विदुषी | ‘सर्वहारा’ #64-65 (1 दिसंबर 2024)
बीते दो महीनों से देश की राजधानी दिल्ली की हवाओं में प्रदूषण की मात्रा खतरनाक स्तर पर बनी हुई है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की सीमा से तीस गुना अधिक है। हालत की गंभीरता इससे समझी जा सकती है कि दिल्ली की हवा में सांस लेना प्रतिदिन 35 से 40 सिगरेट पीने के बराबर है! अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय के उर्जा नीति संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के डेढ़ करोड़ लोग, जीवन के अपेक्षित वर्षों में 12 वर्षों से वंचित होने के कगार पर हैं। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में फेफड़ों की बीमारी से ग्रसित मरीजों की संख्या लगभग 15 फीसदी से बढ़ी है। ऐसे स्वास्थ्य आपातकाल के माहौल में केंद्र के वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने 18 नवम्बर को सख्त प्रदूषण नियंत्रण हेतु अपने दिशानिर्देश जारी किये जिसमें विद्यालयों व कालेजों में छुट्टी, ट्रक प्रवेश पर प्रतिबंध और सभी प्रकार के निर्माण कार्यों पर रोक शामिल थे। 2 दिसंबर के सुप्रीम कोर्ट के आदेश में निर्माण कार्यों पर बैन को तब तक जारी रखने के लिए कहा गया जब तक कि हवा की क्वालिटी में सुधार नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली नगर निगम, दिल्ली पुलिस, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति और वायु गुणवत्ता आयोग को फटकार लगाते हुए कहा कि वे फौरी रूप से अपनी गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित करते हुए कड़ाई से सारे प्रतिबंध लागू करें। लेकिन इसके साथ ही, यह संज्ञान में लेते हुए भी कि दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, यूपी या हर राज्य में ही लाखों मजदूर अपने जीवन निर्वाह के लिए निर्माण क्षेत्र पर निर्भर हैं, इस बैन से उनके जीवन में आने वाले भूचाल पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई टिप्पणी करना जरूरी नहीं समझा। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे न्याय के इन ‘मंदिरों’ में मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए सामान्य संवेदनशीलता का भी कितना अभाव है! प्रदूषण रोकने के लिए निर्माण कार्यों को रोकना एक अस्थायी उपाय हो सकता है जो समस्या को सुलझाता नहीं बल्कि केवल उसकी तीव्रता में थोड़ी सी कमी लाता है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ इससे करोड़ों मजदूरों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। और इसके विकल्प के रूप में उन्हें कोई मुआवजा या प्रदूषण भत्ता मिलने की कोई बात तक नहीं हुई है। लेकिन कोर्ट इस पर मौन रह गया।
दिल्ली एनसीआर के विभिन्न इलाकों के लेबर चौकों पर खड़ा होने वाले निर्माण मजदूरों के लिए यह ‘बैन’ किसी छोटे लॉकडाउन से कम नहीं है! व्यापक बेरोजगारी (जिसमें प्रति माह महज 10 से 12 दिन काम मिल पाता है), तेज गति से बढ़ती महंगाई की तुलना में गिरती वास्तविक दिहाड़ी, कार्यस्थल पर दुर्घटना संबंधित बढ़ते आंकड़े और वेलफेयर बोर्ड के तहत सामाजिक सुरक्षा का धीरे-धीरे विलुप्त हो जाना – यह सब तो मजदूरों के जीवन को नर्क बनाने के लिए पहले से मौजूद ही थे लेकिन अब सरकार द्वारा जारी ‘बैन’ के फरमान ने उनके जीवन की भौतिक परिस्थितियों को और ज्यादा असह्य और भयावह बना दिया है। मजदूर अपने और अपने परिवार को भुखमरी से बचाने के लिए तीसों दिन काम की तलाश में घर से निकलता है। खुद को प्रदूषण के प्रकोप से बचाने का विकल्प उसके लिए भूख से मर जाने के बराबर है। नोएडा के खोड़ा कॉलोनी के एक 45 वर्षीय मजदूर राजकुमार कहते हैं – “मुझे पता है कि वायु प्रदूषण से हमारे शरीर को कितना नुकसान होता है, खासकर हमारे काम के क्षेत्र में, लेकिन इसके बावजूद मुझे उस बीमारी से मरना मंजूर है लेकिन मैं काम नहीं छोड़ सकता क्योंकि मेरे पीछे चार पेट हैं जिन्हें मैं यूंही तड़पने के लिए नहीं छोड़ सकता।” इस वर्ष राजकुमार जैसे हजारों मजदूर छठ-दिवाली-दशहरा जैसे त्योहारों में भी पैसे के अभाव में अपने घर ना जा सके और हर दिन चौक पर काम की तलाश में आते रहे। दिल्ली के हौज रानी लेबर चौक के 19 वर्षीय युवा मजदूर तसनीम कहते हैं – “कितना अजीब है यह समाज – एक ओर अमीर लोग पटाखे जलाएं, फैक्टरियों से धुआं छोड़ें, अपनी चार चक्का गाड़ियों से काम पर जाएं या घर में एसी चला कर आराम में साफ हवा में ऑनलाइन माध्यम से काम करें, तो दूसरी ओर हम उनके द्वारा किये गए प्रदूषण का हर्जाना भुगतें! दरअसल हम इस प्रदूषण के चलते मारे जाएं या काम पर बैन लगने से भूखे मारे जाएं, इस समाज के पूंजीपतियों, व्यापारियों और सरकार को क्या – इनको कानों पर तो जूं तक न रेंगेगा। आखिर हम अपने पेट पर बैन कैसे लगा दें?” यह बात सही है कि प्रदूषण बढ़ने के कारण होने वाली बीमारियों का ज्यादा खतरा उन ही तबकों को होता है जो इस हवा में ज्यादा रहने को मजबूर हैं और जिनके पास पहले से ही अपने शरीर को मजबूत रखने के लिए पौष्टिक भोजन व अन्य जरूरी उपचार व इलाज उपलब्ध नहीं होता है, यानी मजदूर-मेहनतकश तबके, आम गरीब जनता और उनके परिवार। इसके साथ ही अगर वे बीमार पड़ जाएं तो उन्हें प्राइवेट अस्पतालों में लाखों रुपये खर्च करके भी ढंग का इलाज नहीं मिल पाता, और दूसरी तरफ जर्जर और मरीजों के अत्यधिक बोझ तले चरमरा गये सरकारी अस्पतालों की नारकीय स्थिति तो जग जाहिर है।
जहां दिल्ली सरकार को प्रदूषण बैन की अवधि के दौरान दिल्ली वेलफेयर बोर्ड में इकठ्ठा 4500 करोड़ रुपयों का इस्तेमाल करते हुए, सभी 13 लाख निर्माण मजदूरों को तय न्यूनतम दिहाड़ी या प्रदूषण भत्ता देना चाहिए था, वहां वह जानबूझकर इस मामले को रफा दफा करने में लगी है। केंद्र की भाजपा सरकार के इशारों पर चलने वाले दिल्ली के गवर्नर ने भी कहा कि वह जल्द ही निर्माण मजदूरों के लिए एक ‘नया’ बोर्ड बनायेंगे। यह और कुछ नहीं बल्कि पहले से वेलफेयर बोर्ड में जमा राशि को हजम कर जाने की कवायद है। मजदूरों को इस पूरे खेल को समझना होगा और इसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी, अन्यथा वे और उनका परिवार इसी तरह एक तरफ भूख और दूसरी तरफ प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के बीच ही मरते रहेंगे।