संपादकीय | ‘सर्वहारा’ #57 (16 अगस्त 2024)
आर. जी. कर अस्पताल की 31 वर्षीय महिला डॉक्टर के जघन्य बलात्कार-हत्याकांड के दोषियों और 14 अगस्त की रात अस्पताल में तोड़फोड़ करने वालों को सख्त से सख्त सजा दो!
8 अगस्त की रात को आर.जी. कर अस्पताल की एक 31 वर्षीय महिला डॉक्टर की रात 2 बजे के बाद बलात्कार के बाद गला दबाकर हत्या कर दी गई। सबसे ज्यादा शर्मसार करने वाली बात यह है कि पीड़ित महिला डॉक्टर उस समय ड्यूटी समाप्त कर अस्पताल के तीसरे मंजिल पर स्थित सेमिनार हॉल में आराम करने पहुंची थी, जिसके बाद उसी अस्पताल में तैनात पुलिस विभाग के सिविक वोलंटियर ने इस दर्दनाक कांड को अंजाम दिया। आरोप लगा कि इसकी जांच की कार्रवाई में जानबूझ कर देरी की जा रही थी। इसलिए कोलकता उच्च न्यायालय ने इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी।

अस्पताल के डॉक्टर न्याय मांगने के लिए अस्पताल परिसर में लगातार धरना दे रहे थे जिसके समर्थन में पूरे देश के डॉक्टर उठ खड़े हुए। इससे यह मामला तूल पकड़ता चला गया। दूसरी तरफ, कोलकाता ही नहीं पूरे बंगाल का नागरिक समाज, खासकर महिलाएं इतनी आहत थीं कि उनका गुस्सा 14 अगस्त की आधी रात को फूट पड़ा। ‘रिक्लेम द नाइट’ (रात पर हमारा भी हक है) के नारे के साथ हजारों की संख्या में महिलाएं कोलकाता की सड़कों पर उतर गयीं। अच्छी और सुखद बात यह रही कि उनका साथ देने हर उम्र के पुरूष भी निकल पड़े।
ऐसी भयावह घटनाएं जब भी होती हैं, तो समाज में महिलाओं व लड़कियों को लेकर भय का संचार होने लगता है। उन पर रात को काम से भी बाहर नहीं निकलने का दबाव बन जाता है। उनसे रात का समय छीन जाता है। मां-बाप से लेकर पूरा समाज ही दरिंदों से लड़ने के बजाय लड़कियों पर ही पाबंदियां लगाने लगता है। लेकिन 21वीं सदी में क्या समाज अब फिर से वापस मध्य युग में जा सकता है? क्या लड़कियों को फिर से घरों की चहारदिवारी में कैद किया जा सकता है? नहीं, यह बिल्कुल ही संभव नहीं है। वे ऐसी नापाक कोशिशों और आपराधिक साजिशों के खिलाफ लड़ेंगी। इन साजिशों व अपराधों का शिकार होते हुए भी, लड़ते व मरते हुए इस दुनिया को बदलेंगी भी। वे अंतत: इस पितृसत्तात्मक समाज को उखाड़ फेंकने के लिए कमर भी कसेंगी। जो भी सहना पड़े, लेकिन वे अब अपने कदम वापिस नहीं खींच सकती हैं। यह संभव नहीं है। इतिहास को पीछे ले जाने वाली शक्तियों की जो भी मंशा हो, लेकिन इतिहास का पहिया पीछे नहीं मुड़ने वाला है। उल्टे, पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों को शरण देने वाले पूंजीवादी-फासीवादी राज्य व इसके नेतृत्व में चलने वाले पैशाचिक समाज का अंत होगा। उनकी लड़ाई में वे बहुतायत पुरूष भी साथ होंगे जो इस पितृसत्तात्मक एवं महिला विरोधी प्रवृत्तियों के धुर खिलाफ हैं। 14 अगस्त की आधी रात को कोलकता की सड़कों पर ‘रिक्लेम द नाइट’ के नारे के साथ निकलने का जो साहस महिलाओं व लड़कियों ने दिखाया है, वह बताता है कि वे सारे लोग जो महिलाओं की आजादी व स्वतंत्रता के खिलाफ हैं और इन्हें दबाकर रखना चाहते हैं उनकी हार अंततोगत्वा निश्चित है।
अंत में यह कहना जरूरी है कि महिलाओं पर होने वाले जुल्म को रोकने में विफल रहने के मामले में घोर महिला विरोधी भाजपा एवं एनडीए की अन्य पार्टियों से लेकर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस तथा महागठबंधन की अन्य पार्टियों तथा उनकी सरकारों में बहुत ज्यादा का अंतर नहीं है। हम पाते हैं कि इन पार्टियों के महिला नेत्री भी ऐसे मसलों में अपना वाजिब पक्ष रखने से पहले पार्टी के हित तथा सरकार की किरकिरी को ध्यान में रखती हैं। जब 14 अगस्त की रात में महिलाओं ने कोलकता की सड़कों पर अपना परचम लहराया तो ममता बनर्जी के लिए यह चिंता का विषय इसलिए बन गया, क्योंकि उन्हें इसमें अपनी सरकार की किरकिरी होती दिखी। जब उसी रात को आर.जी. कर अस्पताल में विरोध कर रहे डॉक्टरों को विरोध करने से रोकने की मंशा से अचानक गुंडे-मवालियों को हमला हुआ और ऑपरेशन थियेटर तक को तोड़ डाला गया, तो हम देखते हैं कि उनकी पुलिस कुछ भी नहीं कर सकी। स्वयं ममता बनर्जी का बयान काफी देर बाद आया। उस बयान में भी उन्होंने बंगाल में महिलाओं पर होने वाले जघन्य अपराधों को रोकने में अपनी विफलता पर एक शब्द नहीं कहा। उल्टे, अस्पताल में हुई तोड़फोड़ व हिंसा सहित ‘रिक्लेम द नाइट’ आंदोलन के लिए भी विपक्षी दलों पर दोष मढ़ दिया और यहां तक कह दिया कि जो बांग्लादेश में हुआ उसे बंगाल में दुहराने की कोशिश की जा रही है। कितनी हास्यास्पद बात है कि वे अपनी सरकार व पुलिस की विफलता पर कुछ भी नहीं बोलीं, लेकिन उन्होंने अपने मन के अंदर के भय को व्यक्त कर दिया कि बांग्लादेश में जो छात्र आंदोलन हुआ वह दुहराया जा सकता है! ठीक ही बात है। जनांदोलन कहीं भी हो और उसका जो भी परिणाम निकले, उसका डर हर शासक वर्ग और उसके हिमायती दलों को होता ही है। चाहे वह शासन में हो या शासन से बाहर, इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता है। शायद इसलिए ही कांग्रेस के तरफ से भी कड़े शब्दों में और इस तरह का कोई बयान इसके खिलाफ नहीं आया जिससे यह अहसास हो कि इसमें ममता सरकार की भी कुछ न कुछ विफलता है। क्या इन पार्टियों के सहारे फासीवाद के खतरे को दूर हटाने की लड़ाई लड़ी जा सकती है?