युवाओं में बढ़ते विक्षोभ के बारे में

बिहार और यूपी के युवाओं ने रेलवे में भर्ती की संभावना को पूरी तरह खत्म होते देख (निजीकरण के कारण) आंदोलन की राह पकड़ी है और एक तरह से पूरे देश को रास्ता दिखाने का प्रयास किया है। इसने इस उम्मीद को भी हवा दी है कि देश को धार्मिक उन्माद, झूठे राष्ट्रवाद और फासीवाद के चंगुल में पूरी तरह से फंसने से अभी भी रोका या बचाया जा सकता है।

और यह सच भी है। अगर युवा जाग उठें, उग्र राष्ट्रवाद की भावना तथा हिन्दू-मुस्लिम की नफरत से भरी राजनीति के नशे से दूर हो जाएं, मोदी सहित बाकी सारी बुर्जुआ पार्टियों की धूर्त राजनीति को समझ लें, तो देश व समाज को पतन के गर्त्त में जाने से रोकने का असम्भव सा दिखने वाला काम भी चुटकी में सम्पन्न हो सकता है। लेकिन, उनका यह मौजूदा आंदोलन और उनकी चेतना का वर्तमान स्तर क्या इतनी उम्मीदें पैदा करता है? शायद नहीं।

अभी इनसे यह उम्मीद करना बेमानी है। और, इस कमी के लिये खुद वे दोषी नहीं हैं। आखिर वे चेतना खुद से पैदा कर भी कैसे सकते हैं,अगर देश की बयार में वैज्ञानिक समझ पर आधारित जनपक्षीय क्रांतिकारी राजनीति की कोई महक ही न हो? हम जानते हैं, लाल झंडे और पारंपरिक कम्युनिस्ट राजनीति के प्रति उनका आकर्षण नहीं है। दूसरी तरफ, क्रांतिकारी कम्युनिस्ट राजनीति प्रायः युवा वर्ग पर अपनी छाप छोड़ने में असफल है। उनके कल्पनालोक में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। क्रांतिकारी राजनीति का वजूद उनको स्वप्नदर्शी बनाने में असमर्थ है। हम उनके हृदय को आलोड़ित कर उनके अंतस्तल में हलचल पैदा करने में अक्षम हैं तथा क्रांतिकारी जमात का उनसे जैविक संपर्क भी भंग अवस्था में है। वह उनके दिलोदिमाग में अन्याय के खिलाफ कोलाहल करने वाली ओजस्विता खो चुकी है। कुल मिलाकर कहें तो हमारी क्रांतिकारी राजनीति में मौजूद वह मोहक छटा व अदा, जो युवा वर्ग में या इसके एक हिस्से में भी सब कुछ खोकर दुनिया को बदल देने की सनक भरी दीवानगी पैदा कर दे, प्रायः खत्म हो चुकी है। ऐसे में, युवाओं के अंदर व्याप्त व्यक्तिपरक कुंठा की जगह बेरोजगारी को इसके पूर्ण खात्मे तक लड़ने और इसके लिए मौजुदा हर उस चीज को खत्म करने की भावना व ओज आखिर कैसे पैदा की जा सकती है जो सुंदर समाज के बनने की राह में रोड़े पैदा करती है? ऐसे में, आखिर युवा कैसे बड़े हृदय के साथ इसे समझ पाएंगे कि न्याय, बराबरी और शोषण व उत्पीड़न पर टिका और पशुवत बर्बरता करने वाला समाज और उसकी व्यवस्था सबों को सम्मानपूर्ण रोजगार नहीं दे सकते, और न ही धार्मिक व नस्लीय नफरत की राजनीति की बुनियाद पर कोई खुशहाल और सुंदर दुनिया या समाज ही बनाया जा सकता है।

रेलवे, बैंक, बीमा आदि में भर्ती प्रायः बड़े पैमाने पर सरकारी नौकरी देने वाले सरकारी उपक्रम और विभाग रहे हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि जब निजीकरण के कारण ये सारे दरवाजे धीरे-धीरे बंद हो रहे हैं तो सरकारी नौकरी की लालसा में दिन-रात प्रयासरत छात्र-युवा वर्ग की आंखों के सामने अपने भविष्य को लेकर अंधकार छाने लगा है। लेकिन इतने तक इसमें क्रांतिकारिता जैसी कोई चीज़ नहीं है, भले इसके बीज अंकुरित होने लायक स्थिति के निर्माण का यह परिचायक हो। लेकिन इससे अधिक की उम्मीद करना बेवजह भ्रम पैदा करेगा और हमें अपने कार्यभार को तय करने में गलती का सबब बनेगा, क्योंकि यह सच है कि अभी वे न तो समस्या की गहराई को वास्तव में समझते हैं और न ही इसके बुनियादी कारण को। और तो और, वे अभी तक निजीकरण के विरोध के नारे तक नहीं पहुंचे हैं। वे आसमान छूती बेरोजगारी को मोदी सरकार की आम करपोरेटपरस्त नीतियों से जोड़ कर नहीं देखते हैं, आज की फासीवादी-पूंजीवादी व्यवस्था और सड़ते पूंजीवादी समाज से जोड़ कर देखने की उनकी क्षमता तो अभी बहुत दूर की बात है, अकल्पनीय है। दो दिनों पहले उनके “थाली बजाओ” आंदोलन के नारों व मांगों को देखिये तो साफ लगता है कि उन्हें फिलहाल बस यह चाहिए कि उनकी परीक्षाएं समय पर ले ली जाएं, रिजल्ट या परिणाम समय से निकले और फिर उतनी ही फुर्ति व समय से उनकी ज्वाइनिंग ले ली जाए। साफ है, वे अभी भी बेरोजगारी की समस्या के बारे में मामूली रूप से भी चेतनशील नहीं हैं। ये भी सच है, फिलहाल वे अपनी समस्याओं को लेकर खुद की सीमाओं में भी संकुचित हैं। यही कारण है कि वे किसी भी तरह से ‘राजनीतिक’ होना नहीं दिखना चाहते हैं। वे मोदी से गुस्से से भरे हैं, लेकिन मोदी के ‘विरोधी’ के रूप में दिखने से उनको अभी गुरेज है। मोदी से विरोध ‘अपनों से विरोध’ जैसा अधिक जान पड़ता है। वे लाल झंडे से ही नहीं, किसी बुर्जुआ विपक्ष के झंडे से भी दूरी बनाये रखना चाहते हैं। ये दिखाता है, युवाओं का मोदी से पूर्ण मोहभंग होना बाकी है। उनका इस तरह ‘अराजनीतिक’ दिखने के पीछे ठंडे दिमाग से की गई कुछ खास तरह की गणना (जिसमें दुनियादारी की छवि और समझ ही ज्यादा दिखाई देती है) तो है ही, मोदी के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षण का अभी तक बना रहना भी है। मोदी के प्रभामण्डल से निकलने के बाद ये युवा क्रांतिकारी राजनीति से जुड़ेंगे या विपक्ष की ओर मुड़ेंगे या फिर किसी और बड़े मोदी (महा-मोदी जो मोदी से भी बड़ा ड्रामेबाज़ और जुमलेबाज़ हो और इन्हें सम्मोहित कर सके) का उपग्रहीय पदार्थ बनकर उसका चक्कर काटेंगे, इसके बारे में अभी कुछ भी निश्चित रूप से कहना आज सम्भव नहीं है।

जो क्रांतिकारी इन युवाओं के अंदर उठे मौजूदा विक्षोभ को ही सब कुछ मानकर अतिउत्साहित हैं, वे दरअसल इस परिघटना का सही से मूल्यांकन नहीं किये हैं। जाहिर है, निष्कर्ष भी सही से नहीं निकाल पा रहे हैं। दरअसल वे यह नहीं समझ रहे हैं कि स्वयं अपनी, यानी, क्रांतिकारियों की कार्रवाइयों को उन्नत बनाये बिना इन युवाओं को शोषक-शासक वर्ग के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष में उतारना नामुमकिन होगा। और जब तक यह नहीं होगा, इनसे (और जाहिर है खुद से भी) कोई ऐसी उम्मीद करना वेवकूफी ही होगी। और, इसकी पूर्व शर्त्त है स्वयं क्रांतिकारियों की कार्रवाइयों के स्तर को ऊंचा उठाना व उन्नत करना, ताकि वे (क्रांतिकारी जमात) इन युवाओं को समग्रता में राजनीतिक रूप से जागरूक कर सकें और आकर्षित कर सकें। युवाओं के आंदोलन से अभिभूत होने मात्र से क्रांतिकारियों का काम नहीं होने वाला है। ऊपर इंगित अतिमहत्वपूर्ण कार्यभार हमारे सामने मुंह बाये खड़ा है और तत्काल पूरा किये जाने की मांग कर रहा है। इसे पूरा करने के बाद ही हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि ये तुरंत-फुरन्त में जागे युवा हमारी उम्मीदों के अनुसार समाज परिवर्तन के काम आ सकेंगे या नहीं।

इन युवाओं का वर्तमान विक्षोभ अभी तक मोदी के आभामण्डल वाले ऑर्बिट में ही घूम रहा है। इसकी पूरी गुंजाइश व संभावना है। अगर मोदी के ऑर्बिट से यह निकल भी जाये, तो राहुल के उपग्रहीय ऑर्बिट में जा गिरेगा या गिर सकता है। और इस तरह, देशव्यापी क्रांतिकारी हस्तक्षेप के बिना कुल मिलाकर वह इसी पूंजीवादी सौरमण्डल के चक्कर काटने वाले भिन्न-भिन्न पदार्थों में अपचयित होता रहेगा।

इसलिए, आज भी मुझे यही लगता है कि क्रांतिकारियों और उनकी कार्रवाइयों को उन्नत किये बिना महज़ युवाओं की स्वयंस्फूर्त चेतना व उनके आंदोलन से उम्मीद करने से क्रांतिकारी आंदोलन आगे नहीं बढ़ने वाला है। कुछेक युवा कार्यकर्ता निकाल लेना एक बात है, लेकिन आम युवाओं को इधर अपनी ओर ले आना मुश्किल है।

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