बेरोजगारी, आर्थिक मंदी और पूंजीवाद : आंदोलनरत युवाओं के नाम

रोजगार का सम्बंध उद्योग और अर्थव्यवस्था के सतत विकास से, यानी, दूसरे शब्दों में, आर्थिक गतिविधियों में मौजूद चहल-पहल और इसकी चहुंमुखी वृद्धि से है। मुनाफा की अंधी दौड़ पूंजीवाद की रूह होती है। पूंजीवाद में जो भी चीज़ होती या की जाती है उसकी यही प्रेरक शक्ति है। समाज के लिए इसके एक हद के बाद अत्यंत भयानक और घातक परिणाम आते हैं और आये हैं। रोजगार सृजन पर भी इसके अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं और पड़े हैं। कैसे?

अत्यंत उच्च तकनीक और अतिविकसित मशीनों के उपयोग के जरिये ज्यादा से उत्पादन क्षमता हासिल करना और मज़दूरी पर कम से कम खर्च करके ज्यादा से ज्यादा मुनाफा हासिल करना इसकी मूल प्रकृति में शामिल है। यही इसकी मूल प्रवृत्ति है। कारण? कारण भी वही, यानी मुनाफा की होड़। पूंजी के बीच की प्रतिस्पर्धा। संकेन्द्रण और केंद्रीकरण के वे नियम जो पूंजी के विकास के आम नियम हैं जिनके अधीन यह पूंजीवादी व्यवस्था काम करती है। इसी से मुनाफा को सतत बढ़ाते हुए अधिकाधिक बनाते जाने की लालसा और प्रवृत्ति पैदा हुई है। इसका परिणाम यह होता है कि ग्रोथ दर धीरे-धीरे रोजगार सृजन से अलग और जुदा होता जाता है। इसे प्रायः जॉबलेस ग्रोथ कहा जाता है। यह शुरू से ही पूंजीवादी व्यवस्था में काम करती है, लेकिन आजकल यही मुख्य ट्रेंड है, विश्वव्यापी ट्रेंड, यानी, दशा व दिशा है। यह विश्वपूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अतिविकसित हो जाने का और अपने ही विकास के भार से लरज कर ढहने का भी एक प्रमाण या उदाहरण है। क्यों? क्योंकि इस कारण से मज़दूरी पर खर्च लगातार घटता है जो अंततः मांग की कमी को पैदा करता है या किया है। इसी से पूंजीवाद में मांग के गिरने की प्रवृत्ति पैदा लेती है जो इसकी एक अंतर्भूत प्रवृत्ति है। एक खास सीमा तक मज़दूरी पर होने वाले खर्च में गिरावट के बाद एक ऐसी स्थिति आती है कि मांग ऐसी गिरती है और इतनी अधिक गिरती चली जाती है कि फिर उठने का नाम ही नहीं लेती, जैसा कि आज कल हो रहा है। इस तरह मांग पैदा करने की क्षमता पूंजीवाद में धीरे-धीरे कम और फिर खत्म होने लगती है।

ज्यादा से ज्यादा मुनाफा के लिये पूंजीवाद के अंतर्गत जो रास्ता लिया जाता है उससे मुनाफा पर भविष्य में सदैव के लिए संकट मंडराने लगता है, जैसा कि आज कल दृष्टिगोचर हो रहा है। मतलब एक स्थायी संकट में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था चली जाती है जैसा कि आज हुआ है। देश में, और पूरी दुनिया में भी। इसलिए न तो भारत में इसका कोई निदान है और न ही पूरी दुनिया में, जब तक कि पूरे विश्व में पूंजीवाद को खत्म नहीं कर दिया जाता है। अगर निदान होगा या है भी तो भारी कीमत पर और जनता के श्रम तथा सामाजिक धन व संपत्ति तथा प्रकृति की अविश्वसनीय लूट-खसोट के आधार पर और इसीलिए वह क्षणभंगुर भी होगा। इसलिये नतीजा अगली बार एक बार फिर और लूट-खसोट, पहले से भी ज्यादा। एक बार फिर, नतीजा गरीबी और बेरोजगारी में और वृद्धि। अगला नतीजा, मांग में और कमी, भयंकर और स्थाई रूप से। पूंजी निवेश के और भी लाले, कभी न खत्म होने वाले। मुनाफा इससे बढ़ता है, परन्तु बची-खुची सामाजिक संपदा और उत्पादन में लगे श्रम की भी भारी लूट-खसोट के बल पर, लेकिन इससे ऐतिहासिक तौर पर मुनाफा पर सदा के लिये एक स्थायी संकट छा जाता है, क्योंकि एक सीमा के बाद मांग में पूरी तरह और एक स्थायी कमी का आगाज़ हो जाता है। यही कारण है कि एक स्थाई संकट की गिरफ्त में आज समाज चला गया है। मांग लुढ़क कर पाताल लोक जा चुकी है और उसे वापस ले आने के लिए कुछ भी करना अब पूंजीवादियों के लिए सम्भव नहीं है, क्योंकि मुनाफे की व्यवस्था को हटाए बिना अब कुछ होगा नहीं और मोदी या कांग्रेस जैसी पूंजीपरस्त सरकार भला यह क्यों करेगी!

इसलिये आज की स्थिति यह है कि जब तक मुनाफा के ध्येय को सामाजिक उत्पादन से अलग नहीं किया जाएगा, अब कोई निदान सम्भव नहीं है। यह एक दलदल जैसी स्थिति का परिचायक है। इससे निकलने का पूंजीवादी रास्ता यानी शोषण की तीव्रता को बढ़ाकर इससे निदान प्राप्त करने का रास्ता एक और गहरे दलदल की ओर ले जाएगा। और ले जा रहा है, जैसा कि पिछले दो दशक से हम देखते आ रहे हैं। आज वह स्थिति काफी उथल-पथल पैदा करता दिख रहा है। समाज के लोगों के सामने इसका सबसे वीभत्स रूप जब से सामने आया है तब से हमें युवाओं में बेचैनी देख पा रहे हैं।

इसी बीच कोविद-19 ने मांग को लगभग पूरी तरह जमीन पर सुला दिया है। और ग्रोथ रेट औंधे मुंह गिर चुका है। अब यह गिरावट एक विश्वव्यापी परिघटना बन चुकी है।हमारे देश के लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि मोदी सरकार कुछ कर नहीं क्यों पा रही है? उपरोक्त बातें इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश में कही गयीं हैं। कांग्रेस और भाजपा या लेफ्ट किसी के वश में पूंजीवादी व्यवस्था की इस दिशा को बदलना सम्भव नहीं है। जब मांग नहीं उठेगी तो अर्थव्यवस्था आर्थिक मंदी में आ जाती है। और मांग गिरने की प्रवृत्ति पूंजीवाद में अंतर्भूत है जैसा कि ऊपर संक्षिप्त में बताने की कोशिश की गई है। यह प्रक्रिया यानी मुनाफा से प्रेरित उत्पादन यानी एकमात्र पूंजी के लिए पूंजी लगाने से प्रेरित उत्पादन व्यवस्था की यही उपरोक्त लाक्षणिकता है जो पूंजीवाद में अंतर्भूत है। पूंजीवाद के रहते इसे दूर करना सम्भव नहीं है।

दो दशक पूर्व तक आर्थिक संकट का आगमन periodical था, यानी, कुछ वर्षों के अंतराल पर आर्थिक मंदी आती थी और बीच में आर्थिक विकास यहां तक कि कभी-कभी तीव्र आर्थिक विकास का काल रहता था। इस कारण बेरोजगारी आदि भी इसी तरह घटती और बढ़ती रहती थी। लेकिन आज आर्थिक मंदी स्थाई व चिरकालिक हो चुकी है और विकास या पूंजी निवेश के मौके कम होते हुए पूरी तरह खत्म होने की उन्मुख हैं, क्योंकि पूंजीवादी विकास के एक स्तर के बाद और इसी के साथ शोषण की तीव्रता के एक सीमा तक बढ़ जाने के बाद इसमें मांग एकदम से गिर गयी है और इसके उठने के आसार और आधार दोनों बुरी तरह संकुचित हो चुके हैं। ऐसे में बेरोजगारी के कम होने का तो खैर सवाल ही नहीं है, अपितु इसमें ह्रास की संभावना या कहें तीव्र ह्रास की संभावना ही अधिक है। बेरोजगारी में सतत वृद्धि का ही अनुमान सभी तरह धारा के अर्थशास्त्री कर रहे हैं, क्योंकि स्थाई आर्थिक मंदी अब एक सच्चाई है। युवाओं को इन बातों पर भी अपना ध्यान केंद्रित करना होगा, नहीं तो वे कभी नहीं समझ पाएंगे कि रास्ता क्या है।

मौजूदा दौर की मंदी के अद्यतन आंकड़ों पर हो रही चर्चा या हाहाकार की बात करें तो इन उपरोक्त बातों से आज के संकट के मर्म और कारणों दोनों की एक स्पष्ट झलक दिखाई दे देती है। आइये, संक्षेप में इस पर बात करें।

चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही के विकास दर के आंकड़े (-24%) आने के बाद न्यूयार्क की रेटिंग एजेंसी ने वर्ष 2020-21 के लिये ग्रोथ रेट में साढ़े दस फीसदी की गिरावट का अनुमान पेश किया है, वही इंडिया रेटिंग एजेंसी ‘फिच’ ने साढ़े ग्यारह फीसदी से भी अधिक (11.8%) गिरावट का अनुमान लगाया है। लेकिन निवेश बैंकों की दृष्टि में यह गिरावट और अधिक हो सकती है। अमेरिकी निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्स ने 14.8% गिरावट की बात कह दी है जबकि इसके पहले का पूर्वानुमान 11.8 फीसदी का था। रेटिंग एजेंसियों ने यह भी मान लिया है और वे खुलेआम कह भी रही हैं कि अगले दो वर्षों तक उम्मीद की कोई किरण नहीं फूटने वाली है। वे सभी यह भी मानती हैं कि सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है। यानी, उद्योगों की पस्तहालत और इसीलिए बेरोजगारी का आलम दोनों भयंकर स्तर पर बने रहेंगे। सवाल तो यह है कि क्या दो वर्षों के बाद कोई उम्मीद की रोशनी आने वाली है? पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का भी मानना है कि कोई बहुत ज्यादा उम्मीद जैसी बात नहीं है। इस गिरे आत्मविश्वास का फिलहाल कारण यह है कि -23% की वृद्धि दर की किसी ने कल्पना नहीं की थी। दूसरे, यह (माइनस) आंकड़ा तब है जब असंगठित क्षेत्र का आंकड़ा नहीं आया है, जबकि असल मार तो असंगठित क्षेत्र पर ही पड़ी है। शायद इसलिए भी पूंजीवादी हलकों में पूरी तरह मुर्दनी और निराशा छाई हुई है।

जैसा कि पहले कहा गया है, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक स्थायी संकट में है और उबरने के रास्ता इसकी कब्र से होकर जाता है। क्या देश के युवा पूंजीवाद को खत्म करने के लिए आगे आगे बढ़ेंगे ताकि आर्थिक मंदी की पूंजीवादी बीमारी से और इसलिये बेरोजगारी की समस्या से हमेशा के लिए छुट्टी और मुक्ति मिल सके?

अजय सिंहा

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

Create a website or blog at WordPress.com

Up ↑