संपादकीय | ‘सर्वहारा’ #70 (16 फरवरी 2025)
आखिरकार भाजपा ने दिल्ली जीत ली। लेकिन क्या वह प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हवाले से किये गये वायदे भी पूरा करेगी? नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की चुनावी रैलियों में जनता से यह वादा किया है कि जीत मिलने पर हर महीने की 8 तारीख को हर महिला के खाते में 2500 रुपये की राशि चली जाएगी। उन्होंने 500 रुपये में गैस सिलिंडर देने का वादा भी किया है। यमुना की सफाई तो जाहिर है वे फटाफट कर ही देंगे! इस संबंध में मोदी द्वारा की गयी तगड़ी आलोचना का तो यही अर्थ निकलता है। वैसे ‘मुफ्तखोरी’ को बढ़ाने वाले उनके वायदों की फेहरिस्त काफी लंबी है। मानो उनमें केजरीवाल घुस गया हो। फिर भी यह याद दिलाना जरूरी है कि वे केजरीवाल सरकार द्वारा वर्तमान में लागू की जा रही फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री इलाज, फ्री शिक्षा, सरकारी अस्पतालों एवं मोहल्ला क्लिनिकों में फ्री इलाज व दवाई, बुजुर्गों के लिए फ्री तीर्थ-यात्रा और महिलाओं के लिए सरकारी बसों में फ्री यात्रा, आदि को भी जारी रखेंगे। इसके अलावा गरीबों के लिए आवास की बात तो वो पहले से करते आ ही रहे हैं! मतलब जनता को अब केजरीवाल की फ्री योजनाओं के साथ-साथ मोदी की लगभग आधा दर्जन फ्री योजनाओं का लाभ भी मिलेगा और इस तरह दिल्ली की गरीब जनता के लिए भाजपा की जीत में बहार ही बहार है! जनता को वैसे यह जरूर याद करना चाहिए कि 2014 से अब तक मोदी द्वारा किये गये अनगिनत वायदे पूरे हुए या नहीं हुए। वैसे दिल्ली की जनता इस प्रचार की भी जांच कर ले कि “पूरी दुनिया में हमारे देश का नाम ही शायद इसलिए हो रहा है कि मोदी के वायदे के अनुसार भारत विकसित हो रोजगार और संपन्नता से भरा-पूरा हो चुका है और कल की गरीब जनता भी आज हर तरह की सुख-सुविधा से भरपूर आनंद का जीवन व्यतीत कर रही है!” बस दिल्ली बाकी थी।
तो यहां एक बात पूरी तरह स्पष्ट है। आज के एकाधिकारी वित्तीय पूंजीवाद के युग में नेहरू युग (जब राजकीय पूंजीवाद की मातहती में नियंत्रित निजी पूंजीवाद काम करता था) से मिलता-जुलता कोई ‘जनपक्षीय’ मॉडल या उसके निम्नस्तरीय कैरीकेचर (फ्रीबीज़) यानी उसकी भोंडी नकल (जैसा कि केजरीवाल का मॉडल था और अब मोदी का भी है) के लिए भी कोई जगह नहीं बची है। लेकिन ये कैसे हो सकता है कि केजरीवाल की फ्रीबीज़ पॉलिटिक्स का कैरिकेचर करने की जरूरत मोदी को भी पड़ गई? वैसे जवाब आसान है। मोदी को केजरीवाल का कैरिकेचर इसलिए करना पड़ गया क्योंकि ऐसा किये बिना ‘आप’ को हराना फिलहाल मुश्किल था। इसके आगे की बात यह है कि एकाधिकारी पूंजी ने इसके लिए मोदी को इसलिए इजाजत दी ताकि गरीब जनता की भलाई के केजरीवाल मार्का भ्रमजाल, जो उसके आड़े आ रही थी, को हिंदू-मुस्लिम की राजनीति की आग में भस्म करने का अवसर भाजपा को मिल सके, उसे नफरती राजनीति की आग में पकाया जा सके और फिर उसे बंटोगे तो कटोगे की फासीवादी राजनीति की चाशनी में डूबाकर एक घातक कॉकटेल तैयार किया जा सके। यानी मोदी का केजरीवाल मॉडल के आगे झुकने का मकसद एक तो दिल्ली में भी आज्ञाकारी लाभार्थी वर्ग बनाना, उसके जरिये सांपद्रायिक राजनीति को आगे बढ़ाना है और फिर इसकी आग में ऐसे जनपक्षीय दिखने वाले वायदों की राजनीति से हमेशा के लिए मुक्ति पा लेना है। जाहिर है फासीवाद की पूर्ण विजय ऐसी तमाम जनपक्षीय राजनीति, जिससे नेता की कृपा की जगह जनता के हक की सुगंध आती हो, का अंत कर देगी। मोदी के यहां ”झुकने” का यही अर्थ है। जनता के हक के रूप में जनता को कुछ मुफ्त देने की राजनीति को बढ़ाने का मकसद नरेंद्र मोदी का हो ही नहीं सकता है।
उनकी लगातार जीत का मुख्य कारण, जाहिर है, मेहनतकश जनता का और खासकर मजदूर वर्ग का राजनीतिक व वर्गीय दृष्टि से अशिक्षित और असचेत होना है। असल में, वर्ग-हित की समझ बनाना भी तब और कठिन हो जाता है जब क्रांतिकारी राजनीति उन तक पहुंच ही नहीं पाती है। इस वजह का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पूंजी के इतने लंबे समय से हो रहे भयानक हमलों के बावजूद क्रांतिकारी राजनीति का मजदूर वर्ग में बीजारोपण नहीं हो पा रहा है। यानी, मजदूर वर्ग के बीच दुखों से मुक्ति हेतु कोई रोशनी नहीं पहुंच पा रही है। ऐसे में ‘लड़ते हुए भी भूख और गरीबी से मरना एकमात्र नियति है’ का भाव पैदा होने लगना असंभव नहीं है। तब यह संभव है कि मजदूर वर्ग के पिछड़े हिस्से, जो कि एक बहुत बड़ा हिस्सा है, को धर्म की रक्षा करने वाली राजनीति में अपने दुख से पीड़ित लक्ष्यविहीन जीवन का सार दिखने लगे, इसमें उन्हें जीवन का एक लक्ष्य प्राप्त होने लगे। मोदी की राजनीति इस धार्मिक भाव को दूसरे धर्म के विरुद्ध लक्षित कर इसका सांप्रदायिकीकरण कर देती है। इस तरह गरीबों और गरीबी दोनों का सांप्रदायिकीकरण करने में मोदीनीत भाजपा सफल हुई है। इसका ही एक नमूना है लोगों के दिमाग में इस विचार का घर कर जाना कि ‘चाहे जो हो लेकिन मोदी है तो मुल्ला टाइट है।’ धार्मिक नफरत वाली राजनीति इस तरह जनता के वास्तविक दुखों का आश्रय बन जाती है। पहले धर्म का सार क्या था? पहले भौतिक दुनिया के दुख-तकलीफ से पीड़ित लोग धर्म में आश्रय ढूंढते थे। लेकिन आज धार्मिक नफरत में ढूंढते हैं। यह मोदीनीत राजनीति का ही करिश्मा है जिसने उपरोक्त तरह की भूमिका निभाने वाले धर्म को भी जनता से छीन कर पूंजी के मालिकों के हवाले कर दिया है, फिर भी जयकार हो रहा है। हम इसे चल रहे महाकुंभ में देख सकते हैं जहां धनी लोगों की सुविधा के लिए इसे जनता की पहुंच से दूर कर दिया गया है। फिर भी जनता खुश है। यह मोदीमार्का राजनीति के सोशल इंजीनियरिंग का ही नहीं वर्गीय इंजीनियरिंग के आधार व तकनीक को दिखाता है।
जहां तक कम्युनिस्टों की बात है, तो अर्थवाद तक सीमित उनके व्यवहार व सोच ने मजदूर वर्ग का पूरा राजनीतिक बेड़ा गर्क कर रखा है। पूंजीवाद में विकास का मतलब पूंजी का संचय, उसका संकेंद्रण व केंद्रीकरण है। नियम-कानून भी इसके अनुकूल ही होते हैं। इसलिए पूंजीवाद में विकास का न तो कोई वैकल्पिक मॉडल हो सकता है और न ही आज के संकटग्रस्त पूंजीवाद में मेहनतकशों के लिए कोई वैकल्पिक कानूनी संहिता बन सकती है। तमाम विकास के बावजूद गरीबी और बेरोजगारी बढ़ती जाती है। धन का संकेंद्रण बढ़ता जाता है। इसी तरह सारे कानून भी पूंजीपतियों के वर्ग-हित के अनुरूप सीमित होते जाते हैं। लेकिन क्रांतिकारी खेमा, ऐसा लगता है, इन बातों को लेकर भी भ्रम में है। तभी तो वह इस दौर में मजदूरों तक पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने का लक्ष्य प्रचारित करने के बजाए वैकल्पिक श्रम कानून संहिता ले जाने की बात करता है।
इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था में, जहां समस्त संपदा और उसके स्रोतों पर पूंजीपति वर्ग का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नियंत्रण होता है, उसमें मेहनतकश जनता की सामाजिक जरूरतों की नि:शुल्क पूर्ति वाले मॉडल की राजनीति छलावा ही हो सकती है, वह भी अत्यंत सीमित अर्थों में। तब भी, कोई तथाकथित कट्टर उत्साही नेता इसे लागू करने की कोशिश करता है तो उसकी यह कोशिश अपंग और एकांगी ही साबित होगी, क्योंकि इसके लिए जरूरी पूंजी तो पूंजीपति वर्ग ने बेशी मूल्य के रूप में हड़प रखी है। ऐसे में नतीजा यह होगा कि विकास के अन्य सारे कार्यों के लिए सरकारी फंड कम पड़ जाएगा। मसलन, सड़कें नहीं बन पाएंगी, कचरा साफ नहीं हो पाएगा तथा इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के काम नहीं हो पाएंगे। इन सबका असर घूम-फिर कर जनता पर ही पड़ेगा और उसकी सामाजिक जरूरतों की आपूर्ति बजट घाटा और कर्ज के कारण बाधित होगी। ऐसे में केजरीवाल मॉडल, जो अपने आप में नेहरू युग का एक तुच्छ कैरिकेचर था, आखिर कब तक टिकता?
जहां तक जनता के द्वारा मोदी में व्यक्त भरोसे की बात है, और अगर हम प्रख्यात व्यंग लेखक व साहित्यकार हरिशंकर परसाई के शब्दों में कहें, तो हम कह सकते हैं कि जनता को जल्द ही पता चल जाएगा कि उसने ‘जिसे भेड़ समझ अपना प्रतिनिधि चुना है वह खूंखार भेड़िया है।’ जनता अगर रामनामी चादर ओढ़े और हिंदू-मुस्लिम नफरत और हिंदू-राष्ट्र मार्का राजनीति करने वाले को अपना मुक्तिदाता समझ कर जिताती रही, तो जल्द ही वह दिन भी आने वाला है जब न तो वायदा करने वाली यह चुनावी पद्धति रह जाएगी और न ही चुनाव के दौरान रिश्वत के रूप में विशाल धनराशि खर्च करके जनता का वोट पाने की पूंजीपति वर्ग की मजबूरी। वे जिसे चुन रहे हैं वह जनतंत्र और जनवाद को ही खत्म कर देगा। तब ”भेड़ियों” को ”भेड़ों” के बीच जाकर ‘सेवा करने का मौका देने’ की गुहार लगाने की जरूरत नहीं रह जाएगी। वे बिना इजाजत ही जनता की हर तरह की ‘सेवा’ करने का इंतजाम खुद ही कर लेंगे।
एक और मार्के की बात है केजरीवाल की नैतिकताविहीन राजनीति। जब जनता के बीच भाजपा के नेताओं ने बेशुमार पैसे बांटने शुरू किये, तो केजरीवाल ने जनता से भरी सभा में कहा, ”पैसे ले लेना लेकिन वोट ‘झाड़ू’ को देना।” उन्होंने यह नहीं कहा कि ”इस तरह के अनैतिक लोभ में मत पड़ो” जो बताता है कि केजरीवाल की राजनीति किस तरह की अनैतिकता और विचारहीनता पर आधारित थी। क्या गरीब जनता अपनी सामाजिक जरूरतों की निशुल्क पूर्ति और अपने श्रम से पैदा मूल्य पर अधिकार की लड़ाई बिना किसी वैचारिक-राजनैतिक चेतना के ही लड़ सकती है? कुछ हजार रुपयों के लिए नैतिकता के परित्याग का आह्वान करने वाले केजरीवाल को शायद यह पता ही नहीं है कि अरबों-खरबों रुपयों के स्वामी पूंजीपति वर्ग के आज्ञाकारी सेवक मोदी का सामना वे इस तरह की गरिमाविहीन राजनीति और अनैतिक आह्वान से नहीं कर सकते हैं। इसलिए हम पाते हैं कि भाजपा ने इस बार इसका शानदार रास्ता निकाल लिया। उसने पैसे तो बांटे ही, देवताओं के सामने महिलाओं से अपने बच्चों और पतियों की कसमें भी खिलवाईं। और बस काम हो गया। पैसे लेकर वोट नहीं देने पर धमकियां भी दी या दिलवाई गईं होंगी। लेकिन बात फिर वही है। जिस जनता को केजरीवाल ने कुछ हजार रुपये के लिए झुकना सिखाया, वह जनता जान की धमकी से लड़ने का साहस कैसे करती? आधुनिक समाज में उसकी समस्त सामाजिक आय का एकमात्र स्रोत मजदूर वर्ग द्वारा पैदा मूल्य और बेशी मूल्य है जिसे पूंजीपति वर्ग हड़प लेता है। जब तक इस पूंजीवादी हस्तगतकरण को आधुनिक समाज खत्म नहीं करता है और सारे उत्पादन के साधनों को सामाजिक स्वामित्व में नहीं ले आता है तब तक वह समाज जनता के विकास और उसकी सामाजिक जरूरतों पर समुचित रूप से खर्च नहीं कर सकता है। अगर मेहनतकश चाहते हैं कि सामाजिक उत्पादन का उपयोग उनकी अपनी समाजिक व सामूहिक जरूरतों (स्कूल, परिवहन, अस्पताल, सड़क, आदि) की पूर्ति के लिए हो, तो उन्हें इस पूंजीवादी उत्पादन संबंध (जिसके तहत मजदूर वर्ग को एकमात्र अपनी श्रम शक्ति के मूल्य से संतोष करना पड़ता है, जबकि उनके द्वारा ही पैदा किये गये समस्त बेशी मूल्य को पूंजीपति वर्ग हड़प लेता है) पर आधारित सामाजिक उत्पादन के निजी हस्तगतकरण की व्यवस्था को खत्म करना होगा। दूसरे अर्थां में, समस्त उत्पादन साधनों पर सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना होगा। यही समाजवाद है। यही मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है। यही मजदूरों का वास्तविक लक्ष्य होना चाहिए।