शेखर //
पूंजीवादी-साम्राज्यवादी तथा फासीवादी लूट की व्यवस्था को खत्म करने के लिए समाजवाद के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ें!
[पिछले अंक से जारी]
बिहार चुनाव में अब एक महीने से भी कम का समय रह गया है। पहले दौर का नामांकन दो दिनों बाद शुरू होने वाला है। चुनावी पार्टियों के बीच आपसी गठबंधन व तालमेल के लिए बैठकों का दौर अब अंतिम चरण में है। हम पाते हैं कि पहले की तुलना में इस बार बुर्जुआ दलों से लेकर ‘लेफ्ट’ तक में मौजूद चुनावी अवसरवाद और अधिक खुलकर सामने आया है। क्रांतिकारी लेफ्ट खेमा भी इससे अछूता नहीं माना जा सकता है। वह भी क्रांतिकारी विकल्प की कोई एकताबद्ध आवाज बनने के लिए प्रयत्नशील है ऐसा कम से कम व्यवहार में नहीं दिखता है। यही कारण है कि अभी तक (इस चुनाव में या चुनाव के परे भी) क्रांतिकारी लेफ्ट ब्लॉक बनने की कोई संभावना नहीं दिख रही है, जबकि यह समय की सबसे बड़ मांग थी और है। हम यह भी देख पा रह हैं कि एक साथ जनांदोलन करने वाली लेफ्ट और क्रांतिकारी लेफ्ट पार्टियों व दलों की एकता चुनाव आते ही बिखर जाती है, जबकि फासीवाद के खतरे को देखते हुए सबसे पहले इन्हें ही अपने ब्लॉक को मजबूत करना चाहिए था। ऐसे में बिहार चुनाव में आम जनता के तात्कालिक व दूरगामी हक-हकूक के लिए उनकी वास्तविक एकता कायम करने, फासीवाद के खतरे को हमेशा के लिए खत्म करने के लिए जरूरी क्रांतिकारी विकल्प की राजनीति को आगे करने तथा जनता की शोषण व दमन से अंतिम व वास्तविक मुक्ति की आवाज को मजबूती से उठाये जाने के संयुक्त क्रांतिकारी कार्यभार को निस्संदेह काफी बड़ा धक्का पहुंचा है। इसकी काफी बड़ी कीमत आगे आंदोलन को चुकानी होगी यह तय है। चुनाव के दौरान इस काम को पूरा करने हेतु अगुवा की भूमिका निभाने की जिम्मेवारी निस्संदेह क्रांतिकारी ताकतों की थी, लेकिन वे इसमें पूरी तरह असफल हुई हैं। सांगठनिक कमजोरी एक कारण अवश्य है लेकिन इच्छा शक्ति का भी घोर अभाव दिखता है। स्थिति की गंभीरता इससे मापी जा सकती है कि दो-तीन ऐसी सीटें हैं जहां ‘लेफ्ट’ और क्रांतिकारी लेफ्ट ही नहीं, दो क्रांतिकारी लेफ्ट उम्मीदवार भी एक ही सीट पर खड़े पाये जाएंगे। अगर उनकी घोषित उम्मीदवारों की बात करें, तो यही जमीनी स्थिति है।
जहां तक आरजेडीनीत महागठबंधन और ‘लेफ्ट’ की बात है, तो फासीवाद के खतरे को देखते हुए इस महतवपूर्ण चुनाव में जिस अवसरवादी तरीके से ‘लेफ्ट’ ने आरजेडी के हाथों में चुनाव का नेतृत्व सौंप दिया है और ‘लेफ्ट’ राजनीति की स्वतंत्र कमान का पूरी तरह परित्याग कर दिया है, उससे अगर महागठबंधन की जीत भी होती है तब भी फासीवाद विरोधी संघर्ष आगे बढ़ेगा इसमें ‘लेफ्ट’ के समर्थकों और चेतनशील कैडरों को भी पूरा संदेह है। हम जानते हैं कि सरकार बदलने से आम मेहनतकश अवाम पर फासीवादी लूट-खसोट और जनवादी अधिकारों पर हो रहे प्राणांतक हमले के रूप में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी हमला रूकने वाला नहीं है। यही नहीं, बिहार में सरकार बदलने से जनांदोलनों पर भी अंतत: हमला रूकने वाला नही है। इसका परिणाम यह होगा कि सरकार बदलने के बाद भी जनता में तेजी से निराशा फैलेगी और कुल मिलाकर वास्तविक विकल्प के अभाव में फासीवाद के पुन: उभार की जमीन ज्यों की त्यों बनी रहेगी। सच्चाई यही है कि इसका एकमात्र जवाब पूंजीवादी लूट-खसोट की व्यवस्था को पलटने की क्रांतिकारी राजनीति ही हो सकती है जिसकी छाया से भी ‘लेफ्ट’ ने इस बार कन्नी काट ली है। ऐसे में चुनावोपरांत ‘लेफ्ट’ की स्थिति और भी दयनीय हो जाने वाली है, क्योंकि जैसा कि ऊपर कहा गया है, अंतत: इस गठबंधन की जीत से भी जनता और कैडर दोनों के बीच बद से बदतर होते जा रहे जीवन के हालात को लेकर निराशा खत्म नहीं होगी, अपितु इसकेविपरीत और बढ़ेगी।
वहीं, जो हालात हैं, चुनाव में महागठबंधन की हार से चुनाव के बाद बिहार ‘लेफ्ट’ में भगदड़ मच सकती है। एक तरफ, ‘लेफ्ट’ क्रांतिकारी दिशा लेगा नहीं, और, दूसरी तरफ बुर्जुआ गठबंधन में बची-खुची प्रतिष्ठा भी चली गई। अकेले चुनाव लड़ने से और भी बुरी स्थिति में चले जाने का खतरा नेताओं को सता रहा है। तो ऐसे में कैडरों, खासकर युवा कैडरों के पास क्या रास्ता बचता है? पूंजीवादी शोषण की व्यवस्था को पलटने की क्रांतिकारी राजनीति और उसके लिए जनांदोलन निर्मित करने की एक समग्र दिशा के अभाव में ‘लेफ्ट’ राजनीति में कैरियर तलाशते छात्रों व युवाओं को जब कुछ नहीं दिखेगा तो वे दक्षिणपंथ की ओर और भी तेजी से जाएंगे। मेहनतकशों के बीच भी जनाधार और सिमटेगा। इससे ‘लेफ्ट’ बच नहीं सकेगा। अभी ही इसके संकेत मिलने लगे हैं। महज सीटों के लिए तालमेल की अवसरवादी राजनीति के आम माहौल का ही यह नतीजा है कि सीपीआई से जुड़े बिहार एआईएसएफ ने अपने लिए सीटों की मांग करते हुए पार्टी और महागठबंधन दोनों से बगावत कर दी है और डेढ़ दर्जन सीटों पर अपने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी है। यहां यह साफ है कि एआईएसएफ ‘क्रांतिकारी दिशा’ के लिए नहीं या ‘लेफ्ट’ की (बुर्जुआ वर्ग तथा उसके दलों के समक्ष) आत्मसमर्पणवादी लाईन को ठीक करने की मांग पर आधारित हो नहीं, सीटों की राजनीति को ही और आगे बढ़ाने की राजनीति पर आधारित हो बगावत पर उतर आया है। इसका मतलब साफ है, एआईएसएफ की यह लड़ाई वर्तमान समर्पणवादी ‘लेफ्ट’ का ही विस्तार और उसकी स्वाभाविक परिणति है। जाहिर है, यह और अधिक दक्षिणपंथ की तरफ होने वाला शिफ्ट है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, यह विस्मयकारी तो कतई नहीं है। सीटें जीतने और बुर्जुआ वर्ग की पार्टियों के साथ तालमेल करने के लिए स्वतंत्र व क्रांतिकारी लेफ्ट लाईन की राजनीतिक कमान का पूरी तरह पूरी तरह परित्याग कर चुके और अवसरवादी चुनावी राजनीति में आकंठ डूबे ‘लेफ्ट’ के प्रभामंडल में पले-बढ़े युवा आखिर इस राजनीति को ही तो आगे बढ़ायेंगे! हालांकि आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि दक्षिणपंथ की तरफ का यह शिफ्ट कितना है, कितने कोण पर हुआ है और एआईएसएफ को चुनाव लड़ने के लिए जरूरी खर्च के लिए पैसा कौन मुहैया करा रहा है!!
बिहार में मूलत: जाति पर आधारित छोटे बुर्जुआ चुनावी दलों की तादाद भी काफी है। इनमें सिद्धांतविहीनता और अवसरवाद कूट-कूट कर भरे हैं। ये चुनाव में वोट के लिए जाति और पैसे से जनता की चेतना को सीमित और भ्रष्ट करते हैं। चुनाव के समय जनता के वोट झटकने के लिए बीच हर तरह की कुसंस्कृति फैलाने में ये बड़ी बुर्जुआ पार्टियां से किसी भी तरह से पीछे नहीं हैं। इसके विपरीत यह कहना ज्यादा सही होगा कि स्थानीय तौर पर ये ही हर तरह की कुसंस्कृति के मुख्य स्रोत हैं। वोट पाने के लिए इनके नेता किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार रहते हैं। बड़ी पार्टियों के साथ तालमेल में ये अपने इन्हीं ‘गुणों’ को सामने रख कर मोलभाव करते हैं। बड़ी पार्टियों के किसी न किसी गठबंधन में शामिल होना इनकी मजबूरी है, क्योंकि अकेले ये सत्ता के दरवाजे तक नहीं पहुंच सकते हैं और बिना सत्ता के नजदीक रहे इनकी जनता के बीच कोई राजनीतिक हैसियत नहीं होती। सत्ता का सानिध्य ही इनकी कूल पूंजी होती है। इसीलिए सीट और सत्ता में हिस्सेदारी के अतिरिक्त इनके नेता किसी किसी और चीज से संचालित या आकर्षित नहीं नहीं होते। इन्हें न तो फासीवाद के खतरे से और न ही जनता के तीव्र होते शोषण से कोई मतलब है। इनके द्वारा चुनाव में खर्च करने की क्षमता भी काफी है और यह कोई सामान्य बात नहीं है। ये इतना पैसा कहां से लाते हैं यह एक शोध का विषय है।
इस बार जहां राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस वाले गठबंधन में सीपीआई, सीपीआई (एम) तथा सीपीआई (एमएल) लिबरेशन अलग-अलग तौर पर शामिल हुई हैं और इनके बीच सीटों का समझौता भी हो चुका है तथा जाहिर है चुनाव जीतने पर ये सरकार में भी शामिल होंगी, वहीं लोजपा और जेडीयू के बीच के तीखे मनमुटाव से एनडीए में टूट हो चुकी है। अतिरिक्त दिलचस्पी की बात यह है कि एनडीए में टूट के बावजूद लोजपा और भाजपा की नजदीकियां काफी बढ़ गई हैं। लोजपा ने ‘भाजपा से बैर नहीं, जेडीयू की खैर नहीं’ के नारे के साथ जेडीयू के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा कर दी है। लोजपा ने यह भी खुलेआम कहना शुरू कर दिया है कि चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व में भाजपा-लोजपा की सरकार बनेगी। स्पष्ट है कि लोजपा के इस पैतरे के पीछे भाजपा खड़ी है। नीतीश कुमार को बड़े भाई के रूप में स्वीकारना भाजपा की फिलहाल मजबूरी जरूर है, लेकिन वह जल्द ही लोजपा के हथियार से इस मजबूरी से निजात पाना चाहती है। नीतीश कुमार भी इसे बखूबी समझते हैं, लेकिन कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। अकेले-अकेले न तो फिलहाल जेडीयू को और न ही भाजपा को जीतने की उम्मीद है। लोजपा प्रकरण ने बिहार में चुनावोपरांत दिलचस्पी को काफी बढ़ा दिया है।
इन दो गठबंधनों के अतिरिक्त छोटे दलों (जैसे पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी, चंद्रशेखर रावण की आजाद समाज पार्टी, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, बसपा तथा अन्य कुछ दल) के भी दो अलग गठबंधन अस्तित्व में आ चुके हैं। ये दल भले ही छोटे हैं और सीटें जीतने की दृष्टि से इनकी स्वतंत्र हैसियत व शक्ति अत्यंत सीमित या नगण्य है, लकिन इनके मंसूबे काफी बड़े हैं। ये गठबंधन में शामिल होने के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें मांगने के लिए जाने जाते हैं। आम तौर पर इनका इरादा गठबंधन में मोलभाव कर के ज्यादा सीटें हासिल करना और फिर गठबंधन की ताकत के बल पर ‘अच्छी संख्या’ में सीटें जीत कर ‘किंग मेकर’ बनने का रहता है। ये कम से कम इतनी सीटें जरूर चाहते हैं ताकि ये बिकने योग्य हो जाएं। इसके अलावा इनकी कोई भूमिका नहीं है। लेकिन दोनों गठबंधनों ने इस बार इन्हें दरकिनार कर रखा है। इन्हें किसी ओर से कोई तवज्जो नहीं मिला। इस बार दोनों गठबधनों की रणनीति इनके द्वारा अपने विरोधी का वोट कटवाने की है, यह साफ दिखता है। अगर ये अपने दम पर कुछ सीटें जीत लेते हैं और त्रिशंकु विधान सभा की स्थिति बन जाए, तो इनकी कीमत काफी बढ़ जाएगी। हांलाकि अनुमान यही है कि दो-चार सीटों को छोड़कर इनके जीतने की संभावना नहीं है। लेकिन यह सच्चाई है कि ये छोटे-छोटे दल आपस में मिल कर दोनों मुख्य गठबंधनों के कुछ महत्वपूर्ण वोट काटने और उनका खेल बिगाड़ने की क्षमता जरूर रखते हैं। इनके अलावे इस बार दो या तीन दल ऐसे भी हैं (जैसे ‘वीआईपी’ और ‘हम’) जिन्हें बीते कल तक एनडीए या राजद गठबंधन में ‘सम्मानजनक’ सीटें मिलने की उम्मीद थी जो अब टूट चुकी है और वे दोनों गठबंधनों से बाहर भी हो चुके हैं। उन्हें यह तय करना बाकी है कि वे अब क्या करेंगे।
क्या क्रांतिकारियों को सिर्फ किसी को जिताने या हराने का आह्वान करना चाहिए?
‘वोट’ हमारा एक महत्वपूर्ण अधिकार ही नहीं, जनविरोधी व दमनकारी सरकारों को सबक सिखाने का हथियार भी है और इसका इस्तेमाल इस चुनाव में जरूर करना चाहिए और लड़कर करना चाहिए। इस नाते घोर जनविरोधी और दमनकारी भाजपा-जेडीयू सरकार के खिलाफ वोट देने की अपील हमें करनी भी चाहिए। यहां तक तो ठीक है, लेकिन क्या हमें यहीं तक हमें अपने को सीमित कर लेना चाहिए? यह विशुद्ध रूप से बुर्जुआ वर्ग के समक्ष आत्मसमर्पण की लाईन है। हमें फासिस्ट ताकतों की चुनाव में हार सुनिश्चित करने के अलावा इस पर भी विचार करना होगा कि क्या विपक्षी बुर्जुआ दलों को सरकार में बिठा देने से फासीवाद की पराजय हो जाएगी? अब तक सरकार बनाने या बदलने से आम जनता का कुछ भला नहीं हुआ, तो क्या इस बार चुनाव के जरिये फासीवाद से मुक्ति हो जाएगी? नई सरकार क्या बड़े पूंजीपतियों और जमींदारों की मददगार नहीं होगी? अगर होगी, तो फासीवाद की पराजय इनके सत्ता में बैठने से कैसे होगी? यही नहीं, हमें यह सोचना होगा कि मेहनतकशों के वोट से ही सरकार बनती या हटती है, क्योंकि मेहनतकशों की संख्या ही सबसे अधिक हैं, लेकिन इसके बावजूद पूंजीपति मालामाल और मेहनतकश जन साधारण कंगाल क्यों होते जा रहे हैं। हमें इसका उत्तर चाहिए कि अपनी मेहनत से हम सब कुछ बनाते हैं, और वोट देकर सरकार भी हम ही चुनते हैं, फिर भी हमारी जिंदगी इतनी तबाह और बर्बाद क्यों है? क्या हमें यहां साफ नहीं दिखता है कि जनता की क्रांतिकारी क्रियाशीलता ही आज पूंजीवादी तथा फासीवादी लूट-खसोट से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है?
पूंजीपति वर्ग है श्रम के फल को लूटने वाला, समाज को इससे मुक्ति चाहिए
हमारी मेहनत की कमाई पूंजीपति हड़प लेते हैं। सरकार भी उन्हीं का साथ देती है, क्योंकि जिस व्यवस्था में यह सरकार है पूंजीपति वर्ग की है। पिछले 70 सालों से यही कहानी दुहरायी जा रही है। हमारे खून-पसीने से पैदा की गई पूंजी चंद हाथों में सिमट जाती है और मेहनतकश वर्ग यूं ही गरीब से और गरीब बनता जाता है। हम पाते हैं कि सर्वहाराओं (अपनी श्रमशक्ति बेचकर जीविका चलाने वालों) की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है, क्योंकि छोटी पूंजी वाले उजड़कर मजदूर बन रहे हैं। पूंजीवादी विकास का यह नियम ही है कि उत्पादन के साधनों के छोटे मालिकों को बड़े पूंजीपति निगल जाते हैं। पूंजीवादी विकास जितना अधिक होगा, निगलने की यह प्रक्रिया उतनी ही तेज होती है। इसका ही परिणाम है कि समाज के एक छोटे से छोर पर (पूंजीपतियों के हाथों) धन जमा होता जाता है और बाकी छोर पर (आम जनता के बीच) कंगाली का साम्राज्य बनता जाता है। सबों के लिए विकास की बात पूंजीवाद में एक छलावा है। संसदीय लेफ्ट जब पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही मोदी के विकास मोडल के समक्ष जनपक्षीय विकास की अवधारणा या नारा पेश करता है तो जैसे मोदी का विकास मोडल जनता के लिए धोखा है वैसे ही ‘लेफ्ट’ का जनपक्षीय विकास का नारा भी एक धोखा है जिसका मतलब जनता को यह समझाना है कि पूजीवाद के रहते भी जनता का विकास हो सकता है और इसीलिए पूंजीपतियों की व्यवस्था को पलटने की जरूरत नहीं है। यह सरासर जनता को धोखा देना है। सब के लिए विकास तब तक नहीं होगा, जब तक कि सामाजिक उत्पादन पर सामाजिक मालिकाना नहीं कायम होगा। निजी मुनाफा और निजी संपत्ति का लक्ष्य त्यागे बिना सबों के लिए विकास की दिशा में बढ़ना संभव ही नहीं है। जाहिर है, आम जनता की मुक्ति और उसकी जिंदगी की बेहतरी के लिए वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को पहले पलटना जरूरी है। इससे इनकार करना लेफ्ट की वैचारिक दरिद्रता कम गद्दारी ज्यादा है। अनुभव से भी हम यही देखते हैं। चुनाव में जनता वोट देते-देते थक चुकी है, लेकिन उसकी जिंदगी में सुधार नहीं हो रहा है। एक ‘मदारी’ की पोल खुल जाती है, तो कोई नया ‘मदारी’ आता है। समझने की बात यह है कि ‘लेफ्ट’ भी जनता के समक्ष एक मदारी की तरह ही पेश आता है और जनता से यह महत्वपूर्ण सच छिपा लेता है कि जनता की मुक्ति पूंजीवाद के रहते संभव नहीं है। किसी तरह का जनपक्षीय विकास संभव नहीं है, चाहे ‘लेफ्ट’ ही क्यों न सरकार में बैठ जाए। हर बार हम इस उम्मीद में बढ़-चढ़ कर इन सबके खेल में शामिल हो जाते (वोट देते) हैं, यह सोंचते हैं कि शायद इस बार हमारे जीवन में कुछ बदलाव आयेगा। केरल, बंगाल आदि का उदाहरण हमारे सामने है। क्या वहां ‘लेफ्ट’ की सरकार बनने से पूंजीवादी शोषण खत्म हो गया था या हो गया है? सच्चाई सभी को पता है।
याद कीजिए, नरेंद्र मोदी ने 2014 और फिर 2019 में कितने लुभावने वायदे किये थे! लगता था कि इस बार गरीबों का सारा दुख सच में दूर हो जाएगा। लेकिन जो हुआ या हो रहा है वह हम सबके सामने है। जहां अंबानी-अदानी जैसे बड़े पूंजीपतियों की संपत्ति दोगुनी-तिगुनी गति से बढ़ी, वहीं जनता की स्थिति पहले से भी खराब हो गई। रोजगार ही नहीं, हमारे अधिकार भी छीनते चले जा रहे हैं। वोट का अधिकार भी महफूज रहेगा या नहीं कहा नहीं जा सकता। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण है बड़े पूंजीपतियों के मुनाफा का पहिया आर्थिक संकट के दलदल में बुरी तरह फंस जाना और रूक जाना जिसके कारण बड़ा पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग पर टूट पड़ा है और तमाम सरकारें हमारे पक्ष में नहीं उनके पक्ष में खड़ी हैं। आखिर मजदूरों के श्रम की लूट से ही तो पूंजीपतियों की पूंजी का भंडार बनता है। यही नहीं, बीच के सभी वर्गों (जैसे निम्नपूंजीपति वर्ग, छोटे-मंझोले किसान वर्ग, शहरी मध्य और निम्न मध्य वर्ग और छोटे-मंझोले कारोबारी वर्ग आदि) का अस्तित्व भी संकट में है। मोदी सरकार के नये कृषि सुधार बिल से कृषि क्षेत्र पर भी कॉरपोरेट का संपूर्ण वर्चस्व कायम हो जाएगा। मोदी सरकार और भाजपा गठबंधन वाली तमाम राज्य सरकारें पूंजीपति वर्ग की तरफ से मजबूती से खड़ी हैं और पूंजपतियों की इस लूट को सुनिश्चित करने के लिए विरोध में उठने वाली हर आवाज को किसी ने किसी साजिश के जरिये दबाने में लगी हैं।
पिछले 70 सालों के अनुभव क्या कहते हैं?
पिछले 70 सालों के अनुभव के आधार पर हमारा साफ मत है कि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को जड़मूल से खत्म किये बिना आम जनता और खासकर मजदूर-मेहनतकश वर्ग की शोषण से मुक्ति और उसकी जिंदगी में सुधार असंभव है। उसकी जिंदगी में सुधार का और कोई दूसरा विकल्प या रास्ता नहीं है। जैसे-जैसे संकट गहरा और स्थाई होता गया है, सुधार की गुंजाइश भी उसी तेजी से खत्म होती गई है। आज जब संकट अत्यंत तीखा, गहरा और चिरस्थाई हो चुका है, सरकार बदलने से होने वोले सुधार की उम्मीद पूरी तरह खत्म हो चुकी है। ऐसे में, ‘लेफ्ट’ की सुधारवादी-अवसरवादी राजनीति के लिए स्पेस का स्वाभाविक रूप से अंत हो चुका है। उसके लिए अब कोई स्पेस नहीं बचा है। अब क्रांतिकारी दिशा ही लेफ्ट राजनीति की एकमात्र दिशा हो सकती है।
बिहार की स्थिति लगातार बद से बदतर हुई है
बिहार चुनाव हो या केंद्र का चुनाव हो, सभी पार्टियों की सरकार को जनता देख ही नहीं, भुगत भी चुकी है। आज की विपक्षी पार्टियां कल सत्ता में थीं और आज की सत्ताधारी पार्टी विपक्ष में। इन सभी के शासन में कोई विशेष अंतर कभी नहीं रहा है। एक-दूसरे का विरोध करने वाली ये सभी पार्टियां पूंजीपतियों व जमींदारों व कुलकों की सेवा करने वाली पार्टियां ही हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो अब तक सिर्फ पूंजीपति वर्ग का विकास क्यों हुआ? दलितों और पिछड़ों के वोट बैंक पर राज करने वाली तमाम पार्टियां भी इसकी अपवाद नहीं हैं। कोई जीते-हारे, ज्यादा कुछ का फर्क नहीं पड़ने वाला है। यह पहले भी सच था और आज की परिस्थिति में तो यह और भी सच है।
बिहार में पिछले पंद्रह सालों से नीतीश कुमार के नेतृत्व में भाजपानीत गठबंधन की ‘डबल इंजन’ वाली सरकार है। यह सरकार ‘डबल’ जनविरोधी भी है। हत्या, बलात्कार, पुलिस दमन, भ्रष्टाचार आम बात है। बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी इन पंद्रह सालों में बढ़ती ही गई है। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सुरक्षा, भ्रष्टाचार नियंत्रण तथा कोरोना महामारी से बचाव तथा निपटने में नीतीश सरकार पूरी तरह फिसड्डी साबित हुई है। राशन कार्ड तक सबको नहीं दे सकी। कोरोना महामारी में गंभीर रूप से बीमार लोगों की दुगर्ति की कोई सीमा नहीं है। सरकारी अस्पतालों की नारकीय स्थिति और निजी अस्पतालों में इलाज के नाम लुटपाट को देखते हुए मध्य वर्ग के लोग भी काफी डरे हुए हैं। जिस भी राज्य में भाजपा की सरकार है, वहां की स्थिति और ज्यादा खराब है। उत्तरप्रदेश इसका सबसे सटीक उदाहरण है। पूरी तरह जघन्य बलात्कार, हत्या और लूटपाट वाला राज्य वहां कायम हो चुका है। बलात्कार पीड़िता को न सिर्फ मार दिया जाता है बल्कि उसके शव को भी परिवार को नहीं सौंपा जाता है। पुलिस स्वयं उसे पेट्रोल डालकर आधी रात जला देती है। उसके परिवार को ही घर में कैद कर के नजरबंद कर दिया जाता है। पूंजीवादी संविधान और कानून की धज्जियां उड़ रही हैं। युवाओं की हालत यह हो गई है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल अभ्यर्थियों को भी पांच सालों तक संविदा पर काम करना होगा और हर छ: महीने में हुए मूल्यांकन के आधार पर नौकरी पक्की होगी या नहीं होगी। वहीं, असंतोष को दबाने हेतु सरकार बिना कोर्ट वारंट के किसी को भी गिरफ्तार करने वाला स्पेशल पुलिस बल बनाया जा रहा है।
आर्थिक संकट की तबाही और पूंजीवादी व्यवस्था
पूंजीवाद में आर्थिक संकट से बचा नहीं जा सकता है। यह पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का अवश्यंभावी परिणाम है, क्योंकि यह व्यवस्था मुनाफा केंद्रित है। इसमें उत्पादन का लक्ष्य लोगों की जरूरतें पूरी करना नहीं, मुनाफा और पूंजी का विस्तार करना होता है। जब पूंजीवादी आर्थिक संकट गहराता है, तो पूंजीपति वर्ग के मुनाफा और पूंजी संचय पर बड़ा संकट खड़ा हो जाता है। और अगर संकट ढांचागत और स्थाई हो, जैसा कि वर्तमान संकट है, तो पूंजीपति वर्ग की लूट असाधारण रूप से तेज और भयानक हो जाती है। आज केंद्र में मोदी सरकार या विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जो घोर जनविरोधी तथा मजदूर विरोधी नीतियां लागू की जा रही हैं वे इसी स्थाई आर्थिक संकट की उपज हैं। ऐसी स्थिति में पूंजीपति वर्ग में जो सबसे बड़े पूंजीपति हैं, यानी, बड़े पूंजीपति व कॉरपोरेट पूरी तरह हावी हो जाते हैं और मजदूरों की श्रम के अतिरिक्त छोटे पूंजीपतियों को भी गटकने लगते हैं। आज संकट की तीव्रता यहां पहुंच चुकी है जिसके वापस पटरी पर लौटने की उम्मीद खत्म हो चुकी है। इस अर्थ में पूंजीवाद का यह विनाश काल जो चल रहा है।
याद कीजिए, कॉरपोरेट ने क्यों 2014 में मोदी को ‘देश का उद्धारक’ बताकर केंद्र की सत्ता में बैठाया था। तब से देश में क्या हुआ है और क्या हो रहा है उस पर गौर करिये। मोदी सरकार की सहायता से मुट्ठी भर कॉरपोरेट पूंजीपति आकाश से लेकर पाताल तक सभी चीजों पर कब्जा कर रहे हैं और मेहनतकश आबादी के खून-पसीने का कतरा-कतरा चूसने में लगें है। देश की समस्त संपदा को वे अपने एकाधिकार में लेते जा रहे हैं जिसका मतलब है छोटी पूंजी वाले भी लूटे जा रहे हैं। खेत, खनिज, पानी, जंगल, पहाड़, खदान, एयरपोर्ट, हवाई सेवा, टेलिफोन सेवा, हथियार उद्योग, रेलवे, बैंक, बीमा, स्टील उद्योग, पेट्रौल व डीजल कंपनियां, खाद्यान, शिक्षण व शोध संस्थान, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल व पूरा स्वास्थ्य क्षेत्र .. अर्थात देश में आज जो कुछ भी पब्लिक, प्राकृतिक या निजी बहुमूल्य संपत्ति है उस पर वे कब्जा कर रहे हैं और सरकार विरोध की हर आवाज को कुचलने में लगी है। लूट के इस तांडव में ‘जनतंत्र’, संविधान और न्याय सब कुछ खतरे में है। विरोध करने वालों के खिलाफ साजिशों और षडयंत्रों का एक महाजाल बिछाया जा रहा है, जिसको देखते हए भी न्यायालय भी चुप है।
विपक्षी बुर्जुआ दल और भाजपा में कितना अंतर
सवाल यह है कि विपक्षी बुर्जुआ पार्टियों और भाजपा में अंतर क्या है? और किस हद तक कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों पर फासीवादी शासन के विरुद्ध लड़ाई में जनता भरोसा कर सकती है? आज कांग्रेस मोदी सरकार की फासीवादी नीतियों की आलोचना कर रही है। लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों की आर्थिक नीतियां कॉरपोरेटपक्षी हैं इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं होना चाहिए। यही हाल या इससे भी बुरा हाल मोदी विरोधी क्षेत्रीय दलों की भी है जो सबसे अधिक अवसरवादी, भ्रष्ट और सिद्धांतविहीन हैं। नैतिकता तो इनमें हैं ही नहीं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस ही 1991 में नई आर्थिक नीति के माध्यम से उदारवाद, निजीकरण और भूमंडलीकरण तथा श्रम कानूनों एवं अन्य जनपक्षी कानूनों को खत्म करने की नीतियां लेकर आई थी। मोदी सरकार के आज के घोर जनविरोधी कारनामें कांग्रेसी शासन के कुकृत्यों के ही तो विस्तारित रूप हैं। आज भी आर्थिक नीतियों के प्रश्न पर कांग्रेस मोदी सरकार के साथ खड़ी है। सवाल है, तो फिर कॉरपोरोट पूंजीपति वर्ग ने मोदी को समर्थन क्यों दिया? वे कांग्रेस को हटाने की मुहिम में शामिल हो भाजपा को शासन में लेकर क्यों आये? इसका कारण समझना कठिन नहीं है। बुरी तरह संकटग्रस्त कॉरपोरेट और पूंजीपति वर्ग एक ऐसी निरंकुश सरकार चाहता था और चाहता है जो खुलकर देश की संपदा और मजदूरों के श्रम को लूटने में उसे मदद करे और जनता के विरोध को किसी भी हद तक जाकर या किसी भी तरह के हथकंडे अपनाकर दबाने या भटकाने में माहिर हो। मोदी ने गुजरात में 2002 में मुस्लिमों के विरूद्ध जनसंहार कराकर और हिंदू-हृदय सम्राट बन कर यह दिखा दिया था कि वे जनता को लगातार हिंदू-मुस्लिम की राजनीति और संकीर्ण राष्ट्रवाद में उलझा कर आर्थिक संकट की घड़ी में पूंजीपति वर्ग की सफलतापूर्वक मदद कर सकते हैं। कांग्रेस की छवि उसके लंबे जनविरोधी शासन काल और सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने की वजह से इसके विपरीत थी। वहीं, कांग्रेस में गांधी परिवार से अलग कोई ऐसा कद्दावर नेता भी नहीं था या है जो जनता के हितों पर हमला करके भी मोदी की तरह लोकप्रिय बना रहे ताकि पूंजीपतियों की सत्ता अक्षुण्ण बना रह सके।
जनता और जनतंत्र पर हमला जारी रहेगा
पिछले छ: सालों में हम पाते हैं कि मोदी ने ‘जादुई’ तरीके से वह सब कुछ कर दिखाया जिसकी कॉरपोरेट पूंजीपतियों को सख्त जरूरत थी। ‘जनतंत्र’ और संविधान तथा ‘स्वतंत्र’ न्यायपालिका का टैग हटाये बिना ही ‘आजादी’ के बाद स्थापित पूंजीवादी जनतांत्रिक राज्य की तमाम संस्थाओं पर अंदर ही अंदर कब्जा करके बड़ी सफलता से मोदी ने हिंदू-राष्ट्र के नाम पर भारतीय विशेषता वाले फासीवादी शासन को सुदृढ़ कर दिया। जनवादी अधिकारों को कुचलने की मुहिम तेजी से कामयाब हो रही है। इस तरह राज्यतंत्र, कॉरपोरेट तथा शातिर फासिस्ट गिरोहों के आपसी संलयन के आधार पर धीरे-धीरे जनतंत्र की कब्र खोद दी गई, लेकिन उसके ऊपर पड़ी जनतंत्र की चादर रहने दी गई। संसद तथा ऐसी अन्य संस्थाओं के होने या न होने के बीच के फर्क को ही मोदी ने मिटा दिया। राज्य सभा में कृषि सुधार बिल जिस तरह जबर्दस्ती पारित हुए, वह इस बात का सबसे ताजा पुख्ता उदाहरण व सबूत है। न्यायालय का भी उसी खूबी से इस्तेमाल किया गया।
कोरोना महामारी ने पहले से सुस्त पड़ी संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। जिस तरह से इसका सारा बोझ गरीब जनता पर डाल दिया गया उससे जनविद्रोह हो सकता था, लेकिन मोदी ने बड़ी सफलता से अपनी हिंदू-मुस्लिम घृणा की सांप्रदायिक रणनीति, जिसकी गिरफ्त में पूरा देश आ चुका है, के बल पर बड़े कॉरपोरेट के पक्ष में ‘इस आपदा को अवसर’ में बदल दिया। हम यह भी देखते हैं कि मौजूदा आर्थिक संकट स्थाई है और जल्द जाने वाला नहीं है। इसलिए फासिस्ट लूट का यह दौर जारी रहेगा जिसकी आंच में मजदूर वर्ग से लेकर मध्यवर्ग तक में जल्द ही एक बड़ी तबाही का मंजर आने वाला है। मजदूर-मेहनतकश वर्ग के बीच बेरोजगारी और भुखमरी के और भी बुरे हालात तेजी से बनेंगे। विरोध को दबाने के लिए मोदी सरकार जनवादी अधिकारों पर हमला और तेज करेगी। मजदूर वर्ग द्वारा पलटवार करने पर फासिस्ट संसद और संविधान को अपने हाथ में ले सकते हैं, जिसकी बानगी कृषि सुधार बिल पारित कराने के वक्त राज्य सभा में दिखाई दी। वैसे मजदूर वर्ग के विरोध को दबाने में और मजदूर वर्ग द्वारा विद्रोही तेवर दिखाते ही उसके साथ खून की होली खेलने में भी किसी भी दल को कोई गुरेज नहीं है।
जनता के विरोध विरोध को दबाने का इनका जांचा-परखा हथियार हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, चीन-कश्मीर-पाकिस्तान और अंधराष्ट्रवाद की विषैली राजनीति है। इसमें वे देश को पहले ही बुरी तरह उलझा चुके हैं और आज भी मीडिया इस काम में पूरी शिद्दत से लगा हुआ है। यह दौर इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से बहुत ज्यादा खतरनाक है। इसे पलटना आसान नहीं है, क्योंकि इसके पीछे एक घोर प्रतिक्रियावादी व सांप्रदायिक जनांदोलन तथा राष्ट्रवाद का एक ऐसा उफान है जो आम लोगों की तर्क बुद्धि को नष्ट कर दे रहा है जिससे जनता अपना हित-अहित भी नहीं देख पाती है। राष्ट्रीय सुरक्षा का डर जेहन में बैठाकर और मुसलमानों को बार-बार इसके लिए जिम्मेवार बताकर बहुसंख्यक जनता की झूठ और सच में फर्क करने की चेतना को भ्रष्ट किया जा रहा है। लेकिन यह स्थिति जल्द ही बदलेगी। बेरोजगारी और भुखमरी लोगों को चेतनशील बनने के लिए बाध्य कर रही है।
मजदूर वर्ग के नेतृत्व में शोषितों, वंचितों और उत्पीड़ितो का समाजवादी जनवादी राज्य ही फासीवाद और जनविरोधी राज्य का एकमात्र विकल्प है
चुनाव बिहार में है, यह सच है, लेकिन देश की स्थिति बहुत ही नाजुक हो गई है। इसलिए देश की स्थिति को सामने रखकर ही बिहार में चुनाव के संबंध में बात करनी होगी। देश नहीं बचेगा, तो फिर बिहार कैसे बचेगा? जो हालात हैं, उसमें देश को और देश की जनता को बचाने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था के दलदल से बाहर निकलने के विकल्प के बारे में सोंचने का वक्त आ चुका है। अकेले न्याय की गुहार का आज कोई मतलब नहीं है जब तक कि समाज को बदलने की लड़ाई के संदर्भ से इसे नहीं जोड़ा जाता है। समाज बदलने की बात का सीधा संबंध पूंजीवाद को पलटने से है, तभी नए समाज के विकल्प पर कोई सार्थक बात की जा सकती है। पूंजीवाद की सीमा से बाहर यह मजदूर वर्ग के नेतृत्व में सभी शोषितों, वंचितों तथा उत्पीड़ितों के समाजवादी राज्य की स्थापना के अलावे और कुछ दूसरा नहीं हो सकता है। एकमात्र यही वास्तविक विकल्प है जो मेहनतकश जनता का दूरगामी लक्ष्य भी है। ‘लेफ्ट’ ने इसे भूला दिया है कि फासीवाद का जनक सड़ता हुआ संकटग्रस्त पूंजीवाद है और जबतक इसका समाधान नहीं निकलेगा, तब तक आम जनता के दुख दूर होने वाले नहीं हैं। जनविरोधी सरकार को बदलने की बात तक सीमित राजनीति वास्तविक लेफ्ट राजनीति नहीं है, जब तक कि इसकी सीमा को नहीं नहीं समझा जाता है। दमघोंटू सरकार को बदलने का एकमात्र तात्कालिक फायदा यह होगा कि इससे जनता के मनोबल को ऊंचा उठाने का माहौल बनेगा। लेकिन यहां से आगे मुख्य बात क्रांतिकारी जनांदोलन का विस्तार और इसकी निरंतरता कायम करना है जिसकी जमीन गहराते आर्थिक संकट के कारण तेजी से तैयार हो रही है और इसके बल पर समाज परिवर्तन की लड़ाई को आगे बढ़ाना ही मुख्य कायर्मभार है। जहां ‘लेफ्ट’ की बुर्जुआ चुनावी राजनीति इसे कुंठित, सीमित और बुर्जुआ वर्ग के समक्ष आत्मसमर्पण के लिए मोड़ती और प्रेरितकरती है, वहीं वर्तमान क्रांतिकारी लेफ्ट की अदूरदर्शिता, कूपमंडूकता और अकर्मण्यता जनता को फासीवाद के समक्ष निहत्था खड़ा रहने और किसी सुदूर रणनीति के लिए इंतजार करने के लिए विवश करती है।
हम बिहार तथा देश में कार्यरत सभी सच्ची तथा वास्तविक लेफ्ट ताकतों से यह अपील करते हैं कि जब तक चुनाव का अवसर और वोट का अधिकार सुरक्षित है हमें जरूर फासीवादी ताकतों की चुनाव में पराजय को सुनिश्चित करने की मुहिम में जुटना चाहिए, लेकिन हमें फासीवाद के एकमात्र सच्चे विकल्प – वर्तमान व्यवस्था को को पलट कर मजदूर वर्ग के नेतृत्व में तमाम शोषितों, वंचितों अैर उत्पीड़ितों के समाजवादी जनवादी गणराज्य कायम करने – के लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए भी जनता को उत्प्रेरित, शिक्षित तथा संगठित करना चाहिए। यही वह राज्य होगा जो पूंजी के दुष्प्रभावों और फासीवाद के पुनः उभार की संभावना से पूरी तरह मुक्त एकमात्र सच्चा जनवादी और जनतांत्रिक राज्य होगा और जो शोषण व उत्पीड़न के सभी रूपों को हमेशा के लिए खत्म कर जनता के जीवन को खुशहाल बनायेगा। इस घोषणा से अलग और इसके बिना फासीवाद को पराजित करने का और कोई कार्यक्रम आज कामयाब नहीं होने वाला है।
(अगले अंक में जारी और समापन)
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यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 6/ अक्टूबर 2020) में छपा था