✒️ संपादकीय | सर्वहारा #74-75 (16 अप्रैल – 15 मई 2025)
जब पहलगाम की आतंकी घटना हुई, तो सभी देशों के वर्ग-सचेत मजदूरों सहित प्रगतिशील व जनवादी लोगों ने, चाहे वे जिस भी धर्म, नस्ल या रंग के हों, इसका विरोध किया। मजदूर वर्ग के सबसे सचेत और क्रांतिकारी हिस्से ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इस तरह के आतंकवाद को, यानी धार्मिक पहचान पूछ कर सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के उद्देश्य से बेकसूर लोगों की सुनियोजित हत्या करने वाली विचारधारा के रूप में फैलाये जा रहे आतंकवाद को, आज के दौर के पतनशील पूंजीवादी समाज का एक कैंसर घोषित किया। ऐसी तमाम घटनाओं के साजिशकर्ता, चाहे वे जिस भी धर्म के हों, इस पार के हों या उस पार के, उन सबका पोषणकर्ता साझे तौर पर यही पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था है। भिन्न-भिन्न राष्ट्रों व देशों में बंटे इनके हिस्से आपस में वर्चस्व के लिए लड़ते हुए भी अपने साझा हित के लिए, खासकर अपने मुख्य दुश्मन मजदूर-मेहनतकश वर्ग को देश व दुनिया के पैमाने पर अपनी विभाजनकारी साजिशों का शिकार बनाने हेतु, स्वाभाविक तौर पर एक ही आम दिशा में कदमताल करते हैं। इसलिए हम पाते हैं कि पहलगाम घटना होने के चंद घंटों के अंदर ही भारत और पाकिस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया की एकाधिकारी पूंजी के खूंटे से बंधी सांप्रदायिक एवं फासिस्ट शक्तियां, मानो किसी पूर्व योजना के तहत, जनता को धर्म और समुदाय के आधार पर एक दूसरे के खिलाफ उकसाने और लड़ाने का काम करने में जुट गईं, जबकि सभी को पता है कि ऐसा करना आतंकियों के नापाक मंसूबों को पूरा करना है। हमने देखा कि जिस किसी ने भी इस आतंकी घटना के बहाने हिंदू-मुस्लिम नफरत फैलाये जाने का विरोध किया, चाहे वह इस घटना में शहीद नेवी के अफसर विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी नरवाल ही क्यों न हो, उसको भारत के सांप्रदायिक-फासिस्ट गिरोह से जुड़े लोगों ने खुलेआम निर्भीक होकर गंदे तरीके से ट्रोल किया। आश्चर्य है कि ना तो इन उकसाने वालों के खिलाफ आज तक कोई कार्रवाई हुई, ना ही आतंकियों को खोज कर सजा दी गयी। उल्टे, दोनों देशों की बेकसूर जनता के ऊपर महाबर्बादी लाने वाला युद्ध छेड़ दिया गया (हालांकि टेक्निकली इसे युद्ध नहीं कहा जा सकता क्योंकि घोषणा नहीं हुई है)। इसलिए इस आतंकी घटना में मारे गए बेकसूर लोगों के परिजनों सहित देश के नागरिकों को यह समझना होगा कि आज हम विश्वपूंजीवाद के सबसे पतनशील दौर में सांस ले रहे हैं और इस तरह का आतंकवाद कोई स्वतंत्र चीज नहीं बल्कि इससे पूरी तरह नाभिनालबद्ध है, और इसलिए मौजूदा समाज व व्यवस्था को बदले बिना यह खत्म भी नहीं होने वाला है। हां, मात्र कुछ दिनों के लिए इन गिरोहों को शांत कराया जा सकता है, वो भी दोनों तरफ जान-माल की भारी तबाही और बर्बादी लाने वाला एक ऐसा युद्ध थोप कर जिसका फायदा एकमात्र दोनों देशों के शासक वर्गों, इनके गुर्गों और पूंजीपतियों सहित पूरी दुनिया के पूंजीपति उठाएंगे। भारत में इसका नजारा अभी से देखने को मिल रहा है। भारतीय सैन्य कार्रवाई के कोड नाम ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की कॉपी राइट खरीदने और सेना के पराक्रम व शहादत और इसमें मारी जा रही आम जनता की चीख को खनकते सिक्कों में बदलने के लिए मुनाफाखोर लाइन में खड़े हो गये हैं जिसमें मुकेश अंबानी का नाम सबसे ऊपर है। जाहिर है, जैसा कि हर ऐसे युद्ध के साथ होता है, मजदूर-मेहनतकश तबके पर पड़ने वाला असर पूंजीपतियों पर पड़ने वाले असर के ठीक उल्टा होगा। जहां पूंजीपति मुनाफा कुटेंगे, वहीं इस युद्ध के बोझ से आम जनता की कमर टूट जाएगी। सरकार युद्ध का खर्च पूंजीपतियों से नहीं, आम जनता से वसूलेगी। मेहनतकशों का शोषण और तीव्र करके तथा महंगाई बढ़ाकर वसूलेगी। काम-धंधे से भी हाथ धोना पड़ सकता है।
इतिहास में शोषितों-उत्पीड़ितों के आंदोलन में आतंक और आतंकवादी विचार का क्या स्थान रहा है इस पर हम फिर कभी बात करेंगे, लेकिन आज इसे समझना जरूरी है कि आज के दौर का जो आतंकवाद चल रहा है उसका तथा संकटग्रस्त विश्वपूंजीवाद के मानवद्रोही हितों का अंतर्गुंथन इतना गहरा और सर्वजनीन हो चुका है कि इसे कोई भी देख और समझ सकता है। विश्वपूंजीवाद की स्थाई संकटग्रस्तता के काल में इसमें नये-नये तत्व शामिल किये जा रहे हैं, ताकि इसका उपयोग आम लोगों का ध्यान उनकी अपनी ही जिंदगी की लगातार विकराल होती समस्याओं से हटाने और उन्हें आपस में लड़ाने में सबसे कारगर तरीके से किया जा सके। मसलन, आतंकी घटनाओं में सुनियोजित तरीके से धर्म आगे किया जा रहा है जैसा कि पहलगाम में देखा गया। उद्देश्य स्पष्ट है – लगातार सांप्रदायिक भूचाल की स्थिति पैदा किये रखना ताकि आर्थिक संकट के बोझ से तबाह-बर्बाद हो रहे लोग इसमें उलझे रहें। लेकिन जो बात सबसे अधिक गौर करने लायक है, वह यह है कि ऐसा सांप्रदायिक उभार एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के सबसे खूंखार तत्वों को (जनतंत्र को खत्म कर) फासीवादी तानाशाही कायम करने का मौका भी दे रही है जिसकी मार सबसे अधिक मजदूर वर्ग को झेलनी पड़ रही है।
ऐसे में मजदूर-मेहनतकश वर्ग का हित इसमें है कि वह नफरत की राजनीति को खत्म करने और शोषण को जड़मूल से खत्म करने की वर्गीय राजनीति को आगे बढ़ाने का यत्न करे। लेकिन इसके लिए नफरत की राजनीति को राजनैतिक-वैचारिक स्तर पर चुनौती देनी होगी। इसके लिए मजदूर वर्ग को जहां वर्गीय मांगों को दृढ़ता से उठाना होगा वहीं एक शोषणविहीन दुनिया बनाने के अपने ऐतिहासिक कार्यभार को समस्त शोषित-उत्पीड़ित मानवता की मुक्ति की छटपटाहट से भरे सपनों से जोड़ना होगा। निस्संदेह आज की परिस्थितियां बहुत भयावह हैं। लेकिन जिस तरह अंधकार गहरा रहा है और पूंजीवाद मानवता के लिए कैंसर साबित हो रहा है, वह मजदूर वर्ग और उसकी विचारधारा के उठान की परिस्थिति भी पैदा कर रहा है। कहते हैं न, जब अंधकार गहरा हो तो रोशनी की जरूरत सबसे अधिक महसूस होती है; और इस घोर तिमिर में रोशनी की मशाल जलाने की शक्ति भला मजदूर वर्ग के अलावा और किसमें है?