18 सितंबर 2020
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 31 अगस्त 2020 को दिल्ली में करीब 48 हज़ार झुग्गी-झोपड़ियों, जो करीब 140 कि.मी. की दूरी तक रेलवे लाइनों के बगल में बसी हैं, को 3 महीनों के अंदर हटाने का आदेश दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश में यह भी कहा है कि किसी भी कोर्ट द्वारा इन झुग्गियों को हटाने पर रोक/स्टे नहीं लगाया जा सकेगा और इस मुद्दे पर कोई भी अंतरिम आदेश प्रभावी नहीं रहेगा, और इन्हें हटाए जाने की प्रक्रिया में कोई भी “राजनीतिक या अन्य दखल-अंदाज़ी” नहीं होनी चाहिए। जस्टिस अरुण मिश्रा सहित तीन जजों की बेंच ने यह आदेश Writ Petition(s)(Civil) No(s). 13029/1985 में केंद्र की मोदी सरकार के रेल मंत्रालय द्वारा दायर हलफ़नामे के जवाब में दिया, जिसमें मंत्रालय ने इन झुग्गियों और उसके वासियों को रेलवे लाइनों के अगल-बगल में फैली गंदगी का कारण बताते हुए इन्हें हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी। हलफ़नामे में रेल मंत्रालय ने यह भी बताया कि वह इन झुग्गियों को हटाने के लिए पहले से ही स्पेशल टास्क फ़ोर्स का गठन कर चुकी है। भयंकर महामारी और आर्थिक मंदी के बीच पहले से ही जीवन-आजीविका के गहरे संकट से जूझ रहे मजदूर वर्ग के लिए यह आदेश घातक साबित होगा, जिससे कम से कम 2.5 से 10 लाख या शायद उससे भी अधिक गरीब एवं मेहनतकश जनता बेघर और आवास से वंचित कर दी जाएगी।
महामारी एवं लॉकडाउन की सबसे बड़ी मार झेल रही मजदूर आबादी ही इन झुग्गी-झोपड़ियों की निवासी है जिनके पक्ष की सुनवाई हुए बिना ही उनकी बस्तियों को उजाड़ने का यह आदेश दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में झुग्गी-वासियों के पुनर्वास का भी कोई ज़िक्र नहीं किया गया है जो इन वासियों के मौलिक अधिकारों का साफ़ उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट की ही पांच जजों की बेंच ने 1985 में ओल्गा टेलिस फैसले में आजीविका एवं आवास के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 यानी जीवन के अधिकार के अंतर्गत मौलिक अधिकार माना था, परंतु इस आदेश में उस फैसले का कोई ज़िक्र नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त दिल्ली हाई कोर्ट ने 2010 में सुदामा सिंह फैसले में यह स्पष्ट बताया था कि बस्तियां हटाने से पहले वहां के वासियों का एक सर्वे के आधार पर सार्थक रूप से पुनर्वास सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। दिल्ली में झुग्गियां हटवाने एवं पुनर्वास के मामलों के लिए इस फैसले का वर्तमान कानून के रूप में उपस्थित होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के आदेश में पुनर्वास एवं इस फैसले का भी कोई ज़िक्र नहीं है।
गौरतलब है कि झुग्गियों को 3 महीनों के अंदर ही हटाने का यह आदेश ऐसे समय में आया है जब पूरी दुनिया एक महामारी का सामना कर रही है और चारों तरफ कोरोना संक्रमण का खतरा व्याप्त है। ऐसे में झुग्गी-वासियों के लिए पुनर्वास की कोई संभावना तो नहीं ही है, बल्कि आदेश के लागू होने से उनकी जान पर भी खतरा आ जाएगा। मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) इस आदेश की निंदा करता है और यह मानता है कि ऐसा आदेश अमानवीय होने के साथ-साथ संवैधानिक, विधिक एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से भी असंगत है।
केंद्र एवं दिल्ली की वर्तमान व पूर्व सरकारें तमाम चुनावों में ‘जहां झुग्गी वहीं मकान’ के खोखले वादे करती आई है परंतु असलियत में उन्हीं की पूंजी-पक्षीय नीतियों एवं लापरवाही के कारण मजदूर वर्ग इन झुग्गियों में दयनीय परिस्थितियों में जीवन गुज़ारने के लिए मजबूर है। इन सभी सरकारों ने इतने दशकों से आवास एवं पुनर्वास की समस्या को हल करने के बजाए झुग्गियों को लगातार उजाड़ कर उसे और बढ़ाया है। दिल्ली सरकार ने 11 सितंबर की अपनी प्रेस कांफ्रेंस में यह बताया है कि उसके पास 45,857 मकान खाली पड़े हैं जो झुग्गी-वासियों के लिए ही भिन्न नीतियों के तहत बनाए गए थे, परंतु इसके बावजूद इतने सालों से अभी तक झुग्गी-वासियों के पुनर्वास के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाया गया। इस फैसले के बाद भी यह सरकारें एक दूसरे पर उंगलियां उठाने से ज़्यादा और कुछ नहीं कर रही हैं। मासा केंद्र एवं दिल्ली सरकार के इस मजदूर-विरोधी रवैये की भी भर्त्सना करता है।
गौरतलब है कि रेलवे की ज़मीनों पर झुग्गियों को उजाड़ने के कदम मोदी सरकार की रेलवे निजीकरण की नीति के तहत ही तीव्रता के साथ उठाए जा रहे हैं। रेल भूमि विकास प्राधिकरण (RLDA) के ज़रिए केंद्र सरकार रेलवे की ज़मीनों को खाली कर उन्हें निजी हाथों में सौंपने की योजना तेज़ी से लागू कर रही है और दिल्ली में भी शकूर बस्ती, अशोक विहार, किशनगंज-करोल बाग जैसे इलाकों में यह प्रक्रिया जारी है। मासा मोदी सरकार द्वारा रेलवे के निजीकरण की नीति और इसके तहत उठाए गए तमाम मजदूर-विरोधी व जन-विरोधी कदमों के खिलाफ सख्त विरोध दर्ज करता है और इन्हें वापस लेने की मांग करता है।
अतः मासा इस अमानवीय आदेश की निंदा व्यक्त करते हुए यह मांग करता है कि सुप्रीम कोर्ट अपने इस आदेश को वापस ले, एवं अपनी तरफ़ से केंद्रीय रेल मंत्रालय व दिल्ली सरकार भी जनपक्षीय व मानवीय नज़रिए से इस आदेश पर शीघ्रातिशीघ्र पुनर्विचार याचिका दायर करें। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में प्रभावित/पीड़ित पक्ष को भी सुनने का मौका दिया जाए और रेलवे द्वारा ऐसी किसी भी भूमि को व्यापार हेतु कॉर्पोरेट क्षेत्र को दिए जाने पर रोक लगाई जाए। मासा यह भी मांग करता है कि मोदी सरकार की रेलवे के निजीकरण की नीति और उसके तहत उठाए जा रहे तमाम कदमों पर अविलंब रोक लगे।
कोऑर्डिनेशन कमेटी,
मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (MASA)
मासा के घटक संगठन –
ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल (AIWC) / ग्रामीण मजदूर यूनियन, बिहार / इंडियन काउंसिल ऑफ़ ट्रेड यूनियंस (ICTU) / इंडियन फेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियंस (IFTU) / IFTU सर्वहारा / इंकलाबी मज़दूर केंद्र / इंकलाबी मज़दूर केंद्र, पंजाब / जन संघर्ष मंच हरियाणा / कर्नाटक श्रमिक शक्ति / मज़दूर सहयोग केंद्र, गुड़गांव-बावल / मज़दूर सहयोग केंद्र, उत्तराखंड / मज़दूर समन्वय केंद्र / सोशलिस्ट वर्कर्स सेंटर (SWC), तमिल नाडु / स्ट्रगलिंग वर्कर्स कोऑर्डिनेशन कमिटी (SWCC), पश्चिम बंगाल / ट्रेड यूनियन सेंटर ऑफ़ इंडिया (TUCI)