कांग्रेस वोर्किंग कमेटी के ‘नव सत्याग्रह’ प्रस्ताव पर सर्वहारा जनमोर्चा का बयान

विस्तारित कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) की बेलगावी में 26 दिसंबर 2024 को हुई ‘नव सत्याग्रह’ बैठक में पारित संकल्प प्रस्ताव – “संविधान की रक्षा के लिए हम संगठित हैं, संकल्पित हैं, समर्पित हैं!” – पर सर्वहारा जनमोर्चा (पीपीएफ) का बयान

CWC का पूरा बयान पढ़ने हेतु यहां क्लिक करें


कांग्रेस वर्किंग कमेटी का नवसत्याग्रह प्रस्ताव

हर प्रकार से जनतंत्र को खोखला करने, संवैधानिक मूल्यों पर हमले, संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया जैसी संस्थाओं पर नियंत्रण, विरोध पर निर्मम दमन, सांप्रदायिक-नृवंशीय नफरत को बढावा, अल्पसंख्यकों पर जुल्म, प्रार्थना स्थल कानून के विपरीत मस्जिदों पर हमले, आवश्यक वस्तुओं पर महंगाई, आदि के लिए यह प्रस्ताव बीजेपी सरकार का विरोध करता है, और यह विरोध बिल्कुल सही है।

लेकिन यह कांग्रेस को तय करना होगा कि वह इसका विरोध महज चुनावी संघर्ष में बहुमत के आंकड़े को पाने और इस सम्बन्ध में जीत के लिए करना चाहती है या फासीवाद को जड़मूल से तथा हर मायने में उखाड़ फेंकने के लिए जरूरी जन संग्राम के लिये। जहां कांग्रेस जनता को स्वतंत्रता आंदोलन के समय के अपने ‘चमकदार’ अतीत में ले जाने की कोशिश कर रही है, वही जरूरत जनता के समक्ष जनता के हितों के प्रति अपने सच्चे समर्पण और इसलिये इससे जुड़ी भविष्य की अपनी रूपरेखा पेश करने की है, जिसमें इसका करीबी इतिहास और वर्तमान, जो कलंकित (जनविरोधी और पूंजीपक्षीय) रहा है, आड़े आता है।

हालांकि सच्चाई यह भी है कि चुनाव को निष्पक्ष और जनता की सही आवाज़ बनाने हेतु होने वाली प्रस्तावित किसी भी लड़ाई का आज की देय परिस्थिति में सड़क पर होने वाले जन संग्राम का एक मुख्य पहलू व हिस्सा बनना तय है।

इसी के साथ, समस्या का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि आगामी चुनाव परिणाम में संख्या बल में फासीवादियों को हराना और उन्हें, संख्याबल के बावजूद, सत्ता से वास्तव में विस्थापित करना एक दूसरे का पर्याय नहीं रह गया है। यह सिद्धांत से ज्यादा यह फासीवादियों की सामाजिक ताकत व सत्ता पर पकड़ के सम्बंध में वस्तुगत स्थिति के आकलन का और इसके तदनरुप संघर्ष में उठाये जाने कदमों व रणनीति-कार्यनीति का सवाल अधिक है।

इस संबंध में, हालांकि हम पाते हैं कि अंबेडकर के सम्मान, जय भीम, संविधान के मूल्यों की हिफाजत जैसी महज कोरी प्रतीकात्मक बातों के आगे जाने में वह अक्षम है। इन प्रतीकात्मक बातों के अतिरिक्त इस प्रस्ताव में जो चार मुख्य नीतिगत बातें उठाई गईं हैं उनका इस दृष्टि से विवेचन जरूरी है कि क्या वास्तव में फासीवाद के प्रतिरोध तथा जनवाद व वास्तविक सामाजिक न्याय के विस्तार में उनकी कोई वास्तविक भूमिका बनती है या नहीं। अगर बनती है तो कितनी बनती है और अगर नहीं बनती है तो क्यों नहीं बनती है?

प्रथम ठोस प्रस्ताव जाति जनगणना का है। सही है, अगर जातियां हैं तो उस आधार पर जनगणना हो, इसके विरोध का कोई आधार नहीं हो सकता है। इसी तरह, सामाजिक अन्यायपूर्ण ढांचे की कठोर वास्तविकता उजागर करने वाले किसी कदम के विरोध का कोई तार्किक आधार नहीं हो सकता है। ठीक इसी तरह, हमें यह भी देखना चाहिये कि इसे उठाने के पीछे की असली वजह और मंशा कितना न्यायपूर्ण और शोषण-उत्पीड़न विरोधी है। इसलिये जातिगत जनगणना को जब तक समस्त संपदा में श्रम करने वालों की न्यायपूर्ण हिस्सेदारी के सवाल तक नहीं ले जाया जाता है तब तक इसमें निहित न्यायपूर्ण ध्येय की पूर्ति असम्भव है। इसके बजाय अगर इसे मात्र उच्च शिक्षा व नौकरियों में आरक्षण तक सीमित रखा जाता है, जाहिर इसे उठाने वालों की मंशा यही है, तो फिर सार्वजनीन और सभी चीजों को अपने आगोश में ले लेने वाले एकाधिकारी पूंजी के पक्ष में किये जा रहे निजीकरण के मौजूदा नवउदारवादी यानी घोर पूंजीपक्षीय दौर में इससे दलितों वंचितों के अधिकांश गरीब मेहनतकश भाग को क्या कोई वास्तविक लाभ हो सकता है? हम पाते हैं कि गत लोकसभा चुनाव के पहले संपदा के पुनर्वितरण का जो सवाल एकबारगी और अप्रत्याशित तरीके से राहुल गांधी ने जब उठाया था, तब संपत्तिवान तबकों द्वारा न सिर्फ उसका कटु विरोध हुआ था बल्कि यह भी हुआ था कि राहुल गांधी, तथा अन्य सभी ने, उस पर उसी अप्रत्याशित तरीके से तथा एकबारगी चुप्पी साध ली। मानो, सबको किसी जहरीले सांप ने सूंघ लिया हो। यह और कुछ नहीं तो इनकी मंशा को तो उजागर कर ही देता है।

दूसरा अर्थात जीसटी 2.0 तो स्वयं प्रस्ताव ही स्पष्ट कर देता है कि यह उद्योग, व्यापार व वाणिज्य के साथ ‘न्याय’ हेतु सरलीकरण की मांग है क्योंकि जहां तक जनता की बहुसंख्या का सवाल है जीएसटी किसी भी रूप में अन्यायपूर्ण टैक्स है। टैक्स सिर्फ आय व संपत्ति पर अर्थात प्रत्यक्ष होने चाहिएं। सभी अप्रत्यक्ष कर मेहनतकश जनता की न्यून आय में से की गई सरकारी जेबकतरी (अन्यायपूर्ण कटौती) है और इनके किसी भी रूप का समर्थन पूंजी के पक्ष की नीति है। सरलीकरण से जनता का कोई हित नहीं जुडा हुआ है क्योंकि उसे तो दोनों स्थितियों में ही यह अन्यायपूर्ण टैक्स चुकाना पड़ता है। सरलीकरण होने न होने का संबंध तो इस बात से है कि जनता से वसूली गई रकम में से कितना सरकारी कोष में जाएगा व कितना पूंजीपति व अफसरशाही चोरी कर आपस में बांट लेंगे।

तीसरी बात, एमएसपी की कानूनी गारंटी की है जो आज के दौर के पूंजीवाद की बाजार व्यवस्था में वैसे तो पूरी होनी नामुमकिन है, लेकिन अगर कानून बना दिया जाता है, तब भी इसे लागू करना नामुमकिन है, क्योंकि इसके पीछे की असली मांग पूरी उपज की लाभकारी (किसानों की नजर में न्यायपूर्ण दाम पर) खरीद की गारंटी की मांग है। बाजार व्यवस्था व दामों में परिवर्तन के जरिए उत्पादन-वितरण का नियंत्रण पूंजीवाद का बुनियादी ढांचा तैयार करता है और पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के रहते कानून बनाकर भी इसे समाप्त नहीं किया जा सकता, अन्यथा कांग्रेस की राज्य सरकारें ऐसा कर सकती थीं, जो कि नहीं कीं। मात्र समाजवादी समाजों ने ही सामूहिक फार्मों में संगठित किसानों की उपज को निश्चित दामों पर खरीद को व्यवहार में लागू किया है क्योंकि उसी स्थिति में यह व्यवहारिक तौर पर मुमकिन है। लेकिन यह व्यवहार अभी सिद्धांत के क्षेत्र में ही कैद है, क्योंकि इसकी नींव एकमात्र तभी सम्भव है जब मजदूर वर्ग शासक वर्ग के बतौर प्रकट होगा और वह समाज को सामाजिक सम्बन्धो की सर्वथा नई धुरी पर, प्रत्यक्ष उत्पादकों के समग्र हितों की हर हाल में पूर्ति की धुरी पर, अर्थात समाजीकृत उत्पादन के साथ-साथ समाजीकृत स्वामित्व और समाजीकृत हस्तगतकरण की धुरी पर पुनर्गठित करेगा। इसके लिए जरूरी है कि मजदूर वर्ग कम से कम भावी शासक वर्ग के रूप में प्रतिस्पर्धा के स्तर पर भी आये और किसानों को अपनी शर्तों पर इसके बारे में ठोस प्रस्ताव पेश कर सकने की राजनीति शक्ति की स्थिति में हो।

चौथी बात मनरेगा के लिए आबंटन बढाने व 400 रुपये दैनिक मजदूरी की है। निश्चित तौर पर ही इस योजना को पूरी तरह लागू करना ग्रामीण क्षेत्र में गरीबों के लिए 3,333/- महीना (400 रु * 100 दिन) की राहत तो है मगर बीजेपी, कांग्रेस, आप सहित इस वक्त सभी पार्टियों द्वारा अनाज, मानधन, मुफ्त बस भाडे/बिजली, आदि योजनाओं जैसी ही है। यह बेरोजगारी व गरीबी की समस्या के समाधान की दिशा में पहला कदम भी नहीं है। यहां एक बड़ी पेशकदमी की जरूरत है।

लब्बोलुआब यह कि मौजूदा पूंजीवादी जनतंत्र पर फासीवादी हमले के राजनीतिक पहलुओं का विरोध करते हुए भी यह प्रस्ताव फासीवाद के आधार पर चोट नहीं करता। फासीवाद मूलतः क्या है? यह सर्वाधिक प्रतिगामी सामाजिक शक्तियों (ब्राह्मण-सवर्णवादी प्रभुत्व की हिंदुत्व विचारधारा) द्वारा जनवाद पर चौतरफा (राज्य व राज्येतर) हमला है, किंतु इस हमले की वास्तविक स्पांसर वित्तीय व मोनोपॉली पूंजी है जो खुद द्वारा पैदा किए गए पूंजीवादी व्यवस्था के गहन संकट के दौर में इस सीमित जनवाद को भी अपने हितों के लिए बाधक मान रही है। इन दोनों के प्रभाव से मुक्त सरकार की स्थापना ही फासीवाद की पराजय तथा जनवाद के विस्तार की ओर ले जा सकती है।

– प्रस्तावक कमेटी, सर्वहारा जनमोर्चा (प्रोलेतारियन पीपल्स फ्रंट)
27 दिसंबर 2024


Leave a comment