‘सर्वहारा’ के बारे में

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आधुनिक सर्वहारा और मजदूर वर्ग इतिहास की उपज है और पूंजीवाद के साथ-साथ पैदा हुआ है। आधुनिक पूंजीवाद समाज में पूंजीवाद के मुकाबले आज जितने वर्ग मौजूद हैं, यह उन सबमें सर्वाधिक मौलिक और सर्वाधिक क्रांतिकारी वर्ग है। ‘सर्वहारा’ अखबार इसी मजदूर वर्ग की आवाज़ है।

सामंतवाद के मुकाबले पूंजीवाद का जन्म एक अग्रगामी और प्रगतिशील शक्ति के रूप में हुआ था। शुरू-शुरू में यह महान प्रबोधन काल के छापें लिए हुए था। अपनी शैशवावास्था में यह प्रबोधन काल के महान दार्शनिकों और स्वप्नदर्शियों की शाश्वत बुद्धि पर आधारित बुद्धिसंगत राज्य और बुद्धिसंगत समाज की आदर्शवादी कल्पनाओं के अनुरूप ही था। परन्तु, जैसे ही इसके पाँव पालने के बाहर निकले और इसने शैशवावस्था से बाहर कदम रखे, तो पता चला कि, एंगेल्स के शब्दों में: “नयी व्यवस्था पुरानी व्यवस्था की तुलना में तो काफी बुद्धिसंगत थी, परन्तु यह सर्वथा बुद्धिसंगत नहीं थी।” जल्द ही शाश्वत बुद्धि पर आधारित बुद्धिसंगत राज्य और बुद्धिसंगत समाज भ्रष्टतापूर्ण आतंक के शासन में परिवर्तित हो गया। फ़्रांसीसी क्रांति के मुख्य सूत्रधार पूंजीपति वर्ग और इसके सर्वोत्तम प्रतिनिधि पहले ‘डायरेक्टरेट’ की भ्रष्टता और अंततः नेपोलियन की निरंकुशता की गोद में जा बैठे। कहाँ तो अमीरी और गरीबी के विरोध को मिटाकर सामान्य समृद्धि के वायदे किये गए थे, परन्तु देखा यह गया कि अमीर और गरीब के बीच विरोध और तीव्र हो गया। श्रमिक जनता भूदास से उजरती गुलाम हो गए। जिस पूंजीवादी आधार पर, याने, जिस पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के आधार पर औद्योगिक समाज का निर्माण किया गया, उसने श्रमिक वर्ग की दरिद्रता को इस समाज के विकास की आवश्यक शर्त बना दिया।  एंगेल्स के शब्दों में:

“अपराधों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती गयी। पहले, सामंती दुराचार दिन-दहाड़े होता था; वह एकदम समाप्त तो नहीं हो गया, पर कम से कम पृष्ठभूमि में जरूर चला गया था। उसके स्थान पर पूंजीवादी अनाचार, जो इसके पहले परदे के पीछे हुआ करता था, अब प्रचुर मात्रा में होने लगा है। व्यापार अधिकाधिक धोखेबाजी बनता गया। क्रांतिकारी आदर्श सूत्र के “बंधुत्व” ने होड़ की ठगी और प्रतिस्पर्धा में मूर्त रूप प्राप्त किया। बलपूर्वक उत्पीड़न का स्थान भ्रष्टाचार ने ले लिया। समाज में ऊपर उठने के प्रथम साधन के रूप में तलवार का स्थान सोने ने ग्रहण कर लिया। लड़कियों के साथ पहली रात को सोने का अधिकार सामंती प्रभुओं के बजाय पूंजीवादी कारखानेदारों को मिल गया। वेश्यावृत्ति में इतनी अधिक वृद्धि हो गयी, जितनी कभी नहीं सुनी गयी। विवाह प्रथा पहले की तरह अब भी वेश्यावृत्ति का कानूनी मान्यता प्राप्त रूप तथा उसकी सरकारी रामनामी बनी हुई थी, और इसके अलावा व्यापक परस्त्रीगमन उसके अनुपूरक का काम कर रहा था।  संक्षेप में, दार्शनिकों ने जो सुन्दर वायदे किये थे, उनकी तुलना में “बुद्धि की विजय” से उत्पन्न सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएं घोर निराशाजनक व्यंग चित्र प्रतीत होती थीं।” (ड्यूरिंग मतखंडन, 1877)

आज का पूंजीवाद निश्चय ही और अधिक सड़ गया है, सड़कर साम्राज्यवाद और एकाधिकारी पूंजीवाद में परिणत हो गया है। पूंजी पहले वित्त पूंजी और फिर अंतरराष्ट्रीय वित्त पूंजी बन गई जिसका मुख्य धंधा सट्टेबाजी करना बन चुका है। होड़, जिसकी चर्चा ऊपर एंगेल्स करते हैं, सामान्य से विश्वव्यापी, चौतरफा, अतिभयानक और हिंसक हो गया। दो-दो महाविनाशकारी विश्वयुद्घ इसी के परिणाम थे। इस तरह प्रबोधन काल का मासूम पूंजीवाद युद्ध, विनाश और महाविनाश का पर्याय बन गया है। आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में, एक तरफ, जिंसों और पूंजी के अतिउत्पादन, और, दूसरी तरफ, आम आबादी की बहुसंख्या के हो रहे अधिकाधिक संपत्तिहरण और स्वत्वहरण के कारण आज और भी जल्दी-जल्दी होने वाले आर्थिक संकट और मंदी ने संपूर्ण मानवजाति के सामने महाविनाश और फासीवाद की स्थिति पैदा कर दी है। पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की अंतर्भूत बाधाएं, अतार्किकतायें और अंतर्विरोध आज और भी ज्यादा खुलकर सामने आ गयी हैं। आज के सट्टेबाज पूंजीवाद के युग में समाज की व्यापक आबादी और भी अधिक तबाही झेलने के लिए बाध्य है। ऐसी  हालत  में  पूंजीवाद को इतिहास के रंगमंच से बाहर धकेलना और नयी समाज व्यवस्था का निर्माण करना जरूरी है। आज के हालात को देखकर कोई भी यही कहेगा कि अगर ऐसा नहीं हुआ और पूंजीवाद को इतिहास के बाहर का दरवाजा नहीं दिखाया गया, तो स्वयं पूंजीवादी जनतंत्र का और समस्त मानवजाति का ही महाविनाश हो जायेगा। दो-दो महायुध्दों को देखने और उत्पादक शक्तियों, सभ्यता और संस्कृति के लगातार किये जा रहे विनाश, और पूरे विश्व में फासीवादी ताकतों के उभार व राजसत्ता में आगमन को देखते हुए कहा जा सकता है कि उपर्युक्त अंदेशा आधारहीन नहीं है। 

और तब, इसके बाद यह सवाल तुरंत ही खड़ा हो जाता है कि इस काम को कौन वर्ग कर सकता है? कौन है वह वर्ग जो फासीवाद और उसकी जननी पूंजीवाद से वास्तव में, अंतिम दम तक और सर्वाधिक क्रांतिकारिता के साथ लड़ने की क्षमता रखता है? कौन है वह वर्ग जो बिना मुनाफा के जिंदा रह सकता है,  मुनाफा रहित याने अतिरिक्त श्रम का शोषण किये बिना उत्पादन व्यवस्था का संचालन कर सकता है और राज-काज चला सकता है? कौन है वह वर्ग जिसके शासन व राजनीतिक प्रभुत्व की शुरूआत से ही स्वयं शासन चलाने, शासन-दमन चलाने के लिए किसी ‘राज्य’ को कायम रखने और एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी का शोषण करने की आवश्यकता धीरे-धीरे खत्म होने लगती है, और, सर्वोपरि बात यह कि, जिसके राजनीतिक प्रभुत्व के अंतर्गत स्वयं वर्गों के अस्तित्व को ख़त्म करने की भौतिक तैयारी शुरू हो जाती है?  निस्संदेह ऐसा वर्ग सर्वहारा वर्ग के अतिरिक्त और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। एक सर्वहारा वर्ग ही है जिसकी मुक्ति, अस्तित्व और जिसके प्रभुत्व के लिए स्वयं वर्गों का मिटना जरूरी है।

“सर्वहारा” अखबार मजदूर वर्ग के इसी ऐतिहासिक मिशन, कर्तव्य और लक्ष्य को स्वर प्रदान करती है। 

कार्ल मार्क्स की निम्नलिखित बातें “सर्वहारा” के उद्देश्यों को और साफ कर देती है-

“जब सर्वहारा विजयी होता है, तो यह समाज का कदाचित निरपेक्ष पहलू नहीं बनता है, क्योंकि वह केवल अपना और अपने विरोधी का उन्मूलन करके ही विजयी होता है। तब सर्वहारा लुप्त हो जाता है और साथ उसके विरोधी का, निजी सम्पति का भी, जो उसे जन्म देती है, लोप हो जाता है।” … “जब समाजवादी लेखक यह विश्व ऐतिहासिक भूमिका सर्वहारा वर्ग की बताते हैं, तो इसका कारण, जैसा कि आलोचनात्मक आलोचना विश्वास करने का दावा करती है, कदापि यह नहीं है कि वे सर्वहारा को देवता मानते हैं। बात इसके उलट है। चूंकि पूर्ण रूप से गठित सर्वहारा वर्ग में सभी मानवीय चीजों से, मानवीय चीजों के आभास तक से पृथक्करण लगभग पूरा हो गया है; चूंकि सर्वहारा वर्ग के जीवन की अवस्थाओं में आज के समाज के जीवन की तमाम अवस्थाओं का सर्वाधिक अमानवीय रूप में समाहार है; चूंकि सर्वहारा में मनुष्य अपने को खो बैठा है, परंतु, साथ ही उसने इस खोने की सैद्धांतिक चेतना हासिल ही नहीं की है, अपितु वह तात्कालिक, अब दूर न की जा सकने वाली, अब छुपायी न जा सकने वाली, सर्वथा अपरिहार्य आवश्यकता – अनिवार्यता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति – के जरिये इस अमानवीयता के विरुद्ध सीधे विरोध करने के लिए विवश है, तो इसका अर्थ यह निकलता है कि सर्वहारा अपने को स्वतंत्र कर सकता है तथा उसे ऐसा करना होगा। परंतु, वह अपने जीवन की अवस्थाओं का उन्मूलन नहीं कर सकता है। श्रम के कठोर, परंतु, तापने-मांजने वाले विद्यालय से वह व्यर्थ ही नहीं गुजरता है। सवाल यह नहीं है कि यह या वह सर्वहारा अथवा पूरा सर्वहारा वर्ग इस क्षण में किसे अपना लक्ष्य मानता है। सवाल तो यह है कि सर्वहारा क्या है और इस अस्तित्व के अनुसार वह ऐतिहासिक दृष्टि से क्या करने के लिए विवश होगा। उसका लक्ष्य तथा उसका ऐतिहासिक मिशन स्वयं उसकी जीवन-स्थिति में और साथ ही आज के बुर्जुआ समाज के पूरे संगठन में सर्वथा स्पष्ट रूप से और अटलतापूर्वक पूर्वलक्षित है।” (पवित्र परिवार, 1845)


‘सर्वहारा’ के पाठकों व शुभचिंतकों से दो बातें

‘सर्वहारा’ मजदूर वर्ग एवं इसके शुभचिंतकों के सहयोग के बल पर प्रकाशित होने वाला पाक्षिक अखबार है जिसे उचित समय पर एक दैनिक अखबार का रूप देना हमारी प्राथमिकता है। हमारा यह प्रयास है कि यह मजदूर वर्ग का राजनैतिक संगठनकर्ता बनने के साथ-साथ इसके विश्व ऐतिहासिक मिशन के प्रति समर्पित हो और पूंजीवाद के अब तक के सबसे पतनशील दौर में तमाम उत्पीड़ितों-शोषितों की एक प्रखर और विवेकसम्‍मत आवाज बने। इसका मतलब खबरों का अंबार लगाना भर नहीं है। इसका वास्‍तविक अर्थ खबरों का सर्वहारा वर्गीय दृष्टिकोण से विश्‍लेषण करना है। इसलिए इसे यथासंभव सही दिशा से लैस करना एक अहम कार्यभार है। तभी हम इसे मजदूर वर्ग के समग्र कार्यभारों की पूर्ति करने वाला अखबार बना सकते हैं। जाहिर है, यह एक कष्टसाध्य काम है जिसे करने के लिए सही अर्थ में पेशेवर होना जरूरी है। आज विश्वपूंजीवाद में नियमित तौर पर विस्फोट हो रहे हैं। इसका मतलब यह है कि मजदूर वर्ग के लिए यह एक कठिन दौर और जिम्‍मेवारियों का समय है। इसलिए भी सही दिशा से लैस एक नियमित अखबार की जरूरत बढ़ गई है। उम्‍मीद है कि हम इस बार असफल नहीं होंगे। इसके लिए हमने “दो कदम पीछे हटकर चार कदम आगे बढ़ने” की नीति बनाई है। हालांकि सबसे मुश्किल काम अखबार की भाषा को जटिल होने से बचाना है। कहने का मतलब है, जटिल परिस्थितियों की विवेचना करने में जटिल भाषा से बचना होगा, जो वास्‍तव में एक कठिन काम है। इसे क्रमश: सीखना होगा। साथियों, हमें आपसे आर्थिक सहयोग मिलता रहा है और आगे भी मिलता रहेगा इसका पक्‍का भरोसा है। आज हम मजदूर वर्ग के अगुआ तत्वों से अपील करना चाहते हैं कि वे हमारी विशेष रूप से मदद करें। वे जहां भी हों, वहां से जन साधारण के बीच व्‍याप्त बेचैनी और सरगर्मी की जीवंत रिपोर्टिंग करें। इसलिए जरूरी है कि आप और हम, यानी हम सभी मजदूर-मेहतनकश वर्ग की अवश्‍यंभावी एवं नजदीक आती जा रही जीत में यकीन को बनाये रखें और सक्रिय रहें।

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