राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 : शिक्षा के विध्वंस का रोडमैप

एस. राज //

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP)[*] को 29 जुलाई 2020 को भाजपा सरकार की केंद्रीय कैबिनेट द्वारा मंजूरी दे दी गई। इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पारित पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 और राजिव गांधी सरकार की द्वितीय राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986, जिसने शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजी के लिए दरवाजे खोले और जिसमें नवउदारवादी अजेंडा के तहत किए गए 1992 के सुधार के बाद शिक्षा का और अधिक बाजारीकरण हुआ, के बाद 2020 की यह नीति देश की तीसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति है जो 1986 की नीति की जगह लेगी। जाहिर है, NEP को मेनस्ट्रीम मीडिया और भाजपा के आईटी सेल द्वारा खूब सराहा गया। यहां तक कि प्रधानमंत्री ने NEP को ‘नए भारत’ की नींव रखने वाली नीति कहा। लेकिन NEP, उसके प्रभावों और इसे पारित करने के पीछे सरकार की मंशा का ठोस मूल्यांकन करने के लिए हमें उसके भव्य शब्दों और जटिल वाक्यांशों के पार जाकर बारीक निरक्षण के साथ गूढ़ार्थ को ढूंढना जरूरी है

शिक्षा, जो कि संविधान के समवर्ती सूची का हिस्सा है यानी जो केंद्र और राज्य दोनों के अधिकार-क्षेत्र में आता है, पर एक राष्ट्रव्यापी नीति को जिस तरह से, देश के संघीय ढांचे पर चोट करते हुए, संसद से बचा कर कैबिनेट द्वारा पारित कराया गया, वह तो केवल इसे पारित करने के गैर-जनतांत्रिक तरीके को दर्शाता है। NEP के जरिए इस फासीवादी सरकार का असली मकसद शिक्षा का निजीकरण-बाजारीकरण, अनौपचारिकरण, भगवाकरण और अति-केंद्रीकरण कर उसे पूरी तरह बर्बाद करना है।

अति-केंद्रीकरण और शिक्षा पर कब्जा

NEP में सबसे बड़े बदलावों में से एक है हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया (HECI) की स्थापना जो UGC/यूजीसी, AICTE/एआईसीटीई, NAAC/नैक व अन्य संबंधित संस्थानों की जगह लेगा, मेडिकल और लॉ की शिक्षा के क्षेत्र के अपवाद के साथ। HECI का संचालन केंद्रीय सरकार द्वारा नियुक्त 12 सदस्यीय समिति करेगी जिसमें से केवल 2 ही शिक्षाविद होंगे। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लगभग सारी भूमिका इस नई संस्था के ही भिन्न अंगों द्वारा निभाई जाएगी, जैसे ग्रांट/फंड देने के लिए हायर एजुकेशन ग्रांट्स काउंसिल, विनियम के लिए नेशनल हायर एजुकेशन रेगुलेटरी काउंसिल, अक्रेडिटेशन के लिए नेशनल अक्रेडिटेशन काउंसिल और परिणाम मापदंड तैयार करने के लिए जनरल एजुकेशन काउंसिल। अतः केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण में रहने वाली HECI देश में उच्च शिक्षा को नियंत्रित करने वाली एकमात्र सर्वशक्तिशाली संस्था बन जाएगी। (अनुच्छेद 18, NEP 2020)

NEP के तहत सभी शिक्षण संस्थानों में बोर्ड ऑफ गवर्नर (गवर्नर मंडल) का गठन किया जाएगा। यह सरकार की एक दीर्घकालिक योजना है जिसके तहत 2035 तक सभी शिक्षण संस्थानों में एक ‘स्वतंत्र’ गवर्नर मंडल की स्थापना होगी जिसके पास उस संस्थान को बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के चलाने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी। यह तो एक बात है कि अब तक मुख्यतः कॉर्पोरेट जगत में इस्तेमाल किए जाने वाले ‘बोर्ड ऑफ गवर्नर’, जो सर्वप्रथम मुनाफे को केंद्र में रख कर कंपनियों को चलाते हैं, को अब शिक्षा के क्षेत्र में उतारने के पीछे सरकार की क्या मंशा हो सकती है। इसके अलावा इन गवर्नर मंडलों के पास इस हद तक ताहत रहेगी कि इनकी अथॉरिटी को लागू करने के लिए मौजूदा कानूनों के किसी भी उल्लंघनकारी प्रावधानों को पलटने की ताकत रखने वाले नए व्यापक कानून बनाए जाएंगे। जिस तरह है मोदी सरकार सुनियोजित ढंग से जनतंत्र के सभी संस्थानों में अपने लोगों को बैठा कर भीतर से उनका टेकओवर करती जा रही है, इन शक्तिशाली गवर्नर मंडलों में भी किस तरह के लोग बैठाए जाएंगे यह हमारे सामने स्पष्ट है। (अनुच्छेद 19)

इसके साथ पूरे देश में रिसर्च (अनुसंधान) को फंडिंग और ‘बढ़ावा’ देने के लिए एक नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (एनआरएफ) का गठन किया जाएगा। इसे भी केंद्र सरकार द्वारा चयनित अपने गवर्नर मंडल द्वारा संचालित किया जाएगा। इसका गठन यही सुनिश्चित करेगा कि केवल उन्हीं ‘अनुसंधानों’ को फंडिंग और यहां तक कि अनुमति मिले जिसे केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित एनआरएफ ने हरी झंडी दी हो। बौद्धिक विकास और क्रिटिकल थिंकिंग से घृणा और विकर्षण महसूस करने वाली फासीवादी ताकतों की कमान में पूरी देश में अनुसंधान को नियंत्रित करने की ताकत होने से शिक्षा और अनुसंधान का क्या हश्र होगा ये सोचा ही जा सकता है। (अनुच्छेद 17)

निजी शिक्षा मॉडल और बाजारीकरण

NEP शिक्षा में जीडीपी का 6% खर्च करने का लक्ष्य रखती है, जिसपर मोदी सरकार ने तो ढिंढोरा पीटा ही है लेकिन जिसकी कुछ आलोचकों ने भी प्रशंसा की है। हालांकि जिस बात को सामने नहीं लाया जा रहा है वह यह है कि 6% का यह लक्ष्य कोई नई बात नहीं है, बल्कि 1966 की कोठारी कमीशन रिपोर्ट में ही इस लक्ष्य को सामने रखा गया था और इसी रिपोर्ट के आधार पर पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 तैयार की गई थी। तब से लेकर अभी तक शिक्षा में जीडीपी का 6% खर्च करने का यह लक्ष्य सभी सरकारों के खोखले वादों के रूप में ही जनता के सामने रहा है। जो भी आज इस लक्ष्य को देख मोदी सरकार की तारीफ कर रहे हैं उन्हें 2014 से अब तक मोदी सरकार द्वारा शिक्षा पर किए गए खर्च के आंकड़ों से अवगत रहना चाहिए। भारत के आर्थिक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार द्वारा 2014-15 से 2018-19 के बीच शिक्षा पर महज जीडीपी का औसतन 2.88% खर्च किया गया, जो कि यूपीए-2 सरकार के निंदनीय आंकड़ों (औसतन 3.19%) से भी नीचे है। इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि 6% का यह लक्ष्य प्राप्त होने की संभावना कितनी है

शिक्षा पर सरकारी खर्च को बढ़ावा देने के बजाए NEP ठीक इसका उल्टा करता है। भव्य और जटिल शब्दों का इस्तेमाल करते हुए यह मूलतः शिक्षा का एक ऐसा निजी मॉडल बनाने की बात करता है जो पूरी तरह निजी पूंजी द्वारा संचालित हो और जिसमें सरकार की न्यूनतम भूमिका रहे। ‘स्वायत्ता’ (ऑटोनोमी) का जिक्र NEP में कई बार हुआ है, जिसके तहत शिक्षण संस्थानों को ‘प्रशासनिक स्वतंत्रता’ दी जाएगी। इसे एक प्रगतिशील कदम की तरह पेश किया गया है जबकि असलियत में इसका अर्थ संस्थानों के लिए स्वतंत्रता कम और सरकार के लिए शिक्षा व्यवस्था में उसके दायित्व से स्वतंत्रता (छुटकारा) अधिक है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ग्रेडेड स्वायत्ता विनियम 2018 में उल्लिखित स्वायत्ता के आयाम एक ऐसे मॉडल की तरफ इशारा करते हैं जिसमें प्रशासनिक या कैसी भी स्वायत्ता पाने की शर्त वित्तीय स्वायत्ता होगी। यानी शिक्षण संस्थानों को नया कोर्स शुरू करने, डिग्रियां देने, नए कैंपस स्थापित करने, अनुसंधान आरंभ करने जैसी कोई भी स्वतंत्रता तब ही मिलेगी जब सरकार इनके लिए इन संस्थानों को फंडिंग देने से ‘स्वतंत्र’ हों, यानी इनके लिए संस्थान खुद ही पैसों का इंतजाम करें। अतः ‘स्वायत्ता’ को प्रगतिशील कदम बताकर शिक्षण संस्थानों पर थोपने का मतलब होगा और अधिक निजीकरण, फीस बढ़ोतरी, मानदंडों व विनियम में ढील, और शिक्षा का बाजारीकरण।

निजी-फिलैंथ्रोपिक फंडिंग और ‘सार्वजनिक-फिलैंथ्रोपिक साझेदारी’ के मॉडल को स्कूली व उच्च शिक्षा के लिए व्यापक रूप से प्रसारित किया जा रहा है जिसका जिक्र NEP में कई बार है। ‘फिलैंथ्रोपिक’ (परोपकारी/चैरिटी) एक और मनोहर शब्द है जिसे ‘निजी’ या ‘कॉर्पोरेट’ जैसे अधिक आपत्तिपूर्ण शब्दों की जगह पर इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि सभी प्रमुख फिलैंथ्रोपिक (चैरिटी) संस्था कॉर्पोरेटों और बड़ी पूंजी के ही अंग हैं। यहां शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजी द्वारा संचालित मॉडल खड़ा करने की बात कही जा रही है जो कि सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के विकल्प के रूप में शिक्षण संस्थानों पर थोपी जा सके, और जिसके तहत शिक्षा के निजीकरण और सार्वजनिक शिक्षा के विध्वंस के लिए एक ठोस ढांचा तैयार हो सके। शिक्षा का निजी मॉडल खड़ा करने के लिए NEP में प्रस्तावित कदम दरअसल पिछली सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों का ही एक भयावह विस्तार है।

मोदी सरकार द्वारा 2017 में हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी (HEFA) का गठन किया गया था जिसका काम है शिक्षण संस्थानों को, ग्रांट (फंड) की जगह पर, लोन देना और समय आने पर लोन में दी गई राशि को वसूलना। जाहिर है, लोन चुकाने के लिए शिक्षण संस्थानों को खुद के स्रोतों से पैसों का इंतजाम करना पड़ता है, जिसका अंजाम होता है निजी हाथों पर निर्भर होना, फीस में बढ़ोतरी और कर्मचारियों के वेतन व सुविधाओं में कटौती। इस मॉडल की संपूर्ण असफलता इस तथ्य से साबित हो जाती  है कि HEFA को वार्षिक तौर पर आवंटित ₹2750 करोड़ में से एक वर्ष में महज ₹250 करोड़ इस्तेमाल में आ पाए, जो कि कुल राशि का 10% भी नहीं है। HEFA मॉडल स्थापित करना शिक्षा के निजीकरण-बाजारीकरण की तरफ तेजी से बढ़ने की मोदी सरकार की मंशा को सामने ले आता है।

शिक्षा मंत्रालय के AISHE रिपोर्ट 2018-19 के तहत देश के 78% कॉलेज निजी क्षेत्र में हैं और कुल कॉलेज भर्तियों का दो तिहाई निजी कॉलेजों में होता है। हालांकि कुल यूनिवर्सिटी भर्तियों का 80% से अधिक सार्वजनिक यूनिवर्सिटियों में है, परंतु पिछले सालों के आंकड़ें काफी चिंताजनक हैं। 2014-15 से 2018-19 के बीच यूनिवर्सिटी भर्तियों में कुल बढ़त का 55% निजी यूनिवर्सिटियों और 33% सार्वजनिक किंतु ओपन यूनिवर्सिटियों में था। यानी हाल के पांच वर्षों में यूनिवर्सिटी भर्तियों में कुल बढ़त का केवल 12% ही सार्वजनिक यूनिवर्सिटियों में था। स्कूलों में भी कुल भर्तियों का 45% निजी स्कूलों में होता है, शिक्षा मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार। यह आंकड़ें स्पष्ट बताते हैं कि हम कितनी तेजी से एक सार्वजानिक शिक्षा प्रणाली की जगह पर एक निजी प्रणाली की स्थापना की तरफ बढ़ रहे हैं।

भगवाकरण का अजेंडा

आज जब सत्तारूढ़ फासीवादी निजाम जनतंत्र के सभी संस्थानों का भीतर से टेकओवर करने का तीव्र और बहुत हद तक सफल प्रयास कर रहा है, तो ऐसे में स्वाभाविक तौर पप्र शिक्षण संस्थानों को भी बक्शा नहीं जाएगा। अति-केंद्रीकरण के उपरोक्त कदमों से भाजपा-आरएसएस द्वारा शिक्षण संस्थानों को अपने कब्जे में करने की मंशा साफ दिखती है। हालांकि उनपर नियंत्रण हासिल करने के लिए केवल प्रशासनिक ही नहीं, वैचारिक रास्ते भी अपनाए जा रहे हैं। NEP को इस मुहीम को ठोस रूप देने के लिए भी तैयार किया गया है।

धर्मनिर्पेक्षता पूरे ड्राफ्ट में एक जगह भी नहीं इस्तेमाल किया गया है। सामाजिक न्याय पर आधारित कदम जैसे आरक्षण के साथ भी यही हाल है। इनके बजाए “भारतीय ज्ञान प्रणाली” और प्राचीन भारत के ज्ञान और अभ्यासों की तरफ पीछे मुड़ कर देखने पर अत्यधिक जोर दिया गया है। (अनुच्छेद 4.27) संस्कृत को लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं का उद्गम केंद्र बताया गया है और इससे द्रविड़, आदिवासी व उत्तर-पूर्वी भाषाओं को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है। (अनुच्छेद 4.16) नीति में संस्कृत भाषा की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया गया है और शिक्षा प्रणाली द्वारा इसे बढ़ावा देने का भी प्रस्ताव है। (अनुच्छेद 4.17) NEP में जहां समृद्ध संस्कृति व साहित्य वाले शास्त्रीय भाषाओं में संस्कृत के साथ पाली, प्राकृत, पर्शियन व कुछ अन्य भाषाओं का नाम है, वहीं उर्दू का नाम कहीं शामिल नहीं है। (अनुच्छेद 4.18)

NEP के आगमन के पहले से ही भाजपा-आरएसएस ने सरकार बनाने के बाद से अपने फासीवादी वैचारिक दृष्टिकोण को थोपने के लिए लगातार प्रयास किए हैं। पाठ्यक्रम में बदलाव इसका प्रमुख उदाहरण है, खास कर इतिहास के पाठ्यक्रम में जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों को हटाकर उनके बदले झूठ व विकृत संस्करण और पौराणिक कहानियां डाली जा रही हैं। भारतीय विज्ञान कांग्रेस के भिन्न वार्षिक सत्रों में आरएसएस-समर्थित ‘बुद्धिजीवियों’ द्वारा अवैज्ञानिक, अतार्किक और झूठी बातों को विज्ञान व तथ्यों की तरह बेशर्मी से पेश करना भी इसका एक और उदाहरण है। ये उदाहरण भाजपा-आरएसएस की फासीवादी, जातिवादी, और पितृसत्तात्म्क सोच पर आधारित हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को थोपने की स्पष्ट मंशा को ही रेखांकित करते हैं।

भाषा विवाद और हिंदी थोपने के प्रयास

NEP त्रि-भाषा फॉर्मूला को लागू करने की बात कहती है, जिसका जिक्र पहली 1968 की पहली शिक्षा नीति में पहली बार हुआ था और जिसे 1986 की द्वितीय शिक्षा नीति द्वारा भी बढ़ावा दिया गया था। फॉर्मूला के तहत हिंदी व अंग्रेजी की पढ़ाई सभी राज्यों में अनिवार्य होगी। हालांकि इनके साथ हिंदी भाषी राज्यों में एक आधुनिक भारतीय भाषा, अधिमानतः दक्षिण की भाषाओं में से एक, और गैर-हिंदी भाषी राज्यों में वहां की स्थानीय भाषा की पढ़ाई होगी। इस फॉर्मूला में स्पष्ट रूप से हिंदी को अन्य गैर-अंग्रेजी भाषाओं से ज्यादा अहमियत दी गई है। क्योंकि भाजपा-आरएसएस हिंदी (और संस्कृत) को श्रेष्ठतर भाषा के रूप में और हिंदू राष्ट्र की मुख्य भाषा के रूप में देखते हैं, त्रि-भाषा फॉर्मूला को लागू करने की बात करनी वाली NEP उनके लिए हिंदी को गैर-हिंदी भाषी राज्यों में थोपने का जरिया के रूप में काम करेगी। (अनुच्छेद 4.13)

Image Source : Saikat Bandyopadhyay

इसके अतिरिक्त NEP में बहुभाषावाद जैसे भव्य शब्द भी शामिल हैं जिसके तहत कम से कम पांचवी कक्षा और अधिमानतः आठवी कक्षा व उसके बाद भी मातृभाषा/स्थानीय भाषा को शिक्षा का माध्यम रखने का प्रस्ताव शामिल है। हालांकि इसके साथ लिखा है “जहां तक संभव हो”। यानी स्पष्ट है कि भव्य दावों से परे असलियत में देश में अभी तक चलता आ रहा वह द्वि-शिक्षा मॉडल ही लागू रहेगा जो अंग्रेजी और गैर-अंग्रेजी में बटा हुआ है, जिसके तहत अंग्रेजी में शिक्षा हासिल कर पाने वाले छोटे अमीर तबके को ‘सफलता’ प्राप्त हो पाती है और मेहनतकश व हाशिए पर खड़ी बड़ी आबादी जो अंग्रेजी में शिक्षा हासिल नहीं कर पाती उन्हें गरीबी और ‘असफलता’ का जीवन जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है। (अनुच्छेद 4.11)

अनौपचारिकरण और अपवर्जन (एक्सक्लूशन) की ओर

NEP अधिक छात्रों को शिक्षा से जोड़ने के नाम पर शिक्षा प्रणाली को ही बर्बाद करने की तरफ कदम बढ़ाता है। देश में ड्रॉपआउट बच्चों (जिन्हें शिक्षा पूरी होने से पहले ही स्कूल छोड़ देना पड़ता है) की बड़ी संख्या से निपटने के के लिए इसमें जिस तरीके के बैंडएड ‘उपाय’ सुझाए हैं उनसे और बड़ी समस्याएं पैदा होंगी।

NEP के तहत ड्रॉपआउट बच्चों को वापस सार्वजानिक शिक्षा प्रणाली में शामिल करने के बजाए वैकल्पिक एवं नवीन शिक्षा केंद्र में शामिल किया जाएगा। (अनुच्छेद 3.2) इसके अतिरिक्त, ओपन एंड डिस्टेंस लर्निंग प्रोग्राम (ODL), जो कि नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ ओपन स्कूलिंग (NIOS) व राज्यों के ओपन स्कूलों में होते हैं, को और बढ़ावा मिलेगा ताकि वंचित छात्र उसमें दाखिला लें, ना कि रेगुलर/व्यवस्थित कोर्स व स्कूलों में। (अनुच्छेद 3.5) NEP में गैर-सरकारी फिलैंथ्रोपिक संस्थानों को स्कूल बनाने व शिक्षा प्रदान करने का प्रोत्साहन देते हुए शिक्षा के वैकल्पिक मॉडल को बढ़ावा देने की बात हुई है। ऐसे संस्थानों, जिसमें आरएसएस जैसे संगठन भी आ सकते हैं, के लिए विनियम आसान बना दिए जाएंगे और इनके लिए इनपुट पर कम और परिणाम/आउटपुट पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा ताकि यह वैकल्पिक मॉडल के तहत आधिकारिक रूप से अपने प्रकार की ‘शिक्षा’ प्रदान कर सकें और अपने स्कूलों का नेटवर्क खड़ा कर पाएं। इन क़दमों से व्यवस्थित शिक्षा प्रणाली की जगह वैकल्पिक अनौपचारिक शिक्षा प्रणाली को सरकार प्रोत्साहन देगी। (अनुच्छेद 3.6)

छात्रों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति से निरपेक्ष सभी के लिए एक सार्वजानिक सामान्य स्कूल प्रणाली का कम से कम जिक्र पिछली सभी शिक्षा नीतियों और कमीशनों में था, हालांकि उसे किसी भी सरकार ने लागू नहीं किया। परंतु NEP में इस लक्ष्य को त्याग ही दिया है और भिन्न तबकों के छात्रों के लिए भिन्न शिक्षा प्रणाली की वकालत करता है। NEP में व्यावसायिक व उच्चतर शिक्षा के लिए लाइट लेकिन टाइट विनियम की बात की गई है, जो कि केवल विनियम ढीला करने के लिए एक मनोहर वाक्यांश है। (अनुच्छेद 9.3(ज))

NEP में बड़े स्कूल क्लस्टर/कॉम्प्लेक्स बनाने का प्रस्ताव है जिसका अर्थ होगा एक बड़े क्षेत्र में एक ही बड़े स्कूल का होना। इसके लिए संसाधन दक्षता के नाम पर कई छोटे सरकारी स्कूलों को बंद किया जाएगा। ऐसे समाज में जहां बड़ी संख्या में बच्चों को घर से स्कूल तक की लंबी दूरी के कारण स्कूल छोड़ना पड़ता है, वहां लक्ष्य होना चाहिए था कि स्कूल नेटवर्क को और बड़ा बनाया जाए और छोटे से छोटे इलाकों में भी गुणवत्तापूर्ण स्कूल खोले जाएं, लेकिन इसके उलट सरकार अधिकांश सरकारी स्कूलों को क्लस्टर बनाने के नाम पर बंद करेगी। यह प्रस्ताव इस मुद्दे पर मौन है कि इतने स्कूल बंद होने पर विशाल गरीब मेहनतकश तबके के बच्चों का क्या होगा जो इन क्लस्टरों की उनके घरों से और अधिक लंबी दूरी के कारण स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाएंगे, और उन शिक्षकों-कर्मचारियों का क्या जो बड़ी संख्या में रोजगार से हाथ धो बैठेंगे। (अनुच्छेद 7.6)

व्यावसायिक (वोकेशनल) शिक्षा को NEP में कई जगहों पर सक्रिय रूप से बढ़ावा देने की बात की गई है। यहां तक कि इसके लिए एक अलग अध्याय बनाया गया है (अनुच्छेद 16)। हालांकि गुणवत्तापूर्ण व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण संपूर्ण बुनियादी स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद प्रदान करना उचित भी है, लेकिन NEP ने इसे माध्यमिक शिक्षा से ही जोड़ दिया है और छठी कक्षा से ही व्यावसायिक शिक्षा शुरू करने का प्रस्ताव दिया है, जिसके बाद दसवी कक्षा में बच्चों को स्कूली शिक्षा से हट कर कोई व्यवसायिक कोर्स चुनने का ‘अवसर’ मिलेगा। (अनुच्छेद 4.2) इससे ना ही केवल गरीब व मेहनतकश तबकों के छात्रों को बुनियादी स्कूली शिक्षा प्राप्त करने में अड़चनें आएंगी, बल्कि दसवी कक्षा के बाद जो छात्र अपनी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण ऐसे भी स्कूल छोड़ कर कोई छोटा-मोटा काम तलाशने के लिए मजबूर होते थे, उनकी मजबूरी को बरकरार रखते हुए उसे ‘व्यावसायिक प्रशिक्षण’ प्राप्त करने का ‘अवसर’ का नाम दे कर पर्दे के पीछे छुपा दिया जाएगा। जाहिर है, छठी कक्षा से मिलने वाली यह व्यावसायिक शिक्षा निम्न/प्रवेश स्तर से ज्यादा और कुछ भी प्रदान नहीं करेगी, जो कि गरीब-मेहनतकश घरों के छात्रों को छोटे-मोटे निम्न कार्य के लिए ही तैयार करेंगे। इससे संकटग्रस्त पूंजीपति वर्ग के लिए एक तरफ अनौपचारिक व आकस्मिक मजदूरों की एक सेना तैयार होगी जो कि सस्ते दामों पर बिना सुविधा व अधिकार की मांग किए अपनी श्रम शक्ति बेचेगी, वहीं दूसरी तरफ केवल मुट्ठीभर अभिजात व उपरी वर्गों के छात्रों को मोटी रकम वाली सफेद कॉलर की नौकरियां मिलेंगी।

इनके अतिरिक्त, ऑनलाइन और डिजिटल शिक्षा का भी NEP में एक अलग अध्याय है (अनुच्छेद 24)। ऑनलाइन शिक्षा प्रणालीको सरकार द्वारा ना केवल NEP में बल्कि अपनी अन्य नीतियों व वक्तव्यों में व्यापक तौर पर प्रसारित किया जा रहा है। हालांकि सुनने में डिजिटल शिक्षा का आगमन एक प्रगतिशील कदम की तरह प्रतीत होता है, आइये एक बार जमीनी सच्चाइयों पर नजर डालते हैं। राष्ट्रीय पतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (NSSO) की 2017-18 की एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल ऐसे घरों में, जिसमें युवा भी रहते हैं, से महज 8% घरों में कंप्यूटर के साथ इंटरनेट लिंक मौजूद है। ग्रामीण इलाकों में स्थिति और भी अधिक गंभीर है। इस स्थिति को नजरअंदाज करते हुए देश में प्रगति व आधुनिकीकरण के नाम पर छात्रों पर डिजिटल शिक्षा थोपी जा रही है। कुछ यूनिवर्सिटियों में तो ऑनलाइन माध्यम से नए सत्र शुरू भी हो गए हैं, वहीं कई संस्थान एडमिशन के लिए देशव्यापी ऑनलाइन परीक्षा आयोजित करने की योजना बना रहे हैं। बिना छात्रों की समस्याओं को सुने और उनके निवारण के लिए ठोस कदम उठाए हुए, ऑनलाइन और डिजिटल शिक्षा को थोपने से गरीब व मेहनतकश तबके से आने वाली छात्रों की एक विशाल आबादी शिक्षा व्यवस्था से बाहर धकेल दी जाएगी और शिक्षा से ही वंचित कर दी जाएगी।

अपवर्जन की नीति या उससे ज्यादा कुछ?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का विरोध लगभग समस्त प्रगतिशील व जनवादी तबकों द्वारा किया जा रहा है जो इसे अपवर्जन और गैर-बराबरी पर आधारित नीति बता रहे हैं, जिससे छात्रों की एक विशाल आबादी जो गरीब व मेहनतकश तबके से आती है वह शिक्षा व्यवस्था से और दूर कर दी जाएगी एवं जिससे सामाजिक-आर्थिक गैर-बराबरी और अधिक बढ़ेगी। यह पूरी तरह सही भी है, लेकिन NEP इससे भी ज्यादा खतरनाक परिणामों को अंजाम देगा जिसपर ध्यान डालना अतिआवश्यक है। जो नीति आक्रामक रूप से शिक्षा में अपवर्जन, अनौपचारिकरण, निजीकरण-बाजारीकरण करने के साथ उसका भगवाकरण या फासिवादीकरण करते हुए उसे पूरी तरह फासीवादी शासकों के कब्जे में डाल देती हो, वह शिक्षा को चंद सुधारों से महज चोट नहीं पहुचाएगी बल्कि शिक्षा को पूरी तरह बर्बाद कर देगी।

यह कोई सामान्य उदारवादी शिक्षा नीति नहीं बल्कि फासिस्टों द्वारा लाइ गई एक नीति है। इतिहास में फासिस्टों को क्या कभी शिक्षा व ज्ञान की प्रगति की जरूरत हुई है? कभी नहीं। उनकी मंशा शिक्षा के प्रसार और ज्ञान के विकास की नहीं, बल्कि उनके पतन की रही है। शिक्षा और ज्ञान फासिस्टों के दुश्मन हैं, जिनका राज ही झूठ और मिथकों पर टिका होता है। इसलिए शिक्षा का नाश और समाज की बौद्धिक संरचना पर लगातार चोट करना फासिस्टों के मुख्य लक्ष्यों में से है। किसी क्षेत्र में वैज्ञानिक स्वभाव व प्रक्रिया एवं वस्तुगत मेथडॉलोजी पर आधारित अनुसंधान का विकास फासीवादी शासन, जिसका पूरी तरह समेकित होना अभी शेष है, के लिए घातक साबित होगा। परिणामतः ऐसे शासन में अनुसंधान का मतलब झूठ की खेती और ज्ञान की हत्या से ज्यादा और कुछ नहीं रह जाएगा। दरअसल फासिस्टों को एक ऐसी शिक्षा प्रणाली चाहिए जिसमें झूठ, मिथक, छल, हिंसा, साजिश, अपराध आदि ही पढ़ाए जाएं। NEP जैसी दीर्घकालिक नीति यह सुनिश्चित करेगी कि सभी यूनिवर्सिटी एवं कॉलेज कैम्पसों से शिक्षा व जनवादी स्पेस को ध्वस्त कर दिया जाए, ताकि वह फासिस्टों की अभिजनन भूमि (ब्रीडिंग ग्राउंड) और बौद्धिक कंसंट्रेशन कैंप में तब्दील हों।

अभी ही यह होते हुए देखा जा सकता है। आइआइटी व अन्य प्रसिद्ध विज्ञान व अनुसंधान संस्थानों को गौमूत्र व गोबर पर रिसर्च करने को कहा जा रहा है। विज्ञान के भिन्न मंचों पर मिथकों व पौराणिक कहानियों को ऐतिहासिक तथ्यों की तरह पेश किया जा रहा है। इसे ही अब आम बात (न्यू नॉर्मल) कहा जाएगा। इतिहास को झूठ के पुलिंदों से भर कर पेश किया जाएगा। विज्ञान और वैज्ञानिक स्वभाव को बर्बाद कर इन संस्थानों को फासिस्टों की सेवा में लगाया जाएगा।

NEP के लागू होने से जरूर एक विशाल गरीब आबादी शिक्षा से वंचित कर दी जाएगी, लेकिन अमीरों को भी कोई असली शिक्षा, विशेषतः उच्च शिक्षा जो पहले से ही शासकों के निशाने पर रही है, प्रदान नहीं की जाएगी। अतः NEP गरीब-विरोधी होने के साथ पूर्णतः शिक्षा-विरोधी है, और इसलिए यह समाज द्रोही और मानव द्रोही भी है। फासिस्ट यह भली-भांति समझते हैं कि असली शिक्षा किसी को भी, चाहे वह उच्च वर्गों से भी क्यों न आते हों, चेतनाशील बना सकती है और अन्याय के विरुद्ध और यहां तक की अन्याय पर टिकी इस व्यवस्था के विरुद्ध भी लड़ने के लिए तैयार कर सकती है। वे पूंजीवाद के अंतर्गत हो रहे मानवता के विनाश के बुनियादी कारकों का ज्ञान हासिल करते हुए मानवता के दुश्मनों के खिलाफ आवाज बुलंद करना सीख सकते हैं। शिक्षा व अनुसंधान के विध्वंस की चाह फासिस्टों में भी इसलिए है क्योंकि वह इसकी संभावना को समझते हैं। एक असली, वस्तुगत और वैज्ञानिक ज्ञान के कारण अंततः क्रिटिकल सोच और प्रगतिशील एवं सामाजिक प्रगति के विचारों का उदय होता है। उससे सामाजिक प्रगति के रास्ते में खड़े ऐतिहासिक रुकावटों की भी पहचान होती है। असल रूप में कोई भी अनुसंधान हमें आंतरिक सामान्य नियमों से नियंत्रित होने वाली इतिहास की सतत गति को, और पुराने समाज के अवशेषों पर नए समाज की स्थापना को मानने वाले एक क्रांतिकारी विचार की पहचान की ओर ले जाता है। जाहिर है, ऐसे विचार का प्रसार समाज के फासिवादिकरण के अजेंडा से सीधे टकराता है। इसलिए फासिस्ट किसी भी रूप में असली ज्ञान व अनुसंधान से घृणा करते हैं और उसे बर्बाद करने के लिए सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण व मुनाफाखोरी को बढ़ावा देते हुए किए जा रहे लगातार नवउदारवादी एवं फासीवादी हमले शिक्षा की बुनियाद को ही ध्वस्त कर ‘अशिक्षा’ को प्रतिस्थापित करेंगे, जो कि जनतंत्र को ही ध्वस्त करने के लिए आवश्यक है। शिक्षा व्यवस्था किसी अन्य उत्पादक क्षेत्र जैसी नहीं होती। इसमें जो भी उत्पादन होता है यानी जिस प्रकार की शिक्षा प्रसारित होती है, वह समाज के साथ-साथ फासिस्टों के लिए भी काफी मायने रखती है। आज जब एक फासीवादी सरकार एक दीर्घकालिक व देशव्यापी शिक्षा नीति को ला रही है तो हमारे लिए इसके पीछे के उसके लक्ष्य को ठीक से समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है, और उसे NEP-विरोधी अभियान में भी सामने लाना जरूरी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को हर एक व्यक्ति द्वारा हर तरफ से खारिज किया जाना चाहिए।


[*] राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, जो केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है, को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 5/ सितंबर 2020) में छपा था

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

Create a website or blog at WordPress.com

Up ↑