बांग्लादेश में भीषण बेरोजगारी झेल रहे युवाओं का फूटा गुस्सा

✒️ आकांक्षा | ‘सर्वहारा’ #56 (1 अगस्त 2024)

आंदोलन की फौरी वजह बना मुक्ति संग्राम सेनानियों का आरक्षण; अंतर्य में है विकराल होती बेरोजगारी

बांग्लादेश में पिछले कई हफ्तों से छात्रों-युवाओं द्वारा सरकार के खिलाफ आर-पार की लड़ाई छेड़ी जा चुकी है। इस संघर्ष का फौरी कारण बना बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के सेनानियों को दिया जाने वाला 30% आरक्षण। इस आरक्षण के खिलाफ पहले भी प्रदर्शन हुए थे और 2018 में भारी विरोध के बाद इसे खारिज करना पड़ा था। लेकिन इस साल जून में बांग्लादेश उच्च न्यायालय ने इसे दुबारा बहाल कर दिया और शेख हसीना सरकार ने इसका समर्थन करते हुए इस निर्णय का विरोध करने वालों को गद्दार (रज़ाकार) घोषित कर दिया जिसके बाद आंदोलन और तेज हो गया। ज्ञात हो कि 1971 के मुक्ति संग्राम में सक्रीय संगठन आज बांग्लादेश की सरकार चला रहे हैं। जहां शुरुआत में इस आरक्षण का औचित्य था, वहीं आज पीढ़ियों से आरक्षण का लाभ उठा रहे सुविधा-संपन्न मंत्री और अफसर सरकारी नौकरियों को अपने परिवारों के लिए सुरक्षित रखने में इस आरक्षण का इस्तेमाल कर रहे हैं। जाहिर है इसमें बड़े पैमाने पर दलाली व धांधली का साम्राज्य व्याप्त है। इसका नतीजा है कि पहले से ही बेरोजगारी से त्रस्त बांग्लादेश के अधिकतर युवाओं के लिए स्थायी सरकारी रोजगार पहुंच से बाहर हो गया है। छात्रों-युवाओं का गुस्सा ठीक इसी बात पर फूटा और उनकी प्रमुख मांग बनी इस आरक्षण का हटाया जाना। लेकिन यहां गौर करने वाली बात यह है कि आंदोलनकारी छात्र अन्य आरक्षण को हटाने की मांग नहीं कर रहे हैं जिसमें महिलाओं, अल्पसंख्यकों, विकलांगों, आदि के लिए आरक्षण शामिल है। बल्कि वे केवल इस 30% फ्रीडम फाइटर कोटा के खिलाफ हैं जो आज के मंत्रियों और अफसरों के संपन्न परिवारों मिल रहा है। 

अभी तक इस आंदोलन में लगभग 200 युवा शहीद हो चुके हैं और हजारों घायल हैं या गिरफ्तार किये जा चुके हैं। ज्ञात हो कि विगत 21 जुलाई को बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट ने आंदोलन के दबाव में छात्रों-युवाओं की इस मांग को मान लिया है और इस आरक्षण को खारिज करने का आदेश सुना दिया है। यह इस आंदोलन की एक बड़ी जीत है। लेकिन यह आंदोलन रुका नहीं है, बल्कि अभी भी जारी है। आंदोलनकारी छात्र सरकार से निहत्थे-निर्दोष सैकड़ों प्रदर्शनकारियों की मौत और पुलिस की बर्बर प्रताड़ना का जवाब मांग रहे हैं और अपने साथियों की रिहाई की मांग कर रहे हैं।

भारत का बिका हुआ मीडिया या तो इस आंदोलन को दिखा नहीं रहा है या फिर इसे आरक्षण-विरोधी या मुस्लिम-विरोधी धार्मिक रंग देने में लगा हुआ है, लेकिन सच इसके ठीक उलट है। असल में यह आंदोलन मुख्य रूप से बांग्लादेश में बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, कंगाली और जीवन-जीविका की समस्याओं के ज्वालामुखी का फूट पड़ना है। ‘बांग्लादेश सैंपल वाइटल स्टैटिस्टिक्स 2022’ के हिसाब से 15-24 वर्ष के 40.67% युवा ना तो स्कूल में हैं, ना किसी ट्रेनिंग में दाखिल हैं और ना ही उसके पास कोई नौकरी है। आज पूरी दुनिया में लगभग यही स्थिति व्याप्त है। आर्थिक संकट की मार झेल रही जनता अपनी मूलभूत जरूरतें पूरा करने में असमर्थ है। भारत में भी बेरोजगारी व जीवन-जीविका की समस्या इसी तरह का विकराल रूप ले चुकी है और इसका प्रस्फुटन छोटे-छोटे आंदोलनों के रूप में दिखाई देता रहता है, चाहे वो पेपर लीक के खिलाफ हो, रिक्त पदों पर भर्तियां ना निकलने के खिलाफ, या फिर सरकारी नौकरियों को प्राइवेट किये जाने के खिलाफ हो। लेकिन ये बात सच है कि भारत में हाल के ये सारे आंदोलन काफी सीमित मांगों और लक्ष्यों के साथ शुरू हुए और वैसे ही खत्म भी हो गए। लेकिन इससे हम सतह के नीचे पल रहे गुस्से का अंदाजा लगा सकते हैं, जिसका आज नहीं तो कल फूट कर बाहर आना तय है। पूरी दुनिया की स्थिति को देखें तो हमें भविष्य की एक झलक मिलती है। हम केन्या में महंगाई और मूलभूत चीजों की बढ़ती कीमतों के खिलाफ आज भी जारी आंदोलन की बात करें, दक्षिण कोरिया की सैमसंग कंपनी में बेहतर वेतन के लिए चल रहे हड़ताल को लें, श्रीलंका में 2022 में हुए जनविद्रोह पर जाएं, या बांग्लादेश के मौजूदा आंदोलन को देखें – सभी का संदेश एक ही है – मेहनतकश जनता बेरोजगारी, महंगाई, भुखमरी और तमाम तरह के जुल्म के खिलाफ उठ खड़ी होती आई है और आगे भी उठ खड़ी होगी। आज वक्त है भविष्य की इन ताकतों को संजोने का और उस क्षण के लिए खुद को तैयार करने का ताकि हम सीमित मांगों और अलग-थलग हो रहे प्रदर्शनों की सीमा को तोड़ कर बेरोजगारी, महंगाई और शोषण की जड़ पर निर्णायक एकजुट प्रहार कर सकें और इनका स्थाई हल निकाल सकें।


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