2024 में फासीवादी तानाशाही के खिलाफ संघर्ष और 2011 के मिस्र में तानाशाही विरोधी आंदोलन से मजदूर वर्ग के लिए निकले कुछ अहम सबक

संपादकीय का शीर्षक बेतुका लग सकता है। लेकिन तानाशाही के खिलाफ लड़ाई में किस तरह मजदूर वर्ग और विपक्षी पूंजीवादी शासक वर्ग एक बिंदु पर एक साथ होते हुए भी एक साथ नहीं होते हैं इसे समझने के लिए 2011 में मिस्र के तानाशाह होस्नी मुबारक के खिलाफ हुए मजदूर वर्ग के शानदार विजयी संघर्ष से निकले परिणाम, खासकर मजदूर वर्ग के लिए, वास्तव में बहुत अहम हैं। इसलिए आइए, अत्यंत संक्षेप में ही सही लेकिन इतिहास के इस पन्ने को पलट कर देखें कि आज के फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन व संघर्ष के लिए उससे हमारे लिए क्‍या सबक निकलता है।

13 वर्ष पुरानी कहानी यह है कि 2011 में मिस्र में एक क्रूर तानाशाह होस्नी मुबारक का शासन था। उसको सत्ता से उखाड़ फेंकने में वहां के मजदूर वर्ग ने हड़ताल की कार्रवाई के माध्‍यम से एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन सत्ता में मजदूर वर्ग नहीं विपक्षी पूंजीपति वर्ग आया। नये-नये स्थापित इस पूंजीवादी निजाम ने मजदूर वर्ग को उसके द्वारा तानाशाह के खिलाफ लड़ी गई शानदार लड़ाई के लिए जो इनाम दिया वह इस मायने में काबिलेगौर है। उसने होस्नी मुबारक द्वारा बनाये दमनकारी तंत्र को नेस्तनाबूद करने के बदले मजदूर वर्ग की बढ़ी हुई राजनीतिक व सांगठनिक ताकत को दबाने में अपनी शक्ति का उपयोग किया। इस तरह क्रांति ने प्रतिक्रांति का रास्‍ता ले लिया और जब मजदूरों ने नये शासक वर्ग का “काम पर लौट जाओ” का आदेश नहीं माना और क्रांति को आगे बढ़ाते हुए अपने कार्यस्‍थल तक ले जाने के लिए अड़ गये, तो पूंजीपति वर्ग ने उनके साथ भी वही किया जो 1848 में लुई बोनापार्त को सत्‍ता से हटाने में महत्‍वपूर्ण क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाले मजदूर वर्ग के साथ किया गया था। उस पैमाने पर कत्‍लेआम तो नहीं किया गया, लेकिन होस्‍नी मुबारक के हटने और उसका ट्रायल शुरू होने के पहले ही हड़ताल पर रोक लगा दी गई और हड़ताली मजदूरों को बड़े पैमाने पर मिलिट्री कोर्ट का सामना करना पड़ा, और साथ में उनके आंदोलन के खिलाफ जबर्दस्‍त अभियान चलाया गया। यह अभियान भी जब असफल होता दिखा, तो बजाप्‍ता मजदूरों के सभा, प्रदर्शन, जुलूस व हड़ताल करने, यहां तक कि अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के खि‍लाफ सख्‍त से सख्त कानून बनाये गये।

दरअसल नये पूंजीवादी निजाम के लिए मजदूर वर्ग में आई राजनीतिक प्रौढ़ता एक सिरदर्द की तरह थी, क्योंकि उसे पता था मजदूर वर्ग उसका उपयोग अपनी मुक्ति की लड़ाई को तेज करने के लिए करेगा। इसलिए उसने सबसे पहले मजदूरों के संघर्ष को ही पूरी तरह से कुचलना शुरू कर दिया।

अगर हम मिस्र में बने इन कानूनों पर नजर डालें, तो भारत में मजदूर वर्ग के अधिकारों को कुचलने के लिए जो-जो किया गया या पूरी दुनिया के देशों में जो कदम लिए गए, ठीक वैसे ही कदम मिस्र में भी होस्नी मुबाकर के हटाये जाने के बाद, उसको हटाने में अहम भूमिका निभाने वाले मजदूर वर्ग के खिलाफ, भी उठाये गये। उदाहरण के लिए उपरोक्त नए दमनकारी कानून के अनुसार जुलूस या प्रदर्शन तथा सभा करने के पहले इसकी सूचना उस क्षेत्र के पुलिस थाने में कम से कम तीन दिन पहले आयोजकों के बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए करना अनिवार्य कर दिया गया। इसकी धारा 8 के अनुसार, पुलिस सभा में उपस्थित रहेगी एवं आंतरिक सुरक्षा मंत्री की देखरेख में तथा प्रत्येक प्रांत सुरक्षा निर्देशक के नेतृत्व में बनी एक कमिटी यह सुनिश्चित करेगी कि सभा व जुलूस या प्रदर्शन शांतिपूर्ण है, और अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर किसी भी तरह के साधन का उपयोग करते हुए वह हस्तक्षेप करेगी जिसमें कार्यक्रम को मौके पर रद्द करना भी शामिल है। धारा 9 के अनुसार अगर सभा में भाग लेने वाले व्यक्ति का व्यवहार शांतिपूर्ण तरीके के विरुद्ध जाता है तो फील्ड कमांडर के आदेश पर उस सभा को तितर-बितर किया जा सकता है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि सभा या इसमें शामिल किसी व्यक्ति का व्यवहार शांतिपूर्ण प्रकृति का है या नहीं, इसका निर्णय फील्ड कमांडर करेगा। किसी और की राय या जांच की जरूरत नहीं होगी। यानी प्रशासन चाहे तो वह सभा में अपने व्यक्ति को शामिल कराकर सभा को तितर-बितर कर सकती है। इसी तरह सभा और प्रदर्शन कितने बजे से कितने बजे तक चलेंगे इसका निर्धारण प्रशासन करेगा। यही नहीं, प्रदर्शनकारियों की तलाशी ली जाएगी। इसी तरह, मजदूरों को हड़ताल करने के वक्त अपने संस्थान या फैक्टरी के अंदर बैठने या बैठकर हड़ताल करने का अधिकार तो होगा लेकिन कहा गया कि इससे उत्पादन प्रभावित नहीं होना चाहिये तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए इससे कोई खतरा पैदा नहीं होना चाहिए! यहां समझने वाली बात यह है कि इसके बाद हड़ताल करने के अधिकार में क्या बचता है? कुल मिलाकर इस कानून में यह सुनिश्चित किया गया कि मजदूर हड़ताल, सभा, प्रदर्शन और जुलूस, आदि नहीं कर सकें। इस कानून की धारा 24 कहती है कि हड़ताली मजदूरों को हड़ताल शुरू करने के पहले सरकार व मालिक को पूर्व सूचना देने के अलावा उस फैक्टरी के यूनियन की सहमति लेनी होगी। अगर यूनियन सहमति नहीं देता है तो मजदूरों के हड़ताल करने का अधिकार खत्म हो जाएगा! दूसरी तरफ, मालिक को कभी भी लॉक आउट या बंदी करने की छूट होगी। मालिक को बस मजदूरों को लिखित में या सार्वजनिक नोटिस के द्वारा इसकी सूचना देनी होगी। जाहिर है, धारा 25 इस कानून का उल्लंघन करने वालों के लिए सख्त आर्थिक दंड (30000 लीरा से लेकर 100000 लीरा) व एक साल तक जेल की सजा मुकर्रर की गई।

इस तरह होस्नी मुबारक के हटने के बाद सत्ता में आये पूंजीवादी निजाम ने इस कानून को लागू करते हुए मजदूर वर्ग को लगभग पूरी तरह से नि:शस्त्र करने का काम किया जबकि तानाशाह को हराने में मजदूर वर्ग की ही मुख्य भूमिका थी। यानी तानाशाह को हटाकर खुद को सत्ता में लाते ही नये निजाम ने पुरानी दमनकारी सत्ता का उपयोग मजदूर वर्ग को ही दबाने के लिए किया। अप्रत्यक्ष तरीके से भी पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग को सत्ता में हिस्सेदारी नहीं दी जबकि होस्नी मुबारक के लोगों तक को हिस्सेदारी दी। उल्टे मजदूर वर्ग के जनवादी अधिकारों को कुचलना पूंजीपति वर्ग के लिए जरूरी हो गया। क्यों? इसलिए कि किसी भी पूंजीवादी निजाम को पता है कि अगर उसे अपने राज को बचाये रखना है तो मजदूर वर्ग को अपने “आयरन हील” के नीचे दबाकर रखना जरूरी है। आज के पूर्व दुनिया में जहां कहीं भी तानाशाही के खिलाफ लड़ाई में मजदूर वर्ग ने शहादत देते हुए उसे परास्त करने में अपनी भूमिका निभाई है, उन सभी देशों में जीत के बाद आई सरकारों ने उसे ही राजनीतिक रूप से दबाने का प्रयास किया है। जो फ्रांस की 1848 की क्रांति में मजदूर वर्ग के साथ पूंजीपति वर्ग द्वारा किया गया उसे बार-बार दुहराया गया है।

इसका सबक यह है कि आज फासीवाद को हराने की लड़ाई मजदूर वर्ग को स्वयं अपने ही नेतृत्व में लड़ने की जरूरत है,  वह भी कुछ इस तरह कि उसके बाद बनने वाली राजनीतिक सत्ता भी उसके हाथ में रह सके, अन्यथा मजदूर वर्ग के हाथ में जीत के बाद भी कुछ भी नहीं बचेगा। मजदूर वर्ग तथा उसकी अग्रगामी शक्तियों की राजनीतिक प्रौढ़ता का आज यही सबसे सटीक बैरोमीटर है कि वह फासीवादी शक्तियों के विरुद्ध लड़ते हुए उसकी जीत का फल पूंजीवादी पार्टियों के लिए छोड़ देता है या शुरू से ही इस लड़ाई को इस तरीके से चलाता है कि आगामी दिनों में उसकी जीत का फल भी उसके हाथ में रहे। समाजवाद में जाने के लिये आज फासीवाद से चुनौती एकमात्र इसी तरह से ली जा सकती है।


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