भारत-चीन सीमा विवाद : युद्ध और युद्धोन्माद के विरुद्ध खड़े हों! युद्धोन्माद भड़काने की कांग्रेसी कोशिश का भी पर्दाफाश करें!

शेखर //

भारत-चीन सीमा विवाद एक बार फिर से विश्व भर में चर्चा का विषय बन गया है। जो समझदार और संवेदनशील हैं वो लद्दाख की गलवान घाटी[1] में सीमा के दोनों तरफ पर बढ़ती सैन्य तैनाती की खबरों से चिंतित हो रहे हैं। हम भारतवासी इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि देश में अंधराष्ट्रवाद की भावना उफान पर है जो ‘चीनी सामानों का बहिष्कार करो’ जैसे नारों के साथ तब सामने आई जब 16 जून 2020 को भारतीय जवानों, जो कि देश के मजदूर-किसानों के सपूत हैं, की शहादत की खबर मीडिया पर दिखाई दी। इस सीमा विवाद का एक सैन्य टकराव में तब्दील हो जाने से, जिसकी पूरी संभावना दिखाई देती है, केवल इस क्षेत्र में ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में शांति की स्थिति भंग होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा, क्योंकि भारत और चीन, दोनों ही, बड़ी परमाणु (न्यूक्लियर) शक्तियां हैं जो विश्व में आधुनिक सैन्य क्षमता वाले देशों में अगड़े स्थानों पर हैं। प्रगतिशील और फासीवाद व शोषण विरोधी ताकतों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे मोदी सरकार की कमियां निकालने व मोदी को कमजोर व छोटा दिखाने के नाम पर इस परिस्थिति में आग में घी डालने वाला काम ना कर दें। बल्कि उन्हें आगे आकर एक नए सीमा युद्ध की संभावना को रोकने के लिए ताकतों को एकजुट करना चाहिए। आजीविका छिन जाने और अभूतपूर्व बेरोजगारी के कारण पहले से ही भीषण गरीबी व भयंकर आर्थिक संकट से जूझ रही आम मेहनतकश जनता के लिए ऐसा युद्ध घातक साबित होगा। सीमा पर स्थिति को और बदतर बनाने के हर एक प्रयास के खिलाफ आवाज उठाना आज हमारी और पूरे समाज की जिम्मेदारी है। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि सीमाओं पर जो शहीद होते हैं वह मुख्यतः आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहे गरीब किसानों और मजदूरों की संतानें हैं। हमें कहना होगा कि सीमा युद्ध बेकार हैं क्योंकि यह सीमा विवादों को सुलझाने के बजाए उन्हें बढ़ाते ही हैं।

किसने पहले हमला किया और क्यों, 20 भारतीय जवानों की बर्बर हत्या और 10 और को बंदी बनाना कैसे संभव हुआ, किसने किसकी सीमा का कहां उल्लंघन किया, एल.ए.सी. पर वर्तमान स्थिति ठीक-ठीक क्या है, यह सीमा पर हुई झड़प के बाद कुछ अत्यंत जरूरी व फौरी सवाल हैं जिनका दोनों पक्षों के लिए संतोषजनक व स्पष्ट जवाब शायद कभी न मिल पाए। इन सवालों पर एक विश्व युद्ध हो जाने के बाद भी शायद इनके जवाब न मिल पाएं और इस विवाद को हमेशा के लिए कभी सुलझाया न जा सके। यह बात विश्व भर के सभी सीमा-विवादों के लिए सत्य है। ऐसे विवाद केवल और केवल आपसी सौहार्द के साथ एक सम्मानजनक, पारदर्शी, ईमानदार व खुले संवाद के जरिए ही हल किए जा सकते हैं, जिसकी सफलता के लिए दोनों पक्षों को आपसी पक्षपात के बिना अपनी जनता को ठीक ढंग से सूचित करना और राय बनाने की प्रक्रिया में उन्हें स्वतंत्र रूप से भागीदार बनने का मौका देना अतिमहत्वपूर्ण है। एक-दूसरे को झुकाने के लिए आक्रामक तौर-तरीका अख्तियार करना या एल.ए.सी. पर झड़पों में एक दूसरे के जवानों के खिलाफ हथियार नहीं इस्तेमाल करने के द्विपक्षीय समझौतों को एकतरफा ढंग से तोड़ना, निस्संदेह सैन्य टकराव को जन्म देगा जिससे परिस्थितियां बेहतर होने के बजाए और बिगड़ कर एक बार फिर 1962 की तरह बेकाबू हो जाएंगी। ऐसी परिस्थिति अन्य ताकतों को भी बीच में आकर इसका फायदा उठाने का मौका दे देगी। इसके अतिरिक्त, एक बार जब युद्धोन्माद आक्रामक ढंग से जनता के बीच पकड़ बना लेता है तो अक्सर भविष्य में भी इसे हटाना काफी कठिन होता है, यहां तक कि इसे बढ़ावा देने वालों के लिए भी यह आसान नहीं रह जाता।

वर्तमान स्थिति में सत्य हमसे काफी दूर है। 5-6 मई को भारतीय व चीनी सैनिकों के बीच गलवान घाटी में पैंगोंग त्सो झील के पास हुई नई झड़प की खबर पहली बार जनता के बीच आने के बाद से आज तक दो महीने बीत चुके हैं। तब से अब तक, इसमें व इसके बाद हुई और गंभीर झड़पों, जिसमें 15 जून की रात पैट्रोल पॉइंट (पीपी) 14 में बीस भारतीय जवानों की हत्या हुई, के पीछे के कारणों व कारकों के ऊपर से सच को छुपाने वाले बादल हटे नहीं हैं। हालांकि कारणों व कारकों के संबंध में चीन का यह स्पष्ट कहना है कि “सीमा पर लगातार तनाव के पीछे भारतीय पक्ष के दुस्साहस व लापरवाही” (अनुवाद) का दोष है, जो चीनी दैनिक अखबार ग्लोबल टाइम्स द्वारा खुले रूप से प्रसारित भी किया जा रहा है। वहीं भारतीय सरकार ने, कम से कम शुरुआत में जब तक विदेश मंत्रालय ने 25 जून 2020 तक बयान जारी नहीं किया था, इस बात का खुलासा करने तक ही खुद को सीमित रखा है कि ‘ना कोई हमारे क्षेत्र में घुसा है और ना किसी पोस्ट पर कब्जा किया है’।

लेकिन दूसरी ओर, पूर्व व उत्तर लद्दाख में सीमा पर दोनों तरफ से बढ़ते तनाव व सैन्य तैनाती के बीच, भारतीय मीडिया राष्ट्रवाद का ढिंढोरा पीटने के बहाने से ‘चीनी सामानों का बहिष्कार करो’ के नारे का धूमधाम से प्रचार कर रही है। यह किसी भी रूप में सीमा विवाद को हल करने में सहायक होने के बजाए दोनों देशों के बीच अविश्वास को और बढ़ावा ही देने का काम करेगा। टीआरपी बढ़ाने के लिए सुनियोजित ढंग से राष्ट्रवाद की भावना को उकसाने और उसका इस्तेमाल करने वाले मीडिया के इन पैंतरों से सभी को सचेत रहना चाहिए। अगर चीनी सामानों का बहिष्कार करने का नारा सफल हो भी जाए तब भी इससे चीनी अर्थव्यवस्था से ज्यादा चोट भारतीय अर्थव्यवस्था को ही पहुंचेगी। भटकाव के ऐसे पैंतरे अपनाना मीडिया के लिए एक सालाना तौर पर किया जाने वाला नियत कार्य बन गया है जिसका कोई असल प्रभाव नहीं होता। जनता के असली मुद्दों व सरकार की असफलताओं पर से जब ध्यान भटकाना जरूरी लगे तब मीडिया द्वारा ऐसे पैंतरे अपनाए ही जाते हैं जिसके तहत सरकार के प्रति अविश्वास से ध्यान हटाने के लिए दिन-रात ऐसे नारे टीवी व अन्य जगहों पर चमकाए जाते हैं। हालांकि इन सबके बावजूद भारत और चीन के बीच व्यापार लगातार बढ़ता गया है। 2014 में व्यापार का जो मूल्य लगभग 71 बिलियन डॉलर था वो बढ़ कर 2018 में 96 बिलियन हो गया, यानी 4 सालों में भारत-चीन व्यापार 25 बिलियन डॉलर (करीब 1.9 लाख करोड़ रुपए) से बढ़ा, जिसका 92% भारत द्वारा चीन से आयात का है। भारत के कुल आयात का 14% चीन से आता है (जो चीन के कुल निर्यात का 3% है), जिसका साफ कारण है चीनी सामानों का पश्चिमी देशों व स्वयं भारत की तुलना में कम लागत में उत्पादन होना। बड़े स्तर पर उत्पादन जैसे अन्य कारणों के साथ-साथ चीन में मजदूरों के शोषण के ऊंचे दर की वजह से वह कम लागत यानी सस्ते दामों में मालों का उत्पादन करता है। भारत में मजदूरों के शोषण के वर्तमान दर पर वह उसी लागत व कीमत पर उत्पादन नहीं कर सकता। हालांकि भारत सरकार ने 300 चीनी उत्पादों पर कड़े व्यापार अवरोध (ट्रेड बैरियर) लगाए हैं और आयात शुल्क (इम्पोर्ट ड्यूटी) में बढ़ोतरी की है, लेकिन यह स्पष्ट बात है कि सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग (एमएसएमई) का मुनाफा सस्ते चीनी सामानों पर ही निर्भर है। चीन से आयात किए गए लघु पुर्जे, मशीन के उपकरण व अन्य कच्चा माल तुलनात्मक रूप से काफी सस्ते होते हैं। क्वालिटी के मामले में भी वह फिसड्डी नहीं होते, अन्यथा उनका आयात नहीं किया जाता। दवा के क्षेत्र में भारत कच्चे माल, जिन्हें एक्टिव फार्मास्यूटिकल इन्ग्रेडिएंट्स (एपीआई) कहा जाता है, की अपनी कुल जरूरत का 80% हिस्सा चीन से आयात करता है। सेफालोस्पोरिंस, अजिथ्रोमाइसिन, पेनिसिलिन जैसी जीवन-रक्षक दवाइयों के लिए भारत 90% चीनी आयात पर निर्भर है। आयात किए गए सामान में मोबाइल फोन, लैंप, मिट्टी के पात्र, खिलौने, सीरीज बल्ब, पटाखे, सूटकेस से लेकर और भी कई उत्पाद शामिल हैं। इतना ही नहीं, मोदी सरकार ने सड़क, हाईवे, बांध, मेट्रो रेल निर्माण से लेकर मूर्तियां व पर्यटन संबंधित कई लाभदायक टेंडर चीनी कंपनियों को दिए हैं जो भारत सरकार के आकाओं को बड़े मार्जिन वाला प्रतिफल (रिटर्न) देती हैं। चीन, जिससे भारत हर वर्ष कर्ज लेता है, की जीडीपी भारत का पांच गुना है। ऐसी स्थिति में युद्धोन्माद भड़काने में सबसे आगे खड़ा भारतीय मीडिया किस आधार पर चीन से व्यापार खत्म कर उसकी अर्थव्यवस्था को ढहाने की बात करता है, यह हास्यास्पद होने के साथ एक रहस्य समान ही है। जरा सोचिए, इतने शोर शराबे के बीच कई चीनी कंपनियों (जिसमें हुआवे, शाओमी, वनप्लस, ओप्पो शामिल हैं) द्वारा अपारदर्शी पीएम केयर्स फंड में करोड़ों रुपए दान करने की कई रिपोर्ट सामने आई हैं। न्यूज चैनलों पर चीनी कंपनी विवो का प्रचार करते हुए चीन-विरोधी बहसें की जा रही हैं। भारत के सबसे प्रचलित खेल क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था बीसीसीआई ने चीनी कंपनियों के साथ दीर्घकालिक कॉन्ट्रैक्ट किए हुए हैं। मीडिया के शोर-शराबे के इतने दिनों बाद भी किसी चैनल ने चीनी कंपनियों के साथ कॉन्ट्रैक्ट रद्द नहीं किए हैं, पीएम केयर्स फंड में जमा राशि अस्वीकार नहीं की गई है और बीसीसीआई ने भी अपने किसी कॉन्ट्रैक्ट को रद्द करने की बात तक नहीं की है!

चीन खुले व स्पष्ट रूप से ना सिर्फ हिंसक झड़प के कारण बता रहा है बल्कि अपने इरादों व नीतियों पर भी बयान दे रहा है। चीन के अनुसार, जैसा कि 17 जून को ग्लोबल टाइम्स में छपा था, “नई दिल्ली ने सीमा मसले पर कड़ा रुख अपनाया है” (अनुवाद) और “भारत सीमा के पास व्यापक इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण कर रहा है और इसका कुछ हिस्सा जबरन एलएसी से चीन की तरफ भी बना चुका है।” (अनुवाद) अतः चीन ने टकराव का पूरा दोष भारत के मत्थे डाल दिया है। चीन ने भारत पर यह भी इल्जाम लगाया है कि वह अमेरिका की, चीन के खिलाफ लक्षित हिंद-प्रशांत धुरी की रणनीति के तहत उससे मदद लेने को आतुर है और उसी वजह से सीमा मसले पर इस तरीके का कड़ा व आक्रामक रुख ले रहा है।  ग्लोबल टाइम्स लिखता है कि “अमेरिका अपनी हिंद-प्रशांत रणनीति के तहत भारत के प्रति आकर्षण दिखा रहा है… अमेरिका द्वारा संचालित ये नीतियां चीन को निशाना बनाती हैं, और वाशिंगटन को चीन पर आक्रमण करने के लिए भारत जैसे देश की जरूरत है।” (अनुवाद) वह आगे लिखता है कि “भारत के साथ किसी भी अन्य देश के संबंध भारत-चीन रिश्ते की जगह नहीं ले सकते। नई दिल्ली कभी भी एकतरफा ढंग से बीजिंग के साथ सीमा विवाद हल नहीं कर सकती। (अनुवाद)

दूसरी ओर, सीमा विवाद के इस नए प्रकरण की शुरुआत से ही मोदी सरकार ने एक सुचिंतित व असामान्य चुप्पी साधी हुई है यह कहते हुए कि सब कुछ ठीक और सामान्य है। 15 जून की हिंसक घटना, जिसमें 20 भारतीय जवानों की जानें चली गईं, के बाद भी सरकार ने चुप्पी बनाए रखी और इसका जवाब तक नहीं दिया कि यह हिंसक झड़प आखिर क्यों हुई। 19 जून को हुई सर्वदलीय बैठक में भी प्रधानमंत्री द्वारा जो बात कही गई वह अस्पष्ट होने के साथ 15 जून की घटना के बारे में किसी भी ठोस सच्चाई पर से पर्दा उठाने में विफल साबित हुई। अप्रैल-मई में शुरू हुए इस पूरे नए सीमा विवाद, जिसके बारे में सभी को 5-6 मई को ही पता चला, पर से पर्दा हटा कर सच्चाई बताना तो दूर की बात है, मोदी सरकार ने केवल यह आश्वासन दिया कि कोई गंभीर घटना नहीं घटी है और स्थिति सामान्य है।

भारत सरकार ने जिन कारणों की वजह से सच्चाई को छुपाया उन्हें समझना बहुत कठिन नहीं है। इस चुप्पी के पीछे कई कारण हैं। जैसे, इस खूनी झड़प के बारे में एक स्पष्ट व निष्पक्ष खुलासा मोदी की महामानव वाली छवि को नुकसान पहुंचा सकती थी। इसी वजह से उसने शहीदों की संख्या और उसके साथ घायल व बंदी बनाए गए जवानों की संख्या को छुपाना चाहा। बाद में दबाव में आ कर उसने माना, हालांकि यह कहते हुए कि भारतीय जवान मारते-मारते मरे हैं और उन्होंने चीनी सेना में लगभग दोगुनी संख्या में जवानों के साथ सीनियर अफसरों को भी मार गिराया है। एक पूर्व सेना अध्यक्ष, जो मंत्री भी हैं, ने यहां तक कहा कि चीनी सैनिकों को भी भारतीय सैनिकों की तरह ही बंदी बनाया और बाद में छोड़ा गया था। हालांकि टीवी चैनल पर एक बहस में यह दावा झूठ साबित हुआ। अंततः सरकार के लिए पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में बढ़ते तनाव की बात छुपाना असंभव हो गया। कई सेवानिवृत्त फौजी व कई स्वतंत्र समीक्षक व जानकार सैटेलाइट तस्वीरों की जांच के आधार पर मिले ओपन सोर्स इंटेलिजेंस के जरिए सरकार द्वारा बेवजह लगातार बातों को छुपाने व अन्य गलतियां करने के लिए खुले रूप से सरकार की कड़ी आलोचना कर रहे हैं। इस दबाव की वजह से, और जब चीन द्वारा और आगे घुसपैठ की जानकारी सामने आने लगी, तब सरकार ने विदेश मंत्रालय के जरिए 25 जून को आखिरकार एक बयान जारी किया और पहली बार माना कि “लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) पर स्थिति भारतीय व चीनी पैट्रोल टीमों की सामान्य झड़पों से कहीं ज्यादा गंभीर है(अनुवाद)। भारत सरकार ने स्थिति के स्पष्टीकरण के लिए इतना ज्यादा समय क्यों लिया यह एक प्रश्न है जिसका कोई सीधा जवाब तो उपलब्ध नहीं है लेकिन जिसके कारण स्पष्ट हैं और सामान्य ज्ञान व समझ रखने वालों को आसानी से समझ आ सकते हैं। इन कारणों को जितना दबाया जा रहा है, वे उतने ही स्पष्ट और प्रत्यक्ष बनते जा रहे हैं!

भारत-चीन सीमा के बारे में भारतीय जनता के बड़े हिस्से के बीच लोकप्रिय ऐतिहासिक धारणा यह रही है कि चीन ने 1962 में भारतीय क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था और इसी के आधार पर भारत में एक चीन-विरोधी भावना मौजूद है। इसमें ना कोई तर्क काम करता है और ना ही किसी ऐतिहासिक तथ्य के लिए कोई जगह है। इसी समझ के तहत अब यह माना जा रहा है कि चीन ने बीते कुछ महीनों में एक बार फिर 4 जगहों पर भारतीय क्षेत्र का हिस्सा अपने कब्जे में कर लिया है, 3 पूर्वी लद्दाख में (फिंगर 4 से 8 के बीच, हॉट स्प्रिंग, और पैंगोंग त्सो झील के पास) और 1 उत्तरी लद्दाख के क्षेत्र (डेपसंग[2] प्लेन्स) में, जैसा कि कांग्रेस के साथ-साथ कुछ पूर्व सैनिकों द्वारा भी पूरे जोर-शोर के साथ प्रसारित किया जा रहा है। हालांकि मोदी सरकार ने अभी तक इसे स्वीकार नहीं किया है। इसका यह मतलब नहीं कि भाजपा व उसके समर्थक उपरोक्त चीन-विरोधी भावना नहीं रखते। इस अस्वीकृति के कारण कुछ और हैं जो स्पष्ट भी हैं। ऐसे कब्जे को स्वीकार कर लेना मोदी के महामानव की छवि को गंभीर चोट तो पहुंचाएगा ही, उसके साथ वह सरकार को चीन के विरुद्ध युद्ध के लिए, यानी कब्जाए गए क्षेत्रों को वापस लेने के लिए मजबूर कर देगा, अन्यथा इतनी मेहनत से बनाई गई इस छवि और मोदी है तो मुमकिन है जैसे नारों को लगे धक्के के बाद मोदी का एक महामानव के रूप में बना रहना असंभव हो जाएगा। चीन के साथ सैन्य युद्ध में जाना या कम से कम पाकिस्तान जैसे सर्जिकल स्ट्राइक करवाना मोदी की इस छवि को और ऊंचा उठाना और इसके जरिए फासीवादी शासन को और सुदृढ़ बनाने के लिए कारगर साबित होगा, और इस पर उसके थिंक टैंक के द्वारा जरुर विचार किया गया होगा, लेकिन यह सभी जानते हैं कि यह विकल्प चुनना आसान नहीं है। केवल यही नहीं, अमेरिका के भारत की तरफ होने के बावजूद इसके विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं और दांव उल्टा पद सकता है। यही वजह है कि मोदी ने सर्वदलीय बैठक में और मन की बात में भी एक बार भी सीधे तौर पर चीन का नाम तक नहीं लिया। चीन केवल आर्थिक रूप से ज्यादा शक्तिशाली ही नहीं, बल्कि एक विशाल सैन्य शक्ति और अपने आप में एक महाशक्ति भी है। अगर अमेरिका भारत की मदद करने का आश्वासन भी दे तब भी किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती। भारतीय शासक वर्ग उचित कारणों से ही चीन के खिलाफ युद्ध में जाने से संकोच कर रहा है और हर कदम फूंक-फूंक कर रख रहा है क्योंकि उसे इसके विनाशकारी परिणामों का अंदाजा है। तो अगर यह सत्य है कि चीन ने भारत के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है (जो कि मानना आसान है क्योंकि दोनों देशों की एलएसी की धारणा अलग है[3] और दोनों यह बात जानते हैं), मोदी सरकार यह तब तक नहीं मान सकती जब तक कि उसने युद्ध में जाने का निर्णय भी न ले लिया हो। इसलिए सरकार के पास बस एक ही उपाय है कि वह किसी भी अतिक्रमण या कब्जे की बात को नकारते रहे। अगर इससे चीन को फायदा मिल रहा है तो वो भी इन्हें मंजूर है। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है, चाहे उसे कांग्रेस से राष्ट्रवाद के अपने ही मैदान में एक हद तक हार भी मानना क्यों न पड़ जाए।

ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी सरकार एक अनपेक्षित या अनचाहे संकट में अचानक फंस चुकी है। भारतीय शासक वर्ग लंबे समय से एक महाशक्ति बनने या कम से कम चीन की टक्कर की ताकत व प्रतिष्ठा हासिल करने का प्रयास कर रहा है। इसके लिए वह एक सोचे समझे लेकिन संकरे रास्ते पर चलता रहा था जिसके तहत वह चीन, जो एक उभरता हुआ साम्राज्यवादी देश है, और अमेरिका, जो पश्चिमी साम्राज्यवादियों का अगुवा लेकिन अब संकट से घिरा व कई कारणों से पतन की तरफ बढ़ रहा है, के बीच के अंतर्विरोधों का फायदा उठाने का लक्ष्य रखता है। एक तरफ अमेरिका के साथ रणनीतिक सांठ-गांठ करना, और दूसरी तरफ अपने हित के लिए चीन के साथ सारे संभव व जरूरी आर्थिक और व्यापारिक संबंध बनाना, लेकिन साथ-साथ सीमाओं पर व्यापक व आक्रामक रुख अख्तियार करना, जिससे जनता के बीच सरकार द्वारा ही डाली गई उग्र राष्ट्रवाद की भावना को और गहरा बनाना ताकि असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के साथ उनके विस्तारवादी मंसूबों में जनता का समर्थन प्राप्त हो सके, यह है वह सोचा-समझा रास्ता। इसकी एक झलक तब दिखती है जब भारतीय शासक वर्ग वर्तमान के गंभीर और कुछ हद तक अपमानजनक टकराव के बाद भी सीमा की अलग-अलग समझ का हवाला देकर अक्साई चिन पर अपना दावा ठोक रहा है। यह अपमानपूर्ण हार के सामने नेहरू के भारी-भरकम बयान की याद दिलाता है, जब नेहरू ने 1962 में चीन के विरुद्ध हजार सालों तक लड़ने का संकल्प व्यक्त किया था। मोदी सरकार द्वारा गुप्त तरीके से पिछले 6 वर्षों में ‘फॉरवर्ड नीति’ के तहत सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण में वृद्धि (चीनी सरकार द्वारा भी लगाया गया ऐसा इल्जाम जिसे मोदी सरकार अपने आप को कांग्रेस से आगे दिखाने के लिए खुशी-खुशी स्वीकार करती है, क्योंकि इसके अनुसार नेहरूवादी ‘फॉरवर्ड नीति’ को आगे बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया) का जनता के बीच जोर-शोर से प्रचार करने का और इसके लिए अपनी पीठ थपथपाने का वह कोई मौका नहीं छोड़ती, ताकि कांग्रेस, जिसकी मोदी समर्थकों द्वारा यह आलोचना आम है कि उसने सीमा पर कुछ भी नहीं या न के बराबर काम किया है, को और नीचा दिखाया जा सके। अब इस नए सीमा विवाद के सामने आने पर यह खेल बिलकुल उलटा पड़ चुका है क्योंकि चीन ने बदले में पूरी गलवान घाटी पर दावा ठोक दिया है और, जैसा मीडिया द्वारा रिपोर्ट किया जा रहा है, एलएसी से भारत के क्षेत्र की तरफ कई सैन्य संरचनाओं का निर्माण कर दिया है और इस तरह भारत के सैन्य क्षमता को खुली चुनौती दे दी है। संभवतः मोदी सरकार को इसका कोई अनुमान नहीं था, और इसलिए हम इस मुद्दे पर मोदी की चुप्पी या बहुत सोचे-समझे व नपे-तुले बयान ही सुन रहे हैं।

जहां तक जनता की बात है, उसे या तो कांग्रेस द्वारा प्रसारित प्रोपगैंडा सुनने को मिल रहा है या फिर भाजपा-आरएसएस व उसकी सरकार का, और दोनों ही अपने-अपने तरीकों से उग्र-राष्ट्रवाद व युद्धोन्माद की भावना को ही उकसाने का काम कर रहे हैं। विपक्ष में बैठी कांग्रेस पूरे शोर-शराबे के साथ इसका प्रचार कर रही है, वहीं सत्तासीन भाजपा सूक्ष्म व शांत ढंग से। दोनों बड़े पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि होने के कारण स्वाभाविक रूप से भारत-चीन सीमा विवाद से संबंधित कई चीजें छुपाने का काम करते हैं। जनता के पास कोई तीसरा स्रोत नहीं पहुंच पा रहा है और ना ही उसे पहुंचने की अनुमति दी जाएगी। सीमा से जुड़े मसलों में, खास कर चीन और पाकिस्तान के संदर्भ में, ना ही पारदर्शिता को अनुमति मिलती है और ना ही तथ्यात्मक तर्कों को। जनता को उग्र-राष्ट्रवादी भावना से केवल बहकाया जाता है, और ‘जानकारों’ को शासक वर्ग (दोनों, सत्तापक्ष व विपक्ष) द्वारा पेश किये गए तथ्यों को दोहराने और अपनाई जा रही नीतियों को दोहराने व आगे बढ़ाने के लिए मजबूर किया जाता है। यही इतिहास रहा है, और नेहरू काल में भी ऐसा ही होता था। इस मामले में राष्ट्रवादी एजेंडा और नीति के प्रति संपूर्ण निष्ठा होना अनिवार्य माना जाता है, भले ही वह एजेंडा असलियत और यहां तक कि देश व उसके लोगों के हित के विरोध में हो।

इस बार कांग्रेस उग्र-राष्ट्रवाद व युद्धोन्माद फैलाने में भाजपा का किरदार निभा रही है। मोदी सरकार की परेशानी यह है कि वह अपने ही लोगों और समर्थकों के द्वारा मोदी के चारों तरफ बनाए गए जाल में फंस चुकी है। सही या गलत, अपनी महामानव की छवि के कारण मोदी द्वारा यह कभी नहीं स्वीकार किया जा सकता है कि चीन या पाकिस्तान ने भारत की एक इंच जमीन पर भी कब्जा किया है। कांग्रेस यह बात जानती है और अपनी छवि सुधारने के लिए इसका इस्तेमाल कर रही है। राहुल गांधी को अच्छे से पता है कि मोदी द्वारा अभी चीन के साथ युद्ध करने का जोखिम नहीं उठाया जाने वाला है। अगर चीनी सेना ने असलियत में भारतीय सेना द्वारा नियंत्रित या पैट्रोल किए जाने वाले क्षेत्रों में अतिक्रमण किया है, तो इसपर मोदी सरकार की लगातार चुप्पी चीन को उसके इस दावे, कि विवादित क्षेत्र असल में चीन का ही है न कि भारत का, को सही ठहराने में मदद ही करेगी और कर रही है। यह चुप्पी चीन के इस दावे को भी वैधता प्रदान करेगी कि झड़प भारतीय सेना द्वारा एलएसी से चीन की तरफ जाने से हुई। चीनी मीडिया की खबरें देखें तो यह हो रहा है। मोदी सरकार आगे कुआं पीछे खाई वाली स्थिति में फंस गई है।

भिन्न-भिन्न जगहों व स्रोतों से आ रही  रिपोर्ट व मोदी सरकार का अभी तक का रवैया एक बड़ी गड़बड़ की ओर इशारा करता है। भारतीय आवाम के बीच भ्रम की स्थिति फैली हुई है। सरकार या सेना की तरफ से कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिल रहा है कि अब तक क्या हुआ है और आगे क्या होगा। भारत जैसे जनतांत्रिक देश में (अगर वह अब भी है तो!) सेना देश के राजनीतिक शासकों व उनकी मर्जियों से स्वतंत्र नहीं होती है। इसलिए सच्चाई व योजना पेश करना मुख्यतः सेना की नहीं बल्कि सरकार की जिम्मेदारी है। युद्ध सेना द्वारा लड़े जाते हैं, यह सही और सर्वविदित है, लेकिन किसी युद्ध या क्षेत्र की जीत या हार की जवाबदेही सरकार की होती है। अगर हर दूसरे दिन विवादित सीमा पर दूसरी तरफ से घुसपैठ या निर्माण की नई रिपोर्ट आ रही है तो इसकी जिम्मेदारी सरकार की है, न कि सेना की। भाजपा सरकार द्वारा सेना की भूमिका को तोड़-मरोड़ कर पेश करने को पूर्णतः अस्वीकार किया जाना चाहिए। जो गड़बड़ हुई है उसका कारण सरकार की सुचिंतित निष्क्रियता और चुप्पी है। यह सुचिंतित इसलिए लगता है क्योंकि मोदी सरकार आम तौर पर इन मुद्दों का प्रचार करने में काफी सक्रिय रहती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस भाजपा को आज विरोध की एक आवाज सुनना भी नापसंद है, उसी ने 2013 में सीमा पर तथ्यान्वेषी टीम को असलियत पता करने के लिए भेजा था।

सबसे हाल की खबर यह है कि चीनी सेना ने पीपी 14 पर हेलिपैड का निर्माण किया है। कई अखबारों ने रक्षा मंत्रालय से जुड़े अनाम स्रोतों के हवाला से यह छापा है कि 22 जून को हुए कोर कमांडर स्तर की बैठक के बाद भी गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग्स, व पैंगोंग त्सो झील में हालात अभी भी उबाल पर हैं। उनके अनुसार चीनी पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने एक समय पर भारत द्वारा नियंत्रित क्षेत्रों में जड़ें  जमा ली हैं और अब तक पीछे हटने के कोई संकेत नहीं दिखाए हैं। तनाव अब एक अलग फ्रंट पर भी बढ़ चुका है। उत्तरी लद्दाख में दौलत बेग ओल्डी के निकट स्थित डेपसंग प्लेन्स में भी घुसपैठ हुई है जहां चीनी सेना जवानों व टैंकों के साथ एलएसी पार कर चुकी है। अतः मई से और 15 जून के इतने दिनों बाद तक भी मोदी सरकार द्वारा जो भी दिखावा किया जा रहा है वह अधिकतर झूठ या बेबुनियाद साबित हुआ। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने 25 जून को जो कहा उससे भी इसकी पुष्टि होती है। जून के अंतिम दिनों में भी यह रिपोर्ट आई कि शांति प्रक्रिया अच्छे ढंग से आगे बढ़ रही है और राजनयिकों द्वारा सैन्य वार्ता जारी है, हालांकि सैटेलाईट द्वारा जारी की गई और अखबारों में छपी आखिरी तस्वीरों से पता चलता है कि विवादित क्षेत्रों में नई चीनी संरचनाओं का निर्माण चल रहा है। डेपसंग में घुसपैठ काफी गंभीर बात है, क्योंकि वह रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण डीबीओ सड़क से केवल 20-30 किमी की दूरी पर ही है।

सच को छुपाने या कम कर के दिखाने के लिए एक पूरा ढांचा तैयार किया गया है। द टेलीग्राफ ने खुलासा किया कि कैसे एएनआई न्यूज भी इसमें शामिल है। टेलीग्राफ की 26 जून 2020 की रिपोर्ट कहती है: “एएनआई, जो सरकार के पक्ष में दिखती है, ने दोपहर में ट्वीट किया था कि चीनी सेना ने कुछ वाहनों व जवानों को गलवान घाटी से पीछे हटा लिया है लेकिन पीपी-14, जहां 15 जून की झड़प हुई थी, में जो नया टेंट लगाया गया था वह अभी तक वहीं है। बाद में उसने ट्वीट डिलीट कर दिया।” (अनुवाद) 19 जून को प्रधानमंत्री ने कहा कि हमारे क्षेत्र में कोई नहीं घुसा है, जो कि विदेश मंत्रालय के इस पुराने बयान के विरोध में है कि 20 भारतीय सैनिक चीनी सेना द्वारा भारतीय जमीन पर मारे गए थे। द टेलीग्राफ में रक्षा मंत्रालय के एक अफसर का बयान है कि, “कोर कमांडर स्तर की वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय कमांडरों के बीच और भी वार्ता तय की जा रही है । अभी तक चीनी जवानों ने एलएसी से भारत की तरफ से पीछे हटने के कोई संकेत नहीं दिए हैं” (अनुवाद) यह सोचा ही जा सकता है कि सीमा मसलों पर कितनी गड़बड़ हो रही है। लगातार रिपोर्ट आ रही हैं कि चीनी सेना द्वारा एलएसी के इस पार भारतीय जमीन का कब्जा हुआ है और दोनों तरफ से सैन्य तैनाती गंभीर रूप ले रही है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने 25 जून को अपने बयान में यही बात कही थी कि “मई के शुरुआती दिनों से ही चीनी सेना भारी संख्या में एलएसी के पास जवान व युद्ध सामग्री को तैनात कर रही है।” हालांकि जब उनसे पूछा गया कि ऐसा क्यों, तो उन्होंने सवाल को टाल दिया। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब कि सरकार सामान्य बयानों और कुछेक जानकारी से ज्यादा आगे नहीं बढ़ना चाहती। तनाव को बढ़ाने के डर से सरकार चीन को भड़काना या उसपर सीधा हमला नहीं करना चाहती। यह उचित व सही लगता है, परंतु फिर यही सरकार जमीन पर अपने दलों, गोदी मीडिया व वाहिनियों के जरिए युद्धोन्माद भी फैला रही है। यह भाजपा की गुप्त दोहरी नीति है, और यह भारत और भारतवासियों को एक दिन बड़े संकट में डाल सकती है।

दूसरी तरफ ऐसा लगता है कि चीनी सेना को पूर्व व उत्तर लद्दाख में सभी रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थानों पर कब्जा करने के आदेश मिले हैं ताकि अचानक किसी घेराव की स्थिति से बचा जा सके। संभवतः यह कदम अमेरिका द्वारा संचालित हिंद-प्रशांत धुरी की रणनीति और उसके साथ तथाकथित मूल्य-आधारित संबंधों को भारत द्वारा खुले रूप से दी गई सहमती के जवाब में ही उठाया जा रहा है, क्योंकि यह स्पष्ट है कि इस रणनीति से अमेरिका चीन को निशाना बनाने वाला है। शायद यह बात लिखना अनुचित नहीं होगा कि चीन स्वयं ही अमेरिका को उसके सर्वोच्च साम्राज्यवादी सरगना के पद से गिरा कर ‘विश्व को घेरने’ के एक ‘दूरवर्ती’ दीर्घकालिक मिशन पर है। लेकिन इसके लिए, वर्तमान परिस्थितियों में, सीमा विवादों के बावजूद वह भारत को अपने पक्ष में रखना चाहता है और इसी कारण से विवादों को एक हद के बाद और गहराना नहीं चाहता। हालांकि एक हद के बाद, स्वाभाविक रूप से, चीन भारत से अच्छे संबंधों के लिए सीमा पर रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण पहलकदमी लेने के मौकों को गवाना नहीं चाहता, खासकर तब जब भारत के सैन्य हित अमेरिका, इजराइल और जापान समेत पश्चिमी ताकतों के हितों के सबसे निकट हैं। 15 जून के बाद चीन का बयान इसकी गवाही देता है। आने वाले समय तक चीन भारत के साथ व्यापार के संबंध में अपने सर्वप्रिय पार्टनरों में से एक की तरह पेश आना चाहता है। दूसरी ओर मोदी सरकार ने स्वतंत्र राष्ट्रों व लोगों की आजादी के प्रमुख दुश्मन अमेरिका व इजराइल समेत अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों के साथ भारत द्वारा सुचिंतित रूप से बनाए जा रहे सैन्य रिश्तों को रोकने या वापस लेने के कोई संकेत नहीं दिखाए हैं। यह रणनीति भारत के लिए घातक साबित हो सकती है, क्योंकि भारत के पड़ोस व पूरे विश्व के छोटे व कमजोर देश अमेरिका के दखलकारी रवैये से डरते हैं और इसके बावजूद अगर भारत पूरी तरह से अमेरिका के खेमे में जाता है और चीन से युद्ध करने का जोखिम उठाता है, तो श्रीलंका, बांग्लादेश, और यहां तक की नेपाल भी, जहां भारत के शासक वर्ग की ‘बिग-ब्रदर’ की भूमिका और बांह मरोड़ने वाले रवैये के कारण पहले से ही भारत-विरोधी भावना काफी है, खुद को भारत से अलग कर लेंगे, भले ही इन देशों की जनता के बीच सांस्कृतिक, भौतिक और सभ्यतागत एकता और भाईचारे की गहरी ऐतिहासिक भावना मौजूद है। इन्हीं कारणों से अचानक से ऐसी असाधारण घटनाएं हो रही हैं जो 1962 के बाद से कभी नहीं हुईं, जबकि 1967 और 1975 में भारत और चीन के बीच सीमा पर टकराव भी हुए जिसमें गंभीर रूप से जानें भी गईं थी। मोदी और उसके थिंक टैंक यह सब जानते हैं और इसी को ध्यान में रखते हुए कदम उठा रहे हैं, जो कि कइयों की अपेक्षा से भिन्न है जिन्होंने सोचा था कि वे हड़बड़ी और लापरवाही के साथ कदम उठाएंगे। यह एक बार फिर से साबित करता है कि फासिस्ट भले ही मूर्खों की जमात की तरह दिखाई देते हों, लेकिन पर्दे के पीछे वह अत्यंत शांतचित्त ढंग से सोचे समझे कदम उठाते हैं, जब तक कि अनपेक्षित परिस्थितियां उन्हें गलती करने और लापरवाही बरतने के लिए बाध्य नहीं कर देतीं।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने 20 जून को भारत व चीन द्वारा सैन्य तनाव कम करने के ठोस कदमों के संबंध में पूछे गए महत्वपूर्ण सवालों को टाल दिया और वह इस सवाल से भी बचते नजर आए कि ‘क्या चीनी सेना ने डेपसंग प्लेंस में भी घुसपैठ की है।’ (अनुवाद) इसे उपरोक्त बातों के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।

भारत की जनता के लिए स्थिति ऐसी है कि एक तरफ मोदी सरकार 15 जून की हिंसक झड़प पर अपने आधिकारिक बयान में और सीमा पर पैदा हो रही नई तनावपूर्ण परिस्थितियों पर सफाई देने के दौरान चीन के खिलाफ सीधे तौर से कुछ भी आक्रामक न बोलने पर ध्यान दे रही है, जबकि इसके बावजूद जनता के बीच चलाए जा रहे प्रचार में वह हमेशा की तरह और उससे भी ज्यादा जोर से सीमा पर मारे गए जवानों की शहादत का उग्र-राष्ट्रवादी भावना व युद्धोन्माद भड़काने और इसके जरिए वोट जीतने के लिए इस्तेमाल कर रही है। सरकार ना सिर्फ झूठ का पुलिंदा खड़ा कर रही है, बल्कि चुनावी फायदे के लिए अपनी इच्छानुसार तथ्यों व आंकड़ों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रही है। दूसरी ओर, कांग्रेस भारत-चीन सीमा मसले और भारत की क्षेत्रीय अखंडता को उचित रूप से संभालने में मोदी सरकार की नाकामयाबी को बेनकाब करने के नाम पर जनता के बीच युद्धोन्माद फैलाने का काम कर रही है। यह बात सभी प्रतिक्रियावादी शासक वर्गों पर एक समान रूप से लागू होती है कि या तो वे सत्य को पूरी तरह छुपाते हैं, या फिर अपने संकीर्ण फायदों के लिए केवल अर्ध-सत्य ही पेश करते हैं। भारतीय शासक वर्गों में सर्वोच्च और अंतर्राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के भरोसेमंद पार्टनर, बड़े पूंजीपति वर्ग (बुर्जुआजी) के वफादार प्रतिनिधि होने के नाते, भाजपा और कांग्रेस जनता की सोच को भ्रष्ट करने और उसमें युद्धोन्मादी भावना भर कर उनके ही शोषण व लूट के साथ-साथ हर क्षेत्र (जैसे अर्थव्यवस्था, भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन, बैंकों में जमा पूंजी को हड़पना, और लोगों को रोजगार, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास मुहैया कराना आदि) में अपनी विफलताओं पर से ध्यान भटकाने के लिए एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे हैं।

आइए इनके मंसूबों का पर्दाफाश करने और सीमा पर शांति को दुबारा बहाल करने, और साथ ही एक बेहतर और आर्थिक रूप से सुरक्षित जीवन की मांग के लिए संघर्ष करने का हम एक बार फिर संकल्प लें।

आइए इस विश्व व्यवस्था को बदलने का संकल्प लें, क्योंकि अभूतपूर्व रूप से सड़ चुके मरणासन्न पूंजीवादी व्यवस्था में युद्ध का कोई समाधान नहीं है।

  • हमारे सीमा विवादों में अमेरिका की दखलंदाजी के खिलाफ आवाज उठाओ; अमेरिका व अन्य साम्राज्यवादी ताकतों से पूरी तरह स्वतंत्र नीति को आगे बढ़ाओ
  • ‘चीनी सामानों का बहिष्कार करो’ के आपसी अविश्वास को बढ़ावा देने वाले व्यर्थ अभियान को नकारो
  • सीमा विवादों को पारदर्शी द्विपक्षीय वार्ता से हल करो
  • सभी के लिए बेहतर व आर्थिक रूप से सुरक्षित जीवन प्रदान करो

[1] गलवान घाटी पूर्वी लद्दाख के निकट स्थित अक्साई चिन व एल.ए.सी. का एक हिस्सा है, जो लद्दाख और अक्साई चिन को अलग करता है। इसके दोनों ओर पहाड़ों के रहने के कारण यह भारतीय व चीनी सेनाओं के लिए रणनीतिक रूप से जरूरी क्षेत्र है और इसी कारण से 1962 के भारत-चीन युद्ध में यह घाटी प्रमुख रणभूमियों में से एक थी।

[2] डेपसंग भारत के दौलत बेग ओल्डी हवाई पट्टी व हाल में बने काराकोरम को जोड़ने वाले दरबुक श्योक दौलत बेग ओल्डी रोड (3418 कि.मी.) के पास है। अगर चीन डेपसंग प्लेंस पर कब्जा कर लेता है तो उसके पास हवाई पट्टी व रोड दोनों पर प्रभाव डालने की क्षमता आ जाएगी। इस रोड को बनाने में भारत का मुख्य लक्ष्य था काराकोरम सैन्य पोस्टों तक शीघ्र व बिना रूकावट के सामग्री पहुंचा पाना।

[3] भारत 7 देशों (चीन, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, अफगानिस्तान व भूटान) के साथ 15,106.7 कि.मी. लंबी भूमि सीमा रखता है। इसमें से केवल चीन के साथ 3488 कि.मी. की भूमि सीमा है, जो पश्चिमी सेक्टर (जम्मू कश्मीर), मध्य सेक्टर (हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड), व पूर्वी सेक्टर (सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश) में बटी हुई है। सीमा के सन्दर्भ में एक समझ नहीं होने के कारण भारत व चीन की सीमा की एक स्पष्ट रेखा नहीं है। इसी वजह से दोनों देश ‘लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल’ (एलएसी) का इस्तेमाल करते हैं।

[द ट्रुथ (अंक 3) में छपे इस लेख के अंग्रेजी संस्करण, जिसका शीर्षक था “say no to war and war mongering…” में इस, अर्थात तीसरे, फुटनोट में कुछ तथ्यात्मक त्रुटियां रह गई थी जिसके लिए हमें खेद है और जिन्हें इस हिंदी लेख में सुधार दिया गया है।]

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 3/ जुलाई 2020) में छपा था

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