पटना मेट्रो व अन्य निर्माण कार्यों में असुरक्षा के कारण हो रही मजदूरों की मौत दुर्घटना नहीं, हत्या है!

पटना में ठेकेदारों व ठेकेदार कंपनियों द्वारा सुरक्षा में बरती जा रही लापरवाही से होने वाले भयानक हादसों पर एक संक्षिप्‍त टिप्‍पणी। 

मालिक-ठेकेदारों-कंपनी के मुनाफे के लिए हो रही इन हत्याओं के खिलाफ उठ खड़े हों!

सबको पता होगा कि पटना में चल रहे मेट्रो निर्माण परियोजना में 28 अक्तूबर को रात 9 बजे के आसपास (घोषित तौर पर) 2 मजदूरों (ऑपरेटर व उसके हेल्पर, दोनों उड़ीसा के) की भूमिगत सुरंग में जघन्य मौत हो गयी। साथ में कई अन्य घायल व जख्मी भी हो गए। कुछ अति गम्भीर रूप से, तो कुछ कम गभीर रूप से। कारण? वही, निर्माण कम्पनी और ठेकेदार व सुपरवाइजर द्वारा मजदूरों की सुरक्षा में बरती जाने वाली आपराधिक लापरवाही! ऑपरेटर ने पहले से खराब लोको मशीन को चलाने से मना कर दिया था, लेकिन इसके बावजूद सुपरवाइजर ने कहा, “काम करो, नहीं तो घर जाओ।” मजदूरों ने कहा कि “आम तौर पर सुरक्षा के बारे में बात करने पर यही कहा जाता है।” मजदूर कहते हैं, “हम क्या कर सकते हैं? जबरदस्ती काम करें तो दुर्घटना से मरें, नहीं करें तो भूख और बेरोजगारी से मरें। कम्पनी के ठेकेदार-सुपरवाइजर को क्या है, उन्हें बस काम चाहिये, मजदूर मरे या बचे इससे उनको कुछ लेना-देना नहीं है।” मजदूरों ने कहा कि “जिस लोको मशीन का ब्रेक पहले से खराब था, उसको ही चलाने के लिए कहा गया। फिर उसे ही ओवरलोड भी करवा दिया गया और बीच में रोक कर छड़ अनलोड कराया जाने लगा। बताइये, ये दुर्घटना में हुई मौत है या जानबूझकर कराई गई हत्या?” तो मजदूर समझते हैं कि मौत और हत्‍या में क्‍या फर्क है। वे समझते हैं कि लापरवाही से उनकी मौत नहीं होती है, हत्‍या की जाती है। 

मजदूरों ने और अखबारों और यूट्यूब चैनलों ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि हादसे में मरे एक मजदूर की लाश कई टुकड़ों में कट गई। लेकिन ये इस दुखद कहानी का अंत नहीं है। मजदूरों के शव उनके परिवार वालों को मिला ही नहीं! एक पिता, एक भाई और एक पत्नी अपने बेटे, भाई और पति का अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाये! अंदाजा लगा सकते हैं कि कितने ऊंचे स्तर पर सरकार, अस्पताल और कम्पनी (डीएमआरसी और एल एंड टी) के अधिकारियों की आपसी सांठ-गांठ से  मामले को रफा-दफा करने व पूरी घटना की लीपापोती करने की साजिश की गई। इसलिए हम पाते हैं कि इसमें पहले आंदोलनरत मजदूर यूनियनों व फेडरेशनों से कम्पनी ने वार्ता करने से साफ मना कर दिया। बाद में लेफ्ट पार्टी की एक एमएलसी के जरिये पटना के डीएम पर वार्ता के लिए दबाव बनाया गया तब उनके सामने वार्ता हुई, जिसके बाद मुआवजा, आदि मिला। लेकिन गायब शव कहां गये या उनकी खोज-खबर करने पर कोई बात नहीं हुई। बस डीएम ने माफी मांग ली और बात खत्म कर दी गई। यहां तक कि घायलों की विस्तृत जानकारी भी सार्वजनिक नहीं की गई। साफ है, पटना में मेट्रो व ऊंची बिल्डिंगों के निर्माण से लेकर शहर को यातायात के मामले में सुविधा सम्पन्न बनाने और इसे हर तरह की चमक-दमक व शानो-शौकत से भरने की पूरी कवायद मजदूरों के निर्मम शोषण-दमन पर ही नहीं मालिक-ठेकेदारों द्वारा जान बूझकर बरती जा रही  आपराधिक लापरवाही के कारण हो रही उनकी बेरहम हत्या के बल पर ही की जा रही है। सच तो यही है कि पूरी की पूरी आधुनिक सभ्यता की नींव ही मजदूर वर्ग की कब्र पर खड़ी है। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के शासन में विकास का मतलब आग की वह भट्ठी है जिसमें मजदूरों को झोंके बिना कोई प्रगति सम्भव ही नहीं है।

लेकिन यह याद रखना चाहिए कि निर्माण मजदूरों के काम के दौरान सुरक्षा नहीं मुहैया कराने की वजह से मारे जाने की यह ना कोई पहली घटना है और ना ही आखिरी। हां, पटना मेट्रो निर्माण के काम में लगी इन बड़ी कंपनियों का ऐसा खूनी चेहरा इससे पहले उजागर नहीं हुआ था। मेट्रो मजदूरों का गुस्सा भी स्वतः रूप से पहली बार परियोजना के एक सीमित क्षेत्र में ही सही लेकिन इतने बड़े पैमाने पर भड़का जिसके बल पर एमएलसी ने दवाब बनाया। हालांकि यह लड़ाई जिस तरह से अंत मे एमएलसी के ऊपरी दवाब से जीती गई, वह यह बताता है कि मजदूर वर्ग के वास्तविक संघर्ष (वर्ग-संघर्ष) का प्रकट होना बाकी है और बेहद जरूरी भी। मजदूर वर्ग के संघर्ष की ताप से डीएमआरसी और एल एंड टी को परिचित होना बाकी है। यह सही है कि ऊपरी दबाव भी मजदूरों के बीच पनपे गुस्से के कारण ही काम किया और इसलिये यह जीत भी अंतत: मजदूरों की ही जीत है, लेकिन यह भी सच है कि यह एक अप्रत्यक्ष जीत है। कहने का अर्थ है, मेट्रो के मजदूरों की अपनी ताकत का सीधा दबाव इन बड़ी कम्पनियों पर खड़ा करना और मजदूरों के वर्ग-संघर्ष (सीमित अर्थ में ही सही) की ताप का इनको प्रत्यक्ष अहसास कराना मेट्रो मजदूरों और क्रांतिकारी मजदूर संगठनों का एक फौरी कार्यभार है। अपनी वर्ग-एकता और संघर्ष का सीधा अहसास कराए बिना ऐसी खूनी कम्पनियों और इनके ठेकेदारों-सुपरवाइजरों के मनमानीपन से दिन-प्रतिदिन के स्तर पर निपटना मुश्किल ही नहीं असम्भव है। मेट्रो के मजदूरों को यह बात ठीक से समझनी होगी, क्योंकि हर दिन के शोषण व जुल्‍म-ओ-सितम से लड़ने में यह ऊपरी दबाव काम नहीं करेगा। मजदूरों को यह समझना होगा कि जब एनआईटी, गांधी मैदान और मुइनुल्हक़ स्टेडियम तक मजदूरों ने गुस्से में आकर अघोषित हड़ताल कर दिया, तब ही ही ऊपरी दबाव काम आया। इसलिए तत्‍काल आंदोलन में उतरने को नजीर बनानी चाहिए, न‍ कि ऊपरी दबाव को। जब 48 घण्टे तक लाश नहीं मिली, तो मेट्रो मजदूरों का गुस्सा भवन निर्माण मजदूरों में फैल रहा था। इसके बाद जितनी बड़ी मात्रा में यह गुस्‍सा फूटता, उसकी ताप में कम्पनी की सारी हेकड़ी जल कर भस्म हो जाती। तब ये कपंनियां वार्ता से मना नहीं करती, इसके लिए मजदूरों से मिन्नत करती। पटना में कार्यरत क्रांतिकारी यूनियनें इस काम में लगीं थीं। इफ्टू – सर्वहारा तो पहले ही दिन से लगी थी, लेकिन अन्‍य यूनियनें में धीरे-धीरे शामिल हो रही थीं। ज्ञातव्‍य हो कि मेट्रो मजदूरों के बीच क्रांतिकारी यूनियनों की अब तक कोई पैठ नहीं बन पाई है। इसलिए तत्‍काल कारगर कार्रवाई करने में दिक्‍कतें आईं और इसलिए ऊपरी दबाव से ही मजदूरों को जीत मिल पाई। लेकिन इससे भी मेट्रो मजदूरों की ताकत को मेट्रो कंपनियों के समक्ष पहचान मिली है और इसलिए इसके सकारात्मक पक्ष को लेते हुए नकारात्‍मक पक्ष को दूर करने की कोशिश हमें आज से ही शुरू कर देनी चाहिए। यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि मजदूर जिस तरह से अपने वर्ग-भाइयों की मौत पर क्षेत्र, जाति व धर्म का भेद मिटा कर जमीन पर एकजुट डटे रहे, उन्‍हें हर दिन की लड़ाई में भी इसी तरह डटे रहना होगा, तभी मजदूर इन बड़ी कम्पनियों को कारगर तरीके से झुका सकेंगे।

2017 के एक अध्ययन के अनुसार भारत में निर्माण क्षेत्र में हर दिन औसतन 38 मौतें होती हैं। लेकिन ये संख्या केवल उन मामलों की है जहां घटना रिपोर्ट होती है। असली आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा है। सच तो यह है कि बहुत बार ऐसा होता है कि मजदूर के मरते ही लाश को फेकवा दिया जाता है या घायल मजदूर को बिना किसी एफआईआर के ही गांव भेज दिया जाता है जहां वे इलाज के अभाव में मर जाते हैं। ऐसे मजदूरों की तादाद काफी है। इसी तरह किसी दुर्घटना के कारण जिंदगी भर के लिए अपाहिज बन गए मजदूरों की संख्या भी कम नहीं है। हम अगर पटना के भवन निर्माण मजदूरों को ही देखें, तो हम कह सकते हैं कि कैसे इस काम में लगे मजदूर लगातार ही गिर कर, दब कर या काम करते वक्‍त करंट लगने से मौत के शिकार होते रहते हैं। ये भी हत्या ही है, यह नहीं भूलना चाहिये।

अभी एक सप्‍ताह के भीतर ही पटना में पांच दुर्घटनाएं हो चुकी हैं और दो मजदूरों की मौत हो चुकी है । 20 अक्तूबर को मुन्ना चक चौराहा के पास काम रहे बांका के युवा मजदूर, मनोज मंडल, की मौत साईट से एक फीट की दूरी पर गये 33000 वोल्ट के हाई टेंशन तार के संपर्क में आ जाने के कारण हो गयी। उसके तीन दिन बाद ही खेमनीचक के इलाके में करंट लगने से दो मजदूर जख्मी हो गए और उन्हें कई दिनों के लिए अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। 2 नवंबर को एक वृद्ध मजदूर की चार मंजिला मकान से काम के दौरान गिरकर मौत हो गई। इलाज और मुआवजा की लड़ाई लगभग हर स्‍पताह की लड़ाई बन गई है। अच्‍छी बात है कि इनके बीच इफ्टू-सर्वहारा की गहरी सांगठनिक पैठ व प्रतिष्‍ठा है और इसलिए हर लड़ाई में कार्रवाई की प्रक्रिया तत्‍काल ही शुरू कर दी जाती है और जीतें हासिल होती रही हैं। लेकिन सुरक्षा के सवाल पर जैसे आंदोलन की जरूरत थी वैसा आंदोलन खड़ा करना संभव नहीं हो पा रहा है, यह सच्‍चाई है। बीते चार-पांच सालों में ऐसे कई दर्जन मामलों में निर्माण मजदूर संघर्ष यूनियन व इफ्टू-सर्वहारा के नेतृत्व में मजदूरों ने सीधी कार्रवाई की और ठेकेदारों व मालिकों को प्रशासन के हस्‍तक्षेप के बावजूद सीधे वर्ग-संघर्ष में झुकाया है। यहां हर लड़ाई बिना किसी ऊपरी दबाव के ही मजदूरों ने जीती है। यही कारण है कि ठेकेदारों और मालिकों में एक भय का संचार हुआ है और अक्‍सर वे यूनियन कोई कार्रवाई करे इसके पहले ही इलाज व मुआवजा तथा इलाज के दौरान मजदूरी देने, आदि के लिए राजी हो जाते हैं। उन्‍हें पता है जितना अड़ेंगे उतनी ज्‍यादा राशि की मांग मजदूर करेंगे। इसलिए उन्‍होंने भी यूनियन से ‘सहयोग’ का एक सुगम रास्‍ता चुन लिया है। यूनियन के बतौर हम भी समझते हैं और मजदूर भी समझते हैं कि अपने आप में यह मजदूरों के प्रभुत्‍व का परिचायक है जो अपने आप में अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण चीज है। इसे ठोस करना आज प्राथमिकता है। इसके बाद लड़ाई की तीव्रता, गहराई और ऊंचाई हम जब चाहे बढ़ा सकते हैं। जहां तक लाश गायब करा देने की बात है आज की तारीख में एक खास इलाके में, जहां हमारे यूनियन का दबदबा है, ऐसा करने की हिमाकत कोई नहीं कर सकेगा। असल बात है, सुरक्षा की व्‍यवस्‍था हो इसके लिए आंदोलन चलाना, जो कि अब तक कठिन साबित होता रहा है। इसलिए इलाज और मुआवजा की जीत भी उस हद तक अधुरी है। मुआवजे की लड़ाइयों का असर भले ही मालिक-ठेकेदारों को दुर्घटना के बाद मनमानी करने से रोकता है लेकिन चाहे हम कितना भी मुआवजा दिलवा दें, हम मृत मजदूर की जान नहीं लौटा सकते। अतः हमारी आज की एक मुख्य लड़ाई कार्यस्थल पर मजदूरों की सुरक्षा को सुनिश्चित करवाने की है, जिसकी ओर सर्वप्रथम मजदूरों का ध्‍यान आकृष्‍ट करना और उन्‍हें जगारूक करना सबसे ज्‍यादा जरूरी है।   

साथियों, मेट्रो निर्माण में लगी कम्पनियां बड़ी ठेकेदार कंपनियां हैं। इनका सीधा मेलजोल सरकारों से है। सरकारी अफसर तो क्‍या खूद सरकार ही इनकी पॉकेट में रहती है। ये कई स्तर के ठेकेदारों को बहाल कर अपने अधीन काम करवाने वाली बड़ी कम्पनियां हैं। इसके सबसे निचले लेवल के ठेकेदार भी बड़े ठेकेदार होते हैं। कहने का मतलब है कि इनसे जब भी मजदूरों की हक की मुकम्मल लड़ाई होगी, तो बड़ी लड़ाई  होगी और ये मजदूरों की एकजुटता को तोड़ने के लिए कोई भी कदम, हर तरह का कदम, यहां तक की खूनी कदम भी उठा सकती हैं। यह करोड़ों-अरबों का ठेका लेने वाली इन कम्पनियों के चरित्र का हिस्सा एवं उनकी  फितरत है कि ये ऊपरी दबाव के आगे तो झुकेंगे, लेकिन मजदूरों के आगे नहीं झुकना चाहते हैं। क्यों? इसलिए कि ये हर दिन और हर स्तर पर मजदूरों के श्रम का इतना अधिक शोषण व लूट करते हैं कि उनको लगता है कि अगर एक दिन मजदूरों के आगे झुक जाएंगे तो फिर हर दिन और हर मौके पर झुकना पड़ेगा। दूसरी तरफ, मजदूर इनको झुकाए बिना अपने श्रम की बेतहाशा लूट पर लगाम नहीं लगा सकते। इसलिये एक वास्तविक संघर्ष का आगाज जरूरी है और ऐसे संघर्ष में प्रशिक्षित यूनियन के अगुआ मजदूर कार्यकर्ताओं व नेताओं को इसकी जिम्मेवारी लेनी होगी, चाहे इसके लिए जो भी कीमत देनी पड़े।

आज के दौर में जब महंगाई भयानक दर से बढ़ी है और मजदूरी बेहद कम है तो ऐसे में मजदूर को पेट चलाने के लिए हर पल अपनी जान का सौदा करना पड़ता है। दूसरी तरफ बेरोजगारी इतनी बढ़ चुकी है कि अधिकतर मजदूरों को महीने में 10 दिन और काम मंदा होने पर लगभग 15-20 दिन काम नहीं मिलता है। ऐसे में मजदूर भूख से मरने और जान का खतरा मोल लेने के बीच चुनने को विवश हो जाते हैं। और इसी बात का फायदा उठा कर ठेकेदार-मालिक उनसे जानवरों की तरह बिना किसी सुरक्षा के काम लेते हैं। यही चीज हादसे की मुख्य वजह बनती है। हमे ठीक इसी बिंदु पर मजदूरों के पेट के लिए काम करने और सुरक्षा के लिए लड़ने के बीच एक कारगर संतुलन बनाते हुए संघर्ष का रास्ता निकालना और तय करना होगा। ठोस रूप से कहें, तो यहां हमें भवन निर्माण और मेट्रो निर्माण में लगे मजदूरों को एवं उनकी सुरक्षा व अन्य साझा मांग हेतु लड़ाई को एकसूत्र में बांधना होगा। आइये, इसकी तैयारी में लगें। आइये, पर्व मनाते हुए ही सही आगे की लड़ाई की नींव रखें!


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