मजदूरों की लाशों के ढेर पर खड़े समृद्ध पूंजीवादी देशों की सच्चाई

कुवैत में आवासीय इमारत में आग लगने से 45 भारतीय आप्रवासी श्रमिकों की हुई मौत हादसा नहीं, हत्या है।

आकांक्षा

पिछले दिनों कुवैत के मंगफ इलाके में एक सात-मंजिला इमारत में आग लगने से लगभग 50 आप्रवासी (इमिग्रेंट) मजदूरों/कर्मचारियों की मौत हो गयी, जिसमें से लगभग 45 भारत के और कुछ फिलिपींस के नागरिक थे। इसके अलावा दर्जनों लोग, जिसमें भी अधिकतर भारतीय हैं, जख्मी हालत में अस्पताल में भरती हैं। इनमें से अधिकांश की आयु 20 से 50 के बीच थी और वे एनबीटीसी ग्रुप नामक एक निजी निर्माण कंपनी में इंजीनियर और टेक्निशियन का काम करते थे। लोग विगत 12 जून को लगी इस आग को एक “हादसा” कह रहे हैं। लेकिन इस घटना की सतह के नीचे कुरेदते ही पता चल जाता है कि यह ना ही एक हादसा है और ना ही कोई एक बार होने वाली घटना है, बल्कि मुनाफे की हवस और लालच से प्रेरित रोज होती हत्याओं में से एक है।

कुवैत की दो-तिहाई आबादी आप्रवासी मजदूरों की है। डॉक्टरों, इंजीनियरों और चार्टर्ड अकाउंटेंट्स से लेकर ड्राइवरों, बढ़ई, राजमिस्त्री, घरेलू कामगारों और डिलीवरी एजेंटों तक – कुवैत भारतीय कार्यबल पर बहुत अधिक निर्भर है। ये मजदूर प्रायः लेबर कैंप या मंगफ जैसी अर्ध-निर्मित इमारतों के तंग कमरों में नारकीय परिस्थितियों में रहते हैं। उपरोक्त सात-मंजिला इमारत में लगभग 200 कर्मचारी रहते थे। इस बिल्डिंग में इतने लोगों की जगह नहीं थी अतः यहां कमरों को पार्टीशन से पिंजरे जैसे छोटे-छोटे केबिन्स में बांट दिया गया था। इसके लिए जो सामान इस्तेमाल किया गया वो अत्यंत ज्वलनशील था और इसलिए गार्ड के कमरे में शार्ट सर्किट से लगी आग तुरंत भर में पूरी बिल्डिंग में फैल गयी। बिल्डिंग मालिक यह जानते थे कि इतनी तंग जगह में, बिना समुचित सुरक्षा व्यवस्था के, इतने सारे लोगों को रखना खतरे से खाली नहीं है लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपने फायदे के लिए इन मजबूर आप्रवासी श्रमिकों को मौत के मुंह में धकेल दिया। ज्ञात हो कि मंगफ इलाके की इस बिल्डिंग में कर्मचारी किराया दे कर रहते थे। सभी जगह किराया इतना महंगा है कि किसी बेहतर व्यवस्था के लिए उन्हें अपनी पगार का एक बड़ा हिस्सा देना होता और ऐसे में उनके पास घर भेजने के लिए पैसे ही नहीं बचते। जब पढ़े-लिखे मध्य वर्ग से आये कर्मचारी ऐसी स्थिति में रहने को मजबूर हैं तो हम बस कल्पना ही कर सकते हैं कि अकुशल मजदूरों व कम आय वाले वर्गों के लिए बने लेबर कैंपों की क्या स्थिति होगी!

सात साल पहले, 14 जून 2017 को, लन्दन में मजदूरों के लिए बनी एक 24-मंजिला अपार्टमेंट ‘ग्रेनफेल टावर’ में आग लग गयी थी। वहां भी कुवैत की तरह ही मालिकों द्वारा अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए, सारे खतरों को जानते हुए भी, बिल्डिंग के निर्माण में सस्ती सामग्री का इस्तेमाल किया गया जो अत्यंत ज्वलनशील थीं। अतः रात 1 बजे जब आग लगी तो तुरंत भर में पूरी बिल्डिंग में फैल गयी और 60 घंटों तक बुझाई ना जा सकी। इस “हादसे” में 72 मजदूर मारे गए थे। इस घटना को सात साल बीत गए। अभी तक इन बेकसूर मजदूरों की मौत के लिए किसी को भी सजा नहीं हुई है। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था के आदर्श शहर लंदन जैसे समृद्ध और सुविधा संपन्न जगह पर मजदूर वर्ग के प्रति इस तरह के अमानवीय और बर्बर रवैये ने उस “सभ्य समाज” की पोल खोल कर रख दी थी।

भारत में, बिहार और उत्तर प्रदेश से कई मजदूर खाड़ी (गल्फ) देशों में निर्माण क्षेत्र में काम करने जाते हैं। इस पलायन के पीछे का सबसे बड़ा कारण है बेरोजगारी। अपने देश में जब मजदूरों को काम नहीं मिलता या काफी कम मजदूरी मिलती है तो उन्हें मजबूरी में पलायन करना पड़ता है। भारत की तुलना में बाहरी देशों में मजदूरी ज्यादा है अतः वहां मजदूर कुछ बचत करके पैसे घर भेज पाते हैं। लेकिन उन्हें इसकी कीमत अपना सामान्य जीवन, या कभी-कभी तो अपनी जान दे कर भी चुकानी पड़ती है। विदेश मंत्रालय के अनुसार 2022 और 2023 के बीच कुवैत में कुल 1439 भारतीयों की मृत्यु हुई, जिनमें ज्यादातर प्रवासी श्रमिक थे।

इन गल्फ देशों में, आप्रवासी मजदूर और कर्मचारियों के लिए रहने की स्थितियां तो भयावह हैं ही, कार्यस्थल पर भी उन्हें गुलामों की तरह खटाया जाता है। वहां के कई मानवाधिकार संगठनों ने कई बार आप्रवासी मजदूरों के शोषण और उनके राजनीतिक, सामाजिक व श्रम अधिकारों के हनन के खिलाफ आवाज उठायी है लेकिन इसके बावजूद उनकी समस्याएं वहीं की वहीं हैं। आरटीआई से पता चला है कि जून 2019 और 2023 के बीच कुवैत में श्रमिकों द्वारा 23,020 शिकायतें दर्ज की गई थीं, जो सभी गल्फ देशों में सबसे ज्यादा है। इनमें से सबसे आम शिकायतों में है – काम करा कर पैसे ना देना, अनुचित कार्य परिस्थितियां और ठेकेदार/मालिकों द्वारा परेशान किया जाना। भारत या ऐसे ही अन्य देशों से जाने वाले मजदूर किसी ठेकदार/एजेंट के जरिये काम करते हैं। ठेकेदार-मजदूर का यह संबंध अत्यंत शोषणकारी होता है। कई बार मजदूरों के पासपोर्ट और अन्य जरूरी दस्तावेज ठेकेदार अपने पास रख लेता है जिसके फलस्वरूप मजदूर अपने देश वापस नहीं जा पाता और लगभग बंधुआ के रूप में काम करने को मजबूर होता है।

मजदूर जब अपना घर, अपना देश छोड़ कर दूसरे देशों में जाते हैं तो उन्हें पता होता है कि इसमें क्या जोखिम है, इसके बावजूद वे बाहर जाना चुनते हैं क्योंकि भयानक अभाव और बेकारी के मारे इन मजदूरों के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है। वे जानते हैं कि बाहरी देशों में शोषण से भाग कर वे जिस जगह जायेंगे, वहां भी स्थितियां वैसी ही या उससे भी बदतर हैं। अभी कुछ महीने पहले ही, इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध के बीच, इजरायली सरकार की अपील पर भारत सरकार ने भारतीय श्रमिकों को वहां भेजने का निर्णय किया। युद्धग्रस्त इजरायल में जाने के लिए यहां मजदूरों की लाइन लगनी शुरू हो गयी। विगत अप्रैल-मई में 6000 भारतीय मजदूर इजरायल पहुंचा दिया गये। इसके पहले से भी कई श्रमिक वहां कार्यरत थे। मजदूरों का कहना था कि, “यहां रह कर बिना काम के भूख से मर ही रहे हैं, वहां जायेंगे तो कम से कम परिवार को कुछ सुख-सुविधा तो दिला पाएंगे।” भारत की मोदी सरकार को शर्म आनी चाहिए कि महंगाई-बेरोजगारी की मार से परेशान मजदूर की बेबसी यहां तक पहुंच गयी कि उसे एक पराये देश में युद्ध के बीचोबीच जाना भी मंजूर हो गया।  

कुवैत की घटना ना ऐसी पहली घटना है, और ना ही आखिरी। ये मुनाफे पर टिकी इस हत्यारी व्यवस्था का अपरिहार्य परिणाम है। ये इस पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर की घृणित सच्चाई है कि मालिक चंद रुपये बचाने के लिए अनगिनत मजदूरों की जान आये दिन जोखिम में डालते रहते हैं। और ये पूंजीवादी राज्य उन्हें ऐसा करने में ना सिर्फ रोकता नहीं है, बल्कि मदद करता है। मजदूर कहीं सुरक्षित नहीं हैं – न अपने रहने की जगह पर और ना ही अपने कार्यस्थल पर। इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार भारत में रोजाना 3 मजदूर फैक्ट्री हादसों में मारे जाते हैं। अगर निर्माण और अन्य क्षेत्रों में होने वाली मौतों को जोड़ लें तो ये संख्या और ज्यादा हो जाएगी। ज्ञात हो कि भारत का लगभग 90% कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता है जहां हादसों और मौतों की खबरें अधिकतर दबा दी जाती हैं। दुनिया के सबसे समृद्ध देशों की चकाचौंध के पीछे वे श्रमिक हैं जिन्हें गुलामों की तरह सस्ती मजदूरी पर नारकीय परिस्थितियों में जीवन निर्वाह करने के लिए मजबूर कर दिया गया है। पूंजीवाद के ये महल इनकी लाशों के ढेर पर ही खड़े हैं। मजदूर वर्ग किसी तरह अपना जीवन चलाने के लिए पूरे पूंजीवादी व्यवस्था का भार उठाए हुए है। जिस दिन उसे अपनी इस ताकत का अहसास हो जाएगा, उस दिन वो अपने जीवन को केवल चलाने के लिए नहीं, बल्कि उसे बेहतर करने के लिए इस आदमखोर व्यवस्था को अपने कंधों से उतार फेंकेगा और उसकी जगह पर अपने और दुनिया भर के सभी दमित-उत्पीड़ित वर्गों के लिए एक बेहतर समाज की नीव रखेगा।


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