शंकर कुमार | ‘सर्वहारा’ #58 (1 सितंबर 2024)
पिछले दिनों बॉम्बे हाई कोर्ट में दिए गए सेंट्रल और पश्चिमी रेलवे द्वारा ट्रेन से गिर कर या ट्रैक पर मरने वाले यात्रियों के आंकड़े चौकाने वाले हैं। दी गयी जानकारी के मुताबिक पिछले 20 सालों में केवल मुंबई लोकल ट्रेनों में 51,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, यानी प्रति दिन लगभग 7 से अधिक लोग पैसेंजर व लोकल ट्रेनों में अत्यधिक भीड़ के कारण ट्रेनों से गिर कर, लटकते वक्त ट्रैक के पोल से टकराकर, ट्रैक पार करते समय, आदि वजहों से बेमौत मारे जा चुके हैं। ध्यान रहे कि ये आंकड़े केवल मुंबई लोकल ट्रेनों के लिए दिए गए हैं, पूरे भारत के लोकल, पैसेंजर व लंबी दूरी वाली ट्रेनों में हुई इन बेजुबान मौतों का अंदाजा उपरोक्त आकंड़ों से लगाया जा सकता है। भीड़ भरी ट्रेनों में जानवरों की तरह भर कर जाने वाले ये लोग अमीरों के घर से नहीं आते, बल्कि दो जून की रोटी जुटाने निकले प्रवासी मजदूरों और निम्न मध्य वर्ग के घरों से आते हैं; इनमें वे छात्र होते हैं जो वर्षों तक एक-आध सरकारी नौकरी के लिए अपना खून-पसीना एक करते रहते हैं। परीक्षाओं के समय ट्रेनों में नारकीय स्थिति में सफर करने को मजबूर छात्रों की तस्वीरें आये दिन वायरल होती रहती हैं।
अगर सरकार चाहे तो ट्रेन में होने वाली इन सभी मौतों को रोका जा सकता है। सरकारी खजाने का अधिकाश हिस्सा मजदूरों-मेहनतकशों और मध्य-निम्न मध्य वर्ग द्वारा मेहनत की गाढ़ी कमाई के एक हिस्से को टैक्स के रूप में दे कर भरा जाता है। लेकिन इसे आम जनता पर खर्च करने के बजाय सरकार अमीरों के शौक पूरा करने के लिए और दुनिया में अपने नाम का ढिंढोरा पिटवाने के लिए इसे बुलेट ट्रेन परियोजना पर खर्च कर रही है (मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन परियोजना का संभावित खर्च लगभग 2 लाख करोड़ रूपए तक बताया जा रहा है)। लेकिन ट्रेनों में बढ़ती भीड़ को कम करने के लिए ट्रेनों की संख्या बढ़ाना सरकार के एजेंडे में नहीं है। उन्हें इन मौतों से कोई मतलब नहीं है। आखिर हो भी क्यों, मीडिया को खरीद कर उसने पूरे देश और दुनिया में वन्दे भारत और बुलेट ट्रेन के जरिये “विकास” का जो भोपूं चालू किया है उसके शोर में मरने वालों की सारी चीखें दब जाती है।
लेकिन मोदी सरकार की असलियत ट्रेनों में ठूंस कर सफर करने वाली ये करोड़ों जनता जानती है। वे जानते हैं कैसे मोदी सरकार ने कोविड लॉकडाउन के बहाने कई ट्रेनों को हमेशा के लिए बंद कर दिया, कई ट्रेनों के स्टेशन घटा दिए जिससे सबसे ज्यादा तकलीफ का सामना प्रवासी मजदूरों को करना पड़ा। सभी ट्रेनों में किराया बढ़ाया जा चुका है। मजदूरों और गरीब तबके के लोगों के लिए जनरल डब्बे जैसे एकमात्र विकल्प को भी कम कर दिया गया है। अब लंबी दूरी की ट्रेनों में भी कुछ ही जनरल डिब्बे हैं। बाकी के डिब्बों को मजदूरों से पैसे वसूलने के लिए ‘सेकंड क्लास’ घोषित करके रिजर्वेशन वाला बना दिया गया है। स्थिति ये है कि स्लीपर डब्बा जनरल बन गया है और जनरल डब्बे में सामान की तरह किसी तरह लद कर लोग सफर करने को मजबूर हैं।
मजदूरों, मेहनतकशों, छात्रों, मध्य-निम्न मध्य वर्ग के नौकरीपेशा लोगों और छोटे कारोबारियों, सभी के लिए रेलवे उनकी जीवन-जीविका चलाने का साधन है। रेलवे आम जनता की संपत्ति है जिसे आज कौड़ियों के भाव अडानी-अम्बानी जैसे धन्नासेठों को बेचा जा रहा है। रेलवे के कई ट्रैक व ट्रेनें प्राइवेट की जा चुकी हैं। रेलवे की कई सारी सेवाएं प्राइवेट ठेकेदारों को दी जा चुकी है। लाखों लोगों को नौकरी देने वाली और करोड़ों लोगों के लिए लाइफलाइन का काम करने वाली भारतीय रेलवे जैसी सार्वजनिक परियोजना का जानबूझ कर भट्ठा बैठाया जा रहा है ताकि लोग तंग आ कर या तो महंगी प्राइवेट ट्रेनों में सफर करने को बाध्य हों या फिर मानवीय जीवन की गरीमा की सीमा लांघती नारकीय और जानलेवा परिस्थितियों में सफर करने को तैयार रहें।
हम किसी भी विषय से शुरू करें, चाहे वो रेलवे में हो रही मौतों और आम जनता की रोजमर्रा की जद्दोजहद का मुद्दा हो या आसमान छूती महंगाई और बेतहाशा बढ़ती बेरोजगारी का सवाल हो, सभी में एक चीज साफ है – अगर आम जनता को, खासकर मेहनतकश जनता को, अपना जीवन खुशहाल और अपना भविष्य सुरक्षित चाहिए तो उसे मेहनत की लूट पर टिकी इस आदमखोर व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना होगा।