संपादकीय | ‘सर्वहारा’ #60-61 (1-31 अक्टूबर 2024)
वर्ल्ड बैंक ने वैश्विक गरीबी पर विगत 15 अक्टूबर को जारी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 2024 में भारत में 12 करोड़ 90 लाख (129 मिलियन) लोगों की दैनिक मजदूरी 181 रुपये (2.15 डॉलर) से भी कम है। अपने आप में यह एक बहुत बड़ी संख्या है। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। 576 रुपये (6.85 डॉलर) प्रति दिन प्रति व्यक्ति आय से हिसाब लगाया जाए, तो यह संख्या 43 करोड़ से भी अधिक चली जाएगी। यानी, 576 रुपये (6.85 डॉलर) प्रति दिन प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से आज की गरीबी 1990 की गरीबी से भी अधिक है। जबकि महंगाई 1990 की तुलना में आज बहुत अधिक है। 576 रूपये में हम बाजार से जितनी चीजें 1990 में खरीदते थे उसकी तुलना में आज हम बहुत ही कम चीजें खरीद पाते हैं। शिक्षा व स्वास्थ्य पर खर्च भी पहले की तुलना में काफी अधिक बढ़ा है। साफ है, लागों का जीवन पहले से ज्यादा कठिन हुआ है और वास्तव में गरीबी घटी नहीं बढ़ी है।
मजेदार बात यह है कि यह आंकड़ा कोई और नहीं एक साम्राज्यवादी-पूंजीवादी संस्था (वर्ल्ड बैंक) जारी कर रहा है। ऐसा करना उसकी मजबूरी है। लेकिन इसी के साथ वह आंकड़े पेश करते वक्त तरह-तरह से हाथ की सफाई भी पेश करने की कोशिश करता है ताकि गरीबी का सतत विस्तार करने वाली पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को गरीबी को दूर करने वाली व्यवस्था बताया जा सके। जैसे कि ये गरीबी के मानक को नीचे कर देते हैं और फिर बताते हैं कि ”देखिए, गरीबी में रहने वालों की संख्या घट गई है।”
ऐसा ट्रिक वह हमेशा से अपनाता रहा है। इस रिपोर्ट में भी वह यही कर रहा है। गरीबी के मानक को 181 रूपये प्रतिदिन प्रति व्यक्ति की आय तक ले आया गया और फिर इस हिसाब से गरीबी में रहने वालों की संख्या को 12 करोड़ 90 लाख बता दिया गया, जबकि यह संख्या अत्यधिक गरीबी में रहने वालों की है।
सामान्यतः गरीबी और आर्थिक कठिनाई में रहने वालों की संख्या बेशुमार है। इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि निजी क्षेत्र में जिनको नियमित वेतन मिलता है उनमें से 80 फीसदी (लगभग 45 करोड़ लोगों) का वेतन 20,000 रुपये या उसके पास है। जिनको नियमित वेतन नहीं मिलता है, उनकी संख्या को भी इसमें शामिल कर लें तो यह संख्या 80 करोड़ के पार चली जाएगी। इनकम टैक्स के आंकड़ों पर आधारित गणनाएं बताती हैं कि लगभग 115 करोड़ लोगों की आय 20,000 रुपये या इससे कम है।
लेकिन बात सिर्फ भारत की नहीं है। वर्ल्ड बैंक की इसी रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे विश्व में गरीबी की स्थिति विकराल हो चली है। रिपोर्ट के अनुसार, आज दुनिया की 8.5 प्रतिशत आबादी अत्यधिक गरीबी में रहती है जिनकी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आय 2.15 डॉलर या 181 रूपये से कम है। यहां अत्यधिक शब्द पर गौर करें जो दरअसल अमीरी व गरीबी के बीच की खाई में अश्लीलता की हद तक हुई वृद्धि को भी दर्शाता है। सामान्य रूप से गरीबी की बात करें तो ऐसे गरीब लोगों की प्रतिशत संख्या, इसी रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे विश्व की आबादी का 44 प्रतिशत बनती है।
आगे रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी का मुख्य कारण जनसंख्या में वृद्धि है। ये सरासर गलत है और ऐसा प्रचार महज सच्चाई को ढंकने और भ्रम पैदा करने के लिए किया जाता है। अमेरिका व यूरोप के विकसित देशों में तो इसके विपरीत प्रजनन दर में आई कमी, इसकी वजह से पूरी जनसंख्या में नौजवान मजदूरों की संख्या में लगातार बनी रहने वाली कमी, इसके कारण मजदूरी दर में होने वाली वृद्धि, इसके कारण मुद्रास्फीति में वृद्धि (पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के समर्थक अर्थशास्त्रियों के अनुसार), आदि जैसे मुद्दे चिंता के विषय हैं।
भारत की बात करें, तो इसके आर्थिक विकास की तथाकथित सफलता की कहानी की वास्तविक सच्चाई तो यही है कि भारत में हुए विकास का लाभ केवल मुट्ठी भर पुराने व नये धनाड्य तबके को प्राप्त हुआ है और बाकी के हिस्से में केवल इस विकास व इससे होने वाले लाभ को पैदा करने का बोझ आया है। ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट बताती है कि भारतीय जनसंख्या के शीर्ष 10% लोगों (अमीर लोगों) के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा है। 2017 में पैदा हुई संपत्ति का 73% हिस्सा सबसे अमीर 1% लोगों के पास चला गया, जबकि 67 करोड़ भारतीय, जो कि आबादी का सबसे गरीब हिस्सा हैं, की संपत्ति में केवल 1% की वृद्धि हुई।
इन सबके बावजूद विश्व बैंक ने मौजूदा रिपोर्ट में कहा है कि अगले दशक में वैश्विक चरम गरीबी में भारत का योगदान काफी कम होने का अनुमान है। यह अनुमान अगले दशक में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि के अनुमानों के साथ-साथ ऐतिहासिक वृद्धि दरों पर आधारित है। जबकि जीडीपी में वृद्धि और उससे होने वाला लाभ कहां जाता है, ये उपरोक्त आंकड़ों से साफ है। इसलिए जीडीपी बढ़ने से गरीबी कम होने का संबंध जोड़ना केवल एक छलावा मात्र है। सच्चाई यही है कि आज इसके घटने का बोझ तो गरीब मेहनतकश जनता पर आता ही है (खासकर तब जब यह आर्थिक मंदी और संकट के समय जनता को मिलने वाली बची-खुची सुविधाओं की भी कटौती के रूप में प्रकट होता है), साथ में जीडीपी को बढ़ाने का (बिना किसी ‘लाभप्रद’ हिस्सेदारी के और एकमात्र न्यूनतम से भी कम मजदूरी के आधार पर) बढ़ाने का बोझ भी गरीब जनता पर ही आता है। मजदूर वर्ग का संगठन कमजोर हुआ है तो उसकी अपनी मांगों के लिए पूंजीपति वर्ग के साथ सौदेबाजी करने की क्षमता भी कमी है जिसका परिणाम है कि मजदूरों के ऊपर काम का बोझ ही नहीं बढ़ा है, उसकी वास्तविक और यहां तक कि नॉमिनल मजदूरी में भी कमी आई है।
हम देख सकते हैं कि वर्ल्ड बैंक किस तरह आंकड़ों के पीछे की सच्चाई को छुपाने की कोशिश करता है और इसलिए इसकी रिपोर्ट अंतर्विरोधी बातों और निष्कर्षों से भरी है। लेकिन अंततः रिपोर्ट में वर्ल्ड बैंक कम से कम इस बात को मानने को बाध्य हो गया है कि वैश्विक गरीबी दर में गिरावट लगभग रुक गई है, और 2020-2030 एक खोया हुआ दशक (lost decade) होने वाला है जिसमें गरीबी में कोई कमी नहीं आई है और न ही आने वाली है, जबकि संपूर्ण जमीनी हकीकत यह है कि लोगों के जीवन की आर्थिक-सामाजिक कठिनाइयां यथावत नहीं हैं अपितु बढ़ी हैं।
दरअसल आज इस पूंजीवादी व्यवस्था की नंगी सच्चाई छुपाये नहीं छुप रही है और पूंजीपति वर्ग के पास आज शासन करने का नैतिक आधार तेजी से खत्म हो रहा है। इसलिए भी सच्चाई को छुपाने की हर संभव कोशिश की जा रही है। आज पूरी दुनिया में मची लूट-खसोट में हिस्सेदारी के लिए नाभिकीय विनाश लाने वाले विश्वयुद्ध का नगाड़ा बज रहा है। इसलिए मजदूर-मेहनतकश वर्ग पर आने वाली विपदा की हम सहज कल्पना कर सकते हैं। सवाल है, मेहनतकश आवाम के पास इसके अलावा और क्या रास्ता बचा है कि वह जितनी जल्दी हो इस वर्तमान पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को पलट दे और एक नया समाज बनाये? निस्संदेह, उसके पास यही एकमात्र रास्ता है जिससे वह न सिर्फ अपना भविष्य बचा और बना सकता है अपितु जिससे वह मानवता व प्रकृति की भी रक्षा कर सकता है जो खतरे में है। देर-सवेर पूंजीपति वर्ग, खासकर बड़े पूंजीपति वर्ग की बेतहाशा लूट का निवाला बनने वाले सभी वर्गों को इसी रास्ते को चुनना होगा। यह जितनी जल्दी हो, उतना ही बेहतर है।