(कामरेड सुनील पाल के शहदात दिवस 29 दिसंबर 2020 के अवसर पर पीआरसी सीपीआई (एमएल) द्वारा आईएमए हॉल, गांधी मैदान पटना आयोजित कंवेशन में पेश प्रपत्र)
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प्रपत्र पेश करते हुए हम सर्वप्रथम किसान आंदोलन के फलस्वरूप व्यापक किसान आबादी के बीच आई नई जागृति का हम गर्मजोशी से स्वागत करते हैं! हम बेसब्री से इसके क्रांतिकारी विचारों में तब्दील होने की उम्मीद कर रहे हैं और ऐसा हो इसके लिए प्रयत्न करने का वचन देते हैं!!
साथियो!
पूरे उत्तर भारत में कड़ाके की ठंढ और घने कोहरे का आलम है, लेकिन 35 दिनों से दिल्ली के चारो ओर जमे आंदोलनरत किसानों ने इस जर्द सर्दी में भी गर्मी का अहसास पैदा कर रखा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसानों ने कार्पोरेटपक्षीय कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर मोदी सरकार को आर या पार की सीधी चुनौती दे कर पूरे देश के जनतांत्रिक-प्रगतिशील मानस और मजदूर वर्ग में व्याप्त जड़ता को झकझोरने का काम किया है। हालांकि यह भी सच है कि इसने मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी हलकों में पहले से मौजूद फूट और मतभेद को न सिर्फ सतह पर ला दिया है अपितु उसे बढ़ा भी दिया है। लेकिन फिलहाल इस प्रपत्र (पहुंच आलेख) का उद्देश्य विभिन्न मतों के साथ किसी बहस या वाद-विवाद (polemic) में उतरना नहीं, अपितु मौजूदा किसान आंदोलन के प्रति ‘राज्य’ के साथ इसकी जारी भिड़ंत के ठीक बीच में अपना (पीआरसी का) रूख स्पष्ट करना तथा सर्वहारा वर्गीय क्रांतिकारी हस्तक्षेप की रणनीति से जुड़े मुख्य बिंदुओं को रेखांकित करना भर है। इस अर्थ में और ‘राज्य’ तथा किसान के बीच के टकराव के मौजूदा सूरतेहाल में यह प्रपत्र किसानों की मुक्ति को केंद्र में रखते हुए मजदूर वर्ग के किसान कार्यक्रम को प्रस्तुत करने का एक प्रारंभिक सकारात्मक प्रयास भी है जिस पर हम सोशल मीडिया से इतर सीधे मजदूर वर्ग तथा किसानों के बीच बहस आमंत्रित करना चाहते हैं।
1. हमारी पार्टी पीआरसी सीपीआई(एमएल) की नजर में यह आंदोलन भारतीय कृषि में तीन दशक से भूमंडीलकरण से प्रेरित तथा डब्ल्युटीओ (WTO) की अनुशंसाओं से बंधी भारत के शासक (पूंजीपति) वर्ग की नवउदारवादी नीतियों तथा आम तौर पर पूंजीवादी कृषि के अंतर्विरोधी विकास के संघनित दुष्परिणामों के खिलाफ मूलत: पंजाब के किसानों के नेतृत्व में पूरे देश के किसान समुदाय की एक अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्रवाई है। जहां एक तरफ इसमें पूर्व के कुलक किसान आंदोलनों की निरंतरता है जिसके कारण इसकी मांगों में पुराने आंदोलन की छाप अंकित है और कई तरह के अंतर्विरोध और विरोधाभास मौजूद हैं, तो वहीं दूसरी तरफ पूंजीवादी कृषि के अब तक हुए विकास को हासिल एक खास ठौर व मुकाम का प्रभाव भी दृषिगोचर हो रहा है जिसके कारण न सिर्फ इसके पुराने तेवर बदले हुए हैं, अपितु इसका अंतर्य भी बदला हुआ और नया है।
2. किसान आंदोलन पर तीक्ष्ण नजर डालें तो हमारा सामना तत्काल धनी किसानों, जो गांवों की किसान आबादी का अत्यंत छोटा और शोषक हिस्सा हैं, के टूट कर बिखरते दर्प और धूल में मिलते उन सपनों से होता है जो कभी उन्होंने यह सोचकर देखे थे कि वे ही युगों-युगों तक कृषि क्षेत्र के विकास के एकमात्र हस्तगतकर्ता बने रहेंगे, तो दूसरी तरफ इसमें पूंजी की दृश्य तथा अदृश्य लाठी की मार से कराहते गरीब तथा मंझोले किसानों, जो कृषि आबादी का व्यापक शोषित-उत्पीड़ित हिस्सा हैं, के धूल धुसरित सपनों व अरमानों के टुकड़े मिलेंगे जो उन्होंने खुली आंखों से यह सोच कर संजोये थे कि आज नहीं तो कल वे भी धनी किसानों की तरह मालामाल बनेंगे। गरीब किसानों पर पूंजीवादी सोंच व विचारधारा के प्रभाव का यह एक ठोस उदाहरण है। कुल मिलाकर यह आंदोलन कम, पूंजीवादी कृषि के चक्रब्यूह में फंसे आम किसानों के सुखी-संपन्न जीवन के मरते सपनों, मुनाफाखोर धनी किसानों की दम तोड़ती हसरतों और कुल मिलाकर पूरे किसान समुदाय के टूटे अरमानों का कोलाहल ज्यादा है। कहने का मतलब, यह कोई मामूली आंदोलन नहीं है। कृषि कानूनों ने कृषि क्षेत्र में निर्णयकारी तथा विनाशकारी वर्चस्व की ओर एकाधिकारी बड़े पूंजीपतियों के बढ़ते कदमों ने अलग-अलग संस्तरों में बंटे पूरे किसान समुदाय को गुस्से से भर दिया है और उनका यह आंदोलन पंजाब से शुरू होकर पूरे देश में फैलता जा रहा है।
3. न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भारत में कभी भी सभी किसानों को नहीं मिला यह सच है, लेकिन तब यानी कुछ वर्षों या एक दशक पूर्व तक खुले बाजार में ऊंचे दाम का आकर्षण तमाम आर्थिक प्रतिकुलताओं और विफलताओं (व्यापक गरीब यानी छोटे व सीमांत किसानों के संदर्भ में और उनकी आर्थिकी की दृष्टि से) बावजूद व्यापक आम किसानों के बीच बना हुआ था, तथा जीवन-यापन के अन्य विकल्पों के अभाव में कुछ न कुछ मात्रा में या किसी न किसी रूप में सदैव ही बना रहेगा। यह छोटे उत्पादकों के बीच पाई जाने वाली आम प्रवृत्ति के अनुरूप है और इसके इतने लंबे समय तक बने रहने के लिए इन्हें दोष देने से ज्यादा हम मजदूरवर्गीय क्रांतिकारी राजनीति करने वालों से यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए जिनकी किसान संबंधी रणनीति व कार्यनीति की विफलता की वजह से कर्ज में डूबे तबाह हुए गरीब किसानों को सर्वहारा वर्ग की राजनीति के इर्द-गिर्द संगठित करने और पूंजीवाद के विरूद्ध लामबंद करने का काम पीछे छूटता गया और वे इस या उस पूंजीवादी-संशोधनवादी पार्टी के, और यहां तक कि फासिस्ट सरकार का जनाधार बने रहे। खैर, छोटे उत्पादकों की इसी प्रवृत्ति के मद्देजनर गरीब से गरीब किसानो के बीच आज तक एमएसपी के प्रति मौजूद आकर्षण को भी समझा जा सकता है जो हालांकि लगातार खत्म हो रहा है और कह सकते हैं कि खत्म होने के कगार पर है। इसी तरह, हम कह सकते हैं कि एक प्रवृत्ति के बतौर मौजूद होने के बावजूद आज खुले बाजार में ऊंचे दाम की वास्तविक उत्प्रेरणा आम व्यापक किसानों के बीच तो नहीं ही है (क्योंकि पिछले तीन दशक के पूंजीवादी कृषि के अंतर्गत इस चक्कर में इसके घोर गरीब किसान विरोधी दुष्परिणामों से वे पहले ही तबाह और बर्बाद हो चुके हैं), पिछले एक दशक में खुले बाजार में दामों में आये भयंकर उतार-चढ़ाव के कारण सतत और निश्चित रूप से ऊंचे दाम प्राप्त करने की संभावना और उसकी प्रेरणा धनी किसानों के बीच भी पहले जैसी नहीं रह गई है (और निस्संदेह यह नई बात है) और वे भी इससे विमुख हुए हैं, जबकि पुराने दिनों की बात करें तो कृषि उत्पादों के खुले बाजार पर लगे प्रतिबंध को हटाने की मांग धनी कुलक किसानों की एक प्रमुख मांग हुआ करती थी और ठीक इसी बात का हवाला मोदी सरकार भी कृषि कानूनों के समर्थन में दे रही है। यह भी सही है कि एमएसपी का लाभ गरीब-मंझोले किसानों तक बमुश्किल ही पहुंचता था और वह भी महज पंजाब जैसे कुछ एक प्रदेशों में और ऐसा धनी किसान व कुलक खुद भी नहीं चाहते थे या कम से कम इस बात के लिए लड़ने की बात वे कभी नहीं करते थे या कभी कोई लड़ाई इसके लिए नहीं किये कि गरीब किसानों तक एमएसपी का लाभ सरकार द्वारा सुनिश्चित करने के लिए ठोस उपाय (जैसे कि सरकारी मंडी को सुदूर गांवों तक यानी गरीब किसानों की पहुंच तक ले जाने और परिवहन के खर्च को कम करने के कदम आदि) किये जाएं। इसका कारण भी समझ में आने योग्य है। गरीब किसानों के कर्ज की बोझ से उजड़ने से धनी किसानों तथा कुलकों के (कृषि क्षेत्र में हुए विकास के हस्तगतकरण के) हित जुड़े थे। पूर्व में ये धनी किसान आम तौर पर एमएसपी का फायदा लेते रहे हैं और इनकी मंशा खुले बाजार में भी ऊंचे दाम प्राप्त करने की रही है। लेकिन आज परिस्थितियां भिन्न हैं, क्योकि इस बीच न सिर्फ खुले बाजार में ऊंचे दाम की लगातार कम होती जा रही या खत्म होती जा रही संभावन से उनकी खुद की आर्थिक स्थिति डावांडाल होती नजर आ रही है, वहीं दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में कृषि कानूनों के माध्यम से मिली कार्पोरेट कपंनियों को अनियंत्रित छूट के बाद वे इसके भावी लेकिन आसन्न दुष्परिणामों को खुद के अस्तित्व पर आने वाले खतरे व संकट से जोड़कर देख रहे हैं और इससे स्वाभाविक रूप से चिंतित हैं। इस तरह देखें तो आज कुल मिलकार पूरा किसान समुदाय तंगहाली या भावी तंगहाली के खतरे से परेशान है और आंदोलनमुखी होने की स्थिति में है, खासकर अपने साझा दुश्मन कार्पोरेट के विरूद्ध।
जाहिर है, उनकी नजर में एमएसपी का महत्व और अधिक बढ़ गया है और पूरे किसान समुदाय को इसके लिए प्रेरति करने के इरादे से वे इसे पूरे देश में तथा सभी किसानों के लिए कानूनी कवच के साथ लागू करने की मांग कर रहे हैं। दरअसल देखा जाए तो किसानों ने एमएसपी को कृषि में प्रवेश के लिए आतुर कार्पोरेट के ठीक आगे भिड़ा दिया है, और साथ में गरीब किसानों को भी कानूनसंपन्न एमएसपी की मांग के फायदे गिनाकर नये सिरे से इसके उद्वेग पैदा करके तथा कृषि कानूनो के द्वारा पूरे गांव व देहात के ऊपर कार्पोरेट के नियंत्रण से उत्पन्न होने वाली विपदा को सामने रखते हुए पूरे किसान समुदाय को आंदोलन में खींच ले आने पाने में वे सफल हुए हैं और उनकी यह रणनति अब तक सफल भी होती दिख रही है। वे कानूनसंपन्न एमएसपी की मांग की पूर्ति चाहते हैं, ताकि कार्पोरेट कंपनियां दाम गिरने के बहाने कांर्टैक्ट खेती के दायरे या उसके बाहर कहीं भी खरीद करने पर एमएसपी देने के लिए बाध्य हों, ताकि किसान इन्हीं कार्पोरेट के द्वारा नियंत्रित दाम को ऊंचा रखने या गिरा देने के खेल के चलते रहने के बावजूद इसके शिकार हो बार्बाद होने से बच सकें। उनका कहना है कि सरकार चाहे तो कार्पोरेट या निजी व्यापारियों को बाजार भाव और एमएसपी के बीच के अंतर की भरपाई राशि अदा कर सकती है, लेकिन उनकी स्पष्ट मांग है कि किसानों को बाजार दाम कम होने की स्थिति में हर हाल में एमएसपी चाहिए, चाहे उनकी ऊपज सरकार खरीदे या कार्पोरेट या कोई और निजी व्यापारी। वे इसे पूरे देश में और सभी किसानों के लिए तथा अधिकांश फसलों के लिए लागू करने की मांग कर रहे हैं। इस तरह देखा जाए तो इस आंदोलन में एमएसपी की मांग कार्पोरेट कपनियों के प्रवेश के विरूद्ध लड़ने का हथियार बन कर उभरी है और निश्चित रूप से एमएसपी की पुरानी मांग सिर्फ अपने बाह्य स्वरूप में है, जबकि अंतर्य में यह नये कृषि कानूनों के माध्यम से कार्पोरेट के कृषि के प्रवेश को रोकने वाली मांग ज्यादा है जिसका आंदोलनरत किसान पूरे किसान समुदाय को जागृत करने और कार्पोरेट के मंसूबों से लड़ने के लिए एक हथियार की तरह कर रहे हैं।
दरअसल बाजार में उचित दाम न मिलने की हालत तथा कृषि कानूनों के लागू होने के बाद स्वयंस्फूर्त तरीके से एमएसपी और सरकारी मंडियों के खत्म होने के खतरे के कारण किसान भयभीत हैं, और यह भय वास्तविक है, क्योंकि नये कृषि कानूनों का पूरा ढांचा वर्तमान सुरक्षा मेकेनिज्म को खत्म करके किसानों को खेती से बाहर धकेलने की दिशा में कार्यरत है, चाहे कांर्टैक्ट खेती में दैत्याकार कार्पोरेट कंपनियों को प्रवेश दिलाने वाला कानून का मामला हो या सीधे किसानों के फार्म गेट पर पहुंच कर इनके उत्पाद खरीदने और कहीं भी इसका व्यापार करने के लिए इन कार्पोरेट को छूट देने वाला कानून हो। पिछले तीन दशक से जारी पूंजीवादी कृषि के अंतर्विरोधी विकास से पहले ही तबाह हो चुकने के बाद कार्पोरेट की इंट्री के बाद कृषि से बलात विस्थापित तथा निष्कासित होने के वास्तविक खतरे काल्पनिक नहीं वास्तविक हैं। ऐसे में उनके समक्ष एमएसपी पर अड़ने के कोई उपाय भी नहीं है, जब कि भावी शासक वर्ग यानी मजदूर वर्ग का इसमें वास्तव में हस्तक्षेप की ताकत व रणनीति दोनों मौजूदा रूप से उपस्थित नहीं है। अगर कोई ऐसी रणनीति वास्तव में प्रकट होती है और विचार के स्तर से आगे बढ़ते हुए भौतिक रूप में भी आकार ग्रहण करती है, तो निस्संदेहे स्थिति दूसरी होगा। सम्मेलन में मजदूर वर्ग की तरह किसान आंदोलन के समक्ष एक क्रांतिकारी कार्यक्रम की रूपरेखा पेश करते हुए हमारा यह आलेख ठीक इसी ओर मुखातिब है। लेकिन इसके पहले यह समझना जरूरी है कि पूंजीवाद के अंतर्गत किसी भी छोटे उत्पादक समूह की तरह आम किसान भी प्राइस सिग्नल से संचालित होते हैं और इसके मद्देनजर एमएसपी के प्रति उनका आकर्षण स्वाभाविक है, जैसा कि हमने ऊपर कहा है, भले ही बेचे जाने योग्य अतिरिक्त ऊपज उनके पास हो या न हो या न के बराबर ही रहता हो। इसलिए किसान आंदोलन के प्रति रूख तय करते समय महज इसे आधार बनाना सर्वथा गलत है जिससे मजदूर वर्ग की दयनीयता कम होने के बजाय और बढ़ेगी।
इस तरह, गांवों व देहातों के कार्पोरेट का चरागाह बन जाने के आसन्न खतरे के अहसास ने ग्रामीण अंचल को उद्वेलित कर दिया है और अगर कोशिश की जाए तो पूरे देश को इस पर आंदोलित करना संभव है वर्तमान आंदोलन ने यह दिखा दिया है। इसीलिए हम अगर यह मान भी लें कि इस आंदोलन को शुरू धनी किसानों ने विशुद्ध रूप से महज एमएसपी बचाने और आम किसनों पर अपने पुराने प्रभुत्व को बचाने के अत्यंत सीमित उद्देश्यों से किया था या किया है, जैसा कि कुछ लोग कह रहे हैं, तो भी महीने भर बाद भी आंदोलन के टिके रहने ही नहीं अपितु इसके मुद्दों के विस्तारित होते जाने और तीखे होते जाने की स्थिति में हम यह आसानी से मान सकते हैं आज इसमें आम किसानों की कार्पोरेट पूंजी से मुक्ति की गूंज और आकांक्षा समाहित से हो चुकी है जिसे, इसके ‘राज्य’ के साथ बढ़ते टकराव के मद्देनजर और इसके बीचोबीच, मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी प्रोग्रामशुदा हस्तक्षेप से समग्रता में पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ भी मोड़ा जा सकता है और मोड़ा जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है कि जारी किसान आंदोलन अपने में नयी संभावनाओं को समेटे नई तरह की जागृति से अनुप्राणित होने को अग्रसर हो चुका है।
4. कार्पोरेट पोषित सरकार का इरादा एमएसपी व्यवस्था को खत्म करने और देहात को नियंत्रण में लेने तक सीमित नहीं है और न ही हो सकता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली सीधे तौर पर इसके निशाने पर है और यह बात किसी से छिपी नहीं है। अनाजों के सरकारी भंडराण की व्यवस्था की जगह कार्पोरेट पूंजीतियों के भंडारण ले लेंगे और जरूरत पड़ने पर सरकार उनसे अनाज खरीदेगी। गरीबों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले मुफ्त या कम दाम पर मिलने वाले अनाज के बदले उनके बैंक खाते में कैश का डायरेक्ट ट्रांसफर किया जाएगा और इस तरह सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अंत करने तथा इस पर निर्भर गरीब आबादी को अनाज सुनिश्चित करने के बजाय बाजार की ओर भेजने तथा उसके चंगुल में धकेलने की निश्चित तैयारी है। अब जा के स्पष्ट दिखता है कि गरीबों के जनधन खाता खोलवाने के पीछे का मूल उद्देश्य क्या था।
5. जैसा कि ऊपर कहा गया है, नये कृषि कानून विशालकाय कार्पोरेट ऐग्री बिजनेस कपंनियों को कृषि उत्पादों की खरीद के लिए सीधे किसानों के दरवाजे तक पहुंचने और उनके साथ कांट्रैक्ट खेती में प्रवेश करने की पूर्ण स्वतंत्रता देते हैं जिसका उपयोग कार्पोरेट निश्चित तौर पर सरकार की सहायता से कृषि पर अपने पूर्ण नियंत्रण के लिए करेगा जो कि नये कृषि कानूनों का मूल मकसद है। इस बात की पुष्टि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेजों, कृषि आयोग की अनुशंसाओं और नीति आयोग की हाल के दिनों की बहसों से होती है। कार्पोरेट की खेती में इंट्री चाहे काट्रैक्ट के माध्यम से हो या किसी और तरीके से, इसका मतलब हमेशा ही अति आधुनिक और बड़े पैमाने की खेती है। इसका मतलब है कि छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी जमीनों के मालिक गरीब-मंझोले किसान इसके सीधे निशाने पर आयेंगे जिनकी रक्षा फिलहाल जमीन की मिल्कियत संबंधी कानून करते हैं। इसके मद्देनजर कृषि जमीन की मिल्कियत संबंधी कानून और लीज संबंधी कानून भी जल्द ही सरकार के निशाने पर होंगे। सरकार फार्मर्स प्रोड्यूशर ऑरगनाइजेशन (एफपीओ) बनाकर छोटे व गरीब किसानों की खेती को आधुनिक बनाने और इसका लाभ उन तक पहुंचाने की बात कर रही है, लेकिन इसके पीछे का मुख्य कारण टुकड़ों में बंटी जमीनों को एक साथ जोड़ कर कार्पोरेटके के नेतृत्व व पकड़ में होने वाली कांट्रैक्ट खेती, जिसमें धनी किसान भी शामिल होंगे, को आगे बढ़ाने के लिए किसानों को फिर से अमीर बनने के झूठे सपनों के जाल में फंसाना है ताकि वे पूंजीवादी कृषि के पहले चरण में हुई पूंजी के हाथों हुई अपनी बर्बादी को भूलकर दूसरे चरण यानी अगले चंद वर्षों में शुरू होने वाली कार्पोरेट कृषि का चारा बनने के लिए राजी हो सकें। कार्पोरेट खेती का भावी लक्ष्य, जो नये कृषि कानूनों की आत्म है, 86 फीसदी गरीब किसानों और बाकी के बचे मुख्यत: मंझोले किसानों की जमीनों को छोटे-छोटे टुकड़ों में रहने देने से पूरा नहीं हो सकता है। धनी किसान भी इसके अपवाद नहीं हैं। इनकी जमीन पर भी कार्पोरेट की नजर है, लेकिन फिलहाल इसका पूरा ध्यान इनकी पूंजी पर बलात कब्जे से ज्यादा उनके इस्तेमाल पर है या होगा। बड़ी ऐग्री-बिजनेस कार्पोरेट कंपनियों की कांट्रैक्ट खेती में इंट्री का मतलब कृषि उत्पादों के विश्व बाजार में मांगों के सिग्नल के द्वारा फसलों का चुनाव और इससे खेती के पैटर्न को एक बार फिर से दामों के उथल-पथल और लाभ-हानि के भंवर में खींच ले आना और इसे बुरी तरह बदलना भी है जिससे एक तरफ अतार्किक तरीके से रासायनिक खाद और कीटनााशकों का प्रयोग बढ़ेगा और जमीन की उर्वराशक्ति नष्ट होगी, वहीं दूसरी तरफ किसानों की बची-खुची आर्थिक स्थिति भी हमेशा के लिए डावांडोल हो जाएगी। यह दरअसल हरित क्राति पार्ट-2 होगा जिसमें गरीब किसानों की ही नहीं मध्यम तबके और दूरगामी तौर पर देखें तो धनी किसानों के एक हिस्से की तबाही भी निश्चित है और इसे आज ही दिखा व समझा जा सकता है। इससे एक सामाजिक संकट, जो एक संपूर्ण किसान वे देहाती आबादी के बिखराव व विनाश का संकट खड़ा होगा, आएगा जिससे एक-एक कर निपटने की भारत के बुर्जुआ वर्ग की चिर परिचित कपटपूर्ण नीति से हम पूरी तरह वाकिफ हैं। इसीलिए तो कार्पोरेट खेती के आगाज के पहले कार्पोरेट पक्षीय कानूनों जैसे पूर्वगामी और बीच का कदम उठाया गया है। कार्पोरेट खेती के पहले कृषि कानूनों के द्वारा इनके लिए रास्ता साफ करने की रणनीति बुर्जुआ वर्ग के इसी कपट का हिस्सा है। हमारा काम पूरी ताकत से गरीब किसानों को (और धनी किसानों को भी) यह बताने का होना चाहिए कि पूंजीवादी कृषि के पहले चरण की बर्बादी से भी नहीं सीखने की सजा पूर्व की बर्बादी से कहीं बढ़कर होगी जो खेती से बलात निष्कासन तक जाएगी। हमें मौजूदा सरकार व पूंजीवादी व्यवस्था की संपूर्ण विनाशकारी कार्यप्रणाली को किसान समुदाय तथा मजदूर वर्ग के समक्ष नंगा करके रखना चाहिए।
6. एफपीओ में बड़ी कार्पोरेट कंपनियों के साथ कांट्रैक्ट खेती में हाथ बंटाते किसान शुरूआती आकर्षक परिणाम, जो आ सकते हैं, के बाद जल्द ही कार्पोरेट के बिछाये जाल में फंसेंगे। दामों के ऊंचा होने के वक्त और दामों के गिरने के समय कार्पोरेट का कांट्रैक्ट एग्रीमेंट के प्रति व्यवहार अलग-अलग और मनमाना होगा यह हम विगत अनुभव से जानते हैं। धनी किसानों में से मुट्ठी भर सबसे धनी किसानों को छोड़कर सभी किसान कृषि उत्पादों के विश्व बाजार में कीमत में आये उतार-चढ़ाव से कांर्टैक्ट खेती के बावजूद बुरी तरह प्रभावित होंगे, जिसका आधार सरकार ने किसानों से ज्यादा कार्पोरेट के पक्ष में (नये) कृषि कानूनों को बना कर उनके हाथों में सौंप दिया है। दामों की अस्थिरता से कांट्रैक्ट खेती से किसानों का कितना बचाव होगा यह संभव नहीं है, क्योंकि जब दाम गिरा होता है तो कंपनियां किसानों से ऊपज खरीदने में विभिन्न बहानें से आनाकानी करती हैं और अनुभव बताता है कि किसान कुछ भी नहीं कर पाते हैं। उल्टे, फसल की बुआई से लेकर फसल को कार्पोरेट के लिए अंतिम तौर से तैयार करने तक हर स्टेज में किसान कार्पोरेट के हाथों में फंसते चले जाएंगे, जैसा कि कानून को पढ़कर साफ महसूस होता है। कृषि कानूनों के माध्यम से कार्पोरेट कंपनियों को मिली असीमित स्वतंत्रता किसानों को गुलामी की नई जंजीरों में जकड़ देगी और जल्द ही वह वक्त आयेगा जब कार्पोरेट कृषि के आगाज का रास्ता पूरी तरह साफ हो जाएगा।
7. सरकारी गलियारों में इस बात की चर्चा जोरों पर है कि कृषि के विकास के लिए लीज और स्वामित्व से जुड़े जमीन कानूनों की जकड़न से ‘जमीन को स्वतंत्र अथवा मुक्त करना’ जरूरी है। नजर गरीब किसानों की जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों के बने रहने के कारण कार्पोरेट खेती के रास्ते में आने वाली बाधा को दूर करने पर है जिसका अर्थ यह है कि गरीब किसानों की जमीन पर सरकार की गिद्ध दृष्टि जम चुकी है। अपेक्षाकृत छोटे रकबों के मालिक धनी किसानों की मिल्कियत के अंतर्गत टुकड़ों में बंटी जमीन को भी मुक्त किये जाने का विमर्श सरकार के कई स्तरों पर लगातार चल रहा है जिसे इन कृषि कानूनों को लागू करने में मिलने वाली सफलाता से काफी बल मिलेगा। इस तरह कृषि कानूनों का उद्देश्य कृषि पर एकाधिकारी पूंजी की निर्णायक जीत कायम करना और उसके रास्ते की बाधाओं को एक-एक कर के दूर करना है। विमर्श जल्द ही कानून का रूप लेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी सरकार ने शासन संभालते ही किसानों की जमीन छीन कर कार्पोरेट को सौंपने के लिए किस तरह का जमीन अधिग्रहण कानून लेकर आई थी। इसका पूर्वानुमान सरकार के द्वारा किसानों के पूर्व मजदूर वर्ग सहित अन्य सभी अंतवर्ती तथा दरमियानी वर्गों के हितों को कुचलने और देश में जनतंत्र को खत्म करने के इरादे से इसके द्वारा उठाये गये फासिस्ट कदमों के मद्देनजर आसानी से किया जा सकता है।
8. इसीलिए इस आंदोलन को एकमात्र पूर्व के विशुद्ध रूप से कुलक हितों वाले किसान आंदोलन की निरंतरता में देखना सही नहीं है। इसे पूर्व के कुलक किसान आंदोलनों का हू-बहू प्रतिबिंब या प्रतिरूप समझना तो और गलत है। मजदूर वर्ग के लिए इसमें सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि इस आंदोलन ने कृषि के पूंजीवादी विकास के रास्ते के दुष्परिणामों को आम किसानों के प्रतिरोध के निशाने पर ले लिया है, भले ही मजदूर वर्ग के आंदोलन की असंख्य कमजोरियों की वजह से हम इसे आज पूंजीवाद के विरूद्ध ले जाने में असफल हैं। यह आंदोलन पूंजीवादी कृषि से अमीर बनने की नाउम्मीदी को भी उजागर करने की जगह और अवसर देता है। यह किसानों के बीच के इस प्रतिक्रियावादी आत्मविश्वास का अवसान काल भी है जिसके कारण वे एक दूसरे की लाश पैर रखते हुए विकास हासिल करने की बात करते थे या करते हैं। इसी के साथ नूतन विचारों के प्रादुर्भाव की जमीन तैयार होने की संभावना भी इस आंदोलन ने पैदा की है जिसने मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी जमातों में भी गर्मजोशी भर दी है। यह चाहे-अनचाहे और जाने-अनजाने किसान समुदाय के अंदर एक पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारी बीज बो रहा है जिसे पोषित करने का काम मजदूर वर्ग और इसकी अगुवा ताकतों का है। अगर ऐसा हो पाता तो मौजूदा राज्य व समाज के क्रांतिकारी कायाकल्प को प्रभावित ही नहीं करता, अपितु उसे द्रुत गति से पूरा करने की ताकत भी मजदूर वर्ग को प्रदान करता।
9. इस (तीखे होते जा रहे) आंदोलन से कुल मिलाकर मुख्य रूप से क्या परिलक्षित हो रहा है? यही कि आम किसान आज यह मानने को विवश हैं कि ऊंचे दाम पाने की पूंजीवादी होड़, जो स्वाभाविक रूप से तीन-चार दशकों के पूंजीवादी कृषि के विकास के फलस्वरूप पैदा हुई, में वे जमीन के एक छोटे टुकड़े के स्वामी होने के बल पर तथा छोटे पैमाने के उत्पादन के आधार पर अब और नहीं टिक सकते तथा वे एक सुखी-संपन्न जिंदगी की चाहत को पूरा करने के लिए वे अब बड़े पैमाने के पूंजीवादी कृषि उत्पादन के साथ प्रतिस्पर्धा में महज ऊंचे दाम की उत्प्रेरणा के भरोसे और ज्यादा दिन तक जोखिम नहीं उठा सकते। वे जानते हैं, छोटे उत्पादक के बतौर यही होड़ उन्हें कर्ज के कभी नहीं खत्म होने वाले अंतहीन भंवर में खींच लाई है। वे तीन दशकों की पूंजीवादी कृषि के विकास के दौरान देख चुके हैं कि वे समृद्धि के विपरीत तंगहाली और कर्ज के शिकार हो आत्महत्या करने तथा उजड़ने के लिए विवश हुए हैं। कृषि में कार्पोरेट वर्चस्व को सुगम बनाने और बढ़ावा देने वाले मोदी सरकार के कृषि कानून, जिन्हें किसानों ने सही ही काले कानून की संज्ञा से विभूषित किया है, पूंजीवादी कृषि के उसी अंतर्विरोधी विकास की निरंतरता को और इसी निरंतरता में इसके अगले पड़ाव पर ले जाने की अनिवार्यता को रेखांकित करते हैं। इस नये पड़ाव पर कार्पोरेट वर्ग नया शिकारकर्ता है जिसके शिकार का दायरा काफी बढ़ चुका है; यह ग्रामीण सर्वहारा, अर्धसर्वहारा और गरीब किसानों से कहीं आगे निकलते हुए (एमएसपी तथा पीडीएस को ध्वस्त करने तथा गांव व देहात पर कब्जे के मंसूबों के साथ) धनी किसानों के एक हिस्से के परंपरागत वर्चस्व के खात्मे और उनके भी संपतिहरण तक जाता है। आम किसान समुदाय प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी चेतना के अभाव में कृषि की मौजूदा विभीषिका के अंतर्निहित वास्तविक कारणों अर्थात इसमें पूंजीवाद की भूमिका को भले ही स्पष्ट रूप से नहीं देख या समझ पा रहे हों, लेकिन जब वे आक्रोश और अवसाद से भर कर सरकार को अपनी बर्बादी के लिए कोसते हैं, तो दरअसल उनका आक्रोश पूंजीवाद के विरूद्ध ही लक्षित होता है। जब वे पूछते हैं कि उन्हें ऊंचे दामों का लालच देकर सरकार उन्हें आखिर कहां ले आई है, तो भी वे जाने-अनजाने पूंजीवाद पर ही निशाना साध रहे होते हैं।
10. आम किसानों की आज की अकुलाहट व घबराहट का स्रोत व कारण कार्पोरेट वर्चस्व की मौजूदा आहट भर नहीं, अपितु पूंजीवादी कृषि के विकास के पहले चरण के अत्यंत बुरे परिणाम भी हैं जिसके परिणामस्वरूप ही लाखों किसानों ने आत्महत्या की। बाजार के भरोसे रातों-रात अमीर बनने के सपने देखना तो वे बहुत पहले ही बंद कर चुके थे। अन्य कोई विकल्प नहीं होने से और खासकर किसानों की जीवन-स्थितियों के कायाकल्प हेतु मजदूर वर्गीय हस्तक्षेप के अभाव में वे भारी कर्ज में डूब कर और बर्बाद होकर भी इसी में हाथ-पैर मारते रहे। मोदी सरकार के कृषि सुधार कानूनों ने तो बस इतना किया है कि बेवश किसानों के सिर पर इतना भारी हथौड़ा दे मारा है कि ये उठ-पुठ कर सीधे सरकार के खिलाफ आंदोलन की जंग में कूद पड़ें हैं।
11. इस बात की प्रबल संभावना है कि अगर यह आंदोलन एमएसपी के तंग दायरे से बाहर निकलकर समग्रता में पूंजीवादी कृषि की आतार्किकता और आम तौर पर पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में अंतर्भूत अराजकता, जो व्यापक किसान समुदाय की विभीषिका के मुख्य कारण हैं, को भी निशाने पर ले लेता है; किसानों के विकास के इस पूंजीवादी सिद्धांत अर्थात कृषि तथा खेती के विकास के लिए कार्पोरेट खेती की अनिवार्यता के सिद्धांत पर विराम लगाने की ओर बढ़ता है; इसमें गरीब तथा मंझोले किसान समुदाय के वास्तविक हितों को शामिल करता है और इसके लिए सामाजिक कायाकल्प को अपना प्रस्थान बिंदु बनाने की ओर बढ़ता है, और ये सब फिलहाल मामूली ढंग से भी पूरा होता दिखे, तो इस ऐतिहासिक आंदोलन की शक्ति निस्संदेह अपराजेय हो जाएगी। लेकिन ऐसा सिर्फ चाहने से नहीं होगा, न ही गरीब-मंझोले किसानों में ऐसी क्रांतिकारी जागृति अपने आप आ जाएगी और न ही उनके अकेले के प्रयासों से आंदोलन उक्त दिशा में चल पड़ेगा। ऐसा तभी होगा जब वर्ग सचेत मजदूर और उसके प्रतिनिधि सांगठनिक से ज्यादा वैचारिक और राजनीतिक तौर पर मौजूदा किसान आंदोलन के सबसे जीवंत मांगों व मुद्दों की सही व्याख्या और समझ के आधार पर अपना क्रांतिकारी किसान कार्यक्रम पेश करेंगे और इसमें हस्तक्षेप करेंगे जिसका लक्ष्य किसानों को यह बताना तथा भरोसा देना होगा कि किस तरह एकमात्र मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश किसानों का भावी सर्वहारा राज्य ही पूरे किसान समुदाय को पूंजी के जुए से मुक्त कर सकता है तथा पूरे देहात को कार्पोरेट पूंजी के बलात शोषण के दायरे से बाहर ले आ सकता है। इस तरीके के हस्तक्षेप को इस आंदोलन ने स्वाभाविक, संभव और सुगम बनाया है और यह इसका एक बहुत बड़ा महत्व है।
12. इसे कहे बिना ही समझा जा सकता है कि कार्पोरेटपक्षीय कृषि कानूनों का प्रभाव आम किसानों और धनी किसानों पर अलग-अलग पड़ेगा। लेकिन यह अंतर ज्यादातर मात्रा का होगा दिशा का नहीं। जहां गरीब-मंझोले किसान बलात सर्वहाराकरण के शिकार होंगे, वहीं धनी किसानों के एक अत्यंत छोटे धनी संस्तर को छोड़कर बाकी किसी की पुरानी हैसियत खत्म होगी और आगे उनकी भी अब खैर नहीं है। उनका पुराना वर्चस्व आगे नहीं रहने वाला है।
13. यहां समझने वाली मुख्य बात यह है कि कृषि में पूंजीवाद के प्रवेश की ऐतिहासिक भूमिका व्यापक किसानों को कृषि से बाहर खदेड़ने की होती है जो कई चरणों में संपन्न होती है। पहले के चरण में धनी किसानों ने मजे उड़ाये और वे मालामाल हुए जबकि गरीब किसान महंगी खेती, जो पूंजीवादी खेती के अंतर्विरोधी विकास की पहचान है, के कारण भारी कर्ज और तबाही के शिकार हुए। पूंजीवादी कृषि की माजूदा मंजिल में, जो पूंजीवादी कृषि के विकास का दूसरा चरण है, जैसा कि कृषि कानूनों के संभावित परिणामों के मद्देनजर इंगित हो रहा है, छोटी मछलियों (ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसानों) का अकेले भोज उड़ाने के धनी किसानों के समय का अंत होने वाला है। बड़े से बड़े मगरमच्छों (कार्पोरेट) के तालाब में अवतरित होने से वे स्वयं भी उसी संपतिहरण की प्रक्रिया के शिकार होने वाले हैं जिसके तहत वे कल तक दूसरे कमजोर तबकों के किसानों का शिकार करते थे।
14. धनी किसान पूंजीवादी व्यवस्था के लाडले रहे हैं और आज भी हैं। इसलिए कृषि से उन्हें विस्थापित करने के लिए ‘राज्य’ कम कष्टकारी तरीके भी अपना सकता है, लेकिन निष्कासित तो अंतत: उन्हें होना ही है। समर्थन मूल्य की जगह ‘आय समर्थन’ देने की चर्चा उसी का उदाहरण है। किसान सम्मान निधि के तहत दी जाने वाली वार्षिक 6000 रूपये की राशि उसी का उदाहरण है जो राजनीतिक पार्टियों को वोट के रूप में मिलने वाले लाभ की दृष्टि से काफी आकर्षक भी है। यूरोप व अमेरिका में इससे मिलती-जुलती नीति किसानों को खेती न करने के लिए मुआवजा देने की नीति है। ‘आय समर्थन’ का ऐसा तरीका वास्तव में किसानों को खरीद लेने (buy out) का रास्ता है जो बताता है कि ‘राज्य’ किसानों को कृषि से बलात निष्कासिकत करने से होने वाली सामाजिक अशांति में निहित खतरे को समझती है और उन्हें ‘आय समर्थन’ के रूप में ‘घूस’ देकर उन्हें अलग तरीके से कृषि से बाहर जाने को प्रेरित करने वाली नीति पर चल सकता है। हालांकि मौजूदा किसान आंदोलन का नया तेवर बता रहा है कि सरकार की ये चाल किसानों को भ्रमित करने में सक्षम नहीं है। अगर सरकार इसे भविष्य में और बढ़ाकर लागू करना चाहती है तो भी भारत के किसान को यह स्वीकार्य होगा इसमें संदेह है। भारतीय किसान अमेरिकी तथा यूरोपीय किसानों की तरह कृषि से इतनी आसानी से बाहर होने की बात शायद ही स्वीकार कर सकेंगे। इसलिए भारत में पूंजीवाद की कृषि पर निर्णायक जीत किसानों के विध्वंस, हालांकि दीर्घावधि वाले खूब सोच-समझ कर बनाये गये रास्ते से ही संभव दिखता है जिसके कारण मजदूर वर्ग के सामने वास्तविक किसानों के विशाल तबके को सर्वहारा क्रांति और भावी सर्वहारा राज्य के सहयोगी बनाने का एक अति महत्वपूर्ण कार्यभार लंबित है जिसे वर्तमान किसान आंदोलन ने सही ही पूरी शिद्दत से पुन: रेखांकित और परिभाषित करने का काम किया है। यहां यह भी स्पष्ट होता है कि सवाल महज पूर्ण या अपूर्ण समर्थन या विरोध का नहीं, कुछ और अर्थात इसमें मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी हस्तक्षेप का है।
15. इस तरह, धनी किसानों व कुलकों की पीड़ा व शिकायत बाकी किसानों के दर्द से अलग है, लेकिन बावजूद इसके देर-सवेर कृषि से विस्थापन की बात, इसमें समयांतराल का अंतर अलग-अलग किसानों के लिए चाहे जितना भी हो, सब पर लागू होने वाली सच्चाई है। धनी किसानों की तकलीफ को हम बयां करना चाहें तो इस तरह कर सकते हैं; वे सरकार से पूछ रहे हैं कि हम धनी किसानों को क्या इसीलिए पाला-पोसा था कि उनके माध्यम से कृषि क्षेत्र में निर्मित पूंजी को बड़ी कारपोरेट पूंजियों के आखेट के काम आ सके? वर्ग सचेत मजदूर उनसे कहेगा – ‘जी हां महानुभावों! आप ठीक समझ रहे हैं। पूंजीवाद इसी तरह काम करता है। पूंजीवादी विकास इसी तरह के विकास को कहा जाता है। पूंजी का स्वाभाविक गुण संकेंद्रण और केंद्रीकरण है जिसका मतलब है कि पूंजी चंद मुट्ठी भर बड़े से बड़े पूंजीपतियों या उनके ट्रस्टों में केंद्रीकृत होती जाती है जो कि उसका मूल चरित्र है। कृषि क्षेत्र में कारपोरेट के आगमण से मचने वाली प्रतियोगिता इसका ही उदाहरण है। कल तक छोटी मछलियों को अपना भोजन बनाने वाली बड़ी मछलियों का सामना अब शार्कों और मगरमच्छों से होने वाला है। इस प्रतिस्पर्धा का निपटारा भी ठीक वैसे ही बलपूर्वक होगा जैसे आप गरीब किसानों और ग्रामीण सर्वहाराओं के संदर्भ में, सरकार और बाजार पर अपनी पकड़ की ताकत के माध्यम से, करते थे या अभी भी करते हैं, जहां कहीं भी ऐसा करना संभव है।’
16. यह पूंजीवादी विकास का नियम है कि पूंजी बड़े, फिर और बड़े स्तर के पूंजी के स्वामियों के हाथों में सिमटती एवं वहां से भी आगे गुजरती हुई अंतत: एकमात्र ट्रस्ट में केंद्रीकृति होने की ओर प्रवृत्त है। यह प्रक्रिया अहर्निश जारी है और मेहनतकशों को ही नहीं, पूंजी के अनेकानेक छोटे-बड़े ‘दुर्गों’ को ध्वंस करती तथा सामाजिक उथल-पथल मचाती हुई आगे बढ़ेगी, जिसमें दरमियानी (बीच के) तबके का नाश होना तय है, जैसा कि भारत की पूंजीवादी कृषि में अब तक होता आया है तथा आगे और तेजी से होने वाला है। पूंजी के विकास का यह आम नियम है और कृषि क्षेत्र में किसान समुदाय की विभीषिका का यही प्रमुख कारण है।
17. हम किसानों से कहना चाहते हैं कि इस आम नियम को एकमात्र तभी पलटा जा सकता है जब स्वयं पूंजीपतियों का तख्ता पलटा जाएगा जिसका सार रूप में मतलब समस्त सामाजिक संपदा, जो पूंजीपति वर्ग के अधीन होने की वजह से एकमात्र मुनाफे पैदा करने के काम आती है, यानी जिसका शुरू से लेकर अंत तक एकमात्र ध्येय पूंजी के लिए दोड़ लगाना है और जो इस कारण से ‘मनुष्य’ का दुश्मन बनी हुई है, को मेहनतकशों के अधीन सामाजिक स्वामित्व में ले आकर उसे बिना किसी भेदभाव के मानवजाति की सेवा करने में लगाना है। उत्पादन के समस्त साधनों के मेहनतकश वर्ग के ‘राज्य’ के अधीन सामाजिक स्वामित्व में आते ही उसकी मानवद्रोही प्रकृति बदल जाएगी।
18. कृषि पर इसका तत्काल असर यह होगा कि मेहनतकश और वास्तविक किसानों की हिस्सेदारी वाला सर्वहारा राज्य कायम होगा जो समस्त वास्तविक किसानों को साधन संपन्न आधुनिक सामूहिक फार्म में संगठित करेगा और किसान बिना किसी प्रतिस्पर्धा और डर के चाहे जितनी ऊपज पैदा कर सकते हैं करेंगे। वे जितना अधिक और जितनी गुणवत्ता वाले उत्पाद पैदा करेंगे वह उनके लिए और समाज की उन्नति के लिए उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि पोषणयुक्त आहार की तमाम मेहनतकशों की आबादी की जरूरत पूरी होगी जो कि सर्वहारा राज्य का एक प्रमुख कार्यभार है। मेहनतकशों का राज्य किसानों की समस्त ऊपज को न सिर्फ खरीदेगी, अपतिु खेती को उनके नेतृत्व में (न कि पूंजीपतियों के नेतृत्व में) आधुनिक और शोषणमुक्त बनाकर उनके लिए समय की बचत भी करेगी जिसका उपयोग वे पेशागत तथा अन्य तरह की विधाओं के विकास के लिए कर सकेंगे। किसानों के बीच पाई जाने वाली आज की किसान विरोधी तथा मजदूर विरोधी पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाएगी जिससे प्रत्येक व्यक्ति का विकास तथा सामूहिक विकास एक दूसरे की पूरक व पूर्वशर्त बन जाएगा। व्यापक किसानों की कीमत पर मुट्ठी भर का विकास, खासकर कार्पोरेट के विकास और उसके अंतहीन मुनाफे की हवस का यानी संपूर्णता में अंतर्विरोधी स्वरूप के विकास का, जो पूंजीवादी कृषि व खेती का ही नहीं संपूर्ण पूंजीवादी ढांचे का मुख्य आधार (mainstay) है, सदा के लिए खात्मा हो जाएगा। कहने का अर्थ है कि किसानों की मुक्ति के लिए स्वयं किसानों को पूंजी के विनाशकारी ‘अश्वमेघ यज्ञ’ को खंडित करने का काम मजदूर वर्ग के साथ मिलकर करना होगा। मोदी सरकार को भगाने के बाद भी पूंजीवाद के खात्मे तक रूकना नहीं होगा। तब कार्पोरेट पूंजी का यह पूरा मानवद्रोही खेल, जिसके ही दुष्परिणामों के किसान आज शिकार हैं, मिनटों में खत्म हो जाएगा। किसानों के रूप में ही किसानों की मुक्ति का काम अत्यंत आसानी और तेजी से भावी सर्वहारा राज्य के हाथों संपन्न होगा। इसलिए समाज को पुनर्गठित करने के सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक मिशन का समर्थन किसानों को आज करना चाहिए और उसमें हाथ बंटाना चाहिए जो स्वयं किसानों की मुक्ति के लिए अनिवार्य है। एकमात्र तभी किसानों की आज की नारकीय जिंदगी का समाधान हो सकता है। छोटे पैमाने के उत्पादक के रूप में बड़े पैमाने के पूंजीवादी उत्पादन के समक्ष आम किसानों का और कार्पोरेट पूंजी की आज की दैत्याकर ताकत व इसके प्रतिरूप विशालकाय कार्पोरेट के समक्ष धनी किसानों का टिके रहना सर्वथा असंभव है। सर्वहारा वर्ग के सहयोगी के रूप में ही किसानों का कोई भविष्य है अन्यथा विनाश निश्चित है।
19. मजदूरों व मेहनतकश किसानों की राज्यसत्ता, जो पूंजीवाद को हटाकर कायम होगा, का लक्ष्य वास्तविक उत्पादकों की उन्नति करना होगा न कि पूंजीपतियों या कार्पोरेट कपंनियों के मुनाफे की गारंटी करना। किसान समुदाय को मुट्ठी भर पूंजीपतियों तथा धनिकों के मुनाफे की बलिवेदी पर कुर्बान करने की प्रथा व व्यवस्था, जो पूंजीवादी कृषि का मूलमंत्र तथा आधार स्तंभ है, और जिसके ही दुष्परिणामों के विरूद्ध आज किसान आंदोलनरत हैं, को पूरी तरह खत्म कर दिया जाएगा। पूरे अर्थतंत्र में व्याप्त अराजकता और अतार्किकता, जिसकी वजह से ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर वित्तीय पूंजी के मठाधीशों के द्वारा नियोजित एवं नियंत्रित दामों का झूला झुलते किसान तबाह हो रहे हैं, का अंत हो जाएगा, क्योंकि सर्वहारा राज्य किसानों के साथ किसी को भी लूट का खेल खेलने की ‘स्वतंत्रता’ को खत्म कर देगा तथा भरतीय कृषि को विश्वव्यापी शोषण के दायरे से बाहर कर देगा। अतिउत्पादन के संकट का भी खात्मा हो जाएगा जो कृषि क्षेत्र में ही नहीं पूरे अर्थतंत्र में एक लाइलाज बीमारी की तरह पूरे विश्व में फैला हुआ है। ‘उचित दाम’ पर बिक्री की समस्या और मांग के अक्समात गिर जाने की समस्या दोनों का अंत हो जाएगा, क्योंकि बिना किसी शोषण के आधार के किसान आज से भी अधिक आधुनिक सामूहिक खेती के माध्यम से सीधे सर्वहारा राज्य के साथ पहले से तय उचित दाम के आधार पर कांट्रैक्ट खेती करेंगे। लगातार पहले से ज्यादा उत्पादों के उत्पादन की जरूरत पैदा होगी, क्योंकि वह राज्य मुनाफा से नहीं अपितु सभी उत्पादकों को उतरोत्तर उन्नत जीवन प्रदान करने हेतु अधिकाधिक भौतिक उपादानों की पूर्ति करने के लक्ष्य से प्रेरित होगा।
20. सर्वहारा राज्य शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरी सामाजिक सेवाएं सबके लिए निशुल्क, सुलभ तथा सर्वजनीन बनाके मेहनतकशों को उससे वंचित रखने की पुरानी तमाम पूंजीवादी तिकड़मों पर विराम लगा देगा जिसकी वजह से किसानों और मजदूरों की आय का एक बड़ा हिस्सा घुम फिर कर पूंजीपतियों के पास चली जाती है और वे कंगाल होते जाते हैं। यही नहीं, वह राज्य सामूहिक तथा सार्वजनिक रूप से उन सबका ख्याल रख पाएगा जो काम यानी श्रम करने लायक नहीं हैं और जिन्हें आज पूंजीवाद में यूं ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। बूढ़े, बच्चे, बीमार तथा अपंग लोगों के लिए सामाजिक जिम्मेवारी के तहत आसानी से सामाजिक उत्पादन के एक हिस्से को अलग किया जा सकेगा जिसे करना आज के पूंजीवाद में संभव ही नहीं है।
21. प्रकृति से भी हमारा रिश्ता ठीक हो पाएगा। खेतों की मिट्टी की बात करें, तो किसानों के बीच धनी बनने की पूंजीवादी अतार्किक होड़ ने हरित क्रांति वाले प्रदेशों में ही नहीं, पूरे देश में रासायनिक खादों, कीटनाशकों और हाइब्रिड बीजों आदि के अतार्किक प्रयोग ने मिट्टी की लवणता को बढ़ाकर उसकी उर्वरा शक्ति को नष्ट कर दिया है जिससे आने वाली पीढ़ियों के लिए कृषि में शायद कुछ भी करने को नहीं बचेगा। किसानों को भी अब ये बात समझ में आने लगी है लेकिन उनके हाथ में करने को कुछ नहीं है। न वे अपनी जिंदगी संभाल पा रहे हैं, न ही मिट्टी की उर्वरता को ही बचा पा रहे हैं। सबसे दुख की बात यह है कि मुनाफे के वशीभूत हो मिट्टी की उर्वरता को अंधाधुंध तरीके से नष्ट करने के बाद भी पूंजीवादी समाज भुखमरी की समस्या को मिटाने में असफल रहा है, जबकि गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं और फलों व सब्जियों को खेतों में ही किसान लागत मूल्य भी नहीं मिलने की वजह से नष्ट करने के लिए विवश हो रहे हैं। उल्टे, किसान ऊपज की ज्यादा पैदावार करके फांसी का फंदा गले में लटकाने के लिए बाध्य हो जाते हैं। मुनाफा से प्रेरित उत्पादन से हम जैसे ही कृषि को बाहर ले आयेंगे, इन सब पर स्वाभाविक रूप से रोक लगेगी और प्रकृति और विज्ञान के मैत्रीपूर्ण एवं सामंजस्यपूर्ण सहयोग से हम आज की तुलना में कम पैदा करके भी सबों की सारी समस्याओं का निदान कर सकेंगे। हम जितना प्रकृति से लेंगे उसे पुन: लौटा सकेंगे। उसका अतिदोहन रूकेगा और हम प्रकृति के एक अहम चेतनासंपन्न अंग के रूप में, न कि विजेता के रूप में, प्रकृति और उसकी शक्तियों को मानवजीवन की सेवा में लगा पायेंगे। इस तरह हम देख सकते हैं कि किसानों की मुक्ति पूंजी के मुनाफे के खेल का हिस्सा बन कर नहीं, इसे खत्म करके ही संभव है।
22. महिला किसानों के उत्पीड़न का भी सदा सर्वदा के लिए अंत हो जाएगा, क्योंकि संपूर्णता में स्त्री उत्पीड़न का अंत कर दिया जाएगा। समाजिक उत्पादन में बिना किसी घरेलू बोझ के दवाब के उनकी हिस्सेदारी बढ़ेगी, बच्चों के लालन-पालन की एकमात्र जिम्मेवारी स्त्रियों की नहीं पूरे समाज की और उसके प्रतिनिधि के रूप में राज्य की होगी। एक नई दुनिया उठ खड़ी होगी। नया किसान जन्म लेगा जो धनी बनने और व्यक्तिगत समृद्धि की होड़, जिसका बुरा से बुरा हस्र वह देख चुका है, से अलग पूरे समाज को, जिसमें वह खुद भी शामिल होगा, सुंदर, समृद्ध और सुविधासंपन्न बनाने के लिए मिहनत करेगा। संपूर्णता में नया मानव उठ खड़ा होगा जिसके साथ एक नयी सभ्यता भी उठ खड़ी होगी जिसकी प्रकृति से प्रतिस्पर्धा नहीं अपितु परस्पर सहयोग होगा और मानव जीवन तब सच में मानव जीवन कहने लायक होगा।
23. हम किसानों से यह भी कहना चाहते हैं कि नवउदारवाद से पीछे हटने मात्र से इसका हल निकालने की बात एक गलत नुस्खा है जिसे उदार पूंजीपति वर्ग के लोग और चिंतक लगातार पेश कर रहे हैं, ताकि आंदोलनरत किसानों को छला जा सके। हम किसानों से आह्वान करना चाहते हैं कि वे अंतिम जीत के पहले बीच रास्ते में नहीं रूकें, क्योंकि आज के एकाधिकारी दौर की कोई भी पूंजीवादी सरकार इन कानूनों को वापस लेकर भी अंतत: उसे वापस नहीं ले सकेगी। इसे दूसरे माध्यमों से दुबारा लागू करेगी और व्यापक किसानों को कृषि से बाहर करने का काम जारी रखेगी। इन कानूनों की नींव पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में है, जबकि कुछ लोग यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि ये कृषि कानून 1991 में शुरू हुई नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के परिणाम हैं, जिसका मतलब किसानों को यह समझाना है कि नवउदारवादी नीतियों के विरोध तक आंदोलन को सीमित रखा जाए। हम किसानों से कहना चाहते हैं कि ये कानून नवउदारवादी नीतियों के परिणाम जरूर हैं, लेकिन ये नीतियां स्वयं पूंजीवादी विकास तथा इसके आम नियमों की परिणाम थीं और हैं, न कि वे कहीं आसमान से टपकी हैं जिन्हें निरस्त करने मात्र से किसानों को तबाही से बचाया जा सकता है। दरअसल यह पूरा विमर्श ही बेमानी है क्योंकि यह हमें अब तक हुए विकास को नियोजित और योजनाबद्ध तरीके से मानवजाति के लिए उपयोग लायक बनाने तथा उसे और आगे विकसित करने की नहीं, अपितु विकास की आज की विकसित मंजिल से पूर्व के अविकसित मंजिल में ले जाने की बात करता है जो मूलत: अतार्किक ही नहीं प्रतिक्रियावादी भी है। अव्वल तो यह संभव नहीं है, क्योंकि समाज को पीछे आखिर ले कैसे जाया जा सकता है, लेकिन अगर यह संभव भी हो तो इसका अर्थ आज तक मानवजाति द्वारा किये गये विकास को नष्ट करने की बात की वकालत करना है जिसका अर्थ भूत की तरह उल्टे पांव चलना और विपरीत दिशा में चल पड़ना है, जबकि वहां से फिर से शुरू होने वाली विकास की गति व यात्रा हमें एक बार फिर से हमें यहीं पर ला खड़ा करेगी जहां आज खडे़ हैं। पूंजीवादी संबंधों की चौखट के बाहर जाकर हमें आज तक हासिल विकास को नियोजित करना ही होगा और तभी ही हम इसे किसानों के लिए और साथ में पूरी मानवजाति के लिए उपयोग में ला सकेंगे।
24. हमारी पार्टी, जो मजदूर वर्ग की एक अगुवा दस्ता है, आंदोलनरत किसानों के साथ उपरोक्त शोषणमुक्त समाज बनाने के कार्यक्रम और इसके लिए एक साथ मिलकर संघर्ष करने के आह्वान के आधार पर कार्पोरेट के खिलाफ उनके जीवन-मरण के संघर्ष के साथ चट्टान की तरह खड़ी है।
25. मजदूर वर्ग की तरफ से इस बात बात को हम सुनिश्चित करना चाहते हैं कि यह किसान आंदोलन अलगाव का शिकार न हो जाए, लेकिन स्वयं आंदोलन को तार्किक और विज्ञानसम्मत समझदारी तक पहुंचना होगा और एकमात्र तभी यह कारपोरेट की ताकत के सामने पूरे देश की गरीब मेहनतकश आबादी की शक्ति के साथ मिलकर अविरल टिका रह सकता है और अंतिम जीत दर्ज कर सकता है। हम अपनी पार्टी और मजदूर वर्ग की तरफ से आंदोलनरत किसानों तक यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि बड़ी पूंजी से अपने अस्तित्व की जारी अपाकी लड़ाई का हम इस शर्त के साथ समर्थन करते हैं कि आप यह समझें कि पूंजीवादी सत्ता और इसके मानवद्रोही खेल से पूरी तरह बाहर आये बिना न तो आपका और न ही समाज या मानवता का ही कुछ भला होने वाला है। हम किसानों को इस पूंजीवादी व्यवस्था में मुक्ति की उम्मीद नहीं देना चाहते, क्योंकि यह सरासर झूठ होगा। किसान और पूंजीवाद दूसरे के सहयोगी नहीं दुश्मन हैं।
26. हम मानते हैं कि किसान आंदोलन की मांगों में विरोधाभास मौजूद हैं जिनके मूल में किसानों का अलग-अलग वर्गों में बंटा होना तथा इस आंदोलन की एक खास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का होना भी है। सबसे बड़ा विरोधाभास तो यही है कि किसान कारपोरेट पूंजी के वर्चस्व वाली पूंजीवादी व्यवस्था से अपने अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई में पूंजीवादी राज्य के द्वारा ही प्रदत्त एमएसपी के हथियार पर निर्भर रहना चाहते हैं, जबकि कृषि के और पूरे पूंजीवादी अर्थतंत्र में हुए विकास की मौजूदा मंजिल के मद्देनजर इसकी उपादेयता स्वयं किसानों के लिए मुश्किल से बची है। एमसपी को खत्म करके पीडीएस की व्यवस्था पर अंतिम प्राणांतक चोट करने से इसका प्रभाव ग्रामीण गरीब आबादी से लेकर शहरी आबादी तक पड़ेगा, लेकिन फिर भी इसके समर्थन में न तो ग्रामीण गरीब जनता और न ही शहरी मजदूर वर्ग ही दिल खोलकर खड़ा हो सकता है, क्योंकि एमएसपी से मजदूरों व मेहनतकश आबादी को अपनी भोजन सामग्री पर ज्यादा खर्च करना पड़ता है। इसलिए समग्रता में देखें तो ऐसा प्रतीत हेाता है कि एमएसपी के मसले पर व्यापक गरीब आबादी तथा मजदूर वर्ग के खुले समर्थन के अभाव में या उनके तटस्थ रहने से भी किसान आंदोलन के अलग-थलग पड़ जाने और इसके बुरी तरह पराजित हो जाने का खतरा पैदा होता है। एमएसपी को कानूनी बनाने और लागत मूल्य के ड़ेढ़ गुणा करने की मांग महज कानून या घोषणा के बतौर पूरी होने से भी किसानों को ‘उचित’ दाम या आय की गारंटी नहीं होने वाली है, क्योंकि किसानों की आज की समस्या की जड़ में कानून का न होना या होना नहीं अपितु समस्त कृषि उत्पादों की ब्रिकी की समस्या है और इसकी जड़ में व्यापक आबादी की आर्थिक बदहाली के साथ-साथ पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत दामों का झूला झुलाने वाली बड़ी पूंजी की समग्र अतार्किक कार्यप्रणाली है जिसका हल एमएसपी कतई नहीं है। हम पाते हैं कि पूरा किसान आंदोलन समस्त कृषि उत्पादों की सरकार द्वारा खरीदने की मांग पर टिक गया है जिसे कोई पूंजीवादी सरकार नहीं मान सकती है, क्योंकि इसकी पूर्वशर्त के बतौर समस्त उत्पादन को मुनाफा की हवस के दायरे से बाहर निकालना होगा जो उत्पादन के साधनों को सामाजिक स्वामित्व में लाये बिना और स्वयं उत्पादन का सामाजीकरण किये बिना, अर्थात पूंजी को सत्ता की जगह से और पूरे समाज से हटाये बिना संभव ही नहीं है। यहां स्पष्ट है कि इस मांग का अंतर्य पूंजीवादी राज्य का विरोधी है। इसका हल कोई सर्वहारा राज्य ही वास्तविक किसानों को सामूहिक फार्म में संगठित करके उनके साथ कांट्रैक्ट खेती की व्यवस्था के माध्यम से कर सकता है, जैसा कि ऊपर कहा गया है।
27. लेकिन यह भी सत्य है कि कानूनशुदा एमएसपी की मांग ही वह मांग है जो अतार्किक होते हुए भी आज की बदली हुई परिस्थितियों में इसके अंतर्य को एक क्रातिकारी लक्ष्य की ओर प्रेरित करने वाला बनाता है, जो चाहे-अनचाहे या जाने-अनजाने किसानों की परिकल्पना में एक ऐसे राज्य को लाता है जैसा कि एक सर्वहारा राज्य होता है। यानी, एकमात्र मजदूर वर्ग ही भावी शासक के रूप में किसानों को यह वचन दे सकता है कि वह किसानों को पूंजीवादी सत्ता की निरंकुशता और उसकी उत्पादन प्रणाली की अराजकता से पूरी तरह बचा सकता है, बशर्ते किसान स्वयं पूंजीवादी उत्पादन के दायरे से बाहर आना चाहें जिसकी संभावना बदली हुई परिस्थितियों में काफी बढ़ गई है।
28. कुल मिलाकर देय सामाजिक परिस्थिति में हम मानते हैं कि यह ये विरोधाभास स्वाभाविक हैं, जो इसलिए भी है कि किसानों का वर्तमान आंदोलन स्वर्ग से उतरे नये और निष्पाप किसानों का नहीं, अपितु उन्हीं पुराने पूंजीवादी प्रभाव वाले किसानों का आंदोलन है जो कल तक धनी और अमीर बनने के पूंजीवादी सपनों तथा तर्कों से प्रेरित थे, लेकिन जो आज ठीक उन्हीं सपनों से भयभीत हैं और बाजार से भागकर राज्य की शरण में जाना चाहते हैं, हालांकि यह अलग बता है कि वर्तमान पूंजीवादी राज्य उनकी रक्षा करने के बजाय अपने चरित्र के अनुसार उन्हें बड़ी पूंजियों के समक्ष उनके शिकार के लिए परोस दे रहा है।
29. छोटे पैमाने के उत्पादन में एक टूटपूंजिया वर्ग की हैसियत के रूप में किसान दाम के सिग्नल से ही निर्देशित होगा, क्योंकि इसके अतिरिक्त उसके विकास करने की स्वाभाविक मानवीय लालसा की पूर्ति का और कोई रास्ता नहीं है, जब तक कि अपने अनुभव से और सर्वहारा वर्ग के वैचारिक व राजनीतिक हस्तक्षेप के माध्यम से वह यह नहीं समझ लेता है कि उसका भविष्य निजी जमीन के एक छोटे टुकड़े के स्वामित्व में नहीं शोषणमुक्त सामूहिक खेती में है जो सर्वहारा राज्य के अधीन ही संभव हो सकती है और जो ऐसे तमाम किसानों की समस्याओं का अंत कर देगी। नये हालात में किसान जिस स्तर तक अपने प्रत्यक्ष अनुभव से यह समझ चुके हैं कि मौजूदा समाज में उनकी नियति में तबाही और बर्बादी के अलावे और कुछ नहीं हैं, उसके आधार पर मजदूर वर्ग के लिए यह जरूरी है कि वह इस आंदोलन को एमएसपी के विरोध या समर्थन के चश्में से देखने के बजाय इसे पूंजीवाद के दायरे से बाहर निकालने का यत्न करे जिसकी जरूरत को स्वयं आंदोलन का अंतर्य रेखांकित कर रहा है। हम पाते हैं कि नये हालत में एमएसपी की मांग संपूर्णता में स्वयं पूंजीवादी तर्कों से बुरी तरह टकरा रही है। कुछ लोग यह समझते हैं कि एमएसपी की मांग प्रतिक्रियावादी है और एमएसपी का विरोध क्रांतिकारी, जो कि गलत है।
30. अगर आंदोलन और तीव्र होता है तो इसके बाह्य स्वरूप और अंतर्य के अंतर्विरोध के समाधान की उम्मीद बढ़ जाएगी जो सरल, पेचीदा या विस्फोटक में से कोई एक रास्ता ग्रहण कर सकता है। गरीब-मंझोले किसान एक रास्ते पर, तो धनी किसान दूसरे रास्ते पर जा सकते हैं। सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कार्पोरेट और धनी किसानों के बीच का टकराव क्या रूप लेता है और फासिस्ट सरकार आंदोलन से निपटने के प्रयास में किस तरह की गलतियां करती है या नहीं करती है। अभी तक की बात करें तो हम कह सकते हैं कि मोदी सरकार इससे निपटने में लगातार बैकफुट पर है जबकि किसानों ने आंदोलन को तेज करने का मन बना लिया है। सर्वहारा और मेहनतकश वर्ग के हित इसमें है कि कार्पोरेट पर इस लड़ाई की जीत तक पूरा किसान समुदाय कार्पोरेट और इसके दलालों के खिलाफ एकजुट डटा रहे। इसके लिए जरूरी है कि किसान आंदोलन की धार ज्यादा से ज्यादा कारर्पोरेट और पूंजीवादी कृषि के तहत होने वाले अंतर्विरोधी विकास की अंतर्निहित कार्यप्रणाली के विरूद्ध तेज हो। ऐसा करने में मजदूर वर्गीय नेतृत्व ही सफल हो सकता है, क्योंकि एकमात्र यही वर्ग ऐतिहासिक कारणो से किसानों की मुक्ति के रास्तों की सुस्पष्ट समझ रखता है और पूंजीवादी कृषि की पूरी प्रणाली के विरूद्ध चौरतफा कामयाब भंडाफोड़ कर सकता है। जाहिर है, मजदूर वर्ग के माकूल हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में आंदोलन की जीत की संभावना अत्यंत क्षीण हो जाएगी। तब स्थितयां मजदूर वर्ग के लिए आज की तुलना में और ज्यादा दुरूह होंगी और हम एक क्रांतिकारी अवसर को मुकम्मल तौर से खो देंगे। इसलिए भी किसान आंदोलन में मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी वैचारिक उपस्थिति दर्ज कराना जरूरी है, भले ही शीघ्रता के कारण कुछ गलतियां हों। अगर मूल रूप से दिशा सही हो, तो छोटी-मोटी गलतियों से ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है। किसान कह रहे हैं कि ‘वे सरकार को झुकाये बिना नहीं लौटेंगे, चाहे उनकी जान चली जाए’, तो मजदूर वर्ग को भी अपना वैचारिक तथा राजनीतिक दमखम दिखाना चाहिए और आंदोलन के तेवर के अनुसार कार्यक्रम पेश करना चाहिए। हमें याद रखना तथा समझना होगा कि जैसे आज का आम किसान प्रेमचंद की कथाओं के बिंबों वाला किसान नहीं है जिसके शोषण की डोर जमींदारों के महलों से बंधी होती थी, वैसे ही आज का धनी किसान भी पुराने टिकैत, शरद जोशी या नंज्जुदास्वामी के नेतृत्व वाली लड़ाई के समय का धनी किसान नहीं है, जो पूंजीवादी कृषि और बाजार के प्रसार से लाभान्वित तो हो रहा था लेकिन इसके भावी कड़वे और अंतिम परिणाम के प्रति पूरी तरह अनजान और अनभिज्ञ बना हुआ था। उन्हें पूंजीवादी कृषि में एकमात्र लाभ ही लाभ नजर आता था और दूर-दूर तक अपना कोई बड़ा प्रतिद्वंद्वी नहीं दिखता था जो ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसानों की लूट का उसके अलावा बड़ा हिस्सेदार बन सकता हो। वे इस बात से बेखबर थे कि दरअसल पूंजीवादी कृषि का लाभ उठाते हुए वे दरअसल भविष्य में बड़ी पूंजियों के कृषि में निश्चित प्रवेश के बाद अपनी तबाही की ओर भी अग्रसर हैं; वे इस बात से अनजान थे कि यही पूंजीवादी कृषि विकास के अगले चरण में उनके समक्ष दैत्याकार प्रतिद्वंद्वी ला खड़ा करेगी। आज कार्पोरेट के खेती के प्रवेश से आर्थिक तथा भौतिक परिस्थितियों में आए प्रतिकूल बदलावों ने इनके मन में एक उथल-पथल मचा दी है। भविष्य में जब इन प्रतिकुलताओं में और इजाफा होगा, तो यह मानसिक उथल-पथल और तेज होगी जिसके कारण इस आंदोलन में हमें इनका एक नया रूप देखने को मिल सकता है और हमारी उम्मीदों से कहीं आगे जाकर आंदोलन में ये भूमिका निभाते देखे जा सकते हैं, भले ही उनका पूंजीवादी व्यवस्था से प्रेम कई दूसरे कारणों तथा पेचीदगियों से भरी भारी सामाजिक परिस्थितियों के कारण इनके पूरी तरह बर्बाद होने तक बना रहे।
31. इस तरह, भारत में पूंजीवादी कृषि का आगाज ऊपर से राज्य प्रायोजित सुधारों के जरिये हुआ जिसका विजेता और सिरमौर मुख्यत: यही धनी व कुलक वर्ग था। लेकिन कल का विजेता आज स्वयं विजित होने के डर से ‘न्याय’ की गुहार लगा रहा है और इस बात की लड़ाई लड़ रहा है कि सरकार उसे खुले बाजार में उत्पादों के ऊंचे दाम दे या न दे लेकिन उनकी फसलों के लिए न्यूनतम दाम की कानूनी गारंटी करे। बिहार, महाराष्ट्र सहित पंजाब, हरियाणा और दक्षिण के कई राज्यों में एमएसपी के बाहर निजी खुले बाजारों में लाभ के अवसर की बात कह कर कृषि में कार्पोरेट वर्चस्व कायम करने की पूंजीवादी नीति के कुफल और सुफल दोनो ये देख चुके हैं। वे पूर्व में एक तरफ पूंजीवादी कृषि से लाभान्वित हुए तो दूसरी तरफ आज उसके कड़वे परिणाम भी देख रहे हैं। ‘हमे कानूनशुदा एमएसपी दो” की उनकी यह मांग इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि वे पूंजीवादी कृषि के नये ठौर में अपने को बिना ‘राज्य’ के संरक्षण के महफूज महसूस नहीं करते हैं। वे जानते हैं मंडी और एमएसपी के बिना उनका मुनाफा खुले बाजार के भरोसे टिकाऊ नहीं हो सकता है और उनकी स्थिति खराब हो जाएगी। यह निस्संदेह एक नई स्थिति है।
उपसंहार
साथियो! वर्तमान किसान आंदोलन के इनता अधिक लोकप्रिय और प्रेरक होने का एक कारण इसका तीखा कार्पोरेट विरोध भी है जो आज समस्त भारतीय मेहनतकश जनता के श्रम तथा पूंजी और देश की प्राकृतिक संपदा की जारी लूट के शीर्ष पर है। इस वर्ग के खिलाफ केंद्रित कोई भी आंदोलन आम जनता का प्रिय आंदोलन बन जाएगा और ध्यान आकर्षित करेगा। ठीक यही बात वतर्मान किसान आंदोलन को इसमें मौजूद तमाम आंतरिक विरोधाभासों के बावजूद अद्वितीय और लाभकारी मूल्य की धुरी पर चले पिछले तमाम किसान आंदोलनों से सर्वथा भिन्न बनाता है। अंतर्य के बतौर यह पूंजीवादी तर्को तथा बाजार आधारित मेकेनिज्म, जिसके सहारे चलकर बड़ी पूंजी कृषि के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहती है, के विरूद्ध स्वाभाविक रूप से लक्षित हो चुका है। किसान आंदोलन एक ऐसे राज्य की कल्पना से प्रेरित है जो पूंजीवादी कृषि में हुई अंतर्विरोधी प्रगति के कुफल और दुष्परिणामों को पलट दे। किसान बाजार की अराजकता से इतना अधिक डरने लगा है कि वह हर हाल में कृषि पर कार्पोरेट की निर्णायक जीत को रोकना तथा समस्त उत्पादों की सरकार द्वारा खरीद की गारंटी चाहता है। कुल मिलाकर वह पूंजी के हितों के विरूद्ध जाने वाला राज्य चाहता है और विडंबना यह है कि ऐसी मांग वह एक पूंजीवादी राज्य के रहमोकरम के सहारे चाहता है! यह इसके विरोधाभास का शिखर है। वह वर्तमान भारतीय पूंजीवादी राज्य से बड़ी पूंजी के हितों के विरूद्ध नीति बनाने की जिद पर अड़ा है। भले ही सरकार कुछ दिनों के लिए झुक जाए और किसानों को मोहलत के कुछ दिन मिल जाएं, लेकिन पूंजी के विरूद्ध जाने वाला ऐसा पूंजीवादी राज्य धरती पर कभी भी अवतरित होने वाला नहीं है। इसलिए आंदोलन का ‘राज्य’ से टकराव अगर और तेज होता है तो इसका सर्वहारा वर्ग की मुख्य मांग यानी पूंजीवादी राज्य के खात्मे की मांग पर आना निश्चित है जो इसे पुराने कुलक किसान आंदोलनों से अलग करता है। पूर्व के विपरीत इसमें क्रांतिकारी चिंगारी मौजूद है जिसे मजदूर वर्ग की वैचारिक क्रांतिकारी उपस्थिति चाहे तो सुलगा कर एक दावानल में परिवर्तित कर सकती है। किसानों का डर कार्पोरेट की और अधिक बढ़ते दखल और साथ ही मजदूर वर्ग के द्वारा किये जाने वाले समग्र भंडाफोड़ से एक क्रांतिकारी समझदारी में तब्दील हो सकता है, हालांकि इसकी पूर्वशर्त यह है कि आंदोलन में सर्वहारा वर्ग की पार्टी हस्तक्षेप करे। वर्तमान आंदोलन में इसके बाह्य स्वरूप और अंतर्य के बीच के अतर्विरोध का इस तरह खुले में प्रकट होना एक बड़ी बात है जो हमें बताती है कि अब इसके समाधान का समय आ गया है और मजदूर वर्ग के लिए यह अत्यंत महत्व की बात है। मजदूर वर्ग को अपनी निगाह उचित ही यहां डाली डालनी चाहिए और इसके अनुरूप अपना किसान कार्यक्रम पेश करना चाहिए, जैसा कि इस प्रपत्र के माध्यम से इससे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रकाश डालने की हमने कोशिश की है। इस आंदोलन का नतीजा चाहे जो भी हो, चाहे यह हार कर पूरी तरह बिखर ही क्यूं न जाए, किसी भी हालत में भावी किसान आंदोलनों पर इसका ऐतिहासिक और दूरगामी असर होना तय है। क्या ही अच्छा होता अगर मजदूर वर्ग इस पर अपनी छाप अंकित कर पाता! लेकिन अगर अभी तक नहीं भी कर पाया है, तब भी आगे कर सकता है। किसानों की बेचैनी खत्म होने वाली नहीं है, और न ही कार्पोरेट की सरपट दौड़ रूकने वाली है। लड़ाई तो होनी है और होकर रहेगी। मजदूर वर्ग के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह समझना है कि यहां से आगे उसका काम भावी शासक वर्ग के बतौर किसानों की लड़ाई से सवाद स्थापित करना और हस्तक्षेप करना है, आम किसानों को मुक्ति का रास्ता दिखाना है न कि स्वयं इसके समक्ष आर्थिक मांगें पेश करना और एक याचक के रूप में खड़ा हो जाना है। हमारे अनुसार मौजूदा किसान आंदोलन में मजदूर वर्ग के हस्तक्षेप का ठीक यही प्रस्थान बिंदु होना चाहिए।
प्रोलेटेरियन रिऑर्गनाइज़िंग कमिटी, सीपीआई (एमएल)
[पीआरसी में विमर्श के उपरांत उपरोक्त तीसरे बिंदु को संशोधित किया गया है।]
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