श्रमिक अधिकारों पर हमले व निजीकरण के खिलाफ श्रमिकों की वर्गीय एकता ही एकमात्र रास्ता है!

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लोको रनिंग स्टाफ एसोसिएशन (AILRSA) के केंद्रीय सम्मेलन के अवसर पर रेल कर्मियों सहित पूरे मजदूर वर्ग से अपील

श्रमिक अधिकारों पर हमले व निजीकरण के खिलाफ मजबूत प्रतिरोध हेतु श्रमिकों की वर्गीय एकता ही एकमात्र रास्ता है!

कैटेगरी, इंडस्ट्री और जाति-धर्म जैसे एकता तोड़ने वाले भेदों से मुक्त हो पूंजीवादी शोषण उत्पीड़न के खिलाफ पूरे मजदूर वर्ग एवं समस्त मेहनतकश जनता की फौलादी एकजुटता कायम करें!

साथियो! रेलवे अपने विशाल आधारभूत ढांचे तथा लगभग 13 लाख नियमित तथा बड़ी तादाद में ठेका/अनियमित कर्मचारियों की विशाल श्रमिक क्षमता के साथ दुनिया का चौथा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है। यात्री ढोने तथा माल ढुलाई की विराट क्षमता के कारण ही यह देशी-विदेशी सरमाएदारों, जो इसे अपनी मुनाफाखोरी व लूट का जरिया बनाने को आतुर हैं, की निगाह में काफी पहले से चढ़ी हुई है।

निजीकरण के जरिए कॉर्पोरेट पूंजी को लाभ पहुंचाने की इसी नीति की वजह से रेलवे बीते 10 सालों में अपने सबसे बुरे दौर में पहुंच गयी है। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक रेलवे 100 रुपये की कमाई में से 98.44 रुपये खर्च कर दे रही है यानी रेलवे को सिर्फ 1.56 रुपया बच रहा है, जबकि 2014-15 में परिचालन अनुपात 91.25 फीसदी था। अर्थात् निजीकरण को तेज कर रेलवे अपने तमाम लाभ व संसाधनों को निजी पूंजीपतियों को हस्तांतरित कर अपनी खुद की और आम जनता की बरबादी कर रही है।

निजीकरण के रथ पर सवार सरकार ने सुरक्षा को भी दांव पर लगा दिया है। ट्रेनों के संचालन से जुड़े करीब 1.6 लाख पद पहले से खाली पड़े थे। अब ट्रेनों के रख-रखाव को भी आउटसोर्स कर उसका निर्धारित समय घटा दिया गया है। रख-रखाव के समय को कम कर ठेके पर कराना यात्रियों की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ है। साथ ही, इससे रेलवे के लाखों कर्मचारियों की नौकरी भी खतरे में है।

सरकार और उसके भोंपू लगातार माहौल बना रहे हैं कि रेलवे को बदहाली से बचाने का एकमात्र विकल्प निजीकरण है। रेलवे पुनर्गठन कमेटी और नीति आयोग बहुत पहले रेलवे के नॉन-कोर फंक्शन, यानी अस्पताल, स्कूल, कारखाने, वर्कशॉप आदि को निजी क्षेत्र के हवाले कर देने को कह चुके हैं। निजी रेलवे लाइन व ट्रेन चलनी शुरू हो चुकी हैं। सरकार की मंशा ज्यादातर काम ठेके पर देने की है ताकि कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन भी न देना पड़े, और न ही अन्य सुविधाएं। 

पूंजीवादी नवउदारीकरण की नीतियों के तहत वर्तमान रेल कर्मियों पर काम के बोझ को बढ़ाने तथा करोड़ों बेरोजगार युवाओं को सड़क पर धकेलने की यह एक सुनियोजित योजना है। रेलवे रनिंगकर्मी एचओईआर के तहत 12 घंटे कार्य करने को बाध्य हैं। पर्व, त्यौहार और शादी विवाह के सीजन के अलावे साप्ताहिक विश्राम, अवकाश, सिक लीव आदि पर 365 दिनों प्रतिबंध लगा रहना एक आम प्रचलन हो चला है। मल्टी स्किलिंग, लगातार बढ़ते परिचालन दबाव, मानसिक तनाव के कारण हाल के दिनों में बढ़ी SPAD की घटनाओं (बालासोर, शहडोल आदि) के असली कारणों को ढूंढकर उनके निराकरण करने की जगह रेलवे लोको पायलट्स, सहायक लोको पायलट्स, स्टेमा और अब मुख्य लोको निरीक्षकों को बलि का बकरा बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री करने में लगी है। परिचालन बढ़ा है पर नई भर्तियां लगभग बंद हैं। पद खत्म किए जा रहे हैं क्योंकि बहुत से कार्यों को रेलवे ने आउटसोर्स कर दिया है। आउटसोर्स कर्मचारियों से काफी कम वेतन पर, बिना किसी श्रम कानून का अनुपालन किए, कार्य कराए जा रहे हैं तथा रेलवे इसी तरह से अपने सभी काम कराना चाह रही है जिससे उसे न्यूनतम वेतन के साथ ही वे सारी सुविधाएं भी न देनी पड़ें जो रेलकर्मियों ने लंबे संघर्ष के बाद हासिल की हैं।

आगे चिकित्सा, मुफ्त रेलपास, अवकाश, पेंशन, नौकरी सुरक्षा जैसी सेवा शर्तों में कटौती होना तय है। इसके भावी दुष्प्रभावों को समझने के लिए निजीकरण के मक्का-मदीना अमरीका का उदाहरण सामने है। दो साल पहले अमरीकी रेल श्रमिकों को हड़ताल का आह्वान करना पड़ा था क्योंकि उन्हें एक भी पेड सिक लीव नहीं मिलती है। उनकी मांग साल में मात्र 6 पेड सिक लीव की थी। पर रेल मालिक कंपनियां इसके लिए भी तैयार नहीं थीं और सरकार भी सरमायेदारों के ही साथ थी।

सरकार की मंशा श्रमिकों द्वारा सृजित समस्त संपदा को पूंजीपतियों को सौंपना है

रेलवे के निजीकरण की यह दिशा 1995 में आये पांचवें वेतन आयोग की रिपोर्ट में ही तय कर दी गयी थी। उस समय भी रेलवे की यूनियनों के नेतागण बिना किसी ना-नुकर के उस पर मुहर लगा आये थे और आज भी जब रेलवे को एक-एक कर किश्तों में बेचा जा रहा है, तब भी यूनियनें रस्मी कवायदों और खोखली नारेबाजी से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं।

विशाल रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर और परिचालन के ढांचे को दुहकर बिना विशेष पूंजीनिवेश किए अत्यधिक लाभ कमाने हेतु पूंजीपति और उनकी प्रबंध समिति रूपी सरकार निजीकरण कर रहे हैं। उनका यह लाभ रेल श्रमिकों, मजदूर वर्ग तथा समस्त मेहनतकश अवाम के हितों को भारी नुकसान पहुंचाएगा। अर्थव्यवस्था के समस्त क्षेत्रों में निजीकरण से चंद पूंजीपतियों के हाथ में ही समस्त दौलत इकट्टा होती जा रही है। यानी पहले से ही मौजूद वर्गीय व अत्यधिक सामाजिक गैर-बराबरी को अति असमानता की ओर ले जाया जा रहा है।

क्या श्रमिक इसे नियति मानकर स्वीकार कर लेंगे?

साथियों, मजदूर वर्ग तथा रेल श्रमिकों का संघर्ष का गौरवशाली इतिहास है। 8 घंटे कार्यदिवस, वेतन-भत्ते, सुविधाओं, अवकाश एवं अपनी सेवा शर्तों के साथ ही मजदूर वर्ग ने समस्त जनता के जनवादी अधिकारों के लिए भी कई महान संघर्ष किये हैं। संगठन बनाने, सभा करने, भाषण देने, विरोध करने, पर्चा अखबार निकालने ही नहीं, आज सभी को प्राप्त मताधिकार के लिए भी श्रमिक वर्ग के संघर्षों का ही सर्वप्रमुख योगदान है।

भारतीय रेल श्रमिकों ने 1862 में पहली हड़ताल की थी और तब से वे पूरे मजदूर वर्ग के साथ अपने अधिकारों के लिए कदम से कदम मिलाकर जबरदस्त संघर्ष करते आए हैं। दीर्घ संघर्षों के बाद 1943 में श्रम कानूनों के जरिए औपनिवेशिक सरकार 8 घंटे कार्यदिवस जैसे कई अधिकार मंजूर करने को विवश हुई थी, लेकिन तब भी रेलवे को कंटीन्यूअस‘ (सतत) कार्य कह कर 8 घंटे काम जैसे अधिकार नामंजूर कर दिए गये थे। रेल श्रमिकों को इसके लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा जिसमें 1960-70 की कई हड़तालें शामिल हैं। इन बलिदानों के बाद ही रेल श्रमिकों को कुछ अधिकार एवं सुरक्षा प्राप्त हुई। निजीकरण फिर से इन अधिकारों पर जोरदार हमला है।

वर्गीय चेतना और मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक कार्यभार

साथियों, आज के पूंजीवादी, नवउदारवादी, साम्राज्यवादी निजाम ने हमारे पूर्वजों (पूर्व के रेल कर्मियों) की शहादतपूर्ण लड़ाइयों द्वारा दी गयी कठिन चुनौतियों से काफी कुछ सीखा है और सबक लिये हैं और बहुत कुछ ऐसा किया है जिससे कि फिर से रेल कर्मी कोई बड़ी चुनौती नहीं पेश कर पायें। उदाहरण के लिए, व्यवस्थागत, ढांचागत और उत्पादन के स्तर पर काफी चाक-चौबंद व्यवस्था कर डाली है, जिसकी जाल में खुद मजदूर वर्ग फंसकर अपने ऐतिहासिक कार्यभार अर्थात पूंजीवादी शोषण उत्पीड़न से अपनी व मानवता की मुक्ति को लगभग भूल चुका है। आज उसके बीच शासक वर्ग द्वारा फैलाया गया सांप्रदायिक, जातिगत, भाषाई-इलाकाई और श्रेणीगत विभाजन इस कदर जड़ जमा चुका है कि वह एक जड़ता और साथ ही साथ दिशाहीनता का भी शिकार हो चुका है।

पार्टी, श्रेणीगत, जातिगत आधार पर विभाजित यूनियनें मजदूर वर्ग को आपस में वर्गीय आधार पर जोड़ने की जगह उनके भीतर गम्भीर अलगाव के बीज बो उनकी एकता, ताकत को कमजोर कर व्यवस्था का काम आसान करने में लगी हैं। नवउदारीकरण की नीतियों के गंभीर और घातक परिणाम सामने आ चुकने के बाद भी बहुत सी यूनियनें अपनी चालबाजी से मजदूरों को गुमराह कर रही हैं।

साथियों, इतिहास का सबक है कि अधिकार प्राप्त करने तथा लम्बे संघर्षों से हासिल अधिकारों को बनाये रखने के लिए हमारे पास संघर्ष के अलावा कभी कोई विकल्प नहीं रहा है। दुनिया के किसी भी मुल्क में हम मजदूरों के लिये अच्छे दिन कोई हुक्मरान, राजनेता या आसमानी फरिश्ता कभी लेकर नहीं आया है। आगे भी हमें उनके रहमोकरम की जगह अपनी ताकत, मिहनत और संघर्ष पर ही भरोसा रखना होगा।

कैटेगरी, इंडस्ट्री, सेक्टर, परमानेंट-कैजुअल-ठेका-आउटसोर्स, धर्म, जाति, भाषा, आदि के सभी भेदों के परे मजदूर वर्ग के समान सामूहिक वर्गीय हितों के आधार पर रेलवे श्रमिकों, समस्त मजदूर वर्ग तथा अन्य मेहनतकश जनता की फौलादी एकता-एकजुटता ही न सिर्फ मजदूर वर्ग पर जारी मौजूदा हमलों का मुकाबला करने की, बल्कि पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न से अपनी तथा समस्त मानवता की मुक्ति का मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक कार्यभार पूरा करने की राह प्रशस्त कर सकती है। आइए, पूरी शक्ति से इस राह पर आगे बढ़ें! दुनिया के मजदूरों, एक हों!  


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