अभूतपूर्व बेरोज़गारी : देश के इतिहास में ऐसी हालत कभी नहीं रही

एस. वी. सिंह //

कोरोना वायरस ने दुनियाभर में लड़खड़ाती-चरमराती पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं, को एकदम धराशायी कर दिया है, भारतीय अर्थव्यवस्था को शायद सबसे ज्यादा। ये महामारी इन्सानों और अर्थव्यवस्थाओं दोनों के लिए एक जैसी घातक सिद्ध हो रही है। झूठे प्रचार की नींव पर खड़ी हमारी तथाकथित ‘उभरती 5 ट्रिलियन’ वाली अर्थव्यवस्था का गुब्बारा फूट चुका है। अब तो आधिकारिक तौर से भी सरकार को मानना पड़ा है कि वृद्धि की दर नकारात्मक मतलब शून्य से भी कम रहने वाली है। अर्थव्यवस्थाओं के डूबने का सबसे गहरा और त्वरित प्रभाव बे-रोज़गारी के मोर्चे पर नज़र आता है। भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र (CMIE) द्वारा ज़ारी आंकड़ों के अनुसार मई 2020 के प्रथम सप्ताह में बे-रोज़गारी की औसत दर 27.11% रही (शहरी क्षेत्र में 29.22% तथा ग्रामीण क्षेत्र में 26.69%)। ये एक नया रिकॉर्ड है, इतनी ज्यादा बे-रोज़गारी दर कभी नहीं रही। हालाँकि असलियत इससे भी ज्यादा भयावह है, वैसे भी मौजूदा सरकार ने आंकड़ों को तोड़ने-मरोड़ने में विशेष योग्यता हांसिल करली है। झारखंड राज्य के लिए बे-रोज़गारी का आंकड़ा 59.2% और बिहार राज्य के लिए 46.2% है!! “बे-रोज़गारी 45 साल के रिकॉर्ड स्तर पर” ये हैड लाइन पिछले महीने हर अखबार की शोभा बढाती नज़र आई। हालाँकि ये हेड लाइन भी सही नहीं है क्योंकि 45 साल पहले का मतलब है- 1975 और उसका मतलब हुआ आपात काल (इमरजेंसी)। आज का वक़्त, हालाँकि, इमरजेंसी काल से बहुत कुछ मिलता जुलता है क्योंकि जैसे आज सरकार के किसी फैसले से मतभेद होने का मतलब देश का गद्दार होना है ठीक वैसा ही उस अँधेरे कालखंड में होता था जिसे इमरजेंसी के नाम से जाना जाता है, लेकिन बे-रोज़गारी की दर तब 8.2% ही थी जो आज के नज़दीक भी नहीं है। अत: अखबारों में सही हेड लाइन ये होनी चाहिए थी: “अभूतपूर्व बे-रोज़गारी; जैसी देश के इतिहास में कभी नहीं रही”। हमारे समाज का आज सबसे बड़ा हिस्सा उन लोगों का है जो बे-रोज़गार हैं मतलब जो काम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें काम नहीं है। बे-रोज़गारों की फ़ौज आज लगभग 30 करोड़ हो चुकी है। यही नहीं यदि हम देश के लघु-सीमांत किसानों में व्याप्त अर्ध-बेरोज़गारी और दूसरी जगह मौजूद छुपी बेरोज़गारी को भी जोड़ लें तो हमारी लगभग आधी आबादी बे-रोज़गार है, ऐसा बोलना पड़ेगा। स्थिति अत्यंत भयावह है। आईये, इस विकराल समस्या के सभी पहलुओं की व्यवस्थित जांच पड़ताल की जाए।

  1. ढांचागत बे-रोज़गारी
    पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था अपने चक्रीय संकटों और बे-रोज़गारी के बगैर अस्तित्व में रह ही नहीं सकती? कुछ मुट्ठी भर लोगों की सम्पन्नता और बाकी सारे समाज का दैरद्रियकरण, अति-उत्पादन सह भुखमरी इस व्यवस्था की विडम्बना और पहचान हैं। ये विशिष्टताएं आज की नहीं हैं जब ये पूंजीवादी व्यवस्था पिछले लगभग 45 साल से अपने मरणासन्न संकट में आकंठ डूबी हुई है। पूंजीवाद की ये बीमारी जन्मजात है, लगभग उतनी ही पुरानी जितना की इसका कुल जीवन है। ‘उत्पादन सामाजिक और उत्पाद को व्यक्तिगत मुनाफे के लिए हड़प लिया जाना’ एक जानलेवा अंतर्विरोध है जिसपर ये व्यवस्था टिकी हुई है और जो इस व्यवस्था को अपने साथ लेकर ही क़ब्र में जाता है। इस रोग को ठीक से समझते हुए, सन 1890 में पूंजी खंड तीन की प्रस्तावना नोट में सर्वहारा के महान नेता फ्रेडेरिक एंगेल्स लिखते हैं; “बड़े उद्योगों द्वारा आज जिस तीव्र गति से उत्पादन बढाया जा सकता है, उसके विपरीत उतनी ही धीमी गति से विभिन्न उत्पादित वस्तुओं का बाज़ार सिकुड़ता जाता है। बड़े उद्योग एक महीने में जितना उत्पादन कर सकते हैं उसकी खपत होने में बरसों लग जाते हैं। परिणाम होता है जीर्ण अति उत्पादन, कीमतों का दबाव में आना और मुनाफे की दर का गिरना या उसका बिलकुल ही विलुप्त हो जाना; संक्षेप में कहें तो बहु प्रचारित मुक्त प्रतियोगिता के लिए संसाधनों का अंत हो जाना; ये सब मिलकर पूंजीवाद के अपमानजनक दिवालियेपन की घोषणा करते हैं।” पूंजीवाद का चक्रीय संकट संक्षेप में इस तरह होता है: जड़ पूंजी का लगातार बढ़ते जाना, श्रम के लिए उपयुक्त होने वाली परिवर्तनशील पूंजी का सतत कम होते जाना; ऐसा निरंतर करते जाने की अनिवार्यता; परिणाम स्वरूप मुनाफे की दर का गिरते जाना, इसका परिणाम अति उत्पादन और फिर उत्पादन के साधनों का नष्ट होना और इस सब की परिणति अंततोगत्वा भयंकर बे-रोज़गारी में होना। पूंजीवाद जब ‘स्वस्थ विकास’ कर रहा था तब भी वह हर 8 से 10 साल में चक्रीय संकट से रुबरु होता था जिसका परिणाम भी बे-रोज़गारी में ही हुआ करता था। हालाँकि उस वक़्त संकट के बाद तेज़ विकास की अवस्थिति (Boom) हुआ करती थी जिसमें काफी मज़दूरों को फिर से काम मिल जाया करता था। फिर से अगले चक्रीय संकट के वक़्त फिर बे-रोज़गारी का संकट पैदा हुआ करता था। पूंजीवाद ने पहले चक्रीय संकट का सामना सन 1825 में किया था। सन 1991 से तो इस संकट ने मरणासन्न संकट का रूप ले लिया है जिसे तब से आज तक एक बार भी तेज़ी (बूम) की अवस्था या विकास की तथाकथित हरी कोपलें देखने को नहीं मिली हैं। संकट दिन ब दिन गहराता ही जा रहा है। पिछले 29 साल से तो ये सिसकता पूंजीवाद अधमरी अवस्था में मृत्युशय्या पर उस जीर्ण टी बी के मरीज की तरह है जिसे डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है, जिसकी श्वसन की नलियाँ हटा ली गई हैं। इसी का परिणाम है कि उत्पादन की नई इकाइयाँ लगना तो भूल ही जाइये, वर्त्तमान उद्योग भी अपनी कुल क्षमता की आंशिक क्षमता पर ही चल रहे हैं और उसी का नतीजा है कि मज़दूरों की छंटनी की दर तेज़ी से बढ़ती जा रही है। ऐसे वक़्त में कोरोना महामारी का हमला हुआ है। सरकार ने बगैर किसी योजना के, हड़बड़ी में, जैसे उसके हाथ पांव फूल गए हों, तुरंत देश भर में पूर्ण लॉक डाउन की घोषणा कर दी। नाटकीय अंदाज़ में टी वी पर आकर देश को संबोधित करते हुए घोषणाएँ करना और फिर उसके परिणामों से नज़र फेर लेना और अगली घोषणा करने के अवसर की ताड में बैठना, मौजूदा हुकूमत का सबसे प्रिय काम है। इस घोषणा से एक झटके में सिर्फ़ अप्रेल के महीने में लगभग 2.7 करोड़ लोग पहले से मौजूद बे-रोज़गारों की विशालकाय फौज में शामिल हो गए। लॉक डाउन के पूरे दिनों में कुल कितने लोगों को अपनी रोज़ी रोटी से हाथ धोना पड़ा इसका  एकदम सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है लेकिन विभिन्न स्रोतों के आधार पर ये संख्या 8 करोड़ से कम नहीं है। उत्पादन की लहर (बूम) या ‘हरी कोपलें’ तो भूल ही जाइये, लॉक डाउन के पहले का स्तर पाना भी असंभव है। व्यवस्था के ताबेदार, सत्ता द्वारा पाले पोसे जाने वाले व्यवस्था प्रबंधक बदहवाश हैं; कोरोना का टीका या ईलाज तो देर सबेर ढूँढ़ ही लिया जाएगा लेकिन क़ब्र में टांगे लटकाए पड़ी इस पूंजीवादी व्यवस्था को तंदुरुस्त बनाने कोई टीका, कोई जड़ी बूटी कहीं से कहीं तक नज़र नहीं आ रही। मोदी सरकार 2014 के आम चुनाव में  लोगों को हर साल 2 करोड़ लोगों को रोज़गार देने के वादे की बदौलत सत्ता की कुर्सी तक पहुंची थी। इसी का नतीज़ा था कि देश का दिशाहीन युवा, भाजपा को जिताने के लिए चुनाव केंद्र तक दौड़ते हुए एक दूसरे पर गिर पड़ रहा था, ये सोचकर कि जैसे ही मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, उनकी नियुक्ति पत्र वाला लिफ़ाफ़ा भी तुरंत ही ज़ारी हो जाएगा!! क्रूर और कर्कश सच्चाई ने देश के युवा वर्ग को हिलाकर, झकझोड़ कर रख दिया है। इस पूंजीवादी सत्ता के टुकड़खोर विशेषज्ञों ने अब पूरी बे-शर्मी के साथ कहना शुरू कर दिया है कि देश को कोरोना वायरस के साथ ही नहीं बल्कि बे-रोज़गारी के साथ भी जीना सीखना पड़ेगा। सरकार ने अब बे-रोज़गारी के मुद्दे पर बोलना ही बंद किया हुआ है और ये मुद्दा लोगों में बहस-डिबेट का मुद्दा ना बन जाए इसके लिए ध्यान बंटाने की हर तिकड़म अपनाई जा रही है क्योंकि सरकार जानती है कि पूंजीवाद द्वारा जनित इस बीमारी का कोई ईलाज है ही नहीं। ये बीमारी पूंजीवाद के साथ ही कब्र में जाएगी उससे पहले नहीं
  2. छुपी बे-रोज़गारी
    पंजीकृत और गैर-पंजीकृत बे-रोज़गारों के अतिरिक्त भी हमारे समाज में ऐसे कई समुदाय मौजूद हैं, और इनकी संख्या काफ़ी है जो अपने जीवन यापन के लायक़ नहीं कमा  पाते, हालाँकि वो हर वक़्त हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। ये छुपी बे-रोज़गारी है जो प्रथम दृष्टया नज़र नहीं आती लेकिन अगर देश में व्याप्त बे-रोज़गारी की पूरी तस्वीर जाननी है तो इस सेक्शन को भी बे-रोज़गारों में ही गिनना पड़ेगा। हम यहाँ ऐसे अनेक अनुभागों में से प्रमुख दो की ही विवेचना करेंगे।
    पहला: लघु एवं सीमांत किसान: जिस किसान के पास उसकी खुद की खेती की ज़मीन एक हेक्टेयर मतलब 2.5 एकड़ तक है उसे सीमांत किसान और जिसके पास 2 हेक्टेयर अर्थात 5 एकड़ तक ज़मीन है उसे लघु किसान बोला जाता है। लघु और सीमांत किसान, दोनों की तादाद देश में कुल किसानों की तादाद का 86.2% है। प्रतिष्ठित पत्रकार पी साईनाथ ने अपनी शोध से बताया है कि देश में कुल 9.58 करोड़ परिवार हैं जो खेती के व्यवसाय में लगे हुए हैं तथा कुल किसानों की तादाद पता करनी है तो इसे 5 से गुणा करना होगा। इस तरह; 9.58 करोड़ गुणा 5 = 47.9 करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं। सीमांत और लघु किसानों की कुल तादाद हुई: 47.9 करोड़ का 86.2%; मतलब 41.29 करोड़। देश के उद्योग-व्यवसाय की तरह ही खेती-किसानी में भी आज़ादी मिलने के बाद से ही पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था काम कर रही है। उस वक़्त से ही खेती भूमि, किसानों के एक वर्ग के पास केन्द्रित होती जा रही है और दूसरी ओर लघु और सीमांत किसान भूमिहीन होकर सर्वहारा कैंप में शामिल होते जा रहे हैं। इस प्रक्रिया की गति, लेकिन, उद्योग-व्यापर क्षेत्र के मुकाबले धीमी है। पूंजी को खेती किसानी में पूरी तरह मुक्त रूप से खेलने देने में कुछ बाधाएं/ नियंत्रण जान पूछकर ज़ारी रहे क्योंकि इतने विशाल समूह का खेती से एक झटके में बे-दखल होकर सर्वहारा के रूप में शहरों में जमा होते जाना एक भयावह संकट को जन्म दे सकता था जिसे शासन तंत्र नियंत्रित ना कर पाता। पूंजी के सतत जान लेवा संकट और  दूसरी तरफ चन्द पूंजीपतियों के पास पूंजी के बढ़ते पहाड़ को निवेश के अवसर उपलब्ध कराने के सरकार, मतलब सरमाएदारों की मैनेजमेंट समिति के फ़र्ज़ के तहत, अब वो विकल्प भी नहीं बचा। ‘पूंजी के खेल’ में पैदा की गई सब रुकावटों को अब हटाया जा रहा है। ‘आपदा में अवसर’ की अपनी निति के तहत सरकार ने अभी हाल में कृषि क्षेत्र में कई बुनियादी बदलाव किए हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन किया गया है। राज्यों को कृषि उत्पाद मंडी समितियों को भंग करने को कहा गया है जिससे किसानों के लिए अपनी उपज को देश में कहीं भी मुक्त बाज़ार के रूप में बेचने का रास्ता साफ कर दिया गया है। शेयर मार्किट की तरह अनाज की ई-ट्रेडिंग की व्यवस्था करने की भी योजना है। सीमांत और लघु किसान, जो कुल किसानों का 86.2% हैं, इस हालत में भी नहीं होते कि वे अपनी फसल को बेचने के लिए उसके पकने तक का इन्तेज़ार भी कर सके। अपने जीवन मरण की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें पहले ही साहूकारों और आड़तियों/ व्यापारियों/ धनी किसानों से क़र्ज़ लेना पड़ता है। समाज के सबसे बे-हाल और शोषित ये लघु और सीमांत किसान, जो कुछ भी ‘कमा’ पाते हैं वो अपने खाने-पीने की ज़रूरतों को लगातार कम करते जाने से ही संभव हो पाता है। उन्हें भूखे पेट दिन में 15 घंटों तक हाड़तोड़ मेहनत करनी होती है। इतना ही नहीं अपने छोटे- छोटे बच्चों और महिलाओं को भी बिलकुल बंधुआ मज़दूरों की तरह उस छोटे से ज़मीन के टुकड़े में झोंक देना पड़ता है। इतना सब कुछ करने के बाद भी ‘बचत’ तब ही हो पाती है जब कोई प्राकृतिक विपदा जैसे बाढ़, सूखा, रोग, टिड्डीदल आदि कुछ समस्या ना आए और ऐसा कभी कभार ही  होता है। सीमांत और लघु किसानों की हालत ग्रामीण सर्वहारा से भी दयनीय है। क्या ये सीमांत और लघु किसान इस स्थिति में हैं कि वे अपनी उपज को मुक्त बाज़ार में बेचने के लिए देश में कहीं भी ले जा सकें? क्या एक अधनंगा, अधभूखा, अस्थि पंजर जिसे सीमांत किसान के नाम से जाना जाता है और जिसे ये भी नहीं पता कि स्कूल का क्लास रूम अन्दर से कैसा दिखता है, अपने लैपटॉप पर ‘इ ट्रेडिंग’ कर सकता है? किसानों की हालत बताते हुए लेनिन (संकलित रचनाएं, खंड 3 में) लिखते हैं: “उसका (सीमांत किसान का) मुनाफ़ा उसके अनाज से भरे कुठलों से नहीं बल्कि उसके खाली पेट से आता है…एक आम मज़दूर, एक बड़े फार्म पर काम करते हुए खुद से कहता है; मैं चाहता हूँ कि दिन अभी ख़त्म हो जाए, छोटा किसान, लेकिन, हमेशा हर सीज़न में खुद से यही कहता है; ओह, काश दिन एक दो घंटे और बड़ा होता.” सीमांत और लघु किसान समाज के क्रूरतम शोषित लोग हैं और इनके शोषक ये खुद हैं, उनकी वस्तुगत हालत द्वारा बनाए हुए। इनका ज़िन्दगी बहुत छोटी होती है। लगभग सभी आत्महत्या करने वाले किसान ये ही होते हैं। ये ना सिर्फ़ आधे भूखे, आधे नंगे रहते हैं बल्कि ये लोग हमेशा क़र्ज़ के बोझ तले भी दबे रहते हैं। ये लोग पशु पालन भी करते हैं लेकिन इनके द्वारा उत्पादित सारे के सारे दूध को ये लोग बेचने को मज़बूर होते हैं, इनके अपने बच्चे उसे चखने तक को तरस जाते हैं। सरकार की नई कृषि नीतियाँ जल्द ही इन्हें अपनी ज़मीन के छोटे से टुकडे से बे-दखल कर डालने वाली हैं और ये पूरे का पूरा सेक्शन सर्वहारा की रैंक में मिल जाने वाला है क्योंकि इनके पास सिर्फ़ दो ही विकल्प हैं; या तो भूखों मरें या शहर की मज़दूर बस्तियों में सर्वहारा बन समा जाएँ। इनकी तादाद हमारे देश में इकतालीस करोड़ से भी अधिक है, ये बात भूलनी नहीं चाहिए। आज भी इनकी गिनती पूर्ण नहीं तो कम से कम अर्ध-बेरोज़गारों में तो होनी ही चाहिए।
    दूसरा: स्व: रोज़गार: मोदी सरकार के बहु प्रचारित ‘विकास’ का सबसे ज्यादा बजने वाला ढोल स्व:रोज़गार सृजन का है: “रोज़गार मांगने वाले नहीं रोज़गार देने वाले बनो” मानो जो लोग भी अपना खुद का फुटकर काम, रेहेड़ी, खोमचे आदि हज़ार प्रकार के पटरी पर माल बेच रहे हैं, जो भी अपने स्व:व्यवसाय कर रहे हैं, सब ऐश कर रहे हैं और वो उन सब को रोज़गार प्रदान करने को लालायित हैं जो भी उनके पास से गुज़र जाए!! आईये, पड़ताल करते हैं। ‘नोटबंदी’ वो भयंकर हमला था जो इस सरकार ने उन सभी ग़रीब गुरबों पर बोला था जो दिहाड़ी मज़दूरी, रेहेड़ी, खोमचे लगाकर, पटरी पर सामना बेचकर अपना पेट पालते थे। चूँकि उनकी छोटी छोटी बिक्रियां, ज़ाहिर तौर पर, कैश में ही हुआ करती थीं इसलिए वो नोटबंदी की मार झेल ही नहीं पाए और अपना टाट कमंडल समेटकर सर्वहारा सेना में शामिल होकर, अपनी बची एक मात्र वस्तु, श्रम शक्ति बेचने के लिए हर सुबह पास के लेबर चौकों पर खड़े होने को मज़बूर हो गए। एक रिपोर्ट के मुताबिक नोटबंदी ने 50 लाख से भी अधिक लोगों का स्व रोज़गार छीन लिया। प्राणघातक नोट बंदी के बाद आया डरावना जी एस टी!! 30 जून 2017 की आधी रात को ठीक 12 बजे ढोल नगाड़े बजाकर हुई जी एस टी की घोषणा मानो लोगों को मूर्ख बनाने का प्रायोजन तथा छोटे और फुटकर व्यापारियों की मौत का अट्टहास था!! छोटे व्यापारी, उत्पादक बर्बाद हो गए और व्यवसाय का वो अंश बड़े ब्रांडेड उत्पादकों की झोली में दाखिल हो गया, वही जी एस टी का असल उद्देश्य था। सर्वहारा की सेना और बड़ी हो गई क्योंकि करोड़ों फुटकर व्यवसायी उसमें भरती हो गए। नोट बंदी और जी एस टी की मार से भी जो स्व:व्यवसायी बच निकले थे, मानो  उनका काम तमाम करने के लिए ही सरकार खुदरा व्यापार में 100% विदेशी निवेश का कानून लेकर आई!! वो पार्टी जिसने कुछ ही साल पहले जिस कानून का विरोध मिरगी के दौरे वाले मरीज की तरह किया था और महीनों संसद को बन्धक बनाकर रखा था उसे अब खुदरा व्यापर में 100% विदेशी निवेश लाकर उन व्यापारियों का सत्यानाश करने में कोई झिझक महसूस नहीं हुई जो हमेशा से उनके विचारों के पोषक और उनके पक्के मतदाता रहे हैं। पूंजीवादी सरकारों को यूँ ही कॉर्पोरेट की मैनेजमेंट समिति नहीं कहते!! पूंजीवाद के ‘शाश्वत’ नियमानुसार सरमाएदार और सर्वहारा के बीच वाली जगह पर कुछ भी ठहरने वाला नहीं है सबको देर सबेर सर्वहारा के महासागर में समा जाना है। छोटे-फुटकर व्यापारियों, स्व:व्यवसायियों की बात तो जाने दीजिए, नव उदारीकरण के पूंजीवाद के निर्बाध हमले के सामने कितने ही दिग्गज कॉर्पोरेट भी पछाड़ खाकर गिर रहे हैं। व्यवसाय डूबने पर ख़ुदकशी करने वालों में कई अपने ज़माने के धन्ना सेठ भी शामिल हैं। बात का निचोड़ ये है कि युवकों को पकौड़े तलने का ज्ञान दरअसल उनका मखौल उड़ाते हुए ये सुनिश्चित करने के बाद दिया गया था कि छोटा व्यवसायी बाज़ार में नज़र ही नहीं आना चाहिए, जो भी माल बिके वो बड़े कॉर्पोरेट के कारखानों से निकला ब्रांडेड ही बिके।
  3. सीज़न की बे-रोज़गारी
    देश में ऐसे अनेक व्यवसाय हैं जो सिर्फ़ किसी विशेष सीज़न में ही चलते हैं। उदहारण के लिए; चीनी उद्योग, जो नवम्बर से अप्रैल के बीच ही चलता है। चीनी उद्योग में कुल 2.86 लाख मज़दूर काम करते हैं। ये सब कर्मचारी जिन्हें बा-रोज़गार लोगों में गिना जाता है असलियत में मई से अक्तूबर के बीच के 6 महीने बे-रोज़गार रहते हैं। इन 2.86 लाख मज़दूरों को सिर्फ़ 50% बा-रोज़गार ही बोला जाना चाहिए क्योंकि उन 6 महीनों के खाली सीज़न में इन्हें कोई पगार नहीं मिलती जब चीनी मिल बंद पड़े होते हैं। NSSO के सर्वे के आधार पर, IMA द्वारा ज़ारी भारतीय रोज़गार रिपोर्ट के अनुसार देशभर में फैले सीजनल उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों की कुल तादाद 11 करोड़ से भी अधिक है। ये सभी मज़दूर बे-रोज़गारों की गिनती में नहीं आते जबकि ये लोग आंशिक रूप से ही रोज़गार में हैं। उसी रिपोर्ट के अनुसार लगभग 1.8 करोड़ मज़दूर ऐसे हैं जो होटलों, ढाबों, ईंट भट्टों और घरेलू कामों में लगे हुए हैं जिन्हें काम तो 12 घंटों से भी अधिक करना पड़ता है लेकिन वेतन के तौर पर कभी कुछ मिल गया तो मिल गया। कुछ भी वेतन निश्चित नहीं बाकि श्रम सुविधाओं का तो इन्हें पता भी नहीं कि वो होती क्या हैं!! कुछ खाने को मिल जाता है इसलिए जिन्दा हैं, मर भी जाएँ तो भी कहीं गिनती नहीं होती!! इन्हें बे-रोज़गार कहा जाए या बा-रोज़गार ये भी एक शोध का विषय है। ये रिपोर्ट एक और महत्वपूर्ण तथ्य उजागर कराती है; “2010 के दशक से रोज़गार ही रुक गया है; 2011-12 रोज़गार आंकड़ा 46.7 करोड़ था जो 2015-16 में घटकर 46.2 करोड़ रह गया.” जबकि रोज़गार घटने की गति तो 2015-16 के बाद ही भयावह हुई है। बे-रोज़गारी की असली हालत का पता सरकारी आंकड़ों से ज्यादा सटीक तब चलता है जब कहीं किसी भरती की घोषणा होती है। यू पी में अभी पिछले साल अस्थायी चपरासियों के 368 पदों के लिए कुल 23 लाख आवेदन प्राप्त हुए थे। आवेदकों में अधिकतर पोस्ट ग्रेजुएट, इंजिनियर और पी एचडी धारक थे। कितना शर्मनाक मंज़र है ये!! आज असलियत ये है कि सरकारी मनरेगा (महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार कानून) में 200 रु रोज़ की मज़दूरी के लिए इंजिनियर और पी एचडी धारक लाइन लगाते हैं।
  4. भयानक कोरोना महामारी और योजना विहीन ताला बन्दी ने रोज़गारों को तबाह कर दिया
    सतत संकट ग्रस्त, अधमरी अर्थव्यवस्था जिसमें लगभग सभी उद्योग जो अपनी क्षमता के छोटे से प्रतिशत पर चालू थे मानो जैसे तैसे किढर रहे थे, उनको बगैर किसी योजना बनाए एक सरकारी फरमान द्वारा तुरंत एक झटके में बंद कर दिया गया। मानो करोड़ों मज़दूरों की साँस की नली ही बन्द कर दी गई!! देशभर में पसीना बहा रहे करोड़ों विस्थापित मज़दूरों पर जुल्मों-मुसीबतों-मौतों का ऐसा पहाड़ टूटा जिसे बयान करना ही संभव नहीं। CMIE द्वारा ज़ारी आंकड़ों के मुताबिक एक के बाद एक ज़ारी होने वाली इस जानलेवा लॉकडाउन ने कुल 12.2 करोड़ रोज़गार छीन लिए। आज हालत ये है कि बे-रोज़गारों की बजाए बा-रोज़गारों की गिनती करना आसान है।
  5. रोज़गार विहीन ‘विकास’
    असली कठोर और कड़वी सच्चाई आज की ये है कि सन 2007 में जब पहले से संकट ग्रस्त अर्थव्यवस्था भयानक मन्दी में डूब गई थी, तब से आज तक सही माने में कोई विकास नहीं हुआ है। ये वो संकट नहीं है जो चक्रीय होता है और जो पूंजीवादी व्यवस्था में नैसर्गिक रूप से गुंथा होता है, बल्कि ये अंतिम जान लेवा संकट है जिसे खुद पूंजीवाद के ताबेदार-खिदमतगार व्यवस्थागत (SYSTEMIC) या टर्मिनल बोल रहे हैं जो मरीज के साथ ही जाता है। कोई नया बाज़ार खोजने, विस्तार करने के लिए पृथ्वी पर कहीं कुछ नहीं बचा है, जिसे निचोड़ा जा सके। जैसे जैसे विपन्नता-कंगाली पसरती जा रही है मौजूदा बाज़ार भी सिकुड़ता जा रहा है जिसका विस्तार तब ही हो सकता है जब उत्पादन व्यक्तिगत मुनाफ़े के लिए ना होकर सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार हो, वो पूंजीवाद होने नहीं देगा!! परिणामत: लोगों को बहलाने के लिए जो भी 4 या 5 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर प्रचारित की जाती है वो या तो आंकड़ों की बाजीगरी से संपन्न होती है जिस विधा में मौजूदा सरकार को विशेष योग्यता हांसिल है या शेयर मार्किट में खेले जाने वाले जुए की बदौलत होती है। वह कोई स्वस्थ उत्पादक विकास नहीं है जिससे रोजगार सृजित हों। संकट ग्रस्त पूंजीवाद ने रोज़गार विहीन ‘विकास’ को जन्म दिया है। दिनांक 31.01.2019 के इकनोमिक टाइम्स में छपी रिपोर्ट एक दिलचस्प तथ्य उजागर करने वाली है; “दूसरे, नरेंद्र मोदी की ये सरकार बे-रोज़गारी के आंकड़ों को लेकर असाधारण रूप से कपटपूर्ण है। रोज़गार या उनका बिलकुल ही ना होना एक राजनीतिक मुसीबत की परिस्थिति बन चुकी है। इन आंकड़ों को मतदाताओं से छिपाने के लिए सरकार किसी भी हद तक जा रही है। सोमवार को तो अति ही हो गई, जब दिल्ली स्कुल ऑफ इकोनॉमिक्स के कार्यकारी चेयरमैन पी सी मोहनन और जे वी मीनाक्षी को सरकार द्वारा अनावश्यक दखल व हस्तक्षेप करने की वज़ह से भारत के प्रमुख आंकड़ा संकलक और विश्लेषण विभाग के लिए बने राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग से त्यागपत्र देना पड़ा.” मौजूदा हुकूमत के काम करने की संस्कृति और आंकड़ों को दबाने और उनमें घपला करने की असलियत ये है। इसी तरह, पिछले ही साल जब राष्ट्रीय सांख्यिकी एवं सर्वे विभाग (NSSO) ने देश में उपभोक्ता सम्बन्धी आंकड़े ज़ाहिर किए, जो ये कन्फर्म कर रहे थे की देश में ना सिर्फ़ कारें और फ़्लैट नहीं बिक रहे हैं बल्कि उपभोग की मूलभूत खाद्य वस्तुओं जैसे आनाज, चावल, दाल, तेल आदि की खपत में भी कमी आई है, जिससे ये सिद्ध होता है कि देश में भुखमरी पसर रही है, तो सरकार ने NSSO को ही बंद करने का फरमान सुना दिया था।
  6. देश के 46 सार्वजनिक निकाय और रेल विभाग बिक्री काउंटर पर; अति विशाल बे-रोज़गारी की आहट
    देश में मौजूद कुल 270 सार्वजनिक निकायों में से 46 को कौड़ियों के दाम देश के धन्ना सेठों को बेच डालने की लिस्ट कोरोना काल से पहले ही ज़ारी हो चुकी थी। इनमें भारत पेट्रोलियम और जीवन बिमा निगम जैसे नाम भी शामिल हैं। ये बिक्री तो अब तक संपन्न भी हो चुकी होती अगर कोविड-19 वायरस ने सरकारी काम में रूकावट ना पैदा की होती। ये लिस्ट तो तब की है जब कोरोना महामारी का आगमन हमारे देश में नहीं हुआ था और मोदी के ‘कुशल नेतृत्व’ में अर्थव्यवस्था छलांगें भर रही थी और वो 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बनने की ओर कूंच कर चुकी थी। आज तो अर्थव्यवस्था की फूंक खुद सरकार के आकलन में ही निकल चुकी है। रिज़र्व बैंक का रिज़र्व भी ये सरकार हज़म कर चुकी है। अब तो सरकारी उपक्रम बेचने की ये लिस्ट निश्चित ही संशोधित होगी और इससे कहीं लम्बी लिस्ट सामने आएगी। हालाँकि तात्कालिक तौर पर सरकार ने अपना एक बड़ा माल बेचने को निकाल दिया है। रेल मंत्री द्वारा बार बार ‘जनवाद के सर्वोच्च और पावन मंदिर’ संसद में ये आश्वासन देने के बाद भी की रेलवे का निजीकरण नहीं किया जाएगा, कोरोना महामारी के दौरान, आपदा को अवसर में बदलने की निति के तहत, देश के मुनाफ़ा कमाने वाले कमाऊ मार्गों पर चलने वाली 150 रेल गाड़ियों को बेचने की प्रक्रिया शुरू करते हुआ धन्ना सेठ ग्राहकों से खरीदी के आवेदन (RFQ) मांग लिए हैं। इन सब निजिकरणों का परिणाम भयंकर बे-रोज़गारी में होगा। इस हमले में वो लोग बे-रोज़गार होंगे जिन्हें सफेदपोश मज़दूर कहा जाता है, जो अपनी नोकरियों के बारे में सपने में भी ये नहीं सोचते थे कि उन्हें भी सर्वहारा की पांतों में आना पड़ेगा। ये समुदाय अपनी सेवा शर्तों को हांसिल करने के लिए खुद कभी नहीं लड़ा, सब कुछ तश्तरी में परोसा हुआ मिला इसलिए खुद को मज़दूर वर्ग मानने में भी पीड़ा और शर्म महसूस करता था लेकिन आज पूंजीवाद इस स्थिति में रहा ही नहीं कि किसी की पसंद ना पसंद का विचार कर सके। असलियत ये है कि जो भी अपना श्रम बेचकर वेतन पाता है वो मज़दूर ही है। देश की बहुमूल्य संपदाएँ कॉर्पोरेट को लुटाने का दूसरा पहलू ये है कि इन संस्थानों का निर्माण सरकारी ख़जाने से हुआ है और सरकारी ख़जाने में पैसा टैक्स के रूप में आम लोगों की जेबों और उनके पेट खाली करके आता है। कुछ बड़बोले उदारवादी पेटी बुर्जुआ ‘खान मार्किट टाइप’ लोग इस मुगालते में रहते हैं कि टैक्स सिर्फ़ अमीर या माध्यम वर्ग वाले लोग ही देते हैं। ये बात झूट और अन्यायकारक है जो ग़रीब लोगों के प्रति तिरस्कार और पूर्वाग्रह से पैदा हुई है। आम ग़रीब आदमी भी सुबह से शाम तक जिस भी वस्तु का उपभोग करता है जैसे चाय, चीनी, गैस, तेल, बीडी, माचिस, अनाज, दाल, सब्जी, मिर्च आदि कुछ भी, सबकी कीमत में टैक्स जुड़ा होता है। यहाँ तक की मरने के बाद चिता में जो लकड़ी इस्तेमाल होती हैं उन सब में 18% जी एस टी मिला होता है। टैक्स दो प्रकार के होते हैं; सीधे कर (Direct Tax) जैसे इनकम टैक्स और अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax) जैसे जी एस टी आदि। सरकार द्वारा वसूले गए कुल टैक्स में प्रत्यक्ष कर/ सीधे कर, मतलब अमीरों से वसूले जाने वाले टैक्स का हिस्सा महज 35% जबकि 65% हिस्सा अप्रत्यक्ष कर का है जिसे सारे लोगों से वसूला जाता है। सरकार प्रत्यक्ष कर की दरें कम करती जा रही है जबकि अप्रत्यक्ष कर की दर बढाती जा रही है। चूँकि आबादी में 90% ग़रीब हैं इसलिए कुल वसूले गए टैक्स में गरीबों का हिस्सा बहुत ज्यादा है। ये स्वयं- घोषित राष्ट्रवादी सरकार जब अपने पहले संस्करण में आई थी तब इन्होने विनिवेश मंत्रालय का गठन किया था आज वो मंत्रालय अपनी पूरी लय में है क्योंकि बहुत सारे सरकारी निकाय बेचने हैं। हर साल 2 करोड़ लोगों को रोज़गार देने के सपने दिखाकर सत्ता हांसिल करने वाली मौजूदा सरकार आज तक लगभग 10 करोड़ लोगों से उनके रोज़गार छीन चुकी है।
  7. बे-रोज़गारों से पैसे की ठगी तुरंत बंद करो
    टी वी के एक विख्यात पत्रकार रवीश कुमार ने महीनों तक लगातार कार्यक्रम चलाकर देशभर में बे-हाल बे-रोज़गारों के भविष्य के साथ हो रही धोखाधड़ी और ठगी अच्छी तरह उजागर की है। यह लोगों को रोज़गार देने के लिए स्थापित किए गए कर्मचारी चयन आयोगों के माध्यम से इस प्रकार से की जाती है: 50000 नोकरियों के लिए विज्ञापन ज़ारी किया जाता है, उसमें कम से कम 5 करोड़ बे-रोज़गार आवेदन करते हैं; हर एक से 500 रु शुल्क भी लिया गया तो कुल रकम 2500 करोड़ हो जाती है। पहले परीक्षा की तारीख ही बरसों तक लटकाकर रखी जाती है उसके बाद सालों परिणाम आने में लग जाते हैं, फिर किसी अदालत में याचिका दायर हो जाती है और पूरी प्रक्रिया अनंत काल के लिए ठन्डे बस्ते में चली जाती है। करोड़ों युवकों को सपने में खोया रखा जाता है जो रोज़गार पत्र का इन्तेज़ार करते रहते हैं और आखिर में उनके अरमानों पर ठंडा पानी फिर जाता है। ये कोई इक्का दुक्का घटनाएँ नहीं हैं बल्कि लगभग हर ‘भरती’ में ये ही हो रहा है। दो साल पहले यू पी में हजारों लड़कियाँ महिला पुलिस में भरती के लिए योग्य घोषित हुईं और आज तक योग्य ही बनी हुई हैं, सिपाही नहीं बन पाई। रोज़गार आता कहीं नज़र नहीं आता। अभी कुछ दिन पहले 69000 युवक प्राईमरी अध्यापक के पद पर नियुक्त घोषित हुए और मामला फिर अदालत में लटक गया। इसी तरह रेलवे विभाग में भी इस तरह की ‘नियुक्तियां’ होती रहती हैं। रेलवे विभाग द्वारा इस तरह लटकाए गए युवकों की तादाद 3.69 करोड़ है जो जाने कब से ‘नियुक्ति पत्र’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं और जाने कब तक करते रहेंगे। दरअसल, ये कर्मचारी चयन आयोग खुद ठप्प हो चुके हैं क्योंकि कर्मचारी चयन का काम ही विलुप्त हो चुका है। इनके खुद के कर्मचारी इसी तिकड़म बाज़ी से ही वेतन पा रहे हैं। शायद जल्द ही वे भी ‘सर्वहारा बे-रोज़गार ब्रिगेड’ में शामिल होने वाले हैं, काफी तो हो चुके हैं। ये खेल रोज़गार ना देने मात्र का ही नहीं बल्कि उससे कहीं संगीन है। युवाओं को संघर्ष के रास्ते से हटाकर मुंगेरीलाल के हसीन सपनों में खोने को बाध्य करके ये उन्हें हताशा-निराशा की अँधेरी गली में धकेलने की कवायद है।
  8. तनाव, निराशा, अवसाद, दीवानापन, आत्महत्याएं, शराबखोरी, ड्रग की लत और जघन्य अपराध की जड़ें बे-रोज़गारी में निहित हैं
    इस खूनी व्यवस्था ने युवाओं को प्यार-मुहब्बत भुलाकर मौत की तरफ़ धकेल दिया है। एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब आर्थिक कंगाली और अवसाद ग्रस्त होकर अंजाम दी गई कोई ह्रदय विदारक घटना सुनने को ना मिले। घोर व्यक्तिवाद, आत्म केन्द्रीयता, उपभोक्तावाद की आंधी, लुभावने सपनों में ले जाने वाले विज्ञापनों का सतत जोरदार आक्रमण, कहीं किसी आदर्श या उम्मीद का नज़र ना आना, समाज से समग्र अलगाव, संवेदनहीनता, सघन असामाजिकता ये सब सौगातें इस मानवद्रोही पूंजीवादी संस्कृति की हैं। इस  डूबती जा रही, आखरी सांसें गिन रही व्यवस्था के पास देने को और बचा ही क्या है? ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ ग़रीब या पढ़ने में कमज़ोर बच्चे ही अवसाद ग्रस्त हैं। सूचना अधिकार कानून के अंतर्गत प्राप्त एक जानकारी के अनुसार जो हिन्दू में छपी थी; पिछले 5 सालों में देश के सर्वोच्च संस्थान आई आई टी में कुल 28 छात्रों ने आत्म हत्याएं कीं। दिनांक 29.01.2020 को द हिन्दू अखबार में छपी एक जानकारी के मुताबिक हमारे देश में हर रोज़ औसत 28 छात्र आत्म हत्या करते हैं। “मैंने 2011 में न्युयोर्क विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया था, उम्मीदें बुलंद थी लेकिन कुछ शिक्षा क़र्ज़ भी बकाया था। 5 साल तक भुगतान करने के बावजूद भी उस वक़्त मेरे ऊपर $68000 का बैंक शिक्षा क़र्ज़ देना शेष था। एक साल बाद मेरी उम्मीदें दम तोड़ गईं और मैं पूरी तरह अवसाद ग्रस्त हो गया। जब न्युयोर्क में कोई काम मिलने का मेरा सपना टूट गया तो मेरी जीवन लीला पोर्टलैंड, ऑरेगोन में आकर समाप्त हो गई। अपने सपनों के कॉलेज से मास्टर्स डिग्री लेने के बाद मेरी ज़िन्दगी ऐसे समाप्त हो जाएगी ऐसा मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। मुझे शर्म, ग्लानी, अवसाद और सब कुछ निगल जाने वाली चिंता महसूस हो रही थी.” ये पूंजीवाद के स्वर्ग अमेरिका के एक प्रतिभावान छात्र का आत्महत्या पत्र है। ऐसे पत्र वहां आम हैं। क्या आप सोच सकते हैं कि आज हमारे देश में अवसादग्रस्त लोगों की कुल तादाद 20 करोड़ है? ये हमारी कुल आबादी का 15% है। लॉक डाउन घोषित होने के बाद रोज़गार छिनने की वज़ह से  कुल 300 विस्थापित मज़दूरों ने आत्महत्याएं कीं। हालाँकि ये आधिकारिक आंकड़े हैं, असलियत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। रोज़गार जाने, व्यापार डूब जाने, आर्थिक संकट से ना निकल पाने की वज़ह से अपनी जान ले ली, ऐसी ह्रदय विदारक घटनाएँ आम हो चुकी हैं। आने वाला वक़्त और गहरे अँधेरे की ओर इशारा कर रहा है।
  9. ‘सबको रोज़गार दो’ का नारा देश भर में गूँजना चाहिए
    अभूतपूर्व बेरोज़गारी की स्वाभाविक परिणति अभूतपूर्व जनाक्रोश में होना स्वाभाविक है भले एक के बाद एक लॉक डाउन और जानलेवा महामारी कोविड-19 की वज़ह से वो स्थिति सडकों पर आज नज़र नहीं आ रही। बे-रोज़गारों की ये विशाल फ़ौज जिसका आकार बढ़ता ही जा रहा है चुप नहीं बैठेगी। ये उनके जीवन- मरण का सवाल है। पेट की भूख आश्वासनों से नहीं बुझती। आगे बस एक ही रास्ता नज़र आता है; देशभर में बे-रोज़गारी के खिलाफ़ जनवादी जन आन्दोलनों की लहर पैदा करना। इन युवकों को फासीवादी प्रतिक्रियावादी शक्तियों की पैदल सेना बनने से रोकना होगा। इन दो मांगों पर जन जागरण अभियान केन्द्रित किया जाना ज़रूरी है:

सबको रोज़गार दो या रु 15000/ प्रति माह बे-रोज़गारी भत्ता दो    

आज जैसे हालात देश के इतिहास में पहले कभी नहीं बने। कोरोना- उपरांत दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी, ये बात निश्चित है। ये बात शासक वर्ग भी जानता है इसीलिए युद्ध के बादल चारों  ओर गहराने लगे हैं। पूंजीवाद ने अपने जिंदा रहने के लिए ये रास्ता कई बार आज़माया है। समाज को अँधेरे गर्त में धकेलने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियों को परिस्थिति का लाभ उठाने  का अवसर नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसका परिणाम फासीवाद के भयंकर विस्फोट के रूप में होगा, पिछली सदी के तीसरे दशक से भी ज्यादा भयावह और विनाशकारक। प्रतिक्रियावाद के हमले को निर्णायक रूप से और हमेशा के लिए शिकस्त देनी पड़ेगी। अपनी प्रतिष्ठित कृति ‘इंग्लैंड में मज़दूरों की दशा’ को इंग्लैंड के मज़दूरों को समर्पित करते हुए सर्वहारा के महान नेता फ्रेडेरिक एंगेल्स लिखते हैं, “अब आगे बढो, जैसा आप आज तक करते आए हो। अभी काफ़ी मंजिल बाक़ी है, दृढ बनो, अडिग बनो, आपकी जीत निश्चित है। आगे कूच करते हुए आप जो भी क़दम बढाओगे वो आपके सबके सामूहिक हित में होगा, और वो होगा मानवता के हित में”।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 3/ जुलाई 2020) में छपा था

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