~ शेखर
25 अक्टूबर, 1917 (नये कैलेंडर के अनुसार 7 नवंबर, 1917) के दिन, आज से 103 वर्ष पूर्व रूस में बोल्शेविकों द्वारा संगठित सर्वहारा समाजवादी क्रांति ने पूंजीपति वर्ग का तख्ता पलट दिया था और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना की थी। इसके पूर्व 18 मार्च 1871 को पेरिस में मात्र तीन महीने के लिए मजदूरों ने अपना राज्य (कम्यून) कायम किया था जिसका 28 मई 1871 को पतन हो गया था। इसके बाद अक्टूबर क्रांति मजदूर-मेहनतकश वर्ग की विश्व पूंजीवाद को जड़ से हिला देने वाली पहली महान ऐतिहासिक कार्रवाई थी जिसने सोवियत समाजवाद को जन्म दिया। यह समाजवाद अगले चालिस वर्षों तक टिका रहा जो एक संक्रमणकारी सर्वहारा राज्य था। रूसी मजदूरों ने एक नयी शोषणमुक्त समाज व्यवस्था बनाने के अपने चिरकालिक स्वप्न को अपनी आंखों के समक्ष साकार होते देखा। पूंजीवाद पर दृढ़ता से विजय पायी गई। प्रत्येक कुछ वर्षों के अंतराल पर ‘अतिउत्पादन’ के कारण बार-बार प्रकट होने वाले आर्थिक संकट और विनाश की पूंजीवाद की लाइलाज बीमारी पर भी विजय पा लिया गया था जो आज भी सभी पूंजीवादी मुल्कों में अनिवार्य रूप से पायी जाती है। बेरोजगारी, भुखमरी, छंटनी, तालाबंदी तथा वेतन एंव सुविधाओं में कटौती आदि का पूरी तरह खात्मा कर दिया गया था। दो दशक में ही रूस एक पिछड़े देश से एक महान आधुनिक तथा शोषणमुक्त समाजवादी देश बन चुका था जो विश्व के पूंजीवादी- साम्राज्यवादी देशों से हर सकारात्मक मायने में टक्कर ले रहा था। हिटलर के फासीवाद से मानवजाति को बचाने में तत्कालिन सोवियत यूनियन की भूमिका को क्या हम कभी भूल सकते हैं?
विश्वपूंजीवाद का गला घोंट देने वाली 1930 के दशक की वैश्विक महामंदी के दौरान भी सोवियत अर्थव्यवस्था अत्यंत ऊंचे दर से विकास कर रही थी जो इस बात का प्रमाण है कि शोषणमुक्त समाजवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक मंदी के लिए कोई जगह नहीं है। पूंजीवाद के दुर्गुणों और अंतरविरोधों का हल वास्तव में समाजवाद में ही संभव है। मशीनीकरण से बेरोजगारी का पैदा होना और बढ़ना पूंजीवादी विकास का एक आम नियम है। सोवियत समाजवाद ने इसका भी अतं कर दिया। उपरोक्त महामंदी के दौरान सोवियत कृषि में अत्यंत तेजी से मशीनीकरण हुआ, लेकिन इससे कोई बेरोजगारी पैदा नहीं हुई। ऐसे तेज मशीनीकरण से पूंजीवादी मुल्कों में बेरोजगारी का महाविस्फोट हो जाता। सोवियत रूस में ऐसा नहीं हुआ जबकि यहां समाजवादी औद्यौगीकरण की गति भी तेज थी। यह एक अकाट्य तथ्य है कि स्तालिन काल तक सोवियत यूनियन में मशीनीकरण ने न तो किसी की रोजी-रोटी छीनी और न ही नई सोवियत औद्योगिक सभ्यता के मलबे के नीचे मजदूर- मेहनतकश लोगों को दफन होना पड़ा। जबकि दूसरी तरफ, प्रत्येक पूंजीवादी मुल्क में विकास के साथ-साथ ऐसा ही होता आया है और आज भी हो रहा है। सोवियत समाजवादी अर्थव्यवस्था में सोवियत मजदूर-मेहनतकश व किसान सभी नवीन सभ्यता के निर्माता भी थे और इसके स्वामी भी। रोजगार और काम के अधिकार की सौ फीसदी गारंटी तो थी ही, श्रम की गरिमा को भी प्रतिष्ठित किया गया अर्थात ‘जो काम नहीं करेगा, वह खायेगा भी नहीं’ के मूलमंत्र को सोवियत संविधान की आत्मा बना दिया गया।
आज विश्व की स्थिती क्या है? आज कहीं भी समाजवाद नहीं है। विश्व पूंजीवाद आज बिना किसी बाधा के पूरी दुनिया पर राज्य कर रहा है। लेकिन इसका सकंट जस के तस बना हुआ है। बल्कि, यह और बढ़ा है और स्थाई रूप ले चुका है। पूरे विश्व में भुखमरी, कुपोषण और बेरोजगारी की समस्या का कोई समाधान नहीं हुआ है, उल्टे इसका साम्राज्य और भी ज्यादा फैल गया है। इतना ही नहीं मानवजाति के महाविनाश की आहटें भी सुनाई देने लगी हैं। प्रकृति के अतिदोहन के कारण पृथ्वी का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है। आज पूंजीवाद पूरी मानव जाति और इसके द्वारा निर्मित पूरी सभ्यता को नष्ट करने पर तुला है। पूरे विश्व में अतिप्रचुरता के बीच घोर दारिद्रय का बर्बर दृश्य इसका ही प्रमाण है। इसीलिए रूसी अक्टूबर क्रांति और समाजवाद दोनों आज हमारी चाहत नहीं अपितु पूरी मानवजाति के अस्तित्व की रक्षा के लिए फौरी आवश्यकता बन गये हैं। यही कारण है कि अक्टूबर (नवंबर) क्रांति का पैगाम और उसकी कार्यनीति व रणनीति को समझना जरूरी हो गया है।
खास भारत की बात करें, तो हम आज पूंजीवादी राज्य के फासिवादी दौर में जी रहे हैं। इस परिस्थिती में अक्टूबर क्रांति के पैगाम का महत्व कई मायनों में बढ़ जाता है। आज भारत में राज्य-प्रायोजित सुधारों के जरिये स्थापित हूए पूंजीवाद के घोर जनविरोधी, प्रतिक्रियावादी व अंतरविरोधी स्वरूप का सबसे घिनौना चेहरा प्रकट हो रहा है। आज भारत में फासीवादी उभार की असलियत एक अकाट्य तथ्य है। भारत की संपदा और यहां के जन साधारण खासकर मजदूरों-मेहनतकशों के श्रम के शोषण व लूट का शायद यह सर्वाधिक निर्लज्ज व निष्ठुर दौर है जिसके हम सब गवाह बन रहे हैं। इसकी विद्रुप तस्वीर हर कहीं देखी जा सकती है। एक तरफ आंखे चौंधिया देने वाले ऐश्वर्य के चंद टापू दिखाई देते हैं, तो दूसरी तरफ कंगाली और दरिद्रता का महासमुद्र नजर आता है जो बढ़ता ही जा रहा है। एक तरफ रात-दिन गुलछर्रे उड़ाते सुविधा संपन्न अतिधनाड्य मुट्ठी भर लोगों की एक छोटी सीमित दुनिया उठ खड़ी हुई है, तो दूसरी तरफ कुंठा, हताशा, कुपोषण, कर्जग्रस्तता, भूख, और बीमारी से बजबजाती, नरक से भी बदतर, गिरती-पड़ती और बदहबास एक अलग विशाल दुनिया उठ खड़ी हुई है जो लगातार फैलती और विस्तारित होती जा रही है। आम लोगों के दुखों का मानों कोई अंत ही न हो। ऐश्वर्य और दारिद्रय का यह घिनौना वैपरित्य आज निर्लज्जता की सारी हदें लांघ चुका है। दरअसल बात यहां से भी आगे निकल चुकी है और हमारे सोचने, रहने, बोलने, संगठन बनाने और विरोध करने तथा यहां तक कि खाने-पीने …की स्वतंत्रता पर फासीवादी हमला जारी है। विरोध की हर आवाज को कुचलने और हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पूरी तरह छीन लेने के सारे प्रयास किये जा रहे हैं। पूंजीवाद का दैत्यकार रूप हमारे सामने प्रकट हो चुका है।
कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी बेरहम परिस्थितियां दिन-प्रतिदिन क्रांतिकारी परिस्थिति को परिपक्व बना रहीं हैं। ऐसे में नवंबर समाजवादी क्रांति के व्यवहारिक व सैद्धांतिक दोनों तरह के अनुभवों का सटीक आकलन करना भारत के सच्चे कम्युनिस्टों का एक बड़ा काम है। रूसी बोल्शेविकों की क्रांतिकारी तैयारी के पूरे काल का सावधानी से सार संकलन करना और फिर उससे मिले सबक को पूरी तरह आत्मसात करना आज हमारी फौरी जरूरत बन चुकी है। भारत में आज जिस तरह से फासीवाद अपने पूर्ण विजय की तरफ कदम बढ़ाता जा रहा है उससे यह और भी मौजूं बन गया है। फासीवाद के खिलाफ हमारी मुहिम को किस तरह अक्टूबर क्रांति के सबकों के साथ मिलाया जाये और कैसे बिना पीछे हटे ही दोनों कार्यभारों को एक ही रणनीति के तहत संयुक्त किया जाए यह आज का हमारा सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार है जो यह मांग कर रहा है कि हम नवंबर क्रांति के अनुभवों को, इस क्रांति की तैयारी में आये तमाम नुकीले मोड़ों को और बिना किसी सांगठनिक टूट और बिखराव के कार्यनीतियों व रणनीतियों में लचीलेपन को लागू करने की बोल्शेविक विलक्षणता के स्रोतों को यानि संपूर्णता में बोल्शेविक क्राति के समग्र विकासक्रम को काफी नजदीकी से समझा जाये। आइये, रूसी नवंबर क्रांति के ठोस सबकों में से कुछ के बारे में हम यहां साफ-साफ बात करें।
नवंबर क्रांति में दुर्गम रास्तों के बीच कार्यनीतिक लचीलापन, वैचारिक केंद्रीकरण और जनवादी केंद्रीयता का आपस में शानदार समन्वय
महान रूसी क्रांतिकारी चेर्निशेब्स्की ने कहा था – “ऐतिहासिक कार्रवाई नेव्स्की राजमार्ग की पटरी नहीं है।” ‘अमेरिकी मजदूरों के नाम पत्र’ में लेनिन लिखते हैं – “वह क्रांतिकारी नहीं है जो महज ‘इस शर्त पर’ पर सर्वहारा क्रांति के लिए ‘राजी’ हो कि वह आसानी के साथ और बिना किसी दिक्कत के ही हो जाएगी, कि क्रांति का पथ प्रशस्त, खुला हुआ और सीधा होगा, कि उसमें हार न होने की गारंटी होगी, कि क्रांति के विजय अभियान में भारी से भारी से क्षति उठाने, ‘मुहासिरबंद किले में समय का इंतजार करने’ या बेहद संकरे, दुर्गम टेढ़े-मेढ़े और खतरनाक पहाड़ी रास्तों से गुजरने की जरूरत नहीं होगी। ऐसा सोचने वाला व्यक्ति क्रांतिकारी नहीं है ….ऐसा व्यक्ति हमारे दक्षिणपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों, मेंशेविकों और वामपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों की तरह निरंतर प्रतिक्रांतिकारी पूंजीपति वर्ग के खेमे में खिसकता हुआ पाया जाएगा।”
यह कहने की जरूरत नहीं है कि रूसी नवंबर क्रांति की तैयारी दुर्गम, टेढ़े-मेढ़े और असीम कठिनाइयों से भरे नुकीले मोड़ भरे रास्तों से गुजर कर की गई जिसमें क्रांतिकारी लचीलेपन का अब तक का सबसे बेजोड़ और उन्नत प्रदर्शन किया गया। संघर्ष की लगातार बदलती परिस्थितियों में इसके नाना प्रकार के रूपों को अपनाने और कार्यनीतियों में नाना प्रकार के बदलावों की तीक्ष्ण और तीव्र होती जरूरतों के अनवरत दबाव के बीच बोल्शेविज्म प्रत्येक महत्वपूर्ण व निर्णायक घड़ी में, सत्ता हाथ में लेने की धड़ी में भी, एक चट्टान की भांति एकताबद्ध बना रहा। सवाल है, हमारे अपने अनुभवों के विपरीत (जिसके अनुसार हर नुकीले मोड़ पर पार्टी टूटती रही है) बोल्शेविकों द्वारा लचीलापन प्रदर्शित करने के साथ-साथ अपनी संठनात्मक एकता को बनाये रखने की उसकी इस बेजोड़ क्षमता का स्रोत आखिर क्या था?
इसका एक मुख्य स्रोत था – सर्वोन्नत किस्म की विचारधारा यानि मार्क्सवाद के मूलाधार पर निर्मित वैचारिक व सांगठनिक केंद्रीकरण का वह संयुक्त प्रशिक्षण जो बोल्शेविक पार्टी में इसके जन्म से ही मौजूद था। यही कारण है कि बोल्शेविकों ने इस बात का जवाब सफलतापूर्वक ढूंढ़ लिया था कि आम मार्क्सवादी क्रातिकारी उसूलों को पार्टी-संगठन की फौलादी और अनुसाशनबद्ध एकजुटता के साथ किस तरह मिलाया जाए। वर्षों की मुश्तरका व केंद्रीकृत कार्यवाहियों के अपने व्यवहारिक अनुभव से उन्होंने यह सीख लिया था कि संकट की घड़ी में बिना बिखरे अचूक सार संकलन करते हुए और प्रहार क्षमता को लगातार विकसित करते वास्तविक एकजुटता व एकनिष्ठता किस तरह कायम की जाती है और की जानी चाहिए।
रूसी नवंबर क्रांति के सर्वप्रमुख नेता और विश्व सर्वहारा के महान शिक्षक कामरेड लेनिन की शिक्षा हमें बताती है कि कम्युनिस्ट पार्टी में सर्वहारा केंद्रीकरण सच्चे जनवाद पर टिका होता है जबकि दिखाबटी और औपचारिक जनवाद पर पार्टी के अंदर की नौकरशाही पनपती और टिकी रहती है। इसे ठीक से समझना आवश्यक है। यह ठीक उसी तरह होता है जिस तरह सर्वहारा अधिनायकत्व, जो सर्वहारा के वर्ग शासन की सर्वाधिक केंद्रीकृत कार्रवाई है, सच्चे सर्वहारा जनवाद पर टिका होता है जबकि पूंजीवादी तानाशाही औपचारिक जनवाद यानि दिखाबटी जनवाद, जो सभी पूंजीवादी जनतांत्रिक देशों में अनिवार्यत: पाया जाता है, पर आसीन होती है, टिकी रहती है।
क्या होता है पूंजीवादी जनतंत्र के अंतर्गत पाये जाने वाले दिखाबटी जनवाद का स्वरूप? यह इस तरह का होता है : एक तरफ, पूंजी की सर्वशक्तिमत्ता व उसके जुए के नीचे ‘सभी को वोट देने के अधिकार’, ‘कानून के समक्ष सभी की बराबरी के अधिकार’ आदि सहज रूप से बाह्य आवरण में बने रहते हैं यानी ऊपरी दिखाबे की चीज बने रहते हैं, जबकि अंदर ही अंदर पूंजी और पूंजीपतियों की बादशाहत कायम रहती है। दूसरी तरफ, सर्वहारा अधिनायकत्व है जिसमें यूं तो बाह्य तौर पर जनवाद का अभाव दिखता है, क्योंकि इसके अंतर्गत कल के मुट्टी भर मानवद्रोही आदमखोर पूंजीपतियों के लिए औपचारिक जनवाद के ढोंग को खत्म कर दिया जाता है, वहीं इसमें बहुसंख्यक सर्वहारा व मजूदर-मेहनतकश वर्ग और आम जनों को सच्चे तौर पर जनवाद प्राप्त होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि सर्वहारा तानाशाही के अंतर्गत पूंजी को और उसकी उस ताकत को खत्म कर दिया जाता है जो जनवाद को जनता से दूर किये रहती है। पूंजी की ताकत को कुचले बिना जनवाद का प्रसार नीचे तक हो सकता है यह सोचना मूर्खता की हद है, खासकर आज जब कि पूरे विश्व में एकाधिकार और वित्तीय अल्पतंत्र का खुला और नग्न साम्राज्य कायम हो चुका है और जनतंत्र की न्यूनतम अभिव्यक्ति भी खतरे में आ चुकी है।
कम्युनिस्ट संगठन के अंदर सजीव एकता कायम करने के सवाल पर लेनिन जनवादी केंद्रीयता को अत्यधिक महत्व देते थे। परंतु, लेनिन के लिए जनवादी केंद्रीयता जनवाद और केंद्रीयता का मिश्रण जैसी चीज नहीं थी जैसा कि आंदोलन में कुछ लोग समझते है। उसमें इंच और टेप लेकर पार्टी में जनवाद और केंद्रीयता की सापेक्ष उपस्थिति को मापने की कोई विधि तो कतई मौजूद नहीं है। लेनिन की इसकी शिक्षा सच्चे जनवाद और इस पर टिके केंद्रीकरण, जिसके बारे में ऊपर कहा गया है, के वास्तविक संश्लेषण पर आधारित है जिसके अनुसार जनवादी केंद्रीयता सर्वहारा जनवाद और केंद्रीयता का एक ऐसा संलयन (fusion) है जिसे ‘लगातार मुश्तरका कार्यवाही और समूचे पार्टी संगठन के द्वारा लगातार मुश्तरका संघर्ष के आधार पर ही हासिल किया जा सकता है।’
दरअसल पार्टी के अंदर और इसके द्वारा चलाये जाने वाले मुश्तरका कार्यवाही और संघर्ष को ही लेनिन कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर का केंद्रीयकरण कहते हैं। लेनिन इसकी व्याख्या इस तरह करते हैं : कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर के केंद्रीयकरण का मतलब है कम्युनिस्ट कार्यवाहियों का केंद्रीयकरण, यानी, युद्ध के लिए तैयार एक ऐसे शक्तिशाली केंद्र (सदर मुकाम) का निर्माण जो बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपने स्वरूप और नीतियों को बदलने में और इसके साथ ही अपने नेतृत्व में चलने वाले तमाम पार्टी संगठनों को भी अपनी क्रांतिकारी प्रतिष्ठा के बल पर अपने साथ ले चलने में सक्षम हो।
यहां स्पष्ट है कि लेनिन की पार्टी के अंदर मौजूद कार्यनीतिक लचीलेपन, जिसके बारे में ऊपर बात की गई है, का स्रोत और संबंध कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर मौजूद एक ऐसे ही शक्तिशाली केंद्र के निर्माण से था जो बदलती परिस्थितियों में अपने को उसी तेजी से बदल लेता था जितनी तेजी से परिस्थितियां बदल जाती थीं। हमें इसे रूसी क्रांति से प्राप्त होने वाला एक आम सबक मानना चाहिए कि ऐसे केंद्रीकरण के बिना लेनिनवादी पार्टी का निर्माण और इसीलिए पूंजीपति वर्ग से युद्धरत सर्वहारा वर्ग के सदर मुकाम के रूप में, क्रांति के एक हथियार के रूप में और सर्वहारा वर्ग के सच्चे कार्यकारी व क्रांतिकारी हरावल के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन असंभव है।
हम यहां स्वयं देख सकते हैं कि अक्टूबर क्रांति में इस तरह की पार्टी के उपस्थित रहने का क्या अहम योगदान रहा है। अगर ऐसी पार्टी मौजूद नहीं होती तो बाह्य परिस्थितियों के बावजूद वह क्रांति हुई होती इस पर स्वाभाविक तौर पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है।
हम मानते हैं कि भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों और सर्वहारा वर्ग की टुकड़ियों को इसे अमल में लाना चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में क्रांति के उबड़-खाबड़ रास्तों पर, जिसकी संभावना भारत जैसे देश में और अधिक है, विजय की मंजिल तक यात्रा करना असंभव जान पड़़ता है। आइये, रूसी क्रांति के इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण दृष्टांतों पर गौर कर करते हैं जो हमें इसे समझने में और ज्यादा मदद करेंगे।
प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने के वक्त बोल्शेविकों का सिर्फ एक नारा था – गृहयुद्ध। लेकिन मार्च-अप्रैल 1917 में, जब लेनिन रूस लौटे, तो उन्होंने ‘अपना रूख बिल्कुल बदल लिया’ क्योंकि रूसी किसान और मजदूर ‘मातृभूमि की प्रतिरक्षा’ की मेंशेविक नीति के प्रभाव में थे। प्रतिकूल परिस्थिति को समझने में लेनिन ने कोई देरी नहीं की। 7 अप्रैल को प्रकाशित अपनी थेसिस में लेनिन ने अत्यंत सावाधानी और धैर्य से लिखा – ”हमें सरकार का तख्ता उलट देना चाहिए, क्योंकि वह हमें न तो रोटी दे सकती है और न ही शांति। परंतु उसे तत्काल उलटा नहीं जा सकता, क्योंकि वह अभी भी मजदूरों का विश्वासपात्र बनी हुई है। हम ब्लांकीवादी नहीं हैं और हम मजदूर वर्ग के अल्पमत को लेकर बहुमत पर शासन नहीं करना चाहते।’
तो क्या विश्वयुद्ध की शुरूआत में तय की गई नीति (निर्मम व तत्काल गृहयुद्ध के प्रचार की नीति) गलत थी? नहीं। लेनिन को पूरा और गंभीरता से पढ़ने वाले सभी जानते हैं कि उसका मुख्य लक्ष्य पार्टी के अंदर एक निश्चित दृढ़संकल्पी केंद्र की स्थापना करना था। बाद की नीति यानी अस्थाई सरकार का तख्ता तत्काल उलट देने के विचार के विरोध की नीति का मुख्य लक्ष्य तत्काल गृहयुद्ध की नीति को रोक कर जनसाधारण का समर्थन प्राप्त करने तक तैयारी को अंतिम रूप देने तक इंतजार करने की नीति का हिस्सा था।
लेनिन इतने सावधान थे कि 20 अप्रैल, 1917 को आये पहले बड़े संकट के वक्त भी, जब दर्रे-दनियाल के बारे में घटित मिल्युकोव के प्रपत्र कांड के बाद अस्थाई सरकार की कलई खूल गई थी और इससे उत्तेजित और बिगड़े सश्स्त्र सैनिकों ने सरकारी इमारत को घेर कर मिल्युकोव को वहां से निकाल बाहर कर दिया था, तब भी लेनिन ने गृहयुद्ध का आह्वान नहीं किया। लेनिन ने अत्यंत सावधानी बरतते हुए इस कार्रवाई को ‘सशस्त्र प्रदर्शन से कुछ अधिक और सशस्त्र विद्रोह से कुछ कम’ कहा था।
यहां तक कि 22 अप्रैल को बोल्शेविक पार्टी के हुए सम्मेलन में ‘वामपंथी प्रवृत्ति के अनुयायियों’ ने अस्थाई सरकार को तुरंत उलटने की मांग तक कर डाली थी जिसके विपरीत लेनिन की सलाह पर केंद्रीय कमिटी ने प्रांतों में सभी आंदोलनकारियों को हिदायतें दी गईं कि वे इस झूठ का कि बोल्शेविक गृहयुद्ध चाहते हैं का खंडन करें। जितनी महीनी से और छोटी से छोटी चीजों का ख्याल रखा जा रहा था और योजना के कार्यान्वयन के पहले जांचा-परखा जा रहा था, ये सभी देखने लायक चीजें है। 22 अप्रैल को लेनिन ने लिखा – “अस्थाई सरकार को उलटने का नारा गलत है, क्योंकि जनता के समर्थन के बिना यह नारा या तो कोरी लफ्फाजी होगी या जुएबाजी।”

दक्षिणपंथी और वामपंथी भटकावों को परास्त किये बिना रूसी नवंबर क्रांति के संपन्न होने की कोई संभावना नहीं थी
रूसी नवंबर क्रांति की वास्तव में तैयारी नहीं हो पाती अगर बोल्शेविकों ने निरंतर और अथक रूप से दक्षिणपंथी और वामपंथी भटकावों के विरूद्ध सफलतापूर्वक संघर्ष नहीं किया होता। 1905 की क्रांति के असफल होने के बाद 1906-07 के दौरान जारशाही ने क्रांति और क्रांतिकारियों को लगभग पूरी तरह कुचल डाला था। लेकिन बोल्शेविक पार्टी एक भिन्न रूप लेकर, एक भिन्न उपाय (यानी कार्यनीति) का प्रयोग करके (रूसी संसद का क्रांतिकारी इस्तेमाल करने की नीति का शानदार प्रयोग करके) ऐन मौके पर और ठीक दुश्मन के किले में जा घुंसी और जारशाही की जड़ अंदर से खोदने का काम शुरू कर दिया। लेकिन रूसी संसद में धुंसकर अंदर से जड़ खोदने का काम नहीं हो पाता अगर बोल्शेविकों ने अपने समय के घोर सुधारवादी-अवसरवादियों (जिनके शीर्षस्थ नेता जर्मन पार्टी के शिदेमान और काउत्सकी जैसे लोग थे) और साथ ही साथ बहिष्कारवादियों (वामपंथी एवं अतिवामपंथी भटकाववादियों) आदि को सैद्धांतिक और व्यवहारिक रूप से परास्त करने में सफलता न पायी होती।
दक्षिणपंथी अवसरवाद के विरूद्ध बोल्शेविकों के संघर्ष को देखें तो इस इतिहास में हमारे लिए अमूल्य सबक मौजदू हैं। रूस के सुधारवादी-अवसरवादी पार्टियों, लोगों, दलों (जैसे कि मेंशेविकों) का संसदीय भटकाव मुख्य रूप से इस बात में निहित था कि वे पूंजीवादी जनवाद और संसद से चिपके रहने और मुख्य रूप उसी पर निर्भर रहने की वकालत करते थे न कि मुख्य रूप से सर्वहाराओं की क्रांतिकारी कार्रवाइयों पर टिकने की। वे सर्वहारा और किसान वर्ग की क्रांति को भी संसदीय बहुमत के मातहत कर देते थे। यानी, क्रांति के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए वे एकमात्र इस शर्त पर तैयार थे जब जनता का बहुमत क्रांति के पक्ष में मतदान करेगा। इस संसदीय कूपमंडुकता का लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने यह जवाब दिया था – ”जो नीच हैं या मूर्ख हैं वे ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पहले पूंजीवादी वर्ग के जुए के नीचे, उजरती गुलामी के नीचे होने वाले चुनावों में बहुमत प्राप्त करना होगा और तभी उसे सत्ता हाथ में लेनी चाहिए।….. यह सच है कि जब तक मेहनतकश जनता का विशाल बहुमत अपने हिरावल सर्वहारा को अपनी सहानुभूति और समर्थन न दे, तब तक सर्वहारा क्रांति असंभव है। परंतु, सहानुभूति ओर यह समर्थन एक दम से प्रकट नहीं होते और न ही चुनाव द्वारा निश्चित होते हैं। वे दीर्घ, कठोर, दुष्कर वर्ग-संघर्ष के दौरान प्राप्त किये जाते हैं। भारत में संसदीय चुनावों में भागीदारी और संपूर्णता में संसद का उपयोग करने के प्रश्न पर हमारे लिए बोल्शेविकों की दक्षिणपंथी अवसरवादियों के विरूद्ध लड़ाई का यह इतिहास हमारे यहां के मेंशेविकों (सीपीआई-सीपीएम-लिबरेशन-एसयूसीआई आदि) से राजनैतिक व वैचारिक संघर्ष चलाने के लिए कितना महत्वपूर्ण है हम समझ सकते हैं।
दूसरी तरफ, हम जानते हैं कि रूसी नवंबर क्रांति वर्षों तक निम्न पूंजीवादी क्रांतिवाद और अर्ध-अराजकतावाद, जो रूसी प्रतिक्रियावादी संसद में भाग नहीं लेने की जिद पर अड़ा थ, से लड़कर आगे बढ़ी और संपन्न हुई। लेनिन जब इसका समाहार करते हैं (क्रांति के बाद) तो यह चेतावनी देते हुए कहते हैं – ”1906 में दूमा का बहिष्कार करके बोल्शेविकों ने गलती की थी, हालांकि वह एक छोटी गलती थी और उसे आसानी से ठीक कर लिया गया। 1907, 1908 और बाद के वर्षों में दूमा का बहिष्कार करना बहुत बड़ी गलती होती, जिसे ठीक करना मुश्किल हो जाता। …आज जब पीछे की ओर मुड़कर इस ऐतिहासक काल पर नजर डालते हैं तो यह बात खासतौर से साफ हो जाती है कि यदि बोल्शेविक दृढ़ता के साथ अपने इस मत के लिए नहीं लड़ते कि संघर्ष के कानूनी और गैर कानूनी रूपों को मिलाकर चलना आवश्यक है और एक घोर प्रतिक्रियावादी संसद तथा प्रतिक्रियावादी कानूनों से जकड़ी दूसरी अनेक संस्थाओं में भाग लेना आवश्यक है, तो 1908 से लेकर 1914 तक के काल में सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के मुख्य भाग को सुरक्षित रखना भी बोल्शेविकों के लिए असंभव हो जाता, इसे मजबूत बनाना, बढ़ाना, विकसित करना तो दूर की बात है। लेनिन की यह चेतावनी आज भी हमारे लिए खासकर बहिष्कारवादिययों की गलत दिशा के खिलाफ लड़ने के संदर्भ में एक बड़ा हथियार है।
दक्षिणपंथी और वाम भटकाव के विरूद्ध बोल्शेविकों के अनवरत संघर्ष का और उनके सतत क्रांतिकारी प्रशिक्षण का ही परिणाम था कि वैघ रूप से यानी संसद के अंदर जाकर पूंजीपतियों के राज्य रूपी किले को खोद डालने की नीति का अनुसरण करने के कुछ वर्ष गुजरते-गुजरते जब वह समय आ गया जब लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को पलटा जा सकता था तो बोल्शेविकों ने ठीक ऐन वक्त पर कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई और न ही अनिच्छा प्रकट की जिससे यह लगता है कि मानों वह इसी पल का इंतजार कर रहे थे। पुराने इस्क्रा की 1900 में हुई स्थापना में मात्र दस लोगों ने भाग लिया था। 1903 में ब्रसेल्स और लंदन में संपन्न हुई अवैध पार्टी कांग्रेसों में महज कोई 40 क्रांतिकारियों ने भाग लिया था। यह एक लंबे सफर की एक छोटी शुरूआत ही मानी जाएगी। इसमें सच्चे बोल्शेविकों की संख्या और कम ही थी। लेकिन बोल्शेविकों की उसी छोटी टुकड़ी ने सही कार्यनीति व रणनीति अपनाकर 1912-13 में जब बैध बोल्शेविक दैनिक प्राव्दा का प्रकाशन आरंभ किया, तो यह टुकड़ी इतनी बड़ी हो चुकी थी कि इसे लाखों मजदूरों का समर्थन प्राप्त था। नवंबर 1917 में संविधान सभा के निर्वाचन में कुल 3 करोड़ 60 लाख मतदाताओं में 90 लाख मजदूरों ने बोल्शेविकों को अपना मत दिया था और इस तरह वाम और दक्षिणपंथी दोनों तरह के भटकावों को परास्त करते हुए ऐन क्रांति के वक्त वे एक अजेय शक्ति बन चुके थे – एक ऐसी शक्ति जिसने विश्वपूंजीवादी व्यवस्था में कंपकंपी पैदा करने वाली मजदूर वर्गीय क्रांति संपन्न कर दी। अक्टूबर, 1917 के अंत और नवंबर के आरंभ में वास्तविक संघर्ष के सभी क्षेत्रों में बोल्शेविकों को सर्वहारा और वर्ग-चेतन मेहनतकश किसानों के बहुमत के साथ-साथ 1 करोड़ 20 लाख की विशाल सेना के बहुमत का भी समर्थन प्राप्त था। और यह वामपंथी और दक्षिणपंथी भटकावों से निर्ममतापूर्वक लड़े बिना कतई संभव नहीं था, जैसा कि लेनिन स्वयं कहते हैं।
जमीनी तैयारी के लिहाज से बोल्शेविक क्रांति की दो मंजिलों पर चंद अहम बातें
जमीनी तैयारी के लिहाज से अक्टूबर क्रांति को मोटे तौर पर दो मंजिलों में बांटा जा सकता है और बांटा जाना चाहिए। तभी हमें यह गुत्थी समझ में आएगी कि बोल्शेविकों ने ‘इतनी आसानी’ से क्रांति जैसी चीज कैसे संपन्न कर ली। लेनिन ने स्वयं यह कहा है कि यह क्राति अपेक्षाकृत आसानी से संपन्न कर ली गई। लेनिन ऐसा दरअसल भावी यूरोपीय क्रांतियों के लिहाज से बोलते हैं जैसा कि जर्मनी में दिखा। दरअसल लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने विश्वयुद्ध के समय ही भावी क्रांति का मोटे तौर पर एक खाका खींच लिया था और एक योजना भी बना ली थी। इस योजना का पहला हिस्सा व काम एक वास्तविक कम्युनिस्ट पार्टी बनाना था और इसके लिए जरूरी था कि दक्षिणपंथी अवसरवाद, निम्न पूंजीवादी क्रांतिवाद, अराजकतावाद, अतिवामपंथ और अंधराष्ट्रवाद जैसे आदि समस्त विजातीय प्रवृतियों के खिलाफ निर्मम संघर्ष चलाया जाए। इसीलिए हम देखते हैं कि बोल्शेविकों की पहली व दूसरी कांग्रेसों का मुख्य नारा यही था। खासकर दक्षिणपंथी अवसरवादियों के विरूद्ध लेनिन का आह्वान था कि ‘हमारा पहला कार्यभार एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी बनाना और मेंशेविकों से नाता तोड़ लेना है।’ जाहिर है अगर बोल्शेविक ‘एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ फैले मध्यमार्गियों, दक्षिणपंथी अर्ध-मध्यमार्गियों (जिन्हें रूस में मेंशेविक कहा जाता था), अराजकतावादियों और अतिवामपंथी लफ्फाजों को राजनीतिक व वैचारिक रूप से ठिकाने लगाते हुए उनसे पूरी तरह नाता नहीं तोड़ लेते, तो क्रांति की जीत का सवाल ही नहीं था और न ही हम आज यहां उस पर कलम चले रहे होते। मध्यमार्गियों, दक्षिणपंथी अर्ध-मध्यमार्गियों ( जिन्हें रूस में मेंशेविक कहा जाता था), अराजकतावादियों और वामपंथी लफ्फाजों से नाता तोड़ते हुए एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की योजना बोल्शेविक योजना की पहली मंजिल थी।
इसकी दूसरी मंजिल इस बात में निहित थी कि ‘पार्टी में संगठित होने के बाद क्रांति की तैयारी करना सीखा जाए।’ इसके लिए यह सीखना जरूरी था कि कैसे आम अवाम का नेतृत्व ग्रहण किया जाए। अक्टूबर क्रांति में बोल्शेविकों की कार्यवाहियों का इतिहास इस बात का सबूत है कि बोल्शेविकों ने इस काम को भी यानी आम अवाम का नेतृत्व करने की कला सीखने में भी कोई देरी नहीं की और कुछ ही दिनों के अडिग व्यवहार से वे इसमें सर्वथा पारंगत भी हो गये। लेनिन लिखते हैं –” हम क्रांति में सिर्फ इसलिए विजयी नहीं हुए कि मजदूर वर्ग का बहुमत (1917 के अक्टूबर के चुनावों में मजदूरों का प्रबल बहुमत मेंशेविकों के खिलाफ हमारे पक्ष में था) निर्विवाद रूप से हमारे साथ था, बल्कि इसलिए भी कि हमारे द्वारा सत्ता ग्रहण किये जाने के फौरन बाद ही आधी फौज और उसके चंद हफ्तों के भीतर ही दस में से नौ किसान हमारे पक्ष में हो गये।” इस तरह रूस के एक करोड़ से अधिक मजदूरों –किसानों की हथियारबंद फौज का नेतृत्व भी पूरी तरह बोल्शेविकों ने ग्रहण कर लिया था। ज्ञातव्य है कि जिन किसानों का अक्टूबर 1917 में रूझान बोल्शेविकों के खिलाफ था और जिन्होंने संविधान सभा में समाजवादी-क्रांतिकारियों को बहुत में भेजा था, उन्हें भी बोल्शेविकों ने चंद हफ्तों में अपने पक्ष में कर लिया था।’ सच पूछा जाए तो रूसी अक्टूबर क्रांति इस बात का जीता जागता सबूत है कि किसी कम्युनिस्ट पार्टी को मजदूर वर्ग एवं जन साधारण का नेतृत्व किस तरह हासिल करना चाहिए। किसी भी देश में भावी मजदूर वर्गीय क्रांति की सफलता के लिए इसे जरूर ही सीखना चाहिए। ‘बल्कि, यूं कहना चाहिए कि (सर्वहारा के अग्रदल को) क्रांतिकारी परिस्थिति की आरे बढने और उसमें संक्रमण करने में वह सिर्फ अपनी पार्टी का ही नहीं, बल्कि आम जनता का नेतृत्व करने में भी समर्थ होना चाहिए। हम देखते हैं कि रूस में पहला ऐतिहासिक लक्ष्य (यानी सर्वहारा के वर्ग सचेतन हरावल को क्रांतिकारी परिस्थिति में संक्रमण कराना, उसे सर्वहारा अधिानायकत्व के पक्ष में लाना) अवसरवाद और समाजिक अंधाराष्ट्रवाद पर पूर्ण सैद्धांतिक एवं राजनीतिक विजय प्राप्त कर के किया गया। वहीं, दूसरे लक्ष्य यानी आम जनता को क्रांति में संक्रमण कराने और हरावल की विजय को सुनिश्चित करने वाली स्थिति तक ले जाने के लक्ष्य को वामपंथी मतवादी कट्टरता और निम्न पूंजीवादी क्रांतिवाद व अर्धअराजकतावाद के खिलाफ लडते हुए और उनका पूरी तरह उन्मूलन करके तथा उनकी गलतियों को पूरी तरह दूर कर के किया गया।’
क्या एक छोटी पार्टी भी अवाम का नेतृत्व कर सकती है?
प्रश्न है क्या एक छोटी पार्टी पूरी अवाम का नेतृत्व कर सकती है? हम पाते हैं कि अक्टूबर क्रांति ने अवाम की धारणा को भी काफी विकसित और स्पष्ट किया है। इन सबके बारे में रूसी अक्टूबर क्रांति ने ऐतिहासिक रूप से मूल्यवान मिसालें, अनुभव और सबक प्रदान किये हैं। रूसी अक्टूबर क्रांति का प्रवाहमान इतिहास हमें बताता है कि अवाम एक ऐसी धारणा है जो संघर्ष की मात्रा और उसके चरित्र में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार बदलती रहती है। शुरूआत में कुछेक एक सौ या हजार सच्चे क्रांतिकारी मजदूर या जन साधारण ही अवाम के रूप होते हैं। अगर पार्टी ‘पार्टी के बाहर के लोगों’ को भी जाग्रत करने में सफल होती है तो इसे अवाम को जीत लेने की शुरूआत माना जा सकता है। लेनिन लिखते हैं – ”अगर आंदोलन जोर पकड़ता है और फैलता है तो वह धीरे-धीरे सच्ची क्रांति में बदल जाता है। रूस में ये चीजें 1905 की एक और 1917 की दो-दो क्रांतियों के दौरान बखूबी देखने को मिलती हैं। क्रांति की तैयारी बड़े पैमाने पर हो जाती है तब अवाम की धारणा भिन्न हो जाती है। तब चंद हजार मजदूर अवाम नहीं रह जाते। तब ये शब्द कुछ और ही मायने देने लगते हैं। अवाम की धारणा इस रूप में बदल जाती है कि उसका अर्थ बहुमत बन जाता है। वह भी महज मजदूरों का बहुमत नहीं, बल्कि सभी शोषितों का बहुमत।” किसी भी क्राति की सफलता के लिए राजनीतिक विकास की इस गति का पूरी तरह अध्ययन और गैर पार्टी अवाम के जीवन तथा रिवाजों से वाकिफ होना जरूरी होता है। अगर यह काम कोई छोटी पार्टी भी करने में सक्षम हो जाती है तो यह संभव है कि ‘एक छोटी पार्टी भी किसी अनुकूल घड़ी में क्रातिकारी आंदोलन पैदा कर दे। लेनिन लिखते हैं – ”मैं बेशर्ती तौर पर इस बात से इनकार नहीं करता कि एक बहुत ही छोटी पार्टी क्रांति शुरू कर सकती है और उसे विजय पूर्वक अंत तक पहुंचा सकती है। लेकिन हमें यह जानना चाहिए कि हम अवाम को किस ढंग से अपने पक्ष में खींच सकते हैं। …अवाम का नेतृत्व करने के लिए एक बिल्कूल छोटी पार्टी भी काफी है। किन्हीं घड़ियों में बड़े संगठन जरूरी नहीं होते। लेकिन विजय के लिए अवाम की हमदर्दी जरूर हमारे साथ होनी चाहिए।”
प्रथम विश्वयुद्ध के वक्त जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी और बोल्शेविक पार्टी के बीच तुलना की जाए तो ठीक यही सूरतेहाल दिखाई पड़ती है। अपेक्षाकृत एक छोटी पार्टी- बोल्शेविक पार्टी- ने लाखों रूसी मजदूरों, किसानों व सैनिकों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया, जब कि जर्मन पार्टी जैसी बड़ी पार्टी ने ऐन मौके पर पूंजीपति वर्ग के पक्ष में लुढ़क गई। यह बात दिखाती है रूसी क्राति ने ”अवाम का क्रांतिकारी नेतृत्व” करने की पुरानी धारणा को भी गुणात्मक रूप से बदल दिया था।
सर्वहारा क्रांति और इसकी संश्रयकारी किसान क्राति का अनोखा मिलन
क्रांति पूरा करने की युद्धनीति
लेनिन इस प्रश्न को सर्वहारा क्रांति में बहुमत अवाम के समर्थन की बात से जोड़ते हुए कहते हैं – ”पूर्ण बहुमत हमेशा जरूरी नहीं होता, लेकिन विजय और सत्ता को हाथ मे रखने के लिए महज मजदूर वर्ग (औद्योगिक मजदूर वर्ग) का ही बहुमत नहीं, बल्कि देहाती आबादी के शोषितों और मेहनतकशों का बहुमत भी जरूरी है।” लेनिन इस बात का उत्तर देते हुए कि सर्वहारा क्राति बोल्शेविकों के लिए शुरू करना आसान क्यों था, कहते हैं – ”इसे आरंभ करना हमारे लिए (उन्नत पूंजीवादी देशों की तुलना में) ज्यादा आसान इसलिए था कि पहले तो जारशाही राजतंत्र के असाधारण पिछड़ेपन – 20वीं शताब्दी के यूरोप के लिए – ने जन साधारण के क्रांतिकारी प्रहार को एक असाधारण बल प्रदान किया। दूसरे, रूस के पिछड़पन के कारण पूंजीपतियों के विरूद्ध सर्वहारा क्रांति और जमींदारों के विरूद्ध किसान क्रांति दोनों निराले ढंग से एक दूसरे से मिल गईं। अक्टूबर, 1917 में हमने शुरूआत यहां से की थी और यदि हमने शुरूआत यहां से नहीं की होती, तो हम इतनी आसानी से विजय प्राप्त नहीं कर पाते। बहुत पहले 1856 में ही मार्क्स ने प्रशा के प्रसंग में सर्वहारा क्रांति तथा किसान युद्ध के एक अनोखे संयोजन की संभावना की बात कही थी।”
दरअसल रूसी सर्वहारा क्रांति इसके हरावल (सर्वहारा वर्ग) के साथ इसकी संश्रयकारी मित्र शक्तियों खासकर मेहनतकश किसानों के भूस्वामी विरोधी क्रांतिकारी विद्रोह व पहलकदमी के योगफल का परिणाम थी। किसानों की शानदार जमींदार विरोधी प्रवृत्ति का स्रोत थी रूसी जनवादी क्रांति (फरवरी 1917) में किसानों की जमीन की मांग के साथ पूंजीपति वर्ग द्वारा की गई ऐतिहासिक गद्दारी, जिसके कारण सर्वहारा क्रांति के फूटते-फूटते भी, फूट पड़ने के कुछ महीनों पहले तक, किसान क्रांति/जनवादी क्रांति के एक और नये संस्करण की सभावना स्वयं लेनिन ने भी व्यक्त किया था। लेनिन को पता था कि किसान गुस्से से भरे हैं और अगर सर्वहारा क्रांति असंख्य रूसी किसानों की जमीन की भूख को पूरा करती है तो वह अजेय हो जाएगी। वहीं यह डर भी था कि किसानों की जमीन की भूख को पूरा करने की ढोंगपूर्ण और साजिशी प्रतिक्रियावादी कोशिश सर्वहारा क्रांति को खून में डूबा देगी। बोल्शेविकों और खासकर लेनिन को जिन्हें परिस्थिति का साफ और स्पष्ट मूल्यांकन करने और वर्ग शक्तियों के संतुलन का सही-सही हिसाब-किताब लगाने में महारथ हासिल था, सर्वहारा क्रांति की आसान जीत में तब कोई संदेह नहीं रह गया था जब उन्होंने 28 अक्टूबर 1917 को, क्रांति के दूसरे दिन जमीन कानून (Land Dcree) की घोषणा की थी। परंतु, हम जानते हैं कि बात सिर्फ जमीन कानून की घोषणा से भी नहीं बनती, अगर बोल्शेविक किसानों की विशाल आबादी को सीधे राजनीतिक आंदोलन में नहीं खींच लाते जिसके कारण किसान समझ पाये कि समाजवादी क्रांतिकारियों की कथनी और करनी में कितना फर्क है। तभी लेनिन ने लिखा कि ” ऐसी हालत पैदा करने के लिए, जिसमें पूरा वर्ग, जिसमें आम मेहनतकश जनता और वे सभी लोग, जो पूंजी द्वारा उत्पीडि़त हैं, ऐसा (क्रांतिकारी) रूख अपना सके, केवल प्रचार और आंदोलन ही काफी नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि जनता स्वयं राजनीतिक आंदोलन में अनुभव प्राप्त करे। यह सभी महान क्रांतियों का बुनियादी नियम है।”
लेनिन और आगे लिखते हैं – ”जब सवाल बड़ी-बड़ी सेनाओं को मैदान में उतारने और अंतिम तथा निर्णायक युद्ध के लिए समाज विशेष की सभी वर्ग शक्तियों की मोर्चेबंदी का है, तब केवल प्रचार के तरीकों से, ”शुद्ध” कम्युनिज्म के सत्यों को तोते की तरह दोहराने से काम नहीं चलता। ऐसी परिस्थिति में, हमें अपने से सिर्फ यह सवाल नहीं करना है कि हमने क्रांतिकारी वर्ग के हरावल को अपनी बात का यकीन दिला दिया है या नहीं, बल्कि यह भी पूछना चाहिए कि सभी वर्गों की – बिना किसी अपवाद के समाज विशेष के सभी वर्गों की ऐतिहासिक रूप से प्रभावपूर्ण शक्तियां इस प्रकार संयोजित हो गई हैं या नहीं, कि निर्णायक युद्ध अत्यंत सन्निकट आ गया हो।” इसी से जुड़ी यह बात भी इतनी ही महत्वपूर्ण है कि ”हमारी सभी विरोधी वर्ग शक्तियां आपस में काफी उलझ गई हों, एक दूसरे से काफी टकराने लगी हों, अपनी सामर्थ्य से बाहर के युद्ध में भाग लेकर अपने को काफी कमजोर बना चुकी हों; सभी ढुलमूल, अस्थिर, मध्यवर्ती अंशकों ने, ….. निम्न पूंजीवादी वर्ग और निम्न पूंजीवादी जनवादियों ने अपनी व्यवहारिक दिवालियेपन के जरिये जनता की नजरों में अपनी असलियत काफी जाहिर कर चुकी हों और अपने को काफी जलील कर लिया हो; तथा, सर्वहारा वर्ग में पूंजीपति वर्ग के खिलाफ बहुत ही दृढ़, हद दर्जे की साहसपूर्ण और क्रांतिकारी कदम उठाने के पक्ष में प्रबल और आम भावना पैदा हो गई हो और तेजी से आगे बढ़ने लगी हो।” तभी और एकमात्र तभी क्रांति जीती जा सकती है। लेनिन कहते हैं – ”जब ऐसी हालत पैदा हो जाए, तब ये समझना चाहिए कि क्रांति परिपक्व हो गई है और यदि ऊपर संक्षेप में बताई गई सभी बातों का हमने ठीक-ठीक मूल्यांकन किया है और सही वक्त चुना है, तब यह समझना चाहिए कि हमारी विजय निश्चित है।”
इसके अतिरिक्त क्रांति की अंतिम जीत के लिए व्यवहारिक समझौतों और पीछे कदम उठाने की योग्यता अहम है। ‘कम्युनिज्म के प्रति गहन निष्ठा के साथ-साथ यह आवश्यक है कि हम हर प्रकार के आवश्यक व्यवहारिक समझौते, पहलू बदलने और पीछे कदम हटाने आदि की भी योग्यता रखते हों। दोनों चीजों को मिलना आवश्यक है …ताकि आम जनता हमारे विचारों के अनुरूप शिक्षित, कम्युनिज्म की दिशा में निर्देशित हो सके, और ताकि, उससे भी बढ़कर, प्रतिक्रियावादियों के अनिवार्य मतभेदों, झगड़ों, संघर्षों और संपूर्ण विघटन को और तेज किया जा सके, ताकि वह सही घड़ी चुनी जा सके जब प्रतिक्रियावादियों की फूट अपनी चरमावस्था पर पहुंच चुकी हो, ताकि ऐसी घड़ी आये जब सर्वहारा वर्ग निर्णायक प्रहार कर इन सबको हरा दे और राजनीतिक सत्ता पर कब्जा कर ले।’
इस तरह हम कह सकते हैं कि क्रांति करने की सफल युद्धनीति इन अमली निष्कर्ष और नतीजों में निहित है : पहला यह कि क्रांतिकारी वर्ग को अपना काम पूरा करने के लिए बिना किसी अपवाद के सामाजिक क्रिया के सभी रूपों या पहलुओं में अवश्य ही पारंगत होना चाहिए; दूसरा यह कि क्रांतिकारी वर्ग को बहुत ही जल्दी के साथ और बड़े अप्रत्याशित ढंग से एक रूप को छोड़कर दूसरा रूप अपनाने के लिए अवश्य ही सदा तैयार रहना चाहिए।’ रूसी नवंबर क्रांति का अनुभव हमें बता रहा है कि ‘जो क्रांतिकारी हर तरह के कानूनी संघर्ष के साथ संघर्ष के गैर-कानूनी तरीकों को मिलाना नहीं जानते, वे सचमुच बहुत ही घटिया तरह के क्रांतिकारी हैं।’

क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर बनाम बहुमत से क्रांतिकारी रणनीति की ओर
‘क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर बढ़ा जाए या बहुमत से क्रांतिकारी रणनीति की ओर बढ़ा जाए’ वाली दुविधा बोल्शेविकों के मुकाबले में खड़ी उस समय की लगभग सभी धाराओं के बीच व्याप्त थी। जहां वास्तविक आंदोलन मजदूर वर्गीय शक्तियों के केंद्रीकरण, एकमुश्तरका कार्रवाई और लौह अनुशासन की मांग कर रहा था, वहीं, आंदोलन में वृहद जनवाद और स्वतंत्रता के अंतिरंजित चित्र भी खींचे जाते थे। बहुमत प्राप्त करने के लिए इसे जरूरी बताया जाता था। जर्मनी में काउत्स्कीपंथी और शिदेमानपंथी इस प्रवृति के सबसे ठेंठ प्रतिनिधि थे जो प्रकारांतर से मानते थे कि ”जनवाद और स्वतंत्रता ही सबकुछ है, क्रांति के ध्येय कुछ भी नहीं हैं” दूसरे शब्दों में कहें, तो क्रांति के ध्येय को बहुमत के लिए ‘थोड़ी देर के लिए’ भुलाया जा सकता है – ऐसा मानना प्रकारांतर में एक फैशन बन गया। परंतु, बोल्शेविक पार्टी और अक्टूबर क्रांति यह दिखाने में सफल रही कि ”क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर” बढ़ने का तरीका ही सही तरीका है और क्रांतियों के द्वंद्ववादी विकास का यही कंद्रीय नियम है जिसका अर्थ है कि क्रांति को वास्तव में तभी संपन्न किया जा सकता है जब मजदूर वर्ग की सच्ची पार्टी बहुमत के लिए एकमात्र प्रचंड वर्ग संघर्ष और सभी रूपों वाले भीषण राजनीतिक वैचारिक संघर्ष पर भरोसा करती है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि क्रांतिकारी सिद्धांत की कुर्बानी दिये बगैर बहुमत हासिल करने के कार्यभार को समझने, क्रांति के ध्येय की तिलांजलि दिये बिना ही संसदीय कार्यवाहियों में भागीदारी करने के सवाल को समझने और संपूर्णता में क्रांति के विकास की पूरी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से रूसी अक्टूबर समाजवादी क्रांति इतिहास और घटनाक्रम का गहन अध्ययन मजदूर वर्ग के नेताओं के लिए जरूरी है। जर्मन मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी नेत्री रोजा लुक्वजेम्बर्ग ने बिल्कुल सही कहा है –” इस तरह बोल्शेविकों ने ‘जनता का बहुमत जीतने’ की विख्यात समस्या का हल कर दिया जो दु:स्वप्न के बोझ की तरह जर्मन सामाजिक जनवाद पर चढ़ी रहती थी। ये जर्मन सामाजिक जनवादी जिनकी रग-रग में संसदीय मूढ़ूमतिवाद समाया हुआ है, क्रांतियों पर संसदीय नर्सरी की उस घरेलु विद्वता को लागू करते हैं जिसके अनुसार कुछ भी करने के पहले हमें एक बहुमत’ की जरूरत होती है। यही बात, वे कहते हैं, क्रांतियों पर भी लागू होती है : पहले हमें एक बहुमत बनाना होगा। लेकिन क्रांतियों का सही द्वंद्ववाद संसदीय छछूंदरों की इस विद्वता को सर के बल खड़ा कर देता है : बहुमत से चलकर क्रांतिकारी रणनीति नहीं, बल्कि क्रांतिकारी रणनीति से बहुमत की ओर – रास्ता इस तरफ जाता है।” आगे रोजा कहती हैं – ” केवल एक ऐसी पार्टी जो जानती है कि किस तरह नेतृत्व प्रदान किया जाता है, जो चीजों को आगे बढ़ाना जानती है, वही तूफान के दिनों में समर्थन हासिल कर पाती है। जिस दृढ़ निश्चय के साथ, एकदम ऐन मौके पर, लेनिन और उनके कामरेडों ने ही केवल वह हल बताया जो घटनाओं को आगे बढ़ा सकता था, जिसने रातों-रात उन्हें एक उत्पीडि़त, लांक्षित, गैर कानूनी अल्पमत से परिस्थितियों के संपूर्ण नियंता में बदल दिया।” (रोजा के रूसी क्रांति नाम लेख से)
लेनिन लिखते हैं – ” वास्तविक जीवन तथा वास्तविक क्रांतियों के इतिहास से पता चलता है कि बहुत अक्सर ”मेहनतकश जनता के बहुमत की सहानुभूति” किसी भी चुनाव द्वारा प्रत्यक्ष नहीं की जा सकती (उन चुनावों का तो कहना ही क्या जो शोषकों की निगरानी में शोषकों तथा शोषितों की ”समानता” को बनाये हुए होते हैं!)। बहुत अक्सर ”मेहनतकश जनता की सहानुभूति” किसी भी चुनाव द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होती, वह प्रत्यक्ष होती है किसी पार्टी के विकास के द्वारा, सोवियतों में उस पार्टी के प्रतिनिधित्व की वृद्धि के द्वारा अथवा किसी ऐसी हड़ताल की सफलता के द्वारा जो किसी कारण से अत्यधिक महत्व प्राप्त कर लिया हो, अथवा गृहयुद्ध में प्राप्त की जाने वाली सफलताओं के द्वारा, आदि आदि।”
उपसंहार
जाहिर है, रूसी सर्वहारा क्रांति के ये सभी सबक भारत की भावी सर्वहारा क्रांति के लिए भी अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। हम आशा करते हैं कि हम भारत के क्रांतिकारी रूसी अक्टूबर क्रांति के सभी सबकों का सावधानी से अध्ययन करेंगे जिनमें से कुछ के बारे में हमने इस लेख में कुछ कहने या बताने की कोशिश की है। हां, हमें अंत में कुछ ऐसे संशयी लोगों के अनकहे प्रश्नों का अग्रिम तौर से ही जवाब जरूर देना चाहिए जो यह समझते हैं कि रूसी क्रांति के अनुभवों को दोहराया नहीं जा सकता है। सुनिये, लेनिन क्या कहते हैं – ”हमारी क्रांति के दो-चार विशेषतायें ही नहीं, बल्कि सभी बुनियादी विशेषतायें और बहुत सी गौण विशेषतायें भी इस मानी में अंतरराष्ट्रीय महत्व की हैं कि इस क्रांति का सभी देशों पर प्रभाव पड़ता है। नहीं, यदि हम अंतरराष्ट्रीय महत्व शब्द का इस्तेमाल अतिसंकुचित अर्थ में भी करें, यानी, यदि हम उसका यह अर्थ लगायें कि हमारे देश में जो कुछ भी हुआ वह अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से सत्य है, या यह कि हमारे देश में जो कुछ भी हुआ है उसका अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर दोहराया जाना ऐतिहासिक रूप से अवश्यंभावी है, तो हमें मानना पड़ेगा कि हमारी क्रांति की कुछ बुनियादी विेशेषतायें इस मायने में भी अंतरराष्ट्रीय महत्व की हैं।”
साथियों, आजकल पूरे विश्व में गहन आर्थिक संकट का दौर चल रहा है। इसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह कब किसी गंभीर राजनीतिक व क्रांतिकारी संकट को जन्म दे देगा। इन सबके परिणामस्वरूप सभी देशों में जो अनगिनत क्रांतिकारी चिंगारियां उड़ रही हैं, हम नहीं जानते और न ही हम पहले से यह जान सकते हैं कि उनमें से कौन सी चिंगारी आग लगा देगी, याने, इस मायने में कि वह जनता को उठाकर कहां खड़ा कर देगी। हम पहले से यह नहीं जानते और न ही जान सकते हैं कि यह आग साम्राज्यवादी विश्वव्यवस्था में किस जगह कौन सी और कितनी गहरी दरार बना देगी जिससे किसी देश में क्रांतिकारी परिस्थिति खड़ी हो जा सकती है या क्रांति फूट पड़ जा सकती है। इसीलिए हमें अपने कम्युनिस्ट उसूलों को लेकर अभी से ही सभी को आंदोलित करना चाहिए और सर्वहारा के अग्र दल को सच्चे अर्थों में एकत्रित और संगठित करना शुरू कर देना चाहिए। हमें हमेशा यह याद रखना होगा कि या तो पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का नाश होगा या फिर मानवजाति का महाविनाश हो जाएगा – कोई अन्य विकल्प नहीं है। निस्संदेह यह बात हमें प्रेरणा और विश्वास दोनों प्रदान करती है कि इस पृथ्वी पर पूंजीवाद से अलग, मानव द्वारा मानक के शोषण के बिना, एक अलग दुनिया, समाजवाद की दुनिया, लेनिन और स्तालिन के नेतृत्व में कभी स्थापित हुई थी; अर्थात मानवद्रोही व आदमखोर पूंजीवादी-साम्राज्यवादी दुनिया हमारा आखिरी भविष्य नहीं है। वक्त की शायद यही मांग है कि अक्टूबर क्रांति के ऐतिहासिक अनुभवों से ठोस सबक लेते हुए एक बार फिर साम्राज्यवादियों व पूंजीपतियों के उस स्वर्ग पर, एश्वर्य के उन चंद टापुओं पर धावा बोलने की तैयारी की जाए जिनके चारो ओर भयंकर दारिद्र्य का साम्राज्य फैला हुआ है और जनसाधारण की एक अति नारकीय दुनिया उठ खड़ी हुई है और फैलती जा रही है।
महान रूसी अक्टूबर समाजवादी क्रांति जिंदाबाद !
सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद जिंदाबाद !
[यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 7 / नवंबर 2020) के संपादकीय में छपा था]
Leave a Reply