प्रसाद वी. //
केरल भारत के उन कुछ राज्यों में से एक है जहां सरकार ने कोरोना वैश्विक महामारी से लड़ने हेतु कुछ गंभीर प्रबंध किया है और इन प्रयासों का अच्छा परिणाम भी प्राप्त हुआ है। इस लेख को लिखने के दौरान भी केरल में संक्रमित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। पर ऐसा इसलिए क्योंकि केरल के अनिवासियों को संक्रमित इलाकों से वापस बुलाने का सचेत निर्णय लिया गया। केरल में कोरोना संक्रमित मरीज़ों के आंकड़ों में हुई गिरावट केवल देशभर में नहीं बल्कि पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन चुका है। केरल सरकार को कोरोना महामारी से बखूबी रूप से लड़ने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर खूब प्रशंसा व मान्यता भी मिली। इसी पृष्ठभूमि पर इसके पीछे के कारण, खासकर प्रचलित ‘केरला मॉडल’, के बारे में जानना और समझना जरुरी है।
राज्य की उपलब्धियां
केरल की जन स्वास्थ्य सेवा न सिर्फ भारत के बाकी राज्यों से, बल्कि यूरोप से भी अलग है। यह पारंपरिक रूप से सस्ती और निवारण के पहलुओं पर केंद्रित है। केरल के पास पश्चिमी देशों जितने उन्नत उपकरण नहीं हैं, फिर भी ‘केरला मॉडल’ कोरोना महामारी से लड़ने में समर्थ रहा है। केरल राज्य के कोरोना संक्रमण के नियंत्रण के पीछे निम्नलिखित मुख्य कारण हैं –
- मजबूत जन स्वास्थ्य सेवा प्रणाली
- व्यापक ‘कांटेक्ट ट्रेसिंग’
- घरों में क्वारंटाइन नियमों का सख्ती से पालन
- मशहूर अभियान ‘कड़ी को तोड़ो’
- खाद्य सामग्री एवं अन्य संसाधन जनता तक पहुंचाने का अपेक्षाकृत बेहतर प्रयत्न
- कोरोना महामारी की दूसरी लहर को लेकर अपेक्षाकृत बेहतर तैयारी
केरल का मई 2018 में कोझीकोड और मलाप्पुरम में फैले निपाह वायरस से लड़ने का पूर्व अनुभव रहा है। निपाह वायरस की मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। उस समय बनाई गई सरकारी प्रणाली निपाह वायरस से लड़ने में कामयाब हुई और इसके संक्रमण पर पूरी तरह काबू पा लिया गया। यहां तक कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और अन्य संस्थानों ने केरल सरकार द्वारा निर्मित समन्वय संरचनाओं व प्रणालियों की भी प्रशंसा की। यह संक्रमण को रोकने हेतु उठाये गए कदमों के मूल्यांकन पर आधारित था। कोरोना काल में केरल सरकार का निपाह वायरस पर नियंत्रण पाने का अनुभव बेहद मददगार साबित हुआ। उसी की बदौलत सरकार ने बहुत पहले ही एक समन्वय केंद्र की स्थापना कर दी थी जहां से विभिन्न सरकारी विभागों के बीच कोरोना के खिलाफ समन्वय व संचार सुविधाजनक हो गया। इसके फलस्वरूप कांटेक्ट ट्रेसिंग की प्रणाली ने भी बखूबी काम किया और कुछ जिलों में व्यापक तरीके से लागू भी हो पाया।
“कड़ी तोड़ो” अभियान और इसकी सापेक्ष सफलता
राज्य सरकार द्वारा चलाये गए विभिन्न अभियानों में से “कड़ी तोड़ो अभियान” अत्यंत सफल साबित हुआ। कमोबेश सभी राज्य सरकारों ने इस अभियान के द्वारा दिए गए संदेश को अपने राज्यों में पहुंचाने की कोशिश की। परंतु ऐसे अभियान की सफलता जनता की साक्षरता और वैज्ञानिक स्वभाव पर आश्रित होती है। केरल देश का सबसे साक्षर राज्य है। इसके अतिरिक्त, इसका पुनर्जागरण काल व वाम आंदोलन के साथ एक लंबा इतिहास रहा है। शैक्षिक आंदोलन भी इसका अभिन्न हिस्सा है। मंदिर प्रवेश आंदोलन, पुस्तकालय आंदोलन, फिल्म समाज आंदोलन, सहकारी आंदोलन, आदि भी इससे जुड़े हुए हैं।
इसी कारण “कड़ी तोड़ो” अभियान केरल में विजई हो पाया। शारीरिक दूरी, निवारक केंद्रित उपायों, स्वास्थ्य कर्मचारियों का संरक्षण जैसे कदमों, व निपाह वायरस के फैलाव को रोकने हेतु उठाये गए कदमों से मिली सीख के आधार पर केरल ने कोरोना संक्रमण को कम करने में सफलता हासिल की है।
पुनर्जागरण काल के गहरे प्रभाव में रहने वाला व 1950 से कई वर्षों तक वाम सरकारों द्वारा शासित केरल ने सार्वजनिक शिक्षा व सार्वभौमिक स्वास्थ्य के क्षेत्रों में बाकी राज्यों के मुकाबले अधिक निवेश किया। केरल की साक्षरता दर व सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पूरे देश में सबसे बेहतर है। नवजात मृत्यु दर, जन्म पर टीकाकरण, जीवन प्रत्याशा और कई अन्य स्वास्थ्य संकेतकों में भी यह राज्य भारत में सबसे आगे है। अस्पतालों की प्रणाली के साथ-साथ प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं में विशेषज्ञों की उपलब्धता भी केरल में अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर है। इसके अतिरिक्त ज़ोर देते हुए यह जोड़ना जरूरी है कि केरल की उच्च साक्षरता दर और सार्वभौमिक शिक्षा प्रणाली के अभाव में स्वास्थ्य के क्षेत्र की उपलब्धियां संभव नहीं हो पाती।
अपनी स्वास्थ्य प्रणाली के बल पर केरल ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) द्वारा व्यापक परीक्षण (टेस्टिंग) पर निर्धारित नियमवाली का पालन करने में सक्षम रहा, जबकि आईसीएमआर जैसी केंद्रीय संस्थाएं इस बात पर अड़ी हुई थी कि भारत में व्यापक परीक्षण करना संभव नहीं है। अप्रैल के पहले हफ्ते में ही केरल ने लगभग 15,000 से ज्यादा टेस्ट कर लिए थे। इसकी तुलना में, अधिक आबादी वाला राज्य जहां कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या लगभग बराबर है, आंध्र प्रदेश, ने 8,000 टेस्ट ही किये। तमिल नाडू, जहां संक्रमित लोगों की संख्या लगभग दोगुनी है, में 12,700 टेस्ट से थोड़े अधिक हुए थे। हालांकि यह तथ्य भी गौरतलब है कि बाद के दिनों में परीक्षण की संख्या काफ़ी घट गई और अब यह बाकी राज्यों के भी मुकाबले कम है।
इन उपलब्धियों का एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है केरल के डॉक्टर व स्वास्थ्य कर्मियों के एक बड़े हिस्से का पिछली सदी के 70 व 80 के दशक, जब कैम्पसों में काफ़ी जीवंत राजनीतिक माहौल था, के वाम आंदोलन के प्रभाव में रहना। उनकी उच्च सामाजिक चेतना व जन पक्षीय रवैये इसी का नतीजा है।
दूसरा पहलु
लेकिन इस सफलता का पूरा श्रेय मौजूदा सरकार को देना संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य का परिचायक है। चलिए कहानी के दूसरे पहलु पर नजर डालते हैं।
केरल सरकार भारत की उन राज्य सरकारों में से है जिसने शुरुआत में ही कोरोना महामारी से लड़ने के लिए ₹20,000 करोड़ का आर्थिक पैकेज मार्च के तीसरे हफ्ते में ही घोषित कर दिया था। और हर जगह यही प्रचार कर रही है कि ये वाम फ्रंट सरकार के जनपक्षीय रवैये की वजह से है। लेकिन इससे जुड़े तथ्यों की गहराई में जाने पर इस आर्थिक पैकेज की सच्चाई पता चलती है।
₹20,000 करोड़ में से, ₹14,000 करोड़ ठेकेदारों को बकाया थे, ₹1,300 करोड़ बकाया सामाजिक कल्याण पेंशन को चुकाए गए, ₹2,000 करोड़ रोजगार गारंटी योजना में दिए गए जो पूरी तरह केंद्रीय सरकार द्वारा वित्तपोषित है और फिर ₹2,000 करोड़ 9% की ब्याज दर पर बैंकों से कुदुम्बश्री लोन के लिए दिए गए। अतः असली आर्थिक पैकेज ₹500 करोड़ से भी कम का है। साफ है कि यह भी मोदी सरकार के केंद्रीय पैकेज की तरह एक छलावा ही साबित हो रहा है। यह बिलकुल केरल के वित्त मंत्री थॉमस आइजैक का ठेठ अंदाज है।
प्रवासी मजदूरों के पलायन की बात करें तो केरल के विभिन्न जिलों में मजदूरों ने कई विरोध प्रदर्शन किए हैं। लॉकडाउन के शुरुआत में ही कोट्टायम और कुछ अन्य जगहों पर प्रवासी मजदूरों ने मूल संसाधनों की मांग को ले कर प्रदर्शन किए थे। सरकार द्वारा मजदूरों की मांग पर कार्रवाई करते हुए कई जगहों पर सामुदायिक रसोईघर बनाये गये जिनका वित्तपोषण स्थानीय सरकारों द्वारा चंदा समेत अन्य माध्यमों से आए पैसों से किया गया। लेकिन कुछ हफ्ते बाद ही लगभग सभी जगह पर प्रवासी मजदूरों के लिए बनाये गये इन सामुदायिक रसोईघरों को बंद कर दिया गया। ठेकेदारों के ना होने पर मजदूरों को भोजन देने के लिए सरकार ने उनके मकान मालिकों से अनुरोध किया। प्रवासी मजदूरों के बीच एक बड़ी आबादी ऐसी है जो ठेकेदारों के बिना व्यतिगत रूप से दुकानों या दिहाड़ी पर काम करती है। वे मुख्यतः पुराने घरों के किराये पर रहते हैं क्योंकि वहां किराया काफी कम होता है। राज्य सरकार ने आदेश जारी किया है कि मकान मालिकों को मजदूरों को भोजन और आवास मुहैया कराना होगा। लेकिन इन माकन मालिकों की बड़ी संख्या खुद भी निम्न मध्यम वर्ग से आती है और मौजूदा परिस्थिति में वे उन्हें भोजन देने में सक्षम नहीं हैं। लॉकडाउन के दौरान उनके भी रोजगार या आय के स्रोत बंद हो गए हैं। अतः यह योजना शुरू होते ही खत्म हो गई। भोजन और मूलभूत सुविधाओं के अभाव में प्रवासी मजदूरों ने त्रिवंद्रम, कोझीकोड, कन्नूर, आदि जगहों पर सड़कों पर आ कर अपने गृह राज्य वापस भेजे दिया जाने की मांग को ले कर विरोध प्रदर्शन किया।
सरकारी कर्मचारियों को उनके एक महीने का वेतन मुख्यमंत्री राहत कोष में देने को कहा गया है। पिछले साल बाढ़ में भी यही कहानी दोहराई गई थी। पिछले साल यह राशि 6 महीने के किश्तों में कटनी थी, जिसकी आखरी किश्त इस साल फरवरी में कटी और ठीक एक महीने बाद ही सरकार ने फिर से एक महीने के वेतन को 6 किश्तों में काटे जाने का फरमान सुना दिया है। केरल के कुछ क्रांतिकारी वाम दलों ने इसका विरोध भी किया था।
विरोध की दो मुख्य वजह थी। पहली थी इस फैसले के पीछे काम कर रही नवउदारवादी नीति और दूसरी थी मुख्यमंत्री राहत कोष की विश्वसनीयता पर खड़े सवाल। केरल में मौजूदा वाम फ्रंट सरकार के कार्यकाल के शुरुआत में एक विख्यात अर्थशास्त्री को मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप में रखा गया था, जो कि आगे चल कर आई.एम.एफ. की चीफ इकोनॉमिस्ट बनीं। उन्होंने पिछले आर्थिक संकट के दौरान ग्रीस और उसके पास के देशों में मितव्ययिता (ऑस्टरिटी) के उपाय लागू करने की सलाह दे कर एकाधिकारिक पूंजी के मालिकों के बीच कुछ प्रतिष्ठा हासिल कर ली थी। केरल के मुख्यमंत्री ने उनकी सलाह का स्वागत किया था। कर्मचारियों पर लगातार जारी वेतन संकट इसी योजना की उपज थी। लेकिन केरल में यूनियनों का प्रभाव काफी है। कुछ साल पहले सरकार को कर्मचारियों के विरोध की वजह से इन वेतन संकटों को वापस लेना पड़ा था। यूनियनों से निपटने के लिए केरल सरकार ने आम जनता को सरकारी कर्मचारियों से अलग करने हेतु बेहद सुव्यवस्थित तरीके से यह प्रचार चलाया कि सरकारी कर्मचारियों की ऊंची तनख्वाह की वजह से ही गरीब जनता की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। यह जनता को सरकारी कर्मचारी यूनियनों से अलग करने के साथ-साथ उनको यूनियन और राजनीति से भी दूर करने का एक प्रयास था।
पिछले साल की बाढ़ के बाद, कर्मचारियों, दूसरे राज्यों से आए निवासी एवं जनता के विभिन्न तबकों द्वारा दिए पैसों से मुख्यमंत्री राहत कोष में एक अच्छी रकम जमा हो गई थी। लेकिन इस रकम को बाढ़ पीड़ितों के बीच लगाने के बजाय, सरकार ने इसे अपने दैनिक खर्चो की पूर्ति में लगा दिया। और इन्ही रवैयों की वजह से मुख्यमंत्री राहत कोष की विश्वसनीयता पर बड़ा सवाल खड़ा होता रहा है।
शुरुआत में केरल में कोविड-19 के काफी परीक्षण हो रहे थे। तब रोज के औसत परीक्षणों की दर बढ़ रही थी। लेकिन जैसे ही संक्रमण पर थोड़ा काबू पाया गया, परीक्षण की संख्या में तेज गिरावट आ गई। सरकार की मंशा है कि ज्यादा से ज्यादा पैसे बचा लिए जाएं। यह सच है कि सरकार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं; यह भी सच है कि केंद्र सरकार की तरफ से पर्याप्त फंड नहीं दिया जा रहा है। केंद्र सरकार ने तो जीएसटी की बकाया राशि की भरपाई तक नहीं की है। पिछले साल बाढ़ में जब कुछ देशों ने केरल की मदद के लिए सहयोग राशि भेजने की बात की तो केंद्रीय सरकार ने उस पर भी रोक लगा दिया। लेकिन उसी समय, केरल सरकार भी सेल्स टैक्स के हजारों करोड़ की बकाया राशि वसूलने में नाकामयाब रही। और तो और, उन्होंने कर्मचारियों के ऊपर वेतन के संकट का बोझ बढ़ा दिया। जहां एक तरफ केरल सरकार केंद्रीय सरकार पर पर्याप्त फंड का भुगतान नहीं करने का आरोप लगा रही है, वहीं दूसरी तरफ यह भी सच है कि इसी केरल सरकार के वित्त मंत्री और सीपीएम ने नेता, थॉमस आइजैक, जीएसटी लागू होने के पहले से ही उसका तत्परता से समर्थन कर रहे थे। असल में, केरल जीएसटी को शुरू में ही पारित करने वाले चंद राज्यों में से एक था।
“केरला मॉडल” का इतिहास
सीपीएम और केरल सरकार एक श्रेष्ट ‘केरला मॉडल’ की तस्वीर पेश करने की कोशिश कर रही है जिसे वे पूरी दुनिया में बेच पाएं। ‘केरला मॉडल’ शब्द पहली बार मैल्कॉम आदिशेशैया की किताब, ‘केरल इकॉनमी सिंस इंडिपेंडेंस’ (1979), में इस्तेमाल किया गया था। 1990 के दशक में रोबिन जेफ्फ्री ने अपनी किताब, ‘पॉलिटिक्स, वीमेन एंड वेल-बीइंग (1992)’ के जरिये ‘केरला मॉडल’ को सामाजिक विकास के एक आदर्श के रूप में चित्रित करने की कोशिश की, जिसका आधार था केरल द्वारा सफलतापूर्वक भारत में न्यूनतम शिशु मृत्यु दर, सबसे लंबी जीवन प्रत्याशा और सबसे अधिक नारी साक्षरता दर को पा लेना। बाद में अमर्त्य सेन के लेखों व अन्य लोगों द्वारा भी पुष्ट किया गया कि केरल राज्य ने बाकी दुनिया की तुलना में आय की दर कम होने के बावजूद उच्चतर सामाजिक विकास किया है।
पुरे राज्य भर में फैले सुलभ अस्पताल व अन्य केंद्रों के होने की वजह से ‘केरला मॉडल’ की स्वास्थ्य प्रणाली बाकी राज्यों से बेहतर है। लेकिन ये रातों रात खड़ा नहीं किया गया था, और ना ही इसका कोरोना महामारी से भी कोई लेना है।
‘केरला मॉडल’ के सामाजिक विकास के ऐतिहासिक जड़ों के बारे में कई विशेषज्ञों ने बताया है। इसका एक बेहद पेचीदा इतिहास है। केरल का सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन का इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। यहां के महाराजा यूरोपीय पुनर्जागरण काल के प्रभाव में आए और फिर 19वी और 20वी शताब्दी में इसाई मिशनरी संगठनों के द्वारा भी इसमें योगदान दिया गया।
19वी शताब्दी के बाद से ही इसाई मिशनरी संगठनों की केरल के शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रीय भूमिका रही थी। ये इसाई मिशनरी संगठन पिछड़े तबकों जैसे दलित व अन्य निचली जातियों की शिक्षा को बढ़ावा दिया करते थे। इसी तरह, महिलाओं की शिक्षा को भी बढ़ावा दिया जाता था। आज, केरल ही नहीं बल्कि पुरे विश्व भर में महिला नर्सों द्वारा जो उल्लेखनीय सेवाएं प्रदान की जा रही हैं, वो इसी शिक्षा आंदोलन और इसके बाद के स्वास्थ्य आंदोलन की देन है जिसमे इसाई मिशनरी संगठनों का बहुत बड़ा योगदान है।
1879 के शाही उद्घोषणा के तहत लोक सेवकों, कैदियों और छात्रों का टीकाकरण अनिवार्य कर दिया गया था। 1928 में परजीवी संक्रमण की मौजूदगी के बारे में जानने के लिए एक महामारी विज्ञान (एपिडोमोलोजिकल) सर्वे किया गया था। सफ़ाई और पीने के पानी का वितरण भी उसी समय या उसके पहले से ही शुरू हो चुका था।
आजादी के साथ ही, केरल भारत में वामपंथी आंदोलन का एक गढ़ बन चुका था। वाम सरकारों द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया गया। लोगों की उन्नत राजनीतिक चेतना के कारण दक्षिणपंथियों को भी इस जगह समझौता करना ही पड़ता रहा। इन सभी कारणों की वजह से केरल में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी खर्च भी बाकी राज्यों की तुलना में ज्यादा किए गये।
अपने अंतर्विरोधों के साथ वर्तमान मॉडल
उपरोक्त फायदों के साथ भी, भारत के प्रमुख राज्यों के बीच, केरल में बेरोजगारी की भयंकर स्थिति है। वर्तमान आर्थिक संकट के पहले भी कई आंकड़े इसका प्रमाण दे चुके हैं। केरल में ‘श्रम बल भागीदारी दर’ (लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट – एलएफपीआर), जो 18 से 60 वर्ष की उम्र वाले रोजगार व्यक्तियों का दर बताता है, 50.7% था जबकि राष्ट्रीय औसत 53.8% था। इसी तरह हर 1000 व्यक्तियों पर रोजगार व्यक्तियों की संख्या बताने वाले ‘श्रमिक-जनसंख्या अनुपात’ (वर्कर पॉपुलेशन रेश्यो – डब्ल्यूपीआर) केरल में 43.8% था जबकि राष्ट्रीय औसत 47.5% था। दोनों ही मामलों में केरल के पड़ोसी राज्यों की स्थिति उससे बेहतर है।
आम तौर पर कल्याणकारी राज्य की नीतियां और विशेषतः यूरोपीय सामाजिक जनवादी मॉडल ने बड़ी मात्रा में सरकारी निवेश कर नई नौकरियां पैदा कर के बेरोजगारी की समस्या को एक हद तक काबू किया था। लेकिन केरल में नौकरियां पैदा करने के लिए सरकारी निवेश न के बराबर है। मौजूदा लघु उद्योग भी बंद होने की राह पर हैं।
हालांकि इसके साथ ही, केरल में ग्रामीण स्तर पर प्रयोज्य आय (डिस्पोजेबल इनकम) भारत में सबसे अधिक है। इसका कारण है केरल की बड़ी प्रवासी जनसंख्या जो यूरोप, अमेरिका व मध्य पूर्वी देशों में काम करती है, जिसमें कुशल (स्किल्ड) मजदूर शामिल हैं। मूल रूप से यह प्रवासी नर्सिंग, शिक्षा आदि जैसे व्यवसायों में नियुक्त हैं। केरल में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य स्रोत इन्हीं प्रवासी केरलवासियों द्वारा वापस भेजी गई राशि है।
युवाओं के बीच बेरोजगारी की समस्या को हल करने में असमर्थ और कल्याणकारी नीतियों के लिए अत्यधिक क़र्ज़ पर निर्भर ‘केरला मॉडल’ की कई जानकारों व शोधकर्ताओं ने आलोचना कर उसे एक अरक्षणीय (अनसस्टेनेबल) मॉडल बताया है, जिसके तहत अनियमित भूमि उपयोग से अत्यधिक उत्खनन, प्राकृतिक आपदाओं, व राजकीय खेतों में खाद्य फसलों के नष्ट होने के लिए रास्ता खोल दिया गया। इन कदमों का लक्ष्य था एकाधिकार-पक्षीय उदारीकरण।
केरल में स्वास्थ्य सेवाओं में भी हाल के वर्षों में निम्न प्रवृत्तियां देखने को मिली हैं। ऐतिहासिक तौर पर ‘केरला मॉडल’ में स्वास्थ्य मॉडल को एक सुलभ (सस्ता) और सफल मॉडल माना गया है। लेकिन अब, परिवारों की कुल आय में से स्वास्थ्य पर खर्च गया अंश तेज़ी से बढ़ रहा है। इसके पीछे कारण हैं, उदारीकरण काल के बाद से निजी अस्पतालों का प्रभुत्व, एक बढ़ती उम्र वाली आबादी के बीच जीवन-शैली संबंधित रोग, और अत्यधिक शहरीकरण व, सरकार द्वारा राशि आवंटन में कमी के कारण स्वच्छता व अन्य मोर्चों पर हुई समझौता के कारण, पहले ठीक किए जा चुके कई रोगों की वापसी। इस रवैया के कारण मलेरिया, टाइफाइड, हैजा आदि बीमारियाँ, जिनका केरल में पूर्ण उन्मूलन पहले ही हो चुका था, तेज़ी से वापस लौट रही हैं। इसके साथ केरल में जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) ज्यादा होने से जीवन-शैली संबंधित रोग जैसे हाइपरटेंशन, हृदय रोग, डायबिटीज, प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) संबंधित रोग, किडनी रोग आदि बढ़ रहे हैं।
हालांकि सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र व तालुका स्तर के अस्पताल अभी भी बरकरार हैं, पिछले दो दशकों में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए सरकारों द्वारा इनपर कोई ध्यान नहीं दिए जाने के कारण इनमें बड़ी संख्या में रिक्त पद (वेकेंसी) मौजूद हैं। स्वाभाविक रूप से इन सार्वजनिक संस्थानों का उपयोग दर अपेक्षाकृत कम रहता है। उच्च-मध्यम वर्ग और यहां तक कि समाज के निचले तबके भी, जिनके पास पैसे देने के थोड़े भी साधन हैं, मुख्य रूप से सरकारी संस्थानों से गायब रहते हैं। निजी अस्पतालों के मरीजों के बीच किए गए एक अध्ययन (स्टडी) के अनुसार, इलाज के लिए 25% से अधिक मरीजों ने पैसे उधार लिए थे या क़र्ज़ में थे, वहीं 3.4% ने अपनी जमीन बेच दी थी या बैंकों में गिरवी रख दी थी। यह सचेत रूप से सरकारी संस्थानों की क्षय होने देने के नतीजे हैं।
यह दिखता है कि भले ही अन्य राज्यों की तुलना में केरल की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली बेहतर है, फिर भी यह पिछले दो दशकों से नवउदारवादी हमलों की शिकार रही है। हाल में ही केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र में सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी मॉडल) की योजना बनाई। नीति आयोग ने निजी क्षेत्र द्वारा जिला अस्पतालों के टेकओवर की योजना वाले दस्तावेज भी सामने ले आए हैं। इस पीपीपी मॉडल के तहत कुल अस्पताल बेड का कुछ हिस्सा ही आम जनता के लिए रहेगा और बाकी बिकने के लिए इस्तेमाल होंगे, जिसपर केरल सरकार ने अपनी राय अब तक साझा नहीं की है।
केरल में स्कूली शिक्षा क्षेत्र में यह पीपीपी मॉडल, जिसके तहत सरकार ने निजी स्कूलों के विकास में सहायता की, सफल नहीं रहा है। निजी स्कूलों के विकास व मुनाफा कमाने के लिए उर्वर जमीन तैयार करने हेतु सरकार अपने स्कूलों को बचाने का दिखावा कर जान बूझकर सरकारी स्कूल प्रणाली को खराब कर रही है। संभवतः स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी यह मॉडल लागू किया जा सकता है। केरल सरकार भले ही निकट भविष्य में केंद्र सरकार के रास्ते यानी जिला अस्पतालों के निजी क्षेत्र द्वारा टेकओवर पर ना जाए, लेकिन वह पहले से ही सरकारी अस्पतालों, जिसमें जिला व तालुका अस्पताल शामिल हैं, में जान बूझकर फंड, डॉक्टर, नर्स व अन्य स्टाफ जैसे संसाधनों से वंचित कर प्रमुख निजी अस्पतालों की मदद कर रही है।
निष्कर्ष
‘केरला मॉडल’ एक शक्तिशाली व गहरे सामाजिक आंदोलन का परिणाम है। यह सामाजिक आंदोलन कभी-कभी विशाल स्तर तक भी पहुंचा है जिसने शासकों तक पर प्रभाव डाला। लेकिन आज इस आंदोलन की ताकतें केरल समाज में कमज़ोर हो चुकी हैं। राजाओं पर प्रभाव डालने और उसके बाद 20वी सदी की शुरुआत में जन आंदोलनों का रूप लेने वाला पुनर्जागरण आंदोलन अब अपना अस्तित्व खो चुका है। इसका कारण है पूंजीवाद का एकाधिकारी पूंजीवाद में विकास और उसके पश्चात समाजवादी व्यवस्था के ढहने की पृष्ठभूमि में नवउदारवादी नीतियों को लागू करना।
प्रमुख वाम पार्टियों का नेतृत्व नवउदारवादी व पूंजीवाद पक्षीय गुटों के हाथ में आ जाने से वह भ्रष्ट हो चुकी हैं। जो कुछ क्रांतिकारी वाम समूह आज बचे हैं, उनके पास समाज में विचारों की लामबंदी पर प्रभाव डालने के लिए पर्याप्त बल नहीं बचा। ऐसे सामाजिक आंदोलनों के अभाव में ‘केरला मॉडल’ ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सकता। इसके विघटन के संकेत पहले ही सामने आ चुके हैं। 1990 के बाद से निजी स्वास्थ्य सेवाओं में भारी निवेश हुआ। निजी अस्पतालों की सेवा में दोनों, वाम व दक्षिण, सरकारों ने खुद की ही सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली को बर्बाद किया है। हालांकि केरल में कई निजी अस्पताल हैं, इस आपदा ने निस्संदेह यह साबित कर दिया है कि वह सभी जनता के हित के लिए कुछ नहीं कर सकते। महामारी की इन परिस्थितियों में केवल सरकारी अस्पतालों व स्वास्थ्य कर्मियों ने ही यह बेड़ा उठाया है। यह साबित हो चुका है कि ऐसी आपदाओं में सार्वजनिक संस्थानों की ठोस व्यवस्था के बगैर कोई सरकार प्रभावी रूप से कार्य करने में असमर्थ होती है।
अतः कोविड-19 महामारी ने विश्वभर में नवउदारवादी नीतियों की असलियत जनता के सामने ले आई है। केरल में भी स्वास्थ्य के क्षेत्र तक में नवउदारवादी नीतियों का आगमन हो चुका था, इसके बावजूद समाज के संगठित रूप के कारण पुरानी सार्वजनिक व्यवस्था टिकी रही। तमाम कोशिशों और लालसा के बावजूद, सरकार इसका विघटन करने में असमर्थ रही। अब यह तथ्य जनता के सामने है कि इसी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के टिके रहने के बदौलत ही केरल समाज कोरोना महामारी का सामना कर सका। स्वाभाविक रूप से अब सभी पार्टियां इसका श्रेय लेने में लगी हैं, यानी सभी संसदीय पार्टियां खुद को ‘केरला मॉडल’ का सबसे बड़ा रक्षक बताने को उतारू हैं। इसलिए हम निस्संदेह यह कह सकते हैं कि जितना ‘केरला मॉडल’ ने केरलवासियों को कोरोना महामारी से नहीं बचाया, उतना इस महामारी ने ‘केरला मॉडल’ को कुछ और वर्षों के लिए नवउदारवादी विघटन से बचाया है। अगर केरल समाज शक्तिशाली व विशाल सामाजिक व जन आंदोलनों को इस अवधि में पैदा करने में सक्षम होता है, तो ‘केरला मॉडल’ का बचाव भी किया जा सकता है।
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 2/ जून 2020) में छपा था
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