नयी मानवता – रामवृक्ष बेनीपुरी की रचना ‘लाल रूस’ से (भाग-2)

(3) आयोजित अर्थनीति व्यक्तिगत सुरक्षा का इत्मीनान सबको दिलाती है। कहीं बीमार हो गया तो मेरा और मेरे परिवार का क्या होगा? बुढ़ापे में किसका सहारा मैं लूँगा? इन सब बातों की चिन्ता पूँजीवादी समाज में मानवता को व्याकुल किये रहती है। इस चिन्ता से मुक्त होने के लिए वह धन जोड़ती है, धन के लिए सब कुकर्म करने को तत्पर रहती है। व्यक्ति को समाज पर विश्वास नहीं, अंश सम्पूर्ण को शंका की दृष्टि से देखता है। जहाँ कहीं बेकारी का भत्ता या बुढ़ापे की पेंशन मिलती भी है, वह इतने छोटे परिमाण में और ऐसी बुरी शर्तों के साथ कि कोई भलामानस उसके पास फटकने में शर्म अनुभव करता है। किन्तु सोवियत संघ में ऐसी बात नहीं। वहाँ हर व्यक्ति समाज पर आश्रित है। समाज उसे सुरक्षा की गारंटी देता है। वह अपने को पूर्णतः सुरक्षित समझता है। अगर वह बीमार पड़ता है, तो उसे बीमारी का मुशाहरा मिलता है। वह बूढ़ा होता है, तो उसे सम्मान के साथ पर्याप्त पेंशन ठीक उसी तरह मिलती है जिस तरह सरकारी हुक्कामों को।

तेल उद्योग का निर्माण – बढ़ी हुई गति! ~ सोवियत संघ की दूसरी पंचवर्षीय योजना का पोस्टर, 1933

(4) आयोजित अर्थनीति मानव मन से भय को सदा के लिए दूर कर देती है। भय व्यक्तित्त्व को दबा देता और जीवनशक्ति को कम कर देता। ‘मा भय’- मत डरो, यह वेद की वज्रवाणी है। भय दूर हुआ और अपार शक्ति उन्मुक्त हुई। जहाँ देखो कि प्रतिभा का विकास नहीं हो रहा है, समझो, वहाँ भय का भूत कहीं छिपा होगा। आज सोवियत संघ जो इतनी उन्नति कर रहा है, वह इसीलिए कि उसके नागरिकों के हृदय से भय सदा के लिए दूर हो चुका है। पूँजीवादी देशों में भय मजदूरों के पीछे भूत सा लगा रहता है। कहीं मुझे निकाल नहीं दिया जाये, कहीं मेरी नौकरी न छिन जाये, यह उसके दिमाग को चक्कर में डाले रहता है। बेकारी, मंदी, बीमारी, बुढ़ापा आदि के भय की चट्टान उसके हृदय को कुचले रहती है। मध्यमवर्ग, किसान और टुटपुंजिया बाबू दल – भी भय के दायरे से बाहर नहीं। शायद वे और भी भयभीत रहते हैं। उनके पास जो थोड़ी-बहुत जर-जमीन है, उसके खो देने की चिन्ता उन्हें परेशान किये रहती है। फासिज्म भय की नींव पर ही कायम हुआ, निर्धनों के भय से धन वाले तानाशाहों की गोद में जा गिरे। भय आदमी में न किसी चीज के प्रारम्भ करने का माद्दा रहने देता है, न कुछ साहसिक कार्य सम्पन्न करने का। भय कुछ को बुजदिल और बाकी को जानवर बना देता है। सोवियत संघ ने अपनी सीमा से भय को सदा के लिए दूर कर दिया है। कितने ही प्रकट भयों को उसने एक ही झटके में दूर फेंक दिया है। सोवियत के माता-पिता को यह भय नहीं है कि जब उसके घर में कोई नवशिशु आवेगा तो उसका लालन-पालन वह कैसे करेगा। डॉक्टर और दवा के खर्चों और स्कूल और कॉलेज की फीसों का वहाँ क्यों भय होने लगे? कम वेतन, ज्यादा काम का भी वहाँ भय कहाँ?

(5) आयोजित अर्थनीति झूठ और धोखेबाजी को रोकती है। पूँजीवादी उद्योगों में झूठ और फरेब का बोलबाला रहता है। यहाँ तक कि बेहयाई से कहा जाता है कि व्यापार और उद्योग में सत्य का स्थान कहाँ? छः दिन पाप करो और सातवें दिन गिरजाघर में क्षमा माँगो- यह घिनौनी नीति सर्वत्र बरती जाती है। श्रमजीवी भी लाचारी में झूठ की शरण लेने पर बाध्य होता है। अगर वह ऐसा न करे तो वह न सिर्फ अपनी बरबादी करे, बल्कि अपने भाइयों को भी खतरे में रखे। लेकिन सोवियत योजना में झूठ के लिए स्थान कहाँ? सोवियत रूस में कूट के जूते को चमड़े के नाम पर बेचने की जरूरत ही क्या है? और न एक आदमी के काम करने की फुरती, दूसरे आदमी के लिए सर्वनाश का कारण बन सकती है। फुरती, कारीगर और आविष्कार उद्योग-धन्धों में तरक्की करते हैं, जिनका फल सब समानरूप में भोगते हैं। वहाँ सच बोलना एक सामाजिक गुण है और ऐसा करना सम्भव है। ऐसा करके किसी की रोजी या जिन्दगी पर खतरा नहीं लाया जा सकता।

(6) आयोजित अर्थनीति स्वार्थ और परमार्थ में जो परस्पर विरोध और कलह है, उसे समाप्त करती और दोनों का बहुत ही सुन्दर समन्वय करती है। इस समन्वय का अभाव व्यक्तित्व को दो टुकड़ों में बाँट देता है। यह समन्वय व्यक्तित्व को बहुत ऊँचा उठा देता है। मेरा यह सफल परिश्रम मुझे तो वैभवशाली बनाता ही है, मेरे साथियों को मुझसे भी ज्यादा धन-धान्य पूर्ण करता है – यह कल्पना कितनी दिव्य, कितनी ऊँची, कितनी प्रेरक है। पूँजीवादी देशों और परमार्थ में शाश्वत कलह रहता है और दुर्बल मानव दोनों के बीच कुचल जाता है। उसकी आत्मा दुविधा में सिसकियाँ भरती रहती है। आयोजित अर्थनीति दुविधा को दूर करती है, आत्मा को आजाद बनाती है। अच्छा कारीगर बन के अच्छी मेहनत करके मैं अच्छा मुशाहरा प्राप्त करता हूँ, अच्छी तरह रहता और मौज करता हूँ। किन्तु यह मेरी कारीगरी, यह मेरी मेहनत जहाँ मुझे अच्छा मुशाहरा देती है, वहाँ मेरे पड़ोसियों को, मेरी देशभाइयों को भी, समष्टि रूप से लाभ पहुँचाती, ऊपर उठाती है। यों वहाँ स्वार्थ और परमार्थ एक-दूसरे का दामनगीर होकर चलते हैं – ठीक खेल की किसी टीम की तरह, जहाँ किसी खिलाड़ी का अच्छा खेल टीम को जिताता है, साथ ही उसे भी प्रसिद्धि और सम्मान देता है।

(7) आयोजित अर्थनीति मिल्कियत और जवाबदेही की एक नये ढंग की भावना पैदा करती है। इस आर्थिक योजना में हर मर्द, हर स्त्री, हर बच्चे के लिए जगह है और इसकी पैदावार में सबका हिस्सा है, यह ज्ञान लोगों में साझी मिल्कियत और स्वामित्व की भावना भरता है। किसान, मजदूर, कारीगर, विद्यार्थी, बच्चे – सभी के मुँह से ‘हमारा’ देश, ‘हमारा’ कारखाना, ‘हमारा’ खेत, ‘हमारी’ दुकान, ‘हमारा’ सिनेमाघर निकलते है – ‘मेरा’ वहाँ सदा के लिए मर चुका है, किन्तु यह ‘हमारा’ भी कम मोहक और प्रेरक नहीं है!

मिल्कियत की यह भावना जवाबदेही की भावना को पैदा करती है। एक नौजवान एक बार जमीन के नीचे चलनेवाली रेल के डब्बे के दरवाजे पर पैर रखकर देखना चाहता था; देखें, क्या होता है? एक किसान औरत ने उसे झिड़क दिया – तुम ‘हमारी’ चीज का नुकसान करना चाहते हो! वहाँ हर व्यक्ति यह अनुभव करता है कि संघ के अन्दर की सभी चीजें सब की हैं, इसलिए उसकी भी है। अतः, उनका जरा भी नुकसान वह बरदाश्त नहीं कर सकता-ऐसा करनेवालों को वह या तो अज्ञानी या अपना दुश्मन समझता है। लेनिन ने शुरू से ही इस मिल्कियत और जवाबदेही की भावना की सृष्टि करने पर जोर दिया। एक बार उसने कहा था – हर रसोईदारिन को देश के संचालन की शिक्षा मिलनी चाहिए – क्योंकि यह देश ‘उसका’ भी है।

(8) आयोजित अर्थनीति काम के प्रति एक नया रुख पैदा करती है। क्योंकि सोवियत संघ में सबको काम करना लाजिमी है। निठल्ले व्यक्ति या वर्ग के लिए वहाँ जगह नहीं। हम लोग काम की प्रतिष्ठा के बारे में तो लम्बी-लम्बी बातें करते हैं, लेकिन काम से हमेशा भागने की कोशिश करते हैं। लेनिन ने शुरू से ही इस विचार का मुलोच्छेद करना शुरू किया कि मजदूर वर्ग किसी आरामतलब वर्ग से नीचा है या हाथ से काम करने वाला मजदूर संचालन करनेवाले मैनेजर वगैरह से घटिया दर्जा रखता है। आयोजित अर्थनीति की सफलता सबकी सहायता पर समान रूप से निर्भर करती है। सबको काम का आलिंगन करना चाहिए। प्रारम्भ से हो बच्चों में मजदूरों के समाज में काम करने के अभिमान की भावना भरी जाती है। सोवियत संघ में आरामतलब समाज के लिए जगह नहीं है, यद्यपि आराम हर व्यक्ति का अधिकार समझा जाता है और उसमें वृद्धि करना मुख्य उद्देश्य।

(9) आयोजित अर्थनीति जुर्म को कम करती है। जुर्मों पर अगर हम गौर से निगाह डालेंगे, तो हम पावेंगे कि जुर्म ज्यादातर गरीब करते हैं और गरीबी के चलते करते हैं। अगर गरीबी खत्म हुई, तो फिर जुर्म की जड़ ही कट गयी। जल्द धनी बन जाने की उत्सुकता भी जुर्म कराती हैं। आप इसे दूर कीजिये और दूर कीजिये ज्यादा काम लेना, बेमन का काम लेना, जबरदस्ती काम लेना, जिनके चलते आदमी जुआ, शराब व्यभिचार आदि में फँस जाता है। ऐसा करते ही आप देखेंगे कि आपको आधी कचहरियाँ और आधे जेल अभी खाली कर देने पड़ेंगे। सोवियत संघ में जुर्मों की कमी एक प्रकट सत्य है।

(10) आयोजित अर्थनीति सबके निकट एक रचनात्मक कार्यक्रम रखकर मानव जीवन में एक नया उत्साह और आनन्द की सृष्टि कर देती है। ‘साम्यवाद का निर्माण’ – आज वहाँ सबकी जबान पर है। सबको इसके लिए प्रयत्न करना है। सबके लिए इसमें स्थान नियत है। हर व्यक्ति इस ‘महान’ कार्य के लिए अपनी जरूरत महसूस करता है और यह महान कार्य सबके लिए समानरूप में सामाजिक मूल्य रखता है। यहाँ व्यर्थ परिश्रम या सिर्फ पैसे के लिए किया गया परिश्रम नहीं है। हम एक नये समाज की रचना कर रहे हैं यह समाज मनुष्य जाति को प्रकाशपथ दिखाने के लिए आकाश-प्रदीप का काम करेगा – इस महान कल्पना से ओत-प्रोत सोवियत संघ के नर-नारी असम्भव को भी सम्भव करने पर तुले हैं।

(11) यह अर्थनीति सोवियत संघ के अन्दर बसे हर नस्ल, हर रंग, हर पेशे के लोगों को समानरूप से आलिंगित करती है। देश के कोने-कोने में बसी हर छोटी-बड़ी नस्ल के हर उद्योग और कृषि इसके दायरे के अन्दर हैं। सिर्फ सैनिक या आर्थिक दृष्टि से ही कृषि और उद्योगों का नया वितरण नहीं किया गया है। मानवता का यही तकाजा था। सभी मानव भाई हैं। सबके लिए काम है, सबके लिए उसका सुन्दर फल है। संघ के जो विकसित अंग हैं, वे तेजी से कदम बढ़ाते हैं सही; लेकिन पिछड़े अंगों के कदम में और भी ज्यादा तेजी है और वह दिन दूर नहीं जब संघ का हर अंग समान रूप से सुविकसित और स्वस्थ-सबल हो जायेगा। दुनिया की पिछड़ी नस्लों के लिए सोवियत का मानो यह स्वर्ग-सन्देश है। यों नयी मानवता के निर्माण के लिए जिन-जिन उपकरणों की जरूरत है, सोवियत संघ में सभी प्राप्त हैं। फिर, वहाँ उसका जन्म क्यों न हो?

(मूल पाण्डुलिपि के कुछ पृष्ठ उपलब्ध ना होने के कारण इस लेख को (3) से शुरू किया गया है)


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