सेंट्रल ट्रेड यूनियनों ने स्थगित की 20 मई की देशव्यापी मजदूर हड़ताल।
वक्त आ गया है, मजदूर वर्ग अपने आंदोलन का एक नया केंद्र बनाने की तैयारी में लगे!
साथियों,
इस बार दस सेंट्रल ट्रेड यूनियनों ने तपती गर्मी में 20 मई 2025 को हड़ताल की घोषणा की थी। लगा था कि हड़ताल की गर्मी से मौसम की गर्मी कटेगी। लेकिन अफसोस, 15 मई की शाम तक हड़ताल को टाल कर 9 जुलाई को करने की घोषणा सोशल मीडिया पर तैरने लगी। इसी के साथ मौसम की तपती गर्मी सड़ी हुई उमस से भर गई। पूंजीपति वर्ग के हमलों के आगे मजदूर वर्ग आज जिस तरह से बेबस, लाचार, अकेला और वैचारिक रूप से निहत्था पड़ा है, यह देखकर मजदूर वर्ग की दर्दनाक स्थिति को समझा जा सकता है। यह दृश्य ही मन में घुटन पैदा करने के लिए काफी है।
मजदूर साथियों, सरकारी मान्यताप्राप्त केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का एक लंबा इतिहास है। यह इतिहास बताता है कि ये समझौतापरस्त और मौकापरस्त दोनो हैं, और मौका मिलते ही पीछे हटने या घुटने टेकने में माहिर हैं। मौका चाहे वास्तविक हो या बनावटी, इससे कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हम देखते हैं कि पहलगाम की घटना के बाद जब युद्ध छिड़ने की स्थिति प्रबल थी तो इन्होंने कहा कि हड़ताल की तैयारी पूरी शक्ति से चल रही है। लेकिन जब सीजफायर हो गया और युद्ध के बादल छंट गये तो इन्होंने हड़ताल को आगे के लिए टाल दिया, जो काफी हैरानी और दुख की बात है। हालांकि एक दिन की यह हड़ताल भी कोई फैसलाकुन लड़ाई शुरू करने के लिए नहीं, बस संघर्ष की एक रस्मअदायी भर थी। लेकिन इन्होंने इससे भी फिलहाल हाथ खींच लिये। जहां तक 9 जुलाई की बात है, तो इनके रवैये को देखते हुए वह हड़ताल होगी इसे तय नहीं माना जा सकता है। हम यह भी कहना चाहते हैं कि इस तरह की एक दिनी हड़ताल, जो संघर्ष की एक रस्मअदायगी से ज्यादा कुछ नहीं है, को केंद्र में रखकर चर्चा करते रहने से बहुत कुछ निकलने वाला नहीं है। हम जानते हैं कि मजदूर वर्ग की लड़ाई को आगे बढ़ाने में इसका न तो पहले कोई बड़ा योगदान रहा है और न ही आगे रहने वाला है। इसलिए जहां तक वास्तविक मजदूर आंदोलन की बात है, तो मजदूर वर्ग को आंदोलन का नया वैकल्पिक केंद्र निर्मित करना होगा। और कोई विकल्प नहीं है। यह आसान नहीं, बहुत ही कठिन है। लेकिन इसे प्रस्तुत करना व उठाना हम जरूरी समझते हैं।
आज जब हम मजदूर आंदोलन के एक नये वैकल्पिक केंद्र की बात कर रहे हैं तो इस मुख्य प्रश्न पर विचार करना लाजिमी है कि ऐसा आखिर क्यों है कि ये यूनियनें, जिनमें से अधिकांश का इतिहास बहुत ही क्रांतिकारी और लड़ाकू रहा है, आज मौका मिलते ही पीछे हट जाती हैं? इसलिए कि ये आज की तारीख में सुधारवादी और सुविधावादी हो गयी हैं। मजदूर वर्ग के अधिकारों व सुविधाओं के लिए आज ये सरकार से इसी सीमित दृष्टि से लड़ती हैं। पूंजीवादी व्यवस्था तथा पूंजीपति वर्ग से इनका टकराव यहीं तक सीमित हो चुका है – जिसमें यह पहले से तय है कि ये पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ नहीं जा सकते हैं, चाहे मजदूर वर्ग पर दुखों का बड़ा पहाड़ ही क्यों न टूट जाए।
आज जब मजदूर वर्ग पर लगातार बड़े हमले हो रहे हैं, तो यह स्वाभाविक है कि इसके खिलाफ होने वाला मजदूर आंदोलन इनकी इस वैचारिक-राजनीतिक सीमा को तोड़ने की मांग करेगा। पूंजीवादी व्यवस्था के संकट को देखते हुए यह भी तय है कि मजदूर वर्ग की जरूरत एक फैसलाकुन व निर्णायक लड़ाई की है। उसका दबाव भी बन रहा है। लेकिन इनकी वैचारिक-राजनीतिक समझ व विचारधारा इन्हें आगे बढ़ने से रोकती है। तब ये पीछे हटने के लिए बाध्य हो जाती हैं। सांगठनिक क्षमता या अक्षमता की बात अपनी जगह है, लेकिन यहां उनकी सोच और विचारधारा पर गौर करना ज्यादा जरूरी है।
यह भी विचार करने योग्य बात है कि तात्कालिक-आर्थिक मांगों के लिए होने वाली कोई भी निर्णायक लड़ाई, विश्वपूंजीवाद के लगातार संकटग्रस्त होने की वजह से, हर सीमा को तोड़ने की ओर प्रवृत्त होगी और वह समग्रता में पूंजीवादी व्यवस्था को चुनौती देने वाली लड़ाई में तब्दील होने का गुण प्रदर्शित करेगी। अगर सच में मजदूर वर्ग की ऐसी कोई लड़ाई छिड़ जाए, तो वह वर्गीय लाक्षणिकता व स्वभाव से अपने नेतृत्व की इच्छा के विरुद्ध पूंजीवादी व्यवस्था से टकराने की ओर बढ़ सकती है। यह बात भी इन यूनियनों को आर-पार की लड़ाई में उतरने से रोकती है। 1991 के बाद से जो क्रूर पूंजीवादी हमले शुरू हुए उसने दरअसल शुरू में ही इनके समक्ष ऐसे ही निर्णायक संघर्ष की मांग प्रस्तुत कर दी थी। लेकिन इनकी सोच इसके अनुरूप न तब थी और न आज है। इस बीच पूर्व में मजदूर वर्ग के सारे जीते गए किले ध्वस्त हो चुके हैं।
जाहिर है, इसमें मुख्य सवाल सांगठनिक नहीं वैचारिक-राजनीतिक है। जो आज की तारीख में भी बुनियादी क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत को नही समझते हैं, वे मजदूर वर्ग की निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ सकते, चाहे मुद्दा तात्कालिक-आर्थिक ही क्यों न हो। जिनका विचार इसी व्यवस्था में सुधार तक सीमित है, जबकि सुधार की कोई ज्यादा गुंजाइश बची नहीं है, वे चाहकर भी निर्णायक मजदूर आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते।
आज विश्वपूंजीवादी व्यवस्था गहन संकट में फंसी है। मजदूरों पर ही नहीं समाज के अन्य तबकों पर भी निर्मम हमला हो रहा है। अधिकांश आबादी की आर्थिक तबाही हो रही है। पूरे विश्व में पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में आर्थिक संकट और मंदी की समस्या गहरी ही नहीं स्थाई बन चुकी है। इसलिए आज का कोई भी वास्तविक मजदूर आंदोलन तीखा और निर्णायक ही होगा। इस कारण से सुधारवादी और संशोधनवादी राजनीति के लिए आज कोई ज्यादा स्पेस ही नहीं बचा है।
साथियों, ऐसे में मजदूर वर्ग के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि वह आंदोलन का नये केंद्र बनाने हेतु कोशिश तेज करे, वक्त की मांग के अनुसार आचरण करे, और फैसलाकुन लड़ाई – यानी पूंजी के प्रभुत्व को संपूर्ण रूप से चुनौती देने वाली लड़ाई – के लिए तैयारी करे, तथा इसके लिए त्याग और बलिदान की परंपरा को दुबारा से शुरू करे। मजदूर वर्ग को यह समझना होगा कि इसके बिना काम नहीं चलने वाला है। जो यह नहीं समझते कि पूंजीपति वर्ग के प्रभुत्व को पूरी तरह से खत्म करना जरूरी है, वे आज के दौर में किसी काम के नहीं हैं और उनके नेतृत्व में फैसलाकुन लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है।
मजदूर साथियो! आइए इस ओर बढ़ें, भले ही यह रास्ता असीम कठिनाइयों से भरा हो। इसके अतिरिक्त अब कोई रास्ता नहीं है। निर्णायक लड़ाई की बात आज इसी से तय होगी कि मजदूर वर्ग और इसके नेतृत्वकर्ता पर किस तरह की राजनीति हावी है। अगर मजदूर यह समझते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में सरकारों की अदला-बदली से मजदूर वर्ग की भलाई हो सकती है या पूंजीवादी व्यवस्था का बेहतर प्रबंधन कर इसे मजदूरपक्षीय या जनपक्षीय बनाया जा सकता है, और मजदूर वर्ग का काम समाज में बुनियादी परिवर्तन लाना नहीं, मात्र अपनी सुविधाओं के लिए लड़ना है, तो यह गलत है। सेंट्रल ट्रेड यूनियनों की इसी सोच ने मजदूर वर्ग का आज यह हश्र किया है। इसी से जुड़ी एक और बात यह है कि इसी क्रम में मजदूर वर्ग अपने आप को एक क्रांतिकारी वर्ग के रूप में पुनर्गठित करना शुरू कर सकता है, जिसके लिए एकमात्र तात्कालिक आर्थिक मांगो पर जोर देना सही नहीं होगा। आर्थिक-तात्कालिक मांगों पर लड़ाई के साथ-साथ शुरू से ही बुर्जुआ वर्ग का संपूर्ण और जीवंत राजनीतिक भंडाफोड़ करना आवश्यक है, और समस्त मानवजाति को शोषण व उत्पीड़न के दंश से मुक्त करने का कार्यभार किस तरह मजदूर वर्ग के कंधों पर है इसे भी आर्थिक मांगों के साथ और स्वतंत्र तरीके से उठाना आवश्यक है। उम्मीद है, जो विकट परिस्थिति मजदूर वर्ग को घेरे हुए है वह इसके सचेत हिस्से को इस दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देगा।
क्रांतिकारी अभिनन्दन के साथ,
इंडियन फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियंस (सर्वहारा)