साथियो!
आगामी 5 फरवरी 2025 को दिल्ली में विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं। केजरीवाल सरकार पर भाजपा का आरोप है कि वे जनता को “मुफ्तखोरी” सिखाते हैं क्योंकि वे मुफ्त बिजली, पानी, शिक्षा, इलाज, परिवहन, आदि की राजनीति करते हैं। आज से पहले, यानी पूंजीवादी राज्य जब तक कल्याणकारी राज्य का ढोंग करने के लिए किसी न किसी रूप में मजबूर था, पूंजीवादी सरकारें भी इन सेवाओं को बहुत कम कीमत पर, लगभग निशुल्क, उपलब्ध कराती थीं। उदाहरण के लिए, भारत में 1980 के दशक के मध्य तक सभी का इलाज सरकारी अस्पतालों में बहुत ही कम खर्च पर होता था और सरकारी विद्यालयों व कॉलेजों में ही सभी के बच्चे पढ़ते थे। लेकिन आज बड़ी पूंजी इन सेवाओं पर पूर्ण रूप से कब्जा कर इन्हें अकूत मुनाफे का क्षेत्र बना चुकी हैं। ऐसा इनका बड़े पैमाने पर निजीकरण करके किया गया जिसकी शुरूआत 1980 के दशक में हुई। परिणामस्वरूप आज ऐसी सारी सेवायें – शिक्षा, पानी, बिजली, स्वास्थ्य, परिवहन, आदि – बहुत महंगी हो गयी हैं और जनता का एक बड़ा हिस्सा इन जरूरी सेवाओं से वंचित होता जा रहा है। इसलिए जो लोग “मुफ्त” पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, आदि की नीति का विरोध करते हैं वे पूंजीपति वर्ग, खासकर बड़े पूंजीपति वर्ग के हितों से प्रेरित हैं, इसमें संदेह नहीं होना चाहिए। इनका तर्क है कि सरकार का काम “मुफ्त की रेवड़ी” बांटना नहीं “विकास” कराना है, और इससे “विकास” के लिए सरकारी फंड नहीं बचेगा। “विकास” से लोगों को रोजगार प्राप्त होगा और वे इन सेवाओं को बाजार से खरीदने में सक्षम हो जाएंगे। लेकिन सच्चाई इसके उलट है। “विकास” हो रहा है लेकिन रोजगार खत्म हो रहे हैं। वे कहते हैं कि “विकास” का काम पूंजीपति को करना चाहिए सरकार को नहीं। सरकार को बस पूंजीपति वर्ग के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करना चाहिए। इसका अर्थ क्या है? यही कि जनता के खून-पसीने की कमाई पूंजीपतियों के फायदे और विकास पर खर्च किया जाना चाहिए! वे बाजार को “स्वतंत्र” रूप से काम करने देने की बात भी करते हैं। यानी, वे जनता को बेरहम बाजार के हवाले करने की बात करते हैं। इसी सोच और नीति के परिणामस्वरूप महंगाई आसमान छू रही है। विकास के ये सारे तर्क पूंजी के पक्ष के और जनता व मजदूर विरोधी हैं। दूसरी तरफ, केजरीवाल हैं, जो जनता को कुछ सुविधा “मुफ्त” देने की बात करते हैं।
मजदूर वर्ग को भाजपा के उपरोक्त तर्क और उसकी साम्प्रदायिक राजनीति को तो सीधे तौर पर नकार देना चाहिए। दूसरी तरफ, केजरीवाल से हमें पूछना चाहिये कि वे अपने “मुफ्त” के मॉडल को अपने दस सालों के शासन में कहां तक आगे ले जा पाए हैं या सफल बना पाए हैं। हमें पता है, सफलता बहुत कम मिली है। जो मिली है वह बहुत सीमित है। सवाल है, क्यों? केजरीवाल मोदी सरकार द्वारा खड़े किये जा रहे तरह-तरह के अवरोधों (जैसे जीएसटी का पैसा राज्य सरकार को नहीं देना) को दोष देते हैं। यह असत्य नहीं है लेकिन मात्र अर्धसत्य है। असली कारण यह है कि जनता पर, या कहें सामाजिक आवश्यकताओं पर खर्च करने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है। यह नीतिगत और व्यवस्थागत बात है, क्योंकि पूंजीपतियों के लिए इस क्षेत्र को खोलना और उनके मुनाफे को बढ़ाना सरकारों का उद्देश्य है, जनता की सामाजिक जरूरतों को पूरा करना नहीं। इसलिये भाजपा चाहती है कि जनता को सार्वजनिक सुविधाओं के लिए बाजार पर निर्भर बनाया जाए। जनता पर खर्च बजट से बाहर हो जाता है। अगर कोई सरकार यह करना भी चाहे तो उसे कर्ज लेना पड़ता है। क्यों? क्योंकि विकास से पैदा होने वाली आय और पैसा दोनों पूंजीपतियों के पास चले जाते हैं। उनकी मोटी होती कमाई में यह साफ-साफ दिखता है। इससे साफ है कि तमाम तरह की सार्वजनिक सेवाओं व सामाजिक आवश्यकताओं की अबाध रूप से “निशुल्क” पूर्ति के लिये जो चीज सबसे जरूरी है वह है- उत्पादन से पैदा होने वाले कुल अधिशेष और इस तरह कुल सामाजिक उत्पाद (जिसे मजदूरी पर हुए खर्च को छोड़ कर अभी पूंजीपति गटक जाते हैं) पर समाज का नियंत्रण कायम होना। जब तक ऐसा नहीं होगा, इन सार्वजनिक सेवाओं की बढ़ते पैमाने पर और अबाध पूर्ति असंभव है। आखिर जरूरी फंड उपलब्ध और कैसे होगा?
सवाल है, क्या केजरीवाल की राजनीति इस ओर लक्षित है? क्या वे जनता को इस ओर ले जाने की राजनीति करते हैं? नहीं, भूलकर भी नहीं। उनका “मुफ्त” का पूरा नैरेटिव जनता को पूंजीवाद की सीमा में बांधे रखने के लिये है, न कि इससे बाहर ले जाने के लिये। इस अर्थ में इनका “मुफ्त” का मॉडल एक तरह का राजनीतिक स्टंट ही हैं। हालांकि उनका यह स्टंट भी मोदी सरकार की खूली कॉर्पोरेटपक्षी नैरेटिव की तुलना में आकर्षक है। जरूरत इसकी सीमा को उजागर करने और ऐसा करते हुए एक पूंजीवाद विरोधी नैरेटिव बनाने की।
मजदूर साथियो! कल्पना कीजिए, मजदूर-मेहनतकश वर्ग समाज के ढांचे में ऐसा परिवर्तन कर दे जो श्रम के साधनों (फैक्ट्रियां, ज़मीन, खदान, आदि) को समाज की साझा संपत्ति में बदल दे और जिससे मजदूरों का श्रम पूंजीपतियों के मुनाफे में नहीं बदले। बल्कि पूरे समाज और उत्पादकों (श्रमिकों) की उन्नति में लगे। मतलब कुल सामाजिक उत्पाद पूंजीपतियों के स्वामित्व से निकलकर समाज के स्वामित्व में आ जाएगा। ऐसे में श्रम के उत्पाद के वितरण पर विचार करें, तो हम देखेंगे कि सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराना मजदूर वर्ग के नेतृत्व वाले समाज की मुख्य और स्वाभाविक ज़िम्मेदारी होगी। एक ऐसे समाज में ही, जिसमें पूंजीपति वर्ग का शासन नहीं होगा और उत्पादन निजी मुनाफा के लिए नहीं लोगों के भौतिक व सांस्कृतिक विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए होगा, उसी समाज में श्रम द्वारा उत्पादित कुल सामाजिक उत्पाद का वितरण या बंटवारा सामाजिक जरूरतों और उत्पादकों व जनता को केंद्र में रखकर हो सकता है। यह किस तरह होगा? आइये, देखते हैं।
निजी मजदूरी/वेतन के रूप में उत्पादकों के बीच होने वाले बंटवारे से पहले, इसका बंटवारा सर्वप्रथम उत्पादन की आर्थिक जरूरतों के आधार पर किया जाएगा। जैसे कि, इस्तेमाल कर डाले गये उत्पादन साधनों को बदलने, उत्पादन का विस्तार करने तथा दुर्घटनाओं व प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न पेरशानियों और बाधाओं के लिए रिजर्व फंड बनाने पर खर्च होगा। इसके बाद बचे सामाजिक उत्पाद में से सामाजिक जरूरतों (उत्पादकों की साझा जरूरतों) पर खर्च होगा। इन्हीं में शामिल है सार्वजनिक स्कूल, स्वास्थ्य, परिवहन, बिजली, सड़क, पानी, सफाई, पार्क, आदि और काम करने में असमर्थ लोगों की समुचित व्यवस्था करना शामिल है। उत्पादन व वितरण के प्रबंधन के अतिरिक्त इन सामाजिक मदों में खर्च लगातार बढ़ेगा और इससे जुड़ी सेवायें “निशुल्क” ही होंगी और इसे उस समाज में अलग से बताने की आवश्यकता नहीं होगी, क्योंकि इसकी पूर्ति का खर्च उसी कुल सामाजिक उत्पाद से आएगा जिसे पैदा करने में पूरे समाज का श्रम (कुल सामाजिक श्रम) लगा है। निजी व्यक्ति का श्रम कुल सामाजिक श्रम के इस कुंड का हिस्सा (aliquot part) होगा। इस अर्थ में निजी श्रम और सामाजिक श्रम का भेद खत्म हो जाएगा। साथ में यह भी देख सकते हैं कि एक तरफ उत्पादकों को, निजी व्यक्ति की हैसियत से, कुल सामाजिक उत्पादन के जिस एक भाग से वंचित किया जाता है वह समाज के एक सदस्य होने के नाते उन्हें सार्वजनिक सेवा व सुविधा के रूप में मिल जाता है। इस तरह निजी और सामूहिक हितों के टकराव का अंत हो जाता है जैसा कि पूंजीवाद में पाया जाता है।
यहां यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, परिवहन जैसी सार्वजनिक सेवाओं पर होने वाला खर्च, और कुछ नहीं, समाज के कुल सामाजिक श्रम के एक भाग का ही खर्च है। इसलिए मसला न तो “मुफ्त” का है और न ही “मुफ्तखोरी” का। वास्तव में मुफ्तखोरी उत्पादक मजदूर वर्ग कैसे करेगा? मुफ्तखोरी तो पूंजीपति वर्ग करता है जिसे खत्म करना मजदूर वर्ग के भावी राज्य का सर्वप्रमुख काम है। इसलिये मजदूर वर्ग के लिए मसला कुल सामाजिक उत्पाद पर से पूंजीपतियों के नियंत्रण को खत्म करने का है। और इस चुनाव में इस मुद्दे पर हम मजदूर वर्ग का ध्यान इस ओर खींचना चाहते हैं, क्योंकि ऐसा करने के बाद ही सारी सामाजिक आवश्यकताओं व सेवाओं की पूर्ति सहजता से और साथ में प्रचुरता से भी हो सकेगी। साथ में यह भी कहना चाहते हैं कि सभ्यता के निर्माता मजदूर वर्ग की मौजूदा दयनीय स्थिति का कारण उसके श्रम की पूंजीपति वर्ग द्वारा लूट है। यहां केजरीवाल के नैरेटिव और उनकी राजनीति के बीच के फर्क को समझना चाहिये। उनका गोलमोल नैरेटिव कहता है कि “सब कुछ जनता का है”, जबकि उनकी राजनीति पूंजीपति वर्ग की लूट पर और मजदूर वर्ग की खराब स्थिति के कारणों पर पर्दा डालने का काम करती है। इसका भंडाफोड़ जरूरी है। दिल्ली की गरीब जनता को हम स्पष्टता से कहना चाहते हैं कि सार्वजनिक सेवाओं की उत्रोत्तर वृद्धि और इसका अबाध रूप से (“निशुल्क”) जारी रहना एकमात्र इस बात पर निर्भर करता है कि धन के तमाम स्रोतों पर से पूंजीपति वर्ग का नियंत्रण खत्म हो और पूंजीवादी व्यवस्था का अंत हो। मजदूर वर्ग को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीवाद के रहते मजदूर वर्ग की जिंदगी कभी भी सुख से नहीं कट सकती है।
आज तो इतिहास की दिशा ही पूरी तरह से उलट दी गई है। मजदूर वर्ग ने जो भी अधिकार हासिल किये थे उन्हें भी मोदी सरकार एवं अन्य सरकारों द्वारा पूरी निर्ममता से छीना जा रहा है। दूसरी तरफ, उनका वोट पाने के लिए सभी पार्टियां कुछ न कुछ “मुफ्त” देने की बात करती हैं। हम इसे केजरीवाल की नकल भी कह सकते हैं जो उनकी मजबूरी बन गई है। लेकिन समझने वाली बात यह है कि बड़ी पूंजी को इतना भी मंजूर नहीं है। इसलिए वह इस कोशिश में लगी है कि वोट से सरकार बनाने की व्यवस्था को ही खत्म कर दिया जाए। इसके लिए ही हिंदू-राष्ट्र बनाने का नारा दिया जा रहा है जिसकी सफलता के बाद उनका यह उद्देश्य भी पूरा हो जाएगा। इसलिए केजरीवाल से जनता को यह पूछना चाहिए कि क्या वे भी हिन्दू-राष्ट्र के समर्थक हैं? आज जब केजरीवाल वोट बैंक बढ़ाने के लिए जनता को कई तरह की “मुफ्त” सुविधायें देने का नैरेटिव चला रहे हैं, तो यह जनपक्षीय दिखता है। जब वे कहते हैं कि “हम जनता का पैसा जनता को दे रहे हैं जबकि मोदी सरकार जनता का पैसा कॉर्पोरेट को दे रही है” तो यह एक हद तक बड़ी पूंजी के मानवद्रोही उद्देश्यों के खिलाफ जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर वर्गीय विमर्श के अभाव में इसकी एक सीमा तक अहमियत भी है। खासकर तब जब मोदी की सरकार कॉर्पोरेट के पक्ष में खड़ी हैं। लेकिन अगर केजरीवाल हिन्दू-राष्ट्र के छुपे समर्थक हैं, तो गरीब जनता के साथ एक बड़ा छलावा है। इसलिए उनके “मुफ्त के मॉडल” की सीमा को ही नही उनकी राजनीति के मर्म तथा संभावित परिणाम को भी आंखों से ओझल होने नहीं देना चाहिये।
मतलब साफ है, हमें जनता के समक्ष इस तथाकथित “मुफ्त” के मॉडल की सीमा को उजागर करना चाहिए और साथ में यह भी कहने की जरूरत है कि यह सीमा टूटेगी कैसे, जैसा कि ऊपर बताया गया है। वहीं, मोदी की “विकास की राजनीति” के झांसे में नहीं पड़ना चाहिए। आज तक जो “विकास” हुआ है और आज जो “विकास” हो रहा है वह जनता तक कितना पहुंचा है इसकी सच्चाई हम सभी जानते हैं। जहां तक मजदूर वर्ग का विकास है वह पूंजीवाद में संभव ही नहीं है। इसके लिए सर्वप्रथम पूर्ण सामाजीकरण जरूरी है। इसलिए हमें कांग्रेस के “शीला दीक्षित की विकसित दिल्ली” के नैरेटिव के झांसे में भी नहीं आना चाहिए। पूंजीवाद में होने वाले विकास का अत्यंत छोटा फायदा ही जनता को मिलता है, चाहे जिसकी भी सरकार रही हो। आज जो भी विकास हो रहा है कॉर्पोरेट (बड़ी पूंजी) के लिए हो रहा है।
साथियो! आइए “मुफ्त” के नाम पर और “मुफ्त” के विरोध के नाम पर देश में छिड़ी राजनीति के बरक्स हम अपना मजदूर वर्गीय नजरिया लोगों तक ले जाएं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आम जनता के लिए सार्वजनिक सेवाओं की मुकम्मल और अबाध पूर्ति पूंजीवाद को उखाड़ फेंक कर ही की जा सकती है। न केजरीवाल, और न ही मोदी और राहुल गांधी ही इस दिशा में कुछ ठोस करेंगे। इन सबकी राजनीति मूलतः इसके विपरीत है। दिल्ली चुनाव के अवसर पर हमारा यही संदेश है।
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ,
IFTU (सर्वहारा) | सर्वहारा जनमोर्चा
21 जनवरी 2025