संपादकीय | ‘सर्वहारा’ #67 (1 जनवरी 2025)
सभी को मालूम है, बिहार में चल रहे भूमि सर्वे में जरूरी कागजात और दस्तावेज के अभाव के चलते व्याप्त धांधली, भ्रष्टाचार और अफसरशाही से ग्रामीण जनता किस तरह और कितनी त्रस्त है। लेकिन ये तो भूधारी रैयतों की बात है। भूमिहीनों की बात करें, तो यह सर्वे एक महात्रासदी के रूप में आया है। जिस जमीन के टुकड़े पर वे बसे हुए हैं उस पर इस सर्वे के कारण आज खतरा मंडराने लगा है। पीढ़ियों से गैर-मजरूआ जमीन पर बसे लोग पट्टे के अभाव में इस सर्वे में उजाड़ दिये जा सकते हैं और उनके घर-बार की जमीन किसी और प्रभावशाली व्यक्ति की घोषित कर दी जाएगी यह आशंका गरीब लोगों में गहरे पैठी है। विडंबना यह है कि अगर ये अपने घर-बार के हक के लिए संघर्ष करेंगे तो प्रशासन इन्हें अपराधी घोषित कर देगा और जेलों में डाल देगा। सरकार और प्रशासन का आजकल यही रवैया है। इसके पहले नीतीश कुमार ने भूमिहीनों को 5 डेसिमल बासगीत जमीन देने की बात की थी। उसका कुछ नहीं हुआ। उल्टे खबर यह है कि भूदान की सारी जमीन का मालिकाना सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है। एक तरीके से उसका टेक-ओवर कर लिया है। लेकिन भूदान की जमीन पर बसे गरीबों का इस सर्वे में क्या होगा किसी को कुछ पता नहीं है। सरकार का इस संदर्भ में कोई ठोस आश्वासन नहीं आया है। अगर आश्वासन आता भी है तो गरीब जनता कैसे भरोसा करे, जबकि वह देख रही है कि उन्हें उजाड़ा जा रहा है – कभी पर्यावरण बचाने और अतिक्रमण हटाने के नाम पर तो कभी जल, जीवन, हरियाली के नाम पर। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे सक्रियता के साथ वैधता प्रदान कर दी। सवाल है, गरीब फिर क्या करें और कहां जाएं? उधर बेतिया एस्टेट की जमीन की सरकार फिर से बंदोबस्ती करने वाली है जिसका अर्थ यह है कि इस जमीन पर बसे हुए हजारों गरीब लोग व किसान प्रभावित होंगे। सबसे मजाक की बात तो यह है कि एक तरफ पर्यावरण रक्षा के लिए बने तमाम नियमों को जब बड़े पूंजीपतियों के लिए सरकार कमजोर करती है तो न्यायालय इस पर चुप रहता है। लेकिन जब सरकार पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर गरीबों को उजाड़ रही है तो वही न्यायालय पूरी सक्रियता के साथ सरकार और प्रशासान के साथ खड़ा दिखाई देता है।
पहले गरीबों व भूमिहीनों को बसाने की बात होती थी। जहां इसके लिए इतिहास में भीषण लड़ाई हुई है, वहीं सरकार भी इसके लिए राजी होती थी। आज उजाड़ने की बात हो रही है। इस फर्क से हमले के दौर की विशेष प्रकृति को समझा जा सकता है। यही नीतीश कुमार ने पहले 3 और फिर बाद में 5 डेसिमल बासगीत जमीन देने का वायदा किया था। आज वही सरकार इसके उलट काम कर रही है। यह एक अलग दौर ही है कि आज पूरे इतिहास को और उस दौरान की संघर्ष के बल पर हासिल उपलब्धियों को पलटा जा रहा है। सवाल है इतिहास के इस दुष्चक्र को कैसे रोका जाए? एक ही रास्ता है – मजदूरों-मेहनतकशों को और इनके पक्ष से लड़ने वाले संगठनों को एक होकर बिहार सर्वे में निहित इस प्रतिक्रियावादी गरीब विरोधी मंशा को समझते हुए इस मांग के लिए आगे आना चाहिए और मेहनतकश गरीब अवाम से आह्वान करना चाहिए कि बिहार तथा पूरे देश में प्रगतिशील एवं रेडिकल लक्ष्यों वाले भूमि सुधार के आधार पर भूमि सर्वे हो। इसका हमें एक पूरा कार्यक्रम पेश करना चाहिए जिसमें न्यूनतम रूप से हम सरकार से यह मांग करें कि भूमिहीन और गरीब किसान जिस भी गैर-मजरूआ व सीलिंग से फाजिल जमीन या जिस भी सरकारी जमीन पर बसे हैं सरकार उन्हें उसका मालिक स्वीकार करे और उनके मालिकाने का निबंधन करे। इसके अतिरिक्त, हमें गरीब भूमिहीनों के लिए 5 डेसिमल बासगीत जमीन की मांग को भी उठाना चाहिए। शहरों में रह रहे बेघर लोगों के लिए भी पुनर्वास की मांग करनी चाहिए। इसके लिए सरकार से वार्ता से लेकर उसके समक्ष प्रदर्शन सहित हर तरह का अभियान चलाना चाहिए।
जहां तक इस भूमि सर्वे का सवाल है, हमें हर स्तर पर और हर माध्यम से समाज में यह सच्चाई ले जानी चाहिए कि यह भूमि सर्वे बड़ी पूंजी के हक में और इसके वित्तीय क्षेत्र व रियल एस्टेट बिजनेस के, खासकर विशाल ग्रामीण क्षेत्र में, फलने-फुलने के लिए किया जा रहा है। वित्तीय क्षेत्र व रियल एस्टेट बिजनेस के लिए जरूरी है कि लैंड मार्केट को सुगम तथा स्वामित्व से जुड़े बेकार के विवादों से मुक्त किया जाए। फिर इसके लिए जरूरी है कि जमीन पर निर्णयात्मक स्वामित्व किसका है इसे स्पष्टता से स्थापित किया जाए जिसकी गारंटी सरकार ले। इस तरह वित्तीय पूंजी, जिसकी शिकंजे में पूरी दुनिया है, ही है जो सरकार को सर्वे कर जमीन का कम्प्यूटरीकृत डाटाबेस (नक्शा सहित) तैयार करने के लिए आदेशित कर रही है ताकि कोई भी और कहीं से भी उसे देख सके और आसानी से सत्यापित कर सके। सुगमता का अर्थ यही तो है। जाहिर है, इस तरह की सरकारी मुहिम को हर तरह का अभियान चलाकर रोकना होगा। अगर सरकार नहीं मानती है, तो फिर बिहार की गरीब जनता के सामने जनांदोलन में उतरने के सिवा और कोई रास्ता नहीं रह जाएगा।
जहां तक यह बात है कि यह सर्वे रैयतों के अधिकारों को निबंधित करेगा, तो यह सच है; लेकिन यह सर्वे का ‘सहउत्पाद’ है, मकसद नहीं। जब जमीन पर निर्णयात्मक स्वामित्व की बात हो रही है, तो निस्संदेह यह आज के पूंजीवादी निजी संपत्ति संबंध के तहत वर्तमान उत्पादन संबंधों को मालिकाना संबंधों के रूप में मान्यता देगा और इस नाते यह सर्वे मालिक रैयतों के पक्ष में दिखता है। लेकिन इससे जुड़ी व्यापक धांधली और रिश्वतखोरी के रूप में मची लूट-खसोट उनके इस भरोसे को तोड़ भी रही है। इसलिए उन्हें भी इसके वर्ग अंतर्य को समझना चाहिए। हम जानते हैं कि ब्रिटिश शासन में जमीन लगान से प्राप्त राजस्व के लिए जमीन सर्वे करवाये गये थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने लार्ड कार्नवालिस के नेतृत्व में मुख्यत: बिहार और उड़ीसा के क्षेत्रों में स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) की व्यवस्था कायम की थी और जमींदारों के हाथों में जमीन सौंपी थी। वे ही लगान वसूलते थे। इसका एक निश्चित हिस्सा कम्पनी को देते थे और बाकी खुद रखते थे। इसके लिए उन्होंने जमीन के रकबे और उसके धारक रैयतों के रिकार्ड बनाये। जाहिर है ये रिकॉर्ड कामचलाऊ थे और त्रुटिपूर्ण तरीके से बने थे। 1952 में शुरू हुए सर्वे में उन्हें दूर नहीं किया गया। आधुनिक साधन व तकनीक की कमी के अलावे इसका कारण तत्कालीन भूमि सुधार का जमींदार-पूंजीपति पक्षीय चरित्र था जिसके तहत मुख्य मकसद उनके द्वारा जमीन की चोरी और असली रैयतों की बेदखली था। इसलिए पूरी तरह त्रुटिहीन लैंड रिकार्ड तैयार करना उस समय के पूंजीपति वर्ग और नवोदित पूंजीवादी भूस्वामियों के वर्ग हित में नहीं था, जबकि आज पूरी तरह त्रुटिहीन लैंड रिकार्ड का होना आज के पूंजीपति वर्ग के वर्ग हित में है, क्योंकि ‘लैंड मार्केट’ में बड़े पैमाने पर तथा सुनियोजित तरीके से प्रवेश के लिए यह जरूरी बन गया है जैसा कि ऊपर भी कहा गया है। रैयतों का जमीन पर निर्णयात्मक स्वामित्व कायम होता है तो उन्हें लग सकता है कि यह उनके अधिकारों का निबंधन होगा और इससे उन्हें मुकदमेबाजी से उन्हें मुक्ति मिलेगी। लेकिन बड़ी पूंजी की नजर भी ठीक यहीं पर है। उनकी नजर इस बात पर है कि जब ऐसा होगा तो उनके लिए जमीन की खरीद-बिक्री करना और इस आधार पर जमीनरूपी परिसंपत्ति में सट्टेबाजी करना आसान होगा। वे यह भी जानते हैं कि किसानों की माली हालत खराब है और जीवन की जरूरतों के लिए वे आज न कल जमीन गिरवी तो रखेंगे या बेचेंगे ही। उसमें रैयतों का यही निर्णयात्मक स्वामित्व सट्टेबाज पूंजी के पक्ष में जाएगा। हम देख सकते हैं कि बड़ी पूंजी, खासकर सट्टेबाज पूंजी, एक दिन अभावग्रस्त किसानों के हाथों से जमीन पूरी तरह छीन लेगी। वैसे भी खेती किसानी, खासकर पूंजी के मामले में, कमजोर छोटे व मंझोले रैयतों की अगली पीढ़ी को आकर्षित नहीं करती है और वे इसे छोड़ने को तैयार बैठे हैं। इस तरह सट्टेबाज वित्तीय पूंजी संपूर्ण ग्रामीण क्षेत्र पर अपना हाथ साफ करने के लिए तैयार बैठी है। तीन कृषि कानूनों के बाद गरीबों को गांवों से निकाल बाहर करने की यह बड़ी तैयारी है। गांव के गरीब किसानों और भूमिहीनों को इसे समझना चाहिए।