[एस. वी. सिंह]
“चूँकि मज़दूरों कि मौत का कोई आंकड़ा सरकार के पास मौजूद नहीं है, इसलिए उन्हें मुआवजा देने का सवाल ही पैदा नहीं होता” 14 सितम्बर को संसद में श्रम एवं रोज़गार मंत्री संतोष गंगवार का ये बयान सुन कर देश स्तब्ध रह गया। क्या कोई सरकार इतनी निष्ठुर, इतनी संवेदनहीन हो सकती है!! हालाँकि सरकार ने ये स्वीकार किया कि एक करोड़ से भी ज्यादा मज़दूर लॉक डाउन के बाद अपने घरों को जाने के लिए विवश हुए। “नरेंद्र मोदी सरकार ने ज़रूरत के वक़्त अर्थ व्यवस्था और लोगों दोनों को धोखा दिया” अगले ही दिन कि द प्रिंट कि ये हेड लाइन कितनी सटीक है। विभाजन के साथ मिली आज़ादी के वक़्त 1947 के बाद से देश ने ऐसा भयावह पलायन, इस स्तर की मानवीय त्रासदी नहीं देखी जैसी कि बगैर किसी योजना, बगैर किसी तैयारी अथवा पूर्व सूचना के घोषित क्रूर लॉक डाउन की घोषणा, २४ मार्च 2020 के बाद देखी। ऐसी अभूतपूर्व भयावह त्रासदी के मामले में ऐसी क्रूर प्रतिक्रिया दुनिया में किसी भी सरकार की नहीं हो सकती; “मुआवज़े का सवाल ही पैदा नहीं होता”।
आईये देखें, अचानक, अक्षरस: अपने प्राणों कि रक्षा करने को मज़बूर कर दिए गए प्रवासी मज़दूरों का क़सूर क्या है? इन असंगठित मज़दूरों में सब ही एक वक़्त या तो कारीगर थे या फिर लघु-सीमांत किसान। कई अभी भी ज़मीनों के छोटे छोटे टुकड़ों के मालिक हैं। पूंजीवादी ‘विकास’ ने अपने नैसर्गिक नियमानुसार बाज़ार को मशीन द्वारा निर्मित सस्ती वस्तुओं से पाट दिया और इनके कुशल हाथों से कारीगरी औजार छिनते चले गए। छोटे से ज़मीन के टुकड़े में खेती कभी भी लाभप्रद नहीं हो सकती इसलिए इनके मालिकाने की ज़मीनें बिकती चली गईं और दूसरी ओर धनी किसानों के खेत और लम्बे-चौड़े होते चले गए। ज़िन्दा रहने की क़ुदरती ख्वाहिश के तहत पेट कि आग बुझानी ज़रूरी है। ज़िन्दगी की इसी बुनियादी ज़द्दोज़हद ने इस विशाल समुदाय को अपने परिवार के साथ रह रहे अपने झोंपड़ी नुमा घरों से बाहर धकेलकर शहर को जाने वाले रेलवे स्टेशन या हाई वे वाले बस अड्डों पर पहुंचा दिया और वो शहरों के विशालकाय कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की सेना में शामिल हो गए। अपने गाँव, अपनी ज़मीन और सबसे ज्यादा अपने बीबी-बच्चों को छोड़ अनंत, अनिश्चित यात्रा जिसमें कहाँ जाना है, कहाँ रहना है, कहाँ काम करना है कुछ भी मालूम नहीं क्योंकि कोई नियिक्ति पत्र तो हाथ में है नहीं। कूच करने के लिए भावनाओं के ज्वार से ऊपर उठने के लिए ज़रूरी साहस ने उनकी पहली परीक्षा ली। कोई दूसरा पर्याय है ही नहीं, ज़िन्दा तो रहना है, इस कठोर सच्चाई ने उनके शरीर और सोच को स्टील जैसा मज़बूत बनाने का काम किया। कौन सी मुसीबत है जो मज़दूरों ने नहीं झेली, कौनसी चुनौती है जिसे उन्होंने पराजित नहीं किया!! सर्वहारा कि अजेय इच्छाशक्ति, कभी ना हार ना मानने कि ज़िद यूँ ही बेवज़ह नहीं है। इसे हांसिल करने के लिए हर रोज़ इम्तेहान से गुजरना होता है। ये वो शय नहीं जो अमेज़न पर ऑन लाइन मिल जाए। समाज का कोई भी दूसरा तबक़ा 1600 किमी यात्रा पैदल भूखे पेट शुरू करने की भी हिम्मत नहीं जुटा सकता!! गन्दी झुग्गी झोंपड़ी बस्ती के एक गंदे से कमरे में 8 लोगों का इकट्ठे रहना और फिर नज़दीक के चौराहे पर अपने पास बची एकमेव वस्तु, अपनी श्रम शक्ति के खरीदार का इंतज़ार करना उनकी दिन चर्या बन गई। दिहाड़ी के एक हिस्से से अपना पेट भरना और और बाक़ी अपने पीछे छुट गए परिवार का पेट भरने के लिए भेजते रहना, इसी तरह ज़िन्दगी कि गाड़ी धिकल रही थी। इस कोरोना नाम कि महामारी को तो वो जानते भी नहीं थे, नाम भी नहीं सुना था, ये घातक वायरस तो हवाई ज़हाज़ में सवार होकर देश पधारा है। उन्हें तो ये भी नहीं मालूम कि हवाई ज़हाज़ अन्दर से दिखता कैसा है!! देश को सम्बोधित करने के लिए टी वी पर उपस्थित हो जाने कि अज़गरी भूख वाले, 138 करोड़ लोगों को घर के बाहर ‘लक्षमण रेखा खिंचवाने वाले रहनुमाओं ने पहली ऊँगली सीधी उठाकर उद्घोषणा करते वक़्त इन मज़दूरों के बारे में कुछ भी क्यों नहीं सोचा? भूखा इन्सान अनिश्चित काल के लिए घर में बंद कैसे रहेगा, ऐसा विचार इस ज़ालिम शासन व्यवस्था के पोशकों के भेजे में क्यों नहीं आया? करोड़ों लोगों को ज़िन्दगी- मौत कि इस जंग में धकेलने के लिए कौन ज़िम्मेदार है? मौत को ललकारने वाली इस अनंत यात्रा में शहीद होने वाले 990 बहादुर मज़दूरों की मौत के लिए कौन ज़िम्मेदार है? “मज़दूरों को मुआवज़े का सवाल ही पैदा नहीं होता” जनवाद के तथाकथित मंदिर, संसद में संवेदनहीनता की पराकाष्ठा करने वाले बात बहादुर ‘श्रम’ मंत्री ने इन प्रश्नों पर देश का ज्ञान वर्धन करना क्यों ज़रूरी नहीं समझा? अब चूँकि दूसरा कोई पर्याय नहीं बचा इसलिए हमें मंत्री महोदय के बोल वचनों को सकारात्मक रूप से लेना चाहिए। ‘चूँकि मज़दूरों का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं इसलिए मुआवज़े का सवाल ही नहीं’, इस कठोर वाक्य को गौर से पढ़ा जाए तो लगता है कि ‘लोगों के दवारा, लोगों के लिए, लोगों की सरकार’ कहना चाह रही है कि, वो शहीद मज़दूरों को उपयुक्त मुआवजा देना चाहती है लेकिन इसलिए नहीं दे पा रही क्योंकि उसके पास उनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। आईये, ज़िम्मेदार नागरिक कि तरह इस सम्बन्ध में ‘अपनी’ सरकार की मदद की जाए।
आपको जो आंकड़े चाहिएं, वे यहाँ उपलब्ध हैं, मंत्री जी
सरकार की गैरजिम्मेदारी, घोर संवेदनहीनता और आपराधिक लापरवाही के चलते जो करोड़ों विस्थापित मज़दूर उस अनंत जीवन मरण कि यात्रा पर निकलने के लिए मज़बूर हुए और रास्ते में अवर्णीय मुसीबतें झेलते हुए जीवन की कठिन जंग हार गए और मृत्यु को प्राप्त हुए, सरकार उन्हें उचित मुआवजा देना चाहती है लेकिन सम्बद्ध आंकड़ों के आभाव में दे नहीं पा रही है जैसा की मंत्री जी ने संसद में दिए अपने बयान में बोला है। अत: आवश्यक कष्टकारी और दिल दहलाने वाले आंकड़े, जो स्वान (Stranded Workers Action Network, SWAN) के कार्यकर्ताओं कि टीम ने एकत्रित किए हैं, स्वान कि टीम को हार्दिक धन्यवाद और आभार के साथ नीचे दिए जा रहे हैं ताकि माननीय मंत्री शीघ्रातिशीघ्र उन शहीद मज़दूरों के भूखे, कंगाल और बेहाल परिवारों को उचित मुआवजा दिला सकें जो जीवित अपने घर नहीं पहुँच पाए। आख़री वक़्त अपने सगों से अपने दुःख की बातें साझा करने का भी अवसर जिन्हें प्राप्त नहीं हुआ।
- मृत्यु : 25 मार्च 20 से 31 जुलाई के बीच कुल 990 मृत विस्थापित मज़दूरों के सभी आंकड़े जैसे नाम, पता, उम्र, मृत्यु कि तारीख, मृत्यु का स्थान, राज्य, मृत्यु कि वज़ह और उक्त सूचना का स्रोत सभी जानकारियाँ निम्न लिंक में मौजूद है। हम स्पष्ट कर दें कि इन आंकड़ों में कोविद-19 से हुई मौतें शामिल नहीं हैं।
http://strandedworkers.in/mdocuments-library/
मृत्यु का कारण | 31.07.2020 तक मृत लोगों कि कुल संख्या |
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भूख और आर्थिक विपन्नता | 216 |
ईलाज ना हो पाना | 77 |
सड़क तथा रेलगाड़ी-पटरी पर दुर्घटनाएँ | 209 |
‘विशेष श्रमिक रेलगाड़ियों’ में मौत | 96 |
आत्महत्या | 133 |
कोविद क्वारंटाइन केन्द्रों में भयावह अव्यवस्था से मौतें | 49 |
लॉक डाउन से सम्बद्ध अपराध | 18 |
पुलिस द्वारा हुए अत्याचार | 12 |
शराब कि लत सम्बन्धी | 49 |
पूरी तरह पस्त हो जाना | 48 |
अन्य कारण जो ऊपर लिखी श्रेणियों में नहीं | 83 |
कुल योग | 990 |
स्वान टीम द्वारा एकत्र किए और संजोए ये आंकड़े बहुमूल्य हैं। आने वाली पीढियां भी जान पाएंगी कि इस स्तर कि संवेदनहीनता और आपराधिक गैरजिम्मेदारी मेहनतकशों के साथ हो चुकी हैं, जैसे आज हम आज़ादी आन्दोलन के नेताओं की अक्षम्य विफलता और अक्षमता से हुए देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन और फिर करोड़ों लोगों के विस्थापन और बे-इन्तेहा मुसीबतों भरे दृश्यों को देखकर महसूस करते हैं।
- 9 मई से 27 मई तक कुल 19 दिनों में श्रमिक रेलगाड़ियों में कुल 80 मज़दूरों कि मौत हुई; ये आधिकारिक आंकड़ा है जो रेलवे सुरक्षा बल द्वारा उपलब्ध कराया गया है। रेलवे के विभागीय अधिकारी ने स्वीकार किया है; “रेलवे में हो रही मौतों के लिए अत्यधिक गर्मी, थकान और प्यास मुख्य कारण हैं जिन्हें मज़दूरों को झेलना पड़ा।” पाठकों को याद होगा कि कैसे पंजाब से बिहार के लिए चली रेलगाड़ियाँ आंध्र और ओडिशा तक घूमकर आती थीं। आपराधिक लापरवाही और संवेदनहीनता की ऐसी मिसालें शायद ही इतिहास में मिलें!!
- अमानवीय लॉक डाउन कि वज़ह से अपनी झोंपड़ियों में फंसे विस्थापित मज़दूरों में 96% को केंद्र अथवा राज्य सरकारों से कोई भी मुफ्त राशन नहीं मिला।
- फंसे हुए मज़दूरों में से 78% के पास कुल रु 300 या उससे कम ही बचे थे।
- 89% मज़दूरों को अपने मालिकों द्वारा कोई वेतन नहीं मिला। उस दौरान मज़दूरों द्वारा स्वान कि टीम को किए गए फोन ऐसी आपात स्थिति के थे ‘ना तो हमारे पास एक भी पैसा है और ना अनाज का एक दाना’!!
- सूरत में फंसे मज़दूरों ने बताया, “हमारे मालिक अभी भी हमें ये कहते हुए काम करने को मज़बूर कर रहे हैं कि काम करोगे तब ही खाने को मिलेगा। हमें खाना एक वक़्त ही मिल रहा है।”
- हर्ष मन्दर और अंजलि भारद्वाज द्वारा दायर याचिका केस डायरी नम्बर 10801/2020 में, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का बयान देखिए; “अगर इन्हें (मज़दूरों को) खाना दिया जा रहा है तो इन्हें खाने के पैसे क्यों चाहिएं।”
- जैसे जैसे लॉक डाउन कि अवधि बढती जा रही थी वैसे वैसे बेक़रारी की अत्यंत तीव्रता वाली/ कई दिनों से भूखे होने की फोन कॉल बढ़ती जा रही थीं।
- “उनको ज्यादा ज़रूरत है हमसे, उनको दीजिएगा। हमारे पास इतना राशन है कि अभी दो दिन चल जाएगा” बिकट परिस्थितियों में भी अपने साथियों के प्रति ऐसी सद्भावना भरे विचार स्वान कि टीम को कई बार सुनने को मिले।
- पहली लॉक डाउन के दौरान ही सुप्रीम कोर्ट में एक अन्य याचिका डाली गई थी जिसमें अदालत से प्रार्थना की गई थी कि वो सरकार को आदेश दे कि वो दिहाड़ी मज़दूरों के जीवित रहने के लिए वेतन मिलना सुनिश्चित करे। उक्त याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने इस टिपण्णी के साथ रद्द कर दिया, “अदालत केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा कि जा रही व्यवस्था से खुश है”।

विस्थापित मज़दूर हर दृष्टि से मुआवज़े के हक़दार हैं
देश में लॉक डाउन से उत्पन्न भयानक परिस्थितियों द्वारा कुल 990 मज़दूरों ने अपनी जानें गँवाई और इनसे सम्बंधित सारे दस्तावेज़ उपलब्ध हैं। रास्ते में कितने ज़ख़्मी हुए, कितने मानसिक रूप से टूट गए, कुल कितना आर्थिक नुकसान मज़दूरों का हुआ, इनके दस्तावेज़ मौजूद नहीं हैं लेकिन इन्हें भी जुटाया जाना ज़रूरी है। सरकार द्वारा ये तथ्य भी स्वीकार किया जा चुका है कि लॉक डाउन की वज़ह से कुल 12.2 करोड़ लोगों ने अपने रोज़गार खोए। इस सच्चाई को बार बार चिल्लाकर कहा जाना ज़रूरी है कि जो 990 मज़दूर शहीद हुए उनका कोई भी क़सूर नहीं था। बगैर किसी इन्तेजाम के, बगैर किसी योजना के लॉक डाउन कि घोषणा ने इन भूखे बेहाल मज़दूरों को घरों में बंद रहने के सरकारी फरमानों से विद्रोह करने को मज़बूर कर दिया, पुलिस कि लाठी गोली भी उन्हें रोकने में फेल हो गईं। जो इन्सान शाम को तब ही खा पाता है जब वो दिन में कमाता है; उसे महीनों महीनों घरों में बंद कैसे रखा जा सकता है? 4 फरवरी 2020 से लागू वित्त मंत्रालय के भरपाई कानून के अनुसार “कोई भी दुर्घटना होने पर, विभाग इस बात कि परवाह ना करते हुए कि ग़लती, लापरवाही अथवा कमी की वज़ह क्या है, और दुसरे किसी भी कानून में क्या लिखा है इसे नज़रंदाज़ करते हुए विभाग निम्न अनुसार मुआवजा देगा :
- मौत अथवा गंभीर स्थाई अपंगता अथवा दोनों होने पर कुल रु 10 लाख।
- दूसरी स्थाई अपंगता होने पर रु 7 लाख।
अत: विस्थापित मज़दूरों को मिलने वाले मुआवज़े/ नुकसान भरपाई का मूल्य हुआ; 10 लाख गुणा 990 = 99 करोड़। दुसरे नुकसान के आंकड़े जुटाना भी इतनी साधन संपन्न सरकार के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। स्वान और इस प्रकार के अनेकों संस्थाएं सरकार को इस नेक काम में मदद करने के लिए मौजूद और तत्पर हैं। मुआवज़े का भुगतान किस प्रकार किया जाए, ये सब दिशा निर्देश कर्मचारी नुकसान भरपाई कानून, 1923 में मौजूद हैं। उसके लिए आवश्यक सारी जानकारी स्वान द्वारा संयोजित किए गए आंकड़ों में मौजूद हैं। ये सारे दस्तावेज विभिन्न जन हित याचिकाओं के दौरान सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किए जा चुके हैं। जिन लोगों ने अपनी जान गंवाई हैं वे सब अपने परिवारों के भरण पोषण के लिए अकेले व्यक्ति थे। अत: ये कहना कि “मुआवज़े का सवाल ही पैदा नहीं होता” वास्तव में 990 लोग नहीं बल्कि 990 परिवारों के जीवन मरण का प्रश्न है। प्रधानमंत्री खुद आजकल बिहार कि चुनाव सभाओं में सरे आम घोषणाएँ कर रहे हैं; “देखिए हमने सभी मज़दूरों को मुफ़्त उनके घर पहुँचाया, मज़दूरों के लिए क्या कुछ नहीं किया”। इतनी शूरवीर, साधन संपन्न सरकार के लिए जिसका नारा ही है; “सबका साथ सबका विकास”, और जो विश्व गुरु बनने का निश्चय रखती है; 990 परिवारों के जीवन मरण के प्रश्न पर 99 करोड़ का मुआवजा देना कोई बड़ी बात नहीं है। 99 करोड़ रुपये को सरकारी खजाने पर बहुत बड़ा बोझ बताने वाले शायद ये नहीं जानते कि सरकार धन्ना सेठों के लिए ‘राहत पैकेज’ कि घोषणाएँ करते वक़्त कितनी उदार रहती है? आईये देखें :
- न्यूज़ क्लिक में दिनांक 9 जुलाई 2019 को छपी एक रिपोर्ट के अनुसार मोदी-1 (2014 से 2019) के दरम्यान सरकार ने बड़े सेठों को कुल 4.3 लाख करोड़ रुपये की कर रियायतें प्रदान की हैं। ये रक़म सामाजिक कल्याण की योजनाओं जैसे मनरेगा, आंगनवाडी, स्कूलों में बच्चों को दिए जाने वाले भोजन के बजट में कटौती करके जुटाई गई है। धन्ना सेठों को कर रियायतें हर साल बढ़ती ही चली गईं; 2014 -15 में रु 65607 करोड़,2015 -16 में रु 76858 करोड़, 2016 -17 में रु 93643 करोड़, 2017 -18 में रु 108785 करोड़। इस सम्बन्ध में दिलचस्प बात ये है कि धन्नासेठों को इस स्तर की कर रियायतें देना कोई नई प्रक्रिया नहीं है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले यू पी ए के दोनों कार्यकालों में भी ये खेल बदस्तूर ज़ारी था। यू पी ए- 2 के दरम्यान कुल 3.52 लाख करोड़ कि कर रियायतें धन्ना सेठों को दी गईं। सरकारें कॉर्पोरेट के लिए अपना ये ‘फ़र्ज़’ आज़ादी मिलने के बाद से ही पूरा करती जा रही हैं लेकिन ये इस स्तर पर हो रहा है ये असलियत 2006 -07 के बजट के वक़्त ही पता चला क्योंकि ये तथ्य उस साल के बज़ट भाषण का हिस्सा था। फर्क बस इतना सा ही है कि सरमाएदारों की सेवा करने के अति उत्साह में और ख़ुद को अपने आकाओं का कांग्रेस से भी बड़ा सेवक सिद्ध करने की कवायद में मोदी जी ने इस रक़म को लगभग 22% से बढ़ा दिया है। दरअसल ये सभी बुर्जुआ पार्टियाँ सिर्फ अपने ऊपरी, सतही आवरण में ही एक दूसरे से भिन्न हैं अन्दर का मूल पदार्थ बिलकुल एक समान है। संसद में बजट पर होने वाली बहसों कि नौटंकियाँ याद कीजिए, छोटे छोटे खर्चों पर कैसी खूंख्वार डिबेट होती हैं, मानो सरकारी खर्च की चिंता में ‘विपक्षी नेतागण’ सो नहीं पा रहे हैं जबकि देश के अम्बानियों-अडानियों को मिलने वाली लाखों करोड़ की इन ‘रियायतों’ पर कभी कोई प्रश्न भी नहीं पूछा जाता नज़र नहीं आता। ये प्रस्ताव सर्वसम्मति से फटाफट पास होते जाते हैं। इस मुद्दे पर सभी पार्टियों में विलक्षण एकमत नज़र आता है! तब कोई नहीं कहता, “कर राहत का सवाल ही पैदा नहीं होता’ जैसा कि अब सरकार ने डंडा ठोककर कह दिया, ‘मज़दूरों को मुआवज़े का सवाल ही नहीं पैदा होता’!!
- मोदी सरकार ने पिछले साल ही सितम्बर महीने में एकाधिकारी पूंजीपतियों को कुल 1.45 लाख करोड़ की कर रियायतें अर्पित कीं। प्रत्यक्ष कर- कॉर्पोरेट कर को 30% से घटाकर 22% कर दिया गया जिससे सरमाएदारों कि जेबों से सरकारी खजाने में जमा होने वाली 1.45 लाख करोड़ की रकम उनकी जेबों में ही रह गई। यहाँ ये याद रखना बहुत ज़रूरी है कि कॉर्पोरेट टैक्स एक प्रत्यक्ष कर है जिससे होने वाला नफा नुकसान सरमाएदार को ही होता है जबकि अप्रत्यक्ष कर बढ़ने से बोझ और घटने से राहत आम आदमी को होती है। इसीलिए सरकारें प्रत्यक्ष कर जैसे इनकम टैक्स और कॉर्पोरेट टैक्स कम करती जा रही हैं जबकि अप्रत्यक्ष कर जैसे जी एस टी बढाती जा रही हैं। आम आदमी को निचोड़कर धन्नासेठों कि चर्बी बढाई जा रही है। 1.45 लाख करोड़ का पैकेज तब दिया गया था जब जी डी पी वृद्धि दर घटकर 5% रह गई थी जो आज कोरोना काल में घटकर -23% पहुँच गई है। ‘विकास दर’ बढ़ाने को दिए जाने वाले इन तोहफों की कभी कोई समीक्षा भी नहीं की जाती की इस क़दम से कितनी वृद्धि हुई या कितने नए रोज़गार पैदा हुए। कुछ हुआ भी या नहीं!!
- पिछले 10 सालों में कुल 7 लाख करोड़ के क़र्ज़ माफ़ हुए, जिनका 80% पिछले 5 साल में ही हुए। (स्रोत- लोजिकल इन्डियन में दिनांक 20 अप्रेल 2019 कि एक रिपोर्ट) इस 7 लाख करोड़ में अधिकतर क़र्ज़ बड़ी सरमाएदार कंपनियों के ही थे। क़र्ज़ माफ़ी की रक़म बैंक की अपनी पूंजी से जाती है जिसकी भरपाई दो तरह से होती है। एक : सरकारी ख़जाने से, जिसकी भरपाई के लिए और अधिक कर लगाए जाते हैं और दूसरा : बैंक अपनी सभी सेवाओं कि दरों में अनाप-शनाप वृद्धि कर लोगों कि जेबों से पैसा निकालते हैं। वित्त राज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ला ने एक प्रश्न के उत्तर में लोकसभा को बताया कि पिछले तीन साल में राष्ट्रीयकृत बैंकों ने खातों में न्यूनतम बैलेंस ना रख पाने के कारण कुल 10000 करोड़ रुपये कि वसूली की। निजी बैंकों में तो ये लूट और भी विकराल है। ज़ाहिर है ये दण्ड गरीबों को ही दिया गया क्योंकि ये स्थिति अडानी – अम्बानी के खातों में तो होती नहीं। सेवा शुल्क को बेतहाशा बढ़ाते जाने के कारण बैंक आज पुराने सूदखोर महाजनों जैसे नज़र आने लगे हैं। विस्थापित मज़दूरों को उनके कितने ही खातों में दी गई मदद को बैंक ही हड़प गए।
- मई 14, 2020 को 20 लाख करोड़ का महा पैकेज घोषित किया गया। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत 1.7 लाख करोड़ भी उक्त पैकेज के ‘बड़े ढोल’ का हिस्सा है बाकी लगभग सारी व्यवस्था ‘बेचारे उद्योगपतियों’ के लिए ही है। दूसरी विशिष्टता इस तथाकथित महा पैकेज की ये है कि कोई भी विद्वान सारी घोषित राहतों को जोड़कर 20 लाख करोड़ की कुल रक़म के नज़दीक भी नहीं पहुँच पाया! दूसरी पीड़ादायक विशेषता ये है कि जिन मज़दूरों ने अपनी जानें गंवाई हैं, जिन्होंने अपनी रोज़ी रोटी खोई है उनके बारे में एक शब्द भी नहीं बोला गया। ये ज़रूर स्वीकार किया गया कि कुल 12.2 करोड़ लोगों ने अपने रोज़गार खोए हैं। मानो ये लोग इस मुल्क के बाशिंदे ही ना हों।

मज़दूरों ने सभी अधिकार हमेशा अपने एकजुट संघर्षों से ही हांसिल किए हैं
अनियोजित लॉक डाउन के रूप में लाई गई इस मनुष्य निर्मित तबाही के फलस्वरूप बे-इन्तेहा मुसीबतें झेलते हुए जिन 990 विस्थापित मज़दूरों ने अपनी जानें गँवाई हैं उनके लिए उचित मुआवजा दिए जाने का मुद्दा इतना न्यायपूर्ण है कि मौजूदा, घोर जन विरोधी और मज़दूर विरोधी मोदी सरकार भी स्पष्ट रूप से मना करने का साहस नहीं जुटा पाई। मज़दूरों की मुसीबतों के आंकडे ना होने के पीछे छुपकर मज़दूरों के साथ धोखा करते हुए, संवेदनहीनता कि पराकाष्ठा तो हुई ही, साथ में सरकार ने अपनी दूसरी ग़ैर ज़िम्मेदारी भी स्वीकार की। आंकड़े क्यों नहीं हैं? क्या ये आंकड़े महत्वपूर्ण नहीं हैं? क्या ये सभी आंकड़े नहीं होने चाहिए थे? इतनी बलशाली सरकार है जो 5 अगस्त से तो विश्वगुरु भी बन चुकी है, जो लोगों की निगरानी के लिए आधुनिकतम उपकरण खरीदती जा रही है, नियम बदलती जा रही है, जहाँ सब कुछ निगरानी में है, किसके घर में क्या पका है ये जानने की इच्छा भी जो सरकार रखती हो उसे मज़दूरों द्वारा झेली मुसीबतें मालूम नहीं!! दरबारी मीडिया के पास सारे वीडियो अभी भी मौजूद होंगे। ना ही इतनी साधन संपन्न सरकार के लिए 990 परिवारों कि जान बचाने के लिए 99 करोड़ रुपये की रक़म कि व्यवस्था करना ही इतनी बड़ी डील है। वैसे भी आजकल रुपयों की एक नई ईकाई बहुत लोकप्रिय हो रही है; ‘लाख करोड़’। जब भी सरमाएदारों को किसी ‘राहत’ या कर माफ़ी का ऐलान होता है तो रक़म हमेशा ‘लाख करोड़’ में ही होती है। एक लाख करोड़ का मतलब है, 1 के बाद 13 जीरो; 10000000000000, मतलब 10 बिलियन!! ऐसा प्रतीत होता है कि जब मज़दूर को उसका हक देने का सवाल आता है तब रुपये कि कीमत अलग होती है और जब अडानियों-अम्बानियों को देना होता है तब अलग!!
आपको जो डेटा चाहिए था वो उपलब्ध है, श्रम मंत्री जी। विस्थापित मज़दूरों ने जो सहा है वो अवर्णनीय दर्दनाक है। जो 990 मज़दूर ज़िन्दगी कि जंग हारे हैं वो कुल विस्थापितों का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है। मुआवज़े का इससे न्यायोचित कारण नहीं हो सकता और ऊपर हम देख ही चुके हैं, 99 करोड़ रुपये से सरकारी खजाना खाली नहीं होने वाला। वैसे भी, सरकारी खजाने को भरता कौन है इन मज़दूरों के सिवा? अपनी हाड़ तोड़ मेहनत से अधिशेष कौन पैदा करता है जिसे हड़पकर मालिकों के पूंजी के पहाड़ खड़े होते हैं? अम्बानी-अडानियों को दुनिया के सबसे अमीर लोगों की फेहरिश्त में किसने पहुँचाया है? सम्पदा का असली सृजक कौन है? इस सच्चाई को उद्योगपति भी जानते हैं। मार्च अप्रेल महीने में जिन मज़दूरों को रेल के टिकट कोई नहीं दे रहा था उन्हीं मज़दूरों को हवाई जहाज के टिकट भेजे गए थे जब फसल कटनी थी या कारखाने के पहिए घूमने थे? मज़दूरों की श्रम शक्ति के बगैर कोई मूल्य पैदा नहीं होता, मशीनें दानव नज़र आती हैं, एक नए पैसे का मुनाफ़ा पैदा नहीं कर सकतीं जो इन धन्ना सेठों की जीवन दायिनी है जिसके बगैर सरमाएदार ऐसे तड़पता है जैसे जल बिन मछली!
सरकार के लिए भले मुआवज़े कि फाइल बंद हो गई हो, मज़दूरों के लिए खुली हुई है। मज़दूरों की फाइल तो उसी दिन बंद होती है जिस दिन वे संघर्ष करने, लड़ने से हार मान लेते हैं। उनकी जिंदगी ही उनकी फाइल है। हर अधिकार मज़दूरों ने अपनी जान की बाज़ी लगाकर, लम्बी लड़ाईयां लड़कर ही हांसिल किया है और मुआवज़े का ये प्रश्न भी कुछ अलग नहीं रहने वाला, ऐसा लग रहा है। मज़दूरों को बन्द फाइलें खुलवाना भी आता है। इतिहास में जाने कितनी बार खुलवाई हैं। सवाल उन संगठनों से भी इतिहास ज़रूर पूछेगा जो हर भाषण में सर्वहारा हित का चैंपियन होने के दावे करते हैं, उनके लिए लड़ने और उन्हें लड़ने के लिए प्रेरित करने के लिए लम्बी लम्बी आग उगलती तक़रीरें करते हैं। सर्वहारा वर्ग, जो आज अपमानित, पराजित, ठगा गया, तहश-नहश कर दिया गया महसूस कर रहा है जो स्वाभाविक भी है; के साथ खड़े होने, उसे टूटने से बचाने के लिए 990 शहीद मज़दूरों को न्यायोचित मुआवजा दिलाना, एक टेस्ट केस है। आज भी सिर्फ़ भाषणों से, लम्बी चौड़ी तक़रीरों से उनका पेट भरना एक अक्षम्य आपराधिक कार्य कहलाएगा। ये 990 मज़दूर ही असली कोरोना योद्धा हैं जिनके लिए सरकारें पचास पचास लाख का मुआवजा देने का दावा कर रही हैं जो कि ज़रूरी भी है। इन मज़दूरों को कम से कम 10 लाख प्रति परिवार का मुआवजा मिलना ही चाहिए और यदि ऐसा नहीं हो पाता तो ये उन मजदूरों कि हार नहीं होगी जो अब मौजूद नहीं हैं बल्कि ये मज़दूर वर्ग के लिए लड़ने का दावा करने वालों कि हार होगी। आईये, मज़दूरों के लिए न्याय दिलाने कि इस जंग में सब इकट्ठे आएँ। देश व्यापी संयुक्त प्रखर जन आन्दोलन ‘लॉक डाउन के शहीद मज़दूरों को मुआवजा दो’ की मांग पर छेड़ा जाए और वो तब तक ज़ारी रहे जब तक कि ये घोर जन विरोधी, मज़दूर विरोधी मोदी सरकार मुआवज़े का भुगतान नहीं कर देती।
विस्थापित मज़दूरों का बहुमूल्य डेटा एकत्र कर संयोजित करने और इस लेख के लिए उसे इस्तेमाल करने कि अनुमति प्रदान करने के लिए स्वान (Stranded Workers Action Network) के साथियों का आभार।
[यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 7 / नवंबर 2020) में छपा था]
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