पूरे विश्व में कोरोना महामारी से हाहाकार मचा हुआ है। तथाकथित समृद्ध देशों की स्थिति भयावह है और पुरी दुनिया में लगभग 2,00,000 मौतें हो चुकी है। भारत में एक महीने से ज्यादा के लॉकडाउन के बावजूद पिछले 24 घंटों में करीब 1,800 नए मामले सामने आये हैं। ऐसे में सारे संसाधनों को जनता की मानसिक और शारीरिक बेहतरी की ओर लगाया जाना चाहिए। लेकिन भारतीय मीडिया की समझ इसके बिल्कुल विपरीत दिखाई पड़ती है। ज्ञातव्य है कि कुछ हफ़्तों पहले दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज़ में हज़ारों की संख्या में तब्लीगी जमात, जो की एक धार्मिक संगठन है, के लोग लॉकडाउन के बावजूद वहाँ “छुपे” हुए थे। इस पूरे घटनाक्रम में एक पक्ष साफ़ है कि जहाँ लगातार सोशल डिस्टेंसिंग की बात पर जोर दिया जा रहा है ताकि संक्रमण को रोका जा सके और हमारे पहले से खस्ताहाल अस्पतालों और स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव ना बढ़े, ऐसे में हजारों लोगों का एक जगह जमा रहना बेहद गैरजिम्मेदाराना हरकत है और यकीनन तब्लीगी जमात ने घोर लापरवाही दिखाई है। लेकिन इसके दुसरे पक्षों का करीब से विश्लेषण करना भी ज़रूरी है। 31 मार्च, 2020 को जब निज़ामुद्दीन मरकज़ से हज़ारों तब्लीगी जमातियों को हटाया गया, तब यह खबर जनता के सामने पहुंची। और तब से ले कर आज तक गोदी मीडिया द्वारा एक पूरा प्रचार चलाया जा रहा है जहाँ तब्लीगी जमात से जुड़ी इस घटना की आड़ में पूरे मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है और हमारे दिमाग में फिरकापरस्ती का ज़हर घोला जा रहा है। सबसे पहले यह जानते हैं कि पूरे घटना में क्या हुआ और निजामुद्दीन मरकज़ के हॉटस्पॉट बनने में तब्लीगी जमात, पुलिस प्रशासन और केंद्र व राज्य सरकार की क्या भूमिका रही।
तब्लीगी जमात और पुलिस प्रशासन की भूमिका
सच्चाई के करीब पहुँचने के लिए पूरे मामले को बारीकी से देखना बहुत ज़रूरी है। दिल्ली पुलिस द्वारा 23 मार्च का एक विडियो जारी किया गया जिसमें दिल्ली पुलिस अधिकारी तब्लीगी जमात के प्रतिनिधियों को निजामुद्दीन मरकज़ खाली करने का आदेश देते दिखाई देते हैं। विडियो से यह भी पता चलता है कि सीनियर अधिकारियों को भी इस बात की सूचना थी की मरकज़ में हजारों की संख्या में लोग जमा हैं। अब सबसे पहला सवाल यह है कि पुलिस प्रशासन और सीनियर अधिकारीयों को अगर 23 मार्च, या विडियो के अनुसार उसके पहले से ही यह बात पता थी की मरकज़ में हजारों लोग जमा हैं तो उन्होंने मरकज़ खाली करने में इतना लम्बा समय क्यों लिया?
तब्लीगी जमात की तरफ से जो स्टेटमेंट जारी किया गया है उसके मुताबिक उन्होंने लॉकडाउन घोषित होते ही अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर दिए थे अर्थात लोगों का आना-जाना बंद कर दिया था और लोगों को वापस भेजने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी लेकिन बॉर्डर सील होने और लॉकडाउन की वजह से लोगों को वहाँ से हटाना संभव नहीं हो पा रहा था। उनका कहना है कि उन्होंने स्थानीय पुलिस थाने से 17 गाड़ियों के कर्फ्यू पास मांगे थे लेकिन पुलिस ने अनुमति नहीं दी। इसके बीच मरकज़ से कई बीमार लोगों को अस्पताल भी ले जाया गया। तब्लीगी जमातियों की लापरवाही को ज़रा भी कम ना करते हुए हम ये कह सकते हैं की घटना को इस अंजाम तक पहुंचाने में दिल्ली पुलिस प्रशासन भी ज़िम्मेदार है। अब जब 25 मार्च को शाहीन बाग में सीएए-एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ चल रहे धरने में बैठी केवल 5 महिलाओं को जबरन हटाने में पुलिस इतनी मेहनत कर सकती है तो मरकज़ में जमा हजारों लोगों को खाली करने में 10 दिन का समय कैसे लग गया? जब भारत में पहला कोरोना संक्रमित केस 30 जनवरी को आ चुका था तब बिना स्क्रीनिंग के संक्रमित देशों से इतनी बड़ी तादात में लोगों को भारत में प्रवेश करने क्यों दिया गया? संक्रमण के खतरों के बीच तब्लीगी जमात को इतने बड़े जुटान की अनुमति कैसे दे दी गयी? पूरे घटनाक्रम में पुलिस प्रशासन का रवैया ऐसे बहुत से सवाल खड़ा करता है और जब गृह मंत्रालय के इशारों पर चलने वाली पुलिस की ढिलाई और फिर मीडिया की भूमिका को एक साथ देखा जाये तो लगता है की इस घटना को सोचे समझे तरीके से इतना विस्फोटक बनने के लिए छोड़ दिया गया।
तब्लीगी जमात और कोरोना संक्रमण के बढ़ते आकड़े
स्वास्थ्य मंत्रालय व मीडिया चैनलों के अनुसार 31 मार्च के बाद, जब से मरकज़ खाली कराया गया और वहाँ के कुल 2361 लोगों को टेस्टिंग के लिए अस्पताल भेजा गया, तब से पूरे देश भर के कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में कई गुना इज़ाफा हुआ। ये बताया जा रहा है कि 3 अप्रैल तक नए आये मामलों में से 60% का संबंध तब्लीगी जमात से था, और कहीं कहीं तो ये आंकड़े 95% तक बताये जा रहे हैं। इस मुद्दे पर बिहेवियरल एंड डेवलपमेंटल इकोनॉमिस्ट, सौगातो दत्ता, बताते हैं कि जब तक हमें यह नहीं पता चलता की सैंपल साइज़ (अर्थात कुल कितने लोगों के टेस्ट किये गए हैं) क्या है तब तक इन आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है। जहाँ अभी तक जो व्यक्ति ऐसे ही अन्य जुटान में शामिल रहे हैं उनकी टेस्टिंग तभी की जा रही है जब उनमें कुछ लक्षण दिखाई दे रहे हैं, वहीं तब्लीगी जमात के मामले में मरकज़ में मौजूद तब्लीगी जमातियों और उनके संपर्क में आये सभी लोगों को टेस्ट किया जा रहा है। और क्योंकि कोरोना संक्रमण के कई मामले ऐसे होते हैं जहाँ संक्रमित लोगों में लक्षण नहीं दिखाई देते, इसीलिए दुसरे जुटानों के मुकाबले तब्लीगी जमात से जुड़े कई ज्यादा कोरोना पॉजिटिव केस सामने आ रहे हैं। दूसरी ओर, पूरे देश में काफी कम संख्या में टेस्टिंग की जा रही है।
Worldometer के 24 अप्रैल रात 9 बजे के आकड़ों के अनुसार भारत हर 10,00,000 लोगों पर केवल 393 टेस्ट कर रहा है जो बाकी देशों की तुलना में काफी कम है, जिसके कारण कुल आबादी में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या जितनी है उससे काफी कम दिखती है। उपरोक्त तथ्यों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि 60% और 95% आंकड़ों की सच्चाई क्या है। स्वास्थ्य मंत्रालय के सह सचिव द्वारा दिए गए आंकड़ों पर भी कई सवाल खड़े हैं। उनके मुताबिक तब्लीगी जमात की लापरवाही ना हुई होती तो संक्रमित लोगों की संख्या दोगुनी होने में 7.4 दिन का समय लगता लेकिन अब केवल 4.1 दिन में ही मामले दोगुने होते जा रहे हैं। यह सरासर गलत है। न्यूज़क्लिक की रिपोर्ट के अनुसार तब्लीगी जमात और उनके संपर्क में आये व्यक्तियों में संक्रमण को मान कर चलें तो भी कुल मामलों के दोगुने होने में 4.63 दिन का ही समय लगेगा, ना की 7.4 दिन का। ज़ाहिर है, इस भ्रमित करने वाले प्रचार को फैलाने में सरकार भी संलिप्त दिखाई देती है। हो भी क्यों ना, आखिर निज़ामुद्दीन मरकज़ की इस घटना से बने “संयोग” के कारण जनता के सवालों के भंवर में फंसी सरकार को तिनके का सहारा जो मिल गया।
कोरोना वायरस से ज्यादा ख़तरनाक कम्युनल वायरस – मीडिया की भूमिका
गुमराह करने वाले इन आंकड़ों को मीडिया दिन रात अपने चैनल पर दिखा कर, कोरोना वायरस से बचने के लिए घरों में बंद जनता के दिमाग को इन्होंने सांप्रदायिक वायरस से संक्रमित ज़रूर कर दिया है। तब्लीगी जमात द्वारा की गयी लापरवाही को उनकी नियत और सोची समझी साजिश बताया गया और फिर सोशल मीडिया पर छाये फेक न्यूज़ की मदद से इसे “कोरोना जिहाद”, “कोरोना के एजेंट” जैसे नाम दे कर पूरे मुस्लिम कौम की सोची समझी साज़िश साबित किया जाने लगा। फल विक्रेता के फल पर थूक लगा कर बेचने के विडियो सामने आये, तब्लीगी जमातियों के द्वारा अस्पताल में महिला डॉक्टरों और नर्सों के साथ बदसलूकी करने और लोगों पर थूकने की ख़बरे आने लगी, होटल में चम्मच को चाटते हुए मुसलमान दिखाए गये, और ऐसे अनगिनत विडियो रोज़ लाखों फ़ोन से होते हुए हमारे स्क्रीन से होते हुए नफरत का जाल बुनते रहे। इन फेक विडियो और ख़बरों का खंडन भी लगातार किया जाता रहता है, लेकिन तब तक यह अपना काम कर चुके होते हैं। पालघर की जघन्य घटना भी इसी तरह की अफवाहों और झूठे प्रचार का नतीजा है जिसकी ज़द में आ कर तैयार हुई भीड़ अपने “दुश्मन” को मौत के घाट उतार कर ही दम लेती है। इन फेक ख़बरों का असर भी अन्य घटनाओं में साफ़ देखा जा सकता है जहाँ कोरोना संक्रमित होने के संदेह पर लोगों को पीटा जाता है, जब एक डॉक्टर एक अल्पसंख्यक गर्भवती महिला को भर्ती करने से मना कर देता है और बच्चे को जन्म देते हुए ही उस महिला की मृत्यु हो जाती है और जब बेक़सूर फल-सब्ज़ी बेचने वालों को अपनी दुकान खोलने और हिन्दू मोहल्लों में घुसने से मना कर दिया जाता है। पूरी हवा इस कदर बदल दी गयी कि अब लाखों की संख्या में पलायन करते मजदूरों की हालत, भूख से तड़पते उनके परिवार, स्वास्थ्य एवं सफ़ाई कर्मचारियों को ज़रूरी सुविधाओं की कमी जैसी समस्याओं से जुड़े सवाल रातों को टीवी पर चीखते एंकरों की आवाज़ से दबा दिए गये।
फासीवाद और कोरोना महामारी
इतिहास में झांके तो ऐसी संकट की घड़ी का फासीवादी शक्तियों ने खुद को सुदृढ़ करने के लिए इस्तेमाल किया है। भारत की फासीवादी ताकतों ने भी इतिहास से सीख कर इस संकटकाल का पूरा फायदा उठाया है। गोदी मीडिया और बीजेपी के आईटी सेल की दिन रात की मेहनत और भारतीय मध्य वर्ग की आज्ञाकारिता के बदौलत इस फासीवादी सरकार ने एक तीर से दो निशाने भेदने की साजिश रची है। तब्लीगी जमात प्रकरण के पहले भारत की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था, महानगरों से लाखों की संख्या में पलायन करने को विवश मजदूर, लॉकडाउन में गरीब मेहनतकश जनता की दुर्दशा, बेरोज़गारी के बढ़ते आंकड़े, निजीकरण के दुष्परिणाम और इन समस्याओं पर सरकार की असक्षमता और घोर संवेदनहीनता पर चर्चा शुरू हो गयी थी। दो वक्त की रोटी और गई-गुजरी ज़िन्दगी के बदले, सालों से दयनीय स्थिति में जीवन काटने को मजबूर मेहनतकश वर्ग को जब मौत मुँह बाए खड़ी दिख रही थी तो इस पूंजीवादी व्यवस्था और इसको चलायमान रखने में लगी शोषणकारी सरकार की असलियत जगजाहिर हो गयी। अतः तात्कालिक लक्ष्य के तहत सबसे पहले इन सारे प्रश्नों को तब्लीगी जमात और मुसलमानों पर चलने वाली घंटों लम्बी बहस के शोर में दबा दिया गया। अब सरकार के तरफ उठ रही ऊँगली के सामने तब्लीगी जमात को खड़ा कर दिया गया और जनता उन सारे सवालों को भूल कर ताली-थाली पीटने और दिया जलाने में मगन हो गयी। इतिहास में फासीवादी ताकतों के उभार के साथ जनता को छद्म राष्ट्रवादी मानसिकता और एक छाया शत्रु के खिलाफ नफरत को फलने फूलने की ज़मीन दे कर असली मुद्दों से भटका दिया जाता है। यहाँ से भारतीय फासीवादी शासक वर्ग की दूरगामी लक्ष्य की पूर्ति शुरू होती है जिसके तहत मुस्लिम समुदाय को छाया शत्रु की तरह पेश करने के उनके पुराने प्रचार को काफी हवा दी गयी। सभी जगह यही परोसा जाने लगा की माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में हम कोरोना वायरस को हरा ही देते अगर ये जमाती, “कोरोना के एजेंट”, “कोरोना जिहादी” (मुसलमान) नहीं होते तो। बड़ी कुशलता से पूरा रुख बदल दिया गया। इतिहास में भी नाज़ी जर्मनी के यहूदियों को इसी पैटर्न पर धीरे धीरे छाया शत्रु में तब्दील किया गया था और एक समय आया जहाँ देश की सारी समस्याओं के लिए उनको ज़िम्मेदार ठहराया जाने लगा, यह इस हद तक बढ़ाया गया कि उनको मारना भी राष्ट्र धर्म था। यहाँ तक की इस पागलपन पर सवाल उठाने वाले लोग भी देश के दुश्मन और गद्दार घोषित होने लगे। भारत में इसका शुरूआती रूप देखा जा सकता है। समाज बद से बद्तर हालात में जाने वाला है जिसके फलस्वरूप यह फिरकापरस्ती और छद्म राष्ट्रवाद का ज़हर लोगों में घोला जाता रहेगा। पूंजीवाद जिस स्थायी और ढांचागत संकट में जा फंसा है, उसके लिए अब जनता के सवालों को शांत करने के लिए और कोई समाधान नहीं बचा है। सारे संसाधनों के बावजूद पूंजी की सेवा में नतमस्तक यह सरकार कोरोना महामारी के तात्कालिक खतरों और इसके फलस्वरूप देश भर में उत्पन्न होने वाले भयानक आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, बेकारी और बदहाली से लड़ पाने में असमर्थ है।
कोरोना के बाद की दुनिया
कोरोना महामारी का आज नहीं तो कल अंत होगा और स्थिति सतह पर सामान्य दिखने लगेगी। लेकिन ये साम्प्रदायिकता की महामारी जो हमारे ज़ेहन में इतनी भीतर तक पहुंचाई जा चुकी है, इसका क्या? आज के
निरंकुश शासन में सरकार की जनविरोधी नीतियों पर सवाल करना देश के विकास में अवरोध पैदा करने के बराबर मान लिया गया है। अल्पसंख्यकों को देश का दुश्मन मान लिया गया है। कोरोना के बाद की दुनिया में इसका सबसे बुरा असर गरीब मुसलमानों और मजदूर मेहनतकश जनता पर पड़ेगा। इनके पक्ष में उठी आवाज़ों को देशद्रोही करार देकर इन पर राजद्रोह और यूएपीए जैसे काले कानून लादे जा रहे हैं। पहले से ही समाज में मजदूरों, अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील खेमे को निशाना बनाया जाता रहा है, लेकिन अब तो कोरोना से डरी हुई दुनिया को इन्हें दुश्मन की तरह देखना सिखाया जा रहा है। ये फासीवादी सरकार कोरोना महामारी के संकट से लड़ने का हवाला देकर लोगों के कटे छंटे अधिकार भी छीनने पर उतारू है। विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जिस तरह चरमरा रही है, कोरोना महामारी के बाद की दुनिया में भूख, बीमारी और बेरोज़गारी से तंग आ चुकी जनता की मुश्किलें कम नहीं होने वाली, बल्कि और बढ़ेंगी। आज पूँजीवादी व्यवस्था ने यह साबित किया है कि वह, तमाम सम्पदा होने के बावजूद, कोरोना तथा मानव सभ्यता को खतरे में डालती अन्य आपदाओं से हमें बचाने में असक्षम है और जनता को सम्मानजनक जीवन जीने लायक सुविधाएँ भी मयस्सर नहीं करा सकता है। ऐसे में हमें तय करना होगा कि एक ऐसी व्यवस्था, जहाँ मीडिया द्वारा झूठी अफवाहों और तोड़-मरोड़ कर पेश किये गए तथ्यों के आधार पर ‘देश के दुश्मनों’ की सूचि तैयार की जाये और एक ऐसी भीड़ पैदा हो जो अपने और अपने आका के खिलाफ उठे सिरों को कुचलने के लिए तैयार खड़ी हो, जहाँ जनता को बदहाल छोड़ कर सारी सम्पदा चंद पूंजीपतियों के हाथों में सौंपी जा रही हो और इसके विरोध में उठी आवाज़ों को जेल की कालकोठरियों में दफन कर दिया जाये, ऐसी व्यवस्था के बचे रहने का क्या कोई औचित्य रह जाता है?
यह लेख मूलतः सर्वहारा : समसामयिक मुद्दों पर पीआरसी की सैद्धांतिक एवं राजनीतिक पाक्षिक कमेंटरी (अंक 1/ 15-30 अप्रैल ’20) में छपा था