को गिराने के बजाय और ऊपर उठाये। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि मेंशेविकों पर फतह पाने के लिये बोल्शेविकों के लिये यह जरुरी था कि वे 1917 की अक्तूबर क्रांति के पहले ही नहीं बाद में भी दांव-पेंच, पैंतरेबाजी एवं सुलह-समझौते की इस कार्यनीति को प्रयोग कर सकें; पर निश्चय ही यह दांव-पेंच, पंतरेबाजी और सुलह समझौते ऐसे होते थे जो मेंशेविकों को कमजोर करें और बोल्शेविकों को मदद करें, उनकी ताकत बढ़ाएँ तथा उन्हें मजबूत कर सकें। निम्नपूंजीवादी जनवादी (जिनमें मेंशेविक भी हैं) अवश्यंभावी रूप से पूंजीपति और मजदूर वर्ग के बीच, पूंजीवादी जनतंत्र और सोवियत व्यवस्था के बीच, सुधारवाद और क्रांतिकारिता के बीच, मजदूरों से प्रेम और सर्वहारा अधिनायकत्व से भय के बीच, ढुलमुल बने रहते हैं। कम्युनिस्टों के लिये उपयुक्त कार्यनीति यही होगी कि वे इस ढुलमुलपन को अनदेखा न कर इसका इस्तेमाल करें; इसका इस्तेमाल कर पाने के लिये जरूरी है कि जो तत्व मजदूर वर्ग की ओर मुड़ रहे हैं उन्हें – जब और जिस हद तक भी वे मजदूर वर्ग की ओर मुड़ें – रियायतें दी जायें, और जो पूंजीपति वर्ग की ओर मुड़ रहे हैं उनसे लड़ा जाये। इसी सही कार्यनीति का परिणाम है कि हमारे देश में मेंशेविज्म छिन्न-भिन्न हो गया तथा अधिकाधिक होता जा रहा है; कट्टर अवसरवादी नेता अकेले पड़ते जा रहे हैं, और निम्न-पूंजीवादी जनवादियों के सर्वोत्तम कार्यकर्ता और सर्वोत्तम तत्व हमारे पक्ष की ओर आ रहे हैं। यह लंबी प्रक्रिया है, और जल्दबाज़ी करने से – “समझौते नहीं चाहिये, दांव-पेंच नहीं चाहिए” – वाली नीति पर चलने से क्रांतिकारी सर्वहारा के असर को मजबूत करने और उसकी शक्तियों के विस्तार के काम को नुकसान ही पहुँचेगा।” (p.74-75, Volume 31 LCW – अनुवाद हमारा)

लेनिन वस्तुओं और उनके गतिपथ की दिशा की अग्रिम समझ की क्षमता वाले सच्चे नेता थे। चुनांचे उन्होने खुद को ऐसा अजेय नेता सिद्ध किया जो क्रांति की किसी एक राह के बाधित या बंद हो जाने पर हमेशा एक नई राह गढ़ सकते थे और अपने सामने आने वाले किसी भी अवसर को गँवाते नहीं थे। उन्होने वह सब कहा और किया जो उस वक्त किसी और की कल्पना में भी नहीं था। उन्होने कभी भी इतिहास को खुद पर मृत वस्तुओं की तरह हावी नहीं होने दिया। उनके लिये इतिहास रोशनी के जीवंत स्रोत की तरह था एवं अन्य सब कुछ द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की नजर से ठोस स्थिति के ठोस विश्लेषण पर निर्भर था। लेनिन इसलिए सर्वोत्कृष्ट थे कि पेड़ गिनने के फेर में उन्होने कभी भी जंगल को नजरंदाज नहीं किया।

चीजों को समझने और उनके भावी गतिपथ को अग्रिम देख पाने की उनकी सर्वोत्तम क्षमता ही उन्हें कल्पना और स्वप्न की वह शक्ति प्रदान करती थी जो उनके समय में और कोई नहीं कर सकता था। यही वजह है कि बारहा उनके नजदीकी साथी (स्टालिन सहित) भी नहीं समझ पाते थे कि लेनिन क्या कह रहे हैं, किधर जा रहे हैं। 1903 में भूमि राष्ट्रीयकरण पर बहस में यही हुआ जब स्टालिन एवं अन्य अधिकांश साथियों ने इसके खिलाफ और भूमि पट्टों के पुनर्वितरण के पक्ष में मत दिया। अप्रैल थीसिज के मामले में भी कुछ हद तक यही हुआ जब उनके बहुतेरे घनिष्ठ साथी भी शुरू में इसे नहीं समझ पाये और कुछ अरसे बाद ही इसकी हिमायत में आये। ऐसे बहुतेरे दृष्टांत हैं। इसी अर्थ में वे बोल्शेविकों के लिये एक प्रकाशस्तंभ थे और इसी तरह उनका प्राधिकार (authority) विकसित हुआ। वे परिघटनाओं को उनकी उत्पत्ति की अवस्था में ही समझ जाते थे और उनको आवर्धित कर उनके लिये भी दृष्टिगोचर बना देते थे जो उस वक्त उन्हें समझ पाने में असमर्थ होते थे।

हम लेनिन को वह कहते देखते हैं जो दूसरे कहने की हिम्मत तो दूर कल्पना तक नहीं कर सकते थे। जब अन्य सब स्वाभाविक रूप से क्रांति से सीखने की बातें कर रहे थे, लेनिन ने सामाजिक जनवाद की दो कार्यनीतियाँ में मजदूरों और अपने साथियों से क्रांति को ही अपने कार्यों से शिक्षा देने का आह्वान किया। उनका मतलब था कि रूसी समाज उस वक्त जिस बुर्जुआ जनवादी क्रांति के चरण में था उस पर मजदूर वर्ग अपनी छाप अंकित कर दे और उसे मजदूरों-किसानों के हित में ऐसा मोड़ दे ताकि इस क्रांति को तुरंत अगली अर्थात समाजवादी क्रांति के चरण में प्रवेश कराया जा सके।

इसी प्रकार जब यह सिद्ध करने के लिये कि बोल्शेविकों को क्यों सत्ता हाथ में नहीं लेनी चाहिए, रूसी मजदूर वर्ग और किसानों के पिछड़े सांस्कृतिक स्तर का मुद्दा उठाया गया तो लेनिन ने अनूठी बात कही। उन्होने प्रति-प्रश्न उठाया कि जब मजदूर वर्ग के लिये सत्ता पाना मुमकिन है तो वह पहले सत्ता लेकर फिर सांस्कृतिक क्रांति क्यों न करे?

जब बहुतों ने यह तर्क दिया कि कमजोर रूसी पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी विकास के निम्न स्तर की वजह से बोल्शेविक समाजवादी निर्माण नहीं कर सकेंगे, तो लेनिन ने उसे पलटकर अक्तूबर क्रांति की कामयाबी के लिये एक मजबूत तर्क बना दिया – कमजोर पूंजीपति वर्ग उन वजहों में से एक है जिससे बोल्शेविक इतनी आसानी से सत्ता हासिल कर सकते हैं।

जब किसानों की छोटी, बिखरी ज़मीनों और नतीजन छोटे स्तर के उत्पादन को इसकी वजह बताया गया कि क्यों रूस में समाजवाद का निर्माण तब तक नहीं हो सकता जब तक कि अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग उसकी मदद न करे तब लेनिन ने कहा कि जो तबके किसानो के सामूहिकीकरण का अभियान शुरू करने पर शत्रु बनने की सर्वाधिक संभावना है उन्हें फौरी तौर पर रियायतों से ‘शांत’ कर व्यापक किसान समुदाय को मजदूर वर्ग का सहयोगी बनाना मुमकिन है।


[1] ये सारे उद्धरण हमने पहले ही फुटनोट में दिये थे, लेकिन फिर भी ये कहते हैं कि हमने उद्धरण नहीं दिये। क्‍या वे इनकार करते हैं कि ये बातें उन्‍होंने नहीं लिखी हैं? 

[2] हम पाठकों से यहां ‘द ट्रुथ’ के अंतिम अंक (12वें अंक) को पढ़ने की सलाह देना चाहते हैं जिसमें इस बारे में विस्‍तार से और लेनिन के उद्धरणों के साथ बात की गई है।

[3] पूरा पैराग्राफ यह रहा – “how we can understand the ‘prices above the cost’ that proletarian state in Soviet Union paid and the future proletarian state in India would pay to the collective peasants? First of all, it won’t be remunerative price, not even if it is 40-50% above the cost. It will mainly come as an aid or assistance from the proletarian state provided to the collective peasants at this stage of development of socialist economy. Whatever price of the collective produce above the total cost (including labour) is given by the proletarian state is actually in the form of state expenditure on the well-being of the collective farm villages as a whole. One important aspect of this is the state’s effort to continuously minimize division of labour between town and country. So, in a socialist state, an appropriate price of collective produce can be any price that guarantees a continuously growing dignified and decent life for the collective peasants through collective farms under the leadership of the proletarian state so that they remain a firm ally and a strong pillar of the working-class state in the long and final journey to state farms after which whatever differences between town and village remain will get eliminated. Farms will be as good as industry based on complete eradication of market and wage labour and other categories of capitalism.”

[4] ‘द ट्रुथ’ में अपने लेख में हमने लिखा है कि “Comrades! this is a quote from his famous writing “A caricature of Marxism and imperialist economism” that deals with those who were against Lenin’s political line of supporting the “right of nations to self-determination’ as against big nations chauvinism and imperialism. But one may feel that Lenin is defending imperialism and was against the “right of nations to self-determination” as against imperialism. In their conceitful vein to criticise us they have thus tried to turn Lenin on his head(sic).

To those, who doesn’t know Lenin must be feeling that he is batting in favour of Imperialism. We know it is totally wrong. The fact is that he is in a polemical debate with those who are, though in support of national uprisings, are not in support of political independence of nation or “right of nations to self-determination”, fearing it will lead to or mean support of the renegade social democratic call of “defence of father land” who had supported their own imperialist bourgeoisie in the first world war being fought for redivision of the world.

What does it mean in the first place? It means Lenin was not in favour of Imperialism at this point and vehemently called for support of “right of nations to self-determination”, however the above quote when read in isolation gives an opposite impression or feeling.

If we try to examine and understand why they quoted this in a discussion with PRC on the question of the ongoing anti-Corporate peasants’ movement, we find that it is meant to utilize Lenin to bring grist to the mill of those who are in support of the new farm laws i.e. are ‘apologists’ of Corporates meaning the ones that they themselves are. However, the fact that Lenin is opposing those who are opposed to “right of nations to self-determination” in essence goes against them. The readers must Lenin’s well position here that believed that political independence of nations is possible in the age of imperialism and monopoly capitalism, too inspite of their economic dependence on imperialism that very often pushes them into this situation through mechanism and machinations of monopoly capitalism. The ‘apologists’ trick has sought to lower the image of Lenin as apologists of imperialism(sic).

[5] “To use Lenin in support of corporates, these shameless people first of all assume that the movement of peasants as a whole is a reactionary movement of either a feudal type or a capitalist type, although peasant bourgeoisie participating in this movement are not capitalists. We have already quoted Stalin to show that peasant bourgeoisie per se are not rural capitalists. This is over simplification and Marxistically wrong. Anyway, according to their well-orchestrated plan, our ‘apologists’ have tried to fit Lenin into their boot i.e. into their own frame of logic to oppose the peasant movement to the extent of believing or saying that Corporate entry may be advantageous to the small and poor peasants. Thus, they want to say that the peasant’s rebellion against corporates and Modi regime is a reactionary uprising of a feudal or a capitalist type and hence Lenin would have better opted not to support this rebellion and hence choosing to ride its crest in order to achieve proletarian revolution naturally doesn’t come.

This fully exposes their bankruptcy of politics. Here what they forget is that what Lenin means by reactionary class uprising is the uprising of the feudal or capitalist class and not of the peasant bourgeoise type. Thus, in order to shine themselves in the discussion, they have tried to portray Lenin as an apologist of corporates.”

“……This is where the meaning of their faulty method (scholastic as one may call) of  arguments of “imperialism being progressive than capitalism and feudalism” has landed them. This is how the apologists of the whole world tend to argue. This is their basic character. Whenever and wherever such historic situations appear, they first of all try to stall the revolutionary presentation of the question so that no revolutionary tasks are derived. This is exactly what our ‘apologists’ have done when the peasantry as a whole have risen in revolt against the Indian as well as foreign Corporates that are hell bent to anyhow take over Indian agriculture with the help of Modi’s fascist regime which rammed farm laws for these corporates through parliament last year. This is exactly how they have argued with us, that too by way of quoting Lenin out of context (readers will shortly see this). It is important thing that we have met a test case for all such pretending super revolutionaries who have the same destiny as our ‘apologists’. All such super revolutionaries have in history turned towards the same goal in the service of the main enemy whether it is Corporates today or it will be imperialism tomorrow. We shall shortly see that by arguing like this how they have tried, though vainly, to bring Lenin to stand on his head! (sic). Their conceit has completely blinded them.” (The Truth, issue 12)

[6] ज्‍यादा स्पष्टता के लिए “एमएसपी से खरीद गारंटी तक” का मुकेश असीम का लेख पढ़ें जिसे इस बार फिर से अनुलेख के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। 

[7] यह पुस्तिका के पेज 4 से लिया गया है। पूरा पैराग्राफ यह है “ इस किसान आंदोलन पर नजर डालें तो हमारा सामना तत्काल उस किसान समुदाय से होता है जिसके सुखी व संपन्‍न जीवन के सारे सपने पिछले तीन दशकों में एक-एक कर धराशाई होते गए। धनी किसानों ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनका अस्तित्‍व भी गरीब किसानों की तरह संकट में आ जाएगा। बाजार से जुड़ी उनकी सारी हसरतें आज धूल चाट रही हैं। धनी बनने के सपने ही नहीं अहंकार भी टूट कर बिखर गए हैं। पूंजी की दृश्य व अदृश्य लाठी की मार से कराहते गरीब तथा मंझोले किसानों का परिदृश्‍य और भी ह्रदयविदारक है। उनके धूल-धूसरित अरमानों की बात ही क्‍या की जाए! उनके जीवन में तो कर्ज, भुखमरी, कुपोषण और मौत (आत्‍महत्‍या के रूप में) ने अपना स्‍थाई निवास ही बना लिया है। वे भी पूंजीवादी कृषि से धनी किसानों की तरह अमीर बनने चले थे लेकिन स्थिति पूरी तरह पलट गई है। स्‍वयं धनी किसान पूंजीवादी कृषि के दलदल में फंस गये हैं। पूंजीवादी शोषण की सोच व विचारधारा के आधार पर संचालित कृषि के कुप्रभावों के आगोश में जा फंसे किसान (एक छोटी आबादी को छोड़कर) आज कृषि से बाहर हो जाने के खतरे को देख गुस्‍से और दर्द से चीत्‍कार कर उठे हैं। निर्णायक वर्चस्व की ओर कार्पोरेट के बढ़ते कदमों ने अलग-अलग संस्तरों में बंटे होने के बावजूद पूरे किसान समुदाय को एकताबद्ध कर दिया है। यही कारण है कि यह आंदोलन पंजाब से शुरू होकर धीरे-धीरे पूरे देश में फैलता जा रहा है। यह पूर्व के कृषि क्रांतिकारी किसान आंदोलनों की टूटी कड़ी को एक भिन्न (सर्वहारा वर्गीय) अंतर्य के साथ जोड़ने वाले उसके एक नये दौर की ओर इंगित करता है तथा उसके लिए एक सर्वथा नया क्षितिज खोलता है।”

[8] इससे एक बात तो साफ है कि वे बहस में किसी को ठीक से उद्धृत करना भी ये जरूरी नहीं समझते हैं।

[9] एंगेल्‍स स्‍वयं याद दिलाते हैं कि भावी सर्वहारा होने के बाद भी ग़रीब किसान तुरन्‍त ही सामूहिक खेती की आवश्‍यकता पर सहमत नहीं हो जाता है। वे लिखते हैं: “इस नाते उसे समाजवादी प्रचार पर तत्‍परता से कान देना चाहिए था। किन्‍तु फिलहाल सम्‍पत्ति के प्रति उसका अनुराग उसे ऐसा करने से रोके हुए है। ख़तरे में पड़े ज़मीन के अपने नन्‍हे से टुकड़े की हिफ़ाज़त करना उसके लिए जितना ही अधिक कठिन होता जाता है, उतना ही अधिक वह उससे जी-जान से चिपटता जाता है, और उतना ही अधिक वह भू-सम्‍पत्ति को पूरे समाज को हस्‍तान्‍तरित करने की बातें करने वाले सामाजिक-जनवादियों को सूदखोरों और वकीलों की तरह ख़तरनाक समझने लगता है।” (जर्मनी में किसान युद्ध से)

[10] “द ट्रुथ’ व “यथार्थ” का 11वां अंक देखें।

[11] “And the last statement I would like to quote is the argument about the rich peasants, the big peasants, the kulaks as we call them in Russia, peasants who employ hired labour. Unless these peasants realise the inevitability of the doom of their present mode of production and draw the necessary conclusions, Marxists cannot do anything for them. Our duty is only to facilitate their transition, too, to the new mode of production.” (p.210 LCW Vol 28, bold ours)”   Lenin also writes …it was Engels who established the division of the peasants into small peasants, middle peasants, and big peasants, and this division holds good for most European countries even today. Engels said, “Perhaps it will not everywhere be necessary to suppress even the big peasant by force.” And that we might ever use force in respect of the middle peasant (the small peasant is our friend) is a thought that has never occurred to any sensible socialist. That is what Engels said in 1894, a year before his death, when the agrarian question came to the fore. This point of view expresses a truth which is sometimes forgotten, but with which we are all in theory agreed. In relation to the landowners and the capitalists our aim is complete expropriation. But we shall not tolerate any use of force in respect of the middle peasants. Even in respect of the rich peasants we do not say as resolutely as we do of the bourgeoisie[11]—absolute expropriation of the rich peasants and the kulaks. This distinction is made in our programme. We say that the resistance of the counter-revolutionary efforts of the rich peasants must be suppressed. That is not complete expropriation. (p.211, LCW, Vol-29, bold ours)

[12] इसके लिए ‘द ट्रूथ’ के 12वें अंक में प्रकाशित लेख “What The New Apologists Are …” की दूसरी किश्‍त पढ़ें।

[13] इस तरह यहां एंगेल्‍स भी उजरती श्रम के शोषण पर आधारित बड़े किसानों की खेती को पूंजीवादी किसान नहीं मानते या कहते हैं।

[14] यहां हमने एंगेल्‍स का ये उद्धरण अभिनव सिन्‍हां के लेख से ही दिया है। मजेदार बात यह है कि अभिनव सिन्‍हा इस उद्धरण के पहले अपनी टिप्‍पणी करते हुए लिखते हैं कि “जहां तक बड़ी-बड़ी ज़मीनें रखने वाले बेहद धनी किसानों और कुलकों का सवाल है, एंगेल्‍स कहते हैं कि उनके मामले में समाधान बिल्‍कुल आसान है।” और फिर वे एंगेल्‍स का उक्‍त उद्धरण देते हैं। इसका क्‍या अर्थ है? क्‍या इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि ये भी पहले हमारी तरह धनी किसानों में बेहद धनी किसान देखते थे और उसके उत्‍पादन को ही पूंजीवादी किसान मानते थे? तब तो यह भी मानना पड़ेगा कि जो परिवर्तन आया है वह इनके कॉर्पोरेट का हिमायती बनने के बाद आया है। लेकिन हम सिर्फ अंदाजे पर यह कह रहे हैं, क्‍योंकि सबसे ज्‍यादा इस बात की संभावना है कि इन्‍होंने न एंगेल्‍स को तब ठीक से समझा हो और न ही आज। यह कुनबा जिस तरह से इति‍हास से महज रट्टा मार कर सीखता है उसमें ज्‍यादा संभावना इसी बात की है।

[15] “द ट्रुथ” के बारहवें अंक में प्रकाशित “what the new apologists of corporates are…” की दूसरी किश्‍त का post-script 1 देखें.

[16] “द ट्रुथ” के पोस्‍ट-स्‍क्रीप्‍ट 1 में हमने इस बारे में लिखा है कि “Being Not Able To Deny That Appropriate Prices May Be Any Percentage Above The Cost, Our Poor Apologists Use Sleight Of Hand, Take Much Pain To ‘Defeat’ Us By Trick, Quote Stalin’s Statement (Against Bukharin) Of The NEP Period.

True to their character, finding no other ways, the apologists use a sleight of hand to demolish us in the last. He quotes Stalin’s statement of the time of the NEP period. Just imagine their dishonesty. The matter under discussion belongs to the arena of the victory of Collective farm mass movement, when the kulaks were eliminated as a class, socialist industrialisation had emerged victorious with flying colours and even the last traces of pre-1917 Russia’s exploitative past were swept away, but, our ‘apologists’ are so shameless that they quote Stalin’s statement that he gave to fight Bukharin’s line of giving primacy to Kulaks for the development of agrarian economy. He (Bukharin) had to say that that if kulaks grow richer it is advantageous to socialism for it helps in getting more grain. At that time, the kulaks used to sell most of their grain after giving away what was required to give to the state in the form of tax in kind, in the open markets in which even private industrialists also used to deal. At that time, giving any price above cost was a profit and did go as profit to the kulaks. How can then Stalin’s statement against Bukharin be used to refute a particular fact in discussion about prices above cost that belongs to a timeline many years hence since then i.e. when there were no kulaks, not only that there were no Bukharins or Trotskys either, there were no free play of market forces and hence no prices above the cost could constitute profit as wage labour was completely abolished not only in the collectives but also in other sectors. This is just peculiar, simply astonishing and unbecoming of intellectuals these apologists are supposed to be. This has actually shown their level. When they have turned over to Corporates, they don’t think even of their own prestige that has been constantly falling.

Our apologists are truly Don Quixote-turned-upside down!

Actually, Bukharin in the said period, wanted to put a brake upon or relax the role of the state as the regulator of the market and in essence also of the whole economy. It is altogether a different case. How come the apologists mustered courage to put it here as a logic in our debate on “appropriate prices” is something amazing for us. In their vein to rail against us, they can stoop to any any low.

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