“जाति उन्मूलन का कार्यभार और मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन”
विषय पर 6 अक्टूबर 2024 को अंबेडकर भवन, दिल्ली में सर्वहारा जनमोर्चा (प्रोलेतारियन पीपल्स फ्रंट) द्वारा आयोजित कन्वेंशन का आधार पत्र
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पूंजीपति व सर्वहारा के बीच मुख्य अंतर्विरोध के साथ ही भारतीय समाज में अन्य के साथ ही जाति अंतर्विरोध भी एक अहम कारक के रूप में मौजूद है एवं दलित-वंचित जातियों के मेहनतकश पूंजी के शोषण के साथ ही जातिगत उत्पीड़न के शिकार भी होते हैं। भारतीय पूंजीवाद के नवउदारवादी दौर में इसके द्वारा आगे बढ़ाई गई हिंदुत्ववादी फासीवादी विचारधारा ने भी सवर्णवादी प्रतिक्रिया का एक बड़ा उभार पैदा किया है। भारतीय पूंजीपति शासक वर्ग और पुराने सामंती समाज के शासकों में शामिल सवर्ण जातियों में बहुत हद तक एक अतिच्छादन (overlap) मौजूद है। इसी वजह से पूंजीवादी संकट के असमाधेय होने के कारण उभरी मौजूदा फासिस्ट मुहिम में भी सवर्णवादी प्रतिक्रिया की एक बड़ी भूमिका है। अतः बीजेपी के सत्ता में आने के पश्चात जातीय उत्पीड़न व जातिगत अहंबोध के प्रदर्शन में तेजी से वृद्धि हुई है और ब्राह्मण-सवर्ण जाति में जन्म को श्रेष्ठता के अधिकार के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिडला ने पूंजीवादी लोकतंत्र के संविधान द्वारा घोषित औपचारिक समानता के सिद्धांत को पैरों तले रौंदते हुए 2019 में बयान दिया था कि ब्राह्मण अपने जन्म की वजह से समाज में सम्मान के अधिकारी हैं। इसी क्रम में जाति के विचार को प्रतिष्ठित करते हुए आरएसएस के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ का 5 अगस्त 2024 के अपने संपादकीय में कहता है,
“वास्तव में जाति का प्रश्न ऐसा है जिसकी व्याख्या राजनीति ने अपनी तरह से करनी चाही, किंतु भारतीय समाज में विभिन्न परंपराओं को संजोने के साथ एकता के कारक के रूप में समाज जाति को धारण किए रहा। … प्रश्न यह है कि भारत में जाति का स्थान क्या है?…… क्षुद्र राजनीति से परे यदि परंपरा और समाजशास्त्र की दृष्टि से देखेंगे तो पाएंगे कि इस पहचान में कुछ ऐसा जरूर है, जिसके कारण समाज ने भले इसे कुछ समय के लिए लुका-छिपा लिया, दबे स्वर में बात की, किंतु अपनी जाति को नहीं छोड़ा। यही वह कुंजी है, जो जाति की पहेली खोलती है।”
और,
“जाति के रूप में राष्ट्र के साथ एकजुट समाज सीधी सच्ची बात समझता था – जाति से दगा यानी देश से दगा। … सो, भारत में जाति को देखने से ज्यादा और मतलब के लिए लोग तोलने, देश तोड़ने की बजाय इसका महत्व समझने की जरूरत है, … खासकर उनको जो उपनिवेशवाद के उसी ‘भारत तोड़ो, पैसा जोड़ो’ एजेंडे पर चलते हुए जाति और सामाजिक पहचान को हिंदू एकता तोड़ने की कड़ी के तौर पर प्रयोग करना चाहते हैं।”
स्पष्ट है कि जाति तोड़ने या जाति उन्मूलन की बात करने वालों को आरएसएस देश तोड़ने वाले बता रहा है क्योंकि बिना जातिवादी हुए उसकी नजर में हिंदू राष्ट्रवादी नहीं हुआ जा सकता। हिंदू पुनरूत्थानवादी भाजपा व आरएसएस एक ओर बीसवीं सदी के फासिस्टों हिटलर व मुसोलिनी से प्रेरणा लेते हैं तो दूसरी ओर इनके हिंदुत्व विचार की बुनियाद भारतीय समाज की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी वर्ण-जाति व्यवस्था वाली सनातनी परंपरा का गौरवगान है। इस परंपरा की चरम अभिव्यक्ति मनुस्मृति और इसके प्रतीकों को ये समाज के हर क्षेत्र में प्रतिष्ठित करते हैं। ये आधुनिकता व पश्चिमी सभ्यता का विरोध करते हुए भारत के विऔपनिवेशीकरण की बात करते हैं। पर असल में ये आधुनिक सभ्यता व इसके औद्योगिक विकास द्वारा प्रदत्त सुविधापूर्ण जीवन का कतई परित्याग नहीं करना चाहते। ये बस इसके नाम पर हर आधुनिक जनवादी व समतामूलक विचार का विरोध करते हैं और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में सनातनी प्रतीकों व विचारों को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। इसके जरिए ये शोषित मेहनतकश जनता, ऐतिहासिक रूप से वंचित-उत्पीडित समुदायों व स्त्रियों की शोषण से मुक्ति व सामाजिक न्याय की हर आकांक्षा को कुचल देना चाहते हैं ताकि वे बिना किसी ना नुकर के न्यूनतम मानवीय मर्यादा से भी नीचे का जीवन जीते हुए समाज के प्रभु वर्ग के सुपर मुनाफे के लिए अधिकाधिक श्रम करते रहें।
2.
अंबेडकर की बात को आगे बढ़ाते हुए कहें तो जाति व्यवस्था श्रम विभाजन के साथ ही वंशानुगत तौर पर रूढ बन गया श्रमिकों का विभाजन है। सामंती उत्पादन प्रणाली में पेशागत श्रम विभाजन उत्पादन संबंधों और तदनुरूप संपत्ति संबंधों एवं वितरण प्रणाली का आधार था। इसका मूल आधार है संपत्ति मालिकों द्वारा शेष बहुसंख्यक संपत्तिहीन मेहनतकशों के श्रम द्वारा उत्पादित सरप्लस का दोहन। अर्थात यह एक अल्पसंख्या द्वारा बहुसंख्यक मेहनतकशों के शोषण व उन पर शासन की व्यवस्था है। कबीलाई गोत्र आधारित अंतर्विवाह पद्धति, शुद्धता-अशुद्धता वाली ब्राह्मणवादी स्मृतियों की धार्मिक नैतिकता तथा दंड के नियमों ने जाति व्यवस्था का ऊपरी ढांचा निर्मित कर इस सामंती विभाजन को स्थाई व अत्यंत अमानवीय बना दिया।
मानव इतिहास में व्यक्ति-व्यक्ति के बीच श्रेष्ठता व हीनता का बोध, ऊंच व नीच का भेद पैदा होने का मूल कारण निजी संपत्ति का जन्म, उसके आधार पर वर्ग भेद का उदय और शोषक वर्ग के शोषण को बनाए रखने के औजार के रूप में राज्य के आविर्भाव की देन है। वर्ग विभाजित समाज की ऐतिहासिक प्रक्रिया ने ही श्रेष्ठ-हीन या ऊंच-नीच के भेद के विभिन्न रूपों – पुरुष प्रधान समाज, जाति व्यवस्था, नस्लवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, राष्ट्रवाद, भाषागत भेदभाव, आदि को पैदा किया है। इस वर्ग भेद व शोषण-उत्पीड़न की व्यवस्था को स्थाई बना देने के लिए खुद शोषितों से इसे स्वीकृति दिला देना इसके लिए सबसे बड़ी मजबूती देने वाला काम था। अतः धर्म आधारित विचारधारा के नीति-कायदों, पवित्रता – अपवित्रता के सिद्धांतों और इनके उल्लंघन पर दंड के विधान ने सामाजिक असमानता को मजबूती दी। जाति व्यवस्था की ब्राह्मणवादी विचारधारा का बुनियादी काम शोषण की इस व्यवस्था को स्वयं उत्पीड़ितों द्वारा वैचारिक नैतिक कानूनी स्वीकृति दिलाना रहा है ताकि इसका ‘धार्मिक-नैतिक’ दंड विधान विद्रोह की संभावना को न्यून कर राजतंत्र पर वास्तविक दंड व्यवस्था के बोझ को कम कर दे। अतः राज्य तंत्र का संचालक शुंग, गुप्त, पाल, चोल, चालुक्य, शक, हूण, तुर्क, अरब, मुगल, मराठा से अंग्रेजों तक कोई भी रहा हो, यह विचारधारा उसी का संरक्षण पाने में कामयाब रही। हर राज्य तंत्र ने इसे अपने शोषणचक्र के लिए सहायक माना। ठीक इसी वजह से नाथ-सिद्धों व लिंगायतों से लेकर रैदास-कबीर होते हुए नानक तक इसके खिलाफ भक्ति आंदोलन के रूप में जो भी धार्मिक-नैतिक सुधारवादी विरोध खड़े हुए वे इसे तोड़ने में नाकाम रहे क्योंकि सामाजिक विकास के तत्कालीन स्तर पर उनके लिए इसके आधार के रूप में मौजूद वर्ग समाज का अतिक्रमण संभव नहीं था।
धार्मिक नैतिकता, प्रतीकों, मिथकों व शुद्धता-अशुद्धता के विचारों के एक जटिल जाल के इसके साथ जोड़ दिए जाने के बावजूद जाति व्यवस्था की बुनियाद यह नैतिकता, मिथक, प्रतीक व शुद्धता-अशुद्धता के विचार नहीं, तत्कालीन उत्पादन प्रणाली में उत्पादन के मुख्य साधन भू संपदा पर एक अल्पसंख्या का मालिकाना था। जाति व्यवस्था भू मालिकाने के आधार तथा सामंती राज्य की दमनकारी शक्ति के बल पर कायम एक भौतिक शक्ति रही है। अतः प्रतीकों व मिथकों के खिलाफ संघर्ष की एक अहम भूमिका होते हुए भी जाति उन्मूलन का प्रश्न जाति उत्पीड़न की शिकार जनता के भौतिक जीवन में परिवर्तन अर्थात शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति का संघर्ष है। इस संघर्ष के अंग के तौर पर ही प्रतीकों व मिथकों के खिलाफ संघर्ष की सार्थक भूमिका बनती है। अन्यथा मिथकों-प्रतीकों मात्र के क्षेत्र में टकराव अलग रूप-रंग होते हुए भी बुनियादी तौर पर गांधीवादी हृदयपरिवर्तनवादी विचार का एक ‘गरम’ संस्करण ही है।
3.
जोतिबा फुले ने अपने ढंग से जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था में उत्पादन संबंधों और इसके ऊपरी ढांचे के तौर पर शासक वर्ग व ब्राह्मणवादी विचारधारा के रिश्ते पर पहली बार विचार आरंभ किया, और किसान-मजदूरों सहित मेहनतकश जनता की मुक्ति हेतु संघर्ष के आरंभिक विचार पेश किए। पर अंततः वे एक नए सुधारवादी ‘सत्यशोधक’ धर्म के विचार में ही उलझ गए। तत्पश्चात अंबेडकर ने दलित जातियों की उत्पीड़न से मुक्ति के सवाल को भारत के राजनीतिक एजेंडा पर ला खड़ा किया। अंबेडकर के चिंतन में जीवन भर जाति उन्मूलन का लक्ष्य एक क्रांतिकारी पहलू के रूप में बना रहा। उन्होंने महाड़ के चावदार तालाब के जातिभेद विरोधी जनवादी अधिकारों के शानदार जनसंघर्ष को नेतृत्व भी दिया। इसके आगे बढ़ने में ही जाति उन्मूलन के जुझारू संघर्ष का बीज छिपा था। मगर इसके बाद उन्होंने उत्पीड़ित जनता की पहलकदमी आधारित प्रतिरोध के बजाय राज्य प्रायोजित सुधारों का प्रयोजनवादी रास्ता चुन लिया। अगर महाड़ का उत्पीड़ित जनता का संघर्ष आगे बढ़ता तो जाति उन्मूलन के कार्यक्रम को जुझारू वर्ग संघर्ष आधारित जनवादी क्रांति के कार्यक्रम तक ले जाना तार्किक रूप से अनिवार्य हो जाता। मगर अंबेडकर का प्रयोजनवादी दृष्टिकोण उन्हें पूंजीवादी सत्ता के साथ सहयोग व सुधारों के मार्ग पर ले गया। किंतु उन्हें जाति उन्मूलन तो दूर जाति उत्पीड़न से राहत के सीमित सुधारों तक के क्षेत्र में भारत के बुर्जुआ नेतृत्व वाले राज्य व उसमें सहयोजित दलित प्रतिनिधियों दोनों ओर से ही घोर हताशा का सामना करना पड़ा। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने बौद्ध धर्म का पलायनवादी विकल्प चुना।
किसी भी समाज में शोषण की व्यवस्था के विरुद्ध क्रांति के नेतृत्वकारी वर्ग के लिए आवश्यक है कि वह खुद को उस समाज के सभी उत्पीड़ित वर्गों का प्रतिनिधि व नेता सिद्ध करे और उसके मुक्ति के कार्यक्रम को सभी उत्पीड़ित वर्ग-समुदाय अपनी मुक्ति का कार्यक्रम मानें। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अगर मार्क्सवाद के वर्ग संघर्ष के विचार के आधार पर एक क्रांतिकारी कार्यक्रम बनाती तो उसके लिए भी जाति उन्मूलन का एक क्रांतिकारी कार्यक्रम पेश करना तार्किक रूप से अनिवार्य हो जाता। किंतु इस पार्टी ने भारत में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनवादी क्रांति का कार्यक्रम बनाया ही नहीं, तो जाति उन्मूलन का क्रांतिकारी कार्यक्रम ही कैसे बनाती? यह पार्टी कई बलिदानी संघर्षों के बावजूद अपने बुनियादी चरित्र में कांग्रेस का सोशल डेमोक्रेटिक वाम पक्ष ही बनी रही। और जब इसने 1951 में पहली बार ‘जनवादी क्रांति का कार्यक्रम’ बनाया तो वह एक सर्वहारा वर्गीय क्रांतिकारी कार्यक्रम नहीं राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग को ही प्रगतिशील व समाजवाद की ओर ले जाने वाला स्वीकार कर उसके साथ वर्ग समन्वय का सुधारवादी कार्यक्रम था। जब क्रांतिकारी कार्यक्रम का सवाल ही इस पार्टी के एजेंडा पर नहीं रहा, तो जाति उन्मूलन का कार्यक्रम ही उस एजेंडा पर कैसे रहता? नक्सलबाड़ी के उभार ने क्रांति के प्रश्न को एक बार फिर सर्वहारा राजनीतिक पटल पर ला खड़ा किया, लेकिन वह भी भारतीय क्रांति के लिए एक सुविचारित कार्यक्रम बनाने का काम हाथ में लेने में असमर्थ रहा।
4.
आज का भारत औपनिवेशिक शासन तथा सामंती प्रतिक्रिया से समझौता-सौदेबाजी की लंबी प्रक्रिया के जरिए अस्तित्व में आया व विकसित हुआ पूंजीवादी समाज है। लगभग 1980 तक विस्तार व कंसोलिडेशन के पश्चात इसने एक इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजी को जन्म दिया और इसके लिए आर्थिक सुधारों व उदारीकरण-वैश्वीकरण के नाम पर नवउदारवादी पूंजीवादी आर्थिक नीतियों द्वारा मजदूर वर्ग पर प्रत्याक्रमण तथा पूंजी संचय को तीव्र करने का विकल्प चुना, जो 1990 के दशक में अपनी पूर्ण तीव्रता पर पहुंचा। इस तरह भारतीय पूंजीवाद विस्तार करते पूंजीवाद के बजाय संकटग्रस्त पूंजीवाद में रूपांतरित हो गया और तद्जनित आवश्यकता से इसने एक वैकल्पिक फासीवादी मुहिम को भी आगे बढ़ाना शुरू किया। फासीवादी विचारधारा पर आधारित संघ 1925 से ही एक विकल्प के तौर पर मौजूद था। अब वह भारतीय पूंजीपति वर्ग का भरोसा व संरक्षण प्राप्त कर प्रमुख शक्ति बनने लगा। इसी की परिणति मौजूदा फासिस्ट शासन है।
नवउदारवादी आर्थिक नीतियों व फासीवादी प्रतिक्रिया की इस जुड़वां पूंजीवादी प्रवृत्ति ने एक ओर पूंजी के अत्यधिक संकेंद्रण के द्वारा भारतीय समाज के शीर्ष पर एक अति धनाढ्य तबके को जन्म दिया है जो आज देश की संपदा के 80% से अधिक का मालिक है, तो दूसरी ओर इसने इसके आधार पर एक बहुसंख्यकवादी हिंदुत्ववादी प्रतिक्रिया को खड़ा किया है जिसके कोर में जन्म आधारित जातिगत श्रेष्ठता आधारित सवर्णवादी प्रतिक्रिया मौजूद है। इसी ने जाति अत्याचारों को फिर से बढ़ाने का रूझान पैदा कर दिया है।
5.
जाति भेद निजी संपत्ति व वर्ग भेद के आधार पर पैदा व टिका हुआ विचार है। अतः कोई भी वर्ग समाज, जैसा पूंजीवादी समाज है, इस विचार के उन्मूलन का आधार नहीं बन सकता। हर वर्ग समाज में शासक वर्ग इतिहास के सभी वर्ग समाजों के श्रम विभाजन व प्रतिक्रियावादी विचारों को मिटाने के बजाय उन्हें मात्र अपनी जरूरत मुताबिक तरमीम कर अपने हित में प्रयोग करता है ताकि वे उसके वर्ग शोषण-शासन को मजबूती व स्थायित्व दें। भारतीय पूंजीवाद ने भी जाति व्यवस्था को अपने हितों के मुताबिक संशोधित, परिष्कृत व अनुकूलित किया है। उसने अपनी उत्पादन प्रणाली में बाधा बनते छुआछूत के विचार को सार्वजनिक जीवन से लगभग बाहर कर दिया है, हालांकि निजी पारिवारिक दायरे में वह अब भी बहुत हद तक बना हुआ है, क्योंकि वहां वह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के लिए कोई अड़चन नहीं बनता। इसी तरह जातिगत श्रेष्ठताबोध आधारित भेदभाव, संपत्ति पर कुछ जातियों का प्रभुत्व और अंतर्विवाह की प्रथा पूंजीवादी व्यवस्था के लिए कोई रुकावट नहीं बनते हैं। चुनांचे पूंजीवाद उन्हें तोड़ने के लिए कोई प्रयास भी नहीं करता, हालांकि पूंजीवादी जीवन इन्हें धीरे-धीरे कमजोर जरूर करता है, खास तौर पर खुद पूंजीपति वर्ग में ऐसे भेद निरंतर कमजोर होते जाते हैं।
पूंजीवाद उत्पादन के साधनों की मालिक अल्पसंख्या द्वारा बहुसंख्यक मेहनतकशों पर शोषण-शासन की ही व्यवस्था है। पूंजीपतियों का पूंजी संचय भी श्रमिकों की श्रमशक्ति के दोहन से ही होता है। पूंजीवाद सामंतवाद से मात्र इतना भिन्न है कि वह मेहनतकशों को एक सामंत से बलपूर्वक बांधे रखने के बजाय उन्हें वैधानिक रूप से ‘स्वतंत्र’ कर श्रमशक्ति की बिक्री के मंडी में लाकर खड़ा कर देता है। कहने को इस मंडी में विक्रेता और क्रेता के समान अधिकार हैं पर संपत्तिहीन सर्वहारा का जीवन चलाने की शर्त ही खुद को किसी पूंजीपति को बेच पाना है। जब भी यह संपत्तिहीन सर्वहारा खुद के विक्रय के बजाय वास्तविक समानता की मांग उठाता है पूंजीवादी राज्य सामंतवादी राज्य की ही तरह वास्तविक सत्ता को स्थापित करने में अपनी पूरी दमनकारी शक्ति के साथ प्रकट हो जाता है। अतः पूंजीवाद में समानता का अधिकार दरअसल में वास्तविक रूप से गुलाम के लिए रोजाना/हफ्तावार/महीना आदि पर अपने लिए किसी मालिक के चुनाव का अधिकार ही है, गुलामी से मुक्त होने का अधिकार नहीं।
6.
पूंजीवाद इस वंशानुगत पेशागत विभाजन को कुछ हद तक तोड़ने की संभावना रखता है बशर्ते वह सामंती व्यवस्था के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष करते हुए उत्पादक शक्तियों के चौतरफा विकास की राह खोल दे। लेकिन पूंजीवाद जातिगत भेदभाव को निर्मूल नहीं कर सकता क्योंकि वह भी सामंती व्यवस्था की ही तरह निजी संपत्ति आधारित है और सामंती अभिजात्य से उसका संघर्ष पूंजीवादी उत्पादन की बाधाओं को हटाने हेतु राज्य व्यवस्था पर आधिपत्य के लिए ही होता है। तत्पश्चात वह सामंती अभिजात्य को पूंजीपति वर्ग में तब्दील होने का पूरा मौका दे अपने में सम्मिलित-सहयोजित कर लेता है। फ्रांस में हुई 1848 की पूंजीवादी क्रांति में (पूंजीपति वर्ग की तरफ से और राजशाही के विरुद्ध) शामिल मजदूर वर्ग ने जिस तरह से क्रांति की जीत के बाद अपनी वर्गीय मांगों के माने जाने तक हथियार डालने से इनकार कर दिया था, तब से पूंजीपति वर्ग जनवादी क्रांति को भी क्रांतिकारी तरीके से करना और इसके वास्तविक अंजाम तक ले जाना भूल गया और तब से ही जनवादी क्रांति का भार भी मजदूर वर्ग के कंधे पर आ गया। चाहे रूस या चीन जहां भी जनवादी क्रांतियां अंजाम तक पहुंची मजदूर वर्ग ने ही उसे संपन्न किया। इसलिए हम पाते हैं कि सभी विकसित पूंजीवादी देशों में सामंती अभिजात्य आज पूंजीवाद का हिस्सा है और सामंती उत्पीड़न के शिकार रहे अधिकांश पूर्व किसान-दस्तकार आज भी संपत्तिहीन सर्वहारा ही बने रह गए हैं। वर्ग विभाजन का यह नया रूप पूंजीवाद न सिर्फ सामंती पूर्वाग्रहों व संकीर्णताओं को बनाए रखता है बल्कि अपने संकटकाल में इन्हें पुनः पालता-पोसता भी है।
भारत में तो पूंजीवाद का यह रूप भी नहीं रहा। उसका विकास औपनिवेशिक पूंजी की दासता में हुआ। औपनिवेशिक शासन ने अपने हित में न सिर्फ देशी सामंतों और प्रतिगामी विचारों-शक्तियों के साथ गठजोड़ किया बल्कि उसके भूमि बंदोबस्त तथा व्यापारिक नीतियों ने किसानों व दस्तकारों पर जमींदारी-साहूकारी जुल्म का एक भयानक अध्याय रचा और जल-जंगल-जमीन पर उनके परंपरागत अधिकार भी समाप्त कर उन्हें भयंकर कंगाली, कर्ज व भुखमरी के भंवर में धकेल दिया। मध्यकाल में व्यापार व उद्योग के विकास से बने जिस शहरी दस्तकारी तबके ने ग्रामीण सामंती जीवन से छुटकारे की सांस ले जाति व्यवस्था के खिलाफ, भक्ति आंदोलन के धार्मिक स्वरूप में ही, आवाज उठाना आरंभ किया था, उन उद्योगों को नष्ट कर इन्हें भी वापस गांवों में सामंती-जमींदारी जुल्म के कोल्हू में धकेल दिया गया।
7.
अगर भारत की जनवादी क्रांति सर्वहारा व किसानों के नेतृत्व में जुझारू संघर्षों के मध्यम से होती तो वह नीचे से कृषि क्रांति के जरिए भूमि मालिकाने पर सवर्ण जातियों के भूस्वामियों का प्रभुत्व तोड़ जाति अत्याचार के एक बड़े और प्रमुख आधार को मिटा देती। इससे भारतीय समाज के पूर्ण जनवादीकरण की प्रक्रिया अत्यंत तेज गति से आगे बढ़ती और यह जाति के पूर्ण उन्मूलन का रास्ता भी साफ करती। फिर इसका दूसरा चरण, जिसमें उत्पादन व्यवस्था का समाजीकरण हो जाता, सतत जनवादीकरण के रास्ते पर चलते हुए जाति-व्यवस्था का पूर्ण विनाश के कार्यभार को भी संपन्न करता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जो पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था कायम हुई, वह ऊपर से राजकीय सुधारों व उपायों के द्वारा हुई और इसमें पुराने सामंती संबंधों को धीरे-धीरे चटकाते हुए एवं पुराने सामंती जमीदारों को सहायोजित करते हुए हुई। लेकिन अगर मान भी लिया जाए कि अगर जनवादी क्रांति नीचे से और मजदूर वर्ग-किसानों के संश्रय के साथ मजदूर वर्ग के नेतृत्व में भी हुई होती और वहीं रूक जाती, तब भी जाति उन्मूलन का कार्यभार पूर्ण रूप से संपन्न नहीं होता। कहने का अर्थ यहां यह है कि निजी संपत्ति आधारित व्यवस्था के रहते, चाहे वह क्रांतिकारी तरीके से संपन्न हुई जनवादी क्रांति के द्वारा ही क्यों न अस्तित्व में आई होती, जाति उन्मूलन का कार्यभार कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता है। जाति उन्मूलन के काम को अंतिम तौर पर संपन्न करना फिर भी समाजवादी क्रांति के द्वारा और इसके बाद बनी समाजवादी एवं साम्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही हो सकता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, भारत में सर्वहारा-किसान संश्रय में जनवादी क्रांति संपन्न होने के बजाय पूंजीपति वर्ग को सत्ता हस्तांतरण के जरिए यह चरण पूरा हुआ। इस पूंजीवादी राज्य ने भूमि सुधारों के वादे को धता बता कर सामंती भूस्वामियों को अपनी भूसंपदा को बचाकर पूंजीपति फार्मर वर्ग में रूपांतरित होने का मौका दिया और भू-मालिकाना सवर्ण जातियों (कुछ मध्यवर्ती जातियों सहित) के हाथ में ही रह जाने से ग्रामीण भारत में जातिगत भेद भाव और अत्याचार-उत्पीड़न का आधार, कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के नेतृत्व में कृषि-क्रांति करने की बलिदानी कोशिशों और उससे उत्पन्न किसान आंदोलन की देश के कई हिस्सों में उठी विशाल लहरों के बावजूद, लगभग पूरी तरह अटूट ही बना रह गया।
8.
पूंजीपति वर्ग ने पूंजीवादी जनतंत्र के हस्बेमामूल सभी नागरिकों को औपचारिक संवैधानिक समानता का अधिकार देकर औपचारिक वैधानिक तौर पर जाति व्यवस्था को समाप्त कर दिया और पूंजीवादी संबंधों के शनै: शनै: विकास के फलस्वरूप पुराने सभी तरह के सामंती श्रम विभाजन, जिसमें पेशागत श्रम विभाजन पर आधारित जाति-व्यवस्था भी शामिल थी, खत्म हो गये। जाति भी श्रम विभाजन के अर्थ में खत्म हो गई। साथ ही इसने ऐतिहासिक तौर पर वंचित रही जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व, उच्च शिक्षा व सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण का अत्यंत सीमित अधिकार देकर जाति उन्मूलन आंदोलन के अगुआ तत्वों को भी शासक वर्ग में सहयोजित कर लिया। इसके बदले में अनिवार्य सार्वजनिक शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी सार्वत्रिक व्यवस्थाओं की मांगों को जाति विरोधियों ने भी छोड़ देना स्वीकार किया, हालांकि तब तक कई पूंजीवादी जनतंत्रों में भी इन्हें बतौर जनवादी अधिकार मंजूर कर लिया गया था। यहां तक कि विवाह के क्षेत्र में भी (जो जाति के साथ गहराई से अंतर्संबंधित है) स्त्री-पुरूष को विवाह व तलाक की अबाध स्वतंत्रता तक देने से इंकार कर दिया गया। विवाह कानूनों में तमाम ‘सुधारों’ के बावजूद अभी तक भी स्त्री-पुरूष को अपनी इच्छा से विवाह व तलाक का अधिकार प्राप्त नहीं है क्योंकि राज्य के पुलिस, अफसरशाही व न्यायपालिका जैसे अंग इसमें कार्यवाही के स्तर पर बाधा डालने के तमाम नियमों के साथ एक प्रकार से अनुमति देने वाले की भूमिका अदा करते हुए प्रतिगामी सामाजिक शक्तियों के सहायक बने रहे हैं। अन्तर्जातीय-अंतर्धार्मिक विवाहों को रोकने में इस अधिकार का वर्तमान फासीवादी सत्ता अपनी प्रतिगामी मुहिम में पूर्ण उपयोग कर रही है। इन चीजों (अंतर्जातीय एवं अंतर्धामिक विवाह) की जाति-उन्मूलन तथा स्त्रियों की आजादी एवं उसके स्वतंत्र अस्तित्व में एक अहम भूमिका थी, लेकिन हम पाते हैं ये सामाजिक न्याय के एजेंडे से गायब होती गई। जैसे-जैसे जाति उन्मूलन एवं सामाजिक न्याय के अगुआ तत्वों को पूंजीवादी राज्यसत्ता अपने में सहयोजित करती गई, वैसे-वैसे जाति उन्मूलन के कार्यभार से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण चीजें भी आज के सामाजिक न्याय के आंदोलन के क्षेत्र से एक-एक कर गायब होती गईं या बहिष्कृत कर दी गईं। स्वयं जाति उन्मूलन का कार्यभार भी तिरोहित हो गया या बहिष्कृत कर दिया गया। आज का सामाजिक न्याय आंदोलन उसे चिमटे से भी छूना नही चाहता। उसकी जगह जाति एवं जाति विभाजन को संपुष्ट करने वाली वोटबाज पूंजीवादी जातिवादी राजनीति ने ले ली है, जो प्रकारांतर से वर्ग चेतना के उभार को रोकने वाले एक अहम औजार की भूमिका में पूंजीवादी व्यवस्था को टिकाये रखने वाला सबसे मजबूत अबलंब बन कर उभरी है। आज धार्मिक विभाजन के विरुद्ध जातीय विभाजन का दुष्चक्र एक ऐसा दुष्चक्र बन कर उभरा है जो जनवाद और प्रगतिशीलता का पुट लिए हुए प्रतीत होता है, जबकि सच्चाई यह है कि समाज में वर्गीय विभाजन, जो असली विभाजन है और इसे खत्म किये बिना श्रमजीवियों एवं दलितों एवं वंचितों की मुक्ति नहीं है, के आधार पर होने वाले महान संघर्ष और उसकी जीत के रास्ते की यह एक बड़ी बाधा बनी हुई है। इस प्रकार भारतीय पूंजीवादी जनतंत्र आरंभ से ही कई अन्य समकालीन पूंजीवादी जनतंत्रों की तुलना में भी कहीं बहुत कम जनवादी रहा है और इसके पूंजीपति-जमींदार अंतर्य का तथा इसमें सभी सामाजिक न्याय के क्रांतिकारी तत्वों एवं आदर्शों के सम्मिलन-सहयोजन का खामियाजा जाति-उन्मूलन से लेकर वर्ग-उन्मूलन के कार्यभार के सफलतापूर्वक संपन्न होने पर पड़ा है।
9.
भारत में आरक्षण का सीमित अधिकार जिस प्रकार दिया गया उस पर भी गौर करना बेहद जरूरी है। सैकड़ों-हजारों साल तक प्रताड़ित-वंचित रहे समुदायों को उसके लिए कुछ मुआवजा (compensation) के तौर पर आरक्षण का विचार बुर्जुआ जनवाद में आया। इसे ही पिछड़ गये समुदायों व जातियों के समावेशी विकास के लिए पूंजीवादी राज्यसत्ता द्वारा उठाया जाने वाला सकारात्मक कदम या affirmative action कहा जाता है। यह विचार आधुनिक सभ्यता व जनवाद के एक न्यूनतम स्तर का परिचय देते हुए स्वीकार करता है कि कुछ समुदायों के साथ इतिहास में अन्याय हुआ है और इसकी प्रतिपूर्ति के तौर पर उनके साथ सकारात्मक भेदभाव एक न्यायोचित बात है। गौर करने की बात है कि इसमें अन्याय व वंचना के बुनियादी ढांचे को समाप्त करने की बात नहीं है। वैसा करना तो एक अल्पसंख्या द्वारा कायम शोषण की किसी भी व्यवस्था में नामुमकिन ही है। इसमें बस अन्याय के शिकार समुदाय में से एक सीमित संख्या को प्राथमिकता में आगे कर देने की बात है। फिर भी आधुनिक सभ्यता के लिहाज से न्यूनतम न्याय की बात इसमें शामिल है, इसलिए कि अन्याय को स्वीकार कर कुछ संख्या को प्रतिनिधित्व हेतु आगे लाने को सामाजिक न्याय के रूप में स्वीकृति दी जा रही है। किंतु भारत में तिलक-गांधी से मोदी-भागवत तक पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों ने जाति व्यवस्था को कभी ऐतिहासिक अन्याय के रूप में स्वीकार नहीं किया। उनके सबसे ‘सुहृदय प्रतिनिधि’ गांधी भी जाति व्यवस्था को अन्याय नहीं मानते, बस वे हिंदू समाज की एकता की कूटनीति बतौर सवर्णों को ‘हरिजनों’ पर दया भाव के रूप में आरक्षण को स्वीकार करने के लिए कहते हैं। नेहरू ने भी इसे ज्यों का त्यों बनाये रखकर ही लिबरल समाज की कल्पना की थी। दरअसल, इसे मिटाने का ख्याल पूंजीपति वर्ग का बड़ा से बड़ा नायक भी नहीं कर सकता है। इसके लिए तो मजदूर वर्ग का नायक होना आवश्यक है जो हर तरह के शोषण और खासकर पूंजीवादी शोषण के पूर्ण उच्छेद व सफाये की बात करता है।
आरक्षण अगर अपने सर्वोत्तम बुर्जुआ जनवादी रूप में अन्याय की स्वीकृति व सामाजिक न्याय के तौर पर उसके मुआवजे के सिद्धांत की स्वीकृति द्वारा समाज को इसके लिए एक सामाजिक आंदोलन द्वारा तैयार कर प्रदान किया जाता तब भी यह जातिगत अन्याय व विभाजन को कुछ हद तक ढीला कर सकता था, हालांकि इसे मिटाने का कार्यक्रम नहीं बना सकता था। मगर यहां तो इसे (आरक्षण को) सामाजिक उत्पीड़न विरोधी संघर्ष को पूंजी की शोषणकारी के भीतर सहयोजित करने की कुटिल रणनीति एवं कुटनीति के तहत दिया गया और इस तरह अंतर्य में और भीतर-भीतर जातिगत अन्याय व विभाजन को अन्याय और विभाजन स्वीकार किया ही नहीं गया। चुनांचे इसके बदले में दलितों के प्रतिनिधि बतौर अंबेडकर को भारी कीमत भी चुकानी पड़ी – शिक्षा, आवास, पोषण, स्वास्थ्य, आदि के सार्वत्रिक सार्वजनिक कार्यक्रमों और उसमें प्राथमिकता के प्रावधानों के जरिए दलितों-वंचितों के वास्तविक जीवन में कोई भौतिक सुधार का कार्यक्रम लिए बगैर ही मात्र आरक्षण दे देने से इसका जितना लाभ संभव था, उतना भी मिलने की गुंजाइश नहीं रह गई, क्योंकि वास्तव में ऐसा लाभ पहुंचाने का कोई इरादा कभी था ही नहीं। पूंजीपति-जमींदार अंतर्य वाला पूंजीवादी राज्य की यह फितरत थी और है। लेकिन फिर भी पूंजीवाद मात्र सवर्ण जातियों में फैले अपने अतिसंकुचित सामाजिक आधार पर टिके नहीं रह सकता था। इसलिए उसी पूंजीपति-जमींदार वर्गीय अंतर्य वाले राज्य को अन्य जातियों में भी अपने आधार को फैलाना था और इसलिए पूंजीपति-जमींदार चरित्र के कारण इरादा नहीं होने के बावजूद पूंजीवादी जनतांत्रिक राज्य ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व, उच्च शिक्षा व सार्वजनिक रोजगार हेतु भर्ती में भेदभाव समाप्त करने हेतु आरक्षण की व्यवस्था और इसके लिए प्रदत्त अधिकार को लागू किया जिससे निश्चय ही दलित जातियों की एक अल्पसंख्या को इन क्षेत्रों में भागीदारी का अवसर मिला है और वे नवोदित पूंजीवादी संस्तर के रूप में पूंजीवादी राज्य के विस्तारित आधार बने। जाहिर है इसका एक सकारात्मक पक्ष है जैसा कि ऊपर से लागू हर सुधार का होता है, वहीं इसका एक नकारात्मक पक्ष है जो इसके सकारात्मक पक्ष को हर क्षण के साथ ज्यादा से ज्यादा सीमित करता जाता है। पूंजीवाद के अति विकास से उत्पन्न आर्थिक मंदी के दौर में जब रोजगारविहीन ग्रोथ का काल आता है और साथ में फासीवादी शक्तियों के उभार के द्वारा इसका हल निकालने का रास्त पूंजीवाद लेता है, तब इस पर आधारित पश्चगमनकारी राजनीति का असली स्वरूप प्रकट होता है। लेकिन तब भी इसके पीछे न्याय की पुकार और जिजीविषा मौजूद रहती है, इसे हम अस्वीकार नहीं कर सकते, जिसकी हर हाल में रक्षा की जानी चाहिए, खासकर तब जब मौजूदा फासीवादी रूझान के दौर में न्याय की हर पुकार को कुचलने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी हैऔर जब बुर्जुआ जनवाद द्वारा प्रदत्त आरक्षण के इस अधिकार पर सवर्णवादी प्रतिक्रिया का आक्रमण तेज हो गया है। जाहिर है, ऐसे वक्त में आरक्षण, जिसमें निश्तिच ही न्याय की एक पुकार व धारणा निहित है, के विरोध का सख्त विरोध सभी जनवादी अधिकारों के फासीवादी हनन के विरोध की तरह एक जरूरी कार्यभार बन जाता है। इसमें कोई दो राय मुमकिन नहीं। लेकिन तब भी हम इसकी तुच्छ सीमा, जो दिनों-दिन और भी ज्यादा खुले रूप में प्रकट हो रही है, को रेखांकित किये बिना नहीं रह सकते हैं। यह खासकर दलित-वंचित समुदायों की गरीब व मेहनतकश लोगों की मुक्ति की दिशा में खड़े तमाम तरह के झाड़-झंखाड़ और खर-पतवार से आजाद करने के लिए जरूरी है ताकि हम उसे साफ-साफ देख सकें।
10.
आज नवउदारवादी पूंजीवादी नीति आरक्षण को येन केन प्रकारेण निष्प्रभावी बनाने की रही है। पूंजीवाद द्वारा नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के रूप में मजदूर वर्ग, उत्पीडितों और वंचितों के खिलाफ निजीकरण-व्यवसायीकरण का तीक्ष्ण हमला बोला गया है। इसने समस्त संपदा के एक अल्पसंख्या के हाथों में केंद्रीकरण का काम तेज किया है। उच्च बेरोजगारी, आसमान छूती महंगाई, स्थिर या गिरती मजदूरी और सार्वजनिक सुविधाओं के लगातार खत्म किए जाने ने अधिकांश जनता का जीवन बेहद तकलीफदेह बना दिया है। मजदूर वर्ग तथा उत्पीडित जातियों-समुदायों द्वारा लंबे संघर्षों के जरिए हासिल कुछ सीमित जनवादी अधिकारों को भी क्षरित किया जा रहा है और संविधान तक को बदलने की बात उठाई जा रही है। सभी जातियों का बुर्जुआ संस्तर व मध्य वर्ग इस निजीकरण व्यवसायीकरण में अपना हित देखता और इसका समर्थन करता रहा है। यहां तक कि दलितों में आरक्षण के जरिए उभरा छोटा बुर्जुआ संस्तर, मध्य वर्ग व बहुतेरे बुद्धिजीवी भी मुक्त पूंजीवादी बाजार के जरिए ‘दलित पूंजीवाद’ के विकास में ही दलितों की मुक्ति का स्वप्न देखते-दिखाते रहे हैं।
लेकिन मुक्त पूंजीवादी विकास के नवउदारवादी दौर के तीन दशक, खासतौर पर नरेंद्र मोदी के एक दशक के शासन ने दलित जनता को क्या दिया है? एक ओर, रोस्टर, आरक्षित पदों की प्राथमिकता व गणना, आदि के नियमों में परिवर्तन, लेटरल एंट्री, आरक्षित श्रेणी में भर्ती का बड़ा बैकलॉग व सभी आवेदकों को ‘नॉट फाउंड सूटेबल’ (NFS) घोषित करने के बाद सामान्य श्रेणी में वर्गीकरण के द्वारा आरक्षण को काफी हद तक निष्प्रभावी कर दिया गया है। दूसरी ओर, सरकारी सेवाओं में आउटसोर्सिंग व संविदाकर्मियों के प्रयोग तथा सार्वजनिक संस्थानों के बढते निजीकरण ने कुल कर्मचारियों तथा परिणामस्वरूप आरक्षित श्रेणी के कर्मचारियों की संख्या में भारी कमी की है। नतीजा है कि केंद्र सरकार की सेवाओं में अनुसूचित जाति व ओबीसी की संख्या क्रमशः 2018-19 में 568,886 से 2022-23 में 317,255 और 703,017 से 415,799 ही रह गई है। केंद्रीय सार्वजनिक संस्थानों में यह संख्या क्रमशः 2011-12 के 16,080 से 2022-23 में 8,437 और 26,500 से 20,156 ही रह गई है।[1]
11.
आज पूंजीवाद द्वारा जन्म दिए गए गहन आर्थिक संकट की वजह से पूरे समाज में ही बेरोजगारी की समस्या भयंकर रूप ले चुकी है। ऐतिहासिक रूप से वंचित जातियों की जनता के लिए तो यह समस्या कहीं अधिक विकराल है क्योंकि कृषि भूमि, पूंजी व जाति नेटवर्क की सामाजिक पूंजी की अत्यंत कमी से उनके लिए तो आरक्षण के जरिए उच्च शिक्षा में दाखिला व सरकारी सेवाओं में नियुक्ति मिल जाना ही जीवन में आगे बढ़ने का लगभग एकमात्र विकल्प रहा है (एक हालिया शोध[2] के अनुसार दलित व्यवसायियों की आय समान व्यवसायियों की सामान्य औसत से 16% कम होती है जो ओबीसी, आदिवासियों व मुसलमानों से भी कम है, क्योंकि सामाजिक नेटवर्क की उनकी सामाजिक पूंजी सबसे कम है)।
अतः आरक्षण को कमजोर करने वाले हर कदम का दलितों द्वारा विरोध स्वाभाविक है। पर इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि नवउदारवादी दौर में बढ़ती बेरोजगारी व आरक्षण से रोजगार के कम होते अवसरों की वजह से खुद दलित जातियों में भी इसके लिए परस्पर स्पर्धा तीव्र हुई है। जाति पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान की वाल्मीकि, मजहबी, मांग, मदिगा, मुसहर, अरूणाथंथियार, आदि जातियों विशेष रूप से पारंपरिक जाति व्यवस्था में सफाई का काम करने वाली जातियों को निजीकरण से बेहद नुकसान हुआ है। भारतीय पूंजीवाद द्वारा बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण व रोजगार सृजन में पूर्ण असफलता के कारण अभी तक उनका एक अत्यल्प हिस्सा ही पारंपरिक पेशों से मुक्त हो पाया था। नवउदारवादी दौर में उनके सफाई के पारंपरिक रोजगार को आउटसोर्सिंग व संविदाकरण का अत्यधिक असर झेलना पड़ा है। इस प्रकार काम का बोझ तो बढा है लेकिन उनकी आय का बडा हिस्सा अब निजी पूंजी व ठेकेदारों ने हथिया लिया है। जाति पदानुक्रम में सबसे निचली स्थिति एवं शिक्षा से वंचित रहने से वे पहले ही आरक्षण का लाभ कम ले पाए थे। अब नवउदारवाद ने भी उन पर ही सर्वाधिक दुष्प्रभाव डाला है। अतः पहले से ही आरक्षण में अलग से एक सुनिश्चित स्थान पाने की उनकी कोशिश और तेज हो गई है और वे सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण में उपवर्गीकरण के हालिया फैसले का स्वागत कर रहे हैं। इसका विरोध जातीय पदानुक्रम में ऊपर स्थित दलित जातियों के लोग ही कर रहे हैं जो दिखाता है कि दलित जातियों में इस फैसले से एक अत्यंत प्रतिगामी प्रतिस्पर्धा खड़ी हो रही है जिसकी अगुआई इन जातियों के भीतर आरक्षण से ही उत्पन्न पूंजीवादी संस्तर कर रहा है। अंतर्य में यह एक पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा है जो जातिगत प्रतिस्पर्धा के रूप में प्रकट या परिलक्षित हो रहा है। यह प्रतिस्पर्धा गरीब वंचित संस्तर के कंधों पर सवार होकर हो रहा है जो उन्हें आपस में लड़ाएगा, एक दूसरे का दुश्मन करार दे एक-दूसरे के खून का प्यास बनाएगा। यह बताता है कि आरक्षण की सकारात्मक कदम के रूप में न्यायपरक भूमिका आज के संकटग्रस्त पूंजीवाद के दौर में लगभग खत्म हो चुकी है। ऐसे में भिन्न-भिन्न जातियों में जनगणना के आधार पर हिस्सेदारी का सवाल दलित जातियों के भीतर जाति की संख्या के आधार पर उठ खड़ी होने वाली प्रतिस्पर्धा, जो वास्तव में आरक्षण को ज्यादा से ज्यादा हड़पने के लिए हो रही है, हमें किस प्रतिक्रियावादी दौर में ले जाएगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। यह जातियों के अंदर पहले से मौजूद एक्सक्लुजिवनेस के तत्व व प्रवृत्ति को बढ़ाएगा और एसीमिलेशन के तत्व और प्रवृत्ति को कमजोर व खत्म करेगा, अंतर्जातीय विवाह में ऑनर किलिंगग को बढ़ाएगा, अलग-अलग दलित एवं वंचित जातियों की अपनी जनसंख्या को बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा को तेज करेगा, तरह-तरह की प्रतिक्रियावादी विभाजन, घृणा व नफरत तथा एकांगीपन के तत्वों को प्रज्ज्वलित करेगा, यहां तक कि फासीवादी शक्तियों के वर्चस्व के दौर में इसे एक जाति द्वारा दूसरी जाति के लोगों के संहार तक ले जा सकता है, ताकि इसके बहाने हिंदू धर्म आधारित पहचान की राजनीति को आगे बढ़ाया जा सके। इस प्रतिक्रियावाद से लड़ने के लिए मेहनतकशों के पास एक ही रास्ता है, जनसंख्या के आधार पर नहीं, श्रम के आधार पर हिस्सेदारी की मांग करना और इस तरह ”जिसकी मेहनत से दुनिया खड़ी है वही इस दुनिया का मालिक है” के केंद्रीय नारे के साथ नौकरी से लेकर हर मामले में 100 प्रतिशत हिस्सेदारी की माग करना। मेहनतकशों द्वारा ”जो कमाएगा वह खाएगा, जो नहीं कमाएगा वह नहीं खाएगा” के आधार पर समाज को पुनर्गठित करने का आह्वान करते ही निजी संपत्ति के खात्मे पर आधारित समस्त उत्पादन साधनों के सामाजिक स्वामित्व के आधार पर उत्पादन पद्धति का वह मूलमंत्र हमारे हाथ लग जाएगा जिससे बेरोजगारी, कंगाली, भुखमरी और दारिद्र्य की समस्या को हम चंद दिनों में और चुटकी बजाते ही खत्म कर सकेंगे। इतिहास में मजदूर वर्ग ने इसे कर दिखाया है और इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि यह काल्पनिक बातें हैं।
इसलिए इसके बरक्स यह सवाल शिद्दत से उठाया जाना चाहिए – क्या उपवर्गीकरण इन पिछड़ गई जातियों को आरक्षण का अधिक लाभ देने में सक्षम होगा? अगर देगा, तो कितने को देगा और किस प्रतिक्रियावादी परिणाम के साथ देगा? क्या बेरोजगारी से लड़ने का कोई और रास्ता नहीं है। पहले तो निजीकरण व आउटसोर्सिंग द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र में भर्ती ही अत्यंत सीमित की जा चुकी है। ऊपर से आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने की नीति हमारे सामने है। अतः पहले से ही अत्यंत गरीबी की शिकार इन जातियों की अधिकांश जनता के लिए मुनाफाखोरी वाली अत्यंत महंगी उच्च शिक्षा प्राप्त कर आरक्षण का लाभ हासिल करना लगभग नामुमकिन होगा। इसमें भी अगर क्रीमी लेयर की बात लागू की जाए तो इन जातियों के तुलनात्मक रूप से संपन्न हिस्से के लिए भी आरक्षण का लाभ हासिल करना लगभग नामुमकिन होगा। अतः शासक वर्ग के मौजूदा रवैये के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि उपवर्गीकरण द्वारा आरक्षण के लाभ से अब तक वंचित जातियों को न्याय देने की बातें मात्र भ्रम पैदा करने हेतु हैं और वास्तविक नीति हर प्रकार से आरक्षण को निष्प्रभावी करने की है एवं इस उपवर्गीकरण को भी इसी मकसद के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। यह बात सही है कि तुरंत विरोध के चलते मोदी सरकार ने इस नीति से तात्कालिक तौर पर पीछे हटने के संकेत दिए हैं, पर संघ/बीजेपी का वर्ण-जातिवादी वैचारिक रूझान बताता है कि वे देर सबेर इस ओर कदम जरूर बढाएंगे।
12.
तो जाहिर है, आरक्षण से दलितों के जीवन में सुधार का दायरा अत्यंत सीमित है। जब तक भारत की पूंजीवादी व्यवस्था अपने सीमित विस्तारकाल में रही, शिक्षा-रोजगार के अवसरों की सकल तादाद में इजाफा होने के कारण वंचित जातियों के लिए आरक्षण द्वारा सुरक्षित अवसरों को सवर्ण जातियों के अत्यंत उग्र प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा, क्योंकि आरक्षण के बावजूद सवर्णों के लिए भी उपलब्ध अवसर बढ़ रहे थे। अतः उस दौर में आरक्षण का कुछ सीमित लाभ वंचित जातियों की एक छोटी संख्या को मिलना मुमकिन हुआ। इससे उनमें भी एक छोटा मध्य व अति न्यून संपन्न वर्ग निर्मित हुआ। किंतु अधिसंख्य दलित-वंचित जनता ग्रामीण कृषि में अत्यंत सरप्लस श्रमिक आपूर्ति के परिणामस्वरूप मानवीय जीवन की अत्यंत न्यूनतम आवश्यकताओं से भी निम्न स्तर की मजदूरी दर पर दरिद्रता का जीवन जीने को ही मजबूर रही और सवर्ण जातियों के भूस्वामियों के अमानवीय जुल्म का शिकार भी बनती रही।
आरक्षण के दायरे को देखें तो रिजर्व बैंक के अनुसार भारत में सभी प्रकार के सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र में 1.96 करोड़ रोजगार का शिखर 1996-97 में ही पहुंच चुका था। उसके बाद इस संख्या में निरंतर गिरावट आई है और 2011-12 में ही यह संख्या गिरकर 1.76 करोड़ रह गई थी।[3] इसके बाद की संख्या रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में नहीं दी गई है, लेकिन निजीकरण, सरकारी भर्तियों की स्थिति एवं रेलवे-बैंकिंग जैसे बड़े रोजगार वाले सेक्टरों के नवीन आंकड़े बताते हैं कि यह संख्या तब से और भी गिरी है। अर्थात आरक्षण की श्रेणी में आने वाले कुल रोजगारों की संख्या में विभिन्न तरह से कटौती जारी है, और इसी के साथ आरक्षण को खत्म करने के लिए अन्य तमाम तरह की कोशिशें भी जारी हैं जिनके जरिए इसे पहले ही बेहद खोखला किया जा चुका है।
तर्क दिया जा सकता है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग इसका उत्तर है। पर निजी क्षेत्र में भी नियमित रोजगारों की संख्या बहुत कम है। निजी क्षेत्र के बहुसंख्य रोजगार पूर्ण असुरक्षित बिना किसी कांट्रैक्ट वाले कैजुअल, दिहाड़ी, ठेका, गिग रोजगार हैं। रिजर्व बैंक की उपरोक्त रिपोर्ट के ही मुताबिक 1983-84 में संगठित निजी क्षेत्र में नियमित वेतन वाले रोजगार 73.60 लाख थे। 2011-12 में ये बढ़कर मात्र 119.70 लाख तक ही पहुंचे हैं। इसके बाद की संख्या इस रिपोर्ट में नहीं है लेकिन रोजगार विहीन आर्थिक वृद्धि का तथ्य सर्वविदित है। स्पष्ट है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करा लिए जाने और इसका प्रतिशत बढाकर आबादी के समानुपातिक कर देने के बाद भी आरक्षण के जरिए रोजगार में भागीदारी के संघर्ष के दायरे की उच्चतम सीमा यही लगभग 3 करोड़ रोजगार तक ही पहुंच सकती है। इसके बरक्स भारत में मौजूदा कुल हर प्रकार के भुगतान पाने वाले रोजगाररत व्यक्तियों की संख्या 40 करोड़ से कुछ अधिक है और काम करने की उम्र के सभी व्यक्तियों की संख्या लगभग 100 करोड़ है।
साफ है कि आरक्षण के संघर्ष का दायरा बहुत सीमित है और इसमें पूर्ण कामयाबी प्राप्त करने के बाद भी इसका जाति उन्मूलन जैसे लक्ष्य पर बहुत न्यून प्रभाव पड़ने वाला है। इसके बाद भी दलित वंचित जातियों के सर्वहारा को उत्पादन के साधनों के मालिकों के पास अपने शरीर की श्रम करने की क्षमता का विक्रय ही जीवन का एकमात्र उपाय बना रहने वाला है और जब तक उन्हें खेत-खलिहानों, खदानों से लेकर शहरों-कस्बों के लेबर चौकों पर खुद को नीलाम करने की मजबूरी है तब तक उन्हें सामाजिक समानता हासिल हो जाने की बात मात्र एक हसीन भुलावा है। जो कार्यक्रम दलित जातियों के बहुलांश श्रमिकों के प्रश्न को विचार के दायरे में ही नहीं लेता, उस कार्यक्रम से जाति उन्मूलन का मकसद कभी हासिल नहीं हो सकता।
13.
आर्थिक आधार पर आरक्षण (EWS) की नितांत प्रतिक्रियावादी नीति को छोड़ भी दें तो बुनियादी तौर पर आरक्षण समान अवसर के लिए होड़ करने वालों के बीच जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव पर रोक हेतु एक सकारात्मक भेदभाव (positive discrimination) की नीति है। उदाहरणार्थ, इसका अर्थ है कि आईएएस बनने की योग्यता रखने वालों के बीच उस पद पर नियुक्ति में भेदभाव न किया जाए या जैसा आजकल मांग उठाई जाती है कि सचिव पद पर नियुक्ति की अर्हता रखने वाले आईएएस अधिकारियों के बीच जाति के आधार पर भेद न किया जाए या प्रोफेसर/जज बनने की अर्हता रखने वालों के बीच इन पदों पर नियुक्ति के लिए उनकी जाति के आधार पर संभावित भेदभाव रोकने हेतु एक सकारात्मक भेदभाव की व्यवस्था बना दी जाए। स्पष्ट है कि यह आईएएस, प्रोफेसर, जज, सचिव, आदि से लेकर क्लर्क, अफसर, चपरासी, आदि हर पद हेतु जरूरी योग्यता के साथ होड़ करने वालों के बीच जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकने की सकारात्मक भेदभाव की नीति है। इस रूप में इसका एक बुर्जुआ जनवादी चरित्र है, जिसको समाप्त करने का प्रयास बुर्जुआ जनवाद के अंतर्गत किये गये सुधारों और प्रदत्त अधिकारों के हनन का फासीवादी प्रयास है और उसका विरोध निश्चय ही उचित व जरूरी नीति है।
किंतु अपने बुनियादी चरित्र में ही आरक्षण मात्र किसी खास शैक्षणिक या रोजगार की पोजीशन हेतु समकक्षों के बीच जाति के आधार पर भेदभाव की रोकथाम का उपाय है। बिहार के जाति सर्वेक्षण का तथ्य है कि 80% से अधिक परिवार 20 हजार रु महीना से कम आय वाले हैं। इसी तरह देश में तमाम सर्वेक्षण बता चुके हैं कि 90% से अधिक परिवारों की आय 25 हजार रु महीना से नीचे है। फिलहाल शिक्षा के निजीकरण व व्यवसायीकरण से जो स्थिति बन चुकी है उसमें क्या 25 हजार रु महीना से भी कम आमदनी वाले परिवार का कोई युवा तीनों आरक्षित क्षेत्रों में से किसी का लाभ उठाने की वास्तविक स्थिति में है? या भारत के 90% अनौपचारिक क्षेत्र के कर्मियों, जिनमें बड़ी तादाद में वंचित जातियों के कामगार शामिल हैं, के लिए इसका क्या अर्थ है? इस मजदूर वर्ग व मेहनतकश जनता के पास तो संविदा, ठेका, कैजुअल, दिहाड़ी, खेत या ईंट भट्टा, आदि पर मजदूरी वाले रोजगार भी मिल पाना मुश्किल बन गया है, यही वास्तविकता है। इस प्रकार हर बुर्जुआ जनवादी अधिकार की तरह आरक्षण के अधिकार का भी एक वर्गीय चरित्र है, क्योंकि शिक्षा के निजीकरण-व्यवसायीकरण के मौजूदा दौर में दलित जातियों में भी प्रभावी रूप से इसका लाभ बुर्जुआ संस्तर व मध्य वर्ग ही हासिल कर सकता है।
14.
पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा दिए गए आरक्षण के अधिकार ने दलित जातियों में जिस छोटे संपन्न व मध्य वर्ग का निर्माण किया है आरक्षण का सवाल उसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर ही उपलब्ध अवसरों की होड़ में अपने हितों की हिफाजत के जनवादी अधिकार का मुद्दा है। इसे वह अपनी जाति की संख्या शक्ति के मोबीलाइजेशन के बल पर हासिल करना चाहता है। अतः यह जाति उन्मूलन के कार्यक्रम के ठीक विपरीत जाति के कंसोलिडेशन का मुद्दा है क्योंकि वही इसके लिए राजनीतिक सौदेबाजी का औजार है। ठीक इसीलिए उप्र, बिहार, मप्र, राजस्थान जैसे राज्यों का ही अनुभव बताता है कि सामान्य आलसी विश्लेषण के ठीक विपरीत यह संघ/बीजेपी की फासीवादी मुहिम में कोई अनुल्लंघनीय बाधा नहीं है और दलित/ओबीसी जातियों के अपने अंतर्विरोधों को बीजेपी ने अपने हित में इस्तेमाल करने की रणनीति का बहुधा कुशलता से प्रयोग किया है।
अतः आरक्षण आधारित सुधार कार्यक्रम से उभरे संपन्न/दरमियाने दलित तबके के लिए अब जाति उन्मूलन न सिर्फ कोई सवाल नहीं रह गया है, बल्कि जाति गौरव का प्रचार उसके लिए मुख्य रुझान बन गया है। वह बता रहे हैं कि उनकी जाति प्राचीन इतिहास में राजाओं की जाति थी, जिसे बाद में ब्राह्मणवादी साजिश से ‘नीच’ बना दिया गया। किंतु अगर सभी जातियां प्राचीन गौरव से परिपूर्ण शासकों की जातियां थीं, तो फिर जाति व्यवस्था में अन्याय कहां बचा? फिर तो इसके उन्मूलन का नहीं, मात्र इतिहास, साहित्य, पुराण, आदि में की गई ब्राह्मणवादी विकृतियों की सफाई कर जाति के प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित करना ही मुख्य सवाल बन जाता है! मौजूदा दौर में तथाकथित जाति अन्याय विरोधी मुहिम के इस चरित्र को स्पष्ट देखा जा सकता है जो मात्र इन ग्रंथों से अ’गौरव’ की बातों की ‘सफाई’ चाहता है। सर संघचालक मोहन भागवत भी इसके लिए सहमति जता ही चुके हैं क्योंकि इससे तो उनका जाति समरसता का लक्ष्य और भी आसान बन जाता है। अतः जीवन भर जाति उन्मूलन प्रश्न को उठाते रहने वाले अंबेडकर के सम्मान में ‘जय भीम’ बोलते रहने के बावजूद बहुतेरे जाति ‘विरोधियों’ के लिए भी संघ-बीजेपी का फासीवाद अब दूरी बनाए रखने की चीज नहीं रहा!
15.
पूंजीवादी संवैधानिक व्यवस्था ने अपने चरित्र के मुताबिक सभी नागरिकों को उनके सामंती वर्ग विभाजन वाले जातिगत पेशा विभाजन के बंधन से वैधानिक तौर पर मुक्त कर दिया है। परंतु पूंजीवादी जनवाद मात्र औपचारिक वैधानिक स्वतंत्रता ही दे सकता है। इस वैधानिक स्वतंत्रता को वास्तविक स्वतंत्रता बना देना उसके बुनियादी चरित्र के विपरीत है क्योंकि संपत्तिहीन सर्वहारा का उजरती श्रम ही पूंजीवाद की बुनियाद है और इस पर पुराने ढंग का विशेषाधिकार कायम करने के लिए पुराने श्रम विभाजन का उपयोग करने से वह कभी भी पीछे नहीं हटेगा। उल्टे वह जरूरत पड़ने पर, जैसा कि आज के फासीवादी दौर की जरूरत है, पुराने जाति आधारित श्रम विभाजन को ही नहीं सभी अन्य तरह के पुराने से पुराने श्रम विभाजनों का उपयोग जनता को बांटों और राज करने के लिए करने से भी नहीं पीछे हटेगा। यह उसकी फितरत है और जरूरत भी। औपनिवेशिक शासन की गुलामी में पले भारतीय पूंजीवाद में चौतरफा औद्योगिक विकास के जरिए बड़े पैमाने पर गैर-कृषि गैर-देहाती रोजगार के मौके उपलब्ध कराने की सामर्थ्य नहीं थी। जहां तक पुराने सामंती जातिगत श्रम विभाजन को एक झटके में तोड़ने की बात है तो यह उसके हित और चरित्र दोनों के विरुद्ध बात थी। इसलिए वंशानुगत पेशा विभाजन के टूटने की प्रक्रिया बहुत धीमी ही नहीं रही, उसे पूरी तरह से खत्म करने की उसके लिए कोई वजह भी नहीं थी या है।
1980 के दशक में चमड़ा उद्योग के कुल कामगारों में अनुसूचित (एससी) जातियों के श्रमिकों का अनुपात आबादी में उनके अनुपात का 4 गुना से अधिक था। 2021 में यह कम होकर 2 गुना ही रह गया। इसी प्रकार 1980 के दशक में सफाई, मैला, सीवरेज आदि क्षेत्र में एससी श्रमिकों का कुल कामगारों में अनुपात आबादी में उनकी संख्या के अनुपात से 5 गुना था अर्थात ऐसे लगभग सभी श्रमिक एससी जातियों के ही थे। किंतु 2021 में भी यह अनुपात 2 गुणा से अधिक बचा रह गया है। (स्रोत – स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2023, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी)। परंतु इसमें भी गौर किया जाए तो पाया जाएगा कि इन क्षेत्रों में भी दलित जातियों के कामगार सबसे निचले सबसे कठिन सबसे कम मजदूरी वाले रोजगारों में केंद्रित हैं और नए बेहतर यंत्रीकृत रोजगार में अन्य जातियों के लोग प्रवेश पा रहे हैं।
स्पष्ट है कि आज वैधानिक रूप से सभी नागरिक अपने पसंद का पेशा अपनाने के लिए आजाद हैं। कुछ हद तक यह परिवर्तन हुआ भी है। मगर संपत्तिहीन सर्वहारा के सामने आरंभ से ही श्रमिकों की आपूर्ति की तुलना में श्रमिकों की बहुत सीमित मांग की समस्या मुंह बाये खड़ी है अर्थात बेरोजगारों की विशाल रिजर्व फौज मौजूद होने से बड़ी संख्या में बेरोजगार श्रमिक अत्यंत कम मजदूरी पर काम के लिए विवश हैं। अतः बड़ी तादाद में औद्योगिक रोजगार के अभाव में दलित जातियों के बहुत से अत्यंत गरीब मेहनतकश अभी भी अपने परंपरागत पेशों से निकल पाने में असमर्थ हैं। साथ ही कम मजदूरी पर इतनी विशाल संख्या में मजदूरों की आपूर्ति के कारण बहुत से क्षेत्रों में पूंजीपतियों के लिए यंत्रीकरण कम लाभप्रद है और आज भी सिर पर मैला ढोने जैसे कामों को पुराने अमानवीय ढंग से ही किया जा रहा है, हालांकि इनके लिए यांत्रिक विकल्प दशकों नहीं एक सदी से अधिक से मौजूद हैं।
16.
प्रयोजनवादी दलित नेतृत्व द्वारा जाति अत्याचार के प्रतिरोध व प्रतिकार के अधिकार के प्रश्न को पूरी तरह दरकिनार कर दिया जाना एक और अहम पहलू है। संविधान में औपचारिक समानता की घोषणा के अतिरिक्त जातिगत उत्पीड़न को रोकने का कोई प्रावधान ही नहीं किया गया, बल्कि जातिगत प्रताड़ना के शिकारों को उसके प्रतिकार के लिए कार्रवाई का कोई अधिकार देने के बजाय संविधान की स्वीकृति के समय 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में उनके अंतिम भाषण में अंबेडकर से ही हर प्रकार के अवज्ञा व असहयोग तक को छोड़ने का आह्वान करा लिया गया –
“यदि हम लोकतंत्र को न केवल रूप में, बल्कि वास्तव में भी बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचार से पहली चीज़ जो हमें करनी चाहिए वह है अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को मजबूती से अपनाना। इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को त्यागना होगा। इसका मतलब है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ देना चाहिए। जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों का कोई रास्ता नहीं बचा था, तब असंवैधानिक तरीकों का औचित्य बहुत अधिक था। लेकिन जहां संवैधानिक तरीके खुले हैं, वहां इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं हो सकता। ये तरीके और कुछ नहीं बल्कि अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा।”
17.
किंतु जाति उत्पीड़न के प्रतिकार का कोई संवैधानिक तरीका वास्तव में था कहां? पूंजीवादी संवैधानिक व्यवस्था में दलितों को जातिगत उत्पीड़न के प्रतिकार का कोई अधिकार तो दूर, इसके लिए किसी प्रकार की कानूनी सुधार की व्यवस्था तक नहीं की गई। औपनिवेशिक शासन से विरासत में मिली राज्य की घोर प्रतिगामी संस्थाओं पर ही जातिगत उत्पीड़न के अपराधियों को सजा देने की उम्मीद पर बात समाप्त हो गई। अर्थात मात्र सीमित आरक्षण के बदले जाति अन्याय विरोधी आंदोलन, खासकर नीचे से होने वाले प्रतिरोध से संबंधित सारी मांगें नामंजूर कर दी गईं।
हरित क्रांति के बाद के दौर में जाति के साथ ही उभरे उजरती मजदूरी के अंतर्विरोध के परिणामस्वरूप सामूहिक दलित हत्याओं व उनके प्रतिरोध के एक दौर के पश्चात एससी-एसटी (प्रीवेन्शन ऑफ अट्रोसिटीज) कानून, 1989 के जरिये जातिगत उत्पीड़न के सवाल को एड्रेस करने की बात की गई। लेकिन वास्तव में तो इसके जरिए नीचे से इसके विरुद्ध उठने वाले प्रतिरोध को ही पूरी तरह पुलिस द्वारा विशेष धाराओं व विशेष अदालत के कानूनी-प्रशासनिक दायरे में बांध कर और इसे कानून-व्यवस्था भंग के दायरे में ले आकर उत्पीड़ित जनता की स्वप्रतिकार को गैर-कानूनी बना दिया गया। दलित थाने बनाये गये और दलित अफसर नियुक्त किये गये। लेकिन पुलिस और अदालत तो आखिर धनशक्ति से ही संचालित होते हैं। कोढ़ में खाज यह है कि ऊपर से नीचे तक प्रशासन में जातिवादी लोग भरे हुए हैं। धन की सर्वशक्तिमत्ता और जाति की श्रेष्ठता से भला इस पूंजीवादी समाज में कौन अछूता है? ऐसे में, जाति उत्पीड़न के किसी शिकार को न्याय मिलना कैसे मुमकिन हो सकता है? यह बस उन्हें थकाकर हताश हो बैठने के लिए मजबूर करने वाली व्यवस्था का परिचायक ही है। यह सब कुछ अंबेडकर के बुर्जुआ जनवाद के वैचारिक प्रभाव में राज्य को वर्गोपरि और जातीय श्रेष्ठता के प्रभाव से परे किसी अलौकिक शक्ति जैसी चीज मानने के विचार से ही प्रभावित था कि एक उत्पीड़क राज्य को सबका न्यायकर्ता मानकर गरीब जनता को इसके मोहपाश में बांध दिया गया। जबकि वर्ग विभाजित समाज में ऐसा कोई राज्य हो ही नहीं सकता है। मजे की बात यह है कि जब समाज वर्गोपरि हो जाएगा तो उस समय राज्य के होने की आवश्यकता ही खत्म हो जाएगी। यह सब कुछ अंबेडकर की वैचारिकी का कभी अंग नहीं रहा। राज्य हमेशा ही शासक वर्ग के दमन का औजार होता है। भूमि संबंधों में क्रांतिकारी बदलाव के बगैर कृषि के पूंजीवादी बन जाने पर भी धनी एवं बड़े किसानों और सवर्ण जातियों के बीच काफी हद तक एक अतिच्छादन या ओवरलैप की स्थिति बनी रह गई, तो स्वाभाविक तौर पर इसे सवर्णवादियों के दमन का औजार बनना ही था। अतः जाति अत्याचार के खिलाफ उत्पीड़ित जनता की पहलकदमी वाले प्रतिरोध के बजाय इसे पुलिस-अदालती नौकरशाही तक महदूद बना देने से यह एक ओर तो जाति अत्याचार करने वाले वास्तविक अपराधियों को बचाने का तंत्र बन गया है तो दूसरी ओर बुर्जुआ दलितवादी चुनावी राजनीति के लिए सौदेबाजी का एक जरिया भी। यह ठीक-ठीक किस बात को इंगित करता है? इस बात को कि ऐसे तमाम दलित मुक्ति के चिंतन व विचारधारा का पूंजीवाद में विलय पूर्ण हो चुका है और इसमें क्रांतिकारिता देखनी है तो पहले इसकी कपाल क्रिया करनी होगी ताकि जो कुछ भी क्रांतिकारी था और है उसे द्वंद्वात्मक विधि का उपयोग करते हुए बचाया और संरक्षित किया जा सके।
18.
भारत में जाति विरोधी व कम्युनिस्ट आंदोलन दोनों के बड़े हिस्से में ही पूंजीवादी जनवाद के चरित्र के बारे में भारी भ्रम मौजूद रहा है। बहुतों का मानना है कि पूंजीवादी जनवाद मनुष्य-मनुष्य के बीच बराबरी व भ्रातृत्व स्थापित करता है। अक्सर तर्क दिया जाता है कि भारत में अभी सामंती या अर्ध-सामंती व्यवस्था मौजूद है क्योंकि अगर भारत में बुर्जुआ जनतंत्र कायम हुआ होता तो वंचित जातियों व स्त्रियों को स्वतंत्रता-समानता जरूर हासिल हो गई होती, और जाति व पितृसत्ता आधारित जुल्म, जो बहुत हद तक परस्पर अंतर्गुंथित हैं, समाप्त हो गए होते। उनका मानना है कि बुर्जुआ जनतंत्र के अंतर्गत जातिगत भेदभाव व जुल्म से मुक्ति उपरांत ही भारत में मजदूर वर्ग नेतृत्व में समाजवादी समाज के लिए संघर्ष मुमकिन है। क्या यह पूंजीवाद का महिमामंडन नहीं है, मानो यह उत्पीड़न से ऊपर की कोई व्यवस्था है। इसलिए जाति उन्मूलन कार्यक्रम के नजरिए से इस तर्क पर विशेष रूप से गौर करना आवश्यक है।
पूंजीवाद में शोषण का चरित्र सीधे बलपूर्वक सरप्लस हस्तगतकरण न रहकर उजरती श्रम के बेशी मूल्य या सरप्लस वैल्यू को हड़पने के जरिए हो जाता है। अतः यह सामंती व्यवस्था की शोषण की व्यवस्था पर चोट कर वैधानिक स्वतंत्रता व समानता का नारा बुलंद जरूर करता है, पर वास्तविक जीवन में यह समानता व स्वतंत्रता पूंजीवाद में कहीं नहीं मिलती या दिखाई देती है। ‘स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व’ वाले परचम के बावजूद पूंजीवाद निजी संपत्ति आधारित वर्ग विभाजित शोषक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें उत्पादन के साधनों पर एक अल्पसंख्या का निजी मालिकाना मौजूद है। निश्चय ही दास व सामंती सामाजिक व्यवस्था की तुलना में पूंजीवाद उत्पादन की शक्तियों में क्रांति लाकर उत्पादित सरप्लस की मात्रा में बड़ी वृद्धि करता है और पुरानी दोनों व्यवस्थाओं की तुलना में इस सरप्लस में हिस्सा बंटाने वाली आबादी की तादाद कुछ हद तक बढ़ जाती है। अर्थात यह शोषित मेहनतकश तबके व समुदाय के कुछ अगुआ व्यक्तियों को व्यवस्था के भिन्न-भिन्न स्तर के प्रबंधकों के रूप में अपने में शामिल कर लेने की क्षमता रखता है। अर्थात प्रतिनिधित्व का अधिकार देता है। यही चीज सभी जातियों के अंदर एक अत्यल्प संख्या में पूंजीवादी संस्तर को पैदा करने और फिर उसके पूंजीवाद में सहयोजित करने का आधारबिंदु है जिससे जाहिर है पूंजीवादी जनवाद का शोषक चरित्र बदलता नहीं है। अपितु और स्पष्टता से यह दिखता है कि किस तरह सभी जातियों के अंदर के पूंजीवादी संस्तर जहां हिस्सेदारी के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा में हैं वहीं वे सभी जाति के मेहनतकशों की गुलामी की व्यवस्था पूंजीवाद को अक्षुण्ण बनाये रखने पर एकमत हैं।
यूरोपीय-अमरीकी विकसित पूंजीवादी देशों को भी देखें जिनका पूंजीवादी विकास ऐसे दौर में हुआ जब उसके लिए सामंती निरंकुशता व संकीर्णता से अधिक जुझारू व क्रांतिकारी रूप से लड़ना मुमकिन था। किंतु इन देशों में भी सत्ता प्राप्त करते ही बुर्जुआ वर्ग ने सामंती अभिजात्य से समझौता किया और सामंती अवशेषों, संकीर्णताओं व पूर्वाग्रहों को काफी हद तक सुरक्षित रखा। इन सभी में न सिर्फ सामंती आभिजात्य व पूर्व दास प्रभुओं की संपत्ति व विशेषाधिकार बहुत हद तक सुरक्षित रही, बल्कि नस्लवाद का न सिर्फ उन्मूलन नहीं हुआ बल्कि पूंजीवाद के मौजूदा दौर में उसमें वैसी ही वृद्धि हो रही है जैसे भारत में फासीवादी उभार के दौरान जातिगत जुल्म में पुनः वृद्धि देखी जा सकती है। हम यह भी पाते हैं कि वास्तव में तो पूंजीवादी व्यवस्था ने कहीं भी मेहनतकश जनता को जनवादी अधिकार प्रदान नहीं किए। इन देशों में सभी अधिकारों के लिए संपत्ति मालिकाने की शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई थी। सार्विक मताधिकार तक रूसी बोल्शेविक मजदूर क्रांति के बाद मिलना आरंभ हुआ और लिंग व नस्ल के किसी भेदभाव बगैर सार्वत्रिक मताधिकार फ्रांस में 1945 तथा अमरीका व स्विट्जरलैंड में पूर्ण रूप से 1960 से 1990 के दशक तक जाकर मिला। इसके पहले सभी विकसित पूंजीवादी देशों में मताधिकार मात्र एक छोटे संपत्तिशाली तबके तक सीमित था। पूंजीवादी जनतंत्र ने संपत्तिहीनों को कहीं भी नागरिक अधिकारों के योग्य मंजूर नहीं किया। इस अर्थ में 1947 में औपनिवेशिक गुलामी से आजाद हुआ, जहां शुरू से ही सभी के लिए सार्विक मताधिकार प्रदान किया था, भारत विकसित देशों से ज्यादा जनवादी प्रतीत होता है लेकिन यह सच्चाई नहीं है। जमीनी तौर पर और समाज में उन विकसित देशों में जनवादी और प्रगतिशील मूल्यों की उपस्थिति ज्यादा मजबूत थी जहां पूंजीपति वर्ग ने सामंतशाही से ज्यादा जुझारू और क्रांतिकारी तरीके से लड़कर पूंजीवादी जनतंत्र को लागू किया। मुख्य बात यही है कि चाहे भारत हो या पश्चिम के अग्रणी पूंजीवादी देश, सभी पूंजीवादी देशों में 19-20 वीं सदी में मिले सभी राजनीतिक व आर्थिक जनवादी अधिकार मजदूर वर्ग द्वारा लड़े गये दीर्घकालिक बलिदानी संघर्षों और खासकर बोल्शेविकों के नेतृत्व में हूई महान अक्टूबर सर्वहारा क्रांति की देन हैं। इस सबक को भूल पूंजीवादी जनतंत्र के वैधानिक सुधारों के भरोसे रहना भारत के जाति विरोधी व मजदूर आंदोलन के बड़े हिस्से की भारी गलती रही है और इसने भारत में जाति-उन्मूलन सहित जनवादीकरण की पूरी प्रक्रिया को पीछे धकेल दिया है। यही नहीं विकसित देशों में भी जनवादीकरण को इसलिए ही पलटा जा रहा है क्योंकि वहां के मजदूर क्रांति से मुंह मोड़ पूंजीपति वर्ग का सहचर बन बैठे थे और क्रांति की वैचारिकी के विरुद्ध जाते हुए पूंजीवाद के साहचर्य में नव साम्राज्यवादी वैश्विक लूट के हिस्सेदार बन वर्गीय समाज की वास्तविकताओं को भूल बैठे थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की तात्कालिक परिस्थिति में विध्वंस पश्चात पुनर्निर्माण की जरूरत का नतीजा अस्थाई तीव्र पूंजीवादी वृद्धि थी। इसने विकसित पूंजीवादी देशों में सरप्लस की जिस मात्रा को उत्पादित किया उससे तुरंत रोजगार व मजदूरी दर में इजाफा हुआ और मजदूरों का जीवन स्तर भी ऊंचा उठा। इसकी चमक-दमक ने इन देशों में तात्कालिक तौर पर बहुत सी समस्याओं व उत्पीड़न पर पर्दा डालने का काम किया। किंतु 1970 के दशक में पूंजीवाद के इस अल्पकालिक स्वर्ण युग के समाप्त होते ही नवउदारवाद के रूप में मजदूर वर्ग पर पूंजीवादी प्रत्याक्रमण शुरू हो गया और ब्लैक, हिस्पानिक आदि पर नस्लवादी अत्याचार भी। ठीक जिस वक्त ओबामा राष्ट्रपति चुने गए, उसी वक्त नस्लवादी अत्याचार के खिलाफ ‘ब्लैक लाईव्ज मैटर’ विद्रोह आवश्यक बन गया, और उत्पीड़ित नस्लों में से प्रतिनिधित्व के अधिकार के जरिए शासक वर्ग में शामिल हुई अल्पसंख्या का वर्ग चरित्र भी पूरी तरह जाहिर हो गया।
19.
नवउदारवाद के दौर का पूंजीवाद पूंजी के अति संचय और वित्तीय इजारेदारी का पूंजीवाद है। इस अति पूंजी संचय ने एक ओर अति धनाढ्यों का एक वर्ग (जिसमें अधिकांशतः पुराने संपत्तिशाली ही हैं, भारत के मामले में बहुसंख्या मध्यवर्ती जातियों सहित सवर्णों की है) तैयार किया है तो दूसरी ओर छोटे मालिकों-उत्पादन की बरबादी व बेदखली द्वारा बेरोजगारों की एक विशाल फौज को जन्म दे दिया है। इससे प्रभावी मजदूरी दर अत्यधिक गिर गई है और श्रमिकों का अधिकांश हिस्सा किसी तरह जीवन चलाने के लिए दिहाड़ी व गिग इकॉनमी के अस्थाई व असुरक्षित रोजगारों में परस्पर तीक्ष्ण होड़ के लिए विवश कर दिया गया है।
अपने मौजूदा अति संचय के दौर में पूंजीवाद उत्पादक क्षेत्र में रोजगार सृजन के बजाय अतुलनीय पूंजी संचय से अस्तित्व में आए अति-धनाढ्यों के वर्ग के लिए खिदमतगार किस्म के रोजगार ही अधिक पैदा कर रहा है जैसे वाचमैन, ड्राइवर, डिलीवरी-कूरियर कर्मी, मेड, सफाई कर्मी, आदि। अति-धनाढ्यों व उनका खाया-अघाया प्रबंधक-मुनीम तबका ही आज भारतीय समाज में सवर्णवादी प्रतिक्रिया का आधार है। अति-धनाढ्यों व खिदमतगार श्रेणी के कामगारों का यह विभाजन अपने आप में ही पुरानी जाति व्यवस्था के भेदभाव का पूंजीवाद द्वारा एक नए रूप में पुनरूत्पादन है। ऐसे सड़ते हुए पूंजीवाद में चौतरफा रोजगार सृजन द्वारा वंचित जातियों के मेहनतकशों का सवर्णवादी चंगुल से निकलना और भी मुश्किल हो गया है। विस्तार के दौर में पूंजीवाद ने उत्पीड़ित जातियों की जनता को जो थोड़ा बहुत सांस लेने का मौका दिया था, सड़ते हुए पूंजीवाद अर्थात फासीवाद के दौर में सवर्णवादी प्रतिक्रिया और साथ ही साथ उसके समक्ष सामाजिक न्याय आंदोलन के नवीनतम संस्करण के द्वारा किये जा रहे निर्लज्ज आत्मसमर्पण ने उनसे वो मौका भी छीन रही है। दलितों में से मध्य/संपन्न तबके में शामिल हुआ हिस्सा पूरे सवाल को अपने वर्ग हित अनुसार आरक्षण या भागीदारी तक सीमित कर और सत्तासीन फासीवादी ताकतों के साथ जा मिल इस सवर्णवादी प्रतिक्रिया में किसी न किसी रूप में मदद दे रहा है। दूसरी तरफ कहा जाता है कि दलित ही वास्तविक सर्वहारा हैं तो जाति की भागीदारी ही वास्तविक सर्वहारा संघर्ष है। मगर धनाढ्यों का खिदमतगार बनने के लिए मजबूर किए जा रहे इस दलित सर्वहारा के लिए यूनियन बनाने के अधिकार, रोजगार गारंटी, न्यूनतम मजदूरी, 8 घंटे काम का दिन, कार्यस्थल पर सुरक्षा, आदि के सवाल पर ये चुप्पी क्यों बरतते हैं इसका जवाब नहीं दिया जाता है। दरअसल यह सब इनके वर्ग चरित्र और पहले पूंजीवाद फिर आज के उभरते फासीवाद के साथ इनके होते विलय को ही जाहिर करता है।
20.
पूंजीवाद की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने पूंजीवादी दृष्टि से उत्पादक माने जाने वाले रोजगारों का सृजन बहुत कम कर दिया है। इसके बजाय आज उपलब्ध रोजगारों की बडी संख्या अमीरों के निजी उपभोग में सेवा करने वाले रोजगारों की है जैसा कि ऊपर भी इंगित किया गया है। दूसरे, शहरों में मेहनतकश जनता के लिए सार्वजनिक आवासों के निर्माण के लिए बने सार्वजनिक संस्थानों ने वैसा करने के बजाय सार्वजनिक भूमि का बडे पैमाने पर निजीकरण कर इसे रियल एस्टेट पूंजीपतियों व अन्य अमीरों को हस्तांतरित कर दिया है। इन्होंने वित्तीय सट्टेबाजी द्वारा इनकी कीमतों व किराए को आसमान पर पहुंचा कर इसे आम मेहनतकश जनता की पहुंच से दूर कर अपनी गेटिड कॉलोनियों में बदल दिया है। वंचित जातियों का अत्यंत न्यून संपन्न हिस्सा ही इनमें जगह पा सकता है और पाता है, लेकिन दूसरी तरफ उनमें से ही अन्य कोई इनमें भाडे पर घर लेने की भी कोशिश करता है तो उसे जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है जो बहुतेरे गैर-वर्गीय दलित मुक्ति विमर्श द्वारा दिये जा रहे सारे कुतर्कों का अपने आप में ठोस जवाब है। दूसरी तरफ, वंचित जातियों की अधिकांश आबादी आज अत्यंत कम मजदूरी पर सभी जातियों के नये व पुराने अमीरों की खिदमत वाले रोजगार करने एवं मजदूर बस्तियों / झोंपड़पट्टियों / मलिन बस्तियों में रहने के लिए मजबूर हैं। स्थिति यहां तक है कि मुंबई की दो तिहाई आबादी अधिकांश नागरिक सुविधाओं रहित शहर के मात्र 8% गरीबों के घेट्टो वाले क्षेत्र में रहती है जबकि अधिकांश आवासीय क्षेत्र को मुख्यतः सवर्ण अमीरों व मध्य वर्ग की गेटिड कॉलोनियों में घेर लिया गया है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि इनमें अपवादस्वरूप ही सही लेकिन दलित जातियों के नवोदित संपन्न लोग भी अपने लिए ठौर बनाये हैं और उनका व्यवहार एक दलित के रूप में अन्यों से प्रतिस्पर्धा का होता है और इसलिए प्रगतिशील और जनवादी लगता है, लेकिन मलिन बस्तियों में रहने वालों के प्रति उनका व्यवहार वर्गीय आधार पर होता है और यहां भी वे अन्यों के साथ एक तरह की प्रतिस्पर्धा में होते हैं और इससे जुड़े श्रेष्ठता का गौरव भाव उनमें भी होता है। हां, अगर वे जनवादी-प्रगतिशील संघर्षों से जुड़े होते हैं तो बात अलग होती है। इस प्रकार देखें तो उत्तर टोले के जुल्म से मुक्ति के सपनों के साथ गांव के दक्खिन टोले से शहर आने वालों की बडी संख्या आज पूंजीवाद के इन ‘आधुनिक’ शहरी केंद्रों में भी गांवों के उसी पुराने जातिभेद व अलगाव को ही, लेकिन निश्चित ही नये स्वरूप में, पुनरूत्पादित होते हुए पा रही है।
सभी गरीबों-मेहनतकशों सहित दलित जातियों के जीवन में आज पूंजीवाद ने जो तकलीफ पैदा की है, उसका हल आरक्षण की मांग नहीं दे सकती क्योंकि जातियों में भी वर्ग विभाजन है और इनका मेहनतकश हिस्सा आरक्षण का लाभ लेने की स्थिति में भी नहीं है। और न ही देश में हो चुके पूंजीवादी अति विकास के कारण पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकारें आरक्षण का लाभ दे सकती हैं। इसलिए कि न तो पहले जैसा उनके समक्ष मजदूर वर्ग की क्रांति का भय है और न ही पहले जैसी पूंजीवाद को और बड़े सामाजिक आधार में फैलाने की जरूरत। वास्तव में यह एक वर्गीय अंतर्विरोध है जिसके लिए एक वर्गीय प्लेटफार्म के आधार पर जनसंघर्ष संगठित करना जरूरी है। इस तरह जाति का एक अहम अंतर्विरोध के रूप में उपस्थिति, जैसा कि इस प्रपत्र की प्रथम पंक्ति में ही दर्शाया गया है, वास्तव में एक आभासी उपस्थिति ही है और जो ज्यादातर ऊपरी आवरण में मौजूद है। जैसे ही मजदूर वर्ग आधार को यानी पूंजीवादी संबंध को खत्म करके समाज को अपने राजनीतिक प्रभुत्व और तमाम सामाजिक संपदा व संपदा के स्रोतों को अपने स्वामित्व में ले लेगा यानी सामाजिक स्वामित्व में ले लेगा; जैसे ही सामाजिक उत्पादन और निजी हस्तगतकरण के बीच के अंतर्विरोध को खत्म कर उत्पादन से लेकर वितरण के क्षेत्र में मौजूद तमाम विसंगतियों को दूर करेगा, वैसे ही जाति ही नहीं पुराने अन्य सभी तरह के श्रम विभाजनों पर आधारित अंतर्विरोधों, विभाजनों और टकरावों/उत्पीड़नों को खत्म कर देगा। हां, इसके लिए जरूरी है कि मजदूर वर्ग आज जाति नामक अंतर्विरोध को निश्चित ही चिन्हित करे और इसके उन्मूलन का कार्यक्रम भी बनाये। जिस तरह हमारे विमर्श के बीच में ही यह वर्गीय अंतर्विरोध के समक्ष आभासी प्रतीत होने लगता है, ठीक वैसे ही वास्तविक जीवन में भी जैसे ही जाति उन्मूलन को वर्ग संघर्ष से जोड़कर संघर्ष चलाया जाएगा या वर्ग-संघर्ष को जाति अंतर्विरोध के उन्मूलन के ठोस कार्यक्रम के साथ मिलाकर चलाया जाएगा, वैसे ही वास्तविक जीवन में भी यह वर्गीय लड़ाई के तेज होते ही इसके खत्म होने या इसे खत्म करने की लड़ाई तेज होने की जमीन बनने लगती है, क्योंकि इसके बिना वास्तविक वर्ग-संघर्ष भी आगे तक जा नहीं सकेगा। यह उस हाइड्रोजन बम सरीखी स्थिति की तरह है जिसके फटने की परिस्थिति (अत्यधिक ताप) स्वयं एटम बम के फटने से उत्पन्न अत्यधिक ताप के द्वारा ही मिल सकती है। जाति उन्मूलन और वर्ग संघर्ष के बीच लगभग यही रिश्ता है।
परंतु इस वक्त देश में मजदूर वर्ग का कोई ऐसा सशक्त आंदोलन मौजूद नहीं है जो इन वंचित मेहनतकशों के भौतिक जीवन की इन समस्याओं के आधार पर इनकी आकांक्षाओं को आवाज दे सके। इसके लिए तो इनके भौतिक जीवन में सुधार के सवालों – कृषि भूमि सुधार व ग्रामीण आवासीय संपत्ति का प्रश्न, शहरों में सार्वजनिक आवास की व्यवस्था, सभी के लिए अनिवार्य रूप से समान व सुलभ शिक्षा व स्वास्थ्य की सार्वजनिक सुविधा, सभी के लिए रोजगार की गारंटी, खाद्य सुरक्षा, श्रम अधिकार, आदि सवालों पर सशक्त जनसंघर्ष खडा करने और आज की स्थिति में इन सबके विरुद्ध सबसे बड़ी बाधा के रूप में उभरे फासीवाद से क्रांतिकारी तरीके से लड़ने से ही इन आकांक्षाओं को आवाज दी जा सकती है। परंतु भारत में मजदूर वर्ग आंदोलन के नेतृत्व का मुख्य भाग आज संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों के हाथ में है। ये पार्टियां बुर्जुआ चुनावी गठजोड़ की राजनीति के साथ मात्र कुछ रस्मी विरोध तक अपने को सीमित कर चुकी हैं। उधर मजदूर आंदोलन का क्रांतिकारी भाग संकीर्णता, बिखराव व जड़ता का शिकार होने से यह राजनीतिक चुनौती स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत ही नहीं है।
21.
दलित जातियों के संपन्न व मध्य वर्ग के लिए भी जाति भेद के विरोध का सवाल पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर ही उपलब्ध अवसरों की होड़ में अपने-अपने प्रतिनिधित्व के हितों की हिफाजत के जनवादी अधिकार का मुद्दा है जिसे वह अपनी जाति की संख्या शक्ति के मोबीलाइजेशन के बल पर हासिल करना चाहता है। उसका स्टैंड स्पष्ट है कि वह पूंजीवादी लोकतंत्र के संविधान में जो अधिकार मिला है उतने तक ही खुद को सीमित रखेगा और संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण का अधिकार प्रतिनिधित्व का अधिकार है, गरीबी उन्मूलन से इसका कोई रिश्ता नहीं है। उनकी बात सही भी है। आरक्षण दलित मेहनतकशों की पूंजी के शोषण से मुक्ति का हल बिल्कुल नहीं है और यह शोषणमुक्ति इस आंदोलन का मुद्दा भी नहीं है। स्वाभाविक है कि पूंजीवादी दृष्टिकोण वाली मौजूदा जातिभेद विरोधी धारा भी दलित जातियों के मेहनतकशों की आरक्षण से पूरी न हो सकने वाली शोषणमुक्ति की न्यायसंगत आकांक्षा को आवाज देने में पूरी तरह गैरहाजिर है। इसके विपरीत आज की तारीख में जाति जनगणना के द्वारा जनसंख्या आधारित हिस्सेदारी के प्रोपगंडा में पड़कर वह जाति के मामले में रक्त शुद्धतावादी हो चला है जो आज फासीवाद के साथ साहचर्य का प्रस्थान बिंदु है। हाल में ही उपवर्गीकरण के बाद उठ खडी हुई बहस में उपवर्गीकरण की समर्थक जातियों के खिलाफ दलितों के ही तुलनात्मक रूप से अगडे हिस्से की ओर से ठीक वैसे ही जातिवादी लांछन लगाए गए जैसे सवर्णवादी लोग पूरे दलितों के आरक्षण के खिलाफ लगाते रहे हैं। जाहिर है यह सामाजिक न्याय की मौजूदा पूरी की पूरी नवोदित धारा ही इस बात के इनकार पर आधारित है कि गैर-द्विज या दलित सर्वहारा के बीच भी परस्पर एकता एकमात्र इसी आधार पर हो सकती है वे सभी के सभी उजरती मजदूर यानी पूंजी के गुलाम हैं। अगर ऐसा मानते हैं तो फिर जाति से परे समस्त सर्वहारा की एकता की बात आती ही आती है। जाहिर है, यह बात दलितवादी सहित सारी जातिवादी राजनीति के ठीक उलट और जातीय कंसोलिडेशन से लेकर रक्त शुद्धतावाद के नवफासीवादी विचारों के विपरीत है। यह संयोग की बात नहीं है कि जाति को मुख्य अंतर्विरोध की बात मानकर समाज बदलने यानी वर्गहीन समाज तक जाने की बात करने वालों में अधिकांश वैसे हैं जो वैज्ञानिक यानी भौतिकवादी-द्वंद्ववादी तरीके से सत्य तक पहुंचने या सत्य के संज्ञान को एक प्रोसेस के रूप में मानने से इनकार करते हैं और जाने-अनजाने एक ऐसे दलदल में जा फंसने के लिए अभिशप्त हैं जो आज की पूंजीवादी राजनीति का दलदल है।
22.
हालांकि पूंजीवाद नवउदारवाद द्वारा सृजित स्थिति में दलित जातियों के मेहनतकशों की तकलीफों तथा आकांक्षाओं का चरित्र बुनियादी रूप से वर्गीय है, पर मजदूर वर्ग की अगुआ शक्तियों द्वारा इन आकांक्षाओं को वर्गीय संघर्ष के रूप में आगे बढाने में नाकामी की वजह से इनकी अभिव्यक्ति पुराने जातीय दायरे में हो रही है। दलितों में भी तुलनात्मक रूप से पीछे रह गई जातियों की ओर से आरक्षण में उपवर्गीकरण की मांग ऐसी ही मांग है जिसके पीछे वास्तविक आकांक्षा मानवीय मर्यादा पूर्ण रोजगार की है, जो आरक्षण से या उसमें उपवर्गीकरण से कभी पूरी नहीं होगी। किंतु सशक्त क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन के अभाव में निम्न वर्ग चेतना के कारण यह आरक्षण में उपवर्गीकरण की मांग के रूप में सामने आ रही है, हालांकि उपवर्गीकरण से उन्हें कोई वास्तविक लाभ होने वाला नहीं है।
इस परिस्थिति में दलितों (पिछड़ों में भी) में आरक्षण का लाभ लेने में असमर्थ हिस्से को फासीवादी शक्तियों द्वारा अपनी चालों-साजिशों में फंसा कर इस्तेमाल करने और स्वयं वंचित जातियों के बीच परस्पर नफरत व वैमनस्य पैदा करने का मौका पैदा हो गया है। सवर्णवादी प्रतिक्रिया की मदद करने वाले आरएसएस की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के ऐसे प्रयोग विभिन्न राज्यों में पहले से होते रहे हैं। ठीक इसीलिए उप्र, बिहार, मप्र, राजस्थान, बंगाल, आंध्र-तेलंगाना, मणिपुर जैसे राज्यों का ही अनुभव बताता है कि सामान्य आलसी विश्लेषण के ठीक विपरीत दलित ओबीसी आरक्षण आधारित एकता संघ/बीजेपी की फासीवादी मुहिम में कोई अनुल्लंघनीय बाधा नहीं है और दलित/ओबीसी जातियों के अपने अंतर्विरोधों को बीजेपी ने अपने हित में इस्तेमाल करने की रणनीति का बहुधा कुशलता से प्रयोग किया है। उपवर्गीकरण की राजनीति भी उसके लिए ऐसा ही एक और मौका हैं।
इस परिस्थिति में यह आवश्यक है कि मजदूर वर्ग आंदोलन का क्रांतिकारी हिस्सा एवं सुसंगत जाति विरोधी आंदोलन न सिर्फ पूंजीवाद-फासीवाद द्वारा आरक्षण के जनवादी अधिकार पर सवर्णवादी दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया के हमले का सशक्त प्रतिरोध करे, बल्कि साथ ही मुख्यतः सवर्ण भूस्वामियों का मालिकाना एकाधिकार तोड़ने वाले कृषि भूमि सुधार, मेहनतकश जनता के लिए शहरी व ग्रामीण आवासीय व्यवस्था, सबके लिए समान सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, आदि की व्यवस्था, तथा आज के समयानुकूल न्यूनतम मानवीय मर्यादा वाले जीवन निर्वाह योग्य रोजगार की गारंटी अथवा बेरोजगारी भत्ता, आदि सवालों पर भी सशक्त जनसंघर्ष खडा करने में पूरी शक्ति से जुटे। इस संघर्ष के द्वारा ही विभिन्न जातियों के मेहनतकशों के बीच एकता गढने व जाति भावना को मिटाने का आधार तैयार होगा।
23.
क्या जाति अंतर्विरोध को प्रधान अंतर्विरोध मानकर जाति उन्मूलन का कार्यक्रम बनाया जा सकता है? यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि भारत में संघी हिंदुत्ववादी फासीवादी विचारधारा का आधार मनुस्मृति का जातिवादी विचार है। अतः जाति अंतर्विरोध मौजूदा भारतीय समाज का प्रधान अंतर्विरोध है या पूंजी-श्रम के अंतर्विरोध के समकक्ष प्रमुख अंतर्विरोध है, और इस जातिगत गोलबंदी के आधार पर ही हिंदुत्व फासीवाद का प्रतिरोध मुमकिन है। अगर इस तर्क को स्वीकार किया जाए तो जाति आधारित संगठन बनाना इसका तार्किक निष्कर्ष होगा। परंतु जब सभी जातियों में वर्ग विभेद स्पष्ट रूप से मौजूद हैं तो इन जाति संगठनों का नेतृत्व स्वाभाविक रूप से ही प्रत्येक जाति के ऊपरी बुर्जुआ संस्तर के पास होगा जो इन संगठनों को जाति पहचान के कंसोलिडेशन द्वारा अपनी राजनीतिक सौदेबाजी के लिए प्रयोग करेगा, न कि इन जातियों के मेहनतकशों की शोषण उत्पीड़न से मुक्ति के लिए संघर्ष करेगा।
यह सही है कि नीचे से क्रांतिकारी ढंग से भूमि सुधार न होने से भू मालिकाना मुख्यतः सामंती समाज के भूस्वामियों अर्थात सवर्ण जातियों के भूस्वामियों का ही रह गया और इनका ही एक हिस्सा पूंजीपति बन गया। इस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के बाद भारतीय समाज के पूंजीपति शासक वर्ग और पुराने सामंती समाज के शासक सवर्ण जातियों में बहुत हद तक एक अतिच्छादन (overlap) मौजूद है। इसी वजह से पूंजीवादी संकट के असमाधेय होने के कारण उभरी मौजूदा फासिस्ट मुहिम में भी सवर्णवादी प्रतिक्रिया की एक बड़ी भूमिका है।
किंतु तथ्य यह भी है कि मात्र अल्पसंख्यक सवर्णों की प्रतिक्रिया के आधार पर कोई फासिस्ट मुहिम कामयाब नहीं हो सकती। अतः भाजपा-संघ ने इस मुहिम में पूंजीवादी विकास से सभी जातियों में बन चुके ऊपरी बुर्जुआ व मध्य वर्गीय संस्तर को बड़ी दूर तक सहयोजित कर लिया है। सभी जातियों में जाति संगठन खड़े किए गए हैं जो जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक अन्याय उत्पीड़न के विरोध के बजाय अपनी जातियों के किन्हीं महान वीर शासकों के गौरवशाली अतीत का बखान करते है और उन प्रतीकों के आधार पर अपनी जातियों की जनता को फासिस्ट मुहिम में शामिल करने के लिए प्रयासरत हैं। इस प्रक्रिया में पूंजीपति वर्ग की धनशक्ति के बल पर सभी जातियों में अति शोषण-उत्पीड़न की घोर हताशा की वजह से पैदा होने वाले एक लंपट हिस्से को फासिस्ट मुहिम में इस्तेमाल किया जाता है। भाजपा-संघ ने अपनी इस शातिर सोशल इंजीनियरिंग के जरिए जातिगत अंतर्विरोधों के बावजूद एक बहुसंख्यक हिंदुत्ववादी पहचान कायम कर ली है जिसे अन्यीकृत अल्पसंख्यक मुस्लिमों के बरक्स नफरती मुहिम में इस्तेमाल किया जा रहा है। इस तथ्य को नजरअंदाज करना वास्तविकता से मुंह चुराना होगा।
जाति को प्रधान अंतर्विरोध मानकर की गई जाति आधारित गोलबंदी व पहचान का कंसोलिडेशन कभी भी जाति उन्मूलन कार्यक्रम का आधार नहीं बन सकते। बल्कि यह फासिस्टों को स्वयं दलित पिछडी जातियों में मौजूद पूर्वाग्रहों तथा आरक्षण व अन्य संसाधनों के जाति आधारित बंटवारे के आधार पर परस्पर नफरत व वैमनस्य फैलाने का मौका देगा, जिसके बहुत से उदाहरण पहले ही मौजूद हैं। आरक्षण में उपवर्गीकरण इसकी ही एक ताजा बानगी है। शोषितों-उत्पीडितों के बीच पैदा की गई ऐसी आपसी होड़ हमेशा से ही शासक वर्ग के पास अपने प्रभुत्व को कायम रखने का अत्यंत कारगर उपाय रहा है यह इतिहास हमें सिखाता है।
इसके बरक्स जाति उन्मूलन के किसी भी कार्यक्रम का आधार वही मुद्दे हो सकते हैं जो विभिन्न जातियों की मेहनतकश बहुसंख्या के बीच एकजुटता का आधार बन सकते हों। ठोस वर्ग हितों की बुनियाद पर कायम इस एकजुटता के आधार पर ही विभिन्न जातियों के मेहनतकशों के मध्य मौजूद पूर्वाग्रहों के खिलाफ संघर्ष चलाने, परस्पर होड़ की गुंजाइश खत्म करने और जाति पहचान को कमजोर करते हुए शोषक तंत्र के खिलाफ फौलादी एकता बनाने की ओर बढा जा सकता है जो जातिभेद की भावना को मिटाने की राह बनायेगी।
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अतः निजी संपत्ति और वर्ग भेद पर आधारित जातियों के उन्मूलन का कार्यक्रम मात्र सर्वहारा वर्ग का क्रांतिकारी कार्यक्रम ही हो सकता है, क्योंकि मात्र सर्वहारा वर्ग ही निजी संपत्ति और वर्ग भेद को समाप्त करने का कार्यक्रम ले सकने वाला इतिहास का एकमात्र वर्ग है। सर्वहारा वर्ग पूंजीवाद विरोधी क्रांति को तभी मजिल पर पहुंचा सकता है जब उसके शोषण मुक्ति के कार्यक्रम में समाज के सभी वर्गों की शोषण मुक्ति का कार्यक्रम शमिल हो और वह पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध सभी उत्पीड़ित वर्गों/समुदायों का नेतृत्व हासिल कर सके या कम से कम उन्हें पूंजीपति वर्ग का सहयोगी बनने से रोक सके। अतः सर्वहारा वर्ग के समाजवादी क्रांति के कार्यक्रम के लिए ही मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जाति उन्मूलन का क्रांतिकारी कार्यक्रम एक अनिवार्य आवश्यकता है।
मजदूर वर्ग राजनीति के नजरिए से मात्र वह सवाल जाति-उन्मूलन कार्यक्रम का आधार बन सकते हैं जो एक ओर खुद वंचित जातियों की जनता के लिए आरक्षण की आवश्यकता को ही समाप्त करने की ओर बढ़ सकें, तो दूसरी ओर गैर दलित सर्वहारा के साथ उनकी वर्गीय एकता भी कायम कर सकें, अर्थात मात्र कुछ सीमित अवसरों में समान क्षमता वालों की होड़ के बजाय सार्वत्रिक सार्वजनिक व्यवस्थाओं व अधिकारों की गारंटी के सवाल। इसके साथ जाति अत्याचारों के प्रतिरोध व प्रतिकार के लिए नौकरशाही पर निर्भरता के बजाय उत्पीड़ित जनता की पहलकदमी पर आधारित व्यवस्था जिसमें मजदूर वर्ग संगठन दलित जातियों के मेहनतकशों के साथ ही गैर दलित सर्वहारा को भी जुटाएं।
जाति व्यवस्था व इसके प्रतिरोध की धाराओं के उपरोक्त चरित्र के आधार पर जाति उन्मूलन के एक क्रांतिकारी कार्यक्रम का मकसद न सिर्फ जातिगत अत्याचार व श्रमिकों के विभाजन को निर्मूल करना होगा बल्कि इसकी अंतिम मंजिल श्रमिकों के विभाजन के मूल आधार श्रम विभाजन का ही उन्मूलन होगा अर्थात पुरुष-स्त्री, शारीरिक-मानसिक, शहरी-ग्रामीण, उद्योग-कृषि आदि के सभी सामाजिक श्रम विभाजनों को पूर्ण निर्मूल करना इसका अंतिम लक्ष्य होगा ताकि व्यक्ति व व्यक्ति के बीच शोषण व भेद का सम्पूर्ण आधार ही मिटा देना होगा।
25.
ऐसे क्रांतिकारी जाति-उन्मूलन कार्यक्रम में दो अनिवार्य हिस्से होंगे – एक, फौरी कार्यभार अर्थात मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में ही जातिगत भेदभाव व अत्याचार के खिलाफ जनवादी अधिकारों का संघर्ष; दो, क्रांतिकारी कार्यभार अर्थात जाति जैसे भेदभाव के पुनरूत्पादन करने वाली निजी संपत्ति का खात्मा जो पूंजीवादी व्यवस्था के क्रांतिकारी उन्मूलन के द्वारा स्थापित मजदूर वर्ग राज्य ही कर सकता है। यह मजदूर राज्य ही समाजवादी निर्माण द्वारा श्रम विभाजन की समाप्ति द्वारा जाति जैसे सभी भेदों को हमेशा के लिए कालातीत बना देगा। इन फौरी कार्यभारों में से कुछ सर्वाधिक महत्वपूर्ण की चर्चा हम यहां करेंगे, जिसमें प्रथम मजदूर आंदोलन का आंतरिक कार्य है और अन्य जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष से संबंधित हैं। यह कोई अंतिम सूची नहीं और इसमें अन्य कार्यभार जोड़े जा सकते हैं।
जाति उन्मूलन कार्यक्रम के फौरी कार्यभार
1. मजदूर वर्ग आंदोलन में जाति पूर्वाग्रह से संघर्ष
मजदूर वर्ग के सभी संगठनों व आम तौर पर पूरे मजदूर वर्ग में जाति पूर्वाग्रहों (सवर्णवादी पूर्वाग्रहों) व भेदभाव के खिलाफ अथक व बिना समझौता संघर्ष – सवर्णवादी पूर्वाग्रह की हर अभिव्यक्ति की पहचान, पड़ताल और उसे सख्ती से मिटाने का सक्रिय कार्यक्रम और दलितवादी पूर्वाग्रह को मिटाने हेतु धैर्यपूर्वक वर्ग चेतना का प्रसार व राजनीतिक शिक्षा।
2. जाति उत्पीड़न के प्रतिकार का अधिकार
जाति अत्याचार के प्रतिरोध एवं दंड की व्यवस्था को मौजूदा पुलिस-अदालत की नौकरशाही पर भरोसे के दायरे में सीमित न रख इस प्रतिरोध को उत्पीड़ित जनता की सामूहिक पहलकदमी/कार्रवाई पर आधारित करने के लिए सभी स्थानों पर इस संघर्ष हेतु आवश्यक संघर्ष के सामूहिक मंच (स्थानिक/पेशागत जन पंचायत) गठित करना जो जाति अत्याचार के प्रत्येक रूप (सार्वजनिक सुविधाओं-अधिकारों से वंचित करना, छुआछूत, हत्या, बलात्कार, मार-पीट से लेकर अन्तर्जातीय विवाहों में बाधा, आदि) पर संबंधित पक्षों की सुनवाई और दोष निर्धारण की जनवादी पद्धति और इसके फौरी प्रतिकार के सभी सामाजिक व वैधानिक उपायों को सुनिश्चित करें। इस व्यवस्था को जनवादी अधिकार के रूप में स्वीकृति के लिए संघर्ष चलाना होगा। ऐसी व्यवस्था ही जाति अत्याचार के खिलाफ एक सशक्त सामाजिक प्रतिरोध के उभार का आधार बन सकती है जो ऐसे अत्याचार करने वालों में इसके परिणाम का समुचित भय उत्पन्न करे।
3. कृषि भूमि – समान वितरण नहीं, समाजीकरण
जनवादी क्रांति के चरण में क्रांतिकारी भूमि सुधार जाति उन्मूलन की दिशा में एक अहम अग्रगामी कदम होता। यह भी सही है कि भू संपदा का कुछ जातियों के हाथ में केंद्रित होना आज भी जातिगत अत्याचारों में एक प्रमुख कारक है और सबसे भयानक जातिगत जुल्म आज भी ग्रामीण भूमिहीन खेत व अन्य मजदूरों के साथ ही होते हैं। मजदूरी की दर, काम की दशाओं और मजदूरी के भुगतान का सवाल इनमें प्रमुख भूमिका अदा करता है, परंतु इसे जाति का रूप देकर मुख्यतः सवर्ण भूस्वामियों-धनी किसानों के लिए एक ओर तो अपने पक्ष में जातिगत मोबीलाइजेशन करना आसान होता है, दूसरी ओर, दलित जातियों की जीविका पर भूमि आधारित हमला उन्हें झुकाने का मजबूत उपाय बन जाता है।
अतः भू मालिकाने पर सवर्ण भू स्वामियों का नियंत्रण समाप्त करना जरूरी है। किंतु इस हेतु समान भूमि वितरण की मांग आज एक प्रतिगामी मांग है जो दलित जातियों के सर्वहारा को जमीन के इन छोटे-छोटे टुकड़ों की गुलामी में बांध देना होगा जो उन्हें कंगाली के सिवा कुछ नहीं दे सकते। मौजूदा पूंजीवादी कृषि में पूँजी निवेश व लाभप्रदता मुख्य सवाल बन चुका है जिसमें छोटी जोत का कोई भविष्य नहीं। जिन मजदूरों को जमीन के यह छोटे टुकड़े मिलेंगे उन्हें यह पूरे परिवार की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी भूख और दरिद्रता के सिवा कुछ नहीं देंगे क्योंकि न तो उनके पास इतनी पूंजी होगी, और ऊंचे सूद पर कर्ज लेकर पूंजी लगाने के बाद भी ये छोटी जोत लाभकारी न होने से ये टुकड़े उन्हें कर्जदार बनाकर जलद ही उनके हाथ से निकल जाएंगे, एवं इनमें से बहुतों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देंगे। आज भू मालिकाने पर कुछ जातियों के भू स्वामियों का नियंत्रण समाप्त करने हेतु सटीक व उपयुक्त मांग कृषि व आवासीय भूमि सहित समस्त भू संपदा का बिना मुआवजा राष्ट्रीयकरण है। इसके बाद इस कृषि भूमि पर श्रम करने वालों को उनके श्रम के अनुपात में उत्पाद में हिस्सेदारी के आधार पर सामूहिक/सहकारी फार्म विकसित करना ही उपयुक्त है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था और जीवन में छोटे स्तर के उत्पादन व सभी सामंती अवशेषों को मिटाने की दिशा में ठोस कदम होगा।
4. ग्रामीण आवासीय भूमि का समान वितरण व सभी के लिए आवास की गारंटी
ग्रामीण आवासीय भूमि के पूर्ण समाजीकरण द्वारा गांव के सभी निवासियों की पारिवारिक जरूरत के अनुपात में आवास के लिए आबंटित करना ही अग्रगामी कदम होगा।
5. शहरी आवास में जातिगत भेदभाव – सभी आवासीय संपत्ति का समाजीकरण
शहरी क्षेत्रों में भी आवास के मामले में जाति-धर्म आधारित भेदभाव बड़ी समस्या है। किंतु ‘हृदय परिवर्तन’ शैली का नैतिक उपदेश आधारित जाति भेद मिटाओ अभियान इसका कोई समाधान नहीं है। इसका समाधान हर परिवार की जरूरत के एक आवास के अतिरिक्त सभी आवासीय संपत्ति का बिना मुआवजा पूर्ण राष्ट्रीयकरण और आवश्यकतानुसार न्यूनतम भाड़े पर आबंटन है। जहां इसके बाद भी कमी हो वहां इस सार्वजनिक भूमि पर सार्वजनिक आवासीय निर्माण और आवश्यकता मुताबिक आबंटन ही जाति-धर्म एवं अन्य भेदभाव को मिटाने का जरिया है।
6. सार्वत्रिक सार्वजनिक सुविधाओं (आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, मनोरंजन) की गारंटी का अधिकार
सीमित सार्वजनिक सुविधाओं/व्यवस्थाओं में आबादी के अनुपात में भागीदारी जनवादी प्रतीत होने वाला मगर विशिष्टता का विचार है जो इन सुविधाओं को एक सीमित संख्या के लिए रिजर्व करता है। खास तौर पर नवउदारवादी पूंजीवाद द्वारा व्यापक निजीकरण-व्यवसायीकरण के दौर में यह विशेषाधिकार प्राप्त आबादी के बीच इन विशेषाधिकारों की हिस्सेदारी के फॉर्मूले का संघर्ष है, इन विशेषाधिकारों की समाप्ति का नहीं। समाज में सामंती अवशेषों और संपत्ति व प्रभुत्वशाली अभिजात्य के प्रिविलिज को मिटाने हेतु स्कूली एवं उच्च शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं, यातायात, खेल-मनोरंजन, आदि सभी क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से समान सुलभ सार्वत्रिक सार्वजनिक व्यवस्थाओं का होना आवश्यक है। खास तौर पड़ोस के स्कूल की व्यवस्था (neighbourhood schools) अर्थात सभी के लिए बिना किसी भेद और रियायत के पड़ोस के समान स्कूल में शिक्षा व नाश्ता-मध्याह्न भोजन की अनिवार्य व्यवस्था होना जरूरी है। इससे ही प्रभुत्वशाली तबकों/जातियों के मौजूदा सामाजिक विशेषाधिकारों की समाप्ति मुमकिन है जो समाज के सर्वांगीण जनवादीकरण के लिए आवश्यक है।
7. साल भर रोजगार गारंटी व जीवन निर्वाह योग्य न्यूनतम मजदूरी
बढ़ती बेरोजगारी और गिरती मजदूरी सभी मजदूरों को प्रभावित करती है लेकिन दबे-कुचले समुदायों की मेहनतकश जनता को सर्वाधिक। यह उन्हें बहुत से जातिगत अन्याय को बिना प्रतिकार सहन करने के लिए विवश करती है, जैसे सिर पर मैला ढोने या सीवर में उतरने का अमानवीय काम इनकी जिंदा रहने की विवशता बना हुआ है और बिना न्यूनतम मजदूरी के पूंजीपतियों को इन कार्यों के यंत्रीकरण की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। अतः रोजगार गारंटी और न्यूनतम मजदूरी दबे-कुचले समुदायों की जनता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल है।
8. विवाह-तलाक के अबाध निजी अधिकार हेतु संघर्ष
वर्तमान पर्सनल कानून में पुलिस-न्यायपालिका की भूमिका इन्हें इसका नियामक बना प्रतिगामी सामाजिक शक्तियों का सहायक बनाए हुए है। विवाह व तलाक प्रत्येक स्त्री-पुरूष का अपनी निजी रूचि व निर्णय से किया जाने वाला अबाध जनवादी अधिकार होना चाहिए जिसमें राज्य की भूमिका अनुमति/अड़चन की नहीं मात्र एक पंजीयक की हो अर्थात वह वयस्क स्त्री-पुरूष के इस संबंधी निर्णय को मात्र रजिस्टर करे।
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मजदूर वर्ग वह वर्ग है जिसका ऐतिहासिक मिशन निजी संपत्ति आधारित वर्ग शोषण की व्यवस्था को निर्मूल कर वर्ग विहीन समाज के निर्माण करना है। इस ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने हेतु मजदूर वर्ग को निजी संपत्ति व वर्ग भेद पर आधारित सभी प्रकार के जुल्म से सभी उत्पीडितों की मुक्ति के कार्यभार को पूरा करना जरूरी है। अपने इस ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने हेतु देश व दुनिया के मजदूरों की वर्ग चेतना आधारित फौलादी एकता अनिवार्य पूर्वशर्त है। मेहनतकश जनता में जाति आधारित पूर्वाग्रह, होड़, नफरत, वैमनस्य तथा उत्पीड़न इस वर्ग एकता की राह में बडी अडचन हैं। अतः सभी प्रकार के उत्पीड़न के साथ ही साथ जाति उत्पीड़न से मुक्ति का कार्यक्रम मजदूर वर्ग के शोषणमुक्ति के क्रांतिकारी कार्यक्रम का अभिन्न अंग है।
आज दलित व गैर-दलित मेहनतकशों की एकता के इस दुर्गम कार्य को हर हाल में पूरा करना ज़रूरी है। वर्गीय उत्पीड़न का शिकार पूरी मेहनतकश आबादी होती है पर दलित मेहनतकश आबादी साथ में जातिगत उत्पीड़न का भी अतिरिक्त शिकार होती है। क्योंकि जातिवादी उत्पीड़न वर्गीय उत्पीड़न को कायम रखने के लिए ही किया जाता है, इसलिए इसके खिलाफ संघर्ष भी सिर्फ दलितों का नहीं पूरी मेहनतकश आबादी का साझा संघर्ष बनता है। इस साझा संघर्ष को तोड़ने के लिए जातिवादी अहंकार जगाने वाले वृत्तांत गढ़कर तथाकथित सवर्ण जातियों के मेहनतकशों को दलित मेहनतकशों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है। अतः जातिवादी नफरत-अहंकार को बनाए रखना शासक वर्गों के लिए बेहद जरूरी है। यह मजदूर वर्ग की एकता को तोड़ने का एक पैना हथियार है। और ठीक इसीलिए गैर दलित जातियों के मेहनतकशों को जाति-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष व प्रतिरोध हेतु सचेत व खड़ा करना बेहद जरूरी है तभी वर्ग उत्पीड़न के विरुद्ध साझा संघर्ष भी सशक्त होगा।
जातिवादी अहंकार, नफरत व भेदभाव के खिलाफ लड़ाई का एक अहम पहलू समाज में जारी विचारधारात्मक संघर्ष है। आज हमारे समाज की रग-रग में पूंजीवाद का प्रतिक्रियावादी विचारधारात्मक दबदबा कायम है। इसने न केवल मध्ययुगीन पिछड़े सामंती मूल्यों को ही सीने से लगाकर रखा है बल्कि पूंजीपति वर्ग की समस्त आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक, विभिन्न किस्म के मीडिया की प्रचारात्मक शक्ति से इन प्रतिगामी मूल्यों को बढ़ावा भी दे रहा है। इसका मुकाबला करने के लिए जरूरी है कि जवाब में मजदूर वर्ग का विचारधारात्मक दबदबा स्थापित किया जाए। हर किस्म के पिछड़े सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ लड़ाई इस विचारधारात्मक संघर्ष का ज़रूरी हिस्सा बनती है। बेशक आर्थिक लड़ाइयों व उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध में हमारी शानदार विरासत रही है, लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ेपन से मुकाबला करने के लिए इतना ही काफी नहीं है। मौजूदा दौर में विचारधारात्मक संघर्ष के लिए हमें आगे बढ़कर वर्गीय नजरिए से चीजों का विश्लेषण व उसका प्रचार करना होगा। मजदूर वर्ग विश्व के सभी भौतिक और आत्मिक मूल्यों का सृजनकर्ता होने के कारण, इतिहास का सबसे उन्नत वर्ग है। मजदूर वर्ग की एकता के आधार पर ही दलितों पर बढ़ रहे हमले और जातिवादी भेदभाव के खिलाफ सशक्त ढंग से लड़ा जा सकता है।
इस बात पर जोर देना बेहद जरूरी है कि जातिवादी कोढ़ और जातिगत अहंकार के खिलाफ संघर्ष सिर्फ दलितों का ही नहीं पूरी मेहनतकश आबादी का साझा संघर्ष है। जैसे मार्क्स ने अमरीकी श्रमिकों को कहा था, ‘गोरी खाल वाले श्रमिक तब तक खुद को मुक्त नहीं कर सकते जब तक काली खाल पर गुलामी का दाग मौजूद है’ ठीक उसी तरह भारत के गैर दलित जातियों के मेहनतकशों के बीच इस चेतना का प्रचार-प्रसार अत्यंत जरूरी है कि जातिगत उत्पीड़न से दलित मेहनतकशों की मुक्ति के लिए सभी मेहनतकशों का साझा संघर्ष पूंजीवादी शोषण से उनकी अपनी मुक्ति के संघर्ष का अनिवार्य, अविच्छिन्न अंग है, उनकी अपनी मुक्ति की पूर्वशर्त है। जातिगत, पितृसत्तात्मक, अंधराष्ट्रवादी, इलाकाई, भाषाई अर्थात हर प्रकार के दमन के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ सभी मेहनतकशों की विशाल एकता बन सकेगी जिससे इंसान के हाथों इंसान की लूट से रहित समाजवादी समाज की स्थापना का मेहनतकशों का सपना साकार होगा जिसमें समाज के हर व्यक्ति को जीवन के हर क्षेत्र और हर स्तर पर बिना भेदभाव के हिस्सेदारी व अपना योगदान देने का पूर्ण अवसर हासिल होगा।
[1] Handbook on social welfare statistics, New Delhi, Government of India, Ministry of Social Justice and Empowerment, 2016 and 2024, p. 389 and p. 393. Quoted in https://m.thewire.in/article/politics/caste-versus-hindutva-again
[2]https://www.telegraphindia.com/amp/india/price-of-dalit-business-owners-16-less-income-study-shows-impacts-of-social-stigmatisation/cid/2040322
[3] रिजर्व बैंक, हैंडबुक ऑफ स्टेटिस्टिक्स ऑन द इंडियन ईकानमी 2022-23
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