मजदूर वर्ग और जाति विनाश

जाति विनाश और इसके लिए आंदोलन मजदूर वर्ग का एक अहम और अत्‍यंत जरूरी कार्यभार है। मजदूर वर्ग जब तक जाति में बंटा है या बंटा रहेगा और जातिगत भेदभाव में फंसा रहेगा, तब तक उसकी मुक्ति की बात आगे नहीं बढ़ेगी। जातिगत भेदभाव ही क्‍यों, मजदूर वर्ग को किसी भी तरह के शोषण या उत्‍पीड़न का समर्थन नहीं करना चाहिए और उसका हिस्‍सा नहीं बनना चाहिए। अगर वह ऐसा करता है तो वह अपने ही पैरों की बे‍ड़ि‍यों को मजबूत करता है। मजदूर वर्ग को इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिए कि जब तक देश या दुनिया के किसी भी हिस्‍से में एक भी तरह का शोषण या उत्‍पीड़न बना रहेगा, तब तक मजदूर वर्ग की भी शोषण से पूर्ण मुक्ति संभव नहीं होने वाली है। अगर दुनिया में स्त्रियों का शोषण-उत्‍पीड़न हो रहा है; धार्मिक और सांप्रदायिक उत्‍पीड़न मौजूद है; रंग, नस्‍ल और क्षेत्र के आधार पर शोषण या भेदभाव है; जातिगत भेदभाव है, तो इसका मतलब है कि स्‍वयं मजदूर वर्ग के शोषण व दमन का औजार और उसकी परिस्थिति मौजूद है। और सबसे बड़ी बात यह है कि अगर मजदूर वर्ग इसका विरोध नहीं करता है या किसी न किसी रूप में इसका समर्थन करता है, तो इसका मतलब यह है कि मजदूर वर्ग स्‍वयं अपनी ही गुलामी की जंजीरों को मजबूत कर रहा है।

भारत की जाति व्‍यवस्‍था की बात करें, तो यहां जाति सिर्फ कोई चिन्‍ह या पहचान नहीं है जिसके आधार पर किसी को जाना या पहचाना जाता है। नहीं, बात ऐसी नहीं है। इसमें ऊंच-नीच, छुआछुत तथा शुद्धता-अशुद्धता का अत्‍यंत अमानवीय भेदभाव मौजूद है। ऊपर से नीचे तक गैर-बराबरी और भेदभाव पर आधारित एक पदानुक्रम की एक बेहद घिनौनी व्‍यवस्‍था मौजूद है। अगर मजदूर वर्ग के लोग और शोषणविहीन समाज के निर्माण में लगे नेता व कार्यकर्ता अपने को इस तरह की व्‍यवस्‍था से जोड़कर देखते हैं, तो यह एक बेहद ही शर्म की बात है। कोई भी वर्ग चेतन मजदूर इसे स्‍वीकार नहीं करेगा। दरअसल बात सिर्फ स्‍वीकार या अस्‍वीकार की नहीं है, मजदूर वर्ग को इसके खिलाफ स्‍वयं अपने को तथा अपने वर्ग को शिक्षित और आंदोलित करना चाहिए।

शोषक-शासक वर्ग का कोई व्‍यक्ति जातिवादी हो सकता है, या कह सकते हैं कि जाति उसके लिए श्रेष्‍ठता का प्रतीक हो सकती है और जाति के भेद का बना रहना उसके वर्ग हित के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन मजदूर वर्ग और इसके उत्‍थान में लगा कोई व्‍यक्ति, जो इस दुनिया से शोषण को समूल रूप से नष्‍ट करना चाहता है, जातिवादी कैसे हो सकता है? मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन तो इतिहास में होने वाले सभी तरह के भेदभावों व शोषण के अवशेषों सहित आज के पूंजीवादी वर्गीय शोषण व भेदभाव को जड़मूल से उखाड़ फेंकना है। फिर कोई सचेतन मजदूर स्‍वयं कैसे जातिवादी भेदभाव कर या सह सकता है? मजदूर वर्ग की मुक्ति की लड़ाई पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सभी मेहनतकशों की साझी लड़ाई है। अगर कोई मजदूर अपने को जाति के पहचान से जोड़ता है, तो इसका मतलब यह है कि वह स्‍वयं भेदभाव करता है और सहता है, क्‍योंकि ऐसा किये बिना जाति के ढांचे को कोई दिल से स्‍वीकार कर ही नहीं सकता है। इसलिए ऐसा व्‍यक्ति पूंजीपति वर्ग के खिलाफ सभी मेहनतकशों की साझी लड़ाई को भी कमजोर करता है और अपने वर्ग से गद्दारी करता है। यह समझ में आता है कि किसी का जन्‍म मौजूदा समाज में होता है तो उसे किसी न किसी जाति में पैदा लेना पड़ता है। फिलहाल इस पर वश नहीं है। लेकिन यह हम सबके वश में है कि हम बाद में इससे बाहर आ जाए। पूंजीपति वर्ग के खिलाफ संघर्ष में मजदूर वर्ग इससे बाहर आना सीखता है। वह देख सकता है कि जातिवादी चेतना स्‍वयं उसकी अपनी शोषण से मुक्ति की लड़ाई के लिए हानिकारक है।

भारत में मजदूर वर्ग का बहुत बड़ा विशाल हिस्‍सा उन पिछड़ी और अनुसूचित जाति व जनजाति समुदायों के मजदूरों से बनता है जो स्‍वयं भी भिन्‍न-भिन्‍न जातियों में बंटे हैं। लेकिन पूंजीपति वर्ग उन सबका शोषण करता है। लेकिन जब तक वे जातियों में बंटे रहेंगे, पूंजी के विरुद्ध उनकी साझी लड़ाई नहीं हो सकती है और इसलिए शोषण से मुक्ति भी संभव नहीं होगी। साझी लड़ाई के लिए सभी जातियों के मजदूरों की एकता जरूरी है। लेकिन जब तक हम जातीय पहचान को अपना आधार बनाते हैं, तब तक एकता संभव नहीं हो सकती है। जाति एक अनन्‍य कैटेगरी है, और साथ में यह गैर-बराबरी पर आधारित पदानुक्रम भी है, जिसका अर्थ यह है कि एक जाति की दूसरी जाति से एकता हो ही नहीं सकती है। तब किस आधार पर सभी जातियों के मजदूरों के बीच एकता हो सकती है? वह कौन सी चीज है जो सभी जातियों के बीच एकता का आधार हो सकती है? क्‍या यह आधार इंसानियत हो सकती है? हां, हो सकती है। लेकिन एकता का यह आधार मजदूर वर्ग को पूंजीपति वर्ग के साथ एकता बनाने तक ले जाता है जो उसकी सभी तरह के शोषण व उत्‍पीड़न से मुक्ति के मिशन से मेल नहीं खाता है। तब वह कौन सी चीज है जो उनके बीच वास्‍तविक एकता का आधार है? वह आधार यह है कि सभी जातियों के मजदूर पूंजी के उजरती गुलाम हैं, यानी अपनी श्रमशक्ति पूंजीपतियों को बेचने के लिए मजबूर हैं। उनके श्रम को लूट कर ही वे अपनी तिजोरी भरते हैं। यही नहीं, मजदूरों के श्रम से ही यह चमकदार, आधुनिक और विकसित सभ्‍यता खड़ी हुई है। मजदूरों की यही पहचान मुख्‍य और वास्‍तविक पहचान है। इसी वर्गीय पहचान के आधार पर हम यह नारा लगाते हैं कि दुनिया के मजदूरों, एक हो। इसलिए मजदूरों की एकता की पहली शर्त ही यह है कि वर्ग के अतिरिक्‍त किसी और पहचान के आधार पर वह संगठित नहीं हो। मजदूर वर्ग जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ अवश्‍य लड़ेगा या उसे लड़ना चाहिए, बल्कि यह कहना चाहिए कि उसे लड़ना होगा, लेकिन वह यह लड़ाई मजदूर वर्ग के रूप में ही लड़ सकता है न कि किसी जातीय पहचान के आधार पर। एकमात्र तभी मजदूर वर्ग अपने ऐतिहासिक लक्ष्‍य, यानी शोषणविहीन समाज के निर्माण के लक्ष्‍य, के साथ न्‍याय कर सकेगा। यह मजदूर वर्ग को कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसकी लड़ाई हर जाति, हर धर्म और हर क्षेत्र के शोषक पूंजीपति से है। भारत में मजदूर वर्ग जातीय भेदभाव का शिकार है, लेकिन इस भेदभाव के खिलाफ उसे जाति के पहचान के आधार पर नहीं मजदूर वर्ग की पहचान के आधार पर लड़ना होगा। अगर वे जाति पहचान के आधार पर लड़ेंगे, तो वे न तो जाति के भेदभाव के खिलाफ लड़ सकेंगे और न ही अपने वर्गीय शोषण के खिलाफ। मजदूर वर्ग की यही खासियत है कि वह हर तरह के भेदभाव के खिलाफ वास्‍तव में इसलिए लड़ सकता है क्‍योंकि उसकी पहचान उस मजदूर वर्ग की है जिसे वर्तमान समाज को बदलना है।  उसका लक्ष्‍य अपनी मुक्ति के लिए और साथ में पूरी मानवजाति की मुक्ति के लिए लड़ना है, क्‍योंकि इसके बिना स्‍वयं उसकी मुक्ति नहीं होगी। आइए, हम एक बार फिर से और इसका पूरा मर्म समझते हुए यह नारा लगाएं – पूरी दुनिया के मेहनतकशों, एक हो।


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