देश और दुनिया में आर्थिक विकास दर में आई कमी और इसके निहितार्थ

विश्व आर्थिक फोरम (World Economic Forum) ने इस साल के 10 सितंबर को प्रकाशित अपने साप्ताहिक आर्थिक एवं वित्तीय सर्वे में कहा है कि 2024 में वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर में पिछले साल की तुलना में “और अधिक” गिरावट आएगी। रायटर सर्वे भविष्यवाणी (Reuter’s Poll Forecast) ने अगले साल (2024-25) के लिए पिछले साल की 2.9 प्रतिशत वैश्विक वृद्धि दर की तुलना में मात्र 2.6 प्रतिशत का अनुमान पेश किया है। जहां जापान ऋणात्मक विकास दर में प्रवेश करते हुए मंदी में फंस चुका है, वहीं ब्रिटेन और पूरा यूरोप “नरम मंदी” के शिकार हैं। अमेरिका में वृद्धि हो रही है, लेकिन बेरोजगारी तीन महीने के सबसे ऊंचे दर पर सवार है जो चिंता का विषय बना हुआ है। ब्याज दर भी ऊंची बनी हुई है। ऊंचे ब्याज दर की “सॉफ्ट लैंडिंग” थ्योरी किसी काम की चीज साबित नहीं हुई। ब्याज दर को लेकर क्या कदम उठाये जाएं इसकी अनिश्चितता आज भी बनी हुई है, क्योंकि “सॉफ्ट लैंडिंग” के अवसर के मौजूद होने के बावजूद खुद की तथा विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं, जिसका ही ये सिरमौर है, को घेर कर खड़े मंदी के बादलों की वजह से भविष्य का ठीक-ठीक अनुमान लगाना इनके लिये कठिन साबित हो रहा है।

दूसरी तरफ, भारतीय अर्थव्यवस्था से यह खबर आ रही है कि इसकी दूसरी तिमाही (जुलाई से सितंबर 2024) की वृद्धि दर उम्मीद के बिल्कुल विपरीत जाते हुए और पिछली कई तिमाहियों के सबसे निचले स्तर तक गिरकर 5.4 प्रतिशत की वृद्धि दर तक पहुंची है। इससे 2024-25 में आर्थिक विकास दर के 7 प्रतिशत रहने के आरबीआई के पूर्वानुमान या प्रक्षेपण को बड़ा झटका लगा है। वैसे बड़ी पूंजी के कई अखबारों ने खुलकर यह मान लिया है कि “मंदी विभिन्न तिमाहियों से खतरे की घंटी बजा रही है।”

दरअसल पूरी दुनिया में आम लोगों की आय घट रही है, मजदूरों की वास्तविक मजदूरी गिरी है एवं इसकी वजह से उनके खर्च घट रहे हैं। इसके फलस्वरूप उपभोक्ता मांग के साथ-साथ पूंजी निवेश भी गिर रहा है। यह इस बात का संकेत है कि आर्थिक मंदी आसपास मंडरा रही है। वृद्धि दर का लगातार कम बना रहना, यानी वैश्विक अर्थव्यवस्था का लगातार सुस्त और अवसादग्रस्त बना रहना, आर्थिक संकट और मंदी की ही निशानी है। इसका सीधा रिश्ता बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी, कुपोषण तथा कंगाली में होने वाली वृद्धि से है। मतलब साफ है कि मजदूर-मेहनतकश वर्ग तथा कम आय-वर्ग की जनता के लिए आने वाले दिन दुख-तकलीफ से भरे ही रहने वाले हैं।

ध्यान देने वाली बात यहां यह है कि ऐसा पहली बार नहीं, लगातार हो रहा है। भारत के संदर्भ में खास बात यह है कि जब आर्थिक वृद्धि के आंकड़े ऊपर जा रहे होते हैं तब भी बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई की मार जनता पर पड़ती रहती है। इससे यह पता चलता है कि आर्थिक विकास के आंकड़े फर्जी हैं, या फिर जो आर्थिक विकास हो रहा है उसका जनता के विकास से कुछ लेना-देना नहीं है, यानी आर्थिक विकास के आंकड़ों का जनता के विकास से संबंध-विच्छेद हो चुका है। असल में, दोनों ही बातें सच हैं। फर्जी आंकड़े परोसे जा रहे हैं और जीडीपी वृद्धि से जनता के विकास का रिश्ता भी काफी कम गया है। आर्थिक वृद्धि तो जहर बनाकर भी प्राप्त की जा सकती है लेकिन जहर जनता के किस काम आता है? एक साथ हजारों नहीं, लाखों का विनाश करने वाले जनसंहारक हथियारों का निर्माण करके भी जीडीपी बढ़ायी जा सकती है, बल्कि बढ़ाई जा रही है। लेकिन इससे तो जनता का विनाश ही हो सकता है, विकास नहीं। इसलिए यह बात सच है कि आंकड़े कुछ और कहते हैं जबकि जमीनी वास्तविकता कुछ और ही है। अक्सर दोनों एक दूसरे के विपरीत होते हैं।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि 21वीं सदी की दुनिया एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के वर्चस्व की दुनिया है। साथ ही साथ यह कंप्यूटरीकरण, मशीनीकरण, आटोमेशन और आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस, आदि की भी दुनिया है। आज का आधुनिक युग तकनीकी विकास के उस बिंदु पर पहुंच गया है जहां उत्पादन प्रक्रिया का प्रस्थान बिंदु मनुष्य नहीं मशीन बनता जा रहा है। यह स्थिति उस बिंदू पर जा पहुंची है कि इससे लोगों की नौकरियां बड़े पैमाने पर खत्म हो रही हैं और कुल उत्पाद में निहित श्रम की मात्रा (प्रति यूनिट उत्पाद के आधार पर ही नहीं, संपूर्णता में भी) घट रही है। इसलिए सापेक्ष बेशी मूल्य (तकनीकी विकास के माध्यम से कुल श्रम काल को स्थिर रखते हुए आवश्यक श्रमकाल को घटाकर और उसी के अनुपात में बेशी श्रम को बढ़ाकर प्राप्त होने वाला बेशी मूल्य) के साथ निरपेक्ष बेशी मूल्य (आवश्यक श्रम काल को स्थिर रखते हुए कुल श्रमकाल को बढ़ाकर प्राप्त होने वाला बेशी मूल्य), दोनों को बड़े पैमाने पर लूटने व हड़पने के बावजूद पूंजीपति वर्ग के मुनाफे की दर कम हो रही है। अभी तो स्थिति यह है कि तीन चीजें काम कर रही हैं – उपरोक्त दोनों चीजों के अतिरिक्त आवश्यक श्रम काल को यथासंभव न्यूनतम सीमा तक कम करने की प्रवृत्ति भी काम कर ही है। लेकिन क्योंकि कुल उत्पाद में निहित कुल श्रम की मात्रा निरपेक्ष रूप से घट रही है, इस कारण मुनाफा दर में लगातार गिरावट के साथ-साथ कुल मुनाफे में भी गिरावट की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। पूंजी की मुनाफा दर में गिरावट को आधार बनाएं, तो हम देखते हैं कि आर्थिक संकट लगातार, वित्तीय क्षेत्र एवं स्टॉक मार्केट के रास्ते से मुनाफा प्राप्त करने की तमाम कोशिशों एवं इस कारण मुनाफा दर में इस बीच आने वाले तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद 1973 से ही बना हुआ है। पूंजी के मुनाफे की दर तब के (1973 के) ट्रेंड ग्रोथ दर से हमेशा नीचे ही बना रहा है। इसके अब तक भयानक परिणाम आये हैं और आगे भी आने वाले हैं – मजदूर वर्ग के लिए, और साथ में पूरी मानवजाति के लिए भी।

विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के आज के काम करने के तरीके और इसकी गतिकी पर हुए शोधों व अध्ययनों पर गौर करने से यह पता चलता है कि विश्व पूंजीवाद का संकट अब एक आम संकट बन चुका है। मजदूर वर्ग को यह समझने की जरूरत है कि अगर उसे पूंजी के सहयोग यानी पूंजीवादी विकास में हिस्सेदारी के आधार पर अपने दुखों से मुक्ति पानी है तो यह आज संभव नहीं है। इसके लिए पूंजी के विकास में एक और उछाल के दौर (पूंजीवादी विकास के स्वर्णिम दौर) की जरूरत होगी जो अब संभव नहीं है। इसलिए पूंजी के साथ सहयोग, साहचर्य एवं सहयोजन की अवसरवादी नीति अब काम नहीं करने वाली है। इससे तात्कालिक तौर पर सुविधा पाने का कोई मुफीद समय अगर कभी था, तो उसकी वापसी अब संभव नहीं है। इसलिए पूंजीवाद को हटाना, पूंजी की सत्ता को पलटना और समाजवाद की स्थापना करना – यही रास्ता मजदूर-मेहनतकश वर्ग के लिए अपनी मुक्ति का एकमात्र रास्ता बचा रह गया है।


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