रामवृक्ष बेनीपुरी | ‘सर्वहारा’ #67 (1 जनवरी 2025)
सोवियत संघ में स्त्रीत्व ने एक नये संसार में प्रवेश किया है। सोवियत नारियां पुरुषों के साथ एक नयी समता का उपभोग करती हैं- चाहे वे जिस क्षेत्र में भी हों- शिक्षा में, राजनीति में, उद्योग में, पद-मर्यादा में, संस्कृति में। जारशाही से बढ़कर स्त्रियों को गुलाम बनाने वाला कोई राज्य संसार में नहीं था, सोवियत शासन से बढ़कर उन्हें उन्मुक्त करनेवाली संसार में कोई शासन पद्धति नहीं है।
लेकिन यह मुक्ति उन्हें मुफ्त नहीं मिली है। उन्होंने यह कीमती चीज अपने हृदयरक्त के दाम पर खरीदी है।
1917 में क्रांति के जिस तूफान ने पुरानी इमारतों को ढहाकर, एक नयी इमारत की नींव के लिए जमीन खाली कर दी, वह आंधियों की लंबी जंजीर की एक कड़ी मात्र था। कितने दिनों से संघर्षों का एक सिलसिला जारी था, जिसमें स्त्रियों का हिस्सा मामूली नहीं था। कितनी ही बार उन्होंने पुरुषों का पथप्रदर्शन किया।
युगों से रूस की स्त्रियां गुलामी की बेड़ी से जकड़ी थीं। ईसा की पवित्र वेदी को छूने तक का उन्हें अधिकार नहीं था। शादी के मौके पर पुरुष सोने की अंगूठियों के हकदार थे, स्त्रियों को लोहे की काली अंगूठियों पर संतोष करना पड़ता था। रूस के पोप ने फरमान निकाला था- औरतें मर्दों की व्यक्तिगत सम्पति हैं। अगर कोई स्त्री अपने पति की बात नहीं मानती तो उसे कोड़ों से पीटा जाना चाहिए। कोड़ों की चोट पीड़ा देती है, वह तुरंत होश दुरुस्त करती और आगे के लिए चेतावनी बनती है।
लेकिन इन राक्षसी फरमानों के बावजूद रूस की औरतों में मानवीय भावनाएं मरने नहीं पायीं। जारशाही के विरुद्ध जब लोगों के मन में विद्रोह भावना हुई, कितने ही बड़े-बड़े अफसर, कितने ही बड़े-बड़े विद्वान उस आंदोलन में आये। उन्हें साइबेरिया का वनवास मिला। उनकी पतिपरायण पत्नी घर छोड़, घर का वैभव, विलास और बच्चों तक को छोड़कर सीता की तरह उनके पीछे वनवासिनी हुई। साइबेरिया के संकटों को उनके पास रहकर हंसते-हंसते झेला।
पिछली शताब्दी के दूसरे हिस्से में कितनी ही पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने शहरों को छोड़, वहां की सुख-सुविधा, औज-मौज को छोड़, देहातों में गयीं और सूखी रोटी पर गुजर करती, लोगों की शिक्षा-दीक्षा में, उनमें जागृति पैदा करने में अपने को बिल्कुल खपा दिया। बाकुनिन के प्रभाव में आकर कितनी ही युवक-युवतियां विश्वविद्यालयों को छोड़कर जनता के बीच उससे ‘सबक सीखने’ गयीं।
जार के न्यायमंत्री ने 1877 में कहा था- “क्रांतिकारियों की सफलता का कारण उनके अंदर स्त्रियों का होना है।” पढ़ी-लिखी स्त्रियां कारखानों में सोलह घंटे काम करने के बाद मजदूरों के बारिक के गंदे, रूखे वातावरण में रहकर, क्रांतिकारी प्रचार में दिन-रात लगी रहतीं। जारशाही का दमन उनके दिल को कभी पस्त नहीं कर सका। मौत को उन्होंने हमेशा ही हिकारत और उपेक्षा की नजर से देखा। कठिनाइयां उनकी ताकत को बढ़ाती ही गयीं।
ये क्रांतिकारी स्त्रियां ज्यादातर नवयुवती थीं। पढ़ी-लिखी, दिमाग और दिल की धनी। कितनी ही अनिद्य सुंदरी और कला की भावना से ओतप्रोत। कोई भी युवक उनका हाथ लेकर अपने को धन्य मान सकता था। किंतु उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रेम को देशप्रेम में इस तरह परिणत कर दिया था कि शादी-ब्याह की उनके दिल में जगह ही नहीं रह गयी थी। उनका चरित्र दर्पण-सा उज्ज्वल; बलिदान भावना की आग में तपी वे कुंदन-सी चमकतीं!
मास्को से सुदूर साखालिन तक उनकी जंजीरों से झन-झनाता रहता। उन पर होनेवाले अत्याचारों की गिनती नहीं। कठोर कारागारों और वनवासों में वे अपने युवक साथियों के साथ रहतीं। एक परिवार के व्यक्तियों की तरह एक-दूसरे के सुख-दुख में हाथ बंटातीं। सभी सामाजिक बंधन दमन की इस आग में जल-से गये। उनके बदले समानता के आधार पर बौद्धिक और हार्दिक सहमति और सहयोग की नींव पर एक नवीन सम्बंध पैदा हुआ। जंजीरों की झंकारों में पलनेवाला यह सम्बंध ही, स्वाधीनता प्राप्त होने पर, स्त्री-पुरुष के परस्पर सम्बंध का मूलाधार हुआ। वहीं रहते, उनमें पढ़ने का चस्का बढ़ा। जो मूर्ख थीं उन्होंने लिखना पढ़ना सीखा, जो पीढ़ी पढ़ी-लिखी थीं; उन्होंने उच्च शिक्षा पर ध्यान दिया; जो विदुषी थीं उन्होंने भिन्न-भिन्न विषयों पर और अधिक व्युत्पन्नता प्राप्त की।
पढ़ी-लिखी युवतियों में क्रांतिकारी आंदोलन को बढ़ते देख 1887 में जार ने अपनी मंत्री को कहा- “अब अधिक शिक्षा नहीं।” स्त्रियों के जितने कॉलेज थे, सब बंद कर दिये गये। लेकिन इसका नतीजा? क्या स्त्रियों ने पढ़ना छोड़ा। नहीं; वे जर्मनी गयीं, जहां लिब्नेख्त वगैरह साम्यवादियों के प्रभाव में आयीं। वेरा सैसुलिच स्विट्जरलैंड गयी और वहां मार्क्स और एंगेल्स के प्रभाव में आकर साम्यवादी बनी और अपनी जिंदगी के चालीसवें वर्ष में कितनी ही साम्यवादी पुस्तकों से रूस के साहित्य भंडार को भरा। अपनी जिंदगी का उसने अपने मित्र के पास पत्र में यों वर्णन किया— महीनों तक शायद ही मैंने किसी से बातें की हों। संगी-साथी से विहीन, एकांत और जनहीन कमरे में बैठी, कॉफी और चाय पी-पीकर मैंने अपना काम जारी रखा। रात के दो बजे के पहले शायद ही मैंने कभी आंखें झिपकाई ।
जब रूस का औद्योगिक विकास हुआ और वहां मजदूर वर्ग का जन्म हुआ 1895 में मजदूर मुक्ति संघ का संगठन हुआ। लेनिन इसके एक सदस्य थे। उसकी कार्य समिति में चार स्त्रियां थीं। उनमें एक थी क्रुप्सकाया। क्रुप्सकाया ने ग्रामर स्कूल की शिक्षा समाप्त कर शिक्षा सम्बंधी सिद्धांतों का अध्ययन शुरू किया। इसी अध्ययन के दरम्यान उसका सम्पर्क क्रांतिकारी समूह से हुआ। मार्क्स के सिद्धांतों ने उसे ज्यादा प्रभावित किया। वह सेंटपीटर्सबर्ग के मजदूर कॉलेज में अध्यापिका का काम करने लगी। उसके कितने ही शिष्यों ने रूस के साम्यवादी आंदोलन में बड़ा भाग लिया। अंततः वह गिरफ्तार की गयी और तीन वर्षों के लिए साइबेरिया का वनवास उसे मिला। साइबेरिया में ही उस समय लेनिन भी वनवासी थे। दोनों में घनिष्टता बढ़ी, दोनों ने एक-दूसरे पर अपने को न्योछावर किया। छुटकारा मिलते ही लेनिन लंदन आया और वहां से अपना पत्र ‘इस्क्रा’ (स्फुलिंग) निकाला। क्रुप्सकाया भी वहां पहुंची और वह उसकी प्रबंध सम्पादिका बनी। पीछे वह क्रांति की माता की हैसियत से मशहूर हुई।
रूस में मजदूर आंदोलन बढ़ने पर उसमें औरतों ने बहुत बड़ा हिस्सा लिया। हड़ताल कराने में उनका मुख्य हाथ रहता था। सूती मिलें अशांति का अड्डा थीं, क्योंकि उनमें सस्ती मजदूरी पर औरतें काम में लगायी जाती थीं।
1905 में जो ‘खूनी रविवार’ हुआ उसमें औरतों का भाग कुछ कम नहीं था। जिस समय जुलूस जार के महल की ओर जाने की तैयारी में था, एक मजदूर औरत कैरेलीना ने कहा— “माताओ और देवियो! अपने बच्चों, पतियों और भाइयों को उचित और न्यायपूर्ण काम के लिए जान पर खतरा लेने से मत रोको। हमारे साथ बढ़ो। अगर हम पर चढ़ाई की जाये या गोलियां चलायी जायें तो रोओ मत, बिलखो मत। माता मैरी के नाम पर हंसते-हंसते गोलियां खाओ।” सभी स्त्रियों ने एक स्वर में कहा- हम सब तुम्हारे साथ हैं और वे साथ ही बढ़ीं। जार के भेड़ियों की गोलियों से जो एक हजार आदमी मारे गये थे, उनमें औरतों और उनके बच्चों की तादाद भी कम नहीं थी। एक स्त्री को चार गोलियां लगी थीं। मरते समय वह बोली- मुझे उसका अफसोस नहीं है, मैं सानंद मर रही हूं।
‘खूनी रविवार’ के कांड को फिर ओडेसा में दुहराया गया! ओडेसा के इस आंदोलन में स्मीदोविच नामक युवती का बड़ा हाथ था। उसकी हिम्मत की तरह ही उसकी सूझ भी थी। एक बार वह कीव में गिरफ्तार की गयी, जबकि वह ‘इस्क्रा’ की कापियां वितरण कर रही थी। गिरफ्तार कर वह थाने में लायी गयी। थाने में आकर उसने स्नानगृह में जाने की इजाजत मांगी। स्नानगृह में जाकर उसनें अपनी कीमती ऊनी पोशाक और टोपी झटपट उतार दी। सिर में रूमाल बांधा और इस पोशाक के नीचे ऐसी ही जरूरत के वक्त के लिए जो फटी-बिटी पोशाक वह पहने रहती थी, उसी को पहने वह निकल गयी। बात-ही-बात में उसका भेस इतना बदल गया था कि बेचारे पुलिसवाले उसे पहचान भी नहीं सके। सौ वर्षों तक रूस की महिलाओं ने क्रांति के लिए जो असाध्य साधन किये थे उसी का यह नतीजा था कि क्रांति की सफलता के बाद ही उन्हें वह पद-मर्यादा प्राप्त हुई जो अन्य देशों में नहीं देखी जा सकती।
1917 की क्रांति में भी उनका कोई कम हिस्सा नहीं रहा है। स्त्रियों ने जो कुछ किया, उसका वर्णन क्रांति के आचार्य लेनिन के मुंह से ही सुनिये – “पेट्रोग्राद में, मास्को में, दूसरे शहरों और उद्योग-केंद्रों में, देहातों तक में स्त्रियां क्रांति की इस परीक्षा में सोलह आने सफल उतरी हैं। उनके बिना हम विजयी हो नहीं सकते थे या मुश्किल से होते। यह मेरा सोचा-समझा विचार है। उफ, वे कितनी बहादुर हैं! उनकी बहादुरी जिंदा रहे। जरा उनकी तकलीफों और संकटों की कल्पना कीजिए, जिन्हें उन्होंने हंसते-हंसते बर्दाश्त किया है। ऐसा उन्होंने क्यों किया? क्योंकि वे सोवियत कायम करना चाहती थीं, क्योंकि वे स्वाधीनता चाहती थीं।”
(‘लाल रूस’ का यह अंश पाठकों के अध्ययन के लिए दिया गया है। वे पढ़ें और महिला प्रश्न पर चर्चा-विमर्श में भाग लें। इस अध्याय का भाग-2 अगले अंक में जारी।)