विदुषी | ‘सर्वहारा’ #58 (1 सितंबर 2024)
आज दुनिया के हर कोने में मानव सभ्यता का अस्तित्व गंभीर खतरे में है। यूक्रेन और मध्य-पूरब एशिया में चल रही साम्राज्यवादी जंग से इसकी विनाशलीला झांक रही है, तो दूसरी तरफ इसे फासीवादी तानाशाही, जो अपने आप में जनता पर लादा गया एक बर्बर युद्ध ही है, अपना ग्रास बना रहा है जिसके परिणामस्वरूप मुट्ठी भर बड़े पूंजीपतियों को छोड़ बाकी मानवता कराह रही है। दरअसल शासक वर्ग जनता पर हर तरह से युद्ध चला रहा है – बेरोजगारी के माध्यम से युद्ध, महंगाई के माध्यम से युद्ध, असमानता के माध्यम से युद्ध, कंगाली और भुखमरी पैदा करके युद्ध। इसी तरह आसमान छूती महंगाई में सार्वजनिक शिक्षा व स्वास्थ्य व परिवहन व्यवस्था का पूरी तरह से चौपट हो जाना, ठेका प्रथा थोपने से स्थाई जॉब्स की पुरानी व्यवस्था का बिल्कुल ही लुप्त हो जाना और सामाजिक सुरक्षा का पूरी तरह से अंत हो जाना, ये सब भी आम जन साधारण के खिलाफ एक भयानक युद्ध ही है जो लगातार तेज हो रहा है और रुकने का नाम नहीं ले रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह से जनता के ऊपर लादे गये युद्धों में मारे जाने वालों की संख्या साम्राज्यवादी युद्ध में मारे जाने वाले लोगों की संख्या से कतई कम नहीं है। बल्कि उससे कहीं ज्यादा है। लेकिन साम्राज्यवादी युद्ध अगर ऐटमी युद्ध में तब्दील हो जाता है तो इसमें कोई शक नहीं कि मानवजाति की ही नहीं, पूरी पृथ्वी का भी विनाश हो जाएगा।
लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है। वह यह कि बड़े पूंजीपतियों व साम्राज्यवादियों के इस मानवद्रोही दुष्चक्र की शिकार जनता भी इसके विरुद्ध संघर्ष के मैदान में आ रही है और पलटवार करने की कोशिश कर रही है। कोई भी देख सकता है कि मेहनतकश अवाम में विक्षोभ फैल रहा है जिससे ‘शांत’ समुद्र में लहरें उठने लगी हैं। हवा में विद्रोह की चिंगारियां भी तैरती नजर आ रही हैं और कई मौकों पर वो आग लगाने में भी सफल रही हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण बांग्लादेश है जहां हाल ही में छात्र-नौजवान और जनता की विद्रोहात्मक राजनीतिक कार्रवाई व परिघटना ने मजबूती से जमी शेख हसीना की तानाशाह सरकार को पल भर में उखाड़ फेंका और यह दिखा दिया कि विद्रेाही बन चुकी जनता में कितनी बड़ी परिवर्तनकामी शक्ति छुपी होती है जिसका दर्शन हमें अक्सर तब होता है जब वह फूट पड़ती है और एक खास दिशा अख्तियार कर लेती है।
लेकिन एक पूर्ण रूप से जनपक्षीय पलटवार की कामयाबी के लिए किसी जन विद्रोह का प्रचंड रूप धारण करना बहुधा आवश्यक होता है। एकमात्र तब ही साम्राज्यवादी युद्ध और फासीवाद जैसी दुर्दांत प्रतिक्रियावादी शक्ति का मुकाबला किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए मजदूर वर्ग का करवट बदलना भी आवश्यक है। देखा गया है कि इसके बिना समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन करने का उद्घोष तो संभव है, लेकिन वास्तव में इसे जमीन पर उतारना असंभव हो जाता है। यह यूंही नहीं है कि इस दौर में होने वाले बड़े से बड़े जन आंदोलन भी एक सीमा के आगे नहीं जा पा रहे हैं और कुछ भी निर्णायक परिणाम के बिना ही उनकी शक्ति क्षीण हो जा रही है। यानी, जब तक मजदूर वर्ग संघर्ष के मैदान में नहीं आएगा, तब तक निर्णायक जीत, जिससे नूतन का निर्माण हो सके, हासिल नहीं की जा सकती है।
वैसे तो इस असफलता के अनेकों कारण हैं, लेकिन एक बड़ी भूमिका एनजीओवादी समझ की है जिसकी पैठ संवेदनशील छात्र-युवा वर्ग से लेकर गरीब एवं मेहनतकश वर्ग तक काफी बढ़ी है। इसे बहुत पहले से आजमाया जा रहा है। जब मजदूर वर्ग का आंदोलन कमजोर अवस्था में रहता है और इस कारण मजदूर वर्गीय विचारधारा का भी समाज में असर कम रहता है, तो अक्सर एनजीओवादी विचारों व समझ का प्रभाव वर्तमान से असंतुष्ट संवेदनशील छात्र-नौजवानों से लेकर कंगाली व भुखमरी की दलदल में धंसे मजदूर वर्ग पर तथा यहां तक कि क्रांतिकारी कहे जाने वाले समूहों व संगठनों पर भी पड़ता है और वे भी दूरगामी लक्ष्यों को त्याग कर तात्कालिक और तुच्छ सुधारों व खैरातों के माध्यम से समाज को सुखमय बनाने की समझ की गिरफ्त में आने का ‘गुण’ प्रदर्शित करने लगते हैं।
जाहिर है, एनजीओवादी सोच और इसके प्रभाव को फैलाने में पूंजीपति वर्ग और उसकी एजेंसियों व राजकीय संस्थाओं का बड़ा हाथ होता है। वहीं पढ़े-लिखे छात्र-नौजवानों के बीच एनजीओ के माध्यम से गरीबों के जीवन में सुधार लाने एवं समाज को सुंदर बनाने की समझ की गहरी पैठ यह बताती है कि सामाजिक परिवर्तन की क्रांतिकारी समझ और उसका प्रभाव समाज में मौजूद नहीं है या कम है।
एनजीओवाद के प्रसार का मुख्य प्रभाव यह होता है कि यह बुनियादी और निर्णायक सामाजिक परिवर्तन की समझ को कुंद व धूमिल करता है और जनांदोलनों को क्रांतिकारी दिशा लेने से रोकता है। इस अर्थ में वह जनांदोलनों को पथ-भ्रष्ट भी करता है जो कि इसका मुख्य उद्देश्य है। ऐसा वह अक्सर ग्रासरूट स्तर पर ही करता है। ठीक उसी जगह पर जहां समाज के पतन से क्षुब्ध और पुरातन के ध्वंस पर नूतन के निर्माण का स्वप्न किसी समझदार नौजवान के मन मे पहली बार जन्म लेता है। ठीक उसी जगह पर एनजीओवादी समझ क्रांतिकारी समझ पर वार करने की कोशिश करती है और क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रथम पाठ पढ़ने की कोशिश करने वाले प्रतिभावान छात्र-नौजवानों के दिलोदिमाग में उसे उतरने से रोकने का प्रयास करती है। हमें पता है कि उदार पूंजीपति वर्ग से लेकर प्रतिक्रियावादी पूंजीपति वर्ग और उसकी राज्य मशीनरी इसमें उसकी भरपूर मदद करती है।
(क्रमशः)
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