कुछ ऐसे “शानदार” और “उत्साहवर्धक” नजारे रहे कल रात में। सवाल है इसके माध्यम से क्या हम देश के युवाओं के राजनीतिक मूड का अंदाज़ा लगा सकते हैं? हा, जरूर, लेकिन ऐसा करते वक्त थोड़ी ईमानदारी की जरूरत होगी। पहले सोशल मीडिया की बात करें, तो पूरे देश में “9बजे 9मिनट” ट्रेंड कर रहा था। इसके अलावे “no more bjp” भी 10 लाख+ tweets के साथ ट्रेंड कर रहा था जैसा कि नीचे के स्क्रीनशॉट में दिख रहा होगा, जो निस्संदेह दिखाता है कि राजनीतिक मूड में थोड़ा फर्क आ रहा है। लेकिन फर्क थोड़ा ही है, क्योंकि इसमें लेफ्ट या एन्टी-बीजेपी सर्किल की संगठित ताकत भी शामिल है। यह तो एक बात हुई।दूसरे, “9बजे9मिनट” की जमीनी कार्रवाई की बात सच्चाई से करें, तो हम पाते हैं कि 5 तारीख और 9 तारीख में एक बड़ा फर्क है जो हमारी आंखों से ओझल होने लायक कतई नहीं है। फर्क यह है कि 9 तारीख में आम युवा वर्ग की 5 सितम्बर वाली स्वयंस्फूर्तता की शक्ति नहीं दिखी। ज्यादातर लेफ्ट के बैनर और चेहरे दिखे और इसमें (दिखने व दिखाने में) एक होड़ भी दिखी। कुल मिलाकर लेफ्ट की काडर शक्ति का ये प्रदर्शन साबित हुआ, जिसे यहां-वहां कुछ जगहों पर यानी कुछ हद तक आम युवाओं का भी समर्थन प्राप्त था। कुछेक जगहों पर स्वयस्फूर्तता भी दिखी, लेकिन इसकी मात्रा 5 सितम्बर की तुलना में काफी-काफी कम थी। इसलिए एक चीज़ साफ है कि, जैसा मैंने पहले भी लिखा है, स्वयंस्फूर्त उभार के शीर्ष पर सवार होने में कोई खास उल्लेखनीय सफलता हम इसमें नहीं पा सके हैं और यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिए कि ऐसी कोई सफलता इतनी जल्दी हासिल होने वाली चीज है। इसका सही-सही आकलन करना जरूरी है, नहीं तो आम युवाओं के मूड को समझने में, खासकर ‘लेफ्ट’ या ‘क्रांतिकारी लेफ्ट’ कॉल के प्रति उनके आकर्षण को मापने में हम कल के प्रोग्राम की तथाकथित ‘सफलता’ से भ्रम में पड़ जाएंगे। यह समझना जरूरी है कि अभी दिल्ली दूर है और बहुत-बहुत मशक्कत की जरूरत है और चेहरा या बैनर चमकाने की अतिशय लालसा से इसमें असफलता ही हाथ लगेगी। खासकर लेफ्ट क्रान्तिकारी ताकतों को खूब बारीकी से इन हालातों पर नजर रखनी चाहिए और जमीन पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि उचित अवसर पर संकटकाल में अक्सर पैदा होने वाली स्वयंस्फूर्तता पर संगठित क्रांतिकारी राजनीति आसीन हो सके। अगर हम लेफ्ट की संगठित कैडर की ताकत के प्रदर्शन को ही युवाओं का स्वयंस्फूर्त मूड मानते हुए यह समझ लेंगे कि हमने युवाओं को अपनी ओर ले आने में सफलता पाई है, तो इससे हम एक पूरी तरह गलत निष्कर्ष निकाल लेंगे। तो क्या कल की “9बजे9मिनट” की कार्रवाई की ‘सफलता’ के कोई मायने नहीं हैं? जरूर है और बहुत अधिक है, अगर इसे उचित परिप्रेक्ष्य में समझा जाए तो। इसकी ‘सफलता’ से सर्वप्रथम यह साबित होता है कि हम देश में एक ताकत हैं और अगर यह ताकत क्रांतिकारी राजनीति और लेनिनवादी रणनीति व कार्यनीति की वाहक शक्ति बन जाये और साथ में युवाओं सहित जनता की आर्थिक बदहाली से उपजी बेचैनी तथा हलचल को अपने संयुक्त देशव्यापी क्रांतिकारी हस्तक्षेप से एक खास दिशा में उचित अवसर पर गियर अप करने के लिए जरूरी दक्षता हासिल कर लें (जिसके लिए सर्वप्रथम हमें इनकी स्वयंस्फूर्त हलचल के शीर्ष पर सवार होना और इसका वास्तव में अग्रदल बनना होगा) तो हम जल्द ही कोई युगांतरकारी परिणाम को अंजाम दे सकते हैं। जाहिर है, इसके लिए उचित स्तर की और एक बड़े पैमाने के राजनीतिक हस्तक्षेप की जरूरत होगी और क्रांतिकारी खेमे को वैसी ताकत बननी होगी। लेकिन सबसे पहले 9 सितम्बर की आहूत “9बजे9मिनट” प्रोग्राम की ‘सफलता’ को बढ़ा चढ़ा कर आंकने के लोभ को संवरण करना होगा। कल रात की सफलता में पांच तारीख वाली स्वयस्फूर्तता नहीं थी, यह सच है। और इससे यही सबक मिलता है कि आगे हमारे लिए काफी कठिन चढ़ाई है और हाड़तोड़ मिहनत की जरूरत है और साथ में एक अत्यंत अल्पसंख्या वाली क्रांतिकारी शक्ति से हमें अपने आपको बहुमत जनता की ताकत में बदलने की लेनिनवादी नीति का पूरी काबिलियत से अनुसरण करने की भी।













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