एनजीओ का व्यवहार और उसकी विचारधारा के समग्र मूल्यांकन का एक प्रयास

[एन.जी.ओ.वाद पर लेखों की श्रृंखला में यह दूसरा लेख है। अंक 58 में छपा पहला लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।]

हमने पिछले अंक में एनजीओ के बारे में कुछ परिचयात्मक टिप्पणी की थी। लेकिन आज की बात करें तो पूरे विश्व में एन.जी.ओ. पूंजीवादी सरकारों और साम्राज्यवाद द्वारा पोषित साम्राज्यवादी दुष्चक्रों के नवीनतम रूप बन गये हैं। इनका यह मिथ्या नाम भले ही इन्हें समाज की निस्वार्थ सेवा करने वाले “मासूम ग्रासरूटी” कार्यकर्त्ताओं के संगठन व आम राजनीति की सड़ांध से दूर और राज्यवादिता से पूरी तरह निर्लिप्त विकास के प्रति समर्पित किसी निष्कलंक संगठन के रूप में प्रतिष्ठित करता है, लेकिन इनकी असली विशेषता कुछ और है। हमें इससे पूरी तरह अवगत होना चाहिए।

हम पाते हैं कि इनके द्वारा सभी तरह के शोषण उत्पीड़न के खिलाफ युद्ध छेड़ने की की जा रही घोषणाओं में वर्गीय शोषण के खिलाफ युद्ध की कोई घोषणा नहीं होती है। एकमात्र यही बात इनकी बेईमानी को साबित करने के लिए काफी है। लेकिन फिर भी हमें इनके ऐतिहासिक विकासक्रम का एक वैज्ञानिक विश्लेषण भी करना चाहिए, ताकि हम यह दिखा सकें कि किस तरह इनके “भव्य कर्तव्यों” का वर्गीय उत्पीड़न के सम्पूर्ण उन्मूलन, पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का वास्तविक विकल्प ढूंढने के लिए अब तक किये गये तमाम सैद्धांतिक प्रयासों व व्यवहारों और हासिल की गयी ऐतिहासिक विजयों व उपलब्धियों, आदि से कितना कटु टकराव है और यह कोई सांयोगिक परिघटना या घटना नहीं है। इस टकराव की जड़ में पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के अंतर्गत सदियों पुराने व्यवस्थाजनित वर्ग-विरोधों की असाध्यता पर परदा डालने व पूंजी की सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखने वाले इनके सिद्धांत हैं।

शासक वर्गों के लिए, खासकर आधुनिक युग के शोषक व शासक पूंजीपति वर्ग के लिए शोषण की जड़ पर पर्दा डालने की कोशिश करना स्वाभाविक ही है। यह अलग बात है कि समय के साथ इस पर से हर तरह का पर्दा हटता जा रहा है। वर्ग विरोधों और वर्गीय विभाजन पर खड़े पूंजीवाद के तमाम पूर्ववर्ती समाजों के सत्ता शीर्ष पर बैठे तत्कालीन प्रभुत्वशाली वर्गों ने भी अपने समय काल के हिसाब से ऐसे ही सिद्धांत गढ़े थे, जो उस समय के वर्ग-विरोधों पर परदा डालते थे।

आज गैरसरकारी संगठन एक वर्गीय उत्पीड़न को छोड़कर बाकी सभी तरह के शोषण के खिलाफ, हर तरह के अविकास और पिछड़ेपन के खिलाफ, हर तरह के भेदभाव के खिलाफ ‘जंग’ के एलान की बात करते हैं। हमें हर कहीं उनकी बात सुनाई पड़ती है। टमाटर उगाने से लेकर चटनी बनाने तक और फिर उसे बाजार में बेचने के व्यवसायिक नुस्खों को तैयार करने से लेकर साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण और इसके दुष्परिणामों के विरूद्ध ये वैचारिक राजनैतिक परियोजनाएं बनाने का दावा कर रहे हैं। वे दावा करते हैं कि उनके पास गरीबी से लेकर हर तरह की समस्या का निदान है। वे सरकारों से मिलकर निदान को लागू करने में भी लगे हैं। लेकिन 200 सालों के उनके कार्यों का परिणाम आज जगजाहिर है। गैर-बराबरी आज सबसे ज्यादा है। ऐसा क्यों हो रहा है या क्यों हुआ, इसका जवाब क्या वे देंगे, खासकर तब जब वे पुरी दुनिया में गरीबी दूर करने का नुस्खा बांट रहे हैं और उसे लागू करने में मिली सफलता का गुणगान भी कर रहे हैं?

दरअसल वे पुरातन की रक्षा में लगे हैं। लेकिन क्या यह संभव है? नहीं। आज हम नूतन और पुरातन के बीच, यानी मजदूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग के द्वंद्व से निर्मित परिदृश्य को देखें तो हमें साफ दिखाई देगा कि पुरातन (पूंजीवाद व साम्राज्यवाद) अपनी मृत्यु शैय्या पर पड़ा है और उसमें जीवन नाम मात्र का ही बचा है। बस वह अपनी जीवन-रक्षा में लगा हुआ है। एनजीओ इसी में लगा है।

बहुत दिन नहीं बीते हैं जब नूतन (मजदर वर्ग) ने पुरातन को साकार रूप से मृत्यु शैय्या का दिग्दर्शन करा दिया था। हम यहां सोवियत समाजवाद की बात कर रहे हैं। इसे पुरातन का सौभाग्य कह लीजिए या फिर इतिहास का एक प्रतिक्रियावादी मोड़ कि आज मजदूर वर्ग ऐतिहासिक पराजय झेल रहा है और पूंजीवाद साम्राज्यवाद को फिलहाल कोई बड़ी और कारगर चुनौती देने वाली मजदूर वर्गीय कार्रवाई का सर्वथा अभाव है। परंतु इससे यह कदापि नहीं साबित हो जाता है कि गैरसरकारी संगठनों के बड़े-बड़े दावे और पूंजीवाद में जवानी लौटाने के दावे खोखले नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि लाखों में मौजूद और पूरी दुनिया में फैले एनजीओ की अनगिनत शाखा-प्रशाखाओं के बावजूद गैरबराबरी और भेदभाव के लगातार फैलते जा रहे साम्राज्य पर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा है। इसके विपरीत विभिन्न शोधकर्ताओं ने जो आंकड़े प्रस्तुत किये हैं उनसे यह दिखाया जा सकता है कि गरीबी और गैरसरकारी संगठनों की संख्या में वृद्धि के बीच प्रत्यक्ष समानुपात का रिश्ता है, यानी जहां बरीबी बढ़ती है वहां एनजीओ की संख्या बढ़ती है और फिर गैरसरकारी संगठनों की वृद्धि दर के साथ गरीबी की दर भी बढ़ती जाती है। जहां तक जातीय, यौन, धार्मिक, राष्ट्रीय, नस्ली और साम्प्रदायिक भेदभावों की बात है, तो कौन नहीं जानता है कि खुद पूंजीवाद साम्राज्यवाद इन्हें उच्चस्थ कर रहा है और बढ़ा रहा है। इस युग का पतनशील पूंजीवादी समाज किसी भी तरह की नैतिकता का वरण नहीं कर सकता, कर पाने की स्थिति में ही नहीं है। उल्टे, आज यह सभी तरह के सामाजिक-सामुदायिक विद्वेषों की “उर्वर भूमि” और “विचरण भूमि” बन गया है जिसका ही परिणाम है पूरी दुनिया में फासीवादी विचारधारा और फासीवादी तानाशाही कायम करने की कोशिशों में आया उछाल।

एनजीओवाद वास्तव में एक पहचानमूलक विचारधारा है। इसकी राजनीति और समाज में इसकी प्रभावी मौजूदगी ने सभी तरह के सामाजिक भेदभावों और गैरबराबरी को पाटने की बात तो दूर, इसने समुदाय आधारित चेतना को आगे बढ़ाकर सम्प्रदायगत व जातिगत पहचानगत सुरक्षा आदि की मांग को समाज में प्रतिष्ठित ही किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कल यही पहचानमूलक राजनीति प्रकारांतर में समाज में और भी अधिक खतरनाक तरीके से आग में घी डालने का काम करेगी, या कम से कम फासीवादी राजनीति के लिए और भी ज्यादा मजबूत आधार तैयार करेगी। आगे चलकर यह पहचानमूलक राजनीति करने वाले एनजीओवादी लोग खुल्लमखुल्ला समुदाय आधारित जातीय व नृवंशीय विद्वेषों के वाहक बन बैठें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। वर्ग संघर्ष की विचारधारा को संकीर्ण और खतरनाक बताने वाले अक्ल के स्वयंभू ठेकेदार इन एनजीओवादियों की यही असलियत है।

वर्गीय गैरबराबरी को दूर कर के सभी तरह के भेदभावों को हमेशा के लिए समाप्त कर देने के सिद्धांत के निषेध की सुविचारित आस्था पर खड़े गैरसरकारी संगठनों का “इतिहास और विचारधारा के अंत” के बारे में की जा रही उत्तरआधुनिकतावादी चीख पुकार के साथ मेलजोल भी पुराना है (जिस पर एक संक्षिप्त टिप्पणी हम आगे के लेखों में करेंगे), परंतु हाल-फिलहाल की सबसे दिलचस्प बात यह है कि उत्तरआधुनिकतावाद-एनजीओवाद की पांतों में आ मिलने वालों में धुर भाजपाई से लेकर सभी तरह के संशोधनवादी कम्युनिस्टों, लेनिन-स्टालिन काल में बने सोवियत समाजवादी मॉडल के फैशनेबल विरोधियों से लेकर तथाकथित मानवतावादियों, आदि की एक पूरी जमात शामिल हो गयी है। सच्चाई तो यही है कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के साथ भी संश्रय कायम कर लेने के भरपूर मौके इन्हें मिल रहे हैं। ठीक इसी मायने में आज का एनजीओवाद 200 वर्ष पूर्व के “आदिम पूंजीवादी सुधारवाद” की मासूम पैरोडी नहीं है, अपितु गहन से गहनतर होते जा रहे साम्राज्यवादी-पूंजीवादी दुष्चक्रों के नवीनतम औजार हैं, उनका नवीनतम अवलंब हैं। यह मुट्ठी भर वित्तीय थैलीशाहों आदि के “सिरफिरेपन” और साजिशों का फलाफल मात्र नहीं, अपितु पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के अंदर भयानक रूप से तीखे होते जा रहे वर्ग-विरोधों की असाध्यता पर परदा डालने, उन्हें ‘हल’ करने का फूहड़ परंतु खतरनाक दिखावा करने के पूंजीवादी प्रयासों के साजिशी परिणाम हैं। हम देख रहे हैं कि बेसहारा बच्चों की देख-रेख की व्यवस्था करने आदि की सलाहें पूंजीपतियों को बड़े पैमाने पर दी जाने लगीं हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि दुनिया में युद्ध, बेरोजगारी, भुखमरी और कंगाली से लोगों की मौतों में तेजी आई है।

(क्रमश: जारी – “एनजीओवाद के पुराने और नये दिन”)


Leave a comment