प्रोलेतारियन रिऑर्गनाइजिंग कमेटी, सीपीआई (एमएल)
[14-15 दिसंबर 2024 को दिल्ली में हुए ‘रेडिकल वामपंथी ताकतों की अखिल भारतीय परामर्श बैठक’ के लिए पीआरसी, सीपीआई (एमएल) द्वारा तैयार किये गए अंग्रेजी पेपर का हिंदी अनुवाद]
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1. फासीवाद की परिभाषा और वर्ग चरित्र
जब फासीवाद सत्ता में होता है, तो यह वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी, सबसे अंधराष्ट्रवादी और सबसे साम्राज्यवादी तत्वों की खुली आतंकवादी तानाशाही होता है (दिमित्रोव)। फासीवादी तानाशाही के तहत, बुर्जुआ वर्ग शासन के पुराने राज्य रूप की जगह पर बुर्जुआ वर्ग शासन का एक अलग खुला तानाशाही वाला राज्य रूप स्थापित हो जाता है, जिसके तहत फासीवादी पार्टी न केवल अन्य राजनीतिक दलों (अपने सहयोगियों को छोड़कर) को नष्ट करके शासन करती है, बल्कि इसके साथ जनतंत्र और राजनीतिक स्वतंत्रता के हर पहलू को भी नष्ट कर देती है। यह न केवल मजदूर वर्ग की पार्टियों के, बल्कि एक-एक करके अन्य बुर्जुआ पार्टियों के भी राजनीतिक स्वतंत्रता और अस्तित्व को नेस्तानाबूद कर देती है। और एक फासीवादी पार्टी होती क्या है? यह वास्तव में ठीक-ठीक एक राजनीतिक पार्टी नहीं होती, बल्कि वित्तीय पूंजी के सबसे निकृष्टतम तत्वों के राजनीतिक गुंडों-लंपटों का एक गिरोह होती है। इसे इतिहास में अब तक के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी सामाजिक-राजनीतिक व वैचारिक आंदोलन के रूप में देखा जा सकता है, जो मुख्य रूप से षड्यंत्रों और इतिहास के मिथ्याकरण के साथ-साथ झूठ और अफवाहों पर आधारित होती है, और जो बुर्जुआ तानाशाही के इस नंगे रूप के पहले से समाज में मौजूद रहता है। यह इसी आंदोलन से उपजता है, इसी से पोषित होता है और इसी पर फलता-फूलता है। इसलिए यह उस सामान्य बुर्जुआ तानाशाही से बिलकुल भिन्न है जो जनतंत्र के राजनीतिक आवरण में छुप कर उसके पीछे से काम करती है। फासीवाद न केवल इस राजनीतिक आवरण को नष्ट करता है और बुर्जुआ तानाशाही को पूरी तरह से नंगा करके सबके सामने ले आता है, बल्कि एक पश्चगमन को भी स्थापित करता है। इतिहास आगे की दिशा में जाने के बजाय पीछे की ओर चलना शुरू कर देता है। अब तक हर क्षेत्र में मानव जाति द्वारा हासिल की गई प्रगति पर सीधा हमला शुरू हो जाता है। इस तरह मानव जाति को सबसे अंधकारमय युग की ओर धकेल दिया जाता है। इस प्रकार यह वित्तीय पूंजी के आर्थिक एकाधिकार की सबसे क्रूर राजनीतिक अभिव्यक्ति है और एकाधिकारवादी वर्चस्व स्थापित करने की इसकी प्रकृति के पूर्ण अनुरूप है, जो आर्थिक क्षेत्र से शुरू होकर, हर क्षेत्र को अपने नियंत्रण में कर लेना चाहता है, जिसमें राजनीति और राज्य प्रमुख हैं क्योंकि यह यथासंभव सभी विपक्षी ताकतों को समाप्त करने में उनकी मदद करते हैं जिसके बाद वह वास्तव में एक ऐसे एकल विश्व ट्रस्ट (पूंजीवादी विकास के नियम अंततः इसी ओर निर्देशित हैं) की स्थापना के मार्ग पर आगे बढ़ पाता है जिसके तहत वो सभी सामाजिक संपदा, उद्यमों और राज्यों को अवशोषित करेगा। लेकिन उसके पहले यह, कुछ लोगों को छोड़कर, बाकी समाज के पूर्ण स्वत्वहरण की ओर जाएगा। इसका यह भी अर्थ है कि निजी विनियोग की प्रणाली के साथ सह-अस्तित्व में पूंजी और पूंजीवादी उत्पादन के समाजीकरण का उच्चतम संभव स्तर भौतिक रूप से प्राप्त किया जाएगा, जिससे साम्राज्यवाद के स्तर पर पूंजीवाद में अंतर्निहित अंतर्विरोधों को चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया जाएगा। लेकिन यह केवल सैद्धांतिक रूप से संभव है। व्यावहारिक रूप से, यदि वित्त पूंजी फासीवाद का सहारा लेकर इसे हासिल करने की कोशिश करती है और इस तरह अंतर-वर्गीय (एक ही वर्ग के भीतर के) अंतर्विरोधों और शत्रुता को दूर करने या दबाने की कोशिश करती है, और पूंजी संचय के नियमों द्वारा वित्त पूंजी के लिए स्वाभाविक रूप से परिकल्पित अंतिम मार्ग पर चलती है, तो यह उसी (वर्गीय शत्रुता) को अभूतपूर्व विनाश के ऐसे बिंदु तक बढ़ा देगी जिससे मानव सभ्यता का अस्तित्व ही खतरे में आ जाएगा और पूरी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था भीतर से और बाहर से विस्फोटित होने के कगार पर पहुंच जाएगी। यदि पूंजीवादी संचय के नियमों को तोड़ा नहीं गया और पूंजीवादी संबंधों से मुक्त नहीं किया गया, जो सभी बुराइयों की जड़ है, तो पूंजीवादी संचय के नियम स्वाभाविक रूप से और प्रवृत्तिगत रूप से विश्व को इसी ओर ले जाएंगे। हालांकि, फासीवाद का उदय, जो इस प्रवृत्ति की सबसे हिंसक और प्रतिक्रियावादी अभिव्यक्ति है, इस बात की पुष्टि करता है कि विश्व पूंजीवाद विस्फोटित होगा और समाज अपनी पूंजीवादी जंजीरों से मुक्त हो जाएगा।
जब फासीवाद सत्ता में नहीं होता है, तो यह समाज में सबसे खराब किस्म की नस्लीय, सांप्रदायिक, सांस्कृतिक-जातीय और राष्ट्रीय घृणा पर आधारित निम्न पूंजीपति वर्ग के एक अति प्रतिक्रियावादी जन आंदोलन के रूप में सक्रिय रहता है। तब यह घात लगाए बैठे दुश्मन की तरह होता है जिसका इस्तेमाल बड़ी पूंजी अपने हिसाब से किसी भी अनुकूल परिस्थिति में कर सकती है। इसका मतलब यह है कि फासीवाद भले ही सत्ता में न हो, लेकिन अगर वित्तपोषित हो रहा है तो वह खतरनाक हो सकता है।
यद्यपि औपचारिक अर्थ में यह उस निम्न-पूंजीवादी तबके का जनांदोलन है जिनका अस्तित्व खतरे में है और जिनका स्वत्वहरण या तो हो चुका है या होने के कगार पर है, तथापि कुल मिलाकर इस आंदोलन का नेतृत्व पर्दे के पीछे से वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी तत्वों द्वारा किया जाता है, जो इसे प्रज्वलित करते हैं और पालते हैं, तथा इसे वित्तपोषित करके सत्ता तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
हालांकि, फासीवाद के सत्ता में नहीं होने और सत्ता में होने, दोनों स्थितियों में अंतर होता है। जब फासीवादी ताकतें राज्य सत्ता पर कब्जा कर लेती हैं, या तो अंदर से (शांतिपूर्ण तरीके से, संसदीय चुनाव जीतकर और धीरे-धीरे राज्य की संस्थाओं पर कब्जा करके) या बाहर से (हिंसक तरीके से, तख्तापलट करके), तो यह आंदोलन रोजमर्रा के लिए एक गंभीर खतरा बन जाता है क्योंकि इसे राज्य मशीनरी का सीधा समर्थन मिलना शुरू हो जाता है। इसका मतलब है कि इसके खिलाफ लड़ाई बाधित हो चुकी है और इसलिए हमें इससे और तीव्रता से लड़ना पड़ता है।
2. फासीवाद की गृह और विदेश नीति
घरेलू नीति में, यह मजदूर वर्ग, किसानों और छोटे पूंजीपतियों के क्रांतिकारी वर्गों, साथ ही क्रांतिकारी प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के खिलाफ पूंजी (विशेष रूप से बड़ी पूंजी) के आतंकवादी षड्यंत्र और प्रतिशोध का संगठन होता है। हालांकि यह एक सीमित अवधि के लिए, लोगों के समर्थन को आकर्षित करने में सक्षम हो सकता है, क्योंकि यह खुद को “एक ईमानदार और भ्रष्टाचार रहित सरकार” के रूप में पेश करता है जो लोगों और देश के सामान्य कल्याण के लिए काम करती है। यह लोगों की “सबसे फौरी जरूरतों और मांगों” को अपील करता है। यह “उनके न्याय की भावना और कभी-कभी उनकी क्रांतिकारी परंपराओं पर भी खेलता है” और इन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है, भले ही फासीवादी कभी भी उन परंपराओं का हिस्सा नहीं रहे होते हैं, बल्कि वे इसके धूर विरोधी होते हैं।[1] इनकी खासियत यह है कि वे जनता में गहरे पैठे लोकप्रिय प्रतिक्रियावादी पूर्वाग्रहों को भड़काने की कला और जनता की न्याय की अवधारणा से खेलने की कला को जोड़ना जानते हैं। इस तरह यह अपने आप को सताए हुए लोगों और उनकी भावनाओं के हिमायती के रूप में पेश करते हैं। इसमें यह सत्ताधारी पूंजीपतियों की लूट और पूर्ववर्ती सत्ताधारी दलों के कुशासन के खिलाफ जनता में व्याप्त गुस्से का फायदा उठाते हैं।[2]
विदेश नीति में, यह युद्ध का संगठन है, जो भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के आधार पर आक्रामक साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों और उनके ब्लॉक के खिलाफ गठबंधन करता है ताकि बाजारों व कच्चे माल के स्रोतों पर नियंत्रण तथा प्रभाव क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया जा सके। दूसरी तरफ, यह कमजोर देशों और लोगों के खिलाफ पाशविक घृणा और कट्टरवाद का अग्रदूत होता है। यहां ध्यान दिया जाना चाहिए कि इसका उपयोग भी फासीवादी अपनी घरेलू नीति के फायदे के लिए करते हैं। दरअसल, उनके द्वारा विदेशों में अपनाई गई युद्ध और लूट की प्रतिक्रियावादी नीतियों को वे अपने देश में देशभक्ति की नीति के रूप में चित्रित करते हैं। यह उनके फासीवादी एजेंडे में से एक है जिसका गंभीरता से मुकाबला किया जाना चाहिए।
संक्षेप में कहें तो फासीवाद की गृह नीति और विदेश नीति एक ही है। दोनों में ही, चाहे देश हो या विदेश, फासीवाद आम जनता के खिलाफ सबसे वीभत्स तरीके के युद्ध का संगठन है। यह धार्मिक-जातीय-सांस्कृतिक घृणा और पैशाचिक राष्ट्रवाद का खुला प्रदर्शन है और इसके आधार पर लोकतंत्र और राजनीतिक स्वतंत्रता पर क्रूर हमलों का संगठन है। इसकी शासन प्रणाली राजनीतिक गुंडागर्दी, उकसावे, धमकी और यातना की प्रणाली है। कुल मिलाकर, यह लोगों पर ढाए जाने वाले मध्ययुगीन बर्बरता और पाशविकता का संगठन है। सारी शक्ति शीर्ष पर बैठे चंद लोगों के हाथों में केंद्रित और केंद्रीकृत है, जिसका नतीजा यह है कि लोकतंत्र अस्वतंत्रता के लोकतंत्र में बदल जाता है, जैसा कि युवा मार्क्स ने सामंती युग की राजशाही के बारे में लिखा था।[3] हिंदू राष्ट्र या रामराज्य का विचार और राजनीति इसे हासिल करने का एक जरिया भर है। हालांकि लोकप्रिय भाषा-शैली का प्रयोग करके और सामाजिक द्वेष फैला कर एक समुदाय के उत्पीड़ित लोगों के मन में दूसरे समुदायों के प्रति व्याप्त लोकप्रिय पूर्वाग्रहों का चतुराई से दोहन करने में फासीवादियों का कोई जोड़ नहीं। ऐसा करके वे उन्हीं उत्पीड़ित लोगों का समर्थन प्राप्त कर लेते हैं जिनके शोषक-उत्पीड़क भी फासीवादियों का समर्थन करते हैं। यहां हम आरएसएस और भाजपा की चालाकी देख सकते हैं। हम यह भी देख सकते हैं कि कैसे फासीवादी उस निम्न पूंजीपति वर्ग का समर्थन जीतने में भी सफल रहे हैं, जिन पर वही सत्ताधारी बड़ा पूंजीपति वर्ग सीधा गंभीर हमला करता है जो, दूसरी तरफ हर संभव तरीके से फासीवादियों का वित्तपोषण और समर्थन भी करता है। यह स्वाभाविक है कि अगर कोई प्रगतिशील और क्रांतिकारी विकल्प न हो, तो निम्न-बुर्जुआ जनता और यहां तक कि मजदूर वर्ग के पिछड़े तबके भी अपने ही शोषकों और उत्पीड़कों के जाल में फंस जाते हैं। ऐसा सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष की अनुपस्थिति के कारण होता है, जो अन्यथा बुर्जुआ राजनीति से उनके मोहभंग का कारण बन सकता था। वे या कम से कम उनमें से अधिकांश फासीवादियों का समर्थन नहीं करते, अगर उन्हें वर्ग संघर्ष के अनुभव के माध्यम से फासीवाद के असली चरित्र का एहसास होता। इसलिए वर्ग संघर्ष के जरिये इसके असली चरित्र को उजागर करना मजदूर वर्ग के लिए सबसे महत्वपूर्ण है।
3. आज फासीवाद क्यों?
यह एक ऐसा सवाल है जो अक्सर पूछा और बहस में लाया जाता है: आज फासीवाद क्यों उभर रहा है, जबकि दुनिया के किसी भी कोने में पूंजीवाद के लिए सर्वहारा क्रांति का कोई तात्कालिक खतरा मौजूद नहीं है? हममें से कई लोगों को यह प्रश्न प्रासंगिक और विश्वसनीय प्रतीत हो सकता है, यदि हम सतही तौर पर विचार करें अर्थात यदि हम आज के फासीवाद के आगमन और 20वीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक में उभरे फासीवाद, जब मजदूर वर्ग और उसकी क्रांति विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के लिए एक तात्कालिक खतरा[4] थी, के बीच यांत्रिक रूप से ऐतिहासिक समानताएं बैठाएं। यूरोप में सर्वहारा क्रांतियों की लगातार हुई हार के बाद भी, साम्राज्यवादी शक्तियों से घिरे होने और उसके हमलों के बावजूद, सोवियत सत्ता का अस्तित्व पूंजीवादी दुनिया को एक जीते-जागते पिशाच की तरह सता रहा था।
यह सच है कि आज दुनिया के किसी भी कोने में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शासन के लिए, न तो प्रत्यक्ष और न ही अप्रत्यक्ष, सर्वहारा वर्ग का कोई गंभीर खतरा नहीं है, फिर भी आज दुनिया के लगभग हर देश में फासीवादी ताकतों सहित धूर दक्षिणपंथी ताकतों का अभूतपूर्व उदय हो रहा है। फासीवादी हमले अंदर और बाहर दोनों तरफ से लगातार बढ़ रहे हैं। यह एक वस्तुगत वास्तविकता है जिसे कोई भी नकार नहीं सकता और इसलिए इसकी व्याख्या की जानी चाहिए।
हम जानते हैं कि इसके कई कारण बताये जाते हैं जो एक दूसरे से भिन्न हैं। हमारे लिए, इसका मुख्य कारण यह है कि वर्तमान विश्व पूंजीवादी व्यवस्था एक बहुत गहरे आर्थिक संकट में फंस चुकी है। इस संकट की खासियत यह है कि यह असमाधेय है और एक आम संकट (जनरल क्राइसिस) साबित हो रहा है क्योंकि निकट भविष्य में किसी भी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी उपाय से इसके हल होने की उम्मीद नहीं दिखती है। चूंकि इसका अंतर्निहित कारण और आंतरिक गतिशीलता दीर्घकालिक साबित हो रही है, इसलिए इससे अपूरणीय क्षति होने की संभावना है, जो पूरी पूंजीवादी व्यवस्था को अंदर से अस्थिर और नष्ट कर सकती है और जिसका बाहरी प्रभाव विनाशकारी हो सकता है क्योंकि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सर्वहारा वर्ग को इस तरह से उद्वेलित कर रह है जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इस संकट ने मेहनतकशों को निराशा में डाल दिया है क्योंकि आज मजदूर वर्ग और आम जनमानस यह साफ तौर पर देख पा रहे हैं कि उनकी परेशानियों का कोई अंत नहीं होने वाला है। वे देख रहे हैं कि इसके विपरीत हो रहा है। शासक पूंजीपति वर्ग, खास तौर पर एकाधिकार वित्तीय पूंजी के कर्णधार, मजदूरों और आम लोगों के हितों के खिलाफ, आर्थिक और राजनीतिक, दोनों तरह के बेहद कठोर कदम उठा रहे हैं ताकि अपने सुपर मुनाफे को बनाए रख सकें और इस तरह लगातार जारी आर्थिक संकट का बोझ पूरी तरह से मजदूर वर्ग और आम जनता के कंधों पर डाला जा सके। लेकिन जब तक शासक पूंजीपति वर्ग बुर्जुआ लोकतांत्रिक शासन और बुर्जुआ वैधानिकता के पुराने स्वरूप की थोड़ी-बहुत भी मर्यादा को बनाए रखे हुए है तब तक यह संभव नहीं है। इतना ही नहीं, हम यह भी देख सकते हैं कि बुर्जुआ लोकतंत्र को उखाड़ फेंकने और नष्ट करने तथा फासीवाद के उदय की यह प्रक्रिया, चाहे भीतर से हो या बाहर से, जनता में विद्रोह और बगावत को भी बढ़ावा दे रही है। यही बात बुर्जुआ वर्ग को डरा रही है। यह देखते हुए कि यह दूर की संभावना निकट आ रही है, इजारेदार पूंजी के कर्णधारों, मुख्य रूप से वित्तीय पूंजी ने जनता पर चौतरफा हमला शुरू कर दिया है और मजदूर वर्ग की क्रांति की संभावना को रोकने के लिए, चाहे वह अभी कितनी भी दूर क्यों न दिखाई दे, फासीवाद का रास्ता अपना लिया है। यहीं पर उन्हें ‘जनतंत्र’ से फासीवाद की ओर के शिफ्ट की जरूरत पड़ी है।
4. संकट के अनुत्क्रम्नीय मोड का फासीवाद पर प्रभाव
इसके अलावा, चूंकि संकट अनुत्क्रम्नीय मोड[5] में है, इसलिए मजदूरों और मेहनतकश जनता के खिलाफ ये असाधारण रूप से कठोर हमले भी उसी अनुरूप होंगे। इसलिए, जबकि पूरी दुनिया में सत्तारूढ़ पूंजीपति वर्ग सर्वहारा क्रांतिकारी खतरे की अस्थायी अनुपस्थिति के बावजूद फासीवाद में मुक्ति की तलाश करता रहा है, आजकल वे दीर्घकालिक आधार पर फासीवाद में मुक्ति ढूंढ रहे हैं। यह सीधे तौर पर विश्व पूंजीवाद के वर्तमान संकट की असमाधेयता से जुड़ा हुआ है। इसका मतलब है कि आज का फासीवाद एक अस्थायी परिघटना नहीं होने जा रहा है। हालांकि, इसका मतलब यह भी नहीं है कि यह एक स्थिर परिघटना होगी। बेशक, इसके अंतर्निहित कारक, कारण और उनकी समग्र गतिशीलता (विश्व पूंजीवाद का संकट) उन कारकों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक स्थिर हैं जिन्होंने 20वीं सदी के फासीवाद को जन्म दिया था लेकिन क्या फासीवाद और फासीवादी तानाशाही एक स्थिर घटना होगी, यह संदिग्ध है क्योंकि यह कई अन्य कारकों पर निर्भर करता है। हालांकि, यह सापेक्ष स्थिरता फासीवाद की वर्तमान परिघटना में कुछ विशिष्ट विशेषताओं को शामिल करती है। उदाहरण के लिए, इसका उद्भव असाधारण हिंसा का उपयोग करके एक ही बार में एक बड़ी कार्रवाई के तहत नहीं हो सकता, अर्थात इसका आगमन लगातार उठती लहरों के रूप में होगा। इसके लिए जरूरी है कि पूंजीवादी शासन के पुराने राजनीतिक आवरण या स्वरूप को अभी तुरंत हटाया या उखाड़ फेंका न जाए। इसे हम बुर्जुआ जनतंत्र का भीतर से शांतिपूर्ण या क्रमिक अधिग्रहण (कब्जा) कहते हैं। इसके लिए जरूरी है कि जनतंत्र का साइनबोर्ड, मुख्य रूप से संसद या चुनाव, लंबे समय तक बरकरार रह रहे (हालांकि विकृत और जीर्ण-शीर्ण हालत में जो पहचान से परे हो जाये) तब भी जब फासीवादी कब्जे का बड़ा हिस्सा पहले ही पूरा हो चुका हो। इसी तरह आज के फासीवादी शासन द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हिंसा का स्तर 20वीं सदी की तुलना में कम होगा। हिंसा की डिग्री इसके इस्तेमाल की जरूरत के हिसाब से की जाएगी, जो किसी खास देश में किसी खास समय पर सामाजिक ताकतों के संतुलन, क्रांतिकारी संघर्षों और गृहयुद्ध को जन्म देने वाले अंतर-साम्राज्यवादी संघर्षों की तीव्रता, पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच वर्ग-संघर्ष की तीक्ष्णता की डिग्री और इसके एक सफल सर्वहारा समाजवादी क्रांति में विकसित होने की संभावना जैसे कई कारकों पर निर्भर करेगा। ऐसी और भी कई स्थितियां हो सकती हैं जिनमें उच्चतम स्तर की फासीवादी हिंसा के इस्तेमाल की जरूरत हो सकती है। मुख्य बात यह है कि जब तक फासीवादियों को सत्ता से उखाड़ फेंकने का संघर्ष बुर्जुआ विपक्षी पार्टियों और पहले शासन कर चुके दलों तक सीमित रहेगा, तब तक फासीवादी इसका अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण तरीके से जवाब देंगे और इस बीच, कम से कम दिखावे के लिए तो बुर्जुआ शासन का पुराना राजनीतिक आवरण बरकरार रहेगा। लेकिन अगर कोई फासीवाद-विरोधी जन संघर्ष उठता है जो निर्णायक क्रांतिकारी मोड़ लेता है[6], भले ही उसका तात्कालिक उद्देश्य फासीवाद को हमेशा के लिए निर्णायक रूप से हराकर आम जनता के पक्ष में जनतंत्र की लड़ाई को निर्णायक रूप से जीतना हो, जो अपने अंग के रूप में एक अस्थायी क्रांतिकारी सरकार को स्थापित कर सकता है, तब फासीवादी तुरंत अपने असली रूप में आ कर चरम हिंसा का सहारा लेंगे, और अधिक संभावना यह है कि तब बुर्जुआ शासन का पुराना राजनीतिक आवरण अंततः उतार फेंक दिया जाएगा। उस स्थिति में अंततः एक नग्न और खुला फासीवादी शासन (भारत में यह हिंदू राष्ट्र का रूप ले सकता है, जो राजशाही का ही एक प्रकार है) स्थापित हो जाएगा। इसलिए, 21वीं सदी के फासीवाद को आम तौर पर ऐसी चीज के रूप में परिभाषित करना (किसी भी बहाने या आधार पर) जो “बुर्जुआ लोकतंत्र के खोल या आवरण को नहीं छोड़ती है” (द एनविल, मार्च 2023) एक भद्दा अतिसरलीकरण है।
इसके अलावा, फासीवाद अंततः बुर्जुआ तानाशाही का एक स्थिर राज्य रूप नहीं हो सकता है, क्योंकि, जैसा कि कॉमिन्टर्न भी कहता है, हालांकि “फासीवाद बुर्जुआ खेमे के भीतर के विरोधों को दूर करने के लक्ष्य से आता है,” लेकिन यह अपने राजनीतिक एकाधिकार को स्थापित करके और अन्य राजनीतिक दलों को नष्ट करके “इन विरोधों को और भी तीव्र और उग्र बना देता है।” ऐसी स्थिति लंबे समय तक नहीं रह सकती क्योंकि यह अंततः वर्गों के बीच के और साथ ही पूंजीपति वर्ग के अंदर के विरोधाभासों को इस हद तक बढ़ा देगी कि वे फासीवाद के राजनीतिक एकाधिकार को नष्ट कर देंगे। आखिरकार, फासीवादी, वर्ग और वर्ग विरोधाभासों को खत्म नहीं कर सकते। इसलिए अगर वे समस्त विपक्षी ताकतों के अस्तित्व को अवैध बना देता है, तब भी उनकी पार्टियां, कम से कम उनमें से कई, अवैध रूप से ही सही, अस्तित्व में रहेंगी और आगे बढ़ेंगी। यह उन्हें खत्म नहीं करेगा बल्कि उन्हें फौलादी और संयमित बनाएगा और फासीवादी तानाशाही के खिलाफ संघर्ष का और अधिक मजबूती से नेतृत्व करने में सक्षम बनाएगा। यह लोकतंत्र की सभी पार्टियों के लिए सच है, लेकिन सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए यह और भी ज्यादा सही है क्योंकि उसने हमेशा पूंजी के हमलों के खिलाफ संघर्ष का प्रतिकार झेला है। इसलिए, इस तरह की अवैधता उसे और मजबूत करेगी और वर्ग संघर्ष के उसके प्रहारों को और तेज करेगी। हम पहले ही ऊपर लिख चुके हैं कि फासीवाद का उदय दर्शाता है कि पूंजी संचय के नियमों के अनुसार सामाजिक संपदा के केंद्रीकरण और संकेन्द्रण की गति बहुत अधिक होने के कारण बुर्जुआ शासन का राजनीतिक खोल फटने और अपने विपरीत में बदलने के लिए बाध्य है।
दूसरा कारण फासीवादियों के सामाजिक-राजनीतिक ढोंग (जिसके अनुसार वे राष्ट्र और लोगों के सामान्य हितों को बढ़ावा देने की बात करते हैं) और एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग को समृद्ध बनाने की उनकी वास्तविक नीति के बीच बढ़ता अंतर्विरोध है। यह जनता और विशेष रूप से सर्वहारा वर्ग को फासीवादियों को बेनकाब करने और उनके समर्थकों को उनसे अलग करके उनकी ताकत को कमजोर करने में सक्षम बनाता है। इसके अलावा, फासीवादियों की चंद पूंजीपतियों को समृद्ध करने की उपरोक्त नीति[7] अंततः जनता में गहरी नफरत और आक्रोश की भावना पैदा करेगी और उन्हें क्रांतिकारी बना देगी। यह न केवल मजदूर वर्ग को बल्कि फासीवाद के तहत उत्पीड़ित और शोषित समस्त जनता को उद्वेलित करेगी। इस तरह की हिंसक सरकार सर्वहारा वर्ग और निम्न पूंजीपति वर्ग के व्यापक जनसमूह की नजर में लंबे समय तक अपना प्राधिकार बनाए नहीं रख सकती।
5. भारतीय फासीवाद के मूल तत्व
भारत में मोदी शासन के रूप में फासीवादी हमले की सभी बुनियादी विशेषताएं मौजूद है, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, हालांकि इसमें कुछ विशिष्ट विशेषताएं भी हैं जिनका उल्लेख करना और उन पर चर्चा करना आवश्यक है।
भारत में जाति-आधारित घृणा और ब्राह्मणवादी वर्चस्ववादी विचारधारा (हिंदुत्ववादी विचारधारा) फासीवादी आंदोलन के मूल तत्वों में से एक है और भारतीय फासीवाद की एक विशिष्ट विशेषता है। भारतीय फासीवाद का उदय खुद को एक ऐसे आंदोलन के रूप में प्रदर्शित करता है जिसका उद्देश्य भारत को एक हिंदू राष्ट्र में बदलना है जो अंततः हिंदुत्व-आधारित राजशाही शासन होगा। इसकी सटीक विविधता भले अभी स्पष्ट ना हो, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यह मुख्य रूप से बड़े एकाधिकार पूंजीपति वर्ग, खासकर एकाधिकार वित्तीय पूंजी के हितों की सेवा करेगा।[8] हालांकि, जाति-आधारित विभाजन के इस तत्व को जानबूझकर कम जाहिर किया जाता है और इसकी बयानबाजी को कम करने की कोशिश की जाती है क्योंकि यह फासीवादी परियोजना सभी तथाकथित जातीय हिंदुओं को ‘एकजुट’ किए बिना विजयी नहीं हो सकती। यह अलग बात है कि इससे जातिगत असमानता की समस्या का समाधान नहीं होने वाला है, और इससे जुड़ी प्रतिस्पर्धा को खत्म करना फासीवादियों द्वारा समर्थित ऐसी सतही और मौखिक एकता से संभव नहीं है। इसके लिए जाति उन्मूलन की आवश्यकता है, जिसके लिए निजी संपत्ति पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन आवश्यक है।
जैसा कि सभी जानते हैं, तथाकथित हिंदू राष्ट्र सनातन धर्म पर आधारित होगा जो जाति पदानुक्रम आधारित सामाजिक संरचना के अस्तित्व के बिना काम नहीं कर सकता और टिक नहीं सकता। इसलिए वे उत्पीड़ित जनता को धोखा देने के लिए जो दावे करते हैं, वास्तव में उसके बिलकुल अलग हैं। वे जाति पदानुक्रम का अंत नहीं चाहते हैं। बिल्कुल नहीं। बल्कि, वे इसका पुनर्जन्म, पुनःस्थापन और पुनरुत्थान चाहते हैं। इसीलिए वे एक ओर सनातन को पुनर्जीवित करके हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए काम करते हैं, और दूसरी ओर जनतंत्र को नष्ट करके एकाधिकारी पूंजी के नेतृत्व वाली आधुनिक राजशाही, फासीवादी तानाशाही का बहुचर्चित भारतीय संस्करण, स्थापित करने में लगे हैं। एक बार जब वे इस देश की जनतांत्रिक, प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतों को हराकर और उन्हें कुचलकर हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने में सफल हो जाते हैं, तो वे एक नए आधुनिक आधार, यानी एकाधिकार पूंजीवाद के आधार पर सामाजिक उत्पीड़न की पुरानी बर्बर व्यवस्था को स्थापित करने का सहारा लेंगे। पूंजी का शासन बना रहेगा, लेकिन तब हिंदू राष्ट्र या रामराज्य का नया मुखौटा होगा। हालांकि हमें इसे एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के शासन के रूप में चिह्नित करना चाहिए जो मुख्य रूप से अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए प्रयास करता है न कि स्वतंत्रता के लिए। यह उस नए शासन का सार होगा।
इस मुद्दे पर लौटते हुए कि फासीवादी सभी जाति के हिंदुओं को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं, वे जानते हैं कि इसके लिए किसी साझा दुश्मन को गढ़ना होगा ताकि सभी जाति के हिंदुओं को उस साझा दुश्मन के खिलाफ आसानी से लामबंद किया जा सके। यहीं पर मुस्लिम और ईसाई समुदाय के खिलाफ नफरत और घृणा का माहौल बनाने की भूमिका सामने आती है। लेकिन, ऐसा लगता है कि उन्होंने कम से कम अभी के लिए मुस्लिम समुदाय को अपना मुख्य निशाना बना लिया है। उनकी रणनीति है सभी जातियों के हिंदुओं में मुस्लिम विरोधी भावना को चरम पर रखना ताकि उनके बीच जाति-विभाजन और प्रतिस्पर्धा को ‘मिटाया जा सके’ (ढका जा सके और नजर से ओझल) किया जा सके। एक बड़ी पहचान (हिंदू पहचान) के सहारे जातिगत पहचान को दबाने की कोशिश एक साजिश के तहत की जा रही है। यह एक सुनियोजित रणनीति है जो एक स्तर पर कुछ लोगों को सहयोजित करने तथा दूसरे स्तर पर सदियों पुरानी जाति पदानुक्रम के तहत अन्य सभी पर दमन जारी रखने की नीति पर आधारित है। इसीलिए राष्ट्रपति का पद आदिवासी या दलित को “दिया जाता है”, लेकिन उन्हें पूजा स्थलों और महत्वपूर्ण आयोजनों से “बाहर रखा जाता है”। यह बात नए संसद भवन के उद्घाटन के साथ-साथ अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के समय स्पष्ट हो गई। इसलिए हम देखते हैं कि एक अनूठी हिंदुत्व-आधारित राष्ट्रवादी राजनीति विकसित हुई है, जो मनुस्मृति और हिंदू धर्मग्रंथों की पुनर्व्याख्या करके वर्ण व्यवस्था के जन्म को प्रगतिशील और जन-पक्षधर बताने का प्रयास करती है, और साथ ही बेहद कठोर जाति पदानुक्रम आधारित सामाजिक विभाजन के उद्भव के लिए, जिसने सैकड़ों वर्षों से धरती के इस हिस्से में रहने वाली एक बड़ी आबादी की नियति तय की, उन लोगों को जिम्मेदार ठहराती है जो बाहर से आए और यहां शासन किया। विशेष रणनीति के अनुसार, वे इसके लिए मुख्य रूप से मध्यकाल के मुस्लिम शासकों को जिम्मेदार मानते हैं। कुल मिलाकर, हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि विभिन्न जातियों के बीच मात्र मौखिक और सतही तौर पर एकता को बढ़ावा देने का उनका प्रयास उनकी मुख्य परियोजना की सफलता के लिए ली गयी एक कार्यनीति और साजिश है जिसका उद्देश्य सभी जाति के हिन्दुओं को एक विशेष समुदाय के विरुद्ध भावनात्मक और मानसिक रूप से एकजुट करना है, जो ‘सभी का साझा दुश्मन है और इस प्रकार पूरे देश की सुरक्षा के लिए खतरा है’।
सभी जाति के हिंदुओं को एकजुट करने के इस नीति का भी एक अनूठा उद्देश्य है – मुसलमानों और सरकार की आलोचना करने वाले लोगों के खिलाफ जमीनी युद्ध छेड़ने के लिए कुछ मामूली खैरात के बदले में गरीब ओबीसी और दलितों या आदिवासियों में से पैदल सैनिकों की भर्ती करना। ऐसा तर्क दिया जाता है कि चूंकि उन्हें किसी भी प्रकार की सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान से वंचित रखा गया है, इसलिए उन्हें मुस्लिम मोहल्लों से निकलने वाली शोभा यात्राओं और जुलूसों में हथियार लहराते हुए और गालियों से भरे नारे लगाते हुए निकलते वक्त प्रतिष्ठा का अनुभव करने का ‘अवसर’ दिया जाता है। उन्हें इस में गर्व महसूस करना सिखा दिया गया है। उन्हें मानसिक रूप से यह महसूस करना सिखा दिया गया है कि ये करने से उनकी भी कुछ प्रतिष्ठा होगी। लेकिन वे नहीं जानते कि एक बार हिंदू राष्ट्र की परियोजना विजयी हो जाने के बाद वे किसी लायक नहीं रह जायेंगे। वे जिस वर्ग से आते हैं यानी मेहनतकश जनता सबसे अधिक पीड़ित होगी और एकाधिकार पूंजीपति वर्ग इससे सबसे अधिक लाभान्वित होगा। स्वाभाविक रूप से, ऐसी व्यवस्था सभी प्रकार की अमानवीय व्यवस्थाओं और शोषण-उत्पीड़न के तमाम तरीकों को जन्म देगी, जिसमें ब्राह्मणवादी जाति आधारित सामाजिक शोषण और उत्पीड़न भी शामिल है, वह भी पहले से कहीं अधिक तीव्र रूप में।
6. फासीवाद के खिलाफ आज की लड़ाई का सार
फासीवाद के खिलाफ मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी संघर्ष का सार मजदूर वर्ग के सबसे बड़े शिक्षक मार्क्स और एंगेल्स के शब्दों से समझा जा सकता है, जो कहते हैं कि “मजदूर वर्ग द्वारा क्रांति में पहला कदम जनतंत्र की लड़ाई जीतने के लिए सर्वहारा वर्ग को शासक वर्ग की स्थिति में उठाना है।”[9] यानी जनतंत्र की लड़ाई जीतना ताकि मजदूर वर्ग को शासक वर्ग की स्थिति में लाया जा सके, मुक्ति के लिए सही मायनों में प्रयास करने वाली किसी भी मजदूर वर्ग की क्रांति का क्रांतिकारी सार है। यह पूंजीपति वर्ग पर मजदूर वर्ग की राजनीतिक जीत के लिए एक शर्त है।
इसलिए, इस उपरोक्त तथ्य से उत्पन्न होने वाले उसी तर्क से कि फासीवादी तानाशाही उसी पूंजीपति वर्ग का सबसे क्रूर राज्य रूप है और मानव मुक्ति का अब तक का सबसे घातक शत्रु है, यह (जनतंत्र की लड़ाई जीतना और मजदूर वर्ग को शासक वर्ग और राज्य सत्ता के पद पर पहुंचाना) भी इसकी पूर्ण पराजय, वैसी पूर्ण पराजय जैसी फासीवादी पश्चगमन की बर्बरता से समाज को बचाने के लिए आवश्यक है, के लिए एक शर्त, बल्कि कहीं अधिक आवश्यक शर्त बन जाती है। कहीं अधिक आवश्यक इसलिए क्योंकि फासीवाद कहीं अधिक क्रूर है और इस कारण इसके लिए कहीं अधिक अनुकरणीय प्रतिबद्धता और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होगी जिसे केवल क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग ही इस लड़ाई में लगातार प्रदर्शित कर सकता है। स्पष्ट रूप से, अंतर मामूली और औपचारिक है, जबकि सार एक ही है यानी मजदूर वर्ग को फासीवाद को निर्णायक रूप से हराने के लिए शासक वर्ग की स्थिति में खुद को ऊपर उठाना होगा, और साथ ही अपनी ताकत को निम्न पूंजीपति वर्ग के क्रांतिकारी हिस्सों, क्रांतिकारी किसान और क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के दृढ़ फासीवाद-विरोधी तबकों की ताकत के साथ जोड़ना होगा। कुछ अन्य अस्थायी सहयोगी उभर सकते हैं जिनके साथ भी सर्वहारा वर्ग को एकजुटता बनानी पड़ सकती है बशर्ते वे समाज के हर क्षेत्र से फासीवादी ताकतों को पूरी तरह से खत्म करने के न्यूनतम कार्य को पूरा करने में उसकी सहायता करते हैं। इसमें जीत स्वाभाविक रूप से सर्वहारा वर्ग के वर्चस्व को और अधिक सुनिश्चित करेगी। तब बीच में रुकने की आवश्यकता नहीं होगी बल्कि हम धरती के सभी मनुष्यों की मुक्ति की ओर, यानी वर्ग मुक्ति से पूर्ण मानव मुक्ति की राह पर, बढ़ जा सकते हैं।
इसलिए हम पाते हैं कि निकट भविष्य में फासीवाद की अंतिम और सम्पूर्ण विजय की संभावना ने भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जनतंत्र की लड़ाई जीतने के सवाल को मजदूर वर्ग के लिए एक तात्कालिक क्रांतिकारी राजनीतिक कार्यभार बना दिया है। इसका वास्तव में क्या अर्थ है? इसका अर्थ है लोकतंत्र की लड़ाई को इस तरह से जीतना कि मजदूर वर्ग का शासक वर्ग की स्थिति में आना सुनिश्चित हो पाए – यही फासीवाद के खिलाफ सर्वहारा वर्ग की लड़ाई और मजदूरी की गुलामी से उसकी मुक्ति की लड़ाई के बीच सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। यही मुख्य कड़ी है जो फासीवाद के खिलाफ क्रांतिकारी जन संघर्ष में ऊपर से और नीचे, दोनों से, मजदूर वर्ग के हस्तक्षेप को सुनिश्चित करती है। अन्यथा, फासीवाद के खिलाफ मजदूर वर्ग की जो भी लड़ाई होगी वह व्यर्थ हो जाएगी और केवल शासक पूंजीपति वर्ग के विपक्षी हिस्से को फायदा होगा जो फासीवादियों के खिलाफ सत्ता के लिए होड़ कर रहा है।
जहां तक बुर्जुआ जनवाद की रक्षा का प्रश्न है, यह भी मजदूर वर्ग का एक महत्वपूर्ण कार्यभार है क्योंकि बुर्जुआ जनवाद औपचारिक राजनीतिक समानता और स्वतंत्रता प्रदान करके मजदूर वर्ग को खुला वर्ग संघर्ष चलाने के लिए एक खुला मैदान – सभी प्राक्-पूंजीवादी झाड़-झंखाड़ों से मुक्त एक खुला युद्धक्षेत्र – प्रदान करता है। इसलिए, आज जब फासीवादी ताकतें बुर्जुआ जनवाद पर घातक हमला कर रही हैं, तो उसे बचाना जरूरी है, हालांकि उसे अकेले बचाना यानी उसे ऊपर बताई गई शर्त से अलग करके बचाना, जिसके तहत मजदूर वर्ग को जनवाद की लड़ाई जीतकर शासक वर्ग के पद पर लाना जरूरी है, फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में उसका समग्र लक्ष्य नहीं हो सकता है। इसका मतलब यह है कि यद्यपि मौजूदा बुर्जुआ जनतंत्र की रक्षा, चाहे वह कितनी भी विकृत क्यों न हो, फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई के कार्यभार में शामिल है, फिर भी इस लड़ाई में मजदूर वर्ग का सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार फासीवाद के विरुद्ध लड़ने वाले अपने सहयोगियों के साथ खुद को शासक वर्ग की स्थिति में पहुंचाना है ताकि फासीवाद के विरुद्ध जनतंत्र की लड़ाई को निर्णायक रूप से, एक बार और हमेशा के लिए जीता जा सके। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि फासीवाद के विरुद्ध बुर्जुआ जनतंत्र की रक्षा के संदर्भ में भी मजदूर वर्ग का कार्यभार विपक्षी बुर्जुआ पार्टियों (जो फासीवादियों की तरह ही एकाधिकारी पूंजी के हितों से बंधी हुई हैं) का मात्र अनुसरण करना और अपने लक्ष्य को केवल बुर्जुआ जनतंत्र को बचाने तक सीमित रखना नहीं हो सकता। इसके लिए मजदूर वर्ग को फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में शामिल सभी तबकों के साथ एकजुट होना होगा और नीचे से तथा ऊपर से हस्तक्षेप करना होगा तथा जनता के क्रांतिकारी उभार के लिए काम करना होगा जिसका तात्कालिक एजेंडा होगा एक क्रांतिकारी सरकार का गठन करना। ठोस रूप से कहें तो आज मजदूर वर्ग का मुख्य कार्यभार फासीवाद के विरुद्ध जनतंत्र की लड़ाई को निर्णायक रूप से जीतना है और इसके लिए जनता के क्रांतिकारी उभार के शीर्ष पर सवार होकर शासक वर्ग की स्थिति में खुद को स्थापित करना है और अपने सहयोगियों के साथ मिलकर उस क्रांतिकारी जन उभार के अंग के रूप में एक क्रांतिकारी सरकार का गठन करना है जिसका न्यूनतम राजनीतिक एजेंडा या कार्यभार फासीवाद को निर्णायक रूप से समाप्त करना होगा ताकि सर्वप्रथम समाज और मानव जाति को फासीवाद के हमलों से हमेशा के लिए यानी निर्णायक रूप से बचाया जा सके। बस यही मार्क्स-एंगेल्स द्वारा ऊपर दिए गए उद्धरण की भावना के अनुरूप है।
जनतंत्र की ऐसी लड़ाई में जीत, भले ही वह फासीवादी कब्जे के चरण में लड़ी जा रही हो और इसलिए भौतिक परिस्थितियों के कारण मजदूर वर्ग अस्थायी सहयोगियों के साथ गठबंधन में लड़ने के लिए बाध्य हो, एक ऐसे जनतंत्र की ओर ले जाएगी जो निस्संदेह बुर्जुआ जनतंत्र, यानी वह जनतंत्र जिसका नेतृत्व पूंजीपति वर्ग करता है जो हमेशा एकाधिकार पूंजी द्वारा प्रतिबंधित, सीमित, अवरुद्ध, बाधित और तेजी से अपंग होता रहता है, की तुलना में अधिक व्यापक, गहरा और वास्तविक होगा। लेकिन फिर इसके लिए सर्वहारा वर्ग को जनतंत्र की लड़ाई जीतने के लिए लड़ना होगा ताकि वह शासक वर्ग के तौर पर स्थापित हो पाये, भले ही उसे फिलहाल अपने अस्थायी सहयोगियों के साथ सत्ता साझा करने के लिए बाध्य होना पड़े।
इस तरह के हस्तक्षेप के लिए कुछ शर्तें तय करनी होंगी। सबसे पहले, उसे एक फासीवाद-विरोधी क्रांतिकारी कार्यक्रम के आधार पर सभी फासीवाद-विरोधी वास्तविक ताकतों की कार्रवाई की एकता बनानी होगी जो आज की लड़ाई के लिए एक ठोस नारा सामने रखे और इस नारे को साकार करने के लिए उन सभी ताकतों का सामने से नेतृत्व करे। हमारे हिसाब से, जैसा कि ऊपर भी बताया गया है, ऐसा नारा केवल एक अंतरवर्ती क्रांतिकारी सरकार के गठन का हो सकता है जिसका न्यूनतम कार्यक्रम फासीवाद और फासीवादी ताकतों का समूल नाश होगा, ताकि देश, समाज और मानवता को संभावित पूर्ण विनाश के खतरे से बचाया जा सके। फासीवाद से जनतंत्र की रक्षा करने और सम्पूर्ण मानवजाति के पक्ष में जनतंत्र की लड़ाई जीतने और खुद को शासक वर्ग के पद पर स्थापित करने के लक्ष्य के तहत मजदूर वर्ग के सामने यह सबसे तात्कालिक, ठोस और स्पष्ट कार्यभार है।
स्वाभाविक रूप से, इस लड़ाई में जीत से मजदूर वर्ग के लिए अपने दीर्घकालिक लक्ष्यों की पूर्ण प्राप्ति के लिए सीधे संघर्ष में आगे बढ़ने का द्वार खुल जाएगा, जो अन्यथा बंद लगता है। इसका मतलब है कि क्रांतिकारी सरकार एक अस्थायी प्रकृति की होगी, क्योंकि एक बार जब फासीवाद के खिलाफ संकल्प और कार्रवाई की एकता सफलतापूर्वक संपन्न हो जाती है, तो इसके भविष्य की दिशा के संबंध में इसके भीतर एक लड़ाई उभरेगी। सर्वहारा वर्ग आगे बढ़ना चाहेगा, जबकि उसके कुछ सहयोगी शायद ऐसा न चाहें। इस लड़ाई का नतीजा इसका भविष्य तय करेगा, लेकिन एक क्रांतिकारी सरकार का गठन निश्चित रूप से आज के अंधेरे दौर में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करेगा।
अंत में, हम सबसे दृढ़ता से ये महसूस करते हैं कि फासीवाद के खिलाफ खड़ी ताकतों के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि आज की फासीवाद-विरोधी लड़ाई की समस्या को ठोस तरीके से संबोधित करने वाले विकल्प के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है। इस लड़ाई के लिए हमारे पास कोई ठोस नारा नहीं है। जब भी हम कोई नारा बनाने की कोशिश करते हैं, तो हम किसी और चीज (बुर्जुआ विपक्ष के साथ जाने) में उलझ जाते हैं या फासीवाद के खिलाफ क्रांतिकारी प्रचार के नाम पर कुछ अमूर्त नारे तैयार कर लेते हैं। हालांकि हम इसे भी ठोस तरीके से नहीं करते या नहीं कर पाते हैं। हम अभी तक इसे सीख नहीं पाए हैं। हम अक्सर खुद से यह नहीं पूछते कि फासीवाद के खिलाफ ठोस क्रांतिकारी प्रचार क्या हो सकता है। जितनी जल्दी हम इस उलझन से बाहर आ जाएं, उतना अच्छा है!
[1] कॉमिन्टर्न की 7वीं विश्व कांग्रेस में दिमित्रोव की रिपोर्ट से उद्धरण (1935)
[2] भारत में हम देख सकते हैं कि किस प्रकार भाजपा अभी भी कांग्रेस, संशोधनवादियों और अन्य दलों की पिछली सरकारों की जन-विरोधी, पूंजी-समर्थक और भ्रष्ट नीतियों का फायदा उठाती है, तथा जनता को अपने पीछे लामबंद करने के लिए उनका इस्तेमाल करती हैं।
[3] कार्ल मार्क्स, हेगेल के अधिकार के दर्शन की आलोचना (1843-44).
[4] कॉमिन्टर्न के दस्तावेज़ों से पता चलता है कि मई और अक्टूबर 1923 के बीच पोलैंड, बुल्गारिया और जर्मनी में जो घटनाएँ हुईं, वे एक सर्वहारा क्रांतिकारी युद्ध थीं, जिसका उद्देश्य उन देशों में पूंजीवादी शासन को उखाड़ फेंकना था और इसलिए वे विश्व पूंजीवाद के लिए खतरा थीं, हालांकि यह भी सच है कि उन सभी में मज़दूर वर्ग को हार का सामना करना पड़ा, जिसने फासीवाद के रूप में सर्वहारा वर्ग पर पूंजी के प्रतिशोध के युद्ध का द्वार खोल दिया। विशेष रूप से जर्मनी में, ईसीसीआई के दस्तावेज़ हमें बताते हैं कि “रूहर संकट के विकास के संबंध में, सर्वहारा वर्ग संघर्ष ने एक नए चरण में प्रवेश किया, जिसमें क्रांतिकारी ताकतों की क्रमिक लामबंदी का चरण, सत्ता के लिए संघर्ष के चरण में बदल गया।”
[5] शासक पूंजीपति वर्ग यह अच्छी तरह जानता है कि वर्तमान संकट ऐसा है कि विश्व पूंजीवाद को इससे पूरी तरह उबारकर पहले वाली प्रवृत्ति वृद्धि दर (ट्रेंड ग्रोथ रेट) से आगे की वृद्धि दर की एक सतत और पर्याप्त अवधि में लाना संभव नहीं है, क्योंकि पूंजी की लाभप्रदता 1973 से लगातार गिरावट की स्थिति में है, यानी यह 1973 में जिस स्तर पर पहुंची थी वहां दुबारा कभी नहीं पहुंची है। तब से हमने यही देखा है कि पूरी तरह खत्म होने के पहले ही आर्थिक संकट फिर से गहरा जाता है और वो भी पहले से भी अधिक भयंकर रूप में। हम देखते हैं कि संकट लगातार आते रहे हैं, एक के बाद एक रिकवरी को दरकिनार करते हुए, 1973 से इस प्रक्रिया में हर बार संकट का आधार गहरा और चौड़ा होता गया है, जिसके बाद बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा पूंजी का अवमूल्यन ही केवल निरंतर और पर्याप्त वृद्धि की ओर ले जा सकता है, हालांकि, इसके बारे में पूंजीपति वर्ग द्वारा नियुक्त अर्थशास्त्री भी आशावान नहीं हैं। अगर हम पूंजीवादी विकास में संकटों के प्रक्षेप पथ (पूरी यात्रा, ट्रैजेक्ट्री) की जांच करें, तो जिस तरह की दीर्घकालिक मंदी विश्व पूंजीवाद 1890 के दशक तक झेल रहा था, उसने निश्चित रूप से पूंजीवाद को नष्ट कर दिया होता अगर एकाधिकार पूंजीवाद नहीं आता और अपने साथ दो विश्व युद्धों को एक के बाद एक नहीं लाता, जिसमें दूसरा युद्ध फासीवाद की उदय के साथ हुआ। जैसे ही विश्व पूंजीवाद इससे बच कर निकला, दो युद्धों में हुए विनाश ने विश्व पूंजीवाद को विकास के स्वर्णिम काल के रूप में राहत दी क्योंकि इन युद्धों में बड़े पैमाने पर पूंजी का अवमूल्यन हुआ और लगातार दो दशकों तक निरंतर विकास की अवधि आई। लेकिन आज विनाश और तबाही की परतों के नीचे विकासात्मक कारकों के इस समूह के बनने (clustering) का सिद्धांत का लागू होना और भी मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि आज एक निर्णायक विश्व युद्ध नहीं लड़ा जा सकता क्योंकि इसके परमाणु विश्व युद्ध में बदल जाने का खतरा मंडरा रहा है जो मानव जाति और पृथ्वी के पूर्ण विनाश का कारण बन सकता है। इसलिए, वर्तमान संकट की विशिष्टता दो कारणों से है, पहला है एकाधिकारी पूंजी का लाभ के लिए उत्पादक क्षेत्रों (जहां नए मूल्यों का निर्माण होता है) के बजाय अनुत्पादक वित्तीय क्षेत्रों पर निर्भर करना, और दूसरा है एक ऐसे निर्णायक विश्व युद्ध की असंभवता जो बड़े स्तर का विनाश लाती जिससे पूंजी के अवमूल्यन की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ पाती जिसके बाद पर्याप्त और निरंतर विकास अवधि का आना संभव हो पाता।
[6] और यह निर्णायक मोड़ तभी आएगा जब सर्वहारा वर्ग इसके शीर्ष पर होगा और इसे आगे से नेतृत्व देगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह फासीवाद के खिलाफ सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनता का क्रांतिकारी संघर्ष होगा। हम इसे सर्वहारा वर्ग का तात्कालिक क्रांतिकारी कार्यक्रम कहते हैं। अगर ऐसा संघर्ष विजयी होता है तो इसका तात्कालिक उद्देश्य फासीवाद की जड़ों को नष्ट करना होगा।
[7] इसमें न केवल एकाधिकारवादी पूंजीपति वर्ग को समृद्ध करना शामिल है, बल्कि विदेशों में तथा अपने ही लोगों के खिलाफ प्रतिक्रियावादी युद्ध छेड़ने के लिए मशीनरी और उपकरण तैयार करने के लिए राष्ट्रीय आय का बड़ा हिस्सा हड़पना भी शामिल है। यह स्वाभाविक रूप से पूरे देश और जनता के आर्थिक जीवन और कल्याण को नजरअंदाज करता है, जो बेरोजगारी, महंगाई, कल्याणकारी नीतियों की कमी और सामाजिक संपदा की बेलगाम लूट से लगातार जूझ रहे हैं।
[8] यह पूरी पूंजीवादी व्यवस्था के हित और उसकी स्थिरता को बनाये रखने के साथ ही किया जाएगा, क्योंकि उनके हित तभी तक बने रहते हैं जब तक पूंजीवादी या कहें कि पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था खुद बनी रहती है। हालांकि, यह भी सच है कि पूंजीवाद को उसके सबसे अच्छे राजनीतिक आवरण यानी जनतंत्र से वंचित करके, चाहे इसका कारण कुछ भी हो, पूंजीपति वर्ग खुद को जनता को ठगने की उसकी क्षमता से वंचित कर रहा है।
[9] कम्युनिस्ट घोषणापत्र (1848)
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