[शेखर]
[यह लेख बिहार चुनाव 2020 पर ‘यथार्थ’ पत्रिका में लेख श्रृंखला में तीसरा और अंतिम लेख है। पहले और दूसरे लेख ‘यथार्थ’ के सितंबर (#5) और अक्टूबर (#6) अंकों में छपे थे।]
बिहार चुनाव के पहले दो चरण के मतदान हो चुके हैं और यह लेख लिखते वक्त 7 नवंबर को होने वाले तीसरे चरण के मतदान के लिए प्रचार जोर-शोर से शुरू है। इसी के साथ तेजस्वी यादव के अगले मुख्यमंत्री बनने के आसार भी अब और साफ दिखाई दे रहे हैं। अब तो मेनस्ट्रीम (गोदी) मीडिया के सुर भी बदले नजर आने लगे हैं। हमारी नजर में इसकी मुख्य वजह एक तरफ भाजपा की सांप्रदायिक और फिरकापरस्त राजनीति के जरिये लोगों के दिलो-दिमाग में जहर भरने की रणनीति का असफल हो जाना और आतंकवाद, कश्मीर, पाकिस्तान, चीन करने, आदि के जरिये आम जनता का ध्यान भटकाने की साजिश का काम नहीं कर पाना है। वहीं दूसरी तरफ, इसका दूसरा कारण निस्संदेह मौजूदा सरकार के खिलाफ लोगो के बीच विरोध की एक जबर्दस्त लहर का बहना भी है जिसे तेजस्वी यादव द्वारा किये गये लुभावने वायदों ने एक तूफान का रूप दे दिया है। पूरे बिहार में नीतीश सरकार के खिलाफ इतना अधिक गुस्सा है कि वे जहां कहीं भी जा रहे हैं उन्हें विरोध में नारे सुनने पड़ रहे हैं। हालांकि चुनाव के समापन की ओर बढ़ने के साथ यह गुस्सा नफरत में बदलता दिख रहा है। सारे चौक-चौबंद के बावजूद उनके मंच पर आते ही और भाषण शुरू करते ही लोगों का विरोध शुरू हो जा रहा है।
बिहार की बहुसंख्यक आबादी की जीवन-जीविका के सभी स्रोत लॉक डाउन के बाद खत्म से हो गये हैं, जबकि लॉकडाउन के पहले से ही अभूतपूर्व बेरोजगारी और भुखमरी की मार जनता झेल रही थी। इसलिए जब तेजस्वी यादव ने अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत दस लाख सरकारी नौकरी देने और बिहार सरकार के अंतर्गत ठेका तथा संविदा व मानदेय (आशा, आंगनबाड़ी, जीविका और स्वयं सहायता समूह, आदि) पर काम कर रहे सभी लोगों की नौकरी पक्की करने के वायदे किये, तो अपनी समस्याओं का समाधान खोज रही जनता, खासकर युवाओं के दिलों को गहरे छू गया। पहले चरण के बाद दिखाई पड़ने वाली सत्ताविरोधी लहर पूरे बिहार चुनाव प्रचार में अकेले दमखम दिखाते तेजस्वी यादव के पक्ष में एक तूफान बनता दिखता है जिसकी पुष्टि अब मेनस्ट्रीम मीडिया भी करने लगा है। इसी के साथ जब तेजस्वी ने पहले व दूसरे चरण के मतदान में मिलने वाली संभावित बढ़त को सुदृढ़ करने के इरादे से पहले से दो कदम और आगे बढ़ते हुए गरीबी, बेरोजगारी तथा भुखमरी की मार से बेचैन और त्रस्त जनता के समक्ष कमाई, दवाई, पढ़ाई, सिंचाई सहित जनता के सभी मुद्दों पर तत्काल कार्रवाई व सुनवाई करने वाली सरकार का नारा बुलंद किया, तो जनता ने इसे हाथों हाथ ले लिया। एनडीए को उम्मीद थी कि पहले चरण के बाद तेजस्वी के पक्ष में उठी हवा शांत हो जाएगी या पलट जाएगी, लेकिन इसके विपरीत तेजस्वी के द्वारा उठाये गये मुद्दों ने जनता के बीच और भी गहरी पैठ बना ली और अब यह तय माना जा रहा है कि नीतीश कुमार की सरकार की वापसी नहीं होगी। दो और गठबंधनों के बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं है और ज्यादातर सीटों पर मुकाबला महागठबंधन और एनडीए के बीच सीधा ही बना रहा। तीसरे चरण में भी इसी चीज की पुनरावृत्ति होने वाली है इसमें कोई संदेह नहीं है। तीसरे चरण में, जो अब दो दिनों बाद खत्म हो जाएगा, लाखों स्थायी सरकारी नौकरियां देने, अन्य सरकारी कार्यालयों में रिक्त पदों को भरने, पूरी तरह बेरोजगारी हटाने, गरीबी और भुखमरी खत्म करने, मजदूरों का पलायन रोकने के लिए फैक्ट्रियों का जाल बिछाने, आशा, आंगनवाड़ी, तथा इन जैसे तमाम ठेका, संविदा तथा मानदेय कर्मियों की नौकरी पक्की करने, किसानों के सभी तरह के कर्ज माफ करने और मुख्य रूप से कमाई, पढ़ाई, दवाई, सिंचाई, कार्रवाई तथा सुनवाई वाली सरकार बनाने जैसे अत्यंत लुभावने वायदे जनता के दिलों दिमाग पर छा चुके हैं। तीसरा चरण आते-आते भाजपा द्वारा अपनायी जाने वाली जनता को हिंदू-मुस्लिम के बीच आपसी घृणा की राजनीति भी पूरी तरह असफल सिद्ध हुई है और उनका यह दांव भी उल्टा पड़ा है। मोदी के भाषण को इस चुनाव में लोगों ने गंभीरता से लिया ही नहीं, और उन्होंने जब भी हिंदू-मुस्लिम करने की बातें या कोशिश की, लोगों के तत्काल विरोध ने मामले को हास्यास्पद तक बना दिया।
हम कह सकते हैं कि बिहार की खास परिस्थितियों में एक और मोदी का जन्म हो रहा है। नाम, उम्र, विचारधारा तथा सामाजिक-राजनीतिक बैकग्राउंड में अंतर जरूर है, लेकिन लोगों को अच्छे दिनों के सपने दिखाने की नजाकत में दोनों में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। देखा जाए तो, विगत कुछ हफ्तों की जन सभाओं में तेजस्वी द्वारा किए जा रहे वायदों का जनता पर वही असर हो रहा है जो 2014 में मोदी के ‘अच्छे दिनों’ के नारे और दो करोड़ प्रति वर्ष नौकरी व रोजगार देने, काला धन लाने व सभी के खातों में 15-15 लाख रूपये जमा करने, महंगाई दूर करने, किसानों की आय दुगनी करने, सभी को मकान देने जैसे वायदों से हुआ था। इसके पीछे कांग्रेस के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा था और आम लोगों ने मोदी के वायदों को सिरियसली लिया था।
आज जब बिहार में एनडीए राज के खिलाफ सतह के ठीक नीचे गुस्सा भड़क रहा है, जिसके बारे में हमलोग लगातार लिखते रहे हैं, तोतेजस्वी यादव ने इसे बखूबी समझा और समझकर इसको प्रभावी मुद्दे में बदल दिया। तेजस्वी द्वारा प्रभावी तरीके से और आशा पैदा करने के अंदाज में किये गये वायदों और घोषणाओं ने एनडीए का पासा पूरी तरह पलट दिया है। आज जनता के बीच उम्मीदों का एक तूफान खड़ा हो चुका है जिसका साफ असर 10 नवंबर को आने वाले चुनाव परिणाम में दिखाई पड़ेगा। हमारी नजर में, अब कोई चमत्कार या कोई बड़ा घोटाला ही एनडीए को हार से बचा सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी के हर पलटवार से स्थिति और खराब ही हुई है। ‘जंगलराज के युवाराज’ के जुमले पर लोग खुलकर बोलने लगे हैं कि जंगलराज ही नीतीश राज से ठीक था। दूसरी तरफ, तेजस्वी अपने विरूद्ध किये जा रहे है निजी हमलों के बाद भी शालीनता बनाये रखने में सफल रहे हैं, वहीं, दूसरी तरफ, नीतीश कुमार अपनी रैलियों में लगाए जा रहे विरोधी नारों पर अपना धैर्य और भाषा की मर्यादा खोते दिख रहे हैं। स्पष्ट दिखता है कि तेजस्वी एक अनुभवी धाकड़ बुर्जुआ नेता जैसा संयम बरतने में सफल हुए हैं और अपनी तय दिशा से बिना भटके आगे बढ़ने में कामयाब हो रहे हैं। उन्होंने दिखाया है कि नवोदित चुनौती देने वाले नौजवान गंभीर बुर्जुआ नेता का धैर्य, संयम, साहस ओर दमखम उनके पास है जिससे लोग आकर्षित हो रहे हैं। इतना निश्चित है कि मोदी लोगों को फीके नजर आ रहे हैं। दरअसल, हम सब एक नये उदित हो रहे मोदी के गवाह बन रहे हैं। लोगों को पुराने और फासिस्ट मोदी की तुलना में नये धर्मनिरपेक्ष और नौजवान मोदी के वायदों पर ज्यादा भरोसा हो रहा है। यह आम धारणा बन चुकी है कि पुराने मोदी पर अब और भरोसा नहीं किया जा सकता। लोगों के सामने उनकी छवि झूठे, बेईमान और अम्बानी-अडानी जैसे पूंजीपतियों के दोस्त व दलाल की बन गई है।
हमें पता है कि जब मैदान में जनता के मुद्दे छा चुके हैं, तो भाजपा को कुछ सूझता दिखाई नहीं दे रहा है। 2014 से लेकर आज तक के अुनभव से लोगों के समक्ष यह बात साबित हो चुकी है कि भाजपा झूठे वायदों के जरिये सरकार तो बना सकती है, लेकिन उसके बाद भाजपा के पास साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के अलावा और कोई रास्ता नहीं है जिसका इस्तेमाल वह पुराने वायदों से जनता का ध्यान भटकाने और चुनाव जीतने के लिए करती है। भाजपा ने बिहार चुनाव में भी सोचा था कि जंगलराज के दिन याद करा के और इसके इर्द-गिर्द साम्प्रदायिकता का जहरील माहौल बना कर, राम मंदिर निर्माण और कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 (ए) हटाने की बात करके तथा पाकिस्तान और चीन को ले कर अंधराष्ट्रवाद का हौवा खड़ा करके बिहार को वह हथिया लेगी। लेकिन अब जब जनता के सामने बेरोजगारी और भुखमरी का मुद्दा छाया हुआ है, तो हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति का असफल होना निश्चित है। बिहार में देखा जा रहा है कि जहां भी लोगों को रिझाने के लिए अंधराष्ट्रवादी या साम्प्रदायिकतावादी प्रचार चलाने की कोशिश की जा रही है, वहां आम जनता खुद ही पलट कर जवाब दे रही है। एनडीए के लिए अब बस जाति आधारित समीकरण और जोड़ घटाव ही एक सहारा है जो इनके कुछ काम आ सकता है। लेकिन यह सब भी तभी काम करेगा अगर 2015 का पुराना समीकरण जनता के गुस्से के समक्ष टिका हुआ है जिसकी उम्मीद काफी कम है। इसमें कतई संदेह नहीं है कि तेजस्वी के दस लाख सरकारी नौकरियां देने और अन्य लाखों ठेका कर्मियों को स्थाई करने के वायदे और युवाओं को ‘नया बिहार’ बनाने के लिए आगे आने के आह्वान ने एनडीए की इस आखिरी उम्मीद की किरण को भी लगभग बुझा दिया मालूम होता है। अगर ऐसा ही है तो अब एनडीए के लिए उबरना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। 13 जन सभाओं में से किसी एक सभा में भी ‘मोदी-मोदी’ के जयकारे इस बार पुराने स्टाइल में नहीं सुनाई दिये। युवा वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा मोदी का खुलेआम विरोध कर रहा है। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर मोदी विरोध की चली आंधी से भी ऐसे ही नतीजों का अंदेशा मिल रहा था जो आखिरकार सच साबित हुआ है।
क्या तेजस्वी के ‘अच्छे दिन’ मोदी के ‘अच्छे दिन’ से अलग है?
सवाल है, अगर महागठंधन की जीत होती है, तो क्या तेजस्वी सरकार किये गये वायदों को पूरा कर सकेगी? इसका जवाब नकारात्मक है और इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए, क्योंकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और वर्ग-विभाजित समाज में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी का कोई इलाज नहीं है, खासकर आज के दौर के संकटग्रस्त पूंजीवाद के दौर में तो कतई नहीं। महागठबंधन जैसे बुर्जुआ गठबंधन की सरकार क्या वर्ग-विभाजन को खत्म करेगी? स्पष्ट है नहीं।
इसी के साथ, कई दूसरे सवाल भी हैं जिनका जवाब ना में है। जैसे, बिहार में तेजस्वी की सरकार बनने से फासीवाद विरोधी कार्यभार संपन्न हो जायेगा, क्या हम ऐसा मान सकते हैं? क्या महागठबंधन की सरकार, जिसमें सीपीआई, सीपीआई (एम) और सीपीआई (एमएल) लिबरेशन भी शामिल होंगी, अपने वायदों पर खरी उतरते हुए भाजपा की फासीवादी विचारधारा को परास्त करने का काम करेगी? क्या तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने से जनता की बुनियादी समस्याओं के हल होने की कोई उम्मीद है? क्या कॉरपोरेट की लूट-खसोट बंद हो जाएगी? क्या गरीबी और बेरोजगारी का नामोनिशान मिट जाएगा, जैसा कि तेजस्वी वादा कर रहे हैं? क्या शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं जनपक्षीय हो जाएंगी और निजी अस्पतालों की लूट पर रोक लगेगी? जब ये सारे सवाल युवाओं के समक्ष रखे गए तो उनका जवाब था कि ‘अब अगर वे (सरकार और नेता) अपने वायदों से पीछे हटेंगे तो हम उन्हें चैन से नहीं रहने देंगे।’ और बिहार में यह आम जनता, खासकर परेशान, हैरान और बेचैन युवाओं की मनःस्थिति को दर्शाता है।
आर्थिक संकट और बड़े-बड़े वायदे; क्या पूंजीवाद में इनकी पूर्ति संभव है?
सर्वविदित है कि भारतीय पूंजीवाद और साथ ही साथ पूरा विश्व पूंजीवाद-साम्राज्यवाद एक गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहा है, उसमें गहरा धंसा है और निकट भविष्य में इससे निकलने की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती है। यह संकट मजदूर-मेहनतकश वर्ग से लेकर मध्यम वर्ग तक के कंधों पर से बोझ को कम तो नहीं ही होने देगा, चाहे सरकार जिस भी पार्टी की बन जाए। उल्टे, जब-जब यह संकट सामान्य से तीव्र होगा, यह बोझ को और अधिक असहनीय स्तर तक बढ़ायेगा। जाहिर है, जब तक यह आर्थिक संकट बना रहेगा, तब तक विश्व अर्थव्यवस्था को इन थपेड़ों का सामना करते रहना पड़ेगा और जनता के ऊपर से इसका बोझ भी कम नहीं होगा। सवाल है, क्या यह संकट पूंजीवादी व्यवस्था के रहते दूर हो सकता है? नहीं, बिल्कुल ही नहीं, क्योंकि आर्थिक संकट के कारक पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में ही अंतर्भूत हैं और यहां तक कि आज के पूंजीवाद में न सिर्फ इसके बने रहने के, अपितु इसके स्थाई और तीव्र रूप में बने रहने के कारण बहुतायत में मौजूद हैं। यहां तक कि बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों को भी निकट भविष्य में इस संकट के खत्म होने की या अपेक्षाकृत तौर पर लंबे समय तक इसके कम होने की कोई टिकाऊ और निश्चित उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है। पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक नीतियों को बनाने वाले विशेषज्ञों को भी अब स्पष्ट लगने लगा है कि यह संकट पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अत्यंत घातक साबित हो सकता है, इस हद तक कि यह इसकी कब्र खुदने तक टिका रहने वाला है।
इसे भांपते हुए ही पूंजीपति वर्ग, खासकर बड़े कॉरपोरेट पूंजीपतियों का वर्ग, दमनकारी फासीवादी राज्य की तरफ बढ़ने की तैयारी कर चुका था, ताकि लोगों के बढ़ते आक्रोश को उग्र राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद के जरिये भटकाया और अंतत: दबाया जा सके। यही वजह है कि विगत कुछ वर्षों में लगभग सभी पूंजीवादी देशों में फासीवादी प्रवृत्तियों का जबर्दस्त उभार देखा जा सकता है। पूंजीपति वर्ग खुद ही बहुत बेचैन हो उठा है और पूंजी की सत्ता व लूट को किसी भी हालत में कायम रखने और अधिकतम मुनाफे को कैसे बरकरार रखा जाए इसके लिए फासीवादी रास्ते पर चलने पर वह मजबूर हुआ है। यह स्थिति भारत में 2014 से देखी जा सकती है। यही कारण है कि 2014 में मोदी सरकार जैसी फासीवादी सरकार भारत सत्तारूढ़ हुई और तब से ही हम पाते हैं कि मेहनतकश जनता सहित जनपक्षीय प्रगतिशील व क्रांतिकारी जनवादी ताकतों को आए दिन फासीवादी दमन का सामना करना पड़ रहा है।
इसलिए प्रगतिशील व क्रांतिकारी ताकतों के लिए तेजस्वी द्वारा किये गये वायदों पर विश्वास करना मूर्खतापूर्ण और आम जनता के लिए काफी निराशाजनक साबित होगा या होने वाला है। इस पर विश्वास करना अपने को अंधेरे में रखना है कि तेजस्वी सरकार वास्तव में अपने वायदे पूरा कर पाएगी। दिन-प्रति-दिन आथिक संकट व मंदी में ज्यादा से ज्यादा धंसती जा रही और कभी नहीं खत्म होने वाले अंतरविरोध में बुरी तरह फंसी पूंजीवादी व्यवस्था को पल्टे बिना और एक नयी व्यवस्था बनाये बिना जनता के दुखों के खत्म होने की उम्मीद पालना काफी निराशाजनक साबित होने वाला है। इसे हमें आज ही समझ लेना चाहिए और जनता एक बार फिर बुरी तरह ठगी जाएगी ऐसा समझकर ही आगे की रणनीति बनानी चाहिए।

कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की नाकामयाबी
इसमें कोई संदेह या दो मत नहीं होना चाहिए कि जनता के आक्रोश के विस्तार व गहराई को समझने व भांपने और फिर इस आधार पर क्रांतिकारी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए इसका उपयोग करने मेंकम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक बड़ी नाकामयाबीएक बार फिर से प्रकट हुई है। बिहार चुनाव की घोषणा के साथ ही समग्रता में कहें तो पूरे कम्युनिस्ट क्रांतिकारी तबके को जमीनी परिस्थिति और जनता के उबलते गुस्से का अंदाजा नहीं था। लेकिन, वे न सिर्फ जनता की मनःस्थिति को समझने में नाकामयाब रहे, बल्कि उनके गुस्से और बेचैनी को क्रांतिकारी दिशा देने के लिए भी वे तैयार भी नहीं दिखे। ‘यथार्थ’ में हम इस बात की आवश्यकता पर हमेशा से जोर डालते रहे हैं कि क्रांतिकारी आंदोलन को एकजुट हो कर जनता के बीच व्यापक स्तर पर क्रांतिकारी वैकल्पिक नारों और प्रोग्राम के साथ राजनीतिक हस्तक्षेप करना होगा, तभी फासीवाद से लडना मुमकिन हो सकेगा और एकमात्र तभी हम फासीवाद के विरूद्ध क्रांतिकारी विकल्प की राजनीति को जनता के बीच व्यापक तौर पर ले जा सकेंगे। हमने हमेशा से यह भी रेखांकित किया है कि जब तक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी खेमा एक फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी प्रोग्राम के तहत मोर्चाबद्ध नहीं हो जाता तब तक वे संसदीय वाम पार्टियों को एकजुट होने और अपनी शक्तियां एक जगह केंद्रित करने के लिए भी बाध्य नहीं कर सकते। इसके लिए भी सर्वप्रथम यह जरूरी है कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ताकतें फासीवाद को हराने के सवाल पर एक रणनीतिक कार्यक्रम के तहत एकजुट हों।
अगर ये दो चीजें बिहार में संभव हो पाती, यानी, पहला अगर कम्युनिस्ट क्रांतिकारी खेमा एकताबद्ध हो जाता और फिर इस आधार पर वाम पार्टियों पर दूसरे स्तर के एक बड़े मोर्चे में आने के लिए हम दबाव बना पाते और इसके बाद गैर-भाजपा और गैर-एनडीए ताकतों के सामने भी बिहार चुनाव में एनडीए को हराने के लिए साझा प्रस्ताव रख पाते, तो हम चुनाव में एक ऐसी रणनीति बनाने में जरूर सफल हो पाते जिससे हम निश्चय ही समस्त वाम ताकतों, वाम समर्थकों व आम जनता के व्यापक हिस्से को स्वतंत्र राजनीतिक कमान अपने हाथ में रखते हुए फासीवाद के विरूद्ध लामबंद कर पाते। निश्चित ही तब बिहार की स्थिति कुछ और होती। लेकिन हम इसकी सबसे पहली शर्त यानी क्रांतिकारी शक्तियों की एकता स्थापित करने में ही नाकाम रहे। इसकी भारी कीमत हमें आगे चुकानी होगी।
जैसा कि हम देख सकते हैं, बिहार की जनता मौजूदा सरकार के खिलाफ असंतुष्ट ही नहीं आक्रोशित भी है। देखने वाली बात यह भी है कि वह नेताओं द्वारा अपने सामने परोसी जा रही राजनीति (जाहिर तौर पर बुर्जुआ राजनीति जो झूठे वायदों पर आधारित होती है) से संपूर्णता में नाखुश है। अधिकांश जनता के लिए तेजस्वी का चयन स्वाभाविक चयन नहीं है। आज जो भी उभार दिखता है जिससे लगता है कि जनता ने उन्हें चुना है इसका सबसे कारण यही है कि जनता के सामने कोई अन्य क्रांतिकारी विकल्प मौजूद ही नहीं है। इस तरह हम अपने सामने एक हद तक 2014 को दुबारा घटित होते देख रहे हैं जब लोगों ने कांग्रेस से उब कर मोदी को चुना था, ठीक इसीलिए क्योंकि उस समय भी जनता के पास कोई दूसरा बेहतर या क्रांतिकारी विकल्प मौजूद नहीं था। अब जब रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा जनता के मुद्दे बन चुके हैं और अंदर ही अंदर सभी बुर्जुआ पार्टियों तथा उनकी अवसरवादी राजनीति के खिलाफ उनका असंतोष बढ़ता जा रहा है, तो इसका जवाब एक ही था और है, क्रांति। लेकिन जनता के सामने कोई क्रांतिकारी विकल्प हम रख नहीं पा रहे हैं। ना किसी एक क्रांतिकारी पार्टी द्वारा और ना ही उनके द्वारा संयुक्त रूप से। दूसरी तरफ फासीवादी के पूर्ण विजय के खतरे ने मामला को गंभीर तथा संगीन बना दिया है।
लॉक डाउन शुरू होने के समय से ही ‘यथार्थ’ का यह मानना रहा है कि इससे एक उबाल, असंतोष और गुस्सा फूटेगा और इस गुस्से को क्रांतिकारी दिशा देने की जरूरत पैदा होगी जिसके मद्देनजर क्रांतिकारियों की एकता अत्यावश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम दो चीजों की जरूरत थी। पहली जरूरत यह है कि हमारे पास जनता के बीच एक वैचारिक-राजनीतिक दिशा ले जाने के लिए एक क्रांकिारी कार्यक्रम चाहिए और दूसरा जनता का सीधा समर्थन पाने और जनता को क्रांतिकारी राजनीति के रास्ते पर आगे बढ़ाने के मद्देनजर पर्याप्त सांगठनिक व संरचनात्मक क्षमता होनी चाहिए। इन दोनों मानदंडों को पूरा करने के लिए मौजूदा समय में क्रांतिकारी शक्तियों के एक संयुक्त मोर्चे की जरूरत थी और चुनाव जैसे बुर्जुआ हथियार का इस्तेमाल करने के लिए तो इसकी और भी ज्यादा जरूरत थी।
सरकार बदलने मात्र से फासीवाद को हराना नामुमकिन
हम मानते हैं कि केवल सरकारें बदल लेने भर से फासीवाद को हराया नहीं जा सकता। खासकर के तब जब कि पूरे विश्व के बुर्जुआ जनतंत्र और सरकारें व संस्थायें पिछले एक दशक से भयंकर प्रतिगमन का शिकार हुए हैं और देखते ही देखते पूरी दुनिया बुर्जुआ जनतंत्र फासीवाद के उत्पन्न होने की जमीन में तब्दील होता जा रहा है, उसकी विचरण भूमि बनता चला जा रहा है। यह प्रक्रिया तेज, व्यापक और लगभग स्थायी है, क्योंकि विश्व पूंजीवाद का संकट भी स्थायी है और निकट भविष्य में इसके हल की कोई संभावना नहीं दिखती है। मौजूदा पूंजीवादी संकट पिछले संकटों से कई मायनों में भिन्न है जो मुख्य रूप से चरित्र में चक्रीय और अस्थाई थे और जल्द ही अंदरूनी तथा बाह्य प्रतिकारकों की वजह से हल हो जाया करते थे और जिसके बाद एक लंबे समय तक विकास का काल हुआ करता था। आज पूरी विश्व पूंजीवादी व्यवस्था लगभग एक स्थाई संकट की चपेट में है और विकास का काल छोटा और पहले की तुलना में बहुत ही न्यून स्तर का होता जा रहा है जो बहुत कम समय के लिए आता है और तुरंत ही फिर से पूंजीवादी व्यवस्थायें संकट में गिर जा रही हैं। ऐसे में, फासीवाद भी एक स्थाई परिघटना जैसी चीज बनता जा रहा है जिसके कई मायने हैं। लेकिन इसका अर्थ यह जरूर है कि फासीवाद को हराने का एक ही तरीका है और वो है फासीवाद के खिलाफ एक क्रांतिकारी प्रोग्राम के साथ आगे आना जो सभी सच्चे फासीवाद विरोधी ताकतों, वर्गों, तबकों और अन्य मोर्चों को एकताबद्ध कर पाए। तभी बुर्जुआ खेमे के भीतर के भी दरारों का इस्तेमाल करने का कोई अर्थ होगा, नहीं तो हम बुर्जुआ वर्ग के पिछलग्गू होने की नीति के शिकार होंगे। इसे सुनियोजित ढंग से जमीन पर उतारने के लिए और इसे एक दुर्जेय रणनीति में बदल देने के लिए सबसे पहले इस पूरी प्रक्रिया को अलग अलग चरणों और तहों में बांटना होगा जिसके कोर में क्रांतिकारी ताकतें होंगी।
चुनाव के बाद की परिस्थितियों की एक झलक और हमारा आह्वान
चुनाव प्रचार में पैदा हुई मौजूदा परिस्थिति से ही चुनाव के बाद उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों का हम अंदाजा लगा सकते हैं। इसलिए हम यह दुबारा कहना चाहेंगे कि बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में एक बहुत बड़ी उथल-पथल देखी जा सकती है और जमीन से आती रिपोर्ट इस तथ्य को पुख्ता कर रही हैं कि बिहार की जनता पूरे तरीके से मौजूदा शासन के खिलाफ गुस्से से भरी है। प्रचार की शुरुआत से ही एनडीए नेताओं के सामने ही उनके खिलाफ नारेबाजी होने लगी थी। मौजूदा मंत्रीगण अपने क्षेत्र में बिना विरोध के नहीं घुस पा रहे थे। कई जगह उन्हें मुंह पर भला-बुरा कहा गया, भगा दिया गया और यहां तक कि जनता के हाथों उनकी पिटाई भी हुई। यहां तक कि प्रधानमंत्री को भी बख्शा नहीं जा रहा है। जीत या हार जिसकी भी हो, कयोंकि यह जनता के मूड के अतिरिक्त अन्य चीजों पर भी निर्भर करता है, लेकिन जनता का गुस्सा पूरी तरह अंदर तक जा पहुंचा है। प्रचार की शुरुआत से ही एनडीए की जन सभाओं में भीड़ नहीं जुट रही थी। यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी सभाओं में कई जगह खाली कुर्सियों और उंघते लोगों को संबोधित करते नजर आए। वहीं दूसरी तरफ, महागठबंधन की रैलियों और सभाओं में काफी भीड़ इकट्ठा हो रही है और समय के साथ यह भीड़ बढ़ती ही जा रही है। चुनाव प्रचार के तीसरे चरण में भी भीड़ जुटने का यही रूझान बना हुआ है। यह जनता के अंदर पल रहे गुस्से और विक्षोभ का लावा ही है जो फिलहाल महागठबंधन के पक्ष में जाता दिख रहा है।
यह समझना भी कठिन नहीं है कि महागठबंधन की यहां तक की सफलता तेजस्वी के दस लाख नौकरी देने के वायदे के साथ ही वाम पार्टियों के कैडरों के दिन-रात की मिहनत और उनकी जमीनी सक्रियता का परिणाम है। हवा बनाने में लाल झंडे वालों की काफी मशक्कत है, हालांकि यह अलग बात है कि जनता के साथ-साथ उनका सपना भी पूरा होने नहीं जा रहा है। भाजपा की अंधराष्ट्रवादी और सांप्रदायिक राजनीति को जनता के बीच कोई सुनने वाला नहीं है, लेकिन उसे जनता के बीच परास्त किया जाना अभी मीलों दूर है और तेजस्वी सरकार द्वारा अपने किये गये वायदे को पूरा न करने की हालत में एक बार फिर से भाजपा की पतित राजनीति तेजी से अपने रंग दिखायेगी। वायदों का पूरा न होना इसका सबसे बड़ा कारण बनेगा।
हमारे सामने यहां से आगे जाने का रास्ता नहीं है, और यही अब मुख्य सवाल है कि ऐसी परिस्थिति में जनता के समक्ष हम क्या आह्वान करें। हम जनता को क्या कहें? इसमें कोई संदेह नहीं है कि हम चाहते हैं और इसके लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा-जदयू के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को सत्ता से हटाया जा सके। लेकिन इसके बाद कई ऐसी चीजें है जिन पर से पर्दा उठाने और उन पर चर्चा करने की जरूरत है।
उदाहरण के लिए, अगर महागठबंधन की जीत होती है तो मोर्चे में मौजूद वाम पार्टियां, मुख्यतः सीपीआई, सीपीआई (एम) और सीपीआई (एमएल) लिबरेशन, भी इस गठबंधन की सरकार में शामिल होगी। जनता के बीच इस बात की खुशी साफ दिखाई दे रही है और इस बात व उम्मीद का असर भी काफी पड़ा है कि जनता के बीच काम करने वाली ताकतें अब सत्ता में मंत्री पद संभालेंगी। लोगों की सकारात्मकता और उम्मीद इस वजह से भी ज्यादा बढ़ी हुई दिखाई दे रही है। हालांकि इसे हम जनता के राजनीतिक पिछड़ेपन और क्रांतिकारी प्रशिक्षण का अभाव ही कहेंगे जिसके पीछे का मुख्य कारण है संसदीय वाम ताकतों द्वारा संशोधनवाद की राजनीति को जनता के बीच आगे बढ़ाया जाना जिसके कारण जनता समझती है कि महज सरकारें बदल कर या किसी बुर्जुआ सरकार में शामिल हो कर या फिर बुर्जुआ व्यवस्था में अपने झंडे की सरकार बनाकर जनता के दुख-दर्द को खत्म किया जा सकता है। लेकिन हां, यह सच है कि इससे इस बार के बिहार चुनाव में जनता की उम्मीदें और उसकी सक्रियता दोनों में कई गुना इजाफा देखा जा सकता है। वाम पार्टियों के कैडर भी जमीन पर इससे उत्साहित होकर पूरी तरह सक्रिय हैं। जल्द ही इन सबकी परीक्षा होगी।
सवाल यह खड़ा होता है कि अगर महागठबंधन की सरकार बनती है, जिसमें वाम पार्टियां भी शामिल होंगी और वह सरकार अपने वायदे नहीं पूरा करेगी, जो कि नहीं पूरा करेगी हम जानते हैं, तो उसके बाद क्या होगा? जब बिहार में फासीवादी ताकतों को वास्तव में अर्थात वैचारिक व राजनीतिक स्तर पर उन्हें हराने का लक्ष्य पराजित होगा तो आगे क्या होगा? हमें पता है कि उनकी राजनीति ऐसी नहीं है जिस पर हमें भरोसा हो कि भाजपा और आरएसएस के संरक्षण में पलने वाली फासीवादी ताकतों को हराने वाली ताकत तेजस्वी की सरकार होगी या फासीवाद को हराने में लगी ताकतों को तेजस्वी सरकार का समर्थन प्राप्त होगा। यह सच है कि मौजूदा परिस्थिति में फासीवाद विरोधी संघर्ष का पहला कदम, यानी मौजूदा चुनाव में उनकी हार को सुनिश्चित करने का कदम, पूरा होता और सही दिशा में जाता दिख रहा है, लेकिन इसके बाद का रास्ता यूं ही खुला और अनिर्णित छोड़ दिया गया है। दूसरी तरफ, जब शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार आदि मुद्दे जनता के मुद्दे बन चुके है और महागठबंधन को इस आधार पर जीत मिलती है तो इसके बाद जनता का उत्साह और उनकी जनतांत्रिक पहलकदमी बढ़ेगी और उनकी उम्मीदें भी सातवें आसमान पर होंगी। लेकिन हम जानते हैं कि ये उम्मीदें फिर एक बार टूटेंगी। लेकिन, हमारे लिए इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि चुनावों के चंद महीनों के बाद ही जब जनता की उम्मीदें टूटेंगी, तो एक बार फिर से उनके निराशा को सही दिशा में ले जाने का कार्यभार कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के कंधों पर आएगा जिसे पूरा नहीं करने का अर्थ होगा फासीवादियों के लिए रास्ता छोड़ देना। इसका मतलब है कि चुनाव के खत्म होते ही कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ताकतों के लिए एक दूसरी परीक्षा की घड़ी शुरू हो जाएगी। हमारी शक्तियों का एक बार फिर से परीक्षण होगा।
जाहिर है हम पहली परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो पाए, क्योंकि हम चुनाव के बीच व्यापक स्तर पर एक क्रांतिकारी राजनीतिक विकल्प जनता के समक्ष प्रस्तुत नहीं कर पाए। सवाल है, क्या हम दूसरी परीक्षा के लिए तैयार हैं?

चुनावोपरांत राजनीतिक परिदश्य
हम पाते हैं कि महागठबंधन में शामिल होने वाले ‘वाम’ ने पहले दिन से ही महागठबंधन की कमान ही नहीं, अपनी स्वयं की स्वतंत्र राजनीतिक कमान भी राजद जैसी बुर्जुआ पार्टी और इसके नेता तेजस्वी यादव के हाथों में सौंप दी है। अब उनकी यह स्थिति भी नहीं रह गई है कि वो फासीवाद के बारे में स्वयं अपनी समझ को भी खुलकर जनता के बीच रख सकें। महागठबंधन की जीत के बाद की स्थिति इनकी राजनीति के लिए और भी बड़े संकट का कारण साबित होगी। सबसे बड़ा सवाल है कि फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में जो काम बचे रह जाएंगे, क्या ‘वाम’ उन्हें जनता के सामने रख पाएगा? उन्हें पता है कि अगर वे इस संदर्भ में गठबंधन की कमजोरियों व सीमाओं को सामने लाएंगे या रेखांकित भी करेंगे, तो गठबंधन में उनके अपने अस्तित्व का संकट खड़ा हो जा सकता है। उन्हें यह भी डर है कि अगर महागठबंधन को बिना वाम पार्टियों को शामिल किये ही सरकार बनाने लायक पर्याप्त सीटें मिल जाती हैं तो उनकी स्थिति और भी बदतर हो जाएगी और हो सकता है उनको सरकार में भी जगह ना मिले। लेकिन क्योंकि इस चुनाव में ‘वाम’ पार्टियां किसी क्रांतिकारी कार्यक्रम से लैस नहीं हैं, चाहें सीमित अर्थों में ही सही, इसलिए इन चीजों का डर उन्हें और भी ज्यादा सतायेगा। उन्हें लगेगा कि सरकार में शामिल होने का यह अवसर कहीं छूट नहीं जाए। इसीलिए हम पाते हैं जमीन पर केवल भाजपा-जदयू को हराने या फिर महागठबंधन को जिताने और तेजस्वी को अगला मुख्यमंत्री बनाने के ही नारे सुनाई देते हैं। लेकिन इसमें फासीवाद के खिलाफ कोई असली राजनीतिक या वैचारिक लड़ाई का कार्यक्रम कहीं नहीं दिखाई पड़ता है।
इस तरह हम पाते हैं कि बेहतरीन जमीनी परिस्थितियों के बावजूद, जबकि जनता के बीच भीषण गुस्सा और असंतोष उबल रहा है, समस्त वाम व कम्युनिस्ट क्रांतिकारी पार्टियों ने एकताबद्ध न होकर जनता के असंतोष को सही दिशा देने के काम को पूरी तरह छोड़ दिया है और अत्यंत कमजोर स्थितियों में बिखरे हुए कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठनों द्वारा जो भी क्रांतिकारी प्रचार किया जा रहा है उसकी पहुंच इतनी कम है कि उसका कोई असर जमीन पर हो नहीं पा रहा है। यहां तक कि जिन कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठनों ने चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारे हैं वो भी दक्षिणपंथी और संशोधनवादी भटकावों से ग्रसित हैं। उनके प्रचार सामग्री और भाषणों में यह साफ तौर पर दिख रहा है। हम अगले अंक में इस पर चर्चा भी करेंगे।
कुल मिलाकर, चुनाव के बाद जनता के बीच बढ़ती बेचैनी और उनकी जीवन-जीविका के लगातार छिनते जाने के फलस्वरूप जन आंदोलनों के आगे बढ़ने की एक और बेहतरीन जमीन तैयार हो रही है, क्योंकि एनडीए जीतता है या महागठबंधन, जनता की उम्मीदें पूरी नहीं होने वाली हैं। अधिकतर वादे जो किए जा रहे हैं, जैसे भुखमरी मिटा देने, काम की तलाश में मजदूरों के हो रहे पलायन पर रोक लगाने के लिए बिहार में फैक्टरियों का जाल बिछा देने, सभी सरकारी और अर्ध-सरकारी विभागों में रिक्त पदों को भरने और नई नौकरियां निर्मित करने, बेरोजगारी और बाढ़ की समस्याओं पर लगाम लगाने जैसे वायदे ऐसे वायदें हैं जिन्हें मुनाफे पर टिके इस संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था में पूरा करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। भारतीय पूंजीवाद के परिप्रेक्ष्य में देखें तो बिहार सस्ते श्रमिक के सप्लाई का एक अहम केंद्र है जहां से गुडगांव, पंचाब, गुजरात, बंगलोर, नॉएडा से लेकर देश के सभी बड़े औद्योगिक शहरों में सस्ते श्रम की पूर्ति की जाती है। इसलिए यह तो सिद्ध ही है कि ये वायदे न केवल खोखले हैं बल्कि झूठे और भ्रामक भी हैं। ये मोदी के ‘अच्छे दिन’ वाले वायदे से अलग नहीं हैं। इस तरह दोनों ही सूरतों में चुनाव के बाद बिहार में जनाक्रोश और आंदोलनों की एक और बड़ी लहर हमारा इंतजार कर रही है, क्योंकि इस चुनाव में पार्टियों ने जनता के मुद्दों पर वोट मांगे हैं। जब महागठबंधन की सरकार बनेगी, तो जनांदोलनों के आगे बढ़ने की संभावना तुलनात्मक रूप से निस्संदेह ज्यादा हैं, लेकिन एनडीए के जीतने के बाद भी लगभग यही स्थिति होगी। इसीलिए यह सवाल बार-बार उठता है और उठाया जाना भी चाहिए कि क्या हम फासीवाद के विरूद्ध एक क्रांतिकारी कार्यक्रम के आधार पर आम जनता तक एक क्रांतिकारी विकल्प ले जाने का कार्यभार चुनाव के बाद पूरा करने के लिए तैयार हैं? और क्या हम कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ताकतें चुनाव के बाद की परिस्थितियों के मद्देनजर बिहार में एक राजनीतिक हस्तक्षेप करने के लिए कमर कसने के लिए तैयार हैं?
चुनावोपरांत ‘वाम’ दलों के समक्ष प्रस्तुत होती विचित्र परिस्थिति पर एक नजर
अभी से कुछ लोग कहने लगे हैं कि अगर महागठबंधन की जीत होती है तो वाम पार्टियों को तेजस्वी सरकार में शामिल नहीं होना चाहिए, क्याोंकि इन्हें भी लगता है कि तेजस्वी सरकार चुनावी वायदे पूरा नहीं कर पाएगी और इसीलिए इसकी बदनामी ‘वाम’ वार्टियों पर भी आयेगी। सवाल है, अगर ये ‘वाम’ दल सरकार में शामिल नहीं होंगे, तो ये करेंगे भी क्या? खासकर जब स्वयं इनके पास कोई क्रांतिकारी राजनीतिक प्रोग्राम चुनावोपरांत लागू करने के लिए नहीं है। अगर मान भी लें कि ‘वाम’ सरकार में शामिल नहीं होता है, तो क्या स्वयं इनके नेतृत्व वाली जनता को यह मंजूर होगा, क्योंकि इन्होंने तो जनता को इसी के लिए तैयार किया है। जनता यह भी पूछेगी कि अगर सरकार में शामिल नहीं होना था, तो चुनाव पूर्व मोर्चा में शामिल ही क्यों हुए। जाहिर है जनता उन्हें ही दोष देगी। उनके सरकार में शामिल होने की उम्मीद और इनकी भागीदारी वाली सरकार से भलाई की उम्मीद, जनता को दोनों तरह की उम्मीदें हैं और यही उनके उत्साह का मुख्य कारण भी है। संशोधनवादी-अवसरवादी राजनीति भी इसी पर आधारित होती है। जाहिर है, अगर वे इससे पीछे हटते हैं तो जनता से किए गए वादों की पूर्ति नहीं होने का दोष जनता उन्हें ही देगी। वहीं, दूसरी तरफ, अगर वे सरकार में शामिल होते हैं और मंत्रिमंडल में जगह पाते हैं, लेकिन जैसा कि डर है, जनता से किये गए के वादों की पूर्ति तेजस्वी सरकार नहीं करती है, और मांगें पूरी नहीं होने पर ये ‘वाम’ दल चुप्पी साधते हैं तो भी जनता उन्हें माफ नहीं करेगी।
सवाल है, अगर जनता से किये गये वायदे तेजस्वी सरकार पूरे नहीं करती हैं, तो इनके पास आगे के लिए क्या रास्ता बचता है? जाहिर है, कुछ भी नहीं, क्योंकि इससे कोई और बेहतर कार्यक्रम इनके पास लागू करने के लिए है ही नहीं। क्या ये अपना चेहरा बचाने के लिए सरकार से बाहर आकर सरकार का विरोध करेंगे? ये सब फिलहाल भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इतना साफ है कि जिस तरीके से राजनीतिक अवसरवाद का परिचय देते हुए महज सीटों पर तोलमोल करते हुए इन्होंने गठबंधन में शामिल होना स्वीकार किया है उसका यही संभावित हस्र होना तय है। लेकिन क्रांतिकारी राजनीति का परित्याग करने के बाद इनके पास आखिर विकल्प भी क्या था या है? जो भी हो, इसका कुल असर समस्त वाम आंदोलन के लिए बहुत खराब होने वाला है, खासकर तब जब क्रांतिकारी वाम भी आगे बढ़कर आगामी दिनों में जनता तक क्रांतिकारी राजनीति नहीं ले जाते हैं। इसके बाद पूरा वाम खेमा, चाहे किसी भी रंग और विचारधारा का हो, इससे उत्पन्न निराशा की मार झेलेगा और लाल झंडे की चमक पहले की तुलना में थोड़ी और कम हो जाएगी। जाहिर है, इससे फासीवादी ताकतों के दुबारा और भी ज्यादा ताकत से उभरने का अवसर भी मिलेगा।
आज की स्थिति वही हो गई जो 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी के साथ हुई थी, जब जनता को इस बार की तरह ही बड़े-बड़ वायदों से ठगा गया था और अंत में एक भी वादा पूरा नहीं हुआ था। महागठबंधन और इसके नेता तेजस्वी उसी रास्ते पर बढ़ चुके हैं।
कम्युनिस्ट क्रांतिकारी खेमें के समक्ष चुनौती और आगामी कार्यभार
हमारा मानना है कि चुनाव के बाद क्रांतिकारी खेमे के सामने पहले से भी बड़ी चुनौती आने वाली है, लेकिन इससे क्रांतिकारी राजनीति को आगे बढ़ाने का सुयोग भी मिलेगा, बशर्ते वो इसे हाथ में लेने के लिए तैयार हों। चुनाव प्रचार के दौरान यह तथ्य पूरी तरह सामने आ चुका है कि जनता के बीच, खासकर युवाओं और मेहनतकशों के बीच असंतोष की एक व्यापक लहर, भले ही सीमित (बुर्जुआ) अर्थों में ही सही, मौजूद है और स्थाई रूप से संकटग्रस्त व्यवस्था को देखते हुए इसके और बढ़ने, और गहरा तथा व्यापक होने की संभावना है। यह भी सही है कि मौजूदा स्थिति में इस लहर का इस्तेमाल तेजस्वी यादव को बिहार की सत्ता तक पहुंचाने के लिए किया जा रहा है, लेकिन हम यह भी जानते हैं कि संकट और असंतोष घटने के बजाये और बढ़ेंगे।
हम अगर इसे एक पंक्ति में कहें तो महागठबंधन से जुड़ी लोगों की उम्मीद आधारहीन है, लेकिन लोगों की बेचैनी, गुस्सा और आक्रोश न तो झूठे हैं, और न ही आधारहीन। इसकी ताप हर कहीं महसूस की जा सकती है। ऐसे में, कम्युनिस्ट क्रांतिकारी खेमे के सामने सबसे प्रमुख कार्यभार है इसका सही से संज्ञान लेना, इसके महत्त्व को समझना और इसे एक जोरदार राजनीतिक जन आन्दोलन में तब्दील करना, जिसके आधार पर हम कुछ निर्णायक फैसलों वाले जनांदोलनों और क्रांतिकारी उभार की तरफ बढ़ सकते हैं, क्योंकि लगभग यही स्थिति पूरे देश भर में मौजूद है। सबसे मुख्य बात है कि जनता के किसी भी मुद्दे का समाधान स्थायी रूप से मौजूद और घोर आर्थिक संकट से ग्रस्त इस शोषणकारी और दमनकारी पूंजीवादी-फासीवादी व्यवस्था में संभव ही नहीं है, और इसीलिए जनता के समक्ष क्रांति की ओर उन्मुख होने के अलावा अंतत: और कोई विकल्प मौजूद नहीं है।
इसी के साथ जनता के जीवन में किसी भी तरह के बुनियादी सुधार के लिए भी कोई जगह नहीं बची है। इसलिए यह भी सत्य है कि तथाकथित वाम पार्टियों के लिए भी आगे का रास्ता बेहद संकुचित हो गया है और इनका कोई भविष्य नहीं है, जब तक कि वे क्रांतिकारी दिशा अख्तियार नहीं करती हैं, जिसकी संभावना न के बराबर है।
‘वाम’ के जनपक्षीय विकास के नारे में कितना दम है?
ये ‘वाम’ दल अक्सर मोदी के विकास के बरक्स जनपक्षीय विकास का नारा बुलंद करते रहे हैं। यह नारा स्वयं उनकी राजनीति का पर्दाफाश कर देता है और उनके झूठ को सामने ले आता है, क्योंकि इस व्यवस्था में जनता के विकास की बात करना बेमानी है। इसी से क्रांतिकारी राजनीति से विश्वासघात और उसके परित्याग के पुख्ता आधार की शुरूआत होती है। इस एकाधिकारवादी पूंजीवादी दौर में जनता के विकास की बात करना लफ्फाजी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। विकास हमेशा बड़ी पूंजी का या उसके पक्ष में ही होता है। पूंजीवाद में सबों के लिए विकास की अवधारणा एक धोखा है। पूंजीवाद में संकेन्द्रण और केन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत केवल पूंजी का ही विकास होता है जिसकी प्रक्रिया में बड़ी पूंजी द्वारा छोटी पूंजियों को निगलने की बात सिद्ध है। फासीवादी शासन के अंतर्गत यह प्रक्रिया और भी हिंसक गति से चलती है और लाखों गरीब लोगों का जीवन बर्बाद करते हुए आगे बढ़ती है। इसी के साथ एक बड़ी आबादी तेजी से कंगाली और गरीबी के गर्त में धंसती चली जाती है। और इसीलिए ऐसे में जनता पर बढ़ते हमले रूकेंगे नहीं बल्कि और बढ़ेंगे, सरकार चाहे जिसकी भी बनी हो। इस सच को उजागर करने की ताकत ‘वाम‘ में नहीं है, हम जानते हैं और इसीलिए हम यह कह रहे हैं कि इनकी राजनीति का स्थायी पूंजीवादी संकट के दौर में कोई भविष्य नहीं है। पूंजीवादी विकास की इसी प्रक्रिया को मार्क्स ने उजागर किया है, जिसके तहत सारी सामाजिक संपत्ति मुट्ठी भर हाथों में सिमटती जाती है और जिसका सीधा मतलब है कि बहुसंख्यक आबादी दिन प्रतिदिन कंगाल होती जाती है और उनका सर्वहाराकरण होता जाता है, और आज ठीक यही अत्यंत तीव्र और हिंसक तरीके से हो रहा है। क्या कोई सरकार पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के रहते इस प्रक्रिया को पलट सकती है? बिल्कूल नहीं। यह मार्क्सवाद का ककहरा है। यही कारण है कि आज ऐसा ही चित्र पूरे विश्व में देखने को मिल रहे है। कोविद का समय होते हुए भी पूरे विश्व भर में जनांदोलन बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। भारत में भी ऐसे जन आंदोलनों के उठने और उनके वर्ग संघर्ष में तब्दील होने के लिए जमीन तेजी से तैयार हो रही है और क्रांतिकारी उभार के लिए वस्तुगत स्थिति अनुकूल होती जा रही है। वहीं, दूसरी तरफ फासीवादी दमन भी बढ़ रहा है और जनतांत्रिक कानूनों और जनतांत्रिक अधिकारों पर चौतरफा हमला किया जा रहा है; जनतंत्र पर बेतहाशा हमले बढ़ रहे हैं; मजदूरों के अधिकार छीन कर उन्हें दुबारा से गुलाम बनाने की कोशिश हो रही है। पूरी आधुनिक मानव सभ्यता को बर्बर युग के तरफ धकेला जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही हम ये पाते हैं कि इससे लड़ने वाली ताकतें भी धीरे-धीरे जग रही हैं और आंखें खोलने लगी हैं। आने वाला दशक फासीवाद और उसके जनक पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के लिए एक मुश्किल दौर है क्योंकि अब मानवजाति के सामने जिंदगी और मौत का सवाल खड़ा हो रहा है और हम जानते हैं कि मानवजाति कभी भी अपने विरुद्ध फैसला नहीं करेगी। वो कभी इतिहास की अग्रसर गति के विपरीत फैसला नहीं लेगी चाहे जितना भी दमन क्यों ना हो। फासीवाद, जो हमारे सीने पर चढ़ बैठ कर हमारा दम घोंट रहा है, को उखाड़ फेकने के लिए मौजूदा जनाक्रोश को कई गुना और बढ़ना होगा जिसकी पूरी सम्भावना मौजूद है। आने वाले दशक में या तो हम बर्बरता के गर्त में जाएंगे, जहां मानव सभ्यता ही नहीं पूरी मानवजाति के ऊपर विनाश का खतरा मंडराने लगेगा या नहीं तो फासीवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की कब्र पर एक नए सुन्दर समाजवादी भविष्य का निर्माण होगा।

फासीवादी ताकतों की चुनाव में हार का फायदा
ऐतिहासिक तौर से हम फासीवाद के खिलाफ महान देशव्यापी वर्ग संघर्षों के आगमन के, अर्थात आर-पार के संघर्षों के दौर में प्रवेश कर चुके हैं या करने वाले हैं। आज जनता जिन समस्याओं और फासीवादी हमलों को झेल रही है, उसका आधार सड़ती हुई और संकटग्रस्त पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था है। इसलिए उनका समाधान भी साम्राज्यवाद तथा फासीवाद के जनक पूंजीवाद को उखाड़ फेंक कर ही प्राप्त किया जा सकता है। इसके बीच सरकारों की अदला-बदली एक क्षणिक राहत की बात होगी, इससे ज्यादा और कुछ नहीं। यह क्षणिक राहत भी हमारे लिए जरूरी है और हमे इसके लिए आगे बढ़ कर कुछ करना चाहिए और इसीलिए सभी प्रगतिशील जनवादी ताकतों का कर्त्तव्य बनता है कि वे चुनाव में और इसके साथ जहां कहीं भी संभव हो, फासीवादी ताकतों को पराजित करने का मौका मिले तो उसका इस्तेमाल करना चाहिए। हमें जनता के बीच से उनका नामोनिशान मिटा देना चाहिए।
लेकिन असली सवाल यह है कि यह क्षणिक राहत हमारे लिए कैसे और क्यों जरूरी है और इसका क्रांतिकारी शक्तियों के लिए क्या इस्तेमाल है? इसका जवाब है कि हमें चुनावों में सरकारों की अदला-बदली से फासीवादी हमलों से मिली क्षणिक राहत का इस्तेमाल अपनी ताकतों को लामबंद करने और सभी जन आन्दोलनों और जनता के बढ़े हुए हौसले और जनवादी भावना को क्रांतिकारी आन्दोलन के पास मौजूद सबसे दृढ़निश्चयी ताकतों का इस्तेमाल करके एक क्रांतिकारी दिशा दिखाने के लिए करना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसका कोई और महत्त्व नहीं है। फासीवादी सरकारों की चुनावों में हार के बाद अक्सर वस्तुस्थिति हमारे अनुकूल होती है, जनता का मनोबल ऊंचा होता है, राजनीतिक परिवेश का नैरेटिव भी एक हद तक बदलता है और सबसे बड़ी बात यह है कि फासीवादी ताकतों का मनोबल नीचे गिरता है, हालांकि वे और भी दुगने ताकत से प्रतिहमला करके स्थिति को पलटने की कोशिश करते हैं। फासीवादी गठबंधन की हार से मिली क्षणिक राहत हमें मौका देती है कि हम खुद को इस बीच तैयार कर पाएं और अपनी शक्तियों को संगठित कर पाएं। लेकिन इससे ज्यादा इसका और कुछ महत्व नहीं है।
अतः हमें फासीवाद को हराने की रणनीति में पहले से मौजूद दुविधा को दूर करना होगा और इसकी गलत दिशा को ठीक करना होगा। हमें पुरानी संसदीय वाम की रणनीति या कहें तो बुर्जुआ वर्ग के साथ मोर्चे में मजदूर वर्ग को उनका पिछलग्गू बनाने की रणनीति को उखाड़ फेकना होगा। अगर हमें मजबूरन विपक्षी बुर्जुआ खेमे के साथ गठबंधन बनाना भी पड़े, तो भी हमें जनता के बीच एक क्रांतिकारी वैकल्पिक कार्यक्रम ले जाने के तरीकों को तलाशना होगा। यह हो सकता है कि हमें किसी मोड़ पर ‘फासीवाद-विरोधी’ मोर्चे को बुर्जुआ वर्ग के साथ तालमेल में ले जाना पड़े, लेकिन तब भी हमें फासीवाद को हराने की क्रांतिकारी दिशा का परित्याग नहीं करना चाहिए। हम जानते हैं कि अगर हमें फासीवाद को हमेशा के लिए हराना है तो हमें एक नए समाज के निर्माण का यानी समाजवादी समाज के निर्माण का प्रश्न सामने लाना होगा, एक ऐसा समाज जहां जनता की मौजूदा समस्याओं का नामोनिशान नहीं होगा। अगर हम पूंजी की सर्वशक्तिमत्ता को, जो लोगों तक कोई राहत पहुंचने नहीं देती और जनतंत्र को भी पग-पग पर सीमित करती है, चुनौती नहीं देते और उसे उखाड़ फेंकने का आह्वान और उसकी जगह पर सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में सभी शोषित, उत्पीड़ित और वंचित तबकों और वर्गों का एक नया समाज नहीं खड़ा करते, तथा अगर हम इस ख्याल को जनता की कल्पनाओं में नहीं भरते और फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में इसे एक विकल्प की तरह नहीं पेश करते हैं, तब जाहिर है फासीवादी ताकतों के खिलाफ कोई मुकम्मल लड़ाई नहीं खड़ी की जा सकती है। और अंततः जनता इन सब से अर्थात महज सरकारों की बदला-बदली से ऊबते हुए हमसे भी एक दूरी बना लेगी, क्योंकि मौजूदा स्थिति में जहां विश्व पूंजीवाद को एक स्थायी संकट ने घेर लिया है, उनको कोई तत्काल राहत भी नहीं मिल सकती, चाहे सरकारों में परिवर्तन जितनी बार हो।
बड़ी पूंजी की लूट के खिलाफ एकताबद्ध वर्ग संघर्ष तेज करें
हालांकि इसे दोहराना ही कहेंगे, लेकिन इसे ज्यादा से ज्यादा रेखांकित किया जाना चाहिए कि चुनाव के पहले एक अनुकूल परिस्थिति थी और अब चुनाव के बाद भी एक और नई तथा अनुकूल व शानदार परिस्थिति हमारे सामने आने वाली है। और हमें इस परिस्थिति में तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए, चाहे चुनावी परिणाम जो भी हो, यानी चाहे महागठबंधन जीते या एनडीए सत्ता में आ जाए।
इस मूल्यांकन से सभी सहमत होंगे कि पूरे देश की जनता के बीच एक असंतोष और आक्रोश की भावना व्याप्त है, हालांकि यह बेचैनी बिहार में थोड़ी ज्यादा गहरी है क्योंकि यह मेहनतकशों, खासकर प्रवासी मजदूरों की धरती है जिसने सबसे ज्यादा मार झेली है। इसके बाद यहां सरकारों द्वारा जनता के दमन और सार्वजनिक सुविधाएं नष्ट करने का एक पुराना इतिहास रहा है। और आज तो स्थिति यह है कि नीतीश सरकार ने जनता की बेहतरी के लिए कुछ बुनियादी काम तो नहीं ही किया, उल्टे एक ऐसी राज्य मशीनरी खड़ी कर दी जो खुलेआम दमन और शोषण करती है। वे जनता के किसी प्रतिनिधि से नहीं मिलते। बिहार पुलिस जब सड़कों पर प्रदर्शनकारियों को मारने पर उतारू होती है तो औरतों और मर्दों में फर्क नहीं करती।
इस चुनाव में भाजपा का उद्देश्य भी ज्यादा से ज्यादा साफ और स्पष्ट हुआ है। वह बिहार में एकछत्र शासन कायम करने के रास्ते में आने वाली बाधाओं को खत्म करना और बिहार की राज्य मशीनरी के ऊपर पूरा और स्वतंत्र एकाधिकार स्थापित करना और उसके बाद बिहार को भी उत्तर प्रदेश जैसे अन्य भाजपा शासित प्रदेशों की तरह ही फासीवादियों के लिए शिकार का खुला मैदान बनाना चाहती है जहां सभी जनतांत्रिक आवाजों और मेहनतकश जनता को कुचल कर कॉर्पोरेट लूट को बेरोकटोक जारी रखा जा सके।
इसलिए मौजूदा बिहार चुनाव में फासीवादी एनडीए गठबंधन को हराना हमारा तात्कालिक कार्य है, लेकिन यह साथ ही साथ हमारे दीर्घकालिक कार्यभार से भी जुड़ा है जिसके तहत हमें बढ़ते जन आक्रोश के शीर्ष पर एक क्रांतिकारी शक्ति के रूप में सवार होना है, क्योंकि यह जनाक्रोश खत्म होने के बदले चुनाव के बाद जन आन्दोलनों की एक तेज लहर पैदा करेगा और उसे और आगे बढ़ाएगा चाहे कोई भी जीते या हारे। अब यह कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ताकतों का जिम्मा है कि हम एकताबद्ध हो कर आगामी दिनों में फूट पड़ने वाले जनांदोलनों को दिशा देने की शक्ति ग्रहण करें, ताकि हम आने वाले दशक को एक क्रांतिकारी उभार के दशक में तब्दील कर पाएं और इसे फासीवाद-पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई में बदल सकें।
फासीवाद का नाश हो! पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का नाश हो!
[यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 7 / नवंबर 2020) में छपा था]
Leave a Reply