मुकेश असीम | ‘सर्वहारा’ #64-65 (1 दिसंबर 2024)
अखबार बता रहा था, देखो, सरकार कितनी गरीबपरवर, रहमदिल व कल्याणकारी है। उसकी खबर की मोटी हेडलाइन बता रही थी कि सरकार ने स्कूली बच्चों के मिड डे मील का बजट बढ़ा दिया है। लेकिन कोई खुशी की अधिकता से पागल न हो जाए इस वास्ते नीचे की छोटी हेडलाइन में लिखा था कि मिड डे मील पर रोजाना खर्च सवा रुपया बढ़ा दिया गया है।
किंतु सच्चाई उतनी भी नहीं थी। पूरी खबर पढ़ने पर मालूम हुआ कि केंद्र सरकार ने सवा रुपया रोज भी नहीं, मिड डे मील के लिए प्रति बच्चा खर्च आंगनवाड़ी/प्राइमरी स्कूलों के लिए बस 74 पैसे तथा उच्च प्राइमरी स्कूलों के लिए मात्र 112 पैसे प्रतिदिन बढ़ाया है। प्राइमरी स्कूलों के बच्चों के मिड डे मील पर पहले के 5.45 रुपए की बजाय अब 6.19 रुपए एवं उच्च प्राइमरी स्कूलों के बच्चों के लिए 8.17 रुपए के स्थान पर अब सरकार 9.29 रुपए खर्च की व्यवस्था करेगी। बताया गया है कि इसमें से 60% केंद्र व 40% राज्य सरकार देगी।
घोषणा तो यूं की जाती है कि जैसे जनकल्याण का कोई ऐतिहासिक फैसला किया गया है। वाह, क्या शानदार बजट मंजूर किया है! सरकार ने तो लगता है कि बच्चों के लिए कारूं का खजाना ही खोल दिया है। अब तो जरूर सब बच्चों को सभी आवश्यक पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा सहित पूरी तरह संतुलित आहार वाला मध्याह्न भोजन मिलेगा। अब देश में कोई बच्चा कुपोषित नहीं रहने पाएगा।
लेकिन सपने यूं हकीकत में नहीं बदलते। उसके लिए तो एक वास्तविक कल्याणकारी राज्य, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु योजना के आधार पर चलने वाला मजदूर वर्ग का समाजवादी राज्य चाहिए। उस राज्य में वास्तव में सभी बच्चों ही नहीं, पूरे समाज के लिए संतुलित पोषक आहार की योजना को साकार किया जा सकेगा, जैसे दुनिया में सोवियत संघ जैसे समाजवादी राज्यों ने पहले भी कर दिखाया था।
पर अभी तो पूंजीपतियों की हुकूमत है जो सरमायेदारों का मुनाफा अधिक से अधिक बढ़ाने के लिए काम करती है। आइए, इस लुटेरी व्यवस्था में एक वक्त के भोजन पर इस 6 व 9 रुपये के खर्च में बच्चों को दिए जाने वाले आहार की हकीकत जानने की कोशिश करते हैं।
क्रिसिल एक पूंजीवादी संस्था है जो घर में पकाए जाने वाले साधारण भोजन की थाली की लागत का सूचकांक रखती है। नवंबर में जारी इस सूचकांक के अनुसार अक्टूबर 2024 में एक वक्त के शाकाहारी भोजन की लागत एक महीने पहले सितंबर से 6% व एक साल पहले के अक्टूबर से 20% बढ़ कर अब प्रति थाली 33.3 रुपये एवं प्रति थाली मांसाहारी भोजन (दाल की जगह चिकन) 61.6 रुपये प्रति थाली हो गई।
इसकी वजह भी साफ है कि महंगाई बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है, विशेषकर खाद्य पदार्थों की महंगाई तो अत्यधिक तीव्रता से बढ़ रही है। अक्टूबर में ही देखें तो उपभोक्ता महंगाई दर 6.21% रही। खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 10.87% रही। इसमें सब्जियों के दाम 42% तो तेल के 9.5%, फल 8.4%, अनाज 6.9%, दूध 4.87% तथा मांस के दाम 3.17% बढ़े। इसकी तुलना में औद्योगिक उत्पादों के दाम या कोर महंगाई दर 3.7% ही रही।
गौर करने की बात है कि गरीब लोगों की आय का बड़ा हिस्सा खाद्य पदार्थों पर खर्च होता है। महंगाई भी वहीं अधिक है अर्थात उनके लिए मारक है। अमीरों के लिए महंगाई उतनी मारक नहीं है बल्कि कोई खास समस्या भी नहीं है, क्योंकि खाद्य पदार्थों पर उनकी आमदनी का बहुत छोटा हिस्सा खर्च होता है।
किंतु यहां हमारा मुख्य विषय स्कूली बच्चों का मिड डे मील है। घर में पूरी किफायत से घर की महिलाओं द्वारा बिना कोई मजदूरी/वेतन लिए पकाए गए भोजन की ऊपर बताई गई लागत से मिड डे मील के बजट की तुलना करें तो हम पाते हैं कि इस बजट में संतुलित पोषक आहार उपलब्ध कराना तो दूर की बात है, इस 6 व 9 रुपये के खर्च में पूरी ईमानदारी से काम करने पर भी मनुष्य के आहार लायक सामान्य न्यूनतम गुणवत्ता व स्वाद वाला भोजन उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। और हम यह भी जानते हैं कि मुनाफे की भूख से संचालित पूंजीवादी व्यवस्था में ईमानदारी नामुमकिन बात है।
सिर्फ स्कूल कर्मी ही नहीं कई राज्यों द्वारा मिड डे मील का ठेका पाने वाले अक्षय पात्र जैसे तथाकथित धार्मिक समाजसेवी एनजीओवादी भी इस काम के लिए उपलब्ध कराई गई सामग्री की चोरबाजारी करते हुए पकड़े जा चुके हैं। ऊपर से अपनी कट्टरपंथी अंधविश्वासी जिद की आड़ में पैसा बचाने हेतु ऐसे कई एनजीओवादी भोजन में प्याज, लहसुन और मसालों तक का इस्तेमाल नहीं करते हैं। इससे यह भोजन बिल्कुल खाने लायक रहता ही नहीं है। कई स्थानों से ऐसी रिपोर्ट मीडिया में आ चुकी हैं कि बहुतेरे बच्चे मिड डे मील खाते ही नहीं हैं क्योंकि वह बेहद खराब होता है। जो बच्चे गरीबी से बेहद मजबूर हैं वही विवशता में यह खाना खाते हैं। इस प्रकार जितने बच्चों के लिए बजट लेते हैं उससे कम खाना तैयार कर भी ये एनजीओ इसमें चोरी करते हैं।
आहार विशेषज्ञों की सलाह व जनपक्षधर लोगों की मांग के भारी दबाव के बाद कुछ राज्यों ने केंद्र द्वारा तय राशि में अपनी ओर से अतिरिक्त बजट जोड़कर बच्चों को मिड डे मील के साथ अंडा देने की व्यवस्था की है। परंतु इस वक्त देश व अधिक राज्यों में मौजूद बीजेपी की फासीवादी सरकार से जुड़े समूह शाकाहार के नाम पर उसका भी विरोध करते हैं और कर्नाटक जैसे राज्यों में इनकी सरकार आने पर वह व्यवस्था बंद कर दी गई। बहाना बनाया गया कि माता पिता बच्चों को मांसाहारी भोजन देने के विरुद्ध हैं जबकि सच्चाई यह है कि जब कर्नाटक के कुछ जिलों में परीक्षण के तौर पर अंडा वितरण आरंभ किया गया तो 91% बच्चों ने उसे स्वीकार किया था। बहुत से बच्चे जिनके परिवार में शाकाहारी भोजन बनता है उन्होंने भी स्कूल में अपने बच्चों को अंडा देने का समर्थन किया था।
इसके विपरीत हम बहुत बार खबरों में देखते हैं कि जब मंत्रियों/अफसरों की बैठकों या उनके ‘अतिथियों’ के लिए सरकारी लंच/डिनर आयोजित किए जाते हैं तो उनमें प्रति थाली खर्च कई कई हजार रुपये, कई बार तो दसियों हजार रुपए तक किया जाता है। उस वक्त इस तथाकथित जनतंत्र के सत्ता तंत्र को सीमित बजट की बाधा पेश नहीं आती है।
कुल मिलाकर बात यही है कि मुनाफे की पूंजीवादी व्यवस्था के लिए मेहनतकशों व उनके बच्चों के जीवन का मूल्य इतना ही है कि वे उनके लिए कम से कम मजदूरी पर अपनी श्रम शक्ति बेचें। भारी बेरोजगारी के चलते ऐसे श्रमिकों की कोई कमी नहीं है। एक के बीमार या मृत होने पर भी कई और उपलब्ध हैं। इसलिए मेहनतकशों के स्वास्थ्य पर कोई भी अतिरिक्त खर्च पूंजीवादी सत्ता को मंजूर नहीं है। उन्हें लगता है कि ऐसा हर खर्च सरकार द्वारा पूंजीपतियों को पहुंचाए जाने वाले फायदे में कटौती करता है।
सिर्फ गत वित्तीय वर्ष में ही सरकारी बैंकों ने पूंजीपतियों के एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपये के कर्ज राइट ऑफ या एक तरह से माफ कर दिए। लाखों करोड़ रुपए की टैक्स रियायतें व अन्य अनेक प्रोत्साहन उन्हें दिए। इस पर पूंजीवादी मीडिया में फिजूलखर्ची का कोई ऐतराज नहीं किया गया। लेकिन बच्चों के मिड डे मील जैसी योजनाओं पर जरा भी खर्च बढ़े तो मीडिया में तुरंत वित्तीय घाटा बढ़ने की चिंता जताने वाले पूंजीवादी भाड़े के विद्वान हायतौबा मचाने लगते हैं।
इसी का नतीजा है कि एक ओर प्रचार किया जाता है कि भारत आर्थिक महाशक्ति बन गया है। उसकी जीडीपी कितने ट्रिलियन हो गई है या होने वाली है इसका जबरदस्त प्रचार किया जा रहा है। मगर भारत भूख सूचकांक के मामले में दुनिया में 106 देशों के नीचे अर्थात 107वें नंबर पर है। जिन तमाम देशों को गरीब बताया जाता है वह भी खाद्य सुरक्षा के मामले में भारत से आगे हैं। दुनिया में जितने कुल कुपोषित बच्चे हैं उनके करीब आधे तो भारत में ही हैं। इसकी वजह खाद्य पदार्थों की उत्पादन क्षमता में कमी नहीं है। इसकी एकमात्र वजह है मुनाफाखोरी पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था। इसकी जगह मजदूरों का राज कायम होगा तो वही सभी की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने की योजना बनाकर भूख और कुपोषण की इस सामाजिक बीमारी को दूर कर सकता है।