एम असीम | ‘सर्वहारा’ #59 (16 सितंबर 2024)
श्रमिकों पर मार – रेलयात्रा को कई गुना महंगा बनाने का प्रोजेक्ट
15 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद से भुज के लिए पहली वंदे मेट्रो रेल को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। खबर है कि रेलवे फिलहाल चल रही 3,500 पैसेंजर गाड़ियों को बंद कर उनकी जगह ये वंदे मेट्रो गाड़ियां चलाएगा। अमूमन दो सौ से साढ़े तीन सौ किलोमीटर तक सभी स्टेशनों पर रुककर चलने वाली ये पैसेंजर गाड़ियां गांव, कस्बों, छोटे शहरों के निवासियों के लिए पास की यात्रा का सस्ता व सुविधाजनक जरिया रही हैं और बहुत से यात्री इन्हें रोजाना अपने रोजगार व कामधंधे पर जाने के लिए प्रयोग करते रहे हैं।
लेकिन कोविड लॉकडाउन के दौरान इन गाड़ियों को बंद कर दिया गया था। उसके बाद इनमें से बहुत सी गाड़ियों को स्थाई तौर पर रद्द कर दिया गया। जहां इन्हें वापस चलाया भी गया वहां इन्हें स्पेशल ट्रेन कहकर चलाया जा रहा है। अर्थात सभी स्टेशनों पर पैसेंजर गाड़ी की तरह रुकते हुए यात्रा के बावजूद इनके यात्रियों से मेल/एक्सप्रेस ट्रेन का बढ़ा हुआ भाड़ा वसूल किया जा रहा है।
वंदे भारत गाड़ियां पहले ही आम मेल/एक्सप्रेस गाड़ियों के परिचालन को बुरी तरह प्रभावित कर रही हैं। इन वंदे भारत गाड़ियों के कारण अन्य गाड़ियों की गति धीमी पड़ गई है क्योंकि वंदे भारत को प्राथमिकता से आगे निकालने के लिए अन्य गाड़ियों को दो-तीन स्टेशन दूर ही रोक दिया जाता है। उदाहरण स्वरुप चेन्नई मदुरै रूट पर 1 अक्टूबर 2023 से अन्य गाड़ियों को धीमा कर उनका यात्रा समय 15 मिनट बढ़ा दिया गया ताकि वंदे भारत समय से चल सके। इस प्रकार पूरे रेलवे सिस्टम की गति धीमी हो गई है और विशाल निवेश व विकास के दावों के बावजूद यह पहले से कम यात्री व माल भाड़ा वहन कर पा रहा है। आवश्यकता के मुताबिक नई गाड़ियां चलाना दूर पहले की कई गाड़ियां अब तक बंद हैं, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों के लिए चलने वाली पैसेंजर या साधारण गाड़ियां।
परिणाम यह है कि दावों में तो दस साल से ट्रेनों की रफ्तार बढ़ती ही जा रही है, मगर असल में वो रफ्तार धीमी हो गई है। नवंबर 2023 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल-सितंबर 2022 में सभी यात्री गाड़ियों की औसत रफ्तार 47.6 किमी प्रति घंटा थी। अप्रैल-सितंबर 2023 में यह औसत घटकर 42.3 किमी प्रति घंटा ही रह गई। अर्थात 5 किमी प्रति घंटा कम! मालगाड़ियों की रफ्तार भी 31.7 किमी से घटकर 25.8 किमी प्रति घंटा ही रह गई। तो ऐसा भी नहीं है कि मालगाड़ियों को निकालने के लिए यात्री गाड़ियां धीमी हुई हों। असल में बुलेट ट्रेन और वंदे भारत के शोर के बीच रेलवे का पूरा सिस्टम ही तबाह हो गया है। रेलवे भीड़ से निपटने के लिए अतिरिक्त तो दूर कोविड पूर्व दौर के पहले वाली नियमित गाड़ियां भी चलाने में नाकाम हो गया है। गाड़ियों की बेहद लेटलतीफी और भयंकर भीड़ इसका ही नतीजा है।
दस सालों से रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर में चमत्कारिक विकास के ऐलानों व उदघाटनों की झड़ी लगी है पर नतीजा उलटा यह है कि खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मालगाड़ियों तथा यात्री गाड़ियों दोनों की न सिर्फ औसत गति पहले से कम हो गई है, बल्कि उनकी माल व यात्री वहन क्षमता भी घट गई है। ऊपर से रेलवे एक ओर तो नियमित गाड़ियां चलाने के बजाय महंगी स्पेशल गाड़ियां चलाने पर जोर दे रहा है। फिर नियमित गाड़ियों में भी जनरल व स्लीपर कोच बहुत कम कर दिए गए हैं। उधर एसी श्रेणी के भाड़े कई तरह से इतने ऊंचे कर दिए गए हैं कि आम यात्रियों खास तौर पर प्रवासी मजदूरों के लिए वहन कर पाना नामुमकिन हो गया है और उन्हें इतनी भयावह भीड़ की हालत में सफर करने को मजबूर होना पड़ता है।
अब वंदे भारत व वंदे मेट्रो दोनों ही आम मुसाफिरों की जेब पर कम बोझ डालने वाली किफायती भाड़े वाली गाड़ियों को बंद कर उनकी जगह महंगी गाड़ियों को चलाने का जरिया बन गए हैं। इसका निष्कर्ष यही है कि पहले की तरह भाड़ा बढ़ाने का तो ऐलान नहीं किया जाएगा। पर किफायती भाड़े वाली गाड़ियों को बंद कर महंगी वंदे गाड़ियों के द्वारा रेलयात्रा को संभवतः आठ-दस गुना महंगा कर दिया जाएगा।
रेलयात्रा को महंगा कर आम मुसाफिरों से की जाने वाली इस वसूली को रेलवे में जारी ठेकाकरण व आउटसोर्सिंग के जरिए निजी पूंजी को हस्तांतरित किया जाएगा। और इतना महंगा कर देने के बाद भी रेलवे घाटा ही दिखाती रहेगी। भारत में दसियों करोड़ प्रवासी श्रमिक हैं। महंगी रेलयात्रा एक तरह से उन्हें मिलने वाली थोड़ी सी मजदूरी में से भी राज्य तंत्र द्वारा जेब काटने जैसा है और जेब काट कर इकट्ठा की गई रकम प्रोत्साहन व सबसिडी के जरिए सबसे अमीर पूंजीपतियों की दौलत बढ़ाएगी।
भारत की मेहनतकश व गरीब जनता के एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा के लंबे समय से सर्वाधिक उपलब्ध व सस्ते साधन रहे रेलवे की हालत आजकल ऐसी हो गई है कि गत 15 जून को एक मिडिल बर्थ टूट कर गिरने से लोअर बर्थ के एक यात्री की मृत्यु हो गई थी। कुछ दिन पहले ही हमने यह भी खबर देखी थी कि जनरल डिब्बे में भारी भीड़ की वजह से एक मुसाफिर का दम घुट गया और चिकित्सा सुविधा मिलने तक उसकी मृत्यु हो गई। विभिन्न गाड़ियों के जनरल व स्लीपर ही नहीं, एसी3 श्रेणी तक में भारी भीड़ के फोटो मीडिया में खूब आए हैं। यहां तक हालत है कि इस मई जून की भयानक गर्मी में भी यात्री हजारों किलोमीटर की यात्रा कोच को लिंक करने वाले स्थानों तथा शौचालयों तक में करने को मजबूर हो रहे हैं। इसका मतलब यह भी है यात्रियों के लिए इस गर्मी में इतनी भीड़ की वजह से शौचालयों का इस्तेमाल असंभव हो गया है जिसके स्वास्थ्य के लिए बहुत दुष्प्रभाव होते हैं। भीड़ का एक विडिओ तो ऐसा भी आया कि लखनऊ में भीड़ से परेशान होकर सैकड़ों की तादाद में मुसाफिर वंदे भारत गाड़ी में ही चढ़ गए।
किंतु रेल मुसाफिरों की बेहद तकलीफ पर इस सरकार का रवैया अत्यंत अमानवीय व तानाशाही भरा है। रेलवे के कुप्रबंधन व कुप्रशासन का दंड इस सरकार द्वारा रेल मुसाफिरों को दिया जाना है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रवासी श्रमिकों की एक बेहद बड़ी संख्या है। इनमें वो भी हैं जो अपने मूल स्थानों से हजारों किलोमीटर दूर दूसरे राज्यों-महानगरों में रहते हैं और जिन्हें जन्म, मृत्यु, विवाह, बीमारी, आदि की सूचनाओं पर या ऐसे भी अपने परिजनों से मिलने के लिए लंबी यात्राएं करना जरूरी हो जाता है। फिर एक बड़ी संख्या वह है जो लगभग हर रोज रोजगार, मजदूरी या अन्य छोटे काम धंधों के लिए बीस-पचास-सौ किलोमीटर का सफर तय करते हैं।
रेलवे इन प्रवासी मेहनतकशों के लिए जीवनरेखा की तरह रही है। मगर यह कभी भी उनके लिए सुविधाजनक नहीं रही। रेलवे ने हमेशा ही संपन्न यात्रियों के लिए सुविधाओं की व्यवस्था की है तो श्रमिकों के लिए औपनिवेशिक शासन के दौर से ही तीसरी श्रेणी बनाई गई जिसमें आम मेहनतकश जनता किसी तरह ठूंस ठांस कर सफर के लिए मजबूर होती रही है। किंतु इसमें भी नरेंद्र मोदी की बीजेपी सरकार के पिछले दस वर्ष का शासन उन पर कहर बनकर टूटा है। इस सरकार ने हर साल लाखों करोड़ रुपये के निवेश से विकास के बड़े-बड़े चौंधियाने वाले दावे व प्रचार किया है। स्टेशनों के विकास से लेकर वंदे भारत गाड़ियों के द्वारा रेलवे के वैश्विक स्तर के विकास पर खाए अघाए संपन्न लोग गर्व व्यक्त करते पाए जा सकते हैं। किंतु विकास के नाम पर रेलयात्रा को जिस तरह बेहद महंगा बनाया जा रहा है, आम श्रमिकों के लिए तो वह बहुत बड़ी तकलीफ बन चुका है।