प्रशांत भूषण के बारे में कुछ वैचारिक बातें

अपने कल के बयान में प्रशांत भूषण पूंजीवादी जनवादी व्यवस्था की अंतरात्मा के रखवाले की भूमिका में खुलकर आये। दिक्कत यह है कि यह दौर अंदर से सड़ चुके पूंजीवादी जनतंत्र के ऊपर (उसके अंदरूनी ऐतिहासिक पतन के परिणामस्वरूप जन्मे) फासीवाद के पूर्ण विजय का है और इस दौर में विजयी फासीवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के पास न तो कोई जनवादी अंतरात्मा मौजूद है और न किसी ऐसी अंतरात्मा के रखवाले की जरूरत ही है। प्रशांत भूषण की सुप्रीम कोर्ट में चल रही लड़ाई का यही सार है, कुल मिलाकर उसका यही द्वंदात्मक स्वरूप है। वे आज के सुप्रीम कोर्ट को पुराने की भूमिका में देखना और लाना चाहते हैं (कम से कम बाह्य तौर पर तो यही दिखता है) जो कि अब सम्भव नहीं है। हां, पुराने चोले को पूरी तरह उतारने में “नए अवतार” को थोड़ी-बहुत हिचकिचाहट हो रही है और प्रशांत भूषण ने ठीक इसी को ताड़ते हुए, यानी, समय की इस नजाकत (उपरोक्त हिचकिचाहट) को समझते हुए यह चुनौती दे डाली कि अगर हिम्मत है तो न्याय का पूंजीवादी जनवादी पुराना चोला पूरी तरह उतार कर या फेंक कर दिखाओ।

दरअसल प्रशांत भूषण यह नहीं समझते और एक बुर्जुआ उदारवादी होने की वजह से समझ भी नहीं सकते कि इतिहास के रंगमंच से स्वयं पूंजीवाद की विदाई का यह ऐतिहासिक काल है, क्योंकि यह पूरी तरह से, यानी, अंदर और बाहर दोनों तरफ से, पूरी तरह सड़ चुका है, यह खुद अपने ही अंगों (जनतांत्रिक संस्थाओं) के भक्षण के लिए बाध्य है और हर बीते पल के साथ इसके ऊपर का जनवादी खोल भी तार-तार हो पूरी तरह उतरता जा रहा है। पूंजीपति वर्ग की तानाशाही अब एकमात्र नग्नावस्था में ही बनी रह सकती है, एकमात्र अति प्रतिक्रियावादी व्यवस्था के रूप में ही अब इतिहास के रंगमंच पर विराजमान रह सकती है। मोदी मार्का फासीवादी दौर में इसका रूपांतरण या पश्चगमन इस अर्थ में स्वाभाविक ही नहीं इसकी नैसर्गिक गति का ही परिणाम है। अगर हम थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि किसी जादुई तरीके से मोदी-शाह मार्का शासन व सरकार चुनाव में पराजित हो जाता है, तब भी पूंजीवादी जनवाद के पुराने दौर की, यहां तक कि 2014 से पहले के दौर के पूंजीवादी जनतांत्रिक दौर की, वापसी असम्भव है। चाहे मोदी-शाह-योगी जैसे फासिस्ट शासन में न भी हों, आरएसएस सत्ता में सीधे न भी हो और भाजपा पराजित भी हो जाये, फिर भी अब “पुराना” सुप्रीम कोर्ट, पुराना ‘न्याय’ जो तब भी बुरी तरह कटा-छंटा ही था, स्वयं ‘जनतंत्र’ और इसकी अंतरात्मा का पुनर्जन्म नहीं हो सकता, जब तक कि सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश अवाम तथा सम्पूर्ण शोषित-उत्पीड़ित जनता पूंजीपति वर्ग को इतिहास के रंगमंच से बलपूर्वक और सम्पूर्णता में धकिया कर हटा नहीं देती है और सर्वहारा जनतंत्र की स्थापना नहीं कर देती है। इसके अलावा अन्य कोई बात अब बेमानी है या कम से कम उतने महत्व की नहीं है जितनी कि प्रशांत भूषन पेश कर रहे हैं। फासीवादी दौर से लड़ते हुए जनता को चाहे जिन अंतर्वर्ती मंजिलों से गुजरना पड़े, जिन पड़ावों पर डेरा डालना पड़े और चाहे जिन भी नुकीले मोड़ों से भरे दुर्दम्य हालातों और अवस्थाओं से टकराना व गुजरना पड़े, हम उसके बारे में आज मुकम्मल तथा निश्चित रूप से बात नहीं कर सकते है, लेकिन मौजूदा अंधकारमय दौर का वाकई अस्थाई समाधान भी विपक्षी पार्टियों की चुनावी जीत में नहीं है और स्वयं (बड़े) पूंजीपति वर्ग के पास भी 2014 के पूर्व के ‘जनतंत्र’ के चोले में वापस लौटने की न तो कोई मंशा है, न ही कोई विकल्प। जहां तक जनता का सवाल है, तो उसके लिए भी अब 2014 के पूर्व के पूंजीवादी जनतंत्र में लौटने का विकल्प एक प्रतिक्रियावादी विकल्प ही माना जायेगा, क्योंकि वह कोई विकल्प है ही नहीं बल्कि एक और भी ज्यादा भयंकर फासीवादी दौर के आगमन की पूर्वपीठिका का काम करेगा। एकाधिकारी पूंजीवाद के विकास के इतिहास के मौजूदा मोड़ पर पूंजीपति वर्ग को समाज की सत्ता से बेदखल किये वगैर न तो जनतंत्र सम्भव है, न ही जनवादी अधिकारों का कोई वजूद सम्भव है और न ही प्रशांत भूषण जैसे समाज की जनतांत्रिक अंतरात्मा के रखवालों की ही कोई आवश्यकता शेष रहने वाली है।

एक और बात है जिस पर विचार किया जाना जरूरी है। जैसे प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट को खुलकर अपना पुराना चोला उतारकर फेंकने की चुनौती दी है, वैसे ही उनके सामने भी एक चुनौती दरपेश है कि वे अपना फैन बन रही बुद्धिजीवी जनता के समक्ष यह सच्चाई स्वीकार करें कि ‘जनतंत्र’ की रक्षा के उनके इरादे और संघर्ष की सीमा क्या है। उन्हें बताना पड़ेगा और इतिहास का अगला पड़ाव जल्द ही उनके समक्ष वह यक्ष प्रश्न खड़ा करेगा कि वे वास्तव में सुसंगत जनतंत्र के पक्ष में खड़े हैं या फिर पूंजीवादी सीमा में कैद न्याय व्यवस्था के पहरेदार मात्र हैं। फिलहाल उन्होंने समय की नजाकत को बखूबी समझते हुए सुप्रीम कोर्ट को कटघरे में खड़ा करने में सफलता पाई और निश्चय ही इससे फासीवाद विरोधी शक्तियों को तत्काल कुछ राहत प्राप्त हुई है और पूंजीवादी न्याय व्यवस्था की सीमा क्या है इसे समझने में जनता की मदद की है, लेकिन यह सब अर्थहीन है जब तक कि उपरोक्त बातें स्पष्ट न हों, क्योंकि बात अब यहीं रुकने वाली नहीं है जहां प्रशांत भूषण आज खड़े हैं। फासीवाद और सड़े-गले पूंजीवाद के वर्तमान (ऐतिहासिक) दौर और इस दौर के प्रत्येक चरण में जनतंत्र पर होने वाला और भी जघन्य हमला उनकी और उन जैसे लोगों की पग-पग पर परीक्षा लेगा, खासकर तब जब सर्वहारा वर्ग राजनीति के मंच पर जनतंत्र के लिये धावा बोलेगा और इतिहास में अपने उस कर्तव्य और मिशन को पूरा करने निकलेगा जिसके लिए इतिहास ने उसे चुना है और जिसके लिए जल्द ही उसे बाध्य करने वाला है।

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