✒️ एम. असीम | ‘सर्वहारा’ #57 (16 अगस्त 2024)
गुजरे जुलाई महीने की खुदरा महंगाई दर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 3.54% घोषित की गई है। जून महीने में यह दर 5.08% बताई गई थी। इसके बाद से सरकारी व निजी पूंजीपतियों के सभी प्रचार माध्यमों में महंगाई कम होकर 5 साल में सबसे कम हो जाने का जबरदस्त प्रचार किया जा रहा है। लेकिन मजदूर साथियों को अपने तजुर्बे से देखना चाहिए कि क्या वास्तव में उनके जीवन में महंगाई कम हो गई है? अगर नहीं तो सरकार महंगाई दर में यह कमी का दावा आखिर किस आधार पर कर रही है उसकी असलियत जानना हमारे लिए जरूरी है।
पहली बात तो यह है कि महंगाई कम होने का प्रचार अपने आप में ही एक साफ झूठ है। सरकारी महंगाई दर कम होने का मतलब भी यह नहीं होता कि महंगाई कम हो गई। इसका मतलब सिर्फ इतना होता है कि महंगाई तो अभी भी बढ़ ही रही है अर्थात दाम तो बढ़ ही रहे हैं, बस महंगाई या दाम बढ़ने की रफ्तार थोड़ी सी कम हो गई है।
साथ ही हमें यह भी समझना चाहिए कि यह महंगाई दर कम होने या दाम बढ़ने की रफ्तार कम होने में कितनी सच्चाई है और इसका अर्थ क्या है। सरकारी आंकड़े जारी करने वाले आखिर इसका हिसाब जिस फॉर्मूले के आधार पर लगाते हैं उसका हमारे द्वारा बाजार में असल खरीदारी से संबंध कैसे होता है? इसके लिए हम एक उदाहरण लेते हैं।
अगर किसी वस्तु की कीमत पहले साल 5 रू हो, फिर अगले साल 1 रू बढ़कर दाम 6 रू हो जाएं तो महंगाई दर कितनी होगी? यह महंगाई दर 1×100/5=20% होगी। अगली बार इस 6 रू की कीमत पर 1.10 रू और बढ़कर कीमत 7.10 रू हो जाए तब महंगाई दर 1.10×100/6=18.33% ही होगी। अर्थात दाम पहले से भी ज्यादा बढ़े पर महंगाई दर कम हो गई। इसका मतलब कैसे समझें?
इसका मतलब है कि बाजार में चीजें खरीदने के असली दाम या खरीदार के लिए वास्तविक महंगाई अब पिछली बार से भी अधिक बढ़ी है फिर भी महंगाई दर का % कम हो गया है। इसे गणित में हाई बेस इफेक्ट या उच्च आधार प्रभाव कहते हैं। इसका अर्थ है कि अगर एक साल महंगाई खूब तेजी से बढ़े तो अगले साल उससे थोड़ा ज्यादा दाम बढ़ने पर भी % में महंगाई दर कम निकलती है। इसे ही सरकारी व निजी पूंजीवादी मीडिया प्रचार में महंगाई कम होना कहा जाता है, जैसे जुलाई महीने की महंगाई दर में कमी की घोषणा और 5 साल में महंगाई सबसे कम होने का मीडिया प्रचार है। पर वास्तविक जीवन में हम जानते हैं कि इन 5 सालों में महंगाई कितनी बढ़ी है और जीवन कितना मुश्किल हो गया है।
असल बात यह है कि जब हम दुकान पर कोई भी जरूरी वस्तुएं खरीदने जाते हैं तो ये % वाली महंगाई दर नहीं चीजों के असली दाम ही हमारी जेब की परीक्षा लेते हैं। अर्थात सरकार की ओर से यह महंगाई दर दिखाकर महंगाई कम होने का कितना भी प्रचार किया जाए पर बाजार में सामान खरीदते वक्त पता चलता है कि दाम तो पहले के मुकाबले और भी ज्यादा बढ़ गए हैं और अब मजदूर अपनी उसी मजदूरी में पहले से भी कम आटा, चावल, तेल, दाल, नमक, सब्जी, दूध, फल, आदि खरीदने में सक्षम रह गया है। अब उसे अपने खाने में और भी अधिक कटौती करना मजबूरी बन गई है। अब वह खुद या उसके परिवार में कोई बीमार हो तो दवा खरीदने की उसकी क्षमता पहले के मुकाबले और भी कम हो गई है। अर्थात सरकारी महंगाई दर कितनी भी कम क्यों न हो गई हो पर मजदूर के लिए तो महंगाई कम होने के बजाय और भी बढ़ गई है।
सरमायेदार सरकार, पूंजीपतियों का मीडिया और उनके भाड़े के बुद्धिजीवियों, विशेषज्ञों तथा प्रचारकों के लिए महंगाई बस गणित के आंकड़ों का खेल है। उसके जरिए वे दिखा देते हैं कि महंगाई कम हो गई है। पर मेहनतकश अवाम की जिंदगी में महंगाई दर नहीं, जरूरी वस्तुओं के दाम ही असल चीज हैं जो सरकारी महंगाई घटने से भी घटते नहीं। इसलिए मेहनतकशों के लिए महंगाई बस एक आंकड़ा नहीं है, महंगाई उनके लिए बढ़ती तकलीफों का ऊंचा होता जाता पहाड़ है, महंगाई उनके लिए भोजन में कटौती है, महंगाई उनके लिए अधभूखे कुपोषित बच्चे हैं, महंगाई उनके लिए बिना इलाज के दर्द से तड़पते, दम तोड़ते बीमार परिजन हैं।
वैसे भी महंगाई मजदूरों-मेहनतकशों के लिए अन्य लोगों से अधिक घातक है क्योंकि वे अपनी थोड़ी सी आय का एक तिहाई से आधा हिस्सा सिर्फ भोजन पर खर्च करते हैं और महंगाई के सरकारी आंकड़ों को देखें तो पिछले सालों में जो महंगाई बढ़ी है उसका मुख्य भाग खाद्य पदार्थों के दामों में भारी वृद्धि है। गत नवंबर से तो कुल महंगाई में खाद्य सामग्री की महंगाई का योगदान 60-70% है, जबकि महंगाई दर की गणना करने में खाद्य पदार्थों को मात्र 40% वजन दिया जाता है। इसका मतलब है कि भोजन सामग्री के दाम अन्य वस्तुओं की तुलना में डेढ़ से दोगुना रफ्तार से बढ़ रहे हैं। वैसे अब सरकार यह भी विचार कर रही है कि महंगाई दर की गणना में खाद्य पदार्थों की कीमतों का वजन 40% से घटाकर 30% ही कर दिया जाए। इससे सरकार महंगाई की कमी के और ज्यादा दावे कर सकेगी।
मजदूरों की तुलना में अमीरों व मध्य वर्ग को देखें तो पहले तो उन्हें अपनी सारी आमदनी खर्च नहीं करनी पड़ती और वे उसमें से एक बड़ा हिस्सा बचा लेते हैं। दूसरे, उनके खर्च में भी खाद्य सामग्री का हिस्सा काफी कम होता है, अन्य औद्योगिक वस्तुओं का हिस्सा अधिक होता है। अतः महंगाई, खासतौर पर खाद्य पदार्थों की महंगाई, उन पर इतना बुरा असर नहीं डालती जितना मजदूरों मेहनतकशों पर डालती है क्योंकि उनकी मजदूरी तो उतनी ही होती है जिससे वे न्यूनतम स्तर पर जिंदा रह सकें और इसमें से भी लगभग आधा हिस्सा वे भोजन पर खर्च करते हैं। इसलिए महंगाई की असल मार मेहनतकशों पर पड़ती है जबकि पूंजीपति इस महंगाई से भी लाभ कमा लेते हैं। इसीलिए पूंजीपति वर्ग के बुद्धिजीवी महंगाई को आवश्यक बताते हैं। पर मजदूर वर्ग के लिए तो जरूरी है कि वह अपनी वर्गीय एकता को और मजबूत कर बढ़ती महंगाई के खिलाफ संघर्ष तेज करे।