“हमारा जीवन कैसे चलेगा यह भी मालिक तय करते हैं”

पटना के एक निर्माण मजदूर से साक्षात्कार पर आधारित

✒️ ‘सर्वहारा’ #55 (16 जुलाई 2024)

मेरा नाम किशोरी महतो है और मैं बख्तियारपुर का रहने वाला हूं। मैं राजमिस्त्री का काम करता हूं। मेरे घर में मेरी पत्नी, बूढ़ी मां और दो छोटे बच्चे हैं। घर में कमाने वाला मैं अकेला व्यक्ति हूं। पिछले महीने की बात है, मैं रोज की तरह गांव से निकला और ट्रेन पकड़ कर पटना आया। ट्रेन पकड़ने घर से काफी दूर जाना पड़ता है। लॉकडाउन के पहले तक गांव के पास वाले हाल्ट में पैसेंजर [ट्रेन] रुका करती थी जिससे पटना आने-जाने में काफी सुविधा थी। लेकिन कोरोना के बाद से ही पैसेंजर यहां रुकना बंद हो गयी। किसी ने ना कारण बताया, ना कोई दूसरी व्यवस्था ही हुई। हम कुछ लोग मिल कर मुखिया के पास भी गए, उसने वादा किया कि वो आगे अधिकारियों से बात करेगा। इस बात को तीन साल बीत गए। अभी तक कुछ नहीं हुआ। इसके कारण असुविधा तो बढ़ी, लेकिन फिर भी जो कष्ट हो, कमाने के लिए घर से तो निकलना ही पड़ेगा।

उस दिन नया काम लगा था। एक मकान के तीसरे तल्ले में काम था। हम कुल 2 मिस्त्री और 2 हेल्पर थे। कड़ी धूप थी और भयानक लू चल रही थी। एक हेल्पर मजदूर, जिसकी उम्र 55-60 के आस पास रही होगी, को काम करते हुए चक्कर आ गया। उसकी तबियत भी ठीक नहीं थी। हमने तुरंत काम रोक कर उसे लेटाया, पानी पिलाया। जब वह कुछ होश में आया तो हमने उससे पूछा कि जब तबियत ठीक नहीं थी तो काम पर क्यों आये? इतनी गर्मी, ऊपर से इतना मुश्किल काम। उम्र के हिसाब से शरीर भी काफी कमजोर लग रहा था। उसने थोड़ा दम ले कर बोला कि कल दोपहर से उसने कुछ खाया नहीं था। कुछ दिन पहले काम करने पटना आया था। एक बेटा है 16 साल का जो गुजरात में फैक्ट्री में काम करता था। कुछ दिन पहले उसे काम से निकाल दिया गया। वजह पूछी तो बताया कि “फैक्ट्री में एक मजदूर का हाथ पावर प्रेस में दब गया और मालिक ने उस मजदूर को बिना किसी इलाज या मुआवजे के कुछ रुपये दे कर घर भेजना चाहा। वह मजदूर झारखण्ड का था और बेटे का दोस्त था। उम्र उसकी भी 15-16 के आस पास होगी। मालिक के रवैये से मजदूरों ने गुस्से में आ कर काम बंद कर दिया। उनमें सबसे आगे मेरा बेटा था। मालिक ने उसे टारगेट कर लिया और अगले दिन उसे फैक्ट्री में घुसने ही नहीं दिया। पिछले दिनों के काम के पैसे भी नहीं दिए। नौकरी चली गयी है और पास पैसे भी नहीं है, ये सुनते ही उसके मकान-मालिक ने उससे कहा कि या तो तुरंत किराया दे, नहीं तो घर खाली कर दे। बेटा तब से फूटपाथ पर किसी तरह गुजर-बसर कर रहा है। कुछ पैसे भेजता था, अब वो भी बंद हो गए। उसकी मां का टीबी का इलाज चल रहा है। पैसे नहीं होंगे तो दवा कहां से लायेंगे? डॉक्टर ने कहा है कि इस बार दवा बंद हुई तो बचाना मुश्किल हो जाएग। ऐसे में काम ना करता तो क्या करता?” ये बोल कर वो बूढ़ा मजदूर फफक कर रो पड़ा। हम उसे देखते रहे। कुछ ना बोल पाए। हम सब भी मजदूर थे। नया काम मिला था, जेब में पैसे भी नहीं थे कि उसकी कुछ मदद कर पाते। मेरी आंखों में भी आंसू आ गए। मुझे नहीं समझ आ रहा था कि मुझे उसकी हालत पर तरस आ रहा है या अपने हालात पर गुस्सा। रोज इतनी मेहनत करने के बाद भी मेरी कमाई इतनी कम है कि जरूरत पड़ने पर एक आदमी की थोड़ी मदद तक नहीं कर सकता!

मैं और बाकि मजदूर उसे आराम करता छोड़ कर काम पर लगे। ठेकेदार ये सब देख रहा था लेकिन कुछ बोला नहीं। हम तीनों ने बड़ी मेहनत करके उस बूढ़े मजदूर के हिस्से का काम भी समय पर पूरा कर दिया। जब शाम हुई और हम चारों ठेकेदार के पास पैसे लेने पहुंचे तो ठेकेदार ने केवल हम तीनों की तय दिहाड़ी दी। हम तुरंत ही समझ गए कि मामला क्या है। हमने ठेकेदार को पकड़ा और बोला “ये क्या बात है! तुम्हें काम से मतलब है और काम पूरा हुआ है। तुम्हें पूरे पैसे देने होंगे!” ठेकेदार के कुछ चेलों ने हमें मारना शुरू कर दिया। झगड़े की आवाज सुन कर बाकी लोग भी जमा हो गए। हमने सबको पूरा मामला बताया। उन लोगों के दबाव बनाने पर ठेकेदार को पैसे देने पड़े। लेकिन पैसे देने के साथ उसने यह भी कह दिया कि “कल से काम कहीं और खोज लेना। यहां आने की जरूरत नहीं है।” मैंने उसी समय उस बूढ़े मजदूर का चेहरा देखा। उसने बताया था कि बड़े दिन बाद ये काम मिला था। इस उम्र में काम मिलना कम हो जाता है। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। मैंने इन्तजार किया कि वो ठेकेदार से विनती करेगा कि कल भी उसे काम पर आने दे। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। उसने ठेकेदार से पैसे लिए और आगे बढ़ गया। मुझे नहीं पता कि उस बूढ़े मजदूर को अगले दिन काम मिला या नहीं। मुझे यह भी नहीं पता कि उसकी पत्नी को समय पर दवा मिली या नहीं, ना ही मैं ये जान पाया कि उसने कुछ खाया या नहीं, या उसके बेटे को कोई दूसरा काम मिला या नहीं। लेकिन मैं इतना जरूर जान गया कि इतना भोगने के लिए उस मजदूर ने कुछ गलती नहीं की थी। जीवन भर ईमानदारी से मेहनत करने वाले मजदूरों को ये सब क्यों भोगना पड़ता है? ना हमारे जीवन का ठिकाना है, ना हमारे बच्चों के जीवन का। नजर घूमा कर जितनी दूर तक देखो, ये सारे मकान-दुकान मजदूर ही बनाते हैं। लेकिन बदले में उन्हें जीवन जीने, जिंदा रहने की गारंटी भी नसीब नहीं होती है। इतनी मेहनत करके भी उनके पास कुछ नहीं है। मैं सोचता हूं, ये अमीर लोग ऐसा क्या करते हैं कि इनके पास इतना पैसा जमा हो जाता है कि उनकी आने वाली कई पुश्तों का जीवन आराम से कट जाये? वहीं दूसरी तरफ जीवन भर एड़ी-चोटी एक करके काम करने वाले मजदूर के पास कल की रोटी की भी गारंटी नहीं होती? ऐसा कैसे है कि हम मजदूरों का जीवन कैसे चलेगा, यह भी मालिक एक ‘हां’ या ‘ना’ में तय कर देते हैं? क्या यह हमेशा से था? क्या ये कभी बदलेगा?


Leave a comment