पूंजीवाद का संकट – मजदूरों की तबाही

31 अगस्त को अप्रैल-जून 2020 की तिमाही जीडीपी में पिछले वित्तीय वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 23.9% कमी के आँकड़े जारी हुए। कृषि के अतिरिक्त सभी क्षेत्रों में भारी गिरावट दर्ज की गई – निर्माण – 50%, मैनुफेक्चुरिंग – 39.3%, व्यापार व होटल – 47%, सेवा – 20%, विद्युत – 7%। दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में यह गिरावट सर्वाधिक है। हालाँकि 20% कमी के आकलन वाले अधिकांश बुर्जुआ विश्लेषकों के लिए यह बड़ा धक्का है पर जीडीपी गणना पद्धति पर गौर करें तो यह गिरावट असल से बहुत कम लगती है – इसकी कई वजहों में से यहाँ सिर्फ एक का ही उदाहरण दें तो असंगठित क्षेत्र के वास्तविक आंकड़ों की अनुपलब्धता के चलते उसमें में भी उतनी ही वृद्धि/कमी मान ली जाती है जितनी संगठित औपचारिक क्षेत्र में हालाँकि अर्थव्यवस्था के बारे में थोड़ी भी समझ रखने वाले जानते हैं कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के सामान्य नियमों से ही आर्थिक संकट का असर असंगठित क्षेत्र पर अधिक हुआ है और पिछले कई सालों में पहले नोटबंदी, जीएसटी और अब लॉकडाउन का असंगठित क्षेत्र की बरबादी की प्रक्रिया को तेज किया है। भूतपूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन के अनुमानानुसार जीडीपी में वास्तविक कमी लगभग 35% है।

इसमें कुछ अचंभे की बात भी नहीं है क्योंकि कॉर्पोरेट नतीजे पहले ही इसका संकेत दे चुके थे। पहली तिमाही के उपलब्ध 1549 कंपनी नतीजों अनुसार बिक्री में 27.1%, कर पूर्व लाभ में 50.6% तथा शुद्ध लाभ में 63% गिरावट हुई। कंपनियों के वेतज खर्च से भी इसकी पुष्टि हुई। सीएमआईई एक अनुसार 1560 कंपनियों के वेतन खर्च में 18 सालों में निम्नतम 3% वृद्धि हुई। पर लॉकडाउन में बेहतर हालत में रहे बैंक, ब्रोकर, टेलीकॉम को छोड़ दें तो हर क्षेत्र की कंपनियों का वेतन खर्च गिरा। सर्वाधिक कमी पर्यटन में – 30% रही। वस्त्र उद्योग में 29%, चमड़ा – 22%, ऑटो कलपुर्जे – 21% ऑटो – 19%, सड़क यातायात व शिक्षा कारोबार में 28% की कमी हुई। संपत्ति तथा होटल-रैस्टौरेंट के वेतन खर्च में 21% गिरावट आई। वेतन खर्च में कमी उत्पादन में कमी का सीधा प्रमाण है।

किंतु मोदी सरकार व मीडिया में उसके ढोलकिये आयात-निर्यात व्यापार में घाटे के कम व एक महीने निर्यात अधिक होने तथा विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ने के दावों से असली स्थिति को झुठला मोहक तस्वीर दिखलाने में लगे हुए थे। इस साल 27 मार्च से 14 अगस्त के मध्य विदेशी मुद्रा भंडार 12.6% बढ़ 535.25 अरब डॉलर हो गया जबकि 2019 की समान अवधि में यह 4.5% ही बढ़ा था। कोरोना के प्रभाव पश्चात विदेशी मुद्रा भंडार में इस तेज इजाफे को कुछ विश्लेषक अर्थव्यवस्था की हालत में सुधार का लक्षण बता रहे थे। अतः इसकी कुछ पड़ताल जरूरी है।

अप्रैल-जुलाई के दौरान आयात 46.7% घट 88.9 अरब डॉलर रह गए अर्थात इनके भुगतान हेतु विदेशी मुद्रा भंडार का प्रयोग कम हुआ। पर यह लॉकडाउन के दौरान आर्थिक गतिविधि में कमी का सबूत है। भारत अपने उपभोग का अधिकांश क्रूड आयात करता है और इन चार महीनों में भी कुल उपभोग का 82% क्रूड आयात हुआ फिर भी इसके आयात में 55.9% की कटौती हो यह 19.6 अरब डॉलर ही रह गया। साल के पहले 4 माह में कुल आयात ही कम न हुआ बल्कि माल निर्यात भी 30.3% घट 74.9 अरब डॉलर ही रह गए। अतः व्यापार घाटा 76.5% कम हो 59.4 अरब डॉलर के बजाय 14 अरब डॉलर ही रह गया। यह 14 अरब डॉलर अन्य स्रोतों द्वारा पूरा किए जाने से विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ गया। परंतु आयात-निर्यात दोनों में यह भारी कमी तो आर्थिक गतिविधि धीमी पड़ने का सबूत है, सुधार का नहीं

आयात में कमी के अतिरिक्त कुछ अन्य गणितीय वजहों से भी विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ गया। सोने के दाम बढ़ने से रिजर्व बैंक के स्वर्ण भंडार का मूल्य 27.1% बढ़ 37.6% अरब डॉलर हो गया। इसके अतिरिक्त विदेशी यात्रा, शिक्षा, इलाज, पर्यटन, आदि के लिए भी विदेशी मुद्रा खर्च कम हुआ। साथ ही विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) भी इस दौरान शेयर बाजार में निवेश हेतु लगभग 10 अरब डॉलर देश में लाये जिसे रुपये में बदलने से भी रिजर्व बैंक का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ा। किंतु वास्तविकता में यह कर्ज है संपत्ति नहीं, जिसे वे कभी भी वापस ले जा सकते हैं। अतः इस तरह विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ने का आर्थिक स्थिति में सुधार से कोई रिश्ता नहीं, बल्कि यह तो आर्थिक गतिविधि में सुस्ती का लक्षण है।

वास्तविक आर्थिक गतिविधि में इस गिरावट का असर रोजगार पर तो होना ही था – बड़े पैमाने पर रोजगार चले गए हैं और वेतन कटौती हुई है। सीएमआईई के हालिया सर्वेक्षण के नतीजों अनुसार अप्रैल-जुलाई दौरान 1.89 करोड़ नियमित वेतन वाले कामगार रोजगार से वंचित हुए हैं। यह अनुमान 1.74 लाख परिवारों के सर्वेक्षण से निकला है। इनमें से बहुत से नियमित कामगार अनौपचारिक क्षेत्र से हैं जिस पर बेहद बुरा प्रभाव हुआ है – लघु कारोबारी, पटरी दुकानदार, स्व-रोजगार में लगे कामगार, निर्माण उद्योग वगैरह में लगे दिहाड़ी मजदूर एवं घरेलू श्रमिक सभी को अपने काम और आमदनी से हाथ धोना पड़ा है। आईएलओ तथा एशियन डेव्लपमेंट बैंक की एक संयुक्त रिपोर्ट के मुताबिक 15-25 साल के 41 लाख नौजवान बेरोजगार हुए हैं, दो तिहाई अप्रेंटिसशिप व तीन चौथाई इंटर्नशिप समाप्त हो गईं हैं।

श्रम बाजार विशेषज्ञों का मानना है कि 2022-23 के पहले हालात बहुत अधिक सुधरने वाले नहीं हैं। खुद रिजर्व बैंक भी 2021 की दूसरी छमाही के पहले आर्थिक सुधार की गुंजाइश नहीं देखता। पर यहाँ दो बातें याद रखनी जरूरी हैं। एक, 2019 और पहले से ही रोजगार की बदहाली से बेरोजगारों की बड़ी तादाद मौजूद है – पिछले साल ही करीब 16 करोड़ नौजवान ऐसे थे जो किसी नियमित रोजगार, शिक्षा या प्रशिक्षण में नहीं थे। अतः आधिकारिक वयस्क बेरोजगारी दर तो 3% ही थी पर युवाओं की बेरोजगारी दर 13.8% पहुँच चुकी थी। दूसरे, रोजगार की यह समस्या और भी विकट होने वाली है क्योंकि हर वर्ष 1 करोड़ से अधिक युवा शिक्षा या प्रशिक्षण का कोई कार्यक्रम पूरा कर रोजगार ढूँढने वालों में जुड़ जाते हैं। अतः 2022 तक बेरोजगार युवाओं की तादाद बेहद ऊँची होने वाली है। किंतु मौजूदा सरकार इसे कतई कोई सोचने लायक बात नहीं मानती क्योंकि उसका लगभग आधिकारिक विचार है कि ये सब खुद ही कुछ काम-धाम सीख कामयाब कारोबारी बन जाने वाले हैं। बेरोजगार कामगारों की इस विराट रिजर्व फौज खड़े हो जाने का नतीजा है अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में गिरती मजदूरी दर।

उधर पहले से ही सिकुड़ती कुल राष्ट्रीय माँग और अति उत्पादन की समस्या से जूझ रही अर्थव्यवस्था में ‘फालतू’ स्थापित औद्योगिक क्षमता से इस क्षमता के उपयोग की दर बहुत गिर गई है और उद्योग कम दर पर नकदी व मुनाफा अर्जित कर पा रहे हैं। अतः, जड़ पूंजी (कारखाने लगाने, इमारत बनाने, मशीनें लाने, वगैरह) में नवीन निवेश की मात्रा भी बहुत गिर गई है। इसी मुताबिक कुल बैंक कर्ज वृद्धि भी अत्यंत धीमी पड़ गई है – एक और जड़ पूंजी निवेश की जरूरत घटी है, दूसरी ओर बैंक भी अपनी पूंजी की वापसी के लिए अधिक चिंतित होने से ज्यादा कर्ज देने हेतु अनिच्छुक हैं और अपनी नकदी सरकारी बॉन्ड में ही लगा रहे हैं। ऋण संकुचन का दबाव अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र – कृषि, लघु-मध्यम उद्योग, शिक्षा, गृहनिर्माण, टिकाऊ उपभोक्ता सामानों – पर पड़ रहा है। अपवाद चंद ‘बड़े’ उद्योगपति ही हैं। चुनांचे, मार्च के बाद बैंकों में आई जमाराशि का 90% सरकारी बॉन्ड में ही लगाया गया है।

इसलिए बिना खास पड़ताल के भी यह बात जाहिर है कि बड़ी संख्या में व्यवसायी वित्तीय पूंजीपतियों से लिए कर्जों को चुकाने में असमर्थ हैं और इनमें से काफी बड़ी तादाद अंततः डूबने या एनपीए बनने वाली है। हालांकि अभी इसकी वास्तविक स्थिति जाहिर नहीं हो रही है क्योंकि रिजर्व बैंक ने बैंकों को कर्ज खातों को एनपीए करार देने के नियमों में ढील बरतने की छूट दे दी है, यहाँ तक कि बड़े आर्थिक सुधार के नाम पर खूब बाजे-गाजे के साथ लाये गए दिवालिया कानून की प्रक्रिया को भी सरकार ने एक साल के लिए निलंबित कर दिया है। अनेक विश्लेषक इस बारे में अपने अनुमान जता चुके हैं पर इस वक्त एक ही ठोस संख्या उपलब्ध है। वह है लॉकडाउन के बाद कर्जदारों को बैंक कर्ज चुकाने में दिया गया छ महीने का मोरेटोरियम या स्थगन का मौका, जो 31 अगस्त तक था। कारोबारी प्रेस में आई रिपोर्टों मुताबिक कुल बैंक कर्ज के 31% के देनदारों ने इस ऐच्छिक स्थगन का लाभ लिया। स्थगन समाप्त होने के बाद अब रिजर्व बैंक ने इन कर्जों को रिस्ट्रक्चर करने अर्थात  इनके भुगतान की अवधि को बदलने की अनुमति दे दी है अर्थात कर्जदार भुगतान के लिए अधिक वक्त ले सकेंगे। गौरतलब है कि कॉर्पोरेट कर्ज में तो ऐसा पहले से ही होता रहा है पर फुटकर या व्यक्तिगत कर्जदारों को यह रियायत पहली बार दी गई है। यह इस बात का प्रमाण है कि रिजर्व बैंक को संकट की गहराई का अनुमान है और गृह, कार, अन्य निजी कर्ज लेने वाले मंझले तबके के परिवार भी नकदी की भारी कमी से जूझ रहे हैं। पर कर्ज को रिस्ट्रक्चर करने से समस्या का कोई समाधान नहीं, बस उसे कुछ वक्त के लिए टाल देना है, खास तौर पर इसलिए क्योंकि इससे चुकाए जाने वाले ब्याज की कुल रकम बढ़ जाएगी। उधर कृषि क्षेत्र में भी एनपीए तेजी से बढ़ने लगे हैं और बैंक कृषि क्षेत्र को कर्ज देने से भी हाथ खींच रहे हैं जिसके चलते कई जगह किसानों को सूदखोरों से कर्ज लेने के लिए पहले के 24-36% सूद के बजाय 40-60% सूद देना पड़ रहा है। यह गरीब किसानों की बेदखली की प्रक्रिया को और भी तेज कर देगा।

पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु लिखते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था सिर्फ सुस्त नहीं पड़ रही है बल्कि यह सभी वैश्विक क्रमों में पिछड़ ब रही है। जिन 42 अर्थव्यवस्थाओं के बारे में ‘द इकोनोमिस्ट’ साप्ताहिक आंकड़े जारी करता है उनमें से भारत 6-7 साल पहले कुछ साल तक 3-4 सर्वाधिक तेज वृद्धि वाली अर्थव्यवस्थाओं में से था। 2020 में यह 42 में से 35वें क्रम पर खिसक गया है। दूसरे, हालांकि कोविड ने हालत को बदतर किया है पर मंदी की एकमात्र वजह इसे नहीं कहा जा सकता। असल में तो 2016 से ही अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर साल दर साल गिरती हुई ऐसे दिख रही थी जैसे किसी बावड़ी की सीढ़ियाँ उतर रही हो। बहरहाल कोविड के विनाशकारी प्रबंधन का भी समस्या में काफी हद तक योगदान है। मार्च में लॉकडाउन का ऐलान होते वक्त बहुत से भोले लोगों को शीघ्र अमली कार्रवाई से बड़ी उम्मीदें जग गईं थीं। पर कुछ ही दिन में यह साफ हो गया कि लॉकडाउन के इतने बड़े, अचानक फैसले को क्रियान्वित कर पाने के लिए न कोई कार्यनीति थी न आम जनता को राहत की कोई योजना। एक ओर जब शहरों, कारखानों, उद्योगों अर्थात पूरी आर्थिक गतिविधि पर ताला डाला जा रहा था, तब अचानक तालाबंद होकर भूखों मरने या पैदल अपने गांवों को चल पड़ने में से एक का चुनाव करने के लिए मजबूर कर दिये गए करोड़ों श्रमिकों के लिए किसी योजना के बारे में सोचा तक न गया था। इस नीति में मानवीय हमदर्दी की कमी की बात को परे कर दें तो मात्र लॉकडाउन के मकसद से भी यह ठीक उलटी बात थी – यह तो एक जगह रोकने के बजाय 4-5% आबादी को देश में चारों ओर फेंक-बिखेर देना था जिसके नतीजे कोविड ही नहीं अर्थव्यवस्था के संकट को भी अब तक और तीक्ष्ण और भयावह बना रहे हैं।

भारत बड़ा, अधिक जनसंख्या वाला देश है अतः सिर्फ अधिक संख्या या ब्राजील/अमरीका से आगे निकालने मात्र के आधार पर ही तो हम कोविड की स्थिति को सर्वाधिक बुरी नहीं कह सकते। जनसंख्या के आधार पर संख्याओं को तुलनात्मक बनाना आवश्यक है। इसलिए हम प्रति दस लाख आबादी पर मरीजों और मृत्यु को देख सकते हैं जिसे अपरिष्कृत मृत्यु दर (CMR) कहा जाता है। पर इस आधार पर भी भारत की स्थिति बदतर है। पिछले कुछ हफ्तों में पहले पाकिस्तान फिर अफगानिस्तान को पीछे छोड़ते हुए भारत दक्षिण एशिया में सर्वाधिक सीएमआर वाला देश बन चुका है – प्रति दस लाख आबादी पर 51 जबकि अफगानिस्तान के लिए यह दर 36 है, तो पाकिस्तान के लिए 28, बांग्लादेश के लिए 25, नेपाल के लिए 9 और श्रीलंका के लिए 0.6 है। नए संक्रमणों के मामले में भी मार्च-अप्रैल में भारत की स्थिति पाकिस्तान-बांग्लादेश से बेहतर थी पर इतने सख्त लॉकडाउन के बाद पता चला कि भारत में स्थिति इन दोनों के मुक़ाबले और भी बदतर हो गई।

लॉकडाउन ने एक तरह से पूरी अर्थव्यवस्था को शीत की तरह जमा दिया और कामगारों के साथ किए गए निर्दय व्यवहार ने लॉकडाउन को इसके मकसद ठीक विपरीत परिणाम पर पहुंचा दिया। आज की स्थिति कामगारों को ठोकर मार भगाने की उसी नीति का नतीजा है और भारत महामारी के बदतरीन फैलाव की हालत में है। साथ ही आर्थिक वृद्धि पाताल में है जबकि बेरोजगारी आसमान में। खुद बुर्जुआ निवेशकों-विश्लेषकों के नजरिए से भी पूरे विश्व के सामने जाहिर कोविड के इस कुप्रबंधन ने देशी संस्थाओं में सभी के बचे-खुचे भरोसे को चकनाचूर कर डाला है। इससे मंदी ने रफ्तार पकड़ ली है और देश पतन की मंजिल की एक ओर सीढ़ी नीचे उतर चुका है। दीर्घकालीन आर्थिक वृद्धि का मुख्य चालक जड़ पूंजी में निवेश की दर है – सकल राष्ट्रीय आय का वह भाग जो मशीनों, कारखानों, आधारभूत ढांचे, तकनीकी शोध, आदि में निवेश किया जाता है। 2008 में यह 38.1% थी और 2011 में 39% – उसके बाद यह गिरनी आरंभ हुई, पहले धीरे-धीरे, फिर तेजी से, और कोरोना के पहले ही यह 30.2% तक गिर चुकी थी।

इस सब का कुल नतीजा भारत सरकार का गहरा वित्तीय संकट है – केंद्रीय सरकार वित्तीय घाटा जुलाई तक के चार महीनों में ही 8.21 लाख करोड़ रुपये अर्थात वर्तमान वित्तीय वर्ष के बजट का 103.1% हो चुका था। कुल कर वसूली 2.03 लाख करोड़ रुपये थी जबकि कुल खर्च 10.5 लाख करोड़ रुपये। इस वित्तीय वर्ष में मात्र केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा बजट अनुमान के 3.5% के मुक़ाबले 7.5% होने का अनुमान है जबकि केंद्र-राज्य सरकारों समेत सार्वजनिक क्षेत्र का कुल वित्तीय घाटा 15% होने का अनुमान लगाया जा रहा है। परिणाम जीएसटी के मुआवजे को लेकर केंद्र-राज्यों में छिड़ी तकरार है जिसके विस्तार में हम यहाँ नहीं जायेंगे। सिर्फ इतना कहना पर्याप्त होगा कि आर्थिक मंदी के चलते यह समस्या शुरू से ही मौजूद थी और पिछले साल से ही मुआवजे के भुगतान में कई-कई महीनों की देरी हो रही थी। अब हालत यह है कि 10 राज्य तो सार्वजनिक रूप से मान चुके हैं कि उनके लिए अपने कर्मचारियों को वेतन देना मुश्किल है पर यह खबरें तो लगभग पूरे देश से आ रही हैं कि कर्मचारियों को वेतन भुगतान में देरी हो रही है, कोविड-योद्धा बताए जा रहे चिकित्सा कर्मियों तक को वेतन का भुगतान महीनों अटक रहा है और वेतन-भत्तों में कटौती की भी खबरें हैं।

हम यहाँ जिस बात पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं वह है कि सरकारें इस घाटे से निपटने का कौन सा तरीका अपनाने वाली हैं। भारत के पूरे घरेलू क्षेत्र की वित्तीय बचत गिरकर जीडीपी की मात्र 7% रह गई है, जबकि सिर्फ सरकारी कर्ज की जरूरत ही इससे अधिक है। अतः औद्योगिक पूंजीपतियों के सारे दबाव और सरकार-रिजर्व बैंक की हरचंद कोशिशों के बावजूद ब्याज दरें कम होने का नाम नहीं ले रहीं, बार-बार बढ़ने लगती हैं। रिजर्व बैंक ने नकदी की आपूर्ति बढ़ाने हेतु ऑपरेशन ट्विस्ट से लेकर एलटीआरओ तक के तमाम हरबे-नुस्खे आजमा लिए मगर 10 साल के सरकारी बॉन्ड पर ब्याज दरें गिरती हैं पर फिर उठने लगती हैं – अगस्त के आखिरी सप्ताह में ये एक बार फिर 6% के ऊपर चली गईं।

तब सरकारी घाटे की पूर्ति के लिए वित्तीय व्यवस्था कैसे हो? एकमात्र विकल्प बचता है मौद्रिक प्रसार अर्थात आम भाषा में नोट छापना हालांकि आजकल इसके लिए नोट छापने की जरूरत नहीं पड़ती बस कंप्यूटर पर कुछ क्लिक, दर्ज और एंटर करने से ही काम हो जाता है। रघुराम राजन से लेकर कई बड़े अर्थशास्त्री आजकल महीनों से इसके कारण गिनाने में लगे हैं कि यह क्यों उतनी बुरी बात नहीं है जितना इसे पहले समझा जाता था! रिजर्व बैंक ने अभी इसका आम ऐलान तो नहीं किया पर वित्तीय हल्कों और प्रेस में खबर है कि वह प्राथमिक डीलरों द्वारा खरीदे गये सरकारी बॉन्ड को उनसे खरीद कर अप्रत्यक्ष रूप से पहले ही ऐसा कर रहा है अर्थात केंद्र सरकार द्वारा बॉन्ड जारी कर लिया गया कर्ज रिजर्व बैंक से ही आ रहा है जिसका एकमात्र अर्थ मुद्रा प्रसार है। अब जीएसटी मुआवजे के लिए भी केंद्र सरकार ने राज्यों को जो दो विकल्प दिये हैं उनमें दोनों में ही राज्यों द्वारा रिजर्व बैंक से कर्ज लेना जरूरी होगा जिसका भुगतान जीएसटी पर वसूले गए सेस अर्थात अधिभार से किया जायेगा। उधर राज्य चाहते हैं कि कर्ज केंद्र ले। पर जो भी हो कर्ज तो लिया ही जायेगा, जिसका अर्थ होगा मुद्रा प्रसार।

किंतु उत्पादन विस्तार ठप या धीमा होने कि स्थिति में उससे तेज गति से होने वाले मुद्रा प्रसार का अर्थ मुद्रास्फीति है अर्थात अन्य मालों के मुक़ाबले मुद्रा का अवमूल्यन और महँगाई का बढ़ना। यह पहले ही जारी है। 2019-20 की रिजर्व बैंक की सालाना रिपोर्ट में बताया गया है कि 2019-20 के अंतिम महीनों में महँगाई दर में वृद्धि ने तेजी पकड़ी है और आने वाले कुछ समय के लिए खाद्य महँगाई की स्थिति भी अस्थिर बन गई है, “भोजन व अन्य औद्योगिक उत्पादों की आपूर्ति शृंखला में पड़ी बाधाओं ने इन क्षेत्रों में मूल्य दबावों को कई गुना बढ़ा दिया है जिससे महंगाई दर के बढ़ने का जोखिम पैदा हो गया है। वित्तीय बाज़ारों में उच्च स्तर पर पहुंची अनिश्चितता भी महंगाई दर को प्रभावित कर सकती है।“ रिपोर्ट में कहा गया है कि यह सब मिलकर परिवारों की महंगाई दर आशंकाओं को प्रभावित कर सकते हैं जो स्वाभाविक रूप से इससे संचालित होती है और भोजन व ईंधन मूल्यों में मिले झटकों के प्रति अतिसंवेदनशील है। अतः मौद्रिक नीति को मूल्य परिवर्तनों पर चौकस निगाह रखने की जरूरत है खास तौर इसलिए क्योंकि ये आम महंगाई को बढ़ाने में सक्षम हैं। सरकारी आंकड़ों मुताबिक खुदरा महंगाई दर जुलाई में 6.93% तक पहुँच चुकी है जिसके लिए मुख्यतः सब्जियों, दालों, माँस-मछली के बढ़ते दाम जिम्मेदार हैं।

लेकिन महँगाई आम लोगों पर एक टैक्स होती है। इससे उनकी वास्तविक आमदनी घट जाती है क्योंकि वे उतनी ही रकम की मजदूरी में अपनी जरूरत का कम माल खरीद पाते हैं। किंतु भारत में तो वास्तविक मजदूरी ही नहीं भयंकर बेरोजगारी से आंकिक मजदूरी भी गिर रही है। अतः पहले ही बड़ी तादाद में रोजगार से वंचित या पहले से कम मजदूरी पर काम करने को मजबूर मेहनतकश जनता के लिए बढ़ती महँगाई तिहरी-चौहरी मुसीबत सिद्ध होगी। इसका मतलब सिर्फ बढ़ती कंगाली, दैन्य, भूख और कुपोषण है। परिप्रेक्ष्य के लिये जिक्र करना संगत है कि वैश्विक खाद्य सुरक्षा तथा पोषण स्थिति रिपोर्ट के अनुसार 2014 से 2019 के मध्य खाद्य असुरक्षा से पीड़ित भारतीयों की तादाद में 5 करोड़ की वृद्धि हुई है। वैश्विक भूख सूचकांक में 119 देशों में भारत के गिरकर 103वें क्रम पर पहुँचने की बात भी हमें मालूम है। अब इसकी रफ्तार और भी ज़ोर पकड़ेगी।

अतः, इस सबका नतीजा क्या होगा? तथ्य यही है कि महँगाई, बेरोजगारी, अप्रत्यक्ष कर, छोटे किसानों के लिए सूदखोरी की ब्याज दरें सब मिलकर एक ही बात बता रही हैं – हालांकि संकट का कारण पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग हैं परंतु इसका कमरतोड़ बोझ तो श्रमिकों, गरीब किसानों, छोटे कामधंधे करने वालों व निम्नमध्य वर्ग पर ही डाला जायेगा जो इन्हें और भी अमानवीय हालत में ले जायेगा जब तक कि ये सचेत और संगठित होकर इसके विरुद्ध खड़े नहीं हो जाते।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 5/ सितंबर 2020) के संपादकीय में छपा था

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