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फासीवादी और प्रतिगामी ताकतों को परास्त करो, भाजपा और उसके सहयोगियों को शिकस्त दो !
वास्तविक जन विकल्प के लिए एकजुट हों, संगठित हों और संघर्ष करें !
जनता के जनवाद और समाजवाद के लिए एकजुट हों !
भूमिका
1. कामरेड्स, बिहार विधानसभा चुनाव शुरू होने में अब बस कुछ ही दिन बचे हैं । जैसा कि अपेक्षित था, जमीनी हालात मजदूरों, किसानों, मेहनतकश जनता एवं अन्य सभी शोषित-पीड़ित वर्गों के सामने बहुत ही गंभीर प्रश्न खड़े कर रहे हैं और साथ ही चुनौती भी पेश कर रहे हैं । इस स्थिति में, क्रांतिकारी वामपंथी शक्तियों द्वारा जनता से क्या ठोस आह्वान किया जाना चाहिए ? देश में फासीवाद के आगे बढ़ते कदम को ध्यान में रखते हुए क्रांतिकारी वामपंथ को किसका समर्थन करना चाहिए ? हमारे सामने सवाल यह भी है कि संघर्ष के एक रूप के बतौर, पूंजीवादी चुनाव फासीवादियों को हराने में किस हद तक प्रभावी हैं, और मैदान में कौन सा गठबंधन है जो उनसे लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है ? इस प्रकार के अत्यन्त गंभीर और ठोस सवालों से उन सबको जुझना पड़ रहा है जो पूरे देश में लगातार तेज होते फासीवादी हमलों से चिन्तित हैं ।
2. यह सच है कि बिहार में फासीवादी ताकतें अभी भी इतनी मजबूत नहीं हैं कि वे अकेले राज कर सकें । राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में भी आपस में मजबूत एकता नहीं है । लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने जानबूझकर खुद को बिहार में राजग के बाहर रहने और नीतीश कुमार के नेतृत्व को निशाना बनाने का रास्ता चुना है । इसकी वजह से और कई अन्य कारणों से जदयू और भाजपा के बीच रिश्तों में खींचाव आ गया है । सत्ता में अधिक से अधिक हिस्सेदारी के लिए तो संघर्ष हमेशा से रहा है । तथापि, चिराग पासवान के लोजपा को जानबूझकर पर्दे के पीछे से समर्थन देने की कार्यनीति अपनाकर और अन्य तरीकों से सत्ता हथियाने का प्रयास कर भाजपा एक बहुत ही घिनौना खेल खेल रही है, जिससे चुनाव के बाद खतरनाक साजिश की बू आ रही है । बहरहाल, ऐसा करना फासीवादियों के लिए नई चीज नहीं है । इसलिए, यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है कि इस बार के बिहार चुनाव में क्या नतीजा सामने आता है । अतः, हमें बिहार चुनाव में बन रहे व्यापक तस्वीर के मद्देनजर अपने कार्यभार पर चर्चा करने की आवश्यकता है । बिहार फासीवादियों का अगला शिकारगाह बनने की ओर भी अग्रसर है, जिसे पूरे भारत में विद्यमान और उभर रहे राजनीतिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है ।
राजनीतिक परिदृश्य
3. इस चुनाव में, दो मुख्य खेमे सामने आए हैं । पहला, तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला महागठबंधन जिसमें राजद, कांग्रेस, भाकपा, माकपा, भाकपा(माले) लिबरेशन और कुछ अन्य दल शामिल है और दूसरा, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला भाजपा और जदयू का राजग गठबंधन, जिसमें जीतन राम मांझी की एचएएम और मुकेश सहानी की वीआईपी जैसे कुछ छोटे दल भी शामिल हैं । दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के नए और युवा नेतृत्व में लोजपा ने बिहार राजग में नीतीश कुमार को नेता स्वीकार करने से इंकार कर दिया है और जैसा कि ऊपर कहा गया है, बाहर रहने का रास्ता चुना है । हालांकि, यह सबको पता है कि चिराग पासवान की लोजपा, जिसने उन सभी सीटों पर लड़ने का ऐलान किया है जहां जदयू अपना उम्मीदवार उतारेगी, उसके साथ भाजपा का भीतरखाने चुनावी गठबंधन है । केवल यही नहीं, लोजपा उन लोगों को टिकट दे रही है जो खुले तौर पर संघी और भाजपा के पूर्व पदाधिकारी हैं । इसलिए, अब तक, चिराग पासवान की लोजपा बिहार में भाजपा का ही विस्तार है । इस चुनाव में लोजपा का सबसे व्यापक रूप से प्रचारित, प्रचारित और आकर्षक नारा है — ‘‘मोदी तुझसे बैर नहीं, नीतिश तेरी खैर नहीं’’ । यह इस बात का संकेत है कि उन्हें इस चुनाव में कुछ विशेष भूमिका सौंपी गई है, यानी भाजपा के अन्दरूनी समर्थन से नीतीश की नाव को बाहर तोड़ने की भूमिका ।
4. बिहार के उपमुख्यमंत्री (भाजपा नेता सुशील मोदी) का बयान है कि ‘‘चुनाव परिणाम चाहे जो भी हो, सरकार तो केवल वे ही बनाएंगे’’ । यह बात ऐसे समय में कही गई है जब आए दिन इस तरह के आंतरिक हमले और जवाबी हमले किए जा रहे हैं । यह न तो जबान का फिसलना है और न ही मात्र संयोग । राज्यों में, चाहे जिस प्रकार हो, भाजपा की अपनी सरकारें बनाने के लिए मोदी सरकार द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तमाम गंदे तरीकों को देखते हुए, जिसमें राज्य मशीनरी के साथ-साथ धनबल का उपयोग भी शामिल है, इस बयान से संकेत मिलता है कि घोर घृणित कार्य की सोचो तो घृणित कार्य हो ही जाता है । इसका मकसद प्रशासन को आज्ञाकारी बनाना है जो अभी भी नीतीश कुमार से आदेश लेता है । साथ ही, इसका उद्देश्य चुनाव के बाद की ‘‘अनदेखी’’ चुनौतियों से निपटने के लिए अपने कार्यकर्ताओं के मनोबल को बनाए रखना भी है । इसमें उन सभी ताकतों के लिए, चाहे वे प्रशासन में हो या उसके बाहर, परोक्ष रूप से एक धमकी भी शामिल है कि वे भाजपा के सत्ता में आने के प्रयासों का समर्थन करे, खासकर जब ऐसी विकट स्थिति पैदा हो जाए जिसमें भाजपा के साथ कुछ अनहोनी होने की सम्भावना हो, यानी ऐसी स्थिति जहां भाजपा सम्भवतः सत्ता खोने वाली हो । हम जानते हैं, जैसा कि आमतौर पर फासीवादियों का चरित्र होता है, वे ऐसी स्थिति को आसानी से पचा नहीं पाएंगे । जाहिर है कि इस बार बिहार में भाजपा के चुनावी भाग्य पर संकट के बादल छाते हैं तो एक अत्यन्त गंभीर स्थिति पैदा हो सकती है ।
5. इसलिए, जहां तक राजद की अगुवाई में “वाम मोर्चे की पार्टियों” के साथ महागठबंधन का संबंध है, यह कथित रूप से चुनाव में, या चुनाव के बाद की स्थिति में फासीवादियों का मुकाबला करने के लिए बनाया गया है । लेकिन, ’वामपंथियों’ ने जिस तरह से राजद के हाथ में पूरी बागडोर सौंप दी है और नेतृत्वकारी स्थिति और ’वाम’ राजनीति की स्वतंत्र दावेदारी को त्याग दिया है, वह केवल फासीवादियों से लड़ने के उद्देश्य की पूर्ण पराजय को दर्शाता है । उन्होंने सरासर अवसरवाद का प्रदर्शन किया है । इसके अलावा, अन्य कारण भी हैं जो हमें यह निष्कर्ष निकालने के लिए मजबूर करते हैं कि एक ठोस और मजबूत स्वतंत्र वामपंथी खेमा पीछे न हो तो बुर्जुआ पार्टी के नेतृत्व में इस तरह का गठबंधन, भले ही उसकी बहुमत से जीत हो जाए, फलदायी साबित नहीं होगा । उदाहरण के लिए, भले ही यह गठबंधन सीटों की संख्या के लिहाज से राजग पर एक आरामदायक जीत हासिल कर ले, मगर इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह फासीवाद-विरोधी संघर्ष को किसी भी सार्थक निष्कर्ष पर ले जाने में सक्षम नहीं होगा ।
6. अतः, क्रांतिकारी वाम समन्वय (आरएलसी) का स्पष्ट मत है कि महज सरकारों की अदला-बदली से फासीवादी लूट और लोकतंत्र की हत्या नहीं रुकेगी । यहां तक कि बिहार में जन आन्दोलनों और लोकतांत्रिक आवाजों पर हमलों के रुकने की सम्भावना भी नहीं है । परिणामस्वरूप, कुछ दिनों बाद ही जनता को निराशा घेर लेगी । किसी वास्तविक जन विकल्प के अभाव में, फासीवादी शक्तियों के फिर से उभरने का आधार बरकरार रहेगा । शासक वर्ग और उनके अनुचर (रंग और रंग के पूंजीवादी दल) फासीवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई के लिए जनता का किसी भी तरह नेतृत्व नहीं कर सकते हैं । पूंजीवादी पार्टियों का आलाकमान पर निर्भर ढांचा, जिसे कपटपूर्ण वायदों पर निर्मित किया गया है और जिनकी मुनाफे का पहिया थम जाने के खतरे से जुझ रहे मौजूदा संकटग्रस्त नव-उदारवादी कारपोरेट पूँजीपति वर्ग के मूल हितों के साथ घनिष्ठता है, ऐसी कोई उम्मीद नहीं जगाता है । इस प्रकार, दोनों ही खेमों में अवसरवाद व्यापक और खुले तौर पर दिखाई दे रहा है ।
7. दूसरी ओर, सार्विक रूप से ‘वामपंथी ताकतें’ भी कोई उम्मीद पैदा नहीं करती हैं, यहां तक कि उम्मीद की कोई किरण भी नहीं । जरा भी यह प्रतीत नहीं होता है कि ‘वामपंथी ताकतें’ क्रांतिकारी संघर्ष के लिए खाली जगह को भरने के लिए संघर्ष कर रही हैं । संसदीय वाम ने, भाकपा, माकपा और भाकपा(माले) लिबरेशन ने राजद के नेतृत्व वाले शासक वर्ग की पार्टियों के गठबंधन के साथ हाथ मिलाया है । ऐसे में, कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ताकतों को क्रांतिकारी विकल्प पेश करने का काम करना चाहिए था । लेकिन हम इस संबंध में कई संगठनों की ओर से कोई उत्सुकता नहीं देखते हैं । वे जनता के तात्कालिक मुद्दों पर कई बार एकजुट संघर्ष करते हैं, यह एक सच्चाई है । लेकिन जैसे ही राजनीतिक रूप से, जैसे कि वर्तमान चुनाव में, हस्तक्षेप करने का सवाल उठता है, वैसे ही यह एकता बिखर जाती है, वह भी एक ऐसे समय में भी जब हम फासीवाद के खतरे का सामना कर रहे हैं, जबकि इस समय जनता के सामने तात्कालीक और दीर्घकालीक क्रान्तिकारी कार्यक्रम पेश करने के लिए, जिसके बिना फासीवाद के खिलाफ संघर्ष आगे नहीं बढ़ सकता है, एकताबद्ध क्रांतिकारी आवाज उठाना पहले से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है । जन समुदायों के फौरी मुद्दों पर लड़ाई के साथ-साथ क्रांतिकारी विकल्प की राजनीति के निरंतर प्रचार-प्रसार किए बिना, व्यापक जनता को फासीवाद के खिलाफ गोलबन्द नहीं किया सकता है । जब तक शोषण और उत्पीड़न के जुए से सच्ची आजादी पाने के लिए जनता को लड़ने के लिए गोलबन्द नहीं किया जाता है, तब तक फासीवाद के खिलाफ कोई गंभीर लड़ाई नहीं हो सकती है । इस तरह की विफलता के लिए आन्दोलन को भारी कीमत चुकानी होगी । निश्चित ही संगठनात्मक कमजोरी एक मुद्दा है, लेकिन यहां प्राथमिक कारण है थकान की भावना, इच्छाशक्ति कर पूर्ण अभाव, जिसने अनेकों को प्रभावित किया है, और दक्षिणपंथी विचलन, जो कम्युनिस्ट आन्दोलन में मुख्य खतरा है, के बढ़ते प्रभाव के कारण पराजयवादी सोच घर करते जाना ।
8. जब जनता की क्रान्तिकारी क्षमता को जगाने के लिए यह चैतरफा संघर्ष का समय है, तो तथाकथित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ताकतों के बीच बिखराव कितना गंभीर है, इसे तब देखा जा सकता है जब फासीवादी हमलों को कमजोर करने के लिए भाजपा के नेतृत्व वाली ताकतों को हराने के महत्वपूर्ण विषय पर विचार किए बिना, इनमें से कुछ संगठन लक्ष्यहीन तरीके से आत्म-संतुष्टि के लिए उम्मीदवारों को खड़ा कर रहे हैं और ऐसी सीटें भी हैं जहाँ इनमें से दो या तीन संगठनों के उम्मीदवार आपस में लड़ रहे हैं ! ऐसे समय में जब फासीवाद अपना वर्चस्व तेजी से फैला रहा है, यह हमें कहां ले जाएगा ?
9. हमने नीतिश कुमार के नेतृत्व वाले जदयू और भाजपा की गठबंधन सरकार के तहत बिहार की आम जनता की बर्बादी को देखा है । इसे ‘‘डबल इंजन की सरकार’’ कहा जाता है । हालांकि वास्तव में, यह एक ‘‘डबल जन-विरोधी’’ सरकार है । हत्या, बलात्कार, पुलिस की क्रूरता और भ्रष्टाचार सर्वव्याप्त है । बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी से संबंधित मौतें लगातार बढ़ रही हैं । स्वयं सरकारी के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019 में 1450 बलात्कारों की रिपोर्ट दर्ज की गई थी, जिसमें हर छह घण्टे में एक बलात्कार होता था । नीतीश कुमार की सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सुरक्षा, भ्रष्टाचार नियंत्रण और कोरोना महामारी से बचाव जैसे मुद्दों से निपटने में खुद को बुरी तरह विफल साबित किया है । यहां तक कि राशन कार्ड जैसी कुछ बुनियादी चीजें भी सबको उपलब्ध नहीं है । आवंटित अनाज ज्यादातर सड़े हुए हैं और खाने योग्य नहीं हैं । सरकारी आंकड़ों से पता चला कि जून 2019 में समाप्त होने वाले वर्ष के दौरान बिहार में बेरोजगारी 3 से 10.2 प्रतिशत तब बढ़ी है । इसके अलावा, कोरोना से संक्रमित रोगियों और उनके परिजनों की पीड़ा की कोई सीमा नहीं है। यहां तक कि सरकारी अस्पतालों की जर्जर हालत और स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हो रहे निजी अस्पतालों में बेलगाम लूट को देखकर मध्यम वर्ग भी भयभीत है । अगस्त 2020 तक, पूरे राज्य में केवल चार अस्पताल कोरोना के इलाज के लिए समर्पित थे । भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए, बिहार चैप्टर) ने कोविड-19 के कारण डॉक्टरों की मौतों का आंकड़ा साझा किया, जो बताता है कि मृत्यु दर के प्रतिशत के मामले में बिहार सभी राज्यों में अव्वल है । उत्तरी बिहार में लगभग हर साल बाढ़ का कहर होता है और राज्य सरकार द्वारा कोई वास्तविक उपाय नहीं किए जाते हैं । इस साल, महामारी के प्रकोप के दौरान, बिहार में बाढ़ से 7.6 लाख लोग (जुलाई तक) प्रभावित हुए और उनके जीवन और आजीविका की सुरक्षा के लिए सरकार का प्रयास नगण्य था ।
10. इस पर विशेष रूप से गौर किया जाना चाहिए कि उन सभी राज्यों की स्थिति बदतर जहां भाजपा का शासन है । आइए, हम उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें । बलात्कार, हत्या, पुलिस की बर्बरता और खराब होती स्वास्थ्य सेवाओं के अलावा, उत्तर प्रदेश की स्थिति ऐसी है कि जो छात्र सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं उन्हें भी कम मजदूरी या वेतन पर एक तरह की ठेका प्रणाली के तहत 5 साल तक काम करना होगा, जहाँ उनके काम का हर 6 महीने में मूल्यांकन किया जाएगा और यह सब पास करने के बाद ही उन्हें स्थायी सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाएगा । और इसके अलावा, जनता में बढ़ती बेचैनी और खदबदाते विद्रोह पर अंकुश लगाने के लिए, सरकार एक विशेष पुलिस बल तैयार कर रही है जिसे यूपीएसएसएफ (उत्तर प्रदेश स्पेशल सिक्योरिटी फोर्स) नाम दिया गया है । इसे कोर्ट वारंट के बिना ही तलाशी लेने और गिरफ्तारी करने का अधिकार होगा । इन्हें कोई कानूनी फटकार का डर भी नहीं होगा, क्योंकि अदालतें भी इस संबंध में दायर किसी भी शिकायत का उस समय तक संज्ञान नहीं ले सकेंगी जब तक कि सरकार अपनी अनुमति नहीं देती । ‘‘लव जिहाद’’ के खिलाफ अध्यादेश लाने की भी खबरें हैं ।
लोगों के दुख के मूल में क्या है
11. पूंजीवादी लोकतंत्र में जन-विरोधी और दमनकारी सरकारों को करारा जवाब देने के लिए मतदान एक आवश्यक हथियार है । और बिहार की जनता को निश्चित रूप से इस अधिकार का उपयोग करना चाहिए, तब भी जब हमें इसके लिए एक लड़ाई लड़नी होगी, क्योंकि फासीवादी गठबंधन और अन्य विरोधियों द्वारा बाहुबल, धनबल और राज्य मशीनरी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर धांधली की कोशिशें की जाएंगी ।
12. ऐसी परिस्थिति में, मौजूदा गंभीर परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए, एक साझा कार्यक्रम के आधार पर, जिसमें नव-उदारवादी व कारपोरेट-परस्त आर्थिक नीतियों को खारिज करने, जो कोरोना महामारी के दौर में ध्वंस की ओर अग्रसर है, और आरएसएस के नव-फासीवाद की सैद्धान्तिक नींव पर चैतरफा हमला करने का आह्वान किया गया है, 15 अगस्त को एक वेबिनार आयोजित कर चार संगठनों ने क्रान्तिकारी वाम समन्वय (क्रावास) का गठन किया था । क्रावास ने बिहार की जनता से आह्वान किया है कि हमें इस बार इस हथियार, चुनाव का उपयोग आसन्न बिहार चुनावों में स्पष्ट और क्रांतिकारी समझ/दृष्टिकोण के साथ करना चाहिए । उदाहरण के लिए, जहां हमें फासीवादी खेमे के खिलाफ मतदान करने के अपने अधिकार का उपयोग करना चाहिए, वहीं हमें इस प्रश्न का भी जवाब देना चाहिए कि यदि किसी खास पूंजीवादी सरकार को चुनकर या उसे हटाकर जनता के जीवन में अब तक कोई भौतिक (सकारात्मक) परिवर्तन नहीं हुआ है, तो इस बार इससे अलग कैसे होगा ? क्या फासीवादियों को हमेशा के लिए पराजित किया जा सकता है, या क्या वोट देकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देने मात्र से कुछ अच्छा होगा ? क्या अगली सरकार पूंजीपतियों की दोस्त और सेवक नहीं होगी ? तब तक फासीवाद को जड़ से कैसे उखाड़ फेंका जा सकता है जब तक कि उन बड़े-कॉरपोरेट पूंजीपतियों, भूस्वामियों और कुलकों के वर्तमान शासन को उखाड़ फेंका नहीं जाता है जो लूट, धोखाधड़ी और लूट की व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए साम्राज्यवाद और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिले हुए हैं ? जनता के सामने ऐसे सवालों को रखे बिना, वे न तो घोर-दक्षिणपंथ के खिलाफ मतदान के महत्व को, और न ही इसकी ऐतिहासिक सीमाओं को समझ पाएंगे ।
13. पिछले 70 वर्षों और इससे भी पहले के अनुभव के आधार पर, यह स्पष्ट है कि उत्पादन की पूंजीवादी पद्धति समेत सार्विक रूप से पूंजीवादी व्यवस्था उखाड़ फेंके और पूरी तरह अन्त किए बिना जनता, विशेष रूप से मजदूर वर्ग, किसान और मेहनतकश जनता गरीबी या अपने शोषण से खुद को मुक्त नहीं कर पाएंगे । असमाध्येय पूंजीवादी आर्थिक संकट की शुरुआत के साथ, अब उनके पास कोई अन्य विकल्प या राहत उपलब्ध नहीं है । चाहे वह बिहार चुनाव हो या आम चुनाव, जनता ने हर पार्टी के शासन का स्वाद चखा है । आज, जो दल विपक्ष में बैठे हैं, वे कल सत्ता में थे और आज के शासक तब विपक्ष में थे । उनके शासनों में बहुत अंतर नहीं था । कांग्रेस आज मोदी सरकार की आलोचना कर रही है, लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों की आर्थिक नीतियां कारपोरेट-परस्त हैं । क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियां भी इसी तरह का या इससे भी बदतर प्रवृत्ति का प्रदर्शन करती हैं, और वे कोई कम नहीं, बल्कि कहीं अधिक अवसरवादी और भ्रष्ट हैं । आज, भाजपा द्वारा किए जा रहे घोर जन-विरोधी कार्य स्वयं कांग्रेस की जन-विरोधी नीतियों का विस्तार है । जहां तक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियों का संबंध है, वे आज भी उसी लाइन और स्थिति एक ही है । ये सभी पार्टियां, जो एक-दूसरे पर छींटाकशी और आलोचना कर रही हैं, वे सभी कारपोरेट पूंजीपति वर्ग के वफादार सेवक हैं । यदि ऐसी बात नहीं है तो कैसे केवल पूंजीपतियों का ही विकास हो रहा है और उनकी समृद्धि बढ़ रही है ? दलितों और पिछड़े वर्ग और जातियों के वोट बैंक पर जो दल पनपे हैं, वे भी अपवाद नहीं हैं । इसलिए, जो भी जीतता है या हारता है, जनता के लिए कुछ भी बदलने वाला नहीं है । यहां तक कि फासीवादियों को हराने और उन्हें उखाड़ फेंकने के प्रमुख सवाल को ध्यान में रखते हुए भी, हम कह सकते हैं कि मुखिया को बदल देने से केवल बाह्य रंग-रोगन बदलेगा और फासीवादी हमलों से फौरी तौर पर अस्थायी राहत मिलेगी ।
14. वर्तमान भारतीय समाज में, सब समृद्धि हों, यह एक छलावा है । 2014 और फिर 2019 को याद कीजिए, जब नरेन्द्र मोदी ने कैसे लुभावने वादे किए थे ! ऐसा लगा था मानो इस बार वे गरीबों के सारे दुख-तकलीफों को हर लेंगे । लेकिन वास्तव में क्या हुआ है, या अभी जो हो रहा है, वह हम सभी के सामने है । जहां अडानी, अम्बानी और ऐसे कई अन्य पूंजीपतियों की सम्पत्ति कई गुना अधिक हो गई है, वहीं जनता की स्थिति और खराब हो गई है । आज न केवल नौकरियां, बल्कि उनके अधिकार भी छीन लिए जा रहे हैं । कल अगर उनका वोट देने का अधिकार भी उनसे छीन लिया गया तो यह कोई बड़ा सदमा नहीं होगा ।
15. हम जानते हैं कि एक विभाजित समाज में, श्रम के फल को पूंजीपतियों और अन्य शोषक वर्गों द्वारा हड़प लिया जाता है और उसका उपभोग किया जाता है, जो समाज में उनके विशेष स्थान के कारण होता है । वे शासक हैं जो उत्पादन के साधनों के मालिक हैं और उन्होंने जिस राजसत्ता का निर्माण किया है उसकी मदद से वे अपनी उत्पादन प्रणाली संचालन करते हैं और पूरे समाज में और उसके रग-रग में पैठ बना लेते हैं । हालांकि, यह व्यवस्था मेहनतकश जनता को अपना वोट डालकर सरकारों को चुनने और बनाने की और इस प्रकार उत्तरोत्तर सभी सरकारों में अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने की अनुमति देती है, लेकिन वास्तव में, यह उन्हें न तो प्राधिकार की अवस्था में लाता है और न ही उनकी समस्याओं और पीड़ाओं का कोई हल प्रदान करता है, क्योंकि पूंजीपति एवं अन्य शोषक वर्गों द्वारा सम्पूर्ण सृजित सम्पत्ति हथिया ली जाती है । इस प्रकार जनता को कोई राहत नहीं मिलती है, हालांकि वे ही हैं जो सरकार चुनते हैं । यह व्यवस्था इतनी कुशलता से काम करती है कि केवल सरकार बदलने या एक की जगह दूसरी सरकार बिठाने से कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है क्योंकि यह व्यवस्था मुख्य रूप से इस आधार पर काम करती है कि पूंजी सर्व-शक्तिमान है जो व्यवस्था के सभी स्तम्भों का समर्थन हासिल कर, भले ही इसके लिए रिश्वत देनी पड़े या अन्य तरीके अपनाना पड़े, अपने शासन की गारंटी करती है । कॉरपोरेट पूंजीपति इस समाज के वास्तविक स्वामी हैं और सभी सड़ी-गली चीजों की जड़ यही है, जैसे कि गुलामी, बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी और इससे संबंधित अन्य समस्याएं जिससे आधुनिक समाज को आज दुनिया में हर जगह जुझना करना पड़ रहा है ।
16. जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है और पूँजीपति वर्ग का शासन खुद को मजबूत करता जा रहा है, वैसे-वैसे मेहनतकश जनता का अधिक से अधिक प्रतिगामी तरीके से शोषण किया जा रहा है, उनके हाथ में सामाजिक धन का अधिकाधिक संचय होते जाने के साथ पूंजी की संवृद्धि, संकेन्द्रन और संघनन हो रहा है, वहीं आजकल सर्वहारा वर्ग (जो केवल अपनी श्रम शक्ति को बेचकर जीवन यापन करते हैं) संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ रही है । ऐसा इसलिए है क्योंकि फासीवादी लूट तेज और तीव्र होने के साथ बीच के वर्ग भी बहुत तेजी से बर्बाद हो रहे हैं ।
17. हम जानते हैं कि जिन कारणों और कारकों की वजह से आर्थिक संकट पैदा होते हैं, जो आम तौर पर उत्पादन की अधिकता और मांग की कमी की प्रवृत्ति में अभिव्यक्त होती है, वे उत्पादन के पूंजीवादी पद्धति में ही अंतर्निहित होते हैं । जब यह संकट गहराता है, तो मुनाफे का चक्र थमने लगता है और पूंजी संचय, जो पूंजीवादी उत्पादन की वास्तविक चालिका शक्ति है, पर खतरा पैदा हो जाता है । इससे निपटने के लिए, पूँजीपति वर्ग शोषण की दर को और तीव्र कर देता है और यहाँ तक कि पूँजी और उत्पादक शक्तियों को नष्ट कर देता है । इससे सर्वहारा वर्ग के साथ-साथ वे भी बर्बाद हो जाते हैं जो पूंजी के छोटे मालिक हैं । और यदि संकट ढांचागत और स्थायी रूप ले लेता है, जैसे कि वर्तमान संकट, तो बड़े कारपोरेट पूंजीपति वर्ग असाधारण तीव्र तरीके से अपनी लूट को तेज कर देते हैं । उत्पादक शक्तियों का विनाश बहुत अधिक बढ़ जाता है और बहुत व्यापक हो जाता है ।
18. आज, मोदी सरकार द्वारा केन्द्र से और साथ ही विभिन्न राज्यों द्वारा थोपी जा रही जन-विरोधी और मजदूर-विरोधी नीतियां इसी आर्थिक संकट का परिणाम हैं । मोदी सरकार की मदद से, मुट्ठीभर बड़े कॉरपोरेट और पूंजीपति उन सारे संसाधनों को लूट रहे हैं जो जनता की सम्पत्ति है और जिसका सृजन प्रकृति और मनुष्य के श्रम ने किया है, और मेहनतकश जनता के खून की आखिरी बूंद भी चूस रहे हैं । वे सभी संसाधनों को अपने हाथ में ले रहे हैं और उसे अपने एकाधिकारी शासन के तहत ला रहे हैं । खदान, खेत, पानी, जंगल, पहाड़, खनिज, हवाई अड्डे, टेलीफोन सेवाएं, रक्षा क्षेत्र, रेलवे, बैंक, बीमा, इस्पात उद्योग, पेट्रोल और डीजल कम्पनियां, खाद्यान्न, शिक्षा और अनुसंधान, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल और स्वास्थ्य सेवा, अर्थात, मानव जाति के लिए उपलब्ध सभी मूल्यवान सार्वजनिक, निजी या प्राकृतिक संसाधनों को उनके द्वारा हथियाया जा रहा है और सरकार इस अभूतपूर्व लूट और छीनाझपटी के खिलाफ विरोध की आवाज को कुचलकर उनकी मदद कर रही है ।
19. हम पाते हैं कि पिछले छह वर्षों में मोदी ने एकदम ’जादुई तरीके से’ वह सब किया जो कारपोरेट पूंजीपति वर्ग के लिए अपना अति-मुनाफा जारी रखने के लिए आवश्यक था । ‘लोकतंत्र’, संविधान और ‘स्वतंत्र’ न्यायपालिका के ठप्पे को हटाने के बिना, मोदी सरकार ने ‘स्वतंत्रता’ के बाद स्थापित पूंजीवादी लोकतांत्रिक राजसत्ता की सभी संस्थाओं को सफलतापूर्वक अपने हाथ में ले लिया है और नव-फासीवाद के भारतीय संस्करण, हिन्दू राष्ट्र की नींव को मजबूत किया है । जनता के जनवादी अधिकारों पर हमला लगातार तेज हो रहा है । इस प्रकार, राजसत्ता, कारपोरेट और धूर्त फासीवादी गिरोह का गठजोड़ भारतीय लोकतंत्र की कब्र खोदने में धीरे-धीरे सफल हो रहा है । हालांकि, लोकतंत्र का यथेष्ठ आभास देने के लिए इसे ढंकने वाले चादर को वैसे ही छोड़ दिया गया था जैसा कि यह है । मोदी द्वारा संसद और इस तरह की अन्य संस्थानों के बने रहने या नहीं रहने के बीच के अंतर को मिटा दिया गया है । संसद रहे या संसद नहीं रहे, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है । संसद में कृषि से संबंधित विधेयकों को जिस तरह जबरदस्ती पारित किया गया, विपक्ष की उपस्थिति के बिना जिस तरह श्रम संहिताओं को पारित किया गया, संसद को ही दरकिनार कर कैबिनेट द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को मंजूरी दी गई, ये सब इसके ताजा और ठोस उदाहरण और प्रमाण हैं । न्यायपालिका को भी फासीवादी ताकतों के अधीन कर दिया गया है, जैसा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत के हाल के फैसले के बाद पूरी तरह साफ है, जिसमें आरएसएस, भाजपा और विहिप से संबंधित सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया गया है ।
समाजवादी भविष्य के लिए लड़ने के लिए उठ खड़े हों
20. आज, चुनाव बिहार में है, लेकिन सच्चाई यह है कि पूरे देश की परिस्थिति खतरनाक है, विपदाग्रस्त है और देश पर आन पड़े इस दुर्भाग्य से अकेले बिहार बच नहीं सकता है । यदि एक लोकतंत्र के रूप में देश नहीं बचेगा, तो बिहार कैसे बचेगा ? इसी प्रकार, बिहार की जनता का परम कर्तव्य है कि वे उन फासीवादी ताकतों को करारा जवाब दें, जो बिहार में भी अपने शासन की पकड़ को मजबूत करने के लिए आमादा हैं, ताकि इसे कारपोरेट लूट का निर्मम शिकारगाह बनाया जा सके ।
21. दूसरी ओर, जनता को वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था के दलदल से बाहर आने के तरीकों के बारे में भी सोचना होगा क्योंकि ऐसा होने तक कारपोरेट लूट के हमले में कोई ढील नहीं आएगी । क्रान्तिकारी वाम समन्वय का दृढ़तापूर्वक मानना है कि मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता के सभी शोषित और उत्पीड़ित तबकों के साथ एकजुट होकर जनता की राजसत्ता की स्थापना के अलावा इस दलदल से बाहर आने का कोई रास्ता नहीं है । यही एकमात्र वास्तविक विकल्प है जो न केवल मेहनतकश जनता के लिए उपलब्ध है, बल्कि यह बीच के उन वर्गों के लिए भी है जिनका अस्तित्व मिट जाएगा यदि फासीवादियों के शासन को उखाड़कर फेंका नहीं जाएगा, तथापि उसे तब तक हमेशा के लिए खत्म नहीं किया जा सकता है जब तक कि मिट्टी के साथ-साथ इसकी जड़ों को, अर्थात पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ा नहीं जाता है । यही वह बिन्दु है जहां फासीवादी गठजोड़ को शिकस्त देने के लिए अपने वोट के अधिकार का प्रयोग करने की हमारी राजनीति और पूंजीपतियों के नेतृत्व वाली पुरानी व्यवस्था को उखाड़ कर उसकी जगह पूरी तरह से नई व्यवस्था, अर्थात् सर्वहारा के नेतृत्व वाले समाज की स्थापना करने का ऐतिहासिक कार्य आपस में एक हो जाते हैं । जहां तक समाज के आगे बढ़ने और उन्नति का संबंध है, पुराना पूरी तरह से सड़-गल और फलहीन हो गया है । पूँजीपतियों द्वारा शासित पुराना समाज और व्यवस्था स्थायी रूप से संकटग्रस्त हो गई है जो अपने गर्भ में फासीवाद के कीटाणुओं को पालती है और प्रजनन करती है । और जब तक इसे बदला नहीं जाता है और वर्षों से जमा सभी कूड़ा-कर्कट को हटाकर पूरी तरह मरम्मत नहीं किया जाता है, तब तक जनता की विकट समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं हो सकता है ।
22. खैर, चुनावों में सरकार को बदलना और फासीवादियों की शिकस्त देना पूरी तरह से बेकार नहीं है । यह उनके मनोबल को कमजोर करने में गहरा प्रभाव डालेगा, जबकि इससे संघर्षरत जनता की लोकतांत्रिक भावना और मनोबल को ऊपर उठाने के लिए सकारात्मक माहौल बनाने में मदद मिलेगी, जिनकी जीत एक ही झटके में नहीं होगी । इसके बाद, जनता आगे के रास्ते पर अधिक विजयी भाव से यात्रा करेगी । इसमें जन आन्दोलन का विस्तार करना और गहराई में ले जाना तथा इसे तब तक जारी रखना शामिल है जब तक कि स्वतःस्फूर्त अखिल भारतीय जन आन्दोलन की एक महासागरीय धारा, जिसके शिखर पर क्रांतिकारी ताकतें सवार हों, पूरी पूंजीवादी व्यवस्था को कुचलने, डूबने और फिर से उठ खड़ा होने की सम्भावना से परे तहस-नहस नहीं कर देती है । इसके लिए संकल्प लेना महत्वपूर्ण है, जिसके लिए हालात ज्यादा-से-ज्यादा परिपक्व होते जा रहे हैं क्योंकि आर्थिक संकट का और गहरा होना और निकट भविष्य में सम्पूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था को अपनी चपेट में ले लेना तय है । इस के संकेत पहले से कहीं अधिक साफ नजर आने लगे हैं ।
23. इसलिए, क्रान्तिकारी वाम समन्वय ने सभी प्रगतिशील जनवादी ताकतों से बिहार चुनाव में फासिस्टों को हराने के लिए एकजुट होने का आह्वान किया और साथ ही यह भी घोषणा की कि जब तक मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी राज्य का निर्माण नहीं होगा तब तक हमारी लड़ाई जारी रहनी चाहिए । केवल सर्वहारा का जनवाद, यानी कि, एक समाजवादी राज्य ही सच्चे लोकतंत्र की स्थापना कर सकता है, क्योंकि इसका उद्देश्य मानव जाति को पूंजी की जंजीरों से और उसके सभी कुप्रभावों से मुक्त करना है और जहां सभी लोग एकबारगी और हमेशा के लिए शोषण और उत्पीड़न को समाप्त करके सुखी-सम्पन्न होंगे ।
24. इस समय, जब फासीवाद लोकतंत्र और लोकतांत्रिक अधिकारों को निगलते जा रहा है, फासीवाद के खिलाफ, जनवादी अधिकारों के लिए और सच्चे लोकतांत्रिक राज्य के लिए हमारी लड़ाई अंतरंग और जटिल रूप से आपस में जुड़ी हुई है । छोटी जीत का हर कदम हमारे मनोबल को बढ़ाएगा । आइए, हम सबसे बड़े दुश्मन, फासीवाद के खिलाफ एकजुट होने के लिए अपने सभी मतभेदों को दूर करें ! आरएसएस के नव-फासीवाद को परास्त करें !
25. आइए, हम सभी उत्पीड़ित और शोषित तबकों को एकजुट करें और चुनाव खत्म होने के बाद जनता की तात्कालिक मांगों को अपने दीर्घकालिक लक्ष्य के साथ जोड़कर एक जन आन्दोलन शुरू करें ।
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ!
भाकपा (माले) रेड स्टार
भाकपा (माले) पीआरसी
यूसीसीआरआई (एमएल) किशन
ऑल इंडिया वर्कर्स काउन्सिल
21 अक्टूबर 2020
