रेल निजीकरण : सार्वजनिक संपत्ति की लूट-खसोट

एम. असी //

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के बढ़ते हमले के अंतर्गत भारत में रेलवे ट्रेनों के परिचालन का बड़े पैमाने पर निजीकरण किया जा रहा है। 1 जुलाई को रेलवे बोर्ड ने 109 मार्गों पर 151 गाड़ियों के परिचालन को निजी हाथों में सौंपने के लिए टेंडर जारी किया है। इसके लिए सितंबर तक निविदायें जमा की जा सकती हैं, अप्रैल 2021 में इन्हें तय किया जायेगा और अप्रैल 2023 तक ये गाडियाँ चल जाने का अनुमान है। रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष के अनुसार इसमें 30 हजार करोड़ रु का निवेश होगा। उन्होने यह भी कहा कि उन्हें इसके जरिये रेलवे की न्यूनतम परिचालन लागत वसूल होने का विश्वास है। स्पष्ट है कि निजीकरण के इस मॉडल में रेलवे का आधारभूत ढांचा अर्थात ट्रैक, स्टेशन, सिगनलिंग, ट्रेन ऑपरेशन, आदि रेलवे का होगा जबकि ट्रेन अर्थात चलने वाले डब्बे और ड्राईवर/गार्ड को छोड़कर अन्य सभी कार्य निजी कंपनी के होंगे।

रेलवे ने कहा, ‘इस पहल का मकसद आधुनिक प्रौद्योगिकी वाली ट्रेन का परिचालन है, जिसमें रखरखाव कम हो और यात्रा समय में कमी आए। इससे रोजगार सृजन को बढ़ावा मिलेगा, सुरक्षा बेहतर होगी और यात्रियों को वैश्विक स्तर का यात्रा अनुभव मिलेगा।’ रेलवे के अनुसार, निजी इकाई इन ट्रेनों के वित्त पोषण, खरीद, परिचालन और रखरखाव के लिए जिम्मेदार होंगे। परियोजना के लिए छूट अवधि 35 साल होगी और निजी इकाई को भारतीय रेलवे को ढुलाई शुल्क, वास्तविक खपत के आधार पर ऊर्जा शुल्क देना होगा। इसके अलावा उन्हें पारदर्शी बोली प्रक्रिया के जरिये निर्धारित सकल राजस्व में हिस्सेदारी देनी होगी। रेलवे ने कहा, ‘इन ट्रेनों का परिचालन भारतीय रेलवे के चालक और गार्ड करेंगे। निजी इकाइयों द्वारा संचालित ट्रेनें समय पर संचालित होने और पहुंचने, भरोसेमंद होने जैसे प्रमुख मानकों को पूरा करेंगे।’ बहुत सारे आम लोग भी इसे सही मानते हैं और उनके अनुसार इससे सेवा के लिए भुगतान करने वालों को ‘उच्च गुणवत्ता वाली सेवा’ हासिल होगी, हालांकि कोविड महामारी के दौरान निजी स्वास्थ्य सेवाओं का कड़वा अनुभव बहुत से लोगों ने हाल में ही देखा है।

आधारभूत ढांचे और ट्रेन ऑपरेशन को अलग कर निजीकरण का यही मॉडल 1990 के दशक में रेलवे का निजीकरण करने वाले ब्रिटेन ने अपनाया था हालाँकि वहाँ दोनों भागों को निजी कंपनियों के हाथ में सौंपा गया था। पर वहाँ का अनुभव देखें तो यह पूरी तरह नाकाम सिद्ध हुआ है। ट्रैक/सिग्नल/स्टेशन व अन्य आधारभूत ढाँचा चलाने वाली कंपनी तो कुछ साल बाद 2000 में ही दिवालिया हो गई थी। उसके कुछ समय बाद ही उसे वापस सार्वजनिक कर नेटवर्क रेल नामक कंपनी बनानी पड़ी थी। अब एक के बाद कई लाइनों को भी वापस राष्ट्रीयकृत करना पड़ रहा है क्योंकि निजी पूंजीपतियों ने महँगे किरायों पर मुनाफा लूटकर रेल सेवाओं को बरबाद कर दिया या उन्हें दोबारा निजी कंपनियों को कम शुल्क व अधिक सबसिडी के साथ चलाने के लिए दिया जा रहा है। 1 मार्च 2019 से मैंचेस्टर-लिवरपूल क्षेत्र की नॉर्दर्न रेल को सरकार को वापस अपने हाथों में लेना पड़ा। उसके दो साल पहले एक और महत्वपूर्ण ईस्ट कोस्ट लाइन का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा था। उस समय मैंने निम्न टिप्पणी लिखी थी:

“राष्ट्रीयकरण/निजीकरण दोनों असल में एक ही नीति के दो चेहरे हैं!
बात ब्रिटेन की है पर कहानी दुनिया भर की है। ब्रिटेन में जॉन मेजर ने रेल का निजीकरण किया था, अब उसी कंजरवेटिव पार्टी की थेरेजा मे सरकार उसका वापस कुछ टुकड़ों में राष्ट्रीयकरण कर रही है। जब निजीकरण हुआ तो बनी-बनाई रेलवे लाइनें, रेलगाडियाँ और पूरा ढांचा निजी क्षेत्र को बिना इकन्नी खर्च हुए मिला, उन्हें बस सालाना शुल्क देना था। उन्होने कुछ साल में ही भाड़ा तीन गुना से भी अधिक बढ़ा दिया, पर उन्हें हमेशा ‘घाटा’ ही होता रहा! सरकार उन्हें और रियायतें देती रही, पर घाटा होता रहा, भाड़ा भी बढ़ता रहा!! पर कमाल की बात ये कि वे घाटे के बावजूद भी ‘देशसेवा’ में रेल को चलाते रहे, और इतने घाटे के बावजूद भी निजी क्षेत्र के मालिक और भी दौलतमंद बनते गए!!!
इन्हीं मालिकों में से एक रिचर्ड ब्रांसन है, जिसकी वर्जिन एयरलाइन के बारे में भारत में भी बहुत से लोग वाकिफ हैं। ब्रांसन की कंपनी भी लंदन से लीड्स, न्यूकैसल, ग्लासगो की पूर्वी तटीय रेल को ‘घाटे’ में चलाती रही और ब्रांसन ‘घाटे’ में रहते हुए भी जमीन से आसमान में नए-नए कारोबार शुरू करता रहा, और अमीर बनता गया। पर कुछ दिन पूर्व अचानक ब्रांसन ने ऐलान कर दिया कि अब उसे और घाटा बर्दाश्त नहीं, इसलिए अब वह शुल्क नहीं दे सकता। तो सरकार ने क्या किया? उस कंपनी का राष्ट्रीयकरण हो गया – कंपनी को उसकी सारी देनदारियों समेत सरकार ने ले लिया, यहाँ तक कि कंपनी के सारे प्रबंधक उन्हीं पदों और वेतन पर बने रहे। जब तक कारोबार में दिखावटी घाटे के बावजूद मलाई मौजूद थी, कंपनी निजी रही। जब मलाई खत्म हुई और असली वाला घाटा शुरू हुआ तो घाटे का ‘राष्ट्रीयकरण’ कर दिया गया! कमाल की बात यह कि लंदन से बर्मिंघम, मैंचेस्टर, लिवरपुल की पश्चिम तट रेल भी ब्रांसन की ही दूसरे नाम की कंपनी के पास है, पर उसका राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ, क्योंकि ब्रांसन ने उसे चलाने से मना नहीं किया (वहाँ अभी मलाई की गुंजाइश बाकी है!) अर्थात कौन कंपनी निजी रहे, किसका राष्ट्रीयकरण हो यह तय ब्रांसन कर रहा है, सरकार सिर्फ फैसले पर अमल कर रही है!
यही पूंजीवाद में निजीकरण-राष्ट्रीयकरण की नीति का मूल है – जब पूंजीपतियों को निजीकरण से लाभ हो तो सरकारें प्रतियोगिता को प्रोत्साहन देने के नाम पर निजीकरण करने लगती हैं। जब पूंजीपतियों को राष्ट्रीयकरण में फायदा दिखे तो सरकारें ‘समाजवाद’ और ‘कल्याण’ की बातें करने लगती हैं। दुनिया भर के संसदीय वामपंथी इसे ही ‘शांतिपूर्ण रास्ते से समाजवाद’ की ओर अग्रसर होना बताकर वाह-वाह में जुट रहते हैं।”

ब्रिटेन के निजी ट्रेन ऑपरेटरों ने भाड़े इतनी तेजी से बढ़ाये कि आज वहाँ समान दूरी के लिए मासिक सीजन टिकट समान स्तर की यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं फ्रांस व इटली से 5-6 गुने तथा जर्मनी से 3 गुना से अधिक हैं। इसका नतीजा है कि वेस्ट कोस्ट लाइन पर 1997 में मात्र 2 करोड़ पाउंड निवेश करने वाली वर्जिन व स्टेजकोच को 2012 तक ही 50 करोड़ पाउंड का शुद्ध लाभ हो चुका था। लेकिन कई लाइनों पर रेलवे ढाँचे को निचोड़ने के बाद निजी कंपनियों के उन्हें छोड़ भागने का भी बड़ा इतिहास है। जिसके चलते गाड़ियों की लेटलतीफी और दुर्घटनायें भी बहुत अधिक बढ़ी हैं।

इसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी नेटवर्क रेल उस रेल लाइन का आधारभूत ढाँचा सुधारने में भारी खर्च करती है। अगले ऑपरेटर को ट्रेन चलाने का अधिकार देने के पहले लाभप्रदता (viability) के नाम पर निजी ऑपरेटर द्वारा देय परिचालन शुल्क घटा देती है। इस तरह निजीकरण के बाद सरकारी सबसिडी घटने के बजाय असल में 2019 तक दो गुना हो गई जबकि इस सबसिडी को घटाना भी रेलवे को निजी हाथों में सौंपने के पक्ष में एक बड़ा तर्क था। फर्क यही हुआ है कि अब इस ‘सबसिडी’ का लाभ यात्रियों को नहीं ट्रेन चलाने वाले निजी पूंजीपतियों को मिलने लगा है। लंदन की अंडरग्राउंड के निजी किए जाने का तजुरबा भी ऐसा ही है। यहाँ भी निजी ऑपरेटर अपना मुनाफा कमाने के बाद बार-बार भाग खड़े हुये और नुकसान सार्वजनिक क्षेत्र को सहना पड़ा।

जहाँ तक भारत में अभी होने वाले ट्रेन परिचालन के निजीकरण की बात है, उसके चरित्र की एक खास बात समझने के लिए हमें पहले पूंजीवादी कारोबार में पूंजी निवेश के ढाँचे को समझना आवश्यक है। आम तौर पर कोई कारोबार शुरू करते हुये पूंजीपति को सबसे बड़ी राशि आधारभूत ढाँचे के रूप में स्थायी पूंजी के जड़ (fixed) अंश में लगानी पड़ती है जिसकी वापसी कई सालों में थोड़ा-थोड़ा कर मूल्यह्रास (depreciation) के रूप में होती है। इसके ऊपर एक राशि चालू (circulating) पूंजी में लगती है जो कारोबार की प्रकृति के अनुसार सावधिक तौर पर अपना चक्र पूरा करती रहती है, इसमें एक हिस्सा परिवर्तनशील पूंजी अर्थात मजदूरी और दूसरा हिस्सा स्थायी पूंजी या कच्चा/सहायक माल, आदि होते हैं। किन्तु किसी भी कारोबार में जड़ पूंजी से मुनाफा नहीं आता। मुनाफे का स्रोत परिवर्तनशील पूंजी है जिससे श्रमशक्ति खरीदी जाती है और मजदूरी अर्थात श्रमशक्ति के खरीदी मूल्य से अधिक उत्पादित मूल्य अर्थात अधिशेष मूल्य ही सारे मुनाफे का स्रोत है। अतः जड़ पूंजी कारोबार के लिए जरूरी तो है पर इसके तुलनात्मक रूप से अधिक होने से मुनाफे की दर गिरती है।

रेलवे जैसे उद्योग में जड़ पूंजी की बहुत बड़ी मात्रा चाहिये जिसकी वापसी में 15-20 साल तक लगते हैं। मगर सिर्फ किसी ट्रेन का परिचालन हाथ में लेने में सामान्य के मुकाबले जड़ पूंजी की बहुत कम मात्रा का ही निवेश करना पड़ेगा – भूमि, ट्रैक, रेल, स्टेशन, विद्युत-सिगनल, नियंत्रण व्यवस्था सब में सार्वजनिक पूंजी ही रहेगी। निजी ऑपरेटर ट्रेन के चक्कर के हिसाब से शुल्क देगा या कुल कमाई का एक हिस्सा, कुछ कर्मचारी रखेगा और भाड़ा वसूल कर अपना मुनाफा काट लेगा। बिना किसी खास जोखिम के उसका मुनाफ़ा पक्का। घाटे का लगभग सारा जोखिम सार्वजनिक क्षेत्र में ही रहेगा। इस तरह सार्वजनिक पूंजी के बल पर निजी पूंजीपति मुनाफ़ा कमाता और पूंजी संचयन करता जायेगा और एक दिन खुद रेलवे के एक हिस्से को खरीदने लायक पूंजी एकत्र कर लेगा। या जहाँ कहीं उसे मुनाफा कम होता दिखाई देगा, परिचालन छोड़ भाग खड़ा होगा जैसे अनिल अंबानी ने दिल्ली मेट्रो की एयरपोर्ट लाइन में किया। उसने सरकारी मदद भी ली और बाद में लाइन को वापस दिल्ली मेट्रो को ही चलाना पड़ा।

ऐसा नहीं कि यह पहली बार हो रहा है। यह भारतीय पूंजीवाद की पुरानी नीति रही है। 1943 में ही ‘बॉम्बे प्लान’ के जरिये टाटा, बिड़ला, साराभाई, श्रीराम, पुरुषोत्तम दास, आदि उस वक्त के बड़े पूंजीपतियों ने स्वतंत्र भारत में बड़ी मात्रा में जड़ पूंजी में निवेश वाले उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में रखने की योजना यूँ ही तो प्रस्तुत नहीं की थी। सार्वजनिक क्षेत्र अब तक भी विभिन्न रूपों में यही करता आया है और उसके द्वारा पूंजी संचयन करने वाले पूंजीपति अब उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में उसे पीछे छोड़ चुके हैं। जो इस बात से असहमत हों वे सार्वजनिक उपक्रमों के प्रत्येक क्षेत्र में निजी आपूर्तिकर्ताओं, ठेकेदारों, इनके उत्पादों को अपने निजी उद्योगों में स्थायी पूंजी के तौर ओर उपभोग करने वाले पूंजीपतियों की भूमिका देख सकते हैं। हाल के दिनों में यह प्रक्रिया सिर्फ तेज होकर धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर मालिकाना स्थानांतरण की ओर बढ़ रही है।

यहाँ एक सवाल स्वाभाविक है कि अगर निजीकरण और राष्ट्रीयकरण दोनों एक ही पूंजीवादी नीति के दो पहलू हैं तो हम निजीकरण का विरोध क्यों कर रहे हैं? यह समझना जरूरी है कि यद्यपि पूंजीवादी व्यवस्था में ही राष्ट्रीयकरण से कोई उद्योग समाजवादी नहीं हो जाता और उसका प्रयोग निजी पूंजी संचयन के हित में होता रहता है, किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में होने से निजी पूंजी को पहुंचाए जाने वाले इस लाभ के खिलाफ लड़कर आम जनता को कुछ राहत दिलाने की संभावना मौजूद रहती है। ऐसा रेलवे के मामले में कुछ हद तक हुआ भी है अर्थात जनता के विरोध के दबाव से अब तक किरायों को कुछ हद तक कम रखना पड़ा है और आम लोग सस्ती यात्रा, हालाँकि तकलीफ भरी और सुविधा हीन, के लिए इसका प्रयोग करते आए हैं। इसके विपरीत विभिन्न निजी पूंजीपतियों के मालिकाने में चले जाने पर यह संघर्ष मुश्किल हो जाता है। अतः, हालाँकि हम सार्वजनिक क्षेत्र को समाजवाद लाने का कदम नहीं मानते पर कुछ तात्कालिक राहत के लिए जनसंघर्षों को आगे बढ़ाने के सार्वजनिक क्षेत्र का प्रयोग किया जा सकता है। इसके विपरीत निजीकरण से आम मेहनतकश जनता तो किसी तरह के किसी लाभ की संभावना तक समाप्त हो जाती है। दूसरे, तात्कालिक राहत के लिए किए जाने वाले जनसंघर्ष ही अपनी सीमा पर पहुँचकर मेहनतकश जनता को पूंजीवाद में सुधार के द्वारा समाजवाद आने के भ्रम को भी दूर करते हुये पूंजीवादी व्यवस्था के ही खिलाफ, निजी स्वामित्व आधारित पूंजीवादी व्यवस्था में ही राष्ट्रीयकरण के बजाय वास्तविक समाजीकरण अर्थात सारी निजी संपत्ति पर सामाजिक स्वामित्व कायम करने की समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हेतु संघर्ष के लिए भी राजनीतिक रूप से तैयार करते हैं।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 3/ जुलाई 2020) में छपा था

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