30 दिसंबर 2024, पश्चिम बंगाल
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[कॉमरेड सुनील पाल की 15वीं शहादत वर्षगांठ पर आयोजित शहीद रैली की रिपोर्ट (29 दिसंबर 2024, हरिपुर) यहां पढ़ें]
मजदूर नेता के क्रांतिकारी नेता कॉमरेड सुनील पाल की 15वीं शहादत वर्षगांठ के अवसर पर पीआरसी, सीपीआई (एमएल) और आईएफटीयू (सर्वहारा) द्वारा पश्चिम बंगाल के पश्चिम बर्धमान जिले के आसनसोल बार एसोसिएशन हॉल में 30 दिसंबर 2024 को “फासीवादी दौर में महिलाओं पर बढ़ता उत्पीड़न और महिला मुक्ति का प्रश्न” विषय पर एक कन्वेंशन का आयोजन किया गया।
इसमें क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन नेताओं, बुद्धिजीवियों और मजदूरों के साथ-साथ 16 क्रांतिकारी संगठनों के प्रतिनिधियों सहित 100 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इनमें सीपीआई (एमएल), सीपीआई (एमएल) रेड स्टार, सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी, सीपीआई (एमएल) मास लाइन, सर्वहारा जनमोर्चा, इंकलाबी मजदूर केंद्र, लाल झंडा मजदूर यूनियन (समन्वय समिति), चिंतन पत्रिका, मंथन पत्रिका, ऑल इंडिया वर्किंग विमेंस लीग, श्रम मुक्ति संगठन, कम्युनिस्ट चेतना केंद्र, मजदूर सहायता समिति, श्रमिक संग्राम कमिटी, ईसीएल ठेका श्रमिक अधिकार यूनियन, आसनसोल सिविल राइट्स एसोसिएशन, खान मजदूर कर्मचारी यूनियन शामिल थे। कुल 12 वक्ताओं ने इस विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किए।






कार्यक्रम की शुरुआत कॉमरेड कंचन के स्वागत भाषण और सभी क्रांतिकारी शहीदों की याद में एक मिनट का मौन रखने से हुई, उसके बाद अरुणोदय सांस्कृतिक टीम द्वारा बांग्ला भाषा में शहीद गीत “अमरा केमोन कोरे भूली गो” प्रस्तुत किया गया। इसके बाद पीआरसी और आईएफटीयू (स) से कॉमरेड अजय सिन्हा, कन्हाई बरनवाल, आकांक्षा, विदुषी और कंचन ने प्रेसीडियम ने अपनी जगह ली।
चर्चा की शुरुआत कॉमरेड अजय सिन्हा (महासचिव, पीआरसी सीपीआई एमएल) द्वारा विषय पर आधार पत्र प्रस्तुत करने से हुई। पत्र में पितृसत्ता और फासीवाद के अंतर्संबंध पर चर्चा की गई है, जिन दोनों की जड़ें पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की वर्तमान शोषणकारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में निहित हैं, जिसमें फासीवाद और कुछ नहीं बल्कि उसके वर्ग शासन का नग्न रूप है जो वित्तीय पूंजी के सबसे घटिया तत्वों के हितों की सेवा करता है। आधार पत्र पूंजीवाद के अनुत्क्रम्नीय संकट और पतन के दौर में महिलाओं पर बढ़ते अत्याचारों पर जोर देता है, जिसने एक तरफ घृणित विभाजनकारी फासीवादी आंदोलन को प्रायोजित करके और दूसरी तरफ महिला कामुकता के वस्तुकरण (कमोडिफिकेशन) और शोषण के माध्यम से महिला शरीर को निशाना बनाकर समाज के सर्वांगीण नैतिक-वैचारिक-सांस्कृतिक पतन को बढ़ावा दिया है। नाजी जर्मनी और फासीवादी इटली जैसे ऐतिहासिक उदाहरणों का हवाला देते हुए पत्र इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे फासीवादी विचारधाराएं पितृसत्तात्मक संरचनाओं को मजबूत करती हैं, महिलाओं को घरेलू भूमिकाओं तक सीमित कर देती हैं और साथ ही उन्हें नस्लीय शुद्धता और (भारत में) जातीय विभेदों को सुदृढ़ करने के ‘राष्ट्रवादी’ लक्ष्यों के लिए बच्चे पैदा करने और उन्हें पालने की मशीन के रूप में उपयोग करती हैं।
आधार पत्र फ्रेडरिक एंगेल्स और ऑगस्ट बेबेल के अध्ययनों के माध्यम से इतिहास में महिलाओं की अधीनता पर प्रकाश डालता है, जो उत्पादन के तरीके और सामाजिक जीवन में अपरिहार्य परिवर्तन के परिणामस्वरूप मातृ-अधिकार के उखाड़ फेंके जाने के बाद निजी संपत्ति और पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचना के उद्भव का नतीजा था। इसके माध्यम से, यह तर्क पेश किया गया है कि महिलाओं की मुक्ति निजी संपत्ति (और इसलिए, पूंजीवाद) के उन्मूलन और समाजवाद की स्थापना से अविभाज्य है। पत्र महिलाओं की मुक्ति के नारीवादी (फेमिनिस्ट) दृष्टिकोण की भी आलोचना करता है, जो एक बुर्जुआ विचारधारा होने के कारण निजी संपत्ति को चुनौती नहीं देता है और इसलिए, मुक्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने में असमर्थ है। यह पत्र एक तरफ जघन्य बलात्कारों (आरजी कर, निर्भया आदि) के खिलाफ चल रहे और हाल में बीत चुके आंदोलनों की सीमाओं को भी उजागर करता है, जो पितृसत्ता और फासीवाद को बनाए रखने वाले सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं को अपना निशाना नहीं बनाते, और केवल चंद कानूनी सुधारों तक खुद को सीमित कर लेते हैं; वहीं दूसरी तरफ वो इन आंदोलनों को पूंजीवाद और उसके साथ पितृसत्ता और फासीवाद को उखाड़ फेंकने की लड़ाई के साथ जुड़े महिला मुक्ति के क्रांतिकारी मार्ग को अपनाने का आह्वान करता है।
[आधार पत्र प्रस्तुति वक्तव्य का विडियो। आधार पत्र पढ़ने हेतु यहां क्लिक करें।]
‘लाल झंडा मजदूर यूनियन (समन्वय समिति)’ से कॉमरेड सोमेंदु गांगुली ने कहा कि पूंजीवादी व्यवस्था में स्त्री कामुकता हमेशा से ही एक माल (कमोडिटी) रही है। पहले जहां इसका उपभोग पितृसत्तात्मक परिवार तक ही सीमित था, वहीं अब बुर्जुआ व्यवस्था के विकास के साथ इसका बाजारीकरण भी कर दिया गया है। उन्होंने बताया कि पिछली सदी में बुर्जुआ व्यवस्था में वेश्यावृत्ति और यौन रोगों को खत्म करने के उद्देश्य से कई सेमिनार और कार्ययोजनाएँ बनाई गईं, लेकिन 200 साल के बुर्जुआ शासन के बाद भी यह लक्ष्य हासिल नहीं हो सका, जबकि सोवियत संघ ने रूसी समाजवादी क्रांति के 20 साल बाद ही यह लक्ष्य हासिल कर लिया था; और आज, जब बुर्जुआ व्यवस्था पूरी तरह से विफल हो गई है, तो उसने वेश्यावृत्ति का महिमामंडन करना शुरू कर दिया है। वह इसे मुख्य रूप से मजदूर वर्ग की महिलाओं के लिए रोजगार के एक व्यावहारिक विकल्प के रूप में पेश करता है। मजदूर वर्ग की ताकतों को शासक वर्ग के इस विश्वासघात को उजागर करना चाहिए और महिलाओं की वास्तविक मुक्ति की दिशा में एक रास्ता बनाने के लिए अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों को प्रस्तुत करना चाहिए। वर्तमान में चल रहे महिला आंदोलन के बारे में उन्होंने तर्क दिया कि निर्भया से लेकर अब अभया तक सामाजिक स्तर पर पितृसत्ता विरोधी आंदोलन कुछ हद तक विकसित हुआ है, लेकिन यह अभी भी बुर्जुआ दृष्टिकोण की सीमाओं के भीतर है। जब मजदूर वर्ग की ताकतें इस दृष्टिकोण की सीमाओं को उजागर करती हैं और सर्वहारा दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं, तो नारीवादी ताकतें हम पर पितृसत्ता का समर्थक होने का आरोप लगाती हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर आज मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण से हस्तक्षेप नहीं किया गया तो महिला आंदोलन बुर्जुआ धुरी के इर्द-गिर्द ही घूमता रहेगा जो मुक्ति तो दूर, कोई सार्थक जगह तक भी नहीं ले जाएगा। [पूरा भाषण]
‘सीपीआई (एमएल) रेड स्टार’ से कॉमरेड शंकर ने कहा कि महिलाओं की मुक्ति मज़दूर वर्ग के लिए सिर्फ़ एक कार्यनीतिक सवाल नहीं है, बल्कि एक रणनीतिक सवाल है, जिस पर ध्यान दिए बिना कोई कम्युनिस्ट पार्टी बन ही नहीं सकती। उन्होंने कहा कि मातृ-अधिकार के खात्मे और निजी संपत्ति की उत्पत्ति के बाद पुरुष द्वारा महिला की विश्व ऐतिहासिक पराजय के बाद से ही महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष की जमीन तैयार हो गई थी, जैसा कि एंगेल्स ने कहा था। इसलिए महिलाओं की मुक्ति के संबंध में विरोधाभास सिर्फ़ महिला बनाम निजी संपत्ति (जैसा कि आधार पत्र में कहा गया है) नहीं है, बल्कि महिला बनाम पुरुष भी है, क्योंकि, उन्होंने तर्क दिया, ‘महिला-पुरुष’ और लिंग सिर्फ़ जैविक पद्धति (बायोलॉजिकल कंस्ट्रक्ट) नहीं है, बल्कि सामाजिक पद्धति (सोशल कंस्ट्रक्ट) है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि नारीवाद की कई धाराएँ हैं और जिस धारा की आधार पत्र में आलोचना की गई है, वह बुर्जुआ उदारवादी नारीवाद के लिए सही है, लेकिन मार्क्सवादी नारीवाद के लिए नहीं। हालांकि यह सच है कि बुर्जुआ नारीवादी तत्वों ने हाल के और चल रहे महिला आंदोलनों पर आधिपत्य जमा रखा है, जो संघर्षों के ‘अराजनीतिकरण’ और अधिक लामबंदी के लिए विचारधारा को कमजोर करने पर जोर देते हैं, जैसा कि आर जी कर आंदोलन में चल रहे विरोधों में भी देखा जा सकता है। ऐसे नेतृत्व की आलोचना करना और अंततः उसे बदलना हमारा उद्देश्य होना चाहिए अन्यथा आंदोलन भटकाव और पराजय का शिकार होंगे। उन्होंने कहा कि महिला आंदोलन में मजदूर वर्ग की विचारधारा लाना जरूरी है क्योंकि महिलाओं की मुक्ति निजी संपत्ति और पूंजीवाद के उन्मूलन से ही संभव है, क्योंकि आधुनिक परिवार के भीतर के अंतर्विरोध सभी सामाजिक अंतर्विरोधों और राज्य के भीतर के अंतर्विरोधों से जुड़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय फासीवाद के आधार यानी मनुवाद-ब्राह्मणवाद पर पत्र में अपर्याप्त चर्चा हुई है; इसे महिला मुक्ति के प्रश्न में लाना जरूरी हो जाता है क्योंकि इसी आधार पर महिलाओं और शूद्रों की स्थिति को समान (अधिकारविहीन) माना गया है, जिसे आज फासीवादी लागू कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय इतिहास में मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मक समाज के विकास के संदर्भ में, मॉर्गन-एंगेल्स थ्योरम (जिसकी चर्चा आधार पत्र में की गई है) की तुलना में देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय-कोसांबी थ्योरम अधिक प्रासंगिक और सटीक है, जो इस विकास को सीधे रास्ते के बजाय ज़िगज़ैग पैटर्न में घटित होते हुए दर्शाता है। उन्होंने कहा कि रोजावा (कुर्दिस्तान) में किया जा रहा प्रयोग सभी आलोचनाओं के बावजूद उल्लेखनीय है और आज के विषय के संदर्भ में उस पर चर्चा की जानी चाहिए। [पूरा भाषण]
‘चिंतन’ पत्रिका की कॉमरेड मुनमुन ने कहा कि फासीवाद का महिला प्रश्न के साथ संबंध है और हालांकि यह प्रश्न कम्युनिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण रहा है, हम अभी तक समकालीन मानक के स्तर तक समझ विकसित नहीं कर पाए हैं। अब भी हम केवल एंगेल्स की किताब का वर्णन करते रहते हैं जबकि इसकी अपनी सीमाएं हैं, और हमारा निष्कर्ष अब भी यही है कि महिला प्रश्न निजी संपत्ति के खात्मे के साथ ही समाप्त हो जाएगा और सर्वहारा तानाशाही के तहत पितृसत्ता तुरंत समाप्त हो जाएगी। इस संदर्भ में मार्क्स की एथनोलॉजिकल नोटबुक, जो अब उपलब्ध है, पर विभिन्न मार्क्सवादियों के कार्य प्रासंगिक हैं। पीआरसी द्वारा प्रस्तुत पेपर का अंतिम भाग में उसी निराशा की ओर ले जाता है, हालांकि फासीवाद महिलाओं के प्रति अधिक अत्याचारी क्यों है, इस पर विस्तृत चर्चा और कुछ बहसों से इसकी अच्छी शुरुआत होती है। पेपर में कहा गया है कि पोर्नोग्राफी व बाजार द्वारा प्रस्तुत विकृत कामुकता बलात्कार और हत्याओं में वृद्धि के कारण हैं। दस साल पहले निर्भया कांड के बाद भी इसी तरह की बहस शुरू हुई थी कि मेट्रो शहरों में महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा के लिए सत्ता (पावर) को दोषी ठहराया जाए या कामुकता को। यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता की अवस्थिति (पावर पोजीशन) भी बलात्कार के लिए दुस्साहस प्रदान करती है। आरजी कर मामले में संस्था प्राधिकरण के पावर पोजीशन ने यही भूमिका निभाई। पेपर की मुख्य सीमा यह हो सकती है कि यह फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में महिलाओं की क्षमता के बारे में कुछ भी विस्तार से नहीं बताता है। हम कम्युनिस्ट आंदोलन के हिस्से के रूप में केवल सोवियत रूस और 100 साल पहले महिलाओं की मुक्ति के लिए अपनाए गए फरमानों की बात कर रहे हैं। इस बीच महिलाओं ने बहुत कुछ अनुभव किया है और दोहरा बोझ उठाने के बावजूद अपने श्रम, बुद्धि और रचनात्मकता से समाज में योगदान दिया है। बुर्जुआ नारीवाद की अपनी सीमाएं हैं, लेकिन यह महिलाओं को उनकी भूमिका को पहचान कर आकर्षित कर सकता है। नारीवाद की छत्रछाया में समाज में महिलाओं की दुर्दशा को संबोधित करने वाले साहित्य लोकप्रिय हुए हैं। यह सोचने का भी समय है- क्या नारीवाद को पूरी तरह से खारिज करना मजदूर वर्ग की धुरी के लिए फायदेमंद होगा, या हमें कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर महिलाओं के व्यक्तिपरक अनुभव को समझने और महिला प्रश्न पर अपनी सर्वहारा धुरी विकसित करने के लिए और अधिक सोचने की जरूरत है। पहले दो वक्ताओं ने आरजी कर आंदोलन के कुछ बुर्जुआ नारीवादी लक्षणों का उल्लेख किया है, लेकिन वे इसके एकमात्र लक्षण नहीं हैं। महिलाओं ने रात के संबंध में राज्य के संरक्षणवादी दृष्टिकोण को घृणापूर्वक खारिज कर दिया है। रातों को पुनः प्राप्त करो और अधिकारों को पुनः प्राप्त करो (रिकेल्म द नाईट, रिक्लेम डी राइट्स) आंदोलन ने सारे भ्रमों को ख़त्म कर यह स्पष्ट किया है कि महिलाओं का रात में सभी स्थानों पर समान हक़ होना चाहिए, बल्कि उनकी असुरक्षा का कारण ख़त्म किया जाना है। आरजी कर आंदोलन का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसने सबसे पहले फासीवादी आरएसएस-भाजपा को खारिज किया है, क्योंकि महिलाओं के मुद्दे सबसे आगे हैं। हमें भोंडा शुद्धतावादी (प्यूरिटन) बने बिना, सर्वहारा धुरी के अनुकूल संभावनाओं को चिह्नित करना चाहिए। एक अन्य पहलू भी पहले के एक वक्ता ने उठाया था, कि बुर्जुआ नारीवादियों द्वारा वेश्यावृत्ति को सेक्स वर्क कहा जाना महिलाओं के लिए अपमानजनक है। मेरा मानना है कि हमें वेश्यावृत्ति को वैध बनाने, जो कि पूंजी के पक्ष में किया जा रहा है, के बजाय पहले इसके अपराधीकरण को समाप्त करने की मांग करनी चाहिए, क्योंकि हमें पता होना चाहिए कि कौन सी महिलाएं किन अनिश्चित परिस्थितियों में वेश्यावृत्ति में हैं, और एक बार जब वे वेश्या बन जाती हैं तो उन्हें बिना किसी मानवाधिकार के अपराधी मान लिया जाता है। अंत में, ‘समाजवाद’ के तुरंत बाद महिलाओं के मुद्दे हल नहीं होंगे। ऊपर से प्रगतिशील फरमानों से सोवियत रूस में भी दीर्घकालिक तौर पर कुछ नहीं बदल पाया था। समाजवाद के संघर्ष के हर क्षेत्र और हर चरण में महिलाओं की एजेंसी की व्यक्तिपरक क्षमता को संबोधित करने की आवश्यकता है। [पूरा भाषण]
‘सीपीआई (एमएल)’ से कॉमरेड आलोक मुखर्जी ने फासीवाद के इतिहास और वर्ग चरित्र पर प्रकाश डाला और इसे पूंजीवाद और खासकर बड़े पूंजीपतियों के गहराते संकट से जोड़ा। उन्होंने नाजी जर्मनी और मुसोलिनी के इटली में फासीवादी शासन के विकास और सुदृढ़ीकरण पर विस्तार से चर्चा की और तब की तथा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उभरी सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों में अंतर पर भी प्रकाश डाला – नामतः कल्याणकारी राज्यों का निर्माण और 1960 के दशक के पश्चात संकटों के बाद उनका विघटन – और नवउदारवाद का आगमन, जिसने भारत जैसे देशों में फासीवाद के नए उभार को जन्म दिया। उन्होंने यह दिखाने के लिए आंकड़े प्रस्तुत किए कि कैसे नवउदारवादी नीतियों ने महिलाओं को रोजगार और सामाजिक जीवन में वंचित किया है। नारीवाद के विषय में, उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि इसमें कुछ गैर-बुर्जुआ धाराएं भी हैं जो मार्क्सवादी दृष्टिकोण के करीब हैं। [पूरा भाषण]






‘ऑल इंडिया वर्किंग विमेन लीग’ से कॉमरेड शिवानी ने इतिहास के उदाहरणों से लेकर आज के भारत की परिस्थितियों की तुलना करके फासीवादी शासन की विशेषताओं को प्रस्तुत किया, और बताया कि यह कैसे वह अपने शासन को मजबूत करने के लिए चरणों में आगे बढ़ता है। उन्होंने कहा कि फासीवाद महिलाओं को पूरी तरह से अधीन करने और उन्हें पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढांचे में धकेलने में विश्वास करता है, जैसा कि नाजी जर्मनी में ‘किंडर, कुचे, किर्चे’ (बच्चे, रसोई और चर्च) के नारे के साथ देखा गया था और महिलाओं का जीवन केवल इन तीनों के इर्द-गिर्द ही सीमित कर दिया गया था। उन्होंने महिलाओं के भीतर मौजूद वर्ग विभाजन पर प्रकाश डाला और कहा कि विभिन्न वर्गों (बुर्जुआ या सर्वहारा) की महिलाओं के अलग-अलग और अक्सर विरोधी हित होते हैं और सर्वहारा महिलाओं के हित मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के साथ संरेखित होते हैं। अंत में, उन्होंने कुछ तत्काल मांगें सूचीबद्ध कीं जिन्हें महिलाओं और मजदूरों के आंदोलन द्वारा फासीवाद और पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में महिलाओं को संगठित करने के लिए उठाया जाना चाहिए। [पूरा भाषण]
‘मंथन’ पत्रिका से कॉमरेड ओम प्रकाश ने बताया कि महिलाओं की मुक्ति मजदूर वर्ग की मुक्ति से जुड़ी हुई है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष को पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष से जोड़े बिना, जैसा कि नारीवाद करता है, पूंजीवाद के लिए फायदेमंद ही साबित होगा। उन्होंने पूंजीवाद की व्यापक विज्ञापन संस्कृति के माध्यम से महिलाओं के वस्तुकरण को समाज में नैतिक-सांस्कृतिक पतन के साथ जोड़ा, जिससे महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं, परंतु जिसका नारीवाद स्वतंत्रता के नाम पर समर्थन करता है। उन्होंने महिलाओं के विभिन्न वर्गों, जैसे घरेलू कामगार और उसकी महिला नियोक्ता, के अलग-अलग और अक्सर विरोधी वर्ग हितों पर प्रकाश डाला और महिला मुक्ति के इस प्रश्न से निपटने के लिए वर्गीय विश्लेषण करने का आह्वान किया। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि आज फासीवाद को केवल भाजपा से जोड़ना गलत होगा क्योंकि सभी शासक वर्ग की पार्टियां (कांग्रेस और स्थानीय पार्टियां सहित) पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के हितों की सेवा करती हैं और फासीवाद व उसके तत्वों को बढ़ावा देती हैं। अंत में, उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि महिलाओं की मुक्ति के लिए निजी संपत्ति की व्यवस्था को उखाड़ फेंकना होगा और शासक वर्गों द्वारा बनाए गए सभी ‘वादों’ (जातिवाद, धर्मवाद, नस्लवाद, दलितवाद, नारीवाद आदि) का सर्वहारा दृष्टिकोण से विरोध करना होगा। [पूरा भाषण]
‘कम्युनिस्ट चेतना केंद्र’ से कॉमरेड राम लखन ने कहा कि महिलाओं सहित सभी प्रकार के उत्पीड़न और शोषण पूंजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न होते हैं, और जनता के सभी संघर्षों को इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के संघर्ष के साथ जोड़ा जाना चाहिए ताकि सभी तबकों की मुक्ति हो सके। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और आरएसएस दोनों की स्थापना 1925 में हुई थी, लेकिन आज, एक सदी के बाद, फासीवादी ताकतें पहले से कहीं अधिक मजबूत हो गई हैं और शासन कर रहे हैं, जबकि हम कम्युनिस्ट विभाजित और कमजोर हैं, और इसका मुख्य कारण मजदूर वर्ग का वैचारिक निरस्त्रीकरण है। उन्होंने सभी क्रांतिकारी समूहों से अपने मतभेदों को अलग रखने और एकजुट होकर समाजवाद-साम्यवाद पर केंद्रित देश भर में एक वैचारिक आंदोलन शुरू करने का आह्वान किया। [पूरा भाषण]
‘सर्वहारा जनमोर्चा’ से कॉमरेड मुकेश असीम ने चर्चा की कि कैसे पूंजीपति वर्ग ने इतिहास के रंगमंच पर आने के साथ ही स्वतंत्रता, समानता और मानवतावाद के आदर्शों को पेश किया और कैसे क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के उदय और 1840 के दशक के बाद उन आदर्शों को वास्तव में साकार करने के लिए मुक्ति के उसके (सर्वहारा के) वर्ग संघर्ष के उठने के बाद, वही पूंजीपति वर्ग सर्वहारा वर्ग को कुचलने और समाज में ‘व्यवस्था’ स्थापित करने के लिए अपने ही इन बड़े-बड़े आदर्शों से पीछे हट गया। यह बदलाव पूंजीपति वर्ग के साहित्य, कला और दर्शन में भी प्रदर्शित हुआ, जिसके कारण नीत्शे जैसे प्रतिक्रियावादी दार्शनिकों और ताकतों का उदय हुआ। इजारेदार पूंजीपति वर्ग संकट के वक्त अपनी जरूरत के अनुसार समाज की इन सभी प्रतिक्रियावादी ताकतों को व्यापक जनता की आकांक्षाओं व संघर्षों को कुचलने हेतु राज्य सत्ता हासिल करने के लिए प्रायोजित व मजबूत करता रहा है, जैसा कि 20वीं सदी में इटली और जर्मनी में देखा गया था। इजारेदार वित्त पूंजी के सबसे घटिया तत्वों और समाज की इन प्रतिक्रियावादी ताकतों के हितों का यह विलय फासीवाद को जन्म देता है, जिसमें उत्पीड़न के सभी ऐतिहासिक रूप एक साथ प्रकट होते हैं। महिला प्रश्न पर उन्होंने कहा कि हमारे सामने अक्सर दो विरोधी बुर्जुआ धाराएँ पेश कर दी जाती हैं – एक उदार विकल्प जो बुर्जुआ आज़ादी (खुद को बाज़ार में बेचने की आज़ादी) की वकालत करता है और एक फ़ासीवादी विकल्प जो महिलाओं को घरों-बच्चों तक सीमित रखने की वकालत करता है। ये दोनों विकल्प महिलाओं की वास्तविक मुक्ति के सर्वहारा विकल्प को दबाते हैं जिसे साहसपूर्वक सामने लाने की ज़रूरत है। उन्होंने बताया कि आज कैसे बुर्जुआ नारीवाद साम्राज्यवाद और युद्ध का समर्थक बन चुका है। अंत में उन्होंने कहा कि हालांकि यह सच है कि निजी संपत्ति के उन्मूलन से ही महिलाओं की मुक्ति संभव होगी, फिर भी यह एक दीर्घकालिक और अमूर्त आह्वान है। मज़दूर वर्ग को आज पितृसत्ता, फ़ासीवाद और पूंजीवाद से लड़ने के लिए जनता को एक ठोस फौरी आह्वान भी देना चाहिए, जो होगा – फ़ासीवादी ताकतों के ख़िलाफ़ जनतंत्र की लड़ाई को इस तरह से आगे बढ़ाना जो फ़ासीवाद और वित्तीय पूंजी की ताकतों को सत्ता से बेदखल करने और उनके प्रभाव से मुक्त एक वास्तविक जन सरकार की स्थापना करने की दिशा में बढ़े, जो न केवल इस जनतंत्र को ‘बचाए’ बल्कि इसके क्षितिज का और अधिक विस्तार करते जाने व इसे सुसंगत जनतंत्र की तरफ ले जाने का कार्यभार रखती हो। [पूरा भाषण]




‘श्रम मुक्ति संगठन’ से कॉमरेड जय प्रकाश ने बताया कि महिलाओं का उत्पीड़न समाज में शासक वर्गों के महिला विरोधी दृष्टिकोण से उत्पन्न होता है, जो महिलाओं को या तो बच्चे पैदा करने की मशीन या फिर यौन वस्तु के रूप में देखते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि आज पूंजीवाद ने महिलाओं पर उत्पीड़न और भी बढ़ा दिया है, क्योंकि यह महिलाओं से पुरुष कर्मचारी को अगले दिन के लिए तैयार करने और अगली पीढ़ी के श्रमिकों को जन्म देने और पालने हेतु गृहिणी के रूप में काम करते रहने की अपेक्षा करता है, लेकिन इस काम को एक व्यक्तिगत परिवार के निजी दायरे में ही रखता है, और इस प्रकार महिलाओं को सामाजिक उत्पादन में भाग लेने की अनुमति नहीं देता है। इसके अलावा, यह महिलाओं को पौर्न और मनोरंजन उद्योग के माध्यम से एक माल (कमोडिटी) का रूप दे देकर एक यौन वस्तु में बदल देता है। उन्होंने पूंजीवाद के भीतर के विरोधाभास को उजागर किया कि जो सामाजिक (उत्पादन में महिलाओं की भूमिका) और सार्वजनिक (विरोध प्रदर्शन आदि) होना चाहिए, उसे निजी और प्रतिबंधित रखा जाता है, और जो निजी होना चाहिए (यौन संबंध) उसे सार्वजनिक किया जाता है (पौर्नोग्राफी और वेश्यावृत्ति के माध्यम से), और यह सब अधिकतम मुनाफा प्राप्त करने के लक्ष्य से ही किया जाता है। उन्होंने दोहराया कि महिलाओं की मुक्ति केवल निजी संपत्ति के उन्मूलन के माध्यम से ही संभव है, जो उन्हें सामाजिक उत्पादन (जैसे, फैक्ट्री किचन के माध्यम से) में सक्रिय भाग लेने की अनुमति देगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि नारीवाद स्वाभाविक रूप से एक बुर्जुआ विचारधारा है और इसके बुर्जुआ चरित्र को देखते हुए सर्वहारा नारीवाद जैसी कोई चीज नहीं हो सकती है, ठीक उसी तरह जैसे सर्वहारा दलितवाद या सर्वहारा राष्ट्रवाद जैसे कोई चीज़ नहीं हो सकती है; अतः नारीवाद के पास समस्त महिलाओं की मुक्ति के लिए कोई रास्ता नहीं है। [पूरा भाषण]
‘इंकलाबी मजदूर केंद्र’ से कॉमरेड श्यामवीर ने कहा कि पूंजीवाद का गहराता संकट कल्याणकारी राज्य मॉडल के तहत हासिल जन अधिकारों और सुरक्षाओं को लगातार खत्म कर रहा है, जो सीधे इजारेदार पूंजी के हित में है। भारत में इजारेदार पूंजीपतियों ने आज उस पार्टी का पूर्ण समर्थन और प्रायोजन किया है जिसे उन्होंने अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे उपयुक्त माना है – अर्थात भाजपा-आरएसएस जो हिंदू राष्ट्र और अखंड भारत बनाने की आकांक्षा रखती है, जो एकाधिकारी पूंजी की आकांक्षाओं के साथ मेल खाती है, और समाज में बर्बर मध्ययुगीन आदर्शों का प्रचार करती है। उन्होंने तर्क दिया कि आज के वर्ग विभाजित समाज में महिलाओं के हित भी उनके वर्ग के हिसाब से हैं। उन्होंने 2017-18 में गुड़गांव में 3 बाल बलात्कार-हत्या के मामलों का हवाला दिया, जिसमें पीड़ित बच्चियां मजदूर परिवारों से थीं और तमाम विरोध व ज्ञापनों के बावजूद ये मामले कोई बड़ा जन-समर्थन या संवेदना हासिल नहीं कर पाए; उन्होंने यह भी बताया कि कैसे मेहनतकश वर्ग की महिलाओं को कार्यस्थलों पर प्रतिदिन यौन उत्पीड़न व शोषण का सामना करना पड़ता है, और यह कभी कोई खबर नहीं बनती है। उन्होंने कहा कि उदारीकरण के इस दौर में फैक्ट्रियां देश के कानून से अछूती एक अलग स्टेट की तरह काम कर रही हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि महिलाओं को प्राप्त राजनीतिक और सामाजिक अधिकार पूंजीवाद के आगमन के साथ नहीं बल्कि 1917 की रूसी समाजवादी क्रांति के बाद हासिल हुए थे और आज भी, क्षयग्रस्त बुर्जुआ लोकतंत्र के पास जनता को देने के लिए कुछ भी नहीं है, इसलिए महिलाओं की मुक्ति का रास्ता अनिवार्य रूप से पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने हेतु मजदूर वर्ग की क्रांति से जुड़ा हुआ है। फासीवाद-विरोधी संघर्ष पर उन्होंने कहा कि, आज राज्य मशीनरी पर फासीवादियों के नियंत्रण और एकीकरण को देखते हुए, इसे केवल सड़कों पर मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता के संघर्षों के माध्यम से ही हराया जा सकता है। [पूरा भाषण]
‘सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी’ से कॉमरेड आशीष दासगुप्ता ने कहा कि आरएसएस के नेतृत्व वाले भारतीय फासीवाद के चार मुख्य निशाने हैं – मजदूर, दलित, आदिवासी और महिलाएं, क्योंकि वे मनुस्मृति से निर्देशित हैं जिसमें महिलाओं को दासी के बराबर माना गया है। उन्होंने प्रेसीडियम से अपील किया कि भारत में बढ़ते फासीवाद के संदर्भ में आधार पत्र में मनुस्मृति पर एक अनुछेद शामिल करें। उन्होंने बताया कि समाज में वित्तीय पूंजी के बढ़ते प्रभाव के साथ व्यापक जनसमुदाय की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है; कारखानों में अनौपचारिक रूप से श्रम संहिताओं को लागू किया जा रहा है और महिला श्रमिकों को छोटे कारखानों से लेकर आईटी सेक्टर तक अभूतपूर्व शोषण व उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन रोजगार खोने के डर से वे आवाज भी नहीं उठा सकती हैं। उन्होंने कहा कि उनका संगठन कन्वेंशन के आधार पत्र पर आगे और अध्ययन करेगा और इस महत्वपूर्ण विमर्श को आगे बढ़ाएगा। [पूरा भाषण]
‘सीपीआई (एमएल) मास लाइन’ से कॉमरेड प्रियम बसु ने एक संदेश भेजा था जिसे प्रेसिडियम द्वारा पढ़ा गया – जिसमें उन्होंने कन्वेंशन में भाग न ले पाने के लिए खेद व्यक्त किया, तथा इसकी सफलता की कामना करते हुए भविष्य में महिला मुक्ति के विषय पर विचारों का आदान-प्रदान करने की इच्छा जताई, जिसे वे नव जनवादी क्रांति का एक हिस्सा मानते हैं अतः जिसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
सभी भाषणों के बाद कॉमरेड अजय सिन्हा ने दिन भर हुई इस चर्चा का सारांश और निष्कर्ष प्रस्तुत किया। नारीवाद के सवाल पर, उन्होंने कहा कि जहां तक नारीवादी आंदोलन स्त्री-पुरुष समानता के साथ-साथ ज़रूरी सुधारों के लिए लड़ रहा है, हम मानते हैं कि यह एक उचित लड़ाई है और हमें आज इन आधारों पर उसके साथ एक संघर्षशील एकता बनानी चाहिए; लेकिन पूंजीवाद के तहत सुधारों के लिए लड़ने में हमारा लक्ष्य यह उजागर करना होता है कि सुधारों के बावजूद महिलाओं व उत्पीड़ितों की पराधीनता समाप्त नहीं होती है और इसलिए स्वयं पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई जरूरी है। फासीवाद-विरोधी संघर्ष में आज विभिन्न संघर्षशील धाराओं की व्यापक एकता की जरूरत है, लेकिन किसी भी रणनीतिक एकता के लिए पूंजीवाद-विरोधी दृष्टिकोण एक अहम शर्त बन जाती है, जिसे नारीवाद आज पूरा नहीं करता। हालांकि जब मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश महिलाओं का आंदोलन उठेगा, तो यह अनिवार्य रूप से अन्य धाराओं के साथ नारीवादी आंदोलन में भी विभाजन को जन्म देगा, जिसका एक हिस्सा सर्वहारा दृष्टिकोण के करीब आएगा। पूंजीवाद ने आज न केवल महिलाओं के शरीर को एक माल (कमोडिटी) में परिवर्तित कर दिया है, बल्कि उसकी मांग को भी इस हद तक बढ़ा दिया है कि समाज में प्रचलित प्रणालियों (विवाह और वेश्यावृत्ति) से उन्हें पूरा नहीं किया जा पा रहा, और इसलिए, बच्चों के साथ भी जघन्य बलात्कार व शोषण की घटनाएं बढ़ रही हैं। रणनीति के सवाल पर, उन्होंने कहा कि आज क्रांतिकारी आंदोलन अपने सहयोगियों (किसान, निम्न पूंजीपति वर्ग आदि) से शुरू करता है, जो सही नहीं है; हमें मजदूर वर्ग से ही शुरु करना चाहिए और न केवल अपने लिए बल्कि पूरी मानवता के लिए उसकी मुक्तिदायी भूमिका को साहसपूर्वक अन्य वर्गों के सामने भी रखना चाहिए, अन्यथा हम महज़ अपने इन सहयोगियों के पीछे-पीछे चलने (पिछलग्गू बनने) के लिए अभिशप्त होंगे। महिलाओं (और व्यापक जनता) में क्रांतिकारी स्वतःस्फूर्तता तभी उभरेगी जब वे यह मान पाएंगे कि उनकी मुक्ति वास्तव में मजदूर वर्ग की मुक्ति की अंतिम लड़ाई से जुड़ी हुई है; हमारा ध्यान इस बिंदु पर केंद्रित होना चाहिए। फासीवाद के सवाल पर, उन्होंने कहा कि फासीवादियों को राजसत्ता व समाज से बाहर फेकने के लिए मजदूर वर्ग के नेतृत्व में व्यापक जनता के एक क्रांतिकारी संघर्ष से कम कुछ भी पर्याप्त नहीं होगा, जो या तो सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का रूप ले सकती है या, जिसकी अधिक संभावना है, बड़ी पूंजी के तत्वों से स्वतंत्र एक अंतरिम क्रांतिकारी सरकार का रूप ले सकती है। कॉर्पोरेट समर्थक नीतियों के कारण जनता में बढ़ती नाराजगी और शासक वर्ग की पार्टियों के बीच बढ़ते विरोधाभास जल्द ही समाज में तूफान पैदा कर सकते हैं और मजदूर वर्ग को इस पृष्ठभूमि में इसमें निर्णायक भूमिका निभाने के लिए तैयार रहना चाहिए, निश्चित रूप से आंदोलनों के माध्यम से नीचे से हस्तक्षेप करना चाहिए, लेकिन साथ ही ऊपर की जगह को बुर्जुआ विकल्पों (जैसे कांग्रेस या इंडिया गठबंधन) के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए।
अंत में, पीआरसी की ओर से उन्होंने संपन्न हुई इस विमर्श की प्रशंसा करते हुए यह दावा किया कि इससे हमें निश्चित रूप से लाभ हुआ है, तथा उन्होंने इस चर्चा को आगे बढ़ाने हेतु एक उच्चतर मंच का आयोजन करने का वादा किया जिसमें प्रत्येक वक्ता को संपूर्णता में अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त समय मिल सके। [पूरा भाषण]
कन्वेंशन में मजदूर वर्ग के दो अगुआ कार्यकर्ताओं – उमेश कुमार निराला (निर्माण मजदूर) और राजू कुमार (फैक्ट्री मजदूर) – ने क्रमशः महिलाओं की अधीनता के खिलाफ एक प्रगतिशील जन गीत “मुंह सी के अब जी ना पाऊंगी” तथा कॉमरेड सुनील पाल की शहादत पर एक गीत “पापी दुश्मनवा लिहल सुनील पाल के जनवा” प्रस्तुत किया। सम्मेलन में अंत की तरफ सभी उपस्थित साथियों ने “इंकलाब जिंदाबाद, पूंजीवाद-साम्राज्यवाद-फासीवाद मुर्दाबाद, पितृसत्ता-जातिवाद मुर्दाबाद, क्रांतिकारी शहीदों को लाल सलाम!” के जोरदार नारे लगाए। अंत में “इंटरनेशनेल” के उर्दू गायन के साथ सम्मेलन समाप्त किया गया।
क्रांतिकारी अभिवादन के साथ,
प्रोलेतारियन रिऑर्गनाइजिंग कमेटी, सीपीआई (एमएल)
इंडियन फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियंस (सर्वहारा)
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